by – – लव कुमार सिंह
पारसियों की घटती जनसंख्या के कारणों की पड़ताल के बीच जानिए ये रोचक तथ्य
जीव विज्ञान में अभी तक हम यही सुनते आए थे कि फलां पक्षी विलुप्त होने के कगार पर है या फलां जंतु विलुप्त हो चुका है। मनुष्यों के विभिन्न समुदायों या कौमों में से किसी के बारे में अभी तक ऐसा नहीं सुना गया था, लेकिन देश और दुनिया की बढ़ती आबादी के बीच एक कौम ऐसी है जिसकी जनसंख्या लगातार घट रही है और यही हाल रहा तो अगली सदी तक इस समुदाय का नामलेवा शायद कोई नहीं रहेगा। जी हां, यह समुदाय भारत का पारसी समुदाय है, जिसकी जनसंख्या बढ़ाने के लिए केंद्र सरकार को “जियो पारसी” नाम की योजना शुरू करनी पड़ी है। न सिर्फ सरकार बल्कि यूनेस्को ने भी पारसियों के संरक्षण के लिए पारसी-जोरोस्ट्रियन सांस्कृतिक परियोजना शुरू की है।
आबादी में 50 फीसदी की गिरावट
उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार 1941 में भारत में पारसी समुदाय के लोगों की जनसंख्या एक लाख चौदह हजार आठ सौ नब्बे थी। 1971 में यह 91 हजार छह सौ अठहत्तर रह गई। 2001 में यह 69601 थी तो 2011 की जनगणना के अनुसार अब उनकी संख्या मात्र 55 हजार ही रह गई है। यानी करीब 70 सालों में जनसंख्या में लगभग 50 फीसदी की गिरावट। यह बहुत चिंता का विषय है। आज दुनियाभर में पारसियों की संख्या एक लाख के आसपास है और इनमें से 55 हजार केवल भारत में ही रहते हैं। भारत में इनका मुख्य ठिकाना मुंबई और गुजरात में है।
ईरान से आए और दूध में शक्कर की तरह घुल गए
पारसी भारत के मूल निवासी नहीं हैं। आज जहां ईरान देश है, वहां एक समय पारसियों का महान पारसी साम्राज्य था। उनका तीन महाद्वीपों और 20 देशों पर शासन था, मगर धीरे-धीरे वक्त बदला और विभिन्न आक्रमणों में इनकी स्थिति कमजोर होती गई। एक समय ऐसा आया कि पारसियों के देश में धर्म परिवर्तन की लहर चल पड़ी और पारसियों को अपना देश छोड़ना पड़ा। विभिन्न समूहों में ये आज से करीब 1300 साल पहले भारत के पश्चिमी समुद्र तट पर पहुंचे। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार इनका पहला जत्था गुजरात के वलसाड़ में संजाण बंदरगाह पर उतरा था। उस समय वहां के स्थानीय राजा जादव राणा ने पारसियों की योद्धाओं जैसी कदकाठी देखकर उनके समूह के नेता को दूध से भरा कटोरा भिजवाया था, जिसका अर्थ था कि यहां उनके लिए कोई जगह नहीं है। इस पर समूह के नेता ने दूध में शक्कर मिलाकर राजा को कटोरा वापस भिजवाया जिसका अर्थ था कि हम यहां परेशानी का कारण नहीं बनेंगे बल्कि दूध में शक्कर की तरह घुल जाएंगे। समूह के नेता ने जैसा कहा था, वैसा ही हुआ और पारसी लोग भारतीयों के बीच दूध में शक्कर की तरह घुल गए। उन्होंने अपने अध्ययन और व्यापार पर जबरदस्त ध्यान लगाया और अपने हुनर और मेहनत से स्वयं अपनी और भारत की समृद्धि में खूब योगदान दिया।
