by: श्याम कृष्ण कुमार
सबरीमला मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को महिलावादी समूहों ने अपनी बड़ी जीत घोषित किया था. लेकिन कोर्ट के इस फ़ैसले ने बहुत सी महिलाओं को नाराज़ भी किया है.
कोर्ट का फ़ैसला आने के बाद भी केरल के सबरीमला मंदिर के बाहर विरोध प्रदर्शन जारी हैं. शुक्रवार और शनिवार को सबरीमला मंदिर के बाहर तनाव की स्थिति रही.
यहाँ वो महिलाएं पहुंचने की कोशिश कर रही हैं जिन्होंने ये दृढ़ संकल्प किया है कि वो सुप्रीम कोर्ट का आदेश आने के बाद मंदिर परिसर में दाखिल होकर रहेंगी.
जबकि दूसरी तरफ़ श्रद्धालुओं का एक बड़ा समूह है. इसमें महिलाएं भी शामिल हैं. वो हर संभव कोशिश कर रही हैं कि उनके भगवान से जुड़ी पुरानी परंपराओं की अखंडता बनी रहे.
ये सारा विवाद सुप्रीम कोर्ट के उस फ़ैसले से शुरू हुआ है जिसमें कोर्ट ने 10 से 50 साल की उम्र की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश देने की बात कही है.
जबकि मंदिर के जो नियम हैं वो इसके विपरीत हैं. मंदिर के संचालक भगवान अयप्पा का हवाला देकर कहते हैं कि वो ब्रह्मचारी थे, इसलिए जिन महिलाओं को मासिक धर्म होता है, वो मंदिर में दाखिल नहीं हो सकतीं.
जब सुप्रीम कोर्ट ये कह रहा है कि महिलाओं को सबरीमला मंदिर में दाख़िल होने का पूरा अधिकार है, तो क्यों शहरी महिलाओं का एक बड़ा समूह कोर्ट के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ भी खड़ा है?
दक्षिण भारत में सबरीमला मंदिर की बड़ी मान्यता है. लोग जाति, लिंग और भाषा का विचार किये बिना सबरीमला मंदिर के दर्शन करने पहुँचते हैं.
हर साल लाखों की संख्या में आदिवासी समूह के लोग, मुसलमान और ईसाई भी इस मंदिर के दर्शन के लिए आते हैं.
मंदिर में दाखिल होने से 41 दिन पहले से खाने-पीने से जुड़े तमाम सख़्त नियमों का श्रद्धालुओं को पालन करना पड़ता है.
इसके बाद पश्चिमी घाट के घने जंगल से गुज़रने वाले कठिन रास्ते से होकर श्रद्धालु नंगे पाँव सबरीमला मंदिर तक पहुँचते हैं.
‘प्रगतिशील क़दम’ और आलोचना
सबरीमला मंदिर के दर्शन करने के लिए जो नियम बनाये गए हैं वो वाक़ई बहुत कठिन हैं. इसलिए बहुत से श्रद्धालु कहते भी हैं कि ये पूरी प्रक्रिया महिलाओं के लिए बहुत ज़्यादा मुश्किल है.
शायद यही वजह भी रही है कि श्रद्धालु परिवारों में से घर के मर्द इस मंदिर में दर्शन के लिए आते हैं.
लेकिन मासिक धर्म जिन महिलाओं को होता है वो महिलाएं मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकतीं, इसे लेकर सबसे ज़्यादा विवाद था. सुप्रीम कोर्ट की पाँच जजों की बेंच ने इस बंदिश को भी ख़त्म कर दिया.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये भेदभाव है इसलिए उम्र और लिंग के आधार पर किसी को मंदिर में प्रवेश से नहीं रोका जा सकता.
सुप्रीम कोर्ट की पाँच जजों की बेंच में इंदू मल्होत्रा अकेली ऐसी जज थीं जिन्होंने कहा कि सबरीमला पर बहुमत के फ़ैसले से वो सहमत नहीं हैं.
सड़कों पर हज़ारों लोग
उनकी राय थी कि ये एक धार्मिक मामला है. इससे लोगों की धार्मिक भावना जुड़ी है. इसलिए कोर्ट को इसमें दख़ल नहीं देना चाहिए.
जस्टिस इंदू मल्होत्रा ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर अपनी राय पेश करते हुए कहा था कि धर्म के मामलों में तर्कसंगतता के विचारों को शामिल नहीं किया जा सकता.
