by- पुण्य प्रसून बाजपेयी
क्या पत्रकारिता की धार भोथरी हो चली है । क्या मीडिया – सत्ता गठजोड ने पत्रकारिता को कुंद कर दिया है । क्या मेनस्ट्रीम मीडिया की चमक खत्म हो चली है । क्या तकनालाजी की धार ने मेनस्ट्रीम मीडिया में पत्रकारो की जरुरतो को सीमित कर दिया है । क्या राजनीतिक सत्ता ने पूर्ण शक्ति पाने या वचर्स्व के लिये मीडिया को ही खत्म करना शुरु कर दिया है । जाहिर है ये ऐसे सवाल है जो बीते चार बरस में धीऱे धीरे ही सही लेकिन कहीं तेजी से उभरे है । खासकर जिस अंदाज में न्यूज चैनलो के स्क्रिन पर रेगते मुद्दे का कोई सरोकार ना होना । मुद्दो पर बहस असल मुद्दो से भटकाव हो । और चुनाव के वक्त में भी रिपोर्टिंग या कोई राजनीतिक कार्यक्रम भी इवेंट से आगे निकल नहीं पाये । या कहे सत्ता के अनुकुल लगने की जद्दोजहद में जिस तरह मीडिया खोया जा रहा है उसमें मीडिया के भविष्य को लेकर भी कई आंशकाये उभर रही है । आंशाकाये इसलिये क्योकि मेनस्ट्रीम मीडिया के सामानातांर डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया अपने आप ही खबरो को लेकर मेनस्ट्रीम मीडिया को चुनौति देने लगा है । और ये चुनौती भी दो तरफा है । एक तरफ मीडिया-सत्ता गठजोड ने काबिल पत्रकारो को मेनस्ट्रीम से अलग किया तो उन्होने अपनी उपयोगिता डिजिटल या सोशल मीडिया में बनायी । तो दूसरी तरफ मेनस्ट्रीम मीडिया में जिन खबरो को देखने की इच्छा दर्शको में थी अगर वही गायब होने लगी तो बडी तादाद में गैर पत्रकार भी सोशल मीडिया या डिजिटल माध्यम से अलग अलग मुद्दो को उठाते हुये पत्रकार लगने लगे । मसलन ध्रूव राठी कोई पत्रकार नहीं है । आईआईटी से निकले 26 बरस के युवा है । लेकिन उनकी क्षमता है कि किसी भी मुद्दे या घटना को लेकर आलोचनात्मक तरीके से टकनीकी जानराकी के जरीये डीजिटल मीडिया पर हफ्ते में दो 10 -10 मिनट के दो कैपसूल बना दें । तो उन्हे देखने वालो की तादाद इतनी ज्यादा हो गई कि मेनस्ट्रीम अग्रेजी मीडिया का न्यूज चैनल रिपबल्कि या टाइम्स नाउ या इंडिया टुडे भी उससे पिछड गया । लेकिन यहा सवाल देखने वालो की तादाद का नहीं बल्कि मेनस्ट्रीम मीडिया की कुंद पडती धार का है ,और जिस तरह मीडिया का विस्तार सत्ता के कब्जे के दायरे में करने के लिये मीडिया संस्थानो का नतमस्तक होना है , उसका भी है ।
और ये सवाल सिर्फ कन्टेट को लेकर ही नहीं है बल्कि यही सवाल डिस्ट्रीब्यूशन से भी जुड जाता है । ध्यान दें तो मोदी सत्ता के विस्तार या उसकी ताकत के पीछे उसके मित्र कारपोरेट की पूंजी की बडी भूमिका रही है । मीडिया संस्थानो की फेरहिस्त में बार बार ये सवाल उठता है कि मुकेश अंबानी ने मुध्यधारा के 70 फिसदी मिडियाहाउस पर लगभग कब्जा कर लिया है । हिन्दी में सिर्फ आजतक और एबीपी न्यूज चैनल को छोड दें तो कमोवेश हर चैनल में दाये-बाये या सीधे पूंजी अंबानी की ही लगी हुई