पारसियों ने जीवन के हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। पारसियों ने ही देश में शेयर बाजार शुरू किया। उन्होंने ही कई बैंकों की स्थापना की। पारसियों ने ही नाटकों की शुरुआत भी की और उन्होंने ही कारोबार के क्षेत्र में नए-नए प्रतिमान स्थापित किए। आज जब हम पारसियों के दिग्गज व्यक्तियों की बात करते हैं तो दादा भाई नौरोजी, जमशेद जी टाटा, जनरल मानेक शॉ, जनरल एएन सेठना, नानी ए पालकीवाला, रूसी मोदी, फिरोजशाह मेहता, पीलू मोदी, सोहराब मोदी, होमी जहांगीर भाभा, फिरोज गांधी, सूनी तारापोरेवाला, भीकाजी कामा, गोदरेज, वाडिया, फ्रेडी मरक्यूरी, जुबिन मेहता, रोहिन्टन मिस्त्री और रतन टाटा जैसे बड़े नाम बरबस ही जुबान पर आ जाते हैं।
क्यों घटती चली गई जनसंख्या
पारसी भारत में आकर दूध में शक्कर की तरह तो घुल गए, मगर इसी के साथ उन्होंने अपनी मात्रा (जनसंख्या) भी दूध में शक्कर जितनी ही रखी। ऐसा इसलिए संभव हो सका कि जहां एक तरह यह समुदाय बेहद शांत, मिलनसार और उदार रहा, वहीं अपने धर्म को लेकर हद से ज्यादा कट्टर भी रहा है। पारसी समुदाय की कट्टरता भी कुछ अलग तरह की है। अन्य धर्मों में जहां दूसरे समुदायों के लोगों को अपने धर्म में शामिल करने की होड़ लगी रहती है वहीं पारसी समुदाय इसके बिल्कुल खिलाफ है। यह समुदाय किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति को अपने धर्म में प्रवेश की इजाजत नहीं देता।
पारसी समुदाय अपनी जेनेटिक शुद्धता को लेकर हद से ज्यादा सतर्क रहा है। यदि कोई पारसी युवती दूसरे समुदाय के युवक से शादी कर लेती है तो वह युवती पारसी समुदाय से बहिष्कृत हो जाती है। यदि युवती का पति पारसी धर्म अपनाना चाहे तो उसे इसकी इजाजत नहीं मिलती। इसी तरह यदि किसी पारसी युवक ने दूसरे समुदाय की युवती से विवाह कर लिया तो पारसी उस युवक की संतान को तो अपने धर्म में शामिल कर लेते हैं मगर संतान की माता यानी दूसरे समुदाय की युवती को पारसी धर्म में शामिल होने की इजाजत नहीं देते।
एक तरफ समाज में इतनी धार्मिक कट्टरता और दूसरी तरफ आधुनिकता का प्रसार। यानी पढ़े-लिखे और प्रगतिशील होने के कारण पारसी युवक-युवतियां किसी भी धर्म के युवक-युवती से विवाह कर लेते हैं। इस समाज के 35 फीसदी के करीब युवा दूसरे समुदायों में विवाह करते हैं। इस तरह उनका अपने समाज से निष्कासन हो जाता है। उच्च शिक्षा हासिल करने और कैरियर बनाने के चक्कर मेें पारसी समाज में शादियां भी देर से होती हैं। युवक और युवतियां करीब 40 वर्ष की आयु के आसपास विवास करते हैं। इसका नतीजा ये होता है कि अनेक पारसी युवतियां इतनी देर तक इंतजार नहीं करतीं और वे दूसरे समुदायों में शादी कर लेती हैं। ऐसा भी होता है कि ज्यादा उम्र होने के कारण युवक-युवतियां अविवाहित रहने का फैसला कर लेते हैं। इसके अलावा 40 वर्ष के आसपास शादी करने से बच्चे पैदा करने में भी मुश्किलें आती हैं। वैसे भी ज्यादा उम्र होने पर शादी के लिए सही जोड़ीदार मिलना काफी मुश्किल हो जाता है। इन सब कारणों से यह हालात बन गए हैं कि एक साल में नौ सौ से एक हजार के बीच पारसी मृत्यु को प्राप्त होते हैं जबकि इस दौरान मात्र तीन सौ से साढे़ तीन सौ बच्चे ही इस समाज में पैदा होते हैं। बच्चा न होने पर पारसी समाज में किसी दूसरे समुदाय की संतान को गोद लेने पर भी प्रतिबंध है।