उनका तो ये भी कहना था कि जब तक भगवान अयप्पा को मानने वाले समुदाय में से कोई पीड़ित आकर न कहे, कोर्ट को इसपर सुनवाई नहीं करनी चाहिए.
बहरहाल, सबरीमला मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को एक प्रगतिशील क़दम के रूप में सेलिब्रेट किया गया.
लेकिन इसके बाद जो हुआ वो वाक़ई अप्रत्याशित था.
केरल के लगभग सभी कस्बों में हज़ारों लोग सड़कों पर उतर आये. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिये.
इसके बाद दिल्ली, बेंगलुरू, चेन्नई समेत यूके, अमरीका और कनाडा में भी सबरीमला मंदिर को लेकर प्रदर्शन हुए.
स्थानीय लोगों का नज़रिया अलग
भारत के अग्रणी हिंदू राष्ट्रवादी संगठन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने नब्ज़ को एकदम सही वक़्त पर पकड़ा.
पहले तो वो सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के पक्ष में ही थे. लेकिन अचानक उन्होंने अपनी राय बदल ली और कोर्ट के फ़ैसले के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों के समर्थन में खड़े होने को उत्सुक दिखे.
केरल में ऐसे कई विरोध प्रदर्शन हो चुके हैं जिनमें स्थानीय लोगों के साथ न सिर्फ़ भाजपा, बल्कि कांग्रेस के नेता भी दिखाई दिये.
लेकिन इस बात को समझना होगा कि केरल ऐसा राज्य नहीं है जहाँ महिलाओं के पास अपनी बात रखने का अधिकार न हो.
इतिहास इस बात का गवाह है कि केरल के समाज का एक बड़ा हिस्सा मातृप्रधान है जहाँ महिलाओं ने सदियों तक विरासत में मिलने वाली संपत्ति पर नियंत्रण रखा.
केरल भारत में ‘सर्वोच्च साक्षरता दर’ वाला राज्य भी है और केरल के सामाजिक संकेतक विकसित देशों के समान हैं.
विरोध प्रदर्शन कर रही केरल की महिलाओं का मानना है कि किसी ने भी उनके नज़रिये की परवाह नहीं की.
‘आज़ादी थोपी जा रही है’
ये महिलाएं महसूस करती हैं कि जो महिलाएं कथित तौर पर महिलावादी हैं और जिन महिलाओं के पास असामान्य अधिकार हैं, वो उनपर ‘आज़ादी’ (liberation) का विचार थोप रही हैं जिसकी उन्हें ज़रूरत नहीं है.
अंजलि जॉर्ज नाम की एक महिला ने ही सबरीमला मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया कैंपेन शुरू किया है और महिलाओं पर लगे बैन को सही माना है.
उनका कहना है कि स्थानीय प्रशासन का नज़रिया औपनिवेशिक था, इसीलिए वो सबरीमला मंदिर पर बन रही स्थिति का सही जायज़ा नहीं ले पाये.
वो कहती हैं, “प्रशासन ने ये बहुत बड़ी ग़लती की है. मैं ऐसा इसलिए कह सकती हूँ क्योंकि लोगों के मन में सबरीमला मामले के बाद ये बात घर कर जाएगी कि सिस्टम उनकी धार्मिक आस्था और परंपराओं की सुरक्षा करने में अक्षम है.”
हिंदू धर्म सांस्कृतिक प्रथाओं, परंपराओं और पूजा की विभिन्न प्रणालियों का समावेश है. इसमें भारी विविधता है.
मसलन, जिस भगवान अयप्पा के मंदिर में महिलाओं का जाना वर्जित है. जो भगवान महिला श्रद्धालुओं को अपने पास नहीं देखना चाहते, उनका विवाहित रूप एक अन्य मंदिर में महिलाओं और पुरुषों, दोनों के द्वारा पूजा जाता है. और ऐसा भी नहीं है कि मंदिरों में सिर्फ़ महिलाओं के प्रवेश पर शर्तें लगाई गई हैं.
पूर्वोत्तर राज्य असम में भी कामाख्या देवी के मंदिर में पुरुषों का प्रवेश कुछ वक़्त के लिए बंद कर दिया जाता है. वहाँ स्थानीय मान्यता है कि देवी कामाख्या उन दिनों मासिक धर्म में होती हैं इसलिए पुरुषों को उनके मंदिर में नहीं जाने दिया जाता.
कृत्रिम एकरूपता बनाना
कहा जाता है कि भारत में करोड़ों देवी-देवता हैं. देश में लाखों मंदिर हैं और शायद दर्जन भर मंदिरों में ही लिंग-आधारित प्रवेश प्रतिबंधित है.
