BY – हेमंत कुमार झा
हिन्दी पट्टी के नौजवानों से अधिक शोषित और ठगा जाने वाला समुदाय कौन है दुनिया में, इस पर बहस हो सकती है। उनमें बेरोजगारी की दर सबसे अधिक है, उनमें से अधिकतर ऐसे हैं जो ग्रेजुएट होने के बाद भी किसी काम के लायक नहीं बन सके, क्यंकि जो शिक्षा उन्हें मिली या मिल रही है उसमें गुणवत्ता का नितांत अभाव है। बाहरी तौर पर देखने से लगता है कि वे राजनीतिक तौर पर जागरूक हैं, लेकिन वास्तविकता इससे ठीक उलट है। उनमें से अधिकतर को माहौल ने ऐसे ठस दिमाग नौजवानों में तब्दील कर दिया है जो अपनी जड़ें काटने वालों की विरुदावली गाने में ही मगन हैं।
दुनिया में सबसे तीव्र गति से उनकी जनसंख्या बढ़ रही है क्योंकि सरकारों ने जनसंख्या नियंत्रण की योजनाओं पर अधिक ध्यान देना बंद कर दिया है। कंपनी की शर्त्तों पर काम करने के लिये मजदूरों की भीड़ नहीं लगे तो शोषण आसान कैसे हो! इसके लिये उनकी जन्मदर पर अंकुश लगाना कारपोरेट हितों के खिलाफ है।मोटे तौर पर हिन्दी पट्टी में तीन श्रेणियों के नौजवान हैं। पहला, जो संपन्न और पढ़े-लिखे घरों में जन्मे। उनकी अच्छी परवरिश और शिक्षा पर शुरू से ही ध्यान दिया गया। तो, बनते-बिगड़ते भी वे ऐसे रहे कि हाशिये पर नहीं गए। अच्छी नौकरियों, चाहे सरकारी हो या प्राइवेट, पर इन्हीं का वर्चस्व है। जो नौकरी में नहीं गए वे किसी व्यवसाय या फिर ‘बाबू साहबी’ टाइप की किसानी में लग गए।
दूसरा तबका वह है जो निम्न मध्यवित्त परिवारों से आते हैं। बचपन से ही इनके अभिभावक इनके दिमाग में भरते हैं कि पढ़ने-लिखने से ही जीवन संवरेगा। लेकिन, सबके पास अच्छी और ऊंची पढाई का टैलेंट नहीं होता। जिनमें यह टैलेंट होता है उनमें से अधिकतर को यह अवसर ही नहीं मिलता, क्योंकि जिस स्कूल और कॉलेज में उनकी पढ़ाई होती है उसकी शिक्षा और परीक्षा का स्तर सरकारों ने जान बूझ कर बर्बाद कर दिया है। उद्भिज की तरह उनमें से कुछ नौजवान निकलते हैं जो अपने परिश्रम और टैलेंट के बल पर अच्छी नौकरियों में जगह बना पाते हैं। बाकी, या तो महानगरों में मजदूरी करने चले जाते हैं या अपने गांव-इलाके में ही कोई छोटा-मोटा काम करते हैं, या फिर…ज़िन्दगी की जीवंतता को नष्ट कर देने वाली बेरोजगारी झेलते, इधर-उधर भटकते डिप्रेशन के शिकार होते रहते हैं।
तीसरी और सबसे बड़ी जमात उन नौजवानों की है जो बाकायदा निर्धन तबके से आते हैं, जिनके अभिभावक दैनिक मजदूरी और सस्ते सरकारी राशन वाली कैटेगरी के हैं। इनके मां-बाप को ढेर सारे बच्चे पैदा करने में कोई गुरेज नहीं रहता। इसलिये इनकी संख्या बढ़ती ही चली जा रही है। इनकी दुर्दशा का कोई अंत नहीं। ये जन्म ही लेते हैं मजदूर बनने के लिये। भले ही खिचड़ी और सरकारी छात्रवृत्ति आदि के लिये ये स्कूलों में नामांकित होते हैं लेकिन इनमें से बड़ी संख्या ऐसी है जिनका पढाई-लिखाई से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं रहता। अधिकतर स्कूली स्तर पर ही पढाई छोड़ देते हैं। अगर इनमें से कोई पढ़-लिख गया और अच्छी नौकरी में चला गया तो यह अखबारों में छपने लायक खबर बनती है।