है । यानी शेयर उसी के है । पर ये भी महत्वपूर्ण है कि अंबानी का मीडिया प्रेम यू नहीं जागा है । और मोदी सत्ता नहीं चाहती तो जागता भी नहीं ये भी सच है । क्योकि धीरुभाई अंबानी के दौर में मीडिया में आबजर्वर ग्रूप के जरीये सीधी पहल जरुर हुई थी । लेकिन तब कोई सफलता नही मिली । और तब सत्ता की जरुरत भी अंबानी के मीडिया की जरुरत से कोई लाभ लेने वाली नहीं थी । तो मीडिया कोई लाभ का धंधा तो है नहीं । लेकिन सत्ता जब मीडिया पर अपने लिये नकेल कस लें तो मीडिया से लाभ किसी भी धंधे से ज्यादा लाभ देने लगती है । सच ये भी है । क्योकि सिर्फ विज्ञापनो से न्यूज चैनलो का पेट कितना भरता होगा ये दो हजार करोड के विज्ञापन से समझा जा सकता है जो टीआरपी के आधार पर चैनलो में बंटते – खपते है । लेकिन राजनीतिक विज्ञापनो का आंकडा जब बीते चार बरस में बढते बढते 22 से 30 हजार करोड तक जा पहुंचा है तो फिर मीडिया अगर सिर्फ धंधा है तो कोई भी मुनाफा कमाने में ही जुटा हुआ नजर आयेगा । जो सत्ता से लडेगा उसकी साख जरुर मजबूत होगी लेकिन मुनाफा सिर्फ चौनल चलाने तक ही सीमित रह जायेगा । और कैसे सत्ता कारपोरेट का खेल मीडिया को हडपता है इसकी मिसाल एनडीटीवी पर कब्जे की कहानी है । जो मोदी सत्ता के दौर में राजनीतिक तौर पर उभरी और मोदी सत्ता ही उन तमाम कारपोरेट प्लेयर को तलाशती रही कि वह एनडीटीवी पर कब्जा करें उसने एक तरफ अगर सत्ता की मीडिया को अपने कब्जे में लेने की मानसिकता को उभार दिया तो उसका दूसरा सच यह भी है कि मीडिया चलाते हुये चाहे जितना धाटा हो जाये लेकिन मीडिया पर कब्जा कर अगर उसे मोदी सत्ता के अनुकुल बना दिया जाये तो मोदी सत्ता ही दूसरे माध्यमो से मीडिया पर कब्जा जमाये कारपोरेट को ज्यादा लाभ दिला सकती है । और यहा ये भी महत्वपूर्ण है कि सबसे पहले सहानपुर के गुप्ता बंधुओ जिनका वर्चस्व दक्षिण अफ्रिका में राबर्ट मोगाबे के राष्ट्रपति होने के दौर में रहा उनको एनडीटीवी पर कब्जे का आफर मोदी सत्ता की तरफ से दिया गया । लेकिन एनडीटीवी की बुक घाटे वाली लगी तो गुप्ता बंधु ने एनडीटीवी पर कब्जे से इंकार कर दिया । चुकि गुप्ता बंधुओ का कोई बिजनेस भारत में नहीं है तो उन्हे धाटे का मीडिया सौदा करने के बावजूद भी राजनीतिक सत्ता से मिलने वाले ज्यादा लाभ की जानकारी नहीं रही । लेकिन भारत में काम कर रहे कारपोरेट के लिये ये सौदा आसान रहा । तो अंबानी ग्रूप इसमें शामिल हो गया । और माना जाता है कि आज नहीं तो कल एनडीटीवी के शेयर भी ट्रांसफर हो ही जायेगें । और इसी कडी में अगर जी ग्रूप को बेचने और खरीदने की खबरो पर ध्यान दें तो ये बात भी खुल कर उभरी कि आने वाले वक्त में जी ग्रूप को भी अंबानी खरीद रहे है । और मीडिया पर कारपोरेट के कब्जे के सामानातांर ये भी सवाल उभरा कि कही मीडिया कारपोरेशन बनाने की स्थिति तो नहीं बन रही है । यानी कारपोरेट का कब्जा हर मीडिया हाउस पर हो और कारपोरेट सीधे सीधे सत्ता से समझौता कर लें ।
