by — पुण्य प्रसून बाजपेयी
आजादी के 71 बरस पूरे होंगे और इस दौर में भी कोई ये कहे , हमें चाहिये आजादी । या फिर कोई पूछे, कितनी है आजादी। या फिर कानून का राज है कि नहीं। या फिर भीडतंत्र ही न्यायिक तंत्र हो जाए। और संविधान की शपथ लेकर देश के सर्वोच्च संवैधानिक पदो में बैठी सत्ता कहे भीडतंत्र की जिम्मेदारी हमारी कहा वह तो अलग अलग राज्यों में संविधान की शपथ लेकर चल रही सरकारों की है। यानी संवैधानिक पदों पर बैठे लोग भी भीड़ का ही हिस्सा लगे। संवैधानिक संस्थायें बेमानी लगने लगे और राजनीतिक सत्ता की सबकुछ हो जाये । तो कोई भी परिभाषा या सभी परिभाषा मिलकर जिस आजादी का जिक्र आजादी के 71 बरस में हो रहा है क्या वह डराने वाली है या एक ऐसी उन्मुक्त्ता है जिसे लोकतंत्र का नाम दिया जा सकता है। और लोकतंत्र चुनावी सियासत की मुठ्ठी में कुछ इस तरह कैद हो चुका है, जिस आवाम को 71 बरस पहले आजादी मिली वही अवाम अब अपने एक वोट के आसरे दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश में खुद को आजाद मानने का जश्न मनाती है। लालकिले के प्राचीर से देश के नाम संदेश को सुनकर गदगद हो जाती है । और अगली सुबह से सिस्टम फिर वही सवाल पूछता है कितनी है आजादी। या देश के कानों में नारे रेंगते हैं, हमें चाहिये आजादी । या कानून से बेखौफ भीड़ कहती है हम हत्या करेंगे-यही आजादी है । बात ये नहीं है कि पहली और शायद आखिरी बार 1975 में आपातकाल लगा तो संविधान से मिले नागरिकों के हक सस्पेंड कर दिये गये । बात ये भी नहीं है कि संविधान जो अधिकार एक आम नागरिक को देता है वह उसे कितना मिल रहा है या फिर अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल तो हर दौर में अलग अलग तरीके से बार बार उठता ही है । सवाल ये है कि बीते 70 बरस के दौर में धीरे धीरे हर सत्ता ने संविधान को ही धीरे धीरे इतना कुंद कर दिया कि 71 बरस बाद ये सवाल उठने लगे कि संविधान लागू होता कहां है और संविधान की शपथ लेकर आजादी का सुकून देने वाली राजनीतिक सत्ता ही संविधान हो गई और तमाम संवैधानिक संस्थान सत्ता के गुलाम हो गये । सुप्रीम कोर्ट के भीतर से आवाज आई लोकतंत्र खतरे में है।
संसद के भीतर से अवाज आई सत्ता को अपने अपराध का एहसास है इसलिये सत्ता के लिये सत्ता कही तक भी जा सकती है। लोकतंत्र को चुनाव के नाम पर जिन्दा रखे चुनाव आयोग को संसद के भीतर सत्ता का गुलाम करार देने में कोई हिचकिचाहट विपक्ष को नहीं होती। तो चलिये सिलसिला अतीत से शुरु करें। बेहद महीन लकीर है कि आखिर क्यों लोहिया संसद में नेहरु की रईसी पर सवाल उठाते हैं। देश में असमानता या पीएम की रईसी तले पहली बार संसद के भीतर समाजवादी नारा लगा कर तीन आना बनाम सोलह आना की बहस छेड़ते है । क्यों दस बरस बाद वहीं जयप्रकाश नारायण कांग्रेस छोड इंदिरा गांधी के तानाशाही रवैये के खिलाफ जन आंदोलन की अगुवाई करते हुये नजर आते हैं। क्यों उस दौर में राजनीतिक