ऐसा नहीं है कि पारसी समाज में इन बातों को लेकर विरोध नहीं हुआ या उन्हें अपनी आबादी घटने की चिंता नहीं हुई। समाज के अंदर कई बार दूसरे समुदाय में विवाह करने पर लागू होने वाले नियमों को बदलने की मांग की गई, मगर जिम्मेदार लोगों ने इन मांगों को स्वीकार नहीं किया। एक दशक पहले तीसरी संतान पैदा करने वाले पारसी परिवार को आर्थिक मदद देने की योजना भी पारसी समाज ने बनाई मगर दस वर्षों में मात्र 110 दंपतियों ने ही योजना का लाभ उठाया। आज हालात ये हैं कि दस पारसी परिवारों में से मात्र एक में ही छोटा बच्चा देखने को मिलता है। 10-12 फीसदी पारसी दंपतियों के पास कोई संतान ही नहीं है। भारत में इनकी कुल बची जनसंख्या (55 हजार) में विवाहित जोड़ों के पास औसतन एक बच्चा भी नहीं है।
रतन टाटा की कहानी
रतन टाटा की कहानी से हम पारसी समाज और इस समाज के युवाओं की मानसिकता को कुछ और अच्छी तरह समझ सकते हैं। टाटा समूह के संस्थापक जमशेदजी टाटा के छोटे बेटे रतन टाटा को कोई संतान नहीं हुई। इस पर उन्होंने एक दूर के रिश्तेदार के बेटे नवल टाटा को गोद लिया। नवल टाटा की पहली पत्नी सोनी से रतन नवल टाटा पैदा हुए। अपने चाचा जेआरडी टाटा के बाद वे टाटा समूह के चेयरमैन बने और कारोबारी जगत में सफलता के नई कीर्तिमान स्थापित किए। लेकिन कारोबार में व्यस्त रतन टाटा ने शादी नहीं की, जिसका नतीजा यह हुआ कि जब रिटायरमेंट के बाद उनके उत्तराधिकारी की बात आई तो एक लंबी खोज चली। आखिरकार टाटा के किसी रक्त संबंधी के बजाय सप्रूजी पालोनजी ग्रुप के मालिक के बेटे साइरस मिस्त्री को टाटा समूह की कमान सौंपी गई।
रतन टाटा ने एक साक्षात्कार में खुलासा किया था कि उन्हें जीवन में चार बार प्यार भी हुआ और चारों बार ऐसे मौके आए जब उन्होंने शादी करनी चाही, मगर किसी ने किसी कारण से शादी नहीं हुई। फिर उन्होंने यह भी सोचा कि अविवाहित रहने में ही क्या बुराई है। उन्हें यह भी लगा कि शादी के बाद समस्याएं ज्यादा बढ़ जाएंगी और इस तरह वे कुंआरे रह गए।
जियो पारसी
केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक मंत्रालय ने 23 सितंबर 2013 से “जियो पारसी” योजना शुरू की है। इसके तहत विवाहित पारसी जोड़ों में जन्म दर बढ़ाने के हर संभव प्रयास किए जाएंगे। ऐसे जोड़ों को मुफ्त और बेहतरीन चिकित्सा सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी। साथ ही पारसियों के बीच जागरूकता अभियान चलेगा।
गिद्ध भी घट गए और पारसी भी
आप पूछेंगे कि गिद्ध जैसे चालाक पक्षी की मिलनसार पारसियों से क्या तुलना? जवाब ये है कि चील और गिद्ध जैसे पक्षी पारसी समाज के लिए बहुत महत्व रखते हैं। दरअसल पारसी पृथ्वी, जल और अग्नि को बहुत पवित्र मानते हैं, इसलिए समाज के किसी व्यक्ति के मर जाने पर उसकी देह को इन तीनों के हवाले नहीं करते। इसके बजाय मृत देह को आकाश के हवाले किया जाता है। मृत देह को एक ऊंचे बुर्ज (टावर ऑफ साइलेंस) पर रख दिया जाता है, जहां उसे गिद्ध और चील जैसे पक्षी खा जाते हैं। इस ऊंचे या शव निपटान के स्थान को “दाख्मा” कहते हैं और पूरी प्रक्रिया को “दोखमेनाशीनी” कहा जाता है।
कैसी विडंबना है कि समय के साथ पारसी घट रहे हैं तो उनके लिए बेहद उपयोगी गिद्ध भी घट गए हैं। इससे पारसियों की शव निपटान परंपरा पर भी बुरा असर पड़ा है। आज पारसियों के आधुनिक शव निबटान केंद्र भी बन गए हैं पर पारसी समाज गिद्धों की संख्या बढ़ाने के प्रयासों को भी समर्थन देता है ताकि उनकी यह प्राचीन परंपरा कायम रह सके।