यानी कई मीडिया हाउस को मिलाकर बना कारपोरेशन सत्तानुकुल हो जाये और सत्ता इसकीा एवज में कारपोरेट को तमाम लाभ दूसरे धंधो में देने लगे । तो फिर कमोवेश किसी तरह का कंपीटिशन भी चैनलो में नहीं रहेगा । और खर्चे भी सीमित होगें । जो सामन्य स्थिति में खबरो को जमा करने और डिस्ट्रीब्यूशन के खर्चे से बढ जाते है । वह भी सीमित हो जायेगें । क्योकि कारपोरेट अगर मीडिया हाउस पर कब्जा कर रहा है तो फिर जनता तक जिस माध्यम से खबरे पहुंचते है वह केबल सिस्टम हो या डीटीएच , दोनो पर ही वही कारोपरेट कब्जा करने की दिशा में बढेगी ही जिसने मीडिया हाउस को खरीदा । और ध्यान दें तो यही हो रहा है यानी न्यूज चौनलो में क्या दिखाया जाये और किन माध्यमो से जनता तक पहुंचाया जाये जब इस पूरे बिजनेस को ही सत्ता के लिये चलाने की स्थिति बन जायेगी तो फिर मुनाफा के तौर तरीके भी बदल जायेगे । और तब ये सवाल भी होगा कि सत्ता लोकतांत्रिक देश को चलाने के लिये सीमित प्लेयर बना रही है । और सीमीच प्लेयर उसकी हथेली पर रहे तो उसे कोई परेशानी भी नहीं होगी । यानी एक ही क्षेत्र में अलग अलग प्लेयर से सौदेबाजी करनी नहीं होगी । दरअसल भारत का मीडिया इस दिशा में चला जाये इसके प्रयास तो खूब हो रहे है लेकिन क्या ये संभव है या फिर जिस तर्ज पर रशिया हुआ करता था या अभी कुछ हद तक चीन में सत्ता व्यवस्था है उसमें तो ये संभव है लेकिन भारत में कैसे संभव है ये मुश्किल सवाल जरुर है । क्योकि राजनीतिक तौर पर एकाधिकार की स्थिति में राजनीतिक सत्ता हमेशा आना चाहती रही है । ये अलग बात है कि मोदी सत्ता इसके चरम पर है । लेकिन ऐसे हालात होगें तो खतरा तो ये भी होगा कि मेनस्ट्रीम मीडिया अपनी उपयोगिता या आवश्यकता को ही खो देगा । क्योकि जनता से जुडे मुद्दे अगर सत्ता के लिये दरकिनार होते है तो फिर हालात ये भी बन सकते है कि मेनस्ट्रीम मीडिया तो होगा लेकिन उसे देखने वाला कोई नहीं होगा । और तब सवाल सिर्फ सत्ता का नहीं बल्कि कारोपरेट के मुनाफे का भी होगा । क्योकि आज के हालात में ही जब मेनस्ट्रीम मीडिया अपनी उपयोगिता सत्ता के दबाब में धीरे धीरे खो रहा है तो फिर धीरे धीरे ये बिजनेस माडल भी धरधरा कर गिरेगा । क्योकि सत्ता भी तभी तक मीडिया हाउस पर कब्जा जमाये कारपोरेट को लाभ दे सकता है जबतक वह जनता में प्रभाव डालने की स्थिति में हो । और कडी का सबसे बडा सच तो ये भी है जब मेनस्ट्रीम मीडिया ही सत्ता को अपने सवालो या रिपोर्ट से पालिश करने की स्थिति में नहीं होगी तो फिर सत्ता की चमक भी धीरे धीरे लुप्त होगी । उसकी समझ भी खुद की असफलता की कहानियो को सफल बताने वालो के ही इर्द-गिर्द घुमडेगी । और उस परिस्थिति में मेनस्ट्रीम मीडिया की परिभाषा भी बदल जायेगी और उसके तौर तरीके भी बदल जायेगें । क्योकि तब एक सुर में सत्ता के लिये गीत गाने वाले मीडिया काकरपोरेशन में ढहाने के लिये ऐसे कोई भी पत्रकारिय बोल मायने रखेगें जो जनता के शब्दो को जुबा दे सके । और तब सत्ता भी ढहेगी और मीडिया पर कब्जा जमाये कारपोरेट भी ढहेगें । क्योकि तब घाटा सिर्फ पूंजी का नहीं होगा बल्कि साख का होगा । और अंबानी समूह चाहे अभी सचेत ना हो लेकिन जिस दिशा में देश को सियासत ले जा रही है और पहली बार ग्रामिण भारत के मुद्दे राष्ट्रीय फलक पर चुनावी जीत हार की दिशा में ले जा रहे है … और पहली बार संकेत यही उभर रहे है कि सत्ता के बदलने पर देश का इकनामिक माडल भी बदलना होगा । यानी सिर्फ सत्ता का बदलना भर अब लोकतंत्र का खेल नहीं होगा बल्कि बदली हुई सत्ता को कामकोज के तरीके भी बदलने होगें । यानी जो कारपोरेट आज मीडिया हाउस के दरीये मोदी सत्ता के अनुकुल ये सोच कर बने है कि कल सत्ता बदलने पर वह दूसरी सत्ता के साथ भी सौदेबाजी कर सकते है तो उनके लिये ये खतरे की घंटी है ।
Gaurav Singh Rathore9 November · चित्र 1 :9 मई 1936 को रोम के ऐतिहासिक महल की बालकनी में खड़ा तानाशाह बेनिटो मुसोलिनी लाखों की प्रजा के समक्ष उनके भगवान समान है ।चित्र 2 :
29 अप्रैल 1945 को इटली की सेना के हारने के बाद रोम में एक पेट्रोल पंप के बाहर गोली मार कर टाँगी गई मुसोलिनी की लाश जिसपर उसी प्रजा ने पत्थर फेंके व थूका ।
सिर्फ 9 वर्ष में यह हुआ था । प्रजा को असलियत पहचानने में जितना समय लगता है … बस उतना ही तानाशाह पर होता है । इतिहास गवाह है ।
तुम से पहले वो जो इक शख़्स यहाँ तख़्त-नशीं था
उस को भी अपने ख़ुदा होने पे इतना ही यक़ीं था
कोई ठहरा हो जो लोगों के मुक़ाबिल तो बताओ
वो कहाँ हैं कि जिन्हें नाज़ बहुत अपने तईं था
आज सोए हैं तह-ए-ख़ाक न जाने यहाँ कितने
कोई शोला कोई शबनम कोई महताब-जबीं था
अब वो फिरते हैं इसी शहर में तन्हा लिए दिल को
इक ज़माने में मिज़ाज उन का सर-ए-अर्श-ए-बरीं *था
छोड़ना घर का हमें याद है ‘जालिब’ नहीं भूले
था वतन ज़ेहन में अपने कोई ज़िंदाँ तो नहीं था । ❤️
हबीब जालिब
Gaurav Singh Rathore
1 hr ·
बियॉन्से गज़ेल नॉलेस (Beyoncé Giselle Knowles) अमरीकी गायिका और अभिनेत्री है । दुनिया में जाना माना नाम तो बियॉन्से का है ही साथ ही वे अमेरीका में सबसे महँगी गायिका के रूप में भी प्रसिद्ध हैं ।
पिछले वर्ष नए वर्ष पर हुए एक स्टेज शो के लिए उन्होंने क़रीब 14 करोड़ 27 लाख रूपय फ़ीस बतौर लिए थे ।
ज़िक्र इसलिए क्योंकि बड़े अंबानी की बिटिया कि शादी में गाने आई है तो फ़्री में तो आई नहीं होगी । गाने के बीच में सुर मिलाने और ताली बजाने के लिए अंबानी ने सलीम खान के लड़के और डा. हरिवंश राय बच्चन के पोते को रखा है । बाकी दो चार मिस वर्ल्ड महिला संगीत में ढोलक पर चम्मच बजाएगी ।
ईमानदारी से कमाया रूपया फेंकने का मज़ा ही अलग है !!