सत्ता के करप्शन को ही संस्थानिक बना देने के खिलाफ नवयुवको से स्कूल कालेज छोड़ कर जेल भर देने और सेना के जवान-सिपाहियों तक से कहने से नहीं हिचकते की सत्ता के आदेशों को ना माने । क्यों जनता के गुस्से से निकली जनता पार्टी महज दो बरस में लडखड़ा जाती है । क्यों आपातकाल लगानी वाली इंदिरा फिर सत्ता में लौट आती है । क्यों एतिहासिक बहुमत बोफोर्स घोटले तले पांच बरस भी चल नहीं पाता। क्यों बोफोर्स सिर्फ सत्ता पाने का हथकंडा मान लिया जाता है। क्यों आरक्षण और राम मंदिर सत्ता पाने के ढाल के तौर पर ही काम करता है। और क्यों 1993 में वोहरा कमेटी की रिपोर्ट देश के सामने नहीं आ पाती जो खुले तौर पर बताती है कि कैसे सत्ता किसी माफिया तरह काम करती है। कैसे पूंजी का गठजोड सत्ता तक पहुंचने के लिये माफिया नैक्सेस की तरह काम करता है। कैसे क्रोनी कैपटलिज्म ही सत्ता चलाता है । कैसे 84 में एक भारी पेड़ गिरता है जो जमीन हिलाने के लिये सिखों का कत्लेआम देश इंदिरा की हत्या के सामने खारिज करता दिखायी देता है। कैसे गोधरा के गर्भ से निकले दंगे सियासत को नई परिभाषा दे देते हैं। और राजधर्म की नई परिभाषा खून लगे हाथो में सत्ता की डोर थमा कर न्याय मान लेते हैं। क्यों अन्ना आंदोलन के वक्त देश के नागरिकों को लगता है की पीएम सरीखे ऊपरी पदों पर बैठे सत्ताधारियों के करप्ट होने पर भी निगरानी के लिये लोकपाल होना चाहिये । और क्यों लोकपाल के नाम पर दो बरस तक सुप्रीम कोर्ट को सत्ता अंगूठा दिखाती रहती हैा चार बरस तक सत्ता कालेधन से लेकर कारपोरेट सुख में डुबकी लगाती नजर आती है पर सबकुछ सामान्य सा लगता है । और धीरे धीरे आाजद भारत के 71 बरस के सफर के बाद ये सच भी देश के भीतर बेचैनी पैदा नहीं करता कि 9 राज्यो में 27 लोगो की हत्या सिर्फ इसलिये हो जाती है कि कहीं गौ वध ना हो जाये या फिर कोई बच्चा चुरा ना ले जाये । और कानों की फुसफुसाहट से लेकर सोशल मीडिया के जरीये ऐसी जहरीली हवा उड़ती है कि कोई सोचता ही नहीं कि देश में एक संविधान भी है। कानून भी कोई चीज होती है। पुलिस प्रशासन की भी कोई जिम्मेदारी है । और चाहे अनचाहे हत्या भी विचारधारा का हिस्सा बनती हुई दिखायी देती है । सुप्रीम कोर्ट संसद से कहता है कड़ा कानून बनाये और कानून बनाने वाले केन्द्रीय मंत्री कहीं हत्यारों को ही माला पहनाते नजर आते हैं या फिर हिंसा फैलाने वालो के घर पहुंचकर धर्म का पाठ करने लगते हैं।
जो कल तक अपराध था वह सामान्य घटना लगने लगती है । लगता है कि इस अपराध में शामिल ना होगें तो मारे जायेंगे या फिर अपराधी होकर ही सत्ता मिल सकती है क्योंकि देश के भीतर अभी तक के जो सामाजिक आर्थिक हालात रहे उसके लिये जिम्मेदार भी सत्ता रही और अब खुद न्याय करते हुये अपराधी भी बन जाये तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि ये सत्ता का न्याय है । और इस “न्यायतंत्र ” में बिना चेहरों के अपराध में भागीदार