चाहे संपन्न घर के हों या अति निर्धन तबके के…महंगा-सस्ता मोबाइल फोन अधिकतर के हाथों में है। भारत के बाजार की विविधता को देखते हुए कम्पनियों ने सस्ते रेंज के स्मार्टफोन की सीरीज निकाली है, जिसमें लटके-झटके वाले वीडियो का आदान-प्रदान आपस में होता रहता है। इतिहास की विकृत जानकारियों से भरे प्रायोजित मैसेजों का आना-जाना निरन्तर जारी रहता है, देश-दुनिया के बारे में भ्रामक धारणाओं का निर्माण करने वाले प्रायोजित मैसेजों की बहुतायत सबसे अधिक होती है।
मोबाइल क्रांति ने नौजवानों की सोच को गहरे तक प्रभावित किया है। प्रायोजित तरीके से इसका इस्तेमाल कर नौजवानों की सोच को खुद के हित-अहित के प्रति बेपरवाह बनाया गया है, विकृत बनाया गया है।इतिहास बोध वह अभागा अध्याय है जो सबसे अधिक प्रभावित हुआ है। टीवी सीरियलों ने जितना विकृत किया है इसे, उससे भी अधिक सोशल मीडिया के माध्यम से इसे विकृत किया गया है।
जवाहर लाल नेहरू, अकबर, गांधी जी आदि जैसे इतिहास पुरुषों के बारे में 15-20 साल पहले के नौजवानों की धारणाएं इतनी सतही और विकृत नहीं थीं, क्योंकि इनके संबंध में उनकी जानकारियां पाठ्य पुस्तकों के अतिरिक्त पत्र-पत्रिकाओं आदि पर आधारित थीं। लेकिन, आज वे व्हाट्सएप पर प्राप्त सामग्रियों से इतिहास पुरुषों को जानते हैं। जाहिर है, सत्ता अपनी दुरभिसंधियों में बहुत हद तक सफल हुई है।
आज के नौजवानों से जो सबसे कीमती और महत्वपूर्ण चीज छीनी जा रही है, वह है उनकी आन्दोलनधर्मिता, जो विकसित चेतना की उपज होती है।
यही कारण है कि हमारे समाज का जो आयु समूह सबसे अधिक शोषित और प्रताड़ित है, उसकी आन्दोलनधर्मिता कहीं खो गई लगती है।
हिन्दी पट्टी के नौजवानों की पहली ख्वाहिश आम तौर पर नौकरी ही होती है। उसमें भी सरकारी नौकरी। सरकारी न मिले तो प्राइवेट ही सही।
लेकिन,
अत्यंत सुनियोजित तरीके से सरकारी नौकरियों के अवसरों को पद खत्म करके निरन्तर संकुचित किया जा रहा है। रेलवे और बैंक आदि बड़ी संख्या में नौकरी प्रदाता रहे हैं, लेकिन, इनके निजीकरण की योजनाएं उन नौजवानों के सपनों पर सीधा प्रहार है जो वर्षों से अपने यौवन की ऊर्जा इससे संबंधित प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारियों में लगाते रहे हैं। अन्य विभागों की नियुक्तियों को भी यथासम्भव हतोत्साहित किया जा रहा है। नौजवान हताश हो रहे हैं।
श्रम कानूनों में संशोधन पर संशोधन करते हुए प्राइवेट नौकरियों की शर्त्तों को अमानवीयता की हद तक कम्पनी हितैषी बनाया जा रहा है।
परन्तु, इन सबसे प्रभावित नौजवान मोबाइल पर ऊल-जुलूल वीडियो, फालतू किस्म की जानकारियों से भरी सामग्रियां देखने में व्यस्त है। उनकी चेतना कुंद होती जा रही है जो उन्हें अपने सामूहिक हित-अहित से बेपरवाह बनाती है।
कुंद होती चेतना में आप सजग आन्दोलनधर्मिता के दर्शन कैसे कर सकते हैं?