ऐसे में समानता को आधार बनाकर इस समाज में एक तरह से कृत्रिम एकरूपता नहीं बनाई जा सकती. इससे हमारे समाज की विविधता और कई पीढ़ियों से चली आ रही परंपराओं का नुकसान होगा.
सच्चाई ये भी है कि किसी भी वास्तविक हितधारक से ये समझने की ईमानदार कोशिश ही नहीं की गई कि असल में मंदिर की परंपराएं क्या हैं.
सुधार के नाम पर स्थानीय परंपराओं को दबाकर आधुनिकता को लोगों पर थोपा जा रहा है. इसके लिए चाहे वो लोग अब कोर्ट के आदेश का हवाला दें या राज्य की पुलिस की मदद लें.
सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले से एक और परेशान करने वाला सवाल खड़ा होता है और वो सवाल ये है कि धर्म और भारत देश के बीच रिश्ता क्या है?
धार्मिक संस्थानों को व्यवस्थित करने में सरकार अब ज़्यादा लिप्त है और देश की न्यायपालिका ये बताने में जुटी है कि सही धार्मिक परंपरा क्या होनी चाहिए.
नामी वकील फ़ली नरीमन और राजीव धवन इस मामले में कुछ गंभीर आरोप लगा चुके हैं कि न्यायाधीशों ने ये निर्धारित करना अपना अधिकार मान लिया है कि कौन से धार्मिक विश्वास और सिद्धांत ‘आवश्यक’ हैं.
सबरीमला मंदिर का विवाद इन्हीं सबके बीच खड़ा किया गया एक विवाद है जो हमारे समाज के कठोर विरोधाभासों को सामने लाता है.
इसमें एक तरफ हैं महानगरीय अभिजात्य वर्ग के लोग जो महिलाओं की कथित आज़ादी का जश्न मना रहे हैं.
वहीं दूसरी तरफ हैं ज़मीन से जुड़ी लाखों महिला श्रद्धालु जिन्हें महसूस हो रहा है कि उनकी आवाज़ की आज के भारत में कोई सुनवाई नहीं हो रही.
https://www.bbc.com/hindi/india-46248590
Kavita Krishnapallavi5 November at 15:09 · उत्तराखंड की नदियों-घाटियों और वन-प्रान्तरों से प्यार करने वाले लोग दुःख और पीड़ा के साथ कहते हैं कि दून घाटी तबाह हो चुकी है I लीची के बाग़, धान के खेत और ज्यादातर जंगल विलुप्त हो चुके हैं I यह कांक्रीट के जंगलों और कूड़े के ढेरों से भर गयी है I नदियों-गधेरों-सोतों की जगह गंदे नालों-परनालों ने ले ली है I
सच्चाई यह है कि दून घाटी ने अपने नए बाशिंदों के हिसाब से अपने को ढाल लिया है I अलगाव-ग्रस्त यंत्र-मानव कांक्रीट के जंगलों और गंदे-विषाक्त जल-प्रवाहों के बीच रहने के अभ्यस्त अभिशप्त प्राणी होते हैं I प्रकृति से अधिक सामाजिक ढाँचा मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करता है I फिर मनुष्य प्रकृति को भी अपनी छवि में ढालने लगता है I
दून घाटी के पुनरुद्धार के लिए प्रकृति-प्रेमी और पर्यावरणवादी चाहे जितनी छाती पीट लें, घाटी की पारिस्थितिकी को बदलने के लिए यहाँ के मनुष्यों को बदलना होगा और यहाँ के मनुष्यों को बदलने के लिए उनके मानस-निर्माण के वस्तुगत सामाजिक आधार को, यानी सामाजिक ढाँचे को बदलना होगा I और यह सवाल पूरे देश के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक ढाँचे को बदलने से जुड़ा हुआ है I दून घाटी कोई द्वीपीय देश नहीं है, या उत्तराखंड कोई स्वतंत्र राष्ट्र-राज्य नहीं है I घाटी और पर्वत के निवासियों को अपनी द्वीपीय मानसिकता से मुक्त होना होगा I द्वीपीय मानसिकता कूपमंडूक बनाती है I