बनाकर सत्ता ही न्याय कर रही है । और सत्ता ही इस संदेश को देती है कि 70 बरस में तुम्हे क्या मिला , बलात्कार , हत्या , लूटपाट सामान्य सी घटना बना दी गई । दोषियों को सजा मिलनी भी बंद हो गई । अपराध करने वाले 70 से 80 फीसदी छुटने लगे । कन्विक्शन रेट घट कर औसत 27 से 21 फिसदी हो गया । तो समाज के भीतर अपराध सामान्य सी घटना है । और अपराध की परिभाषा बदलती है तो चकाचौंध पाले देश में इनकम-टैक्स के दफ्तर या ईडी नया थाना बन जाता है । जुबां पर सीबीआई की जांच भी सामान्य सी घटना होती है । सीवीसी , सीएजी , चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट कोई मायने नहीं रखता । तो ये सवाल किसी भी आम नागरिक को डराने लगता है कि वह कितना स्वतंत्र है । न्याय की आस संविधान में लिखे शब्दो पर भारी प़डती दिखायी देती है । तो फिर जो ताकतवर होगा उसी के अनुरुप देश चलेगा । और ताकतवर होने का मतलब अगर चुनाव जीत कर सत्ता में आना होगा तो फिर सत्ता कैसे जीता जाता है समूचा तंत्र इसी में लगा रहेगा । और चुनाव जीतने या जिताने के काम को ही सबसे महत्वपूर्ण माना भी जायेगा और बना भी दिया जायेगा । और जितने वाला अपराधी हो तो भी फर्क नहीं पडता । हारने वाला संविधान का हवाला देते रहे तो भी फर्क नहीं पडता । यानी आजादी पर बंदिश नहीं है पर आजादी की परिभाषा ही बदल दी गई । यानी ये सवाल मायने रहेगा ही नहीं कि आजादी होती क्या है । गणतंत्र होने का मतलब होता क्या । निजी तौर पर आजादी के मायने बदलेंगे और देश के तौर पर आजादी एक सवाल होगा । जिसे परिभाषित करने का अधिकार राजनीति सत्ता कोहोगा । क्योकि देश में एकमात्र संस्था राजनीति ही तो है और देश की पहचान पीएम से होती है और राज्य की पहचान सीएम से । यानी आजादी का आधुनिक सुकून यही है कि 2019 के चुनाव आजाद सत्ता और गुलाम विपक्ष के नारे तले होंगे । फिर 2024 में यही नारे उलट जायेंगे । आज आजाद होने वाले तब गुलाम हो जायेगें । आज के गुलाम तब आजाद हो जायेंगे। तो आजादी महज अभिव्यक्त करना या करते हुए दिखना भर नहीं होता । बल्कि आजादी किसी का जिन्दगी जीने और जीने के लिये मिलने वाली उस स्वतंत्रता का एहसास है, जहा किसी पर निर्भर होने या हक के लिये गुहार लगाने की जरुरत ना पड़े।
संयोग से आजादी के 71 बरस बाद यही स्वतंत्रता छिनी गई है और सत्ता ने खुद पर हर नागरिक को निर्भर कर लिया है । जिसका असर है कि शिक्षा-स्वास्थ्य से लेकर हर कार्य तक में कोई लकीर है ही नहीं । तो रिसर्च स्कालर पर कोई बिना पढा लिखा राजनीतिक लुपंन भी हावी हो सकता है और कानून संभालने वाली संस्थाओ पर भीडतंत्र का न्याय भी हावी हो सकता है । मंत्री अपराधियो को माला भी पहना सकता है और मंत्री सोशल मीडिया के लुंपन ग्रूप से ट्रोल भी हो सकता है । और इस अंधी गली में सिर्फ ये एहसास होता है कि सत्ता की लगाम किन हाथो ने थाम रखी है । वही सिस्टम है वहीं संविधान । वही लोकतंत्र का चेहरा है । वहीं आजाद भारत का सपना है ।
