by–पुण्य प्रसून बाजपेयी
बात 28 फरवरी 2002 की है । बजट का दिन था । हर रिपोर्टर बजट के मद्देनजर बरों को कवर करने दफ्तर से निकल चुका था। मेरे पास कोई काम नहीं था तो मैं झंडेवालान में वीडियोकान टॉवर के अपने दफ्तर आजतक से टहलते हुये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हेडक्वार्टर पहुंच गया, जो 10 मिनट का रास्ता थ। मिलने पहुंचा था आरएसएस के तब के प्रवक्ता एमजी वैद्य से। नागपुर में काम करते वक्त से ही परीचित था तो निकटता थी । निकटता थी तो हर बात खुलकर होती थी । उन्होंने मुझे देखा हाल पूछा और झटके में बोले गुजरात से कोई खबर। मैंने कहा कुछ खास नहीं। हां गोधरा में हमारा रिपोर्टर पहुंचा है। पर आज तो बजट का दिन है तो सभी उसी में लगे हैं …मेरी बात पूरी होती उससे पहले ही वैघ जी बोले आइये सुदर्शन जी के कमरे में ही चलते हैं। सुदर्शन जी यानी तब के सरसंघचालक कुप्प सी सुदर्शन। मुझे भी लगा ऐसा क्या है। संघ हेडक्वार्टर की पहली मंजिल पर शुरुआत में ही सबसे किनारे का कमरा सरसंघचालक के लिये था तो वैद्य जी के कमरे से निकलकर सीधे वहीं पहुंचे। कमरे के ठीक बाहर छोटी से बालकानी सरीखी जगह। वहां पर सुदर्शन जी बैठे थे और वैद्य जी मिलवाते पर उससे पहले ही सुदर्शन जी ने देखते ही कहा क्या खबर है। कितने मरे हैं। कितने मरे है कहां? गुजरात में। मैंने कहा गोधरा में तो जो बोगी जलायी गयी, उसकी रिपोर्ट तो हमने रात में दी थी। 56 लोगों की मौत की पुष्टि हुई थी। नहीं नहीं हम आज के बारे में पूछ रहे हैं। आज तो छिट पुट हिंसा की ही खबर थी। साढे ग्यारह बजे दफ्तर से निकल रहा था तब समाचार एजेंसी पीटीआई ने दो लोगों के मारे जाने की बात कही थी। और कुछ जगह पर छिटपुट हिंसा की खबर थी । चलो देखो और कितनी खबर आती है। प्रतिक्रिया तो होगी ना। तो क्या हिंसक घटनायें बढेंगी। मैंने यू ही इस लहजे में सवाल पूछा कि कोई खबर मिल जाये। और उसके बाद सुदर्शनजी और वैद्य जी ने जिस अंदाज में गोधरा कांड की प्रतिक्रिया का जिक्र किया उसका मतलब साफ था कि गुजरात में हिंसा बढ़ेगी। और हिन्दुवादी संगठनों में गोधरा को लेकर गुस्सा है। करीब आधे घंटे तक गोधरा की घटना और गुजरात में क्या हो रहा है इसपर हमारी चर्चा होती रही। और करीब एक बजे संघ के प्रवक्ता एमजी वैद्य ने एक प्रेस रीलिज तैयार की जिसमें गोधरा की धटना की भर्त्सना करते हुये साफ लिखा गया कि , ‘गोधरा की प्रतिक्रिया हिन्दुओं में होगी।”
और चूंकि मैं संघ हेडक्वार्टर में ही था तो प्रेस रिलीज की पहली प्रति मेरे ही हाथ में थी और करीब सवा एक-डेढ़ बजे होंगे जब मैंने आजतक में फोन-इन दिया। और जानकारी दी कि गुजरात में भारी प्रतिक्रिया की दिशा में संघ भी है। और दो बजते बजते कमोवेश हर चैनल से बजट गायब हो चुका था। क्योंकि गुजरात में हिंसक घटनाओं का तांडव जिस रंग में था, उसमें बजट हाशिये पर चला गया और फिर क्या हुआ इसे आज दोहराने की जरुरत नहीं है । क्योंकि तमाम रिपोर्ट में जिक्र यही हुआ कि गोधरा को हिन्दुत्व की प्रयोगशाला तले मुसलमानों को सबक सिखाने का नरसंहार हुआ। तो ऐसे में लौट चलिये 31 अक्टूबर 1984 । सुबह सवा नौ बजे तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी को उनके दो सुरक्षा गार्ड ने गोली मार दी। और बीबीसी की खबर से लेकर तमाम कयासों के बीच शाम पांच बजे राष्ट्रपति विदेश यात्रा से वापस पालम हवाई अड्डे पर उतर कर सीधे एम्स पहुंचे और शाम छह बजे आल इंडिया रेडियो से श्रीमती गांधी की मृत्यु की घोषणा हुई। और उसके बाद शाम ढलते ढलते ही दिल्ली में गुरुद्वारो और सिखो के मकान, दुकान , फैक्ट्रियां और अन्य संपत्तियो को नुकसान पहुंचाने की खबर आने लगी । देर शाम ही दिल्ली में धारा 144 लागू कर दी गई । और पीएम बनने के साढे चार घंटे बाद ही देर रात राजीव गांधी ने ऱाष्ट्र के नाम संदेश देते हुये शान्ति और अमन बनाए रखने की अपील की । पर हालात जिस तरह बिगड़ते चले गये वह सिवाय हमलावरों या कहे हिंसक कार्वाई करने वालों के हौसले ही बढ़ा रहे थे । क्योंकि तब के गृहमंत्री पीवी नरसिंह राव ने 31 अक्टूबर की शाम को कहा, “सभी हालात पर चंद घंटों में नियंत्रण पा लिया जायेगा।” सेना भी बुलायी गई पर हालात नियंत्रण से बाहर हो गये। क्योंकि नारे “खून का बदला खून से लेंगे ” के लग रहे थे और 3 नवंबर को जब तक इंदिरा गांधी का अंतिम संस्कार पूरा हो नहीं गया तब तक हालात कैसे नियतंत्र में लाये जाये ये सवाल उलझा हुआ था। क्योंकि कांग्रेस की युवा टोली सडक पर थी। सिर्फ धारा 144 लगी थी। पुलिस ना सड़क पर थी। दंगाइयों को देखते ही गोली मारने के आदेश तो थे । कुछ इलाकों में कर्फ्यू भी लगाया गया । उपराज्यपाल ने राहत शिविर स्थापित करने से इंकार कर दिया । और तमाम हालातो के बीच दिल्ली के उपराज्यपाल ही 3 नवंबर को छुट्टी पर चले गये। तो देश के गृह सचिव को ही उपराज्यपाल नियुक्त कर दिया गया । और इस दौर में कांग्रेस नेता सज्जन कुमार , जगदीश टाइटलर और एचकेएल भगत की पहल से लेकर राजीव गांधी तक ने बड़े वृक्ष गिरने से धरती डोलने का जो जिक्र किया वह सीधे दंगा करने के लिये सड़क पर चाहे ना निकलने वाला हो पर दंगाइयों के हौसले बुलंद करने वाला तो रहा है। और तब जस्टिस सीकरी और बदरुद्दीन तैयबजी की अगुवाई वाली सिटीजन्स कमीशन ने अपनी जांच में निष्कर्ष निकाला, “पंजाब में लगातार बिगड़ती राजनीतिक स्थिति से ही नरंसहार की भूमिका बनी। श्रीमती गांधी की नृंशस हत्या ने इस संहार को उकसाया। कुछेक स्थानीय विभिन्नताओं के बावजूद अपराधो की उल्लेखनीय एकरुपता इस तथ्य की ओर सशक्त संकेत करती है कि कहीं ना कही इन सबका उद्देश्य ‘ सिखो को सबक सिखाना ” हो गया था। ”
तो इन दो वाक्यो में अंतर सिर्फ इतना है कि बीजेपी और संघ परिवार ने गुजरात दंगों को लेकर तमाम आरोपो से पल्ला जितनी जल्दी झाड़ा और क्रिया की प्रतिक्रिया कहकर हिन्दू समाज पर सारे दाग इस तरह डाले कि जिससे उसी अपनी प्रयोगशाला में दीया भी जलता रहे और खुद को वह हिन्दुत्व की रक्षाधारी भी बनाये रहे। हां, बतौर प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने जरुर राजधर्म का जिक्र कर आरएसएस से पंगा लिया। और संघ के भीतर का वही गुबार भी तब के गुजरात सीएम मोदी के लिये अमृत बन गया। पर दूसरी तरफ 1984 के सिख दंगों को लेकर कांग्रेस हमेशा से खुद को कटघरे में खड़ा मानती आई । तभी तो सिख प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह संसद से लेकर स्वर्ण मंदिर की चौखट पर माफी और पश्चाताप के अंदाज में ही नजर आये । जिसतरह विहिप, बजरंग दल से लेकर मोदी तक को संघ परिवार ने गुजरात दंगों के बाद सराहा वह किसी से छुपा नहीं है। और जिस तरह 84 के दंगों के बाद कानूनी कार्रवाई शुरु होते ही टाइटलर, सज्जन कुमार, भगत का राजनीतिक वनवास शुरु हुआ वह भी किसी से छुपा नहीं है। यानी सबकुछ सामने है कि कौन कैसे भागीदार रहा। और सच यही है कि तमाम मानवाधिकार संगठनों की जांच रिपोर्ट में ही दोनों ही घटनाओं को दंगा नहीं बल्कि नरसंहार कहा गया। खुद ऱाष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तक ने नरसंहार कहा । पर अब सवाल ये है कि आखिर 34 बरस बाद कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी को क्यों लगा या उन्हें क्यों कहना पडा कि 84 का दंगा कांग्रेस की देन नहीं है। तो मौजूदा वक्त की राजनीति को समझना होगा जिसमें नरेन्द्र मोदी की पहचान सिर्फ बीजेपी के नेता या संघ के प्रचारक के तौर भर की नहीं है । बल्कि उनकी पहचान के साथ गुजरात के दंगे या कहें उग्र हिन्दुत्व की गुजरात प्रयोगशाला जुड़ी है । और 2002 के गुजरात से निकलने के लिये ही 2007 में वाइब्रेंट गुजरात का प्रयोग शुरु हुआ । क्योंकि याद कीजिये 2007 के चुनाव में “मौत का सौदागर” शब्द आता है पर चुनाव जीतने के बाद मोदी वाइब्रेंट गुजरात की पीठ पर सवार हो जाते है। जिसने कारपोरेट को मोदी के करीब ला दिया या कहे बीजेपी के हिन्दुत्व के प्रयोग को ढंकने का काम किया । और उसी के बाद 2014 तक का जो रास्ता मोदी ने पकड़ा, वह शुरुआती दौर में कारपोरेट के जरीये मोदी को देश के नेता के तौर पर स्थापित करने का था और 2014 के बाद से मोदी की अगुवाई में बीजेपी / संघ ने हर उस पारपरिक मुद्दे को त्यागने की कोशिश की जो उसपर चस्पा थी ।
यानी सिर्फ गुजरात ही नहीं बल्कि राम मंदिर से लेकर कश्मीर तक के बोल बदल गये। और इस ट्रेनिंग से क्या लाभ होता है, इसे बखूबी कांग्रेस अब महसूस कर रही है । क्योंकि प्रचार प्रसार के नये नये रास्ते खुले है और देश सबसे युवा है जो अतीत की राजनीति से वाकिफ नहीं है या कहे जिसे अतीत की घटनाओं में रुचि नहीं है । क्योकि उसके सामने नई चुनौतियां हैं तो फिर पारंपरिक राजनीतिक पश्चाताप का बोझ कांघे पर उठा कर क्यों चले और कौन चले । लेकिन इसका दूसरा पहलू ये भी है कि अब 2019 की बिसात काग्रेस इस तर्ज पर बिछाना चाहती है जिसमें बीजेपी उसकी जमीन पर आ कर जवाब दें । क्योंकि नई राजनीतिक लडाई साख की है । कांग्रेस को लगने लगा है कि मोदी सरकार की साख 2016 तक जिस ऊंचाई पर थी वह 2018 में घटते घटते लोगों को सवाल करने-पूछने की दिशा तक में ले जा चुकी है। यानी कांग्रेस का पाप अब मायने नहीं रखता है बल्कि मोदी सरकार से पैदा हुये उम्मीद और आस अगर टूट रहे है तो फिर मोदी पुण्य भी मोदी पाप में बदलते हुये दिखाया जा सकता है । इसीलिये पहली चोट राहुल गांधी ने संघ परिवार की तुलना मुस्लिम ब्रदरहुड से की और दूसरा निशाना खुद को सिक दंगों से अलग कर गंगा नहाने की कोशिश ठीक वैसे ही की जैसे मोदी गुजरात के दाग विकास की गंगा के नारे में छुपा चुके हैं।
Girraj Ved
11 hrs ·
ऐ मोती तेरे कुत्ते हम
ऐसे घटिया हो हमारे करम
झूठ पर चलें और सच से टलें
ताकि ऐश करते हुए निकले दम
ये अँधेरा घना छा रहा
तेरा दुश्मन घबरा रहा
हो रहा बेखबर, कुछ न आता नज़र
सड़क पर गाड़ी से कुचला जा रहा
है तेरी भक्ति में वो दम
जो तिहाड़ी को बना दे नम्बर वन
झूठ पर चलें और सच से टलें
ताकि अटल बनकर न निकले दम …
जब किसी लोया से हो सामना
तब तू ही हमें थामना
वो फैसला सुनायें हम उसे निबटायें
हमेशा बदले की हो कामना
बढ़ उठे नफरत का हर कदम
और मिटे प्रेम भाईचारे का ये भरम
झूठ पर चलें और सच्चाई से टलें
ताकि तोगड़िया बनकर न गुजरे अंतिम जीवन …
बड़े घटिया है सच बोलने वाले आदमी
अभी लाखों हैं उनमें कमी
पर तू जो है खड़ा शैतान है बड़ा
तेरी नज़र घूमी उनकी सांसे थमी
दिया तूने हमे जब जनमतू ही देगा हमें दारू और मटन
झूठ पर चलें और सच से टलें
ताकि मार्गदर्शन मंडली बनने से बचे हम…
(भक़्तो का प्रातः स्मरणीय भजन ) Girraj Ved
21 hrs ·
आज दिनभर न्यूज चेनल्स पर बड़ी खबरें –
ABP News (मोदी को रखे आगे) –
12:00 से 03:00 – केरल में माँस खाने से आयी बाढ़
03:00 से 06:00 – क्या है राखी का द्रौपदी और कृष्ण कनेक्श ?