पारसियों के बारे में कुछ और प्रमुख बातें
- पारसियों में अग्नि का विशेष महत्व है। वे अग्नि की पूजा करते हैं, इसीलिए इनके मंदिर को आताशगाह या अग्नि मंदिर (फायर टेंपल) कहा जाता है।
- पारसियों का धर्म जोरोस्ट्रियन कहलाता है जिसकी स्थापना आज से करीब तीन हजार साल पहले जरस्थु्र ने की थी। इस धर्म के अनुयायी रोम से लेकर सिंधु तक फैले हुए थे।
- ईसा मसीह की तरह ही जरस्थ्रु के बारे में भी माना जाता है कि उनका जन्म एक कुंआरी माता “दुघदोवा” से हुआ था।
- पारसी साम्राज्य का नाम पर्सेपोल्यिस था जो तीन महाद्वीपों और 20 देशों तक फैला था।
- ईसा पूर्व 330 में सिकंदर के आक्रमण ने इस साम्राज्य को बड़ा नुकसान पहुंचाया। बाद में मुस्लिम आक्रमणकारियों ने रही-सही कसर पूरी कर दी।
- “किस्सा ए संजान” पारसियों का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसकी रचना बहमान कैकोबाद ने की थी।
- पारसी समाज पारसी पंचायत से संचालित होता है, जिसकी स्थापना 1728 में हुई।
- पारसियों के अनेक रीति रिवाज हिंदू धर्म से मेल खाते हैं। भाषा भी संस्कृत के करीब है।
- भारतीय पारसियों का डीएनए अध्ययन भी हुआ है। अध्ययन के तहत पारसियों में पुरुष अंश तो ईरानी पाया गया, मगर स्त्री अंश गुजराती मिला। इससे यह पता चलता है कि
- गुजरात में बसने के दौरान पारसियों ने वहां की स्त्रियों के साथ बिना हिचक संबंध बनाए।
- पारसी बहुत मेहनती होते हैं। भीख को वे अनैतिक मानते हैं।
- पारसी नया वर्ष 24 अगस्त को मनाते हैं। इस दिन जरस्थ्रु का जन्म होना माना जाता है। कुछ पारसी 31 मार्च को भी नया साल मनाते हैं।
- पारसी एक साल को 360 दिन का मानते हैं। बाकी पांच दिन को वे गाथा कहते हैं। इन पांच दिनों में वे अपने पूर्वजों को याद करते हैं।
- पारसी बच्चों को धर्म में दीक्षित करने का कार्यक्रम “नवजोत” कहलाता है।
- पारसियों की जनसंख्या घटने के साथ ही इस समुदाय में धर्माचार्यों की संख्या भी कम हो गई है। आज इस समाज के विभिन्न कर्मकांड ऑडियो कैसेट की मदद से पूरे किए जाते हैं।
Pratima Tripathi
5 December at 19:31 ·
जरूरी नहीं है कि परफेक्ट बॉडी शेप वाले लोग ही दूसरों को बॉडी शेम करें। कई बार बॉडी शेमर्स ऐसे लोग होते हैं जिन्हें खुद की बॉडी से नफ़रत होती है। वे ना खुद अपने शरीर को लेकर कम्फ़र्टेबल होते हैं और ना दूसरे को होने देते हैं। हालांकि बॉडी शेमिंग मैंने घर से लेकर बाहर हर जगह झेली। ये इतना आम हो जाता है कि हम बुरा मानना बंद कर देते हैं और खुद ही अपने शरीर पे हँसने लगते हैं। और खुद का मज़ाक उड़ाने की आदत को विनम्रता कह कर उसकी तारीफ़ भी की जाती है। लेकिन ये वही लोग होते हैं जो नेगेटिव बॉडी कांशसनेस के कारण डिप्रेशन और एंग्जायटी के शिकार हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि उनकी बॉडी के कारण उन्हें कोई प्यार नहीं करेगा, वे डेटिंग से बचते हैं और खुद भी इस नेगेटिव व्यवहार को दूसरे के साथ रेप्लिकेट करते हैं।