नतीजा…कारपोरेट परस्ती के अश्वमेध का घोड़ा बेरोकटोक आगे बढ़ता जा रहा है और जिन्हें पूरी दृढ़ता से इसकी रास थामनी थी, वे इसकी जयजयकार में लगे इसके पीछे दौड़ रहे हैं।
विचारहीनता इनके स्वभाव में शामिल हो गई है। इसलिये, जो इनसे सजग चेतना संपन्न बनने की अपेक्षा रखते हैं, इनमें आन्दोलनधर्मिता जगाना चाहते हैं, समय की धारा को पलटने की सामर्थ्य रखने वाली इनकी मानसिक ऊर्जा को जागृत करना चाहते हैं, वे इनकी हंसी के पात्र बनते हैं, सोशल मीडिया पर इनके ट्रोल के शिकार बनते हैं।
पार्कों में, चौराहों पर, चाय की दुकानों पर जुटने वाली नौजवानों की अधिकतर टोलियां विचारहीनता का उत्सव मनाती हैं। उन्हें नहीं पता कि 40-45 की उम्र होते-होते ही वे वक्त और सिस्टम की सितमज़रीफी से बूढ़े हो जाने के मुकाम पर पहुंचने वाले हैं। उन्हें अहसास नहीं कि सिस्टम उन्हें अपना चेतनाहीन गुलाम बना रहा है।
जो नौजवान राजनीतिक चेतना से संपन्न हैं, तेजोमय व्यक्तित्व के स्वामी हैं, बोलने और प्रभावित करने की, अगुआ बनने की क्षमता रखते हैं उनकी तमाम संभावनाओं का हरण राजनीतिक दलों की छाया में पल रहे छात्र संगठन कर लेते हैं। इन संगठनों के लिये अपनी पार्टी का एजेंडा अधिक महत्वपूर्ण है, छात्रों के वास्तविक हित गौण हैं।
अगर ऐसा नहीं होता तो आज हर छात्र संगठन ‘नई शिक्षा नीति’ के उन प्रावधानों के खिलाफ आंदोलन की राह पर होता जो उनके नैसर्गिक और संवैधानिक अधिकारों के खिलाफ हैं।
अपने दादा, दादी, मां, बाप, भाई,बहन आदि को उचित इलाज के अभाव में तड़पते, मरते देखने के बाद भी जिनके मन में सार्वजनिक हेल्थ सिस्टम की बदहाली के खिलाफ प्रतिरोध की ज्वाला नहीं भड़कती, प्राइवेट अस्पतालों की खुली लूट का शिकार हो कर भी जिनकी चेतना हेल्थ सिस्टम के निजीकरण के खिलाफ खड़ी नहीं होती, उनसे इस सभ्यता को क्या उम्मीदें हो सकती हैं?