देहरादून अगर राज्य की राजधानी रहेगा तो तमाम नौकरशाह,पूँजीपति,व्यापारी, भूस्वामी, नेता और पहाड़ों के पुराने अभिजात यहाँ बंगले और अपार्टमेन्ट बनाते ही रहेंगे, शौपिंग माल्स और होटलों की संख्या बढ़ती ही जायेगी और घाटी की तबाही होगी ही I सभी सम्पत्तिशाली देहरादून में ही राजधानी चाहेंगे, जबतक कि भारी जन-दबाव उन्हें मज़बूर न कर दे I और बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं है ! पहाड़ के जो आम लोग पहाड़ के गाँवों-कस्बों के उजड़ते जाने का काफी रोना रोते हैं, उनमें से भी जिसके लिए संभव हो पाता है, वह किसी भी तरह से दून घाटी में एक प्लाट खरीद लेना चाहता है, या तराई के किसी शहर में सेटल हो जाना चाहता है I कारण यह है कि पहाड़ों में रोजगार के अवसर नहीं हैं और जीवन कठिन है और इसके लिए पूँजीवादी नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं Iसमझना इस बात को होगा कि पूँजीवादी लूट की हवस जितना श्रम-शक्ति को निचोड़ती है, उतना ही प्रकृति को भी निचोड़ती है I उत्तराखंड के पर्यावरण को बचाने की लड़ाई पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध लडे बिना नहीं लड़ी जा सकती I देश के जिन सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों, पठारों और वन-प्रान्तरों में प्राकृतिक संसाधनों की लूट और विनाशकारी परियोजनायें पर्यावरण पर कहर बरपा कर रही हैं और करोड़ों लोगों को अपनी जगह-ज़मीन से दर-बदर होने के लिए मज़बूर कर रही हैं, ये सारी लड़ाइयाँ जबतक अलग-अलग क्षेत्रीय लड़ाइयों के रूप में लड़ी जाती रहेंगी, तबतक पराजित होती रहेंगी I इन्हें एक कड़ी में पिरोना होगा और इनकी धार को केन्द्रीय राज्यसत्ता की और मोड़ना होगा I
गौरतलब है कि पर्यावरण को बचाने का संघर्ष विकास-विरोधी नहीं, बल्कि मुनाफ़ा-केन्द्रित अनियोजित विकास और पूँजीवादी अराजकता-विरोधी संघर्ष है I समाजवाद यदि नकली न होकर वास्तविक हो तो वह पर्यावरणीय संतुलन के साथ विकास करता है I वह न इंसानों की श्रम-शक्ति को लूटकर उन्हें तबाह करता है, न ही प्रकृति को तबाह करता है I यानी प्रकृति और पर्यावरण को बचाने की लड़ाई भी पूँजीवाद-विरोधी लड़ाई का ही एक अंग है I इसी रूप में वह सफल हो सकता है I पूँजीवाद के बने रहते हुए पर्यावरण को बचने की सोच एक यूटोपिया है !#दून_डायरी——————————————————————————————–
Swati Mishra· बिहार के लोग कांख में अतीत की लग्घी दबाए दुनिया से मुकाबला कर रहे हैं. वैशाली, पाटलिपुत्र, बोधगया… वही गिने-चुने नाम. सब का सब अतीत. सैकड़ों-हज़ारों साल पुराने इतिहास पर फूलकर कुप्पा होने की आदत. अभी का कुछ नहीं गिनाने को. हैं तो बस जन साधारण जैसी ट्रेन, जो देशभर में मजदूरों की सप्लाई करने के काम आती हैं. रिक्शा चलाने को भी बिहार से बाहर जाना पड़ता है. बाकी या तो दुकान खोलो या फिर सरकारी नौकरी. वर्ना 10-15 हज़ार की इधर-उधर की मामूली नौकरियां. तीन साल का ग्रेजुएशन पूरा करने में 5-6 साल लग जाते हैं. जिनके पास पैसा है, वो अपने बच्चों को बाहर पढ़ाते हैं. BA जैसे साधारण कोर्सेज के लिए भी बिहार से बाहर जाना पड़ता है. ढंग के अस्पताल नहीं हैं.