Gaurav Singh Rathore
7 December at 09:05 ·
मिथ्या प्रचार : फ़िरोज़ गांधी मुसलमान थे ?? उनकी कब्र है !
तीन चित्र है ,
फिरोज गांधी की शादी , फ़िरोज़ गांधी की अंत्येष्टि और उनकी मज़ार ।
कहानी कुछ यू है कि फ़िरोज़ गांधी यानी इंदिरा जी के पति पारसी थे और पारसियों में अंतिम संस्कार के रूप में शव को गिद्धों से नुचवाने की रीति है । ऊँची मचान पर रख कर ।
फ़िरोज़ जी को यह पंसद नही था तो उनकी मृत्यु (8/9/1960 ) के बाद उनकी अंतिम क्रिया हिन्दु रीति रिवाजों के अनुसार हुई ।
उनकी अस्थियों को इलाहाबाद में पारसी क़ब्रिस्तान में दफ़ना दी गई थी । इलाहाबाद के मशहूर पैलेस सिनेमा के मालिक फ़िरोज़ गांधी के रिश्तेदार थे ।
वर्ष 2007 में इस मज़ार व क़ब्रिस्तान का सौंदर्यीकरण भी कांग्रेसी मेयर द्वारा करवाया गया ( जितेन्द्र नाथ द्वारा ) .
शेष यदि मुसलमान थे भी तो क्या गुनाह था ?? मुस्लिम होकर भी मंदिर मंदिर जा रहे है राहुल गांधी और गोत्र बता रहे है तो यह तो हिन्दु धर्म के ठेकेदारों के लिए गर्व का विषय होना चाहिए ?? धर्म परिवर्तन कर लिया ?? व्याकुल क्यो हो ??
वोट कांग्रेस को बिलकुल मत देना पर .. हे चुनावी रणबंकुरों कम से कम वार तो कमर के ऊपर करों या ये भी पंरपरा है !!
जय-राम ❤️http://www.satyahindi.com/f…
Gaurav Singh Rathore
1 December at 10:04 ·
हमारी अधूरी कहानी :
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लहसुन की खेती ऐसी है जिसमें मानव श्रम अत्यधिक लगता है । फ़सल बोने के बाद से खोदने तक लगातार थोड़े थोड़े अंतराल पर खेत की नराई करनी पड़ती है ताकि घास , खर-पतवार आदि न हो ।
मध्यप्रदेश व राजस्थान इस उपज के गढ़ है परन्तु मध्य उत्तर प्रदेश यानि फ़र्रूख़ाबाद , इटावा , मैनपुरी , कन्नौज , एटा आदि जनपदों में भी होती है ।
मानव श्रम के कारण आने वाली कठिनाइयों जैसे खेतिहर मज़दूरों की कमी और लागत का बढ़ जाना आदि के कारण इसे ज़्यादातर सीमांत किसान ( कम जोत वाले ) ही करते है उत्तर प्रदेश के इस इलाक़े में , दो कारण है इसके ,
१. मज़दूरों की आवश्यकता नहीं पड़ती क्योंकि सीमांत किसान स्वयम् , घर की महिलाएँ व बच्चे ही नराई आदि कर लेते है खेत में ।
२. कम जोत में गेहूँ , आलू , धान आदि फ़सलो के मुक़ाबिल लहसुन अच्छे दाम में बिक जाता था ।
देश की बड़ी मंडियों में नीमच , कोटा , उज्जैन , इंदौर आदि है ।
वर्तमान हाल यह है कि नीमच , कोटा आदि मंडियों में १ रूपय किलो का भाव था तो किसानों ने मंडियों में तालाबंदी कर प्रदर्शन किया ।मेरे आस पास की लहसुन मंडियों जैसे भोगांव , कुरावली ( मैनपुरी ) में भाव पूछने पर आढ़तियों का जबाब होता है कि बिना बताए मत लाना किसी भाव नही उठ रहा ।
आश्चर्य करिए यह जानकर कि कभी यह फ़सल 23000/-प्रति कुंटल मेरे यहाँ बिकी थी । और अब मुफ़्त हैं ।
दिल्ली में कोई बैठे !! बस नीति निर्धारण का तरीक़ा किसान केन्द्रित हो ।
garlic या Allium Sativum भी कहते है लुटियन डिजीटल boys लहसुन को !!