Hemant Kumar Jha
9tuShpoftnsuored ·
संघर्ष तो बाजार और विचारों के बीच है। ऐसा द्वंद्व, जो शताब्दियों से चल रहा है, विशेष कर यूरोप में हुई औद्योगिक क्रांति के बाद से, जब बाजार ने खुद के विस्तार के लिये, कच्चे माल और सस्ते श्रम के लिये मनुष्यता और सभ्यता के मौलिक सिद्धांतों को रौंदते हुए एक नई दुनिया रच डाली। ऐसी दुनिया, जहां लोग तो क्या, देश ही गुलाम हो गए। मनुष्यों की गुलामी से सदियों तक जूझने वाले विचारों के सामने अब पूरे के पूरे समाज, पूरे के पूरे देश की गुलामी थी।
विचार देशों की गुलामी के विरुद्ध खड़े हुए। एक ऐसी पीढ़ी ने जन्म लिया जिसने विचारों को सम्मान दिया, उनसे प्रेरणा ली, अनथक संघर्ष किया और गुलामी की जंजीरों को तोड़ फेंका। यूरोप के औद्योगिक देशों की गुलामी से एशिया और अफ्रीका के दर्जनों देश शताब्दियों के शोषण और उत्पीड़न के बाद महज एक दो दशकों के अंतराल में ही आजाद हो गए।
विचार जीते।
विचार लड़ते हैं, अंततः जीतते हैं, लेकिन बाजार फिर से नए रूप में आ जाता है, मनुष्य फिर से अपने अस्तित्व के लिये जूझने लगता है। विचार फिर से मनुष्यों के लिये आ खड़े होते हैं।
वो…जैसे वायरस के बारे में कहा जाता है कि वे रूप बदल कर आ जाते हैं, नए रूप में, अक्सर पहले से अधिक खतरनाक भी। वैज्ञानिक जुट जाते हैं इस नए रूप से मानवता को बचाने में। वैसे ही बाजार भी नए रूप में आ जाता है। पहले से अधिक अदृश्य शक्तियों से लैस, नैतिक रूप से अधिक पतित, अधिक क्रूर और खतरनाक…और…पहले से बहुत अधिक चतुर, चालाक।
नए रूप में आते ही बाजार ने पहला निशाना विचारों को ही बनाया। मनुष्य पर आधिपत्य बनाने के लिये विचारों को अप्रासंगिक बनाना जरूरी है। तो, बाजार के प्रवक्ताओं ने घोषणा कर डाली कि विचारों का अंत हो गया है। ऐसा कह कर बाजार खुद के लिये निर्बाध दुनिया बनाना चाहता था।
लेकिन, बाजार और मनुष्यों के बीच विचार फिर आ खड़े हुए।
इस बार बाजार पूरी तैयारी के साथ बाजारवाद की छाया में आया था। तकनीक का अद्भुत विकास एक बड़ी ताकत के रूप में उसके साथ था। उसने मनुष्यों के मस्तिष्क पर कब्जा जमाने की योजना बनाई।
मनुष्य, जो विचारों के वाहक हैं, जिनके लिये विचार हैं, बाजार ने सुचिंतित तरीके से उसी मनुष्य को विचारों से विमुख करना शुरू कर दिया।
यह अजीब सा विरोधाभास है कि शिक्षा के अकल्पनीय विस्तार के साथ ही विचारहीनता के संक्रमण का भी व्यापक प्रसार हुआ। इसके कई कारण रहे, किन्तु सबसे पहला कारण तो यही रहा कि बाजार के हाथों जाते शिक्षा तंत्र में मूल्यहीनता पसरती गई। शिक्षा के साथ जो मूल्य जुड़े होते हैं, वे बाजार के मूल्यों के साथ सह अस्तित्व की कल्पना कर भी नहीं सकते।
जाहिर है, मूल्यों से दूर होती शिक्षा ने ऐसी पीढ़ी की रचना की जिसके मन में विचारों के लिये अधिक सम्मान नहीं था।
मनुष्य न रह कर ऐसा उपभोक्ता बन जाना, जिसकी ललक कभी न मिटे, वह विचारों के प्रति कितना सम्मान रख पाएगा। अपरिग्रह, संतोष, सह अस्तित्व, संवेदना आदि जैसे शब्द, जो हमारी सभ्यता के मौलिक आदर्शों में थे, उपभोक्तावाद के आक्रामक प्रसार में अप्रासंगिक हो गए।