मैं दरभंगा की हूं. वहां का सबसे बड़ा अस्पताल है DMCH. देखने जाएंगे, तो चरवाहा विद्यालय लगेगा. मोतियाबिंद के ऑपरेशन तक के लिए आप उसपर भरोसा नहीं कर सकते. अगल-बगल के गांवों के किसान परिवार अपने लड़कों को दरभंगा शहर भेजते हैं. ललित नारायण मिथिला विश्विद्यालय में दाखिला लेकर लड़का 300-400 पर कमरा लेता है. बैंक पीओ या किसी और सरकारी नौकरी की तैयारी करता है. गेस पेपर पढ़कर कॉलेज पास करता है. वो हो ही नहीं पाता इस लायक कि बिहार से बाहर जाकर अच्छे कॉलेजों से पढ़कर आए बच्चों का मुकाबला कर सके. अंग्रेजी से ज़िंदगी भर ऐसे दहशत खाता है जैसे भाषा न हो, पिशाच हो. शादी करवाने की मजबूरी में मां-बाप बेटी को BA कराते हैं. दरभंगा के कॉलेज में दाखिला दिलवा दिया, लेकिन लड़की कभी कॉलेज नहीं जाएगी. फॉर्म भरते समय परिवार का कोई साथ लेकर आएगा. फिर परीक्षा भी ऐसे ही दिलवाई जाएगी. लड़की जितनी देर तक अंदर परीक्षा लिखेगी, घर का कोई बाहर बैठकर इंतज़ार करेगा. पास करने के लिए पढ़ने की भी ज़रूरत नहीं. नकल ज़िंदाबाद. ऐसे सिस्टम से कैसी पीढ़ी तैयार होगी? आप गिनाते रहिए IAS-IPS. दिमाग पर जोर लगाने की ज़रूरत क्या है कि इतनी आबादी-इतने युवाओं में रत्तीभर लोग ही ये सब बन पाते हैं. कहने को तो बिहार के मुख्य सचिव भी दरभंगिया हैं. उससे क्या? हालात ठेंगा बदलेंगे. दरभंगा तो बस सैंपल के लिए बता रही हूं. उस अकेले का नहीं, पूरे बिहार का यही हाल है. हम कुछ नया ढंग का नहीं बना पा रहे. जो पुराना था, वो भी मर रहा है. एक वक़्त पूरे मिथिला में डेग-डेग पर पोखर थे. खुदवाने वाले खुदवा गए. अब अवैध कब्ज़े के लिए या तो उन पोखरों को भर दिया जा चुका है, या वो सड़ रहे हैं. न सड़कें हैं, न बुनियादी ढांचा. जो ढांचा है, वो नाकाफ़ी है. हम बिहारी फिर भी जाने किस बात पर सीना चौड़ा करके चलते हैं? एक से एक खराब नेता चुने हमने. ऐसे नेता, जिन्होंने अपने-अपने क्षेत्रों के लिए ख़ाक कुछ नहीं किया. मगर हम फिर भी जाति-धर्म पर ही वोट देते हैं.
ठीक है कि हम और हमारे दादा-परदादा पैदा हुए वहां. तो? इससे बिहार महान हो गया? गरीबी, लाचारी, मजबूरी और अभाव को रोमांटिसाइज करने से क्या मिल जाएगा? बात रही लोगों के संघर्ष की, तो संघर्ष के सिवा चारा ही क्या है? इसमें रोमानी कुछ भी नहीं. निरी मजबूरी है. बीते कल पर कितने ललित निबंध लिखेंगे हम? इसको भावुकता नहीं, मूर्खता कहते हैं. और मूर्खताओं के ही कारण हम इतने पिछड़े हैं. बिहार पर गर्व करने से पहले गर्व करने जैसा कुछ हासिल भी करना होगा. ये अलग बात है कि कहां पैदा हुए, किस घर जन्मे ये बस संयोग होता है. उसपर गर्व नहीं किया जा सकता.इसलिए ‘गर्व से कहो हम बिहारी हैं’ लिखना बंद करें. ये और कुछ नहीं, अपनी खिल्ली उड़वाना है.
Shambhunath Nath is with Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna and 41 others.
2 hrs ·
राजनेताओं ने रज़िया बना डाला कानपुर को
बच गया बस ‘शिट’ !