देखिये स्वस्थ शरीर सबके लिए बराबर जरूरी है। अच्छा खान-पान और कसरत हर हाल में जरूरी है। लेकिन इसे ढाल बना कर किसी के शरीर पर अनुचित टिप्पणी करना सेक्सिसम भी है और रेसिस्म भी। केवल मोटापे को लेकर ही आपके अंदर स्वास्थ्य को लेकर खलबली मचे तो समझ लीजिये कहीं ना कहीं स्वास्थ्य का मामला बहाना है, मुख्य समस्या आपको उस शरीर से है जिसको सांस्कृतिक रूप से असुंदर माना जाता है। क्योंकि स्वास्थ्य को लेकर आप इतने ही जागरूक होते तो, तो आप हर सिगरेट पीने वाले को टोकते, दारू को नशे के कारण नहीं स्वास्थ्य के कारण बंद करवाते, वेजिटेरियन होने की वक़ालत ना करते और फ़ास्ट फ़ूड खाने के लिए आप हर किसी को बराबर टोकते। आपको किसी रैंडम अज़नबी का मोटापा नहीं परेशान करता बल्कि आपको गरीबों का कुपोषण डिस्टर्ब करता जिन्हें आप यूँ अनदेखा करके निकल जाने के आदी हैं। आपको फिर अपनी मेनोपॉज से गुजर रही माँ या बीवी दिखाई देती। लेकिन आपको ये लोग कभी नहीं दिखते। आप के अंदर का बायस इस तरीके काम करता है कि हर थोड़ा सा मोटा इंसान आपको आलसी, अधिक खाना खाने वाला, फ़ास्ट फ़ूड consume करने वाला लगता है। स्वास्थ्य को लेकर ये नकली फिक्र सांस्कृतिक रूप से undesirable body type के लिए ही सामने आती है। आप एकदम से पतले इंसान को ठूँसने की सलाह देकर चले आते हैं, उसे छड़ी या मच्छर कह कर बुलाते हैं। अग़र कोई ‘परफेक्ट’ बॉडी की छवि से दूर है तभी जाकर आपको उसकी थाली की चिंता होती है।
मैं अगर अपने निजी जीवन की बात करूँ तो मुझे बचपन से कभी भी फ़ास्ट फ़ूड खाने का शौक नहीं रहा, खाने में तेल मिर्च मसाले से परहेज़ रहा। और अनोखी बात ये रही कि मुझे भूख बढ़ाने के लिए अक्सर दवाएँ या सिरप लेनी पड़ी। सच कहूँ तो मुझे खुद को लेकर कभी रत्ती भर शर्मिंदगी नहीं रही कि मैं मोटी हूँ या मेरे बाल कम हैं, या मेरा चेहरा चौड़ा है मैं सुंदर नहीं हूँ। मुझ पर भद्दी टिप्पणियाँ टीनएज के बाद से हमेशा एक नियम के तौर पर पीछा करती रहीं लेकिन आत्मविश्वास के बदौलत मैंने इन्हें अपने ऊपर असर डालने नहीं दिया। हाँ 2016 के बाद से मैं अगोरोफोबिया जैसे सिम्पटम से जूझ रही हूँ जहाँ भीड़ की मौजूदगी मुझे परेशान कर देती है, पैनिक अटैक्स आने लगते हैं। इस पर भी मैंने बहुत हद तक काबू पाया है। लेकिन कभी कभी सोचती हूँ कि सेल्फ लव के बूते ही आप कितनी नकारात्मकता को झेल सकते हैं? अपने दोस्तों को छोड़ कर मैं कभी किसी के साथ बैठकर खाना खाने में सहजता महसूस कर ही नहीं सकी। परिवार में ही हमेशा अलग बैठ कर खाना खाती रही। क्योंकि हर कोई मेरी थाली देखकर तंज करता कि मैं डाइटिंग कर रही हूँ.. या कोई जबरदस्ती दोगुना खाना रख देता कि अपने शरीर के मुताबिक खाओ। डॉक्टर भी ब्लड टेस्ट की रिपोर्ट देखने से पहले तक बॉडी शेम ही करते आये हैं। हाँ ब्लड रिपोर्ट देखकर वे हमेशा अपनी बात वापिस ले लेते लेकिन हर एक टिप्पणी कहीं ना कहीं एक झुंझलाहट पैदा कर देती। दसवीं तक सब विज्ञान पढ़ते हैं इसलिये ऐसा क्यों है कि हर कोई इस बात के लिए गँवार है कि किसी की भूख उसके पाचन पर निर्भर करती है? हाँ हँसना सीख गई हूँ। कभी कभी यूँ ही दूसरों के सामने खुद पर हँस कर निकल लेती हूँ ताकि दूसरे को उलूल जुलूल टिप्पणी करने का मौका ना लग सके। जानती हूँ कि अगर आप इस मानसिकता पर लोगों को टोके तो उल्टे आपको ही विनम्र होने की नसीहत दे दी जाती है। और सेंस ऑफ ह्यूमर के तर्क की ही बात करूँ तो टीवी के लिए तो आज तक हास्य का मतलब विकलांगता, मोटापे और शरीर