06:00 से 09:00 – मोदी जी के तलुवों में प्रति सेकंड कितना पसीना आता है ?
Aaj Tak (भक़्ति में सबसे तेज ) –
12:00 से 03:00 – गाय काटने से तबाह हुआ केरल
03:00 से 06:00 – राखी पर दान पुण्य का महत्व ?
06:00 से 09:00 – हिंदुस्तान के लिए दैवीय वरदान है मोदी
Zee News (दलाली ही धर्म ) –
12:00 से 03:00 – बकरीद पर केरल में इतने जानवर कटे की बाढ़ का पानी भी हो गया लाल
03:00 से 06:00 – रानी कर्णावती के साथ मुसलमान राजा हुंमायू ने की थी गद्दारी, राखी भेजने के बावजूद नहीं की सहायता
06:00 से 09:00 – मोदीजी के तलुवों का पसीना कितनी बीमारियों में कारगर है ! आज इसका DNA टेस्ट करते है
News 18 India (हम है मालिक के कुत्ते) –
12:00 से 03:00 – क्या ज्यादा क्रिश्चियन आबादी की वजह से इस बाढ़ में केरल को मिल रही है विदेशी मदद ?
03:00 से 06:00 – राखी पर क्या थी पाकिस्तान की नापाक साजिश ?
06:00 से 09:00 – मोदीजी देश के लिए कैसे एक दिन में 26- 26 घंटे हार्ड वर्क कर रहे है ?
NDTV india –
12:00 से 03:00 – 100 साल बाद आयी भीषण बाढ़ में तबाह हुआ केरल, आइये साथ मिलकर मदद को हाथ बढ़ाये
03:00 से लगातार 09:00 – केरल बाढ़ पीढ़ितो की सहायता हेतु फंड जुटाने के लिए लगातार 6 घंटे का विशेष शो ! प्लीज़ डोनेट #KeralaReliefFund (और 6 घंटे में बाढ़ पीढ़ितो के लिए 10 करोड़ रुपए से ज्यादा की मदद जुटा ली)
#Istandwithndtv—————————–दुर्ग ने किया खुलासा- बाड़मेर पुलिस ने परिजनों से ऐंठे 80 हजार रुपये
Posted on August 27, 2018 by विनायक विजेता
पटना। राजस्थान के बाडमेर में ‘इंडिया न्यूज’ के संवाददाता दुर्ग सिंह राज पुरोहित आज दोपहर बाद जमानत पर बेऊर जेल से रिहा हो गए। जेल से निकलने के बाद दुर्ग सिंह ने मीडिया के सामने यह सनसनीखेज खुलासा किया कि बाडमेर से गिरफ्तार कर उन्हें पटना लाने वाली राजस्थान पुलिस ने उनके परिजनों से जबरन 80 हजार रुपये वसूल लिए।
बाडमेर पुलिस ने 60 हजार रुपये उस इंडीवर कार के किराए के रुप में वसूले जिस कार से दुर्ग सिंह को बउडमेर से पटना लाया गया था। इसके अलावा बाडमेर पुलिस के साथ आए एक पुलिस इंस्पेक्टर ने पटना पुलिस को देने के नाम पर अलग से बीस हजार रुपये ले लिए। इसके पूर्व इस मामले में विवाद में आए बाडमेर के एसपी मनीष अग्रवाल की गलत कार्यशैली के बाद राजस्थान पुलिस के इस कारनामें और दुर्ग सिंह के इस खुलासे के बाद राजस्थान पुलिस के इस कारनामे और गिरी हुई हरकत ने यह कहावत चरितार्थ कर दिया है कि ‘बड़े मियां तो बड़े मियां-छोटे मियां सुभान अल्लाह….।’
जिस समय दुर्ग सिंह जेल के बाहरी गेट के पास वहां मौजूद लगभग तीन दर्जन मीडियाकर्मियों को यह बयान दे रहे थे तो पास में खड़े जेल के कई सिपाही आपस में यह कहते हुए राजस्थान पुलिस पर कटाक्ष करते नजर आए कि ‘बिहार पुलिस मुफ्त में बदनाम है।’ जेल गेट पर विशेष बातचीत में दुर्ग सिंह ने कहा कि वे अपने जीवन में पहली बार बिहार आए हैं वह भी एक फर्जी केस में बेऊर जेल। पर जेल के अंदर इन पांच दिनों में ही बंदियों ने जिस तरह उन्हें स्नेह, प्रेम और अपनापन दिया उसे वह जीवन प्रर्यन्त नहीं भूल सकते।
उन्होंने कहा कि हमारी राजस्थान पुलिस से कहीं ज्यादा अच्छे और भले इस जेल के बंदी, कारा-रक्षक और अधिकारी है जिन्होंने मुझे परिवार का सदस्य समान समझा। एक तरफ उनके राज्य की पुलिस ने उनके परिजनों से रुपये ऐंंठ लिए जबकि यहां के लोग और यहां की मीडिया ने उनका और उनके परिजनों का दिल जीत लिया।