आ गया आ गया, हिन्दी में राफेल लड़ाकू विमान से जुड़े सवाल-जवाब
रवीश कुमार August 09, 2018 22 Comments
सबसे पहले दो तीन तारीखों को लेकर स्पष्ट हो जाइये। 10 अप्रैल 2015 को प्रधानमंत्री मोदी और फ्रांस के राष्ट्रपति ओलांद रफाल डील का एलान करते हैं।
इसके 16 दिन पहले यानी 25 मार्च 2015 को राफेल विमान बनाने वाली कंपनी डास्सो एविएशन के सीईओ मीडिया से बात करते हुए हिन्दुस्तान एयरोनोटिक्स लिमिटेड के चेयरमैन का ज़िक्र करते हैं। कहते हैं कि “एचएएल चेयरमैन से सुनकर आप सुनकर मेरे संतोष की कल्पना कर सकते हैं कि हमने ज़िम्मेदारियों के साझा करने से सहमत हैं. हम रिक्वेस्ट फ़ॉर प्रपोजल( ROP) तय की गई प्रक्रिया को लेकर प्रतिबद्द हैं. मुझे पूरा भरोसा है कि कांट्रेक्ट को पूरा करने और और उस पर हस्ताक्षर करने का काम जल्दी हो जाएगा।”
आपने ठीक से पढ़ा न। बातचीत की सारी प्रक्रिया यूपीए के समय जारी रिक्वेस्ट ऑफ प्रपोजल के हिसाब से चल रही है। यानी नया कुछ नहीं हुआ है। यह वो समय है जब प्रधानमंत्री की यात्रा को लेकर तैयारियां चल रही हैं। माहौल बनाया जा रहा है। 16 दिन बाद प्रधानमंत्री मोदी फ्रांस के लिए रवाना होते हैं। यानी अब तक इस डील की प्रक्रिया में हिन्दुस्तान एयरोनोटिक्स लिमिटेड कंपनी शामिल है, तभी तो रफाल कंपनी के चेयरमैन उनका नाम लेते हैं। हिन्दुस्तान एयरोनोटिक्स सार्वजनिक क्षेत्र की यानी सरकारी कंपनी है। इसका इस क्षेत्र में कई दशकों का अनुभव है।
यात्रा के दिन करीब आते जा रहे हैं। दो दिन पहले 8 अप्रैल 2015 को तब के विदेश सचिव एस जयशंकर प्रेस से बात करते हुए कहते हैं कि “राफेल को लेकर मेरी समझ यह है कि फ्रेंच कंपनी, हमारा रक्षा मंत्रालय और हिन्दुस्तान एयरोनोटिक्स लिमिटेड के बीच चर्चा चल रही है. ये सभी टेक्निकल और डिटेल चर्चा है. नेतृत्व के स्तर पर जो यात्रा होती है उसमें हम रक्षा सौदों को लेकर शामिल नहीं करते हैं. वो अलग ही ट्रैक पर चल रहा होता है।”
अभी तक आपने देखा कि 25 मार्च से लेकर 8 अप्रैल 2015 तक विदेश सचिव और राफेल बनाने वाली कंपनी डास्सो एविएशन के सीईओ हिन्दुस्तान एयरोनोटिक्स लिमिटेड का नाम ले रहे हैं यानी पता चल रहा है कि यह कंपनी इस डील का पार्ट है। डील का काम इसे ही मिलना है।
अब यहां पर एक और तथ्य है जिस पर अपनी नज़र बनाए रखिए। मार्च 2014 में हिन्दुस्तान एविएशन लिमिटेड और डास्सो एविशेन के बीच एक करार हो चुका होता है कि 108 लड़ाकू विमान भारत में ही बनाए जाएंगे इसलिए उसे लाइसेंस और टेक्नालजी मिलेगी। 70 फीसदी काम हिन्दुस्तान एयरोनोटिक्स लिमिटेड का होगा, बाकी 30 फीसदी डास्सो करेगी।
10 अप्रैल को जब प्रधानमंत्री मोदी डील का एलान करते हैं तब इस सरकारी कंपनी का नाम कट जाता है। वो पूरी प्रक्रिया से ग़ायब हो जाती है और एक नई कंपनी वजूद में आ जाती है, जिसके अनुभव पर सवाल है, जिसके कुछ ही दिन पहले बनाये जाने की बात उठी है, उसे काम मिल जाता है। प्रशांत भूषण, यशंवत सिन्हा और अरुण शौरी ने अपनी प्रेस कांफ्रेंस में यह आरोप लगाए हैं। उन्हीं की प्रेस रीलीज़ से मैंने ये घटनाओं का सिलसिला आपके लिए अपने हिसाब से पेश किया है।