के रंग पर किसी का मज़ाक उड़ाना है। शारीरिक गठन के बाद ये औरत की सेक्सुअलिटी पर ठहाके लगाने पहुँच जाता है। आपको पता ही नहीं चलता कि कब आप किसी के पूरे वजूद को ही हँसी का पात्र बना देते हैं? कोई कैसे उठता है, कैसे बैठता है, क्या खाता है, कैसा दिखता है आपके लिए सब मज़ाक है। इसीलिए जो जितना अलग दिखता है वो उतना ही हँसी का पात्र बनता है। मेट्रो में आज भी देख लीजिये ट्रांसजेंडर के बग़ल में कोई नहीं बैठता। लोग उनसे अपने शरीर के छू जाने से बचते हैं। आपको लगेगा बॉडी शेमिंग की बात वहाँ कैसे पहुँची? लेकिन इन सभी बातों में यही कनेक्शन है ये सारी चीजें रेसिस्म से निकलती हैं। सेक्सिसम भी जुड़ जाता है अगर आप औरत हों तो। ट्रांस्फोबिया रेसिस्म का सबसे निचले स्तर का प्रदर्शन है।
सो अगली बार किसी को सकारात्मकता की सीख देने या सेंस ऑफ ह्यूमर का लेक्चर देने की बजाय अपनी हरकतों पे ध्यान दीजिएगा कि कहीं आप अपने फूहड़ हास्य के लिए दूसरों का मनोबल तो नहीं गिरा रहे? क्योंकि मैं जानती हूँ हर कोई इससे अलग अलग तरीके से प्रभावित होता है। कुछ लोग तो internalized racism के शिकार हो जाते हैं। सेल्फ हैट्रेड का कारण internalized racism ही है। और किसी के स्वास्थ्य की चिंता आपको इतना ही परेशान कर रही है तो आपके पास अपना परिवार है ख्याल रखने को। आप एक नागरिक के तौर पर सरकार से बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं की मांग कर सकते हैं।atima Tripathi
16 December at 19:53 ·
एक संघी वृद्ध से बात करना भी एक अनुभव है। पता ही नहीं चलता कि घटियापन सांस्कृतिक है या व्यक्तिगत। ये अंतर इतना क्षीण हो जाता है संघी इंसानों में कि आप उनसे ठीक से ना नाराज हो सकते हैं और ना आपत्ति जता सकते हैं। लाइलाज बीमारी पे संवेदना जताने के सिवा किया ही क्या जा सकता है?
Pratima Tripathi
20 December at 22:20 ·
अगर किसी को नेता प्रतिपक्ष की आलोचना में उसका विदेशी मूल होना, विधवा होना या बार में काम करना याद आता है तो उसे अपने ऊपर बहुत सा काम करने की जरूरत है।
और अगर आप इसे चायवाला कहने से जोड़ेंगे तो बहुत बड़ी गलती करेंगे। चायवाला होने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन जिम्मेदार पद पर बैठकर जनता को क्लास डिफरेंस बिना मिटाए चाय पकौड़े बेचने की सलाह देना, खुद की शिक्षा के बारे में गलत जानकारी देना, अपनी शादी के बारे में छुपाना, गालीबाजों को फॉलो करना चरित्रहीनता की निशानी है। शायद इसीलिए उनके मुँह से किसी के अपमान में सिर्फ सेक्सिस्ट, होमोफोबिक, कम्युनल, जातिवादी टिप्पणी निकलती है। मैं बिना संकोच के कहती हूँ कि वे चरित्रहीन व्यक्ति हैं।
Pratima Tripathi
23 December at 22:26 ·
जिसको अपनी हाउसहेल्पर कामचोर लगती है उसे अम्बानी लोग हमेशा मेहनती नज़र आएंगे।
“अकेला मोदी क्या करेगा?” देश भर के कर्मचारियों के ऊपर बैठे एक व्यक्ति जिसे अपने सूट के बटन को खुद बंद नहीं करना है उसकी कामचोरी का बचाव करने वाले ‘करती कुछ नहीं है लेकिन बदले में पूरा पैसा चाहिए’ कहते हुए अपने पूरे घर की जिम्मेदारी एक निरीह देह के हवाले करके उसके काम मे 75 खामियाँ निकाल रहे होते हैं।
पर्सनल इज पॉलिटिकल को समझना है तो ऐसे समझिये।