दुर्ग सिंह ने बेऊर जेल के अधीक्षक रुपक कुमार, जेलर अशोक सिंह का भी आभार पकट करते हुए कहा इन अधिकारियों ने कभी उन्हें बंदी की तरह ट्रीट नहीं किया। दुर्ग सिंह ने बिना नाम खोले यह आरोप लगाया कि बिहार में कुछ दिनों पूर्व तक संवैधानिक पद पर बैठे एक राजनेता के इशारे पर उन्हें फर्जी मुकदमें में फंसाया गया। इस मामले की वह बिहार व राजस्थान के मुख्यमंत्री और केन्द्र सरकार से सीबीआई्र जांच की मांग करेंगे। बाडमेर के इस बेबाक पत्रकार ने यह भी स्वीकार किया कि इस फर्जी मामले में पटना पुलिस की कहीं कोई भूमिका नहीं है।
उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री का आभार प्रकट करते हुए कहा कि माननीय मुख्यमंत्री ने इस मामले की जांच के आदेश दिए हैं पर उनकी मुख्यमंत्री से यह इल्तजा है कि वो बिहार के साथ राजस्थान के पत्रकारों का भी मान रखने के लिए मामले की जांच सीबीआई से कराने की अनुशंसा करें, ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो सके, तथा इस षड्यंत्र में शामिल सभी लोगों का चेहरा बेनकाब हो सके। जेल से बाहर आने और मीडियाकर्मियों से रुबरू होने के बाद दुर्ग सिंह सीधे अपने परिवार सहित पटना के जोनल आईजी कार्यालय की ओर रवाना हो गए जहां उन्हें इस मामले में अपना बयान देने के लिए बुलाया गया था।
लेखक विनायक विजेता बिहार के वरिष्ठ पत्रकार हैं.
https://www.youtube.com/watch?v=JSh_HbEW6sc
सही कहा आवेश तिवारी ने इसलिए लाख कुर्बानिया देकर और है हद से ज़्यादा टॉर्चर और मुसीबते झेल कर भी हमने अपना fulltime लेखक और छुटभय्या विचारक बनने का सपना जिलाये रखा और रखेंगे ——————
Awesh Tiwari
3 hrs ·
जब आप मीडिया इंडस्ट्रीज के पतन की वजहों को खोजेंगे तो आपको यह जानना होगा कि दरअसल अखबार और चैनलों के मालिक अखबार या चैनल चलाने के अलावा और क्या काम करते हैं? चीनी फैक्ट्री चलाने वाला देश के सर्वाधिक प्रसार वाले अखबार के प्रकाशन का दावा करता है। कोई चिटफंड चलाता है कोई मॉल तो किसी का बिस्कुट का कारखाना है। छतीसगढ़ में सरिया बेचने वालों ने कई चैनल खोल रखे है। यूपी में दारू बनाने वालों का भी अखबार है। मीडिया इंडस्ट्रीज को अपने अनुकूल बनाना है तो उनकी मदद करनी होगी जिनके पास पाठकों के या दर्शकों के अलावा और कुछ नही है। याद रखिये, यह दारू, सरिया, चीनी वाले ही खबरचियों की भक्त कौम पैदा कर रहे हैं।
Saurabh Mathura
1 September at 10:45 ·
मैं भी नक्सल
तू भी नक्सल
फूलों की ख़ुशबू भी नक्सल
शब्दों का जादू भी नक्सल
ये भी नक्सल वो भी नक्सल
फ़ैज़ भी और मंटो भी नक्सल
मुक्तिबोध की कविता नक्सल
ज्ञान तर्क की बातें नक्सल
आदिम दलित की जातें नक्सल
मार्क्स भी नक्सल लेनिन नक्सल
नाटक नक्सल गाना नक्सल
रोज़ी माँगने वाला नक्सल
रोटी माँगने वाला नक्सल
जो मेरे तलवे ना चाटे
ऐसा जर्नलिस्ट भी नक्सल
पेड़ों के पत्ते भी नक्सल
मधुमक्खी के छत्ते नक्सल
सड़क पे चलने वाला नक्सल
गाँव में रहने वाला नक्सल
जंगल ठेकेदार काट ले
पर असली हक़दार हैं नक्सल
पढ़ने लिखने वाला नक्सल
भूख से मरने वाला नक्सल
घर भी नक्सल खेत भी नक्सल
जे एन यू का प्रेत भी नक्सल
संविधान की बातें नक्सल
मज़दूरों की जमातें नक्सल
झंडा हो गर लाल तो नक्सल
नीला हो तो वो भी नक्सल
अर्बन नक्सल रूरल नक्सल
टीचर नक्सल, स्टूडेंट्स नक्सल