अब इस जगह आप ठहर जाइये। चलिए चलते हैं वहां जहां राफेल विमान की बात शुरू होती है। 2007 में भारतीय वायुसेना ने सरकार को अपनी ज़रूरत बताई थी और उस आधार पर यूपीए सरकार ने रिक्वेस्ट ऑफ प्रपोज़ल (ROP) तैयार किया था कि वह 167 मीडियम मल्टी रोल कंबैट (MMRC) एयरक्राफ्ट खरीदेगा। इसके लिए जो टेंडर जारी होगा उसमें यह सब भी होगा कि शुरुआती ख़रीद की लागत क्या होगी, विमान कंपनी भारत को टेक्नॉलजी देगी और भारत में उत्पादन के लाइसेंस देगी।
टेंडर जारी होता है और लड़ाकू विमान बनाने वाली 6 कंपनियां उसमें हिससा लेती हैं। सभी विमानों के परीक्षण और कंपनियों से बातचीत के बाद भारत की वायु सेना 2011 में अपनी पंसद बताती है कि दो कंपनियों के विमान उसकी ज़रूरत के नज़दीक हैं। एक डास्सा एविएशन का राफेल और दूसरा यूरोफाइटर्स का विमान। 2012 के टेंडर में डास्सो ने सबसे कम रेट दिया था। इसके आधार पर भारत सरकार और डास्सो कंपनी के बीच बातचीत शुरू होती है।
अब सवाल है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी ने जो डील की है वो पहले से चली आ रही प्रक्रिया और उसकी शर्तों के मुताबिक थी या फिर उसमें बदलाव किया गया? क्यों बदलाव हुआ? क्या भारतीय वायुसेना ने कोई नया प्रस्ताव दिया था, क्या डास्सो कंपनी ने नए दरों यानी कम दरों पर सप्लाई का कोई नया प्रस्ताव दिया था?
क्योंकि 10 अप्रैल 2015 के साझा बयान में जिस डील का ज़िक्र है वो 2012 से 8 अप्रैल 2015 तक चली आ रही प्रक्रिया और शर्तों से बिल्कुल अलग थी। 8 अप्रैल की बात इसलिए कही क्योंकि इसीदिन विदेश सचिव एस जयशंकर कह रहे हैं कि बातचीत पुरानी प्रक्रिया का हिस्सा है और उसमें हिन्दुसतान एयरोनोटिक्स लिमिटेड शामिल है। जबकि यह कंपनी दो दिन बाद इस डील से बाहर हो जाती है। एच ए एल को डील से बाहर करने का फैसला कब हुआ, किस स्तर पर हुआ, कौन कौन शामिल था, क्या वायु सेना की कोई राय ली गई थी?
अब यहां पर प्रशांत भूषण, अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा आरोप लगाते हैं कि 60 साल की अनुभवी कंपनी हिन्दुस्तान एयरोनोटिक्स( HAL) को सौदे से बाहर कर दिया जाता है और एक ऐसी कंपनी अचानक इस सौदे में प्रवेश करती है जिसका कहीं ज़िक्र नहीं था। होता तो विदेश सचिव एस जयशंकर HAL की जगह रिलायंस डिफेंस लिमिटेड का नाम लेते। 25 मार्च को डास्सो एविएशन के सी ई ओ HAL की जगह रिलायंस डिफेंस का नाम लेते।
प्रशांत भूषण का कहना है कि रिलायंस डिफेंस पर भारतीय बैंकों का 8000 करोड़ का कर्ज़ा बाकी है। कंपनी घाटे में चल रही है। अनुभव भी नहीं है क्योंकि इनकी कंपनी भारतीय नौ सेना को एक जहाज़ बनाकर देने का वादा पूरा नहीं कर पाई। फिर अनिल अंