(अगर भारत माता की स्वतंत्रता के लिए क़ुरबान हो जाना ही देशभक्ति की कसौटी है तो संघ परिवारी तो उस पर चढ़े भी नहीं, खरे उतरने की तो बात ही नहीं है.)
….अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों के लिए वंदेमातरम् का गाना अनिवार्य करने की मांग संघ परिवारियों की ही रही है. ये वही लोग हैं जिनने उस स्वतंत्रता संग्राम को ही स्वैच्छिक माना है जिसमें से वंदेमातरम् निकला है. अगर भारत माता की स्वतंत्रता के लिए क़ुरबान हो जाना ही देशभक्ति की कसौटी है तो संघ परिवारी तो उस पर चढ़े भी नहीं, खरे उतरने की तो बात ही नहीं है. लालकृष्ण आडवाणी ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता कि राष्ट्रभक्ति का कोई प्रतीक स्वैच्छिक हो. तो फिर आज़ादी की लड़ाई के निर्णायक ”भारत छोड़ो आंदोलन” के दौरान वे खुद क्या कर रहे थे? उनने खुद ही कहा है- ”मैं संघ में लगभग उन्हीं दिनों गया जब भारत छोड़ो आंदोलन छिड़ा था क्योंकि मैं मानता था कि कॉग्रेस के तौर-तरीक़ों से तो भारत आज़ाद नहीं होगा. और भी बहुत कुछ करने की ज़रूरत थी.” संघ का रवैया यह था कि जब तक हम पहले देश के लिए अपनी जान क़ुरबान कर देने वाले लोगों का मज़बूत संगठन नहीं बना लेते, भारत स्वतंत्र नहीं हो सकता. लालकृष्ण आडवाणी भारत छोड़ो आंदोलन को छोड़कर करांची में आरम-दक्ष करते देश पर क़ुरबान हो सकने वाले लोगों का संगठन बनाते रहे. पांच साल बाद देश आज़ाद हो गया. इस आज़ादी में उनके संगठन संघ- के कितने स्वयंसेवकों ने जान की क़ुरबानी दी? ज़रा बताएं.
एक और बड़े देशभक्त स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी हैं. वे भी भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बच्चे नहीं संघ कार्य करते स्वयंसेवक ही थे. एक बार बटेश्वर में आज़ादी के लिए लड़ते लोगों की संगत में पड़ गए. उधम हुआ. पुलिस ने पकड़ा तो उत्पात करने वाले सेनानियों के नाम बताकर छूट गए. आज़ादी आने तक उनने भी देश पर क़ुरबान होने वाले लोगों का संगठन बनाया जिन्हें क़ुरबान होने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि वे भी आज़ादी के आंदोलन को राष्ट्रभक्ति के लिए स्वैच्छिक समझते थे.
अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने को देशभक्तों का महान संगठन कहे और देश पर जान न्योछावर करने वालों की सूची बनाए तो यह बड़े मज़ाक का विषय है. सन् १९२५ में संघ की स्थापना करने वाले डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार को बड़ा क्रांतिकारी और देशभक्त बताया जाता है. वे डॉक्टरी की पढ़ाई करने १९१० में नागपुर से कोलकाता गए जो कि क्रांतिकारियों का गढ़ था. हेडगेवार वहां छह साल रहे. संघवालों का दावा है कि कोलकाता पहुंचते ही उन्हें अनुशीलन समिति की सबसे विश्वसनीय मंडली में ले लिया गया और मध्यप्रांत के क्रांतिकारियों को हथियार और गोला-बारूद पहुंचाने की ज़िम्मेदारी उन्हीं की थी. लेकिन ना तो कोलकाता के क्रांतिकारियों की गतिविधियों के साहित्य में उनका नाम आता है न तब के पुलिस रेकॉर्ड में. (इतिहासकारों का छोड़े क्योंकि यहां इतिहासकारों का उल्लेख करने पर कुछ को उनकी निष्पक्षता पर सवाल खड़ा करने का अवसर मिल सकता है) खैर, हेडगेवार ने वहां कोई महत्व का काम नहीं किया ना ही उन्हें वहां कोई अहमियत मिली. वे ना तो कोई क्रांतिकारी काम करते देखे गए और ना ही पुलिस ने उन्हें पकड़ा. १९१६ में वे वापस नागपुर आ गए.
लोकमान्य तिलक की मृत्यु के बाद वे कॉग्रेस और हिन्दू महासभा दोनों में काम करते रहे. गांधीजी के अहिंसक असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलनों में भाग लेकर ख़िलाफ़त आंदोलन के वे आलोचक हो गए. वे पकड़े भी गए और सन् १९२२ में जेल से छूटे. नागपुर में सन् १९२३ के दंगों में उनने डॉक्टर मुंजे के साथ सक्रिय सहयोग किया. अगले साल सावरकर का ”हिन्दुत्व” निकला जिसकी एक पांडुलिपी उनके पास भी थी. सावरकर के हिन्दू राष्ट्र के सपने को साकार करने के लिए ही हेडगेवार ने सन् १९२५ में दशहरे के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की. तब से वे निजी हैसियत में तो आज़ादी के आंदोलन और राजनीति में रहे लेकिन संघ को इन सबसे अलग रखा. सारा देश जब नमक सत्याग्रह और सिविल नाफ़रमानी आंदोलन में कूद पड़ा तो हेडगेवार भी उसमें आए लेकिन राष्टीय स्वयंसेवक संघ की कमान परांजपे को सौंप गए. वे स्वयंसेवकों को उनकी निजी हैसियत में तो आज़ादी के आंदोलन में भाग लेने देते थे लेकिन संघ को उनने न सशस्त्र क्रांतिकारी गतिविधियों में लगाया न अहिंसक असहयोग आंदोलनों में लगने दिया. संघ ऐसे समर्पित लोगों के चरित्र निर्माण का कार्य कर रहा था जो देश के लिए क़ुरबान हो जाएंगे. सावरकर ने तब चिढ़कर बयान दिया था, ”संघ के स्वयंसेवक के समाधि लेख में लिखा होगा- वह जन्मा, संघ में गया और बिना कुछ किए धरे मर गया.”
हेडगेवार तो फिर भी क्रांतिकारियों और अहिंसक असहयोग आंदोलनकारियों में रहे दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर तो ऐसे हिन्दू राष्ट्रनिष्ठ थे कि राष्ट्रीय आंदोलन, क्रांतिकारी गतिविधियों और ब्रिटिश विरोध से उनने संघ और स्वयंसेवकों को बिल्कुल अलग कर लिया. वाल्टर एंडरसन और श्रीधर दामले ने संघ पर जो पुस्तक द ब्रदरहुड इन सेफ़्रॉन- लिखी है उसमें कहा है, ”गोलवलकर मानते थे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर पाबंदी लगाने का कोई बहाना अंग्रेज़ों को न दिया जाए.” अंग्रेज़ों ने जब ग़ैरसरकारी संगठनों में वर्दी पहनने और सैनिक कवायद पर पाबंदी लगाई तो संघ ने इसे तत्काल स्वीकार किया. २९ अप्रैल १९४३ को गोलवलकर ने संघ के वरिष्ठ लोगों के एक दस्तीपत्र भेजा. इसमें संघ की सैनिक शाखा बंद करने का आदेश था. दस्तीपत्र की भाषा से पता चलता है कि संघ पर पाबंदी की उन्हें कितनी चिंता थी- ”हमने सैनिक कवायद और वर्दी पहनने पर पाबंदी जैसे सरकारी आदेश मानकर ऐसी सब गतिविधियां छोड़ दी हैं ताकि हमारा काम क़ानून के दायरे में रहे जैसा कि क़ानून को मानने वाले हर संगठन को करना चाहिए. ऐसा हमने इस उम्मीद में किया कि हालात सुधर जाएंगे और हम फिर ये प्रशिक्षण देने लगेंगे. लेकिन अब हम तय कर रहे हैं कि वक़्त के बदलने का इंतज़ार किए बिना ये गतिविधियां और ये विभाग समाप्त ही कर दें.” (ये वो दौर था जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस जैसे क्रांतिकारी अपने तरीक़े से संघर्ष कर रहे थे) पारंपरिक अर्थों में गोलवलकर क्रांतिकारी नहीं थे. अंग्रेज़ों ने इसे ठीक से समझ लिया था.
सन् १९४३ में संघ की गतिविधियों पर तैयार की गई एक सरकारी रपट में गृह विभाग ने निष्कर्ष निकाला था कि संघ से विधि और व्यवस्था को कोई आसन्न संकट नहीं है. १९४२ के भारत छोड़ो आंदोलन में हुई हिंसा पर टिप्पणी करते हुए मुंबई के गृह विभाग ने कहा था, ”संघ ने बड़ी सावधानी से अपने को क़ानूनी दायरे में रखा है. खासकर अगस्त १९४२ में जो हिंसक उपद्रव हुए हैं उनमें संघ ने बिल्कुल भाग नहीं लिया है.” हेडगेवार सन् १९२५ से १९४० तक सरसंघचालक रहे और उनके बाद आज़ादी मिलने तक गोलवलकर रहे. इन बाईस वर्षों में आज़ादी के आंदोलन में संघ ने कोई योगदान या सहयोग नहीं किया. संघ परिवारियों के लिए संघ कार्य ही राष्ट्र सेवा और राष्ट्रभक्ति का सबसे बड़ा काम था. संघ का कार्य क्या है? हिन्दू राष्ट्र के लिए मर मिटने वाले स्वयंसेवकों का संगठन बनाना. इन स्वयंसेवकों का चरित्र निर्माण करना. उनमें ऱाष्ट्रभक्ति को ही जीवन की सबसे बड़ी प्रेरणा और शक्ति मानने की परम आस्था बैठाना. १९४७ में जब देश आज़ाद हुआ तो देश में कोई सात हज़ार शाखाओं में छह से सात लाख स्वयंसेवक भाग ले रहे थे. आप पूछ सकते हैं कि इन एकनिष्ठ देशभक्त स्वयंसेवकों ने आज़ादी के आंदोलन में क्या किया? अगर ये सशस्त्र क्रांति में विश्वास करते थे तो अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ इनने कितने सशस्त्र उपद्रव किए, कितने अंग्रेज़ों को मारा और उनके कितने संस्थानों को नष्ट किया. कितने स्वयंसेवक अंग्रेज़ों की गोलियों से मरे और कितने वंदेमातरम् कहकर फांसी पर झूल गए? हिन्दुत्ववादियों के हाथ से एक निहत्था अहिंसक गांधी ही मारा गया.
संघ और इन स्वयंसेवकों के लिए आज़ादी के आंदोलन से ज़्यादा महत्वपूर्ण स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र के लिए संगठन बनाना और स्वयंसेवक तैयार करना था. संगठन को अंग्रेज़ों की पाबंदी से बचाना था. इनके लिए स्वतंत्र भारत राष्ट्र अंग्रेज़ों से आज़ाद कराया गया भारत नहीं था. इनका हिन्दू राष्ट्र तो कोई पांच हज़ार साल से ही बना हुआ है. उसे पहले मुसलमानों और फिर अंग्रेज़ों से मुक्त कराना है. मुसलमान हिन्दू राष्ट्र के दुश्मन नंबर एक और अंग्रेज़ नंबर दो थे. सिर्फ़ अंग्रेज़ों को बाहर करने से इनका हिन्दू राष्ट्र आज़ाद नहीं होता. मुसलमानों को भी या तो बाहर करना होगा या उन्हें हिन्दू संस्कृति को मानना होगा. इसलिए अब उनका नारा है- वंदे मातरम् गाना होगा, नहीं तो यहां से जाना होगा. सवाल यह है कि जब आज़ादी का आंदोलन- संघ परिवारियों के लिए स्वैच्छिक था तो स्वतंत्र धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत में वंदेमातरम् गाना स्वैच्छिक क्यों नहीं हो सकता? भारत ने हिन्दू राष्ट्र को स्वीकार नहीं किया है. यह भारत संघियों का हिन्दू राष्ट्र नहीं है. वंदेमातरम् राष्ट्रगीत है, राष्ट्रीयता की कसौटी नहीं.
(साभार- जनसत्ता, MARCH 10, 2008)
कठमुल्लावाद और कटरपंथ किसी भी किस्म का हो वो एक घिनोनी विचारधारा तो बनता ही हे अब देखे आम आदमी के भी बच्चे आई ए ए बन सके इसके लिए लाठिया डंडे जेल भुगत रहे लड़को के विषय में एक संघी ब्लॉगर — गुप्ता जी के विचार पढ़े क्या बकवास करते हे की पहले क्यों नहीं विरोध किया ( यानी गुप्ता जी चाहते हे की पहले विरोध करते ताकि मोदी जी अपने कानफोड चुनाव प्रचार में इसे भी चीख चीख कर इसे भी मुद्दा बनाते और दो तिहाई बहुमत पीट लेते ) भला बताइये जब अब जाकर कन्फर्म हो गया की इससे आम बच्चो का नुक्सान हे और खास का फायदा तभी तो विरोध किया हे
कोंग्रेस जाकर भाजपा सरकार तो बननी ही थी इसमे कोई हर्ज़ भी नही था लोकतंत्र मे यही ठीक भी है लेकिन ये किसी ने खुद मोदी जी ने भी सपने में नहीं सोचा होगा की भाजपा को बहुमत मिल जाएगा इसके लिए संघ की चतुराई की तारीफ भी करनी पड़ेगी कॉमनवेल्थ घोटाले के बाद जब 2011 अप्रैल अन्ना जंतर मंतर सफल हुआ तो फिर अन्ना अगस्त क्रांति हुई जिसने कांग्रेस की साख बिल्कुल ही मिटटी में मिला दी तब ही मेरे पत्रकार मित्र —– कुमार ने मुझे बताया था की ये पूरा अन्ना आंदोलन संघ ही शहर शहर मोहल्ला गाव गाव पंहुचा रहा है तो में हैरान हो गया था क्योकि ऊपर से तो संघ कही नहीं दिख रहा था यानि संघ ने पहले इतना बड़ा अन्ना आंदोलन खड़ा किया फिर टीम अन्ना में फुट आना केजरीवाल के अलग होने के बाद मोदी जी को आगे कर दिया गया जो पहले ही साम्परदायिक हिन्दुओ के फेवरिट थे भ्रष्टाचार विरोध साम्पार्यिकता और कॉर्पोरेट का कॉकटेल हुआ और अन्ना आंदोलन की सारी मलाई चाट डाली गयी तो क्या लोग सही कहते थे की अन्ना संघ के ही आदमी हे ? अन्ना केजरीवाल को न छोड़ते तो कौन जाने आप 100 नहीं तो 50 सीट तो जीत ही लेती फिर मोदी सरकार आप के रहमो करम पर रहती जैसे पहली यु पी ए सरकार कॉमरेड हरकिशन सिंह सुरजीत के रहमो करम पर थी जो बहुत अच्छा ही रहता बहुत अफ़सोस जो कुछ हुआ
लेकिन कोई बात नहीं जो हुआ सो हुआ वक्त अच्छा हो या बुरा बीत ही जाता हे केजरीवाल निश्चय ही गलतियों से सबक सीख वापसी करेंगे आमीन http://www.bhadas4media.com/state/delhi/897-kejr-jantar-mantar.html
एक और संघी मक्कारी देखिये एक संघी ब्लॉगर लिखते हे की जिन चीज़ो की महगाई हो रही हे उन्हें मत खाओ ( यानी फ़र्ज़ कीजिये घर महंगे हे तो मत खरीदो जाओ पेड़ पर रहो ) याद रखिये की एक साल पहले इन्ही जिंसों की महगाई पर ( इसी महगाई से कांग्रेस विधानसभा चुनाव हार थी और उसके ताबूत में कील ठुकी थी ) तब यही संघी ब्लॉगर इन्ही जिंसों की महगाई को जनता के जीवन मरण का पर्शन बता रहे थे खेर ये मक्कार लोग चाहे जितने हाथ पैर मार ले चाहे जितनी साम्प्रदायिकता की आग पैदा कर ले मोदी जी के बुलबुले को फूटने से नहीं बचा पाएंगे
प्रभाष जोशी, मनोहर शायं जोशी, सही राम, पुष्पेश पंत , खुशवंत सिंह , इन सभी वरिष्ट पत्रकारो मे प्रभाष जोशी का जवाब नही, इन के बाद इस तरह की . देखने को फिर नही मिली. भारत के लिये प्रभाष जोशी जैसे पत्रकार की आवशकता है. आज कल तो 95 % अच्छे . लाने मे लगे हुए है.
लेकिन देखिये अफज़ल भाई की प्रभाष जी कोई नास्तिक वाम या समाजवादी लेखक नहीं थे बल्कि एक कर्मकांडी ब्राह्मण थे फिर भी वो संघ वी एच पी बज़रंग दाल की खूब खबर लेते थे ये कर्मकांडी ब्राहमण प्रभाष जी कहते थे की भारत न कभी हिन्दू राष्ट्र था न हे न कभी होगा और हमारे यहाँ हाल देखिये क्या हे की पढ़े लिखे मुस्लिम भी कठमुल्लाओं के खिलाफ चू नहीं करना चाहते हे
उपमहादीप में एक बड़ी समस्या और आन पड़ी हे की अब हिन्दू मुस्लिम साम्प्रदायिकता कठमुल्लवाद कटट्रपंथ और इनका प्रचार केवल सनक और खब्त का ही मसला नहीं रह गए हे बल्कि इनसे राज़नीति और सत्ता की लड़ाई ही नहीं बल्कि और भी लाखो लोगो – लाखो हिन्दू मुस्लिम आदि का कॅरियर का मसला हो गया हे इसमें उनका रोज़गार हे हित हे एन आर आई से लेकर अरब देशो से होने वाली उगाही हे बेहद जटिल हालात हे और अपने रोज़गार पर कोई आंच किसी को बर्दाश्त नहीं होती हे सो समझाने बुझाना भी आसान नहीं हे बहुत कठिन हालात
घ की उपलब्धि यह है की देश मे कट्टर हिन्दूवादी राष्ट्रवाद को जन्म देके, मुस्लिम लीग के दो कौमी नजरिये को मजबूत किया, और देश का बंटवारा हुआ. मुस्लिम लीग को इन्हे धन्यवाद देके निशाने पाकिस्तान से नावजना चाहिये.