कश्मीर को इस हालात में आने देने से रोका जा सकता था। झेलम का पानी जिस खामोशी से समूचे कश्मीर को ही डूबो गया उसे रोका जा सकता था। घाटी के हजारों गांव पानी में जिस तरह डूब गये उन्हें बचाया जा सकता था। यह ऐसे सवाल हैं जो आज किसी को भी परेशान कर सकते है कि अगर ऐसा था तो फिर ऐसा हुआ क्यों नहीं। असल में सबसे बड़ा सवाल यही है कि चार बरस पहले ही जम्मू कश्मीर की फ्लड कन्ट्रोल मिनिस्ट्री ने इसके संकेत दे दिये थे कि आने वाले पांच बरस में कश्मीर को डूबोने वाली बाढ की तबाही आ सकती है । फरवरी में बाढ़ नियतंत्र मंत्रालय की तरफ से ने बकायदा एक रिपोर्ट तैयार की गई थी। जिसे घाटी से निकलने वाले ग्रेटर कश्मीर ने 11 फरवरी 2010 में छापी भी थी । और उस वक्त कश्मीर में तबाही के संकेत की बात सुनकर कश्मीर से लेकर दिल्ली तक सरकारे हरकत में आयी जरुर लेकिन जल्द ही सियासी चालों में सुस्त पड़ गयी। उस वक्त बाढ़ नियंत्रण विभाग के अधिकारियों ने माना था कि बाढ़ की स्थिति इतनी भयावह हो सकती है कि समूचा कश्मीर डूब जाये। बकायदा डेढ़ लाख क्यूसेक पानी नदी से निकलने का जिक्र किया गया था। और संयोग देखिये फिलहाल करीब पौने दो लाख क्यूसेक पानी कश्मीर को डुबोये हुये है। रिपोर्ट के मुताबिक इसकी आशंका चार बरस पहले ही जता दी गयी थी कि कश्मीर पूरी तरह कट जायेगा। जम्मू-श्रीनगर रास्ता बह जायेगा। हवाई अड्डे तक जाने वाली सड़क भी डूब जायेगी। और कमोवेश हालात वहीं है जिसका जिक्र चार बरस पहले की रिपोर्ट में किया गया था। सवाल सिर्फ वैसे ही हालात के होने भर का नहीं है बल्कि ऐसे हालात ना हो इसके लिये बाढ़ नियंत्रण विभाग ने बकायदा दस्तावेजों का बंडल ट्रक में भरकर दिल्ली भेजा।
सारी रिपोर्ट जल संसाधन मंत्रालय पहुंची भी। लेकिन सारी रिपोर्ट बीते चार बरस में सड़ती रही। क्योंकि उस वक्त जम्मू कश्मीर के बाढ़ नियंत्रण मंत्रालय ने केन्द्र से 2200 करोड रुपये के बजट की मांग की थी। जिसे 500
करोड़ रुपये की किस्ता के हिसाब से देने को कहा गया। जिससे बाढ़ नियंत्रण के बेसिक इन्फ्रास्ट्रक्चर को खड़ा करने के लिये काम शुरु हो सके। लेकिन तब की केन्द्र मे मनमोहन सरकार ने मार्च के महीने में 109 करोड़ रुपये देने का भरोसा भी दिया। लेकिन ना दिल्ली से कोई बजट श्रीनगर पहुंचा। ना जम्मू-श्रीनगर सरकार इस दौर में कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर बना पायी जिससे बाढ़ को रोका जा सके। हुआ इसका उलट । बीते दस बरस में कश्मीर में कोई ऐसी जगह बची ही नहीं जहां से बाढ़ का पानी बाहर निकल सके। बेमिना जैसी जगह तो बाढ़ के लिये स्वर्ग बन गयी क्योंकि यहा रिहायशी और व्यवसायिक इमारतों ने समूची जमीन ही घेर ली । यानी बाढ़ की जिस त्रासदी का अंदेशा चार बरस पहले किया गया। उस पर आंख मूंदकर कश्मीर को जन्नत का नूर बनाने का सपना देखने वालों ने कभी महसूस ही नहीं किया कि अगर ऐसा होगा तो फिर ऐसा नजारा भी सामने होगा जब कश्मीर के आस्त्तिव पर ही सवालिया निशान लग जायेगा। जमीन पानी पानी और आसमान ताकती कातर निगाहें पीने के पानी के लिये तरसेंगी। लेकिन पहली बार यह सवाल भी खड़ा हुआ है कि क्या वाकई वक्त के साथ इस तरह की आपदा से निपटने की क्षमता खत्म होती जा रही है क्योंकि 1902 में पहली बार कश्मीर बाढ़ की गिरफ्त में फंसा। उसके 57 बरस बाद 1959 में घाटी इस बुरी तरह बाढ़ से घिरी की तब कश्मीर के लिये अग्रेंजों से मदद मांगी गई। और अब यानी 2014 के हालात तो सबके सामने हैं। तो पहला सवाल कमोवेश हर 55 बरस के बाद कश्मीर बाढ की त्रासदी से घिरा है। दूसरा सवाल बाढ़ से निपटने के लिये पहली बार 2014 में ही सरकार बेबस नजर आ रही है। या फिर कोई तकनीक है ही नहीं कि कश्मीर के लोगो की जान कैसे बचायी जाये।