शंभूनाथ शुक्ल
कानपुर में टैनिंग (चमड़े का शोधन) का काम नमामि गंगे की भेंट चढ़ गया है. इस काम में उद्योगपति मुसलमान हैं और वर्कर हिंदू चर्मकार. अब वर्कर की तो मुंह खोलने की कोई हैसियत यूँ भी नहीं होती और मुस्लिम उद्योगपति भगवा के भय की वजह से चुप है और अब वह सौदेबाज़ी भी कर चुका है. पिछले शनिवार को मैंने यहां के बड़े चमड़ा व्यवसायी और सीसामऊ क्षेत्र के विधायक इमरान सोलंकी से इस बारे में बातचीत करने की कोशिश की तो वे कन्नी काट गए और कहा जो भी हमारी एसोसिएशन तय करेगी, हम उसी को मान लेंगे. उन्होंने कहा आप मुख्तारुल अमीन से बात करिये. पर मुख्तारुल साहब को अब चमड़ा उद्योग में कम अपने डीपीएस (दिल्ली पब्लिक स्कूल) चलाने की ज्यादा फिक्र है. कुछ भी हो अब चाहे हिंदू हो या मुसलमान, हर व्यवसायी स्कूल/कालेज या अस्पताल खोलने में अधिक रुचि लेता है. आखिर उसमें झंझट कुछ नहीं और कमाई बेहिसाब है. रह गए बेचारे वर्कर तो चमड़ा-कारखानों में काम कर रहे 50 हज़ार चमड़ा मज़दूरों और उनके परिवार के ढाई लाख सदस्यों की फिक्र किसे है. ये वर्कर दलित हैं.
आज़ादी के समय कानपुर दिल्ली से अधिक सुन्दर, विशाल और खुशहाल शहर था. जब कोई आदमी रात के समय इस शहर से होकर ट्रेन से गुजरता तब मीलों तक बिजली के जलते बल्बों की रौशनी उसकी आँखों को चौंधियाती. तब कपड़ा, लोहा, चमड़ा और छपाई उद्योग यहाँ खूब था., इसके अलावा तेल मिलें, दाल मिलें और चीनी मिलें पूरे शहर को गुलज़ार करतीं. ठीक है, तब भी यहाँ प्रदूषण था, धुआँ उगलती मिलें, धड़धड़ाती ट्रेनें और मीलों के भोंपुओं का शोर था. लेकिन तब यह शहर जीवंत था. लाखों मज़दूरों को यहाँ रोज़गार था. उनका परिवार था. लेबर कालोनियाँ थीं. भले तब स्वच्छ भारत का नारा नहीं था, लेकिन तब शहर सही में स्वच्छ था.
इस कानपुर शहर के उत्थान और पतन पर मेरा शोध लगभग पूरा है. अब इसे लास्ट टच देना है. इस शहर को सब ने चौपट किया है, हिंदुओं ने ज्यादा मुसलमानों ने कुछ कम पर किया उन्होंने भी है. क्योंकि कानपुर जिन उद्यमी और विज़नरी मुसलमानों के दिमाग की उपज था, वे जिन्नाह के लपेटे में आकर पाकिस्तान चले गए.
(अब आप कानपुर पर मेरी पुस्तक का इंतज़ार करें)
Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
13 hrs ·
इस सृष्टि के सर्वाधिक असभ्य , बर्बर , स्वार्थी और मूर्ख तथा अदूरदर्शी मनुष्य वाशिंगटन , टोक्यो , लंदन , शंघाई , पेरिस तथा दिल्ली में रहते हैं । जबकि भविष्य द्रष्टा , हुनरमंद एवं सुसंस्कृत मनुष्यों की बसर आदिवासी – जनजातीय क्षेत्रों में है । यमुना के उद्गम रवाईं घाटी के अपने ताज़ा दौरे के दौरान मुझ पर फिर से यह रहस्य खुला ।
महानगरों के निवासी भस्मासुर के अवतार हैं । ये खाते नहीं अपितु भकोसते हैं । इन राक्षसों को भकोसने के लिए हवा , पानी , तरकारी , बकरी , पनीर और तेल सब कुछ अपरिमित मात्रा में चाहिए । एक जनजातीय निवासी एक लोटा पानी मे अपने सुबह के तमाम नित्य कर्म सम्पन्न कर लेता है , जबकि शहरी राक्षस जितनी बार मूतता है , उतनी ही बार फ्लश चला कर , हर बार दस लीटर पानी खल्लास कर डालता है ।
इनकी दैत्याकार गाड़ियों पर बज्जर पड़े । इनके एक्सप्रेस हाईवेज़ पर चरस की झाड़ी जमे । इनके इन्फो सिस्टम को सांप सूंघ जाए । ये अपनी नक्षत्रों को छूती ऊंची इमारतों की छत से गिरें , लिफ्ट में फंसे ।
नदियों को नाला बनाने वाले , हरी पृथ्वी का कलर ग्रे करने वाले इन मूर्खों की प्रजाति का नाश हो । ये नपुंसक हो जाएं । इस पृथ्वी पर प्रकृति और संस्कृति की रक्षक जनजातियों का साम्राज्य कायम हो ।
मैं शहरी नागरिकता से स्थायी तौर पर इस्तीफा देता हूँ।