यू नो ओन्ली जिजंर – गारलिक पेस्ट !! प्लीज़ नो हू इस प्रडूसिंग इट एन्ड हिज ऐन्यूअल पैकेज आलसों !!
जनता? हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता?
“ दिनकर जी की कविता के अंश “
Gaurav Singh Rathore
23 November at 08:09 ·
1946 में भारत का संविधान बनाने के लिए बनी संविधान सभा में कुल 389 सदस्य थे और इनमें महिलाओं की संख्या थी सिर्फ 15 .
1 दुर्गाबाई देशमुख
2. राजकुमारी अमृत कौर
3. हंसा मेहता
4. बेगम एजाज़ रसूल
5. अम्मू स्वामीनाथन
6. सुचेता कृपलानी
7. दक्क्षयानी वेलायुदधन
8. रेणुका रे
9. पूर्णिमा बैनर्जी
10. एनी मैसकरैना
11. कमला चौधरी
12. लीला रॉय
13. मालती चौधरी
14. सरोजिनी नायडू
15. विजय लक्ष्मी पंडित
चित्र : 15 में से 11 हैं चित्र में ।
इनमें से सिर्फ दो का संक्षेप में उल्लेख :
१. खड़ी हुई महिलाओं में दाहिने से तीसरी ( चश्मा लगाए हुए )
“ मेरे ख़्याल से धार्मिक आधार पर आरक्षण एक आत्मघाती हथियार है जो अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से हमेशा के लिए जुदा कर देगा । यह अलगाव व साम्प्रदायिकता की भावना को ज़िंदा रखेगा जो अब हमेशा के लिए ख़त्म हो जानी चाहिए ।”
दिसंबर 1948 में संविधान सभा की सलाहकार समिति के सामने यह कहने वाली महिला थी .. बेगम एजाज रसूल । समिति के अध्यक्ष थे सरदार पटेल ।
बेगम विधानसभाओं में मुस्लिम आरक्षण का विरोध कर रही थी । वे 1909 से चले आ रहे अंग्रेज़ों द्वारा दिए गए separate electorate के भी विरूद्ध थी ।
बेगम संविधान सभा कि इकलौती मुस्लिम महिला सदस्य थी । ये उन्हीं के प्रयासों का नतीजा था कि आम राय बनी मुस्लिम नेताओं के मध्य और उन्होंने स्वेच्छा से धार्मिक आधार पर आरक्षण की माँग को त्याग दिया । सिक्ख समुदाय पहले ही कह चुका था कि जो मुसलमानों के लिए फ़ैसला होगा वही हमारा होगा और ईसाई आरक्षण माँग ही नहीं रहे थे । इस प्रकार धार्मिक आधार पर आरक्षण की माँग स्वयम् ही समाप्त हो गई बेगम के प्रयासों से ।
२. बैठे में बाएँ से दूसरी
हंसा जीवराज मेहता :
भारत की पहली महिला वाइस चांसलर ( एसएनडीटी महिला विश्व विश्वविघालय बंबई ) , संयुक्त राष्ट्र संघ की उस कमेटी की उपाध्यक्ष जिसने Universal declaration for human rights का मसौदा तैयार किया । संयुक्त राष्ट्र संघ का चर्चित वाक्य “ All humans beings are born free and equal “ उन्हीं का दिया हुआ है । वे UNESCO के बोर्ड में भी रही ।
बाल विवाह ( शारदा एक्ट )और देवदासी प्रथा को समाप्त करने में उनका योगदान बहुत महत्वपूर्ण रहा ।
संविधान सभा को “ भारत की महिलाओं “ की तरफ़ से राष्ट्रीय ध्वज उन्हीं के द्वारा दिया गया था जो 15 अगस्त 1947 को पहली बार फहराया गया । उनके पति जीवराज मेहता गुजरात के पहले मुख्यमंत्री थे ।
इन 15 महिलाओं का योगदान भारत के संविधान निर्माण में बेहद अहम है ।भारतीय महिलाओं के राष्ट्र निर्माण में किए गए योगदान को कभी वो स्थान नही मिला जिसकी वो हक़दार थी/है । ( ये मेरा निजी विचार है )
Deepak Sharma
12 hrs ·
फेसबुक में कोई पोस्ट अगर प्रधानमंत्री मोदी के पक्ष में जड़ी गयी है तो वायरल हो सकती है.. और अगर पोस्ट उनके विरोध में गढ़ी गयी है तो भी यकीन मानिये ,वायरल ही होगी। यानि मोदी या तो वाइट है या फिर ब्लैक। उनके व्यक्तित्व या कृतित्व में अब कुछ भी ग्रे नहीं है। मोदी ही नहीं, मोदी सरकार में भी कोई ग्रे शेड आज नहीं झलकता है।ज़माने की नज़र में सरकार या बहुत अच्छी है या बहुत ख़राब !