नक्सल नक्सल सारे नक्सल
– कपिल दा
Hemant Kumar Jha
5 hrs ·
राजनीति जब आर्थिक सवालों को हल करने में विफल रहती है तो भावनात्मक मुद्दों की ओर रुख करती है। यह उसकी विवशता भी है और उसका स्वभाव भी।
भावनात्मक मुद्दों का ऐसा है कि इनमें तटस्थ रहना कठिन हो जाता है और आप आमतौर पर कोई न कोई साइड पकड़ते हैं। अपनी-अपनी पृष्ठभूमि और अपने-अपने मनोविज्ञान के आधार पर मतदाताओं में भावनात्मक विभाजन होता है और राजनेताओं का काम आसान हो जाता है।
ऐसी राजनीति पक्ष और विपक्ष सब के लिये आसान होती है इसलिये सब मिल कर इसे हवा देते हैं। इसमें पहला सुभीता तो यह है कि सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी पिच पर बैटिंग करते हैं। निर्भर इस पर करता है कि प्रतिद्वंद्वी दल की स्विंग लेती गेंदों का सामना कौन किस तरीके से करता है।
जो अपने मुद्दों पर मतदाताओं को जितना बरगला सका उसकी चुनावी संभावनाएं उतनी मजबूत होती हैं। फिर तो…जीते चाहे कोई, हारती है वो जनता जिसके आर्थिक सवाल पीछे रह जाते हैं।
इधर हाल में…जातीय मुद्दे इस कदर हावी होते गए हैं कि रोजगाड और अन्य आर्थिक मुद्दे तो क्या, धर्म और राष्ट्र आदि के मुद्दे भी नेपथ्य में जाते दिख रहे हैं। यह परिस्थिति खास कर भाजपा के लिये दोधारी तलवार साबित हो सकती है जिसके अध्यक्ष अपनी सोशल इंजीनियरिंग के लिये खासी शोहरत और क्रेडिट बटोर चुके हैं। लेकिन…वो कहा जाता है न कि अधिक सयानापन कभी-कभी भारी भी पड़ जाता है। तो…भाजपा फिलवक्त उसी चुनौती से दो-चार हो रही है। एससी/एसटी एक्ट के संदर्भ में उसने जो भी कदम बढ़ाए उससे एससी/एसटी के वोट उसको मिलेंगे ही इसकी कोई गारंटी नहीं, इधर सवर्णों का कोप उसके लिये चिन्ता का विषय बन गया है। यही कारण है कि अमित शाह ने अपने कुछ खास सांसदों को सवर्ण मतदाताओं को समझाने की जिम्मेदारी दी है।
अपने अध्यक्ष के दिये टास्क को ये सांसद कैसे पूरा करेंगे? कहने के लिये उनके पास क्या है? बेरोजगारी के मामले में स्थितियां अराजक हो चुकी हैं और सवर्ण युवा भी इससे उतने ही पीड़ित हैं जितने अन्य लोग। आर्थिक मोर्चे पर सरकार की विफलताओं की लिस्ट लंबी होती जा रही है और इससे उबरने के कोई सकारात्मक संकेत नजर नहीं आ रहे। विकास दर का ढिंढोरा अपनी जगह, लेकिन जमीनी हकीकत खतरनाक शक्ल अख्तियार करती जा रही है। ऊपर से, भाजपा का दलित प्रेम, जो भले ही कृत्रिम हो, अधिकतर सवर्णों के गले नहीं उतर रहा। उन्हें लगता है कि जिस सरकार को वे अपना हितैषी मानते थे उसने उनके साथ छल किया है। वे इस हकीकत को स्वीकार करने को तैयार नहीं कि भारतीय समाज अभी भी सामंती और जातीय श्रेष्ठता की ग्रंथियों से बंधा है और कमजोर वर्गों के लिये विशेष कानूनों की जरूरतें खत्म नहीं हुई हैं।
इसमें संदेह नहीं कि भाजपा हिन्दी पट्टी के सवर्ण मतों को अपनी झोली की चीज मानती है और आज की तारीख में यह मानना कोई गलतफहमी भी नहीं है। सवर्णों की विकल्पहीनता ने उन्हें राजनीतिक रूप से हास्यास्पद बना डाला है। जाहिर है, इसके जिम्मेवार भी ये स्वयं ही हैं जिन्होंने मोदी सरकार के एक से एक जनविरोधी और रणनीतिक रूप से विफल कदमों का आंख मूंद कर समर्थन करना जारी रखा।
यह शोध का विषय है कि राजनीतिक रूप से बेहद जागरूक और आनुपातिक रूप से अत्यंत पढ़ा-लिखा वर्ग होने के बावजूद अधिकतर सवर्ण क्यों ‘मोदी-मोदी’ की रट लगाते रहे जबकि सत्ता में आने के साल भर बीतते न बीतते मोदी के “अच्छे दिनों” की कुरूप हकीकतें सामने आने लगी।
सवर्णों के इस व्यामोह का एक बड़ा कारण तो यह लगता है कि भाजपा के ‘हिंदुत्व’ और ‘राष्ट्र’ की विशिष्ट अवधारणाओं में सवर्ण वर्चस्व की अंतर्धारा बहती है। आप वैदिक परंपराओं की महानता का और प्राचीन भारत की काल्पनिक गौरव गाथाओं का जितना गुणगान करेंगे, सवर्ण श्रेष्ठता की कृत्रिम अवधारणाएं उतनी ही प्रतिष्ठित होती जाएंगी।
व्यावहारिक राजनीति में हाशिये पर सिमटते सवर्णों में बहुत सारे लोग अपनी श्रेष्ठता ग्रन्थि से मुक्त नहीं हो पाए हैं और भाजपा की अवधारणात्मक राजनीति ने उनकी इस ग्रन्थि को सहलाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी।
यही कारण है कि हाल के वर्षों में दलितों और मुसलमानों पर अत्याचार के मामले बढ़ते गए हैं। कानून की सख्त धाराएं अपनी जगह रहीं और कमजोर वर्गों पर बढ़ते अत्याचार में इन धाराओं का कोई डर नहीं दिखा। भाजपा के कुछ नेताओं/मंत्रियों के बयान इन अत्याचारों की आग में घी का काम करते रहे।
नतीजा…कुछ शरारती और बेलगाम तत्वों की हरकतों से बदनामी का ठीकरा पूरे सवर्ण समुदाय पर फूटा। समाज का सबसे प्रगतिशील और बौद्धिक तबका किसी खास राजनीतिक पार्टी की प्रतिगामी राजनीति और इससे उपजी अराजकताओं का बोझ अपने कंधे पर लादे अन्य अनेक समुदायों की आंखों की किरकिरी बनता गया।
शायद मैं गलत होऊं, लेकिन मुझे लगता है कि भारतीय इतिहास में सवर्ण जितना इस दौर में सामाजिक रूप से अलग-थलग होता गया है, उतना कभी नहीं हुआ। यह तब…जब इन अराजकतावादी प्रवृत्तियों और घटनाओं के विरोध में इस वर्ग के लोग भी बड़ी संख्या में मुखर होकर सामने आते रहे।
भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग अपनी जगह है और 2019 को देखते हुए उसके रणनीतिकार गहरे मंथन में लगे ही होंगे, लेकिन अब 2014 की परिस्थितियां तो नहीं ही हैं, यहां तक कि 2017 के यूपी चुनाव की परिस्थितियां भी नहीं हैं जब पिछड़ा राजनीति के अंतर्विरोधों को उभार कर भाजपा ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी।
बहुत जल्दी भाजपाई राजनीति के अपने अंतर्विरोध सामने आने लगे हैं और अब इतना आसान नहीं होगा कि लॉलीपॉप दिखा कर और भरमा कर अतिपिछड़ों के वोट का बड़ा हिस्सा हासिल कर लिया जाए। आप एक साथ दो नावों की सवारी का सयानापन अधिक दिनों तक नहीं दिखा सकते कि सवर्णों को उनके श्रेष्ठता बोध के कृत्रिम भावों से भी भरते रहें, इस वर्ग के कुछ अराजक तत्वों को खुली छूट भी देते रहें और राजनीतिक कलाबाजियां दिखाते हुए दलितों और अतिपिछड़ों के वोटों में भी बड़ी हिस्सेदारी का दावा करते रहें।
भारतीय राजनीति का सामाजिक पक्ष अब के दौर में जितना गतिशील है और इस कारण जितना जटिल हो चुका है उसमें अब किसी भी जातीय समूह को भरमा कर अपने पक्ष में बनाए रखना आसान नहीं है। एक्ट में संशोधन के बावजूद भाजपा को आगामी आम चुनाव में दलित वर्ग के वोटों की बड़ी संख्या हासिल होगी, इसकी अधिक उम्मीद नहीं। दलित जितना जागरूक होगा वह भाजपा की प्रतिगामी राजनीति का उतना ही विरोधी होगा। यही तथ्य अन्य कमजोर वर्गों पर भी लागू होता है।