तो क्या कश्मीर के बचाव को लेकर सरकार के हालात बीसवी सदी से भी बुरे हो चले हैं। यह सवाल इसलिये बड़ा है क्योंकि इससे पहले 1959 में जब कश्मीर में बाढ़ आयी थी तब समूची घाटी पानी में डूब गयी थी। उस वक्त कश्मीर सरकार के पास बाढ़ से बचने के कोई उपाय नही थे तो तत्कालिक सीएम गुलाम मोहम्मद बख्शी ने अग्रेजो से मदद मांगी थी। और तब इग्लैंड के इंजीनियरों ने झेलम का पानी शहर से दूसरी दिशा में मोड़ने के लिये वुल्लहर तक जमीन और पहाड़ को भेद डाला। इसके लिये बकायदा भाप के इंजन का इस्तेमाल किया गया। असल में 1948 में आयी बाढ ने ही कश्मीर को आजादी के बाद पहली चेतावनी दी थी । और तब प्रधानमंत्री नेहरु ने कश्मीर सरकार को ही बाढ़ से निपटने के उपाय निकालने की दिसा में कदम बढ़ाने को कहा था। और उसी के बाद शेख अब्दुल्ला की पहल पर ब्रिटिश इंजीनियरों ने श्रीनगर के पदशाही बाग से वुल्लहर तक करीब 42 किलोमिटर लंबा फ्लड चैनल बनाया गया। जिससे बाढ़ का पानी शहर से बाहर किया जा सके। असर इसी का हुआ कि राजबाग का जो इलाका आज पानी में पूरी तरह डूबा हुआ है और हेलीकाप्टर से राहत देने के अलावे सरकार के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है वहीं 55 बरस पहले अंग्रेंजों की तकनीक से राजबाग में बाढ़ का पानी आने के बावजूद जान-माल की कोई हानि नहीं हुई। लेकिन बीते पचास बरस में बाढ की त्रासदी से निपटने की दिशा में कोई काम तो हुआ नहीं उल्टे पेड़ों की कटाई और पहाड़ों को गिराकर जिसतरह
रिहाइश शुरु हुई और इसी आड में व्यवसायिक धंधे ने निर्माण कार्य शुरु किया असर उसी का है कि मौजूदा बाढ के वक्त समूचे कश्मीर की जमीन ही बाढ़ के लिये बेहतरीन जमीन में बदल चुकी है। घाटी के सारे फ्लड चैनल बंद हो चुके हैं।
झेलम की जमीन नादरु नंबल, नरकारा नंबल और होकारसर पर रिहायशी कालोनिया बन गयी हैं। यहां तक की श्रीनगर विकास अथराटी ने भी फ्लड चैनल पर शापिंग काम्पलेक्स खोल दिया है। यानी कश्मीर जो आज बाढ की बासदी से कराह रहा है उसके पीछे वहीं अंधी दौड़ है जो जमीनों पर कब्जा कर मकान या दुकान बनाने को ही सबसे बडा सुकुन माने हुये है। और हर कोई इसे आपदा मान कर खामोश है और गुनहगारो की तरफ कोई देखने को तैयार नहीं है।
भारतीय सेना ने जो मेहनत करके कश्मीरियों की जान बचाकर उनके दिल में स्पेस बनाया होगा उस स्पेस को शून्य में बदल देने का काम ये नेट पर बैठी हिन्दू कठमुल्लाओं की सेना ( सुना हे की पेड़ ? ) बखूबी कर रही हे अभी सिर्फ लोगो की जान बची हे लाखो का जीवन बर्बाद हो गया हे उसे फिर से पटरी पर लाना बहुत बड़ी हिमालयी चुनौती हे मगर ये शैतान हिन्दू कठमुल्ला एहसान एहसान मानो कर करके इन बर्बाद लोगो की छाती पर चढ़े हुए हे एक तो सच्चे एहसान करने वाले लोग जताते नहीं हे फिर केसा एहसान जब हम कश्मीर को अपना अभिन्न अंग मानते हे तो ? अब चुनाव भी सर पर हे अफ़ग़ान से अमेरिका जा रहा हे आई एस की मुसीबत सर पर हे चीन अपनी बदमिजाजी छोड़ने का कोई इरादा नहीं दिखा रहा हे साफ़ हे की ये हिन्दू कठमुल्ला और इनकी फेवरिट सरकार भारत के लिए खतरा बनती जा रही हे याद रहे की हिन्दू कठमुल्लाओं के बस का कुछ नहीं हे ये सिर्फ मुह्जोरी कर सकते हे और किसी उग्र भीड़ का हिस्सा बन कर मासूम लोगो पर अत्याचार कर सकते हे और कुछ नहीं