पिछले कुछ वर्षों में, देश में विचार से लेकर समाचार तक और प्रतिक्रिया से लेकर परिहास तक, सब कुछ एक एक्सट्रीम पर जाकर ठहरता है। कुमार विश्वास के तंज़ या जावेद अख्तर के वन लाइनर, हर रिएक्शन या तो राइट है या फिर लेफ्ट। या तो इधर का है या फिर उधर का। बीच का कुछ भी नहीं।
यानी जो कुछ भी बोला जा रहा है, लिखा जा रहा है उसका एक्सट्रीम ही अब पसंद किया जाता है। सवाल है कि आखिर हमारे मिज़ाज़ को ये क्या हो गया है ? हम सिर्फ एक छोर पर ही अब क्यों रुकने लगे हैं ? हर मामले में हम एक किनारे पर क्यों चल रहे हैं। हम उस बैलेंस को कैसे खो रहे हैं जिस तरफ हमे माँ, नानी या क्लास की मैम, हर आड़े तिरछे मोड़ से ले जाती थीं ?
आखिर हमारे जीवन से मध्यम मार्ग कैसे, बिना आहट … गुम होता जा रहा है ?
आज शेखर गुप्ता जैसे बड़े संपादक भी विचार में संतुलन खो रहे हैं। मृणाल पांडेय या राम कृपाल जैसे पुरोधाओं में भी निष्पक्षता नहीं दिखती। जैसे कोई गेंदबाज़ ऑउटस्विंग करे या इनस्विंग पर मीडल स्टंप में गेंद डाल ही न पाए। ये तो एक विचित्र स्थिति है। एक अजीब सा एक्सट्रीमिस्म। आप या तो अर्नब गोस्वामी है या रविश कुमार। जैसे आपके भीतर से कोई प्रभाष जोशी बिलकुल गायब हो चुका हो।
निसंदेह जिस मध्यम मार्ग को देश की हज़ारों वर्ष की संस्कृति ने समाज के लिए उत्कृष्ट कहा , वो मध्यम मार्ग, वो संतुलन, वो बीच की मुख्य धारा हमारे बीच से कहीं दूर बह रही है। और पत्रकारिता , जहाँ विचारों को दरकिनार कर, मध्यम मार्ग को गोल्डन पाथ कहा गया वहां तो मध्यम क्या, अब न मार्ग है न दर्शन है।
शायद इसलिए आप दीवार पर टंगा टीवी आज स्विचआन नहीं करते। टीवी अब दीवार पर खामोश एक काले शीशे की टंगी पेंटिंग है। इसे स्विच आन किया नहीं कि कोई एक्सट्रीम डिबेट आपकी शाम डिस्टर्ब कर जायेगा । किसी बुलंदशहर की गौ हत्या, किसी वर्दीधारी इंस्पेक्टर की लाश, और उस पर आग में घी जैसी बहस आपको किसी छोर पर ले जाकर फेंक देगी।
निसंदेह कोई प्रभाष जोशी , या (वो पुराने वाले) अरुण पूरी किसी न्यूज़रूम में अब नहीं चिल्ला रहे होंगे….”बैलेंस, बैलेंस …टेक द गोल्डन पाथ।”