यह विचारों पर बाजार की बड़ी जीत थी कि उसने मनुष्य को उपभोक्ता में बदल डाला और उसमें उपभोग की असीमित ललक पैदा कर दी। मूल्यहीनता और संवेदनहीनता से समाज में त्राहि-त्राहि मच गई और बाजार यह सब देख कर विजयी भाव से मुस्कुराता रहा।
हमारे दौर पर हावी बाजारवाद स्वयं में कोई विचार नहीं, एक व्यवस्था है जिसका अपना स्वभाव है। यह जितना ताकतवर होता जाएगा, शोषण और छल के उतने ही आख्यान रचता जाएगा। यही हुआ भी। अर्थव्यवस्था को मुक्त करने, बाजार को अपनी गति से चलने देने के नाम पर श्रम कानूनों में बदलाव करके जीते जागते प्राणियों को उपकरणों में तब्दील कर दिया गया, पेंशन की छतरी को कामगारों के अन्य वर्गों तक पहुंचाने के बदले उसे भी बाजार के हवाले कर उस कंसेप्ट की ही हत्या कर दी गई, शिक्षा को अधिकाधिक बाजार के हवाले करते हुए निर्धनों के संवैधानिक अधिकारों का हनन किया जाने लगा। हर वह तरीका अपनाया जाने लगा जो बाजार की शक्तियों को ताकतवर बनाता हो और मनुष्य को कमजोर करता हो। बाजार के प्रभु दिग्विजयी मुद्रा में हैं, मनुष्यता पराजित मुद्रा में है और मनुष्य हितैषी विचार अप्रासंगिक होने के खतरों से जूझने लगे हैं।
लेकिन, विचार न मरते हैं, न निर्णायक रूप से हारते हैं। बाजार और विचारों का संघर्ष तब भी चल रहा है। विचारहीनता का उत्सव मनाते लोगों के बीच भी विचार ज़िन्दा हैं। फीनिक्स की तरह अपनी राख से भी जन्म लेकर, नई ऊर्जा के साथ नई उड़ानों की ओर।
बाजार ने मनुष्य को विचारहीन उपभोक्ता बनाया, राजनीति को अपने नियंत्रण में लेकर, लोकतंत्र को प्रहसन में तब्दील कर सत्ता को अपना मैनेजर बनाया, मीडिया पर अपना प्रभुत्व कायम कर उसे अपना चारण बनाया, सार्वजनिक जीवन के लोकप्रिय सितारों को अपना सेल्स एजेंट बनाया।
इतिहास में बाजार इतना शक्तिशाली कभी नहीं था। उसने दुनिया उलटनी-पलटनी शुरू कर दी। हर चीज में मुनाफा की तलाश, हर शै को गुलाम बनाने की ज़िद।
उसने विज्ञान को मानवता के हित की जगह अपने हितों की ओर मोड़ने की हर सम्भव कोशिश की। कला और शास्त्रीयता को सम्मान के साथ किसी आलमीरा में सजावट की वस्तु के रूप में स्थापित कर साइड कर देने का हर सम्भव षड्यंत्र किया, विचारकों को उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर याद करने की औपचारिकता तक सीमित करने का हर सम्भव प्रयास किया।
टेस्ट क्रिकेट की कला और उसकी शास्त्रीयता की जगह बाजार ने टी ट्वेंटी और अब टी टेन को जन्म दिया ताकि एक महान खेल को मुर्गों की लड़ाई में तब्दील कर उससे अकूत मुनाफा कूटा जा सके।
हर चीज जैसे उसकी जद में आती जा रही है। मनुष्य को मनुष्यता के ही विरुद्ध कर अपनी मनोवैज्ञानिक छाया में ले लेने की बाजार की कोशिशों का कोई अंत नहीं।
लेकिन…विचार मनुष्यता के पीछे खड़े हैं। वे बाजार के विरुद्ध नहीं, बाजारवाद के विरुद्ध हैं, उसके षड्यंत्रों के विरुद्ध हैं।
कोरोना पूर्व यूरोप में सत्ता और बाजार की जुगलबंदी के खिलाफ सड़कों पर उतरा जनसैलाब हो, उच्च शिक्षा के घोर व्यवसायीकरण के खिलाफ भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में छात्रों का आंदोलन हो या आज की तारीख में दिल्ली की सीमा पर कंपा देने वाली सर्दी में डेरा डाले किसानों का विशाल समूह हो…वे उम्मीद दिलाते हैं कि बाजार की अपराजेयता का मिथक टूट सकता है।
नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के प्रवक्ता बाजार की भाषा बोल रहे हैं। वे यही बोल ही सकते हैं क्योंकि बाजार भारत के विशाल और बेहद संभावनाशील कृषि क्षेत्र पर कब्जा करना चाहता है। यह तब तक नहीं हो सकता जब तक किसानों में किसानी ज़िन्दा रहेगी। बाजार इस किसानी को खत्म करना चाहता है और नए किस्म का कृषि परिदृश्य रचना चाहता है। ऐसा परिदृश्य, जिसमें बीज से लेकर फसल के दाने तक, जमीन से लेकर जमीन के मालिक तक उसके अनुसार सांसें लें, उसके मुनाफे के औजार बनें।
सत्ता बाजार के साथ है, विचार किसानों के साथ हैं।
पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि के जिन किसानों के साथ आज विचार खड़े हैं वही जब अपने खेतों में काम करने वाले पिछड़े इलाकों के मजदूरों का शोषण करते हैं तो विचार उन मजदूरों के साथ आ खड़े होते हैं।
विचार किसी व्यक्ति, किसी वर्ग, किसी व्यवस्था के लिये नहीं, मनुष्य और मनुष्यता के लिए खड़े होते हैं। यही कारण है कि मनुष्यता के विलोम पर खड़े बाजारवाद के लिये विचार एक चुनौती हैं।
बहुत कुछ बचाना है सभ्यता को इस निर्मम, सर्वग्रासी बाजारवाद से। शिक्षा को, इलाज को, किसानी को, श्रमिकों के अथक श्रम को, निर्धन बच्चों की संभावनाओं को, असहाय, निराश्रित वृद्धों की उम्मीदों को, रिश्तों की टूटती भावात्मक डोर को…पूरी दुनिया की मानवीय बुनावट को। अभी बाजार भारी पड़ रहा है क्योंकि उसने हमारी पीढ़ी को मूल्यहीन और विचारहीन बनाने में बहुत जतन किया है। तभी तो…सत्ता के खिलाफ खड़े होते हर व्यक्ति, हर समूह को संदेह की नजर से देखने की नई दृष्टि विकसित हुई है।
मनुष्यता को बचाये रखने की लड़ाई में विचारों का सिरा थामे रखने वाले लोगों को बाजारवाद से लड़ना है तो उन्हें सत्ता से जूझना होगा, मीडिया के कुप्रचार से लड़ना होगा, अपने ही लोगों की विचारहीनता का निशाना बनना होगा।
बाजार और बाजार प्रायोजित सत्ता की जुगलबंदी और अपने ही लोगों की ठस दिमागी से जूझते विचारवान लोग हारते भी जाएंगे तो विचारों का सिरा अगली पीढ़ी को थमाते जाएंगे। लड़ाई तो पीढ़ियों तक लड़नी होगी। एक किसान आंदोलन के सामने सत्ता की उखड़ती साँसों से अधिक उत्साहित होने की स्थिति नहीं है। जब तक अपने संवैधानिक अधिकारों के लिये छात्र और बेरोजगार युवा, अपने श्रम के वाजिब सम्मान और पारिश्रमिक के लिये श्रमिक और अपनी अस्मिता के लिये वंचित समुदाय उठ खड़े नहीं होंगे तब तक मनुष्यता इस क्रूर, संवेदनहीन, सर्वग्रासी बाजारवादी व्यवस्था से पार नहीं पा सकती।
कोरोना संकट को बाजारवादी शक्तियों ने बेलगाम होने के अवसर के रूप में इस्तेमाल किया है। यह प्रवृत्ति दुनिया की अनेक सरकारों में देखी गई, लेकिन भारत की सरकार को कुछ अधिक ही जल्दी है। जो सरकार बाजार की शक्तियों के जितने ही अधिक नियंत्रण में है, वह उतनी ही जल्दीबाजी में है। रेल के प्लेटफॉर्म से लेकर खेत की मिट्टी तक बाजार के नियंताओं के हवाले करने की यह आतुरता बताती है कि हम ऐसे दौर में पहुंच गए हैं जहां बाजार के मगरमच्छ हमारी नियति का निर्धारण करने की ताकत हासिल कर चुके हैं। बाजार और मनुष्य के इस द्वंद्व में विचार ही हमें बचाएंगे…मनुष्य के नैसर्गिक अधिकारों और उसकी गरिमा को बचाने वाले विचार।