और सवर्ण…? वे कृपया देखें कि जब भी उन्होंने सवर्ण आभामंडल के तले भारत बंद आदि का आह्वान किया, भाजपा समेत किसी भी राजनीतिक दल या किसी भी नेता की हिम्मत नहीं हुई कि उनके आह्वान को प्रत्यक्ष समर्थन देने की घोषणा करें। अप्रत्यक्ष उकसावा की बात अलग है। क्या यह आंखें खोलने के लिये पर्याप्त नहीं कि वे राजनीतिक रूप से किस तरह बंधुआ की श्रेणी में आ चुके हैं और उनकी विकल्पहीनता ने उन्हें किस कदर हास्यास्पद बना डाला है? जिस वर्ग की तीन चौथाई आबादी आर्थिक धरातल पर अस्तित्व के संघर्ष से जूझ रही हो उसे राजनीतिक रूप से प्रगतिशील होना ही होगा। इस वर्ग को मानना होगा कि प्रतिगामी राजनीति का समर्थन उन्हें कहीं का नहीं रहने देगा।
सवर्णों की आबादी का ऊपरी 20-25 प्रतिशत तबका प्रतिगामी राजनीति का सूत्रधार है क्योंकि इसी में उनके हितों की सुरक्षा है। नीचे के 75-80 प्रतिशत लोग तो राजनीति की इस प्रतिगामी दिशा के शिकार हैं। उसी तरह, जिस तरह दलितों-पिछड़ों की बड़ी आबादी इस राजनीति की शिकार है।
नियति एक दिन इन तमाम लोगों को एक वैचारिक बिंदु पर लाएगी क्योंकि इनकी नियति एक दूसरे से बंधी है। बाकी तमाम बंधन कृत्रिम साबित होंगे।
और… यह प्रगतिशील राजनीति से ही संभव होगा।
अरुण शोरी ने क्या सटीक मन्त्र दिया हे विपक्ष को की एक हो जाओ वार्ना वैसे भी गायब हो जाओगे मायावती नहीं समझती हे तो फिर उन्हें और पार्टी को गायब ही हो जाना हे ————————————
” Sarvapriya SangwanYesterday at 07:44 · हिंदुस्तान टाइम्स का एडिटोरीयल है कि विपक्ष को मायावती की ज़रूरत है. गोरखपुर, फूलपुर और कैराना के उप-चुनावों का नतीजा बताता है कि महागठबंधन में मायावती का होना कितना ज़रूरी है.लेकिन मायावती के तेवर ऐसे हैं जैसे उन्हें किसी की ज़रूरत ही नहीं. दलित युवा नेता चंद्रशेखर रावण को जिस तरह अपने से दूर छींटकने की जल्दी उन्होंने दिखाई, उससे साफ़ है कि वो दलितों की नुमाइंदगी नहीं बल्कि ठेकेदारी की इच्छा रखती हैं. वो दलित नेता तो बन गयीं लेकिन लीडरशिप दिखाई नहीं देती क्योंकि ना वो पार्टी के अपनों को संभाल पायीं और ना किसी को अपनाना चाहती हैं.अभी से ही वो प्रेस में कहने लगीं हैं कि ‘सम्माजनक’ सीटें दीजिए वरना अलग लड़ेगी मेरी पार्टी. अभी भी संप्रदायिकता और दलितों के ख़िलाफ़ अत्याचार से लड़ना उनकी प्राथमिकता में दिखाई नहीं देता. कांग्रेस ने गुजरात में जिगणेश मेवानी को समर्थन दिया, अखिलेश यादव दो क़दम पीछे हटने को तैयार हैं और वहीं मायावती की बोली देखिए. मायावती को भी अगर लगता है कि वो ही सबकी ज़रूरत हैं तो उन्हें भी अपने पिछले चुनावों के गोल नतीजे देख लेने चाहिए.
मायावती जब मुख्यमंत्री पद पर पहुँची तो ये इस देश की ऐतिहासिक घटना थी जिस पर गर्व ही करना चाहिए. दलित महिला राजनीतिज्ञ होने की वजह से उन्हें सेलिब्रैट किया जाता है तो फिर इन्हीं मुद्दों पर उनसे सवाल बनते हैं ना. बाक़ी मुख्यमंत्री के तौर पर उनकी नाक के नीचे हुए NRHM घोटाले और जेल में CMO की मौत पर भी बात हो सकती है. जिस दलित नेता से हिंसा करवाने की वजह से वे दूरी बना रहीं हैं, वो जेल काट कर आया है और मायावती अपने ऊपर दायर मुक़दमों से बचने के लिए कभी बैक-डोर समझौते करती रहीं तो कभी संसद से वॉक-आउट कर जाती थीं.किंगमेकर बनने के लिए अगर ये आपका राजनीतिक पैंतरा है तो ये बनना आपकी व्यक्तिगत उपलब्धि होगी, इसमें जनता के लिए क्या है?हमारे एक सीनियर पत्रकार जब आपके साथ यात्रा करके लौटे थे तो उन्होंने लिखा था कि वे ब्राह्मणों में दलित हैं और आप दलितों में ब्राह्मण. क्या दलितों को भी आपके जैसे नेतृत्व की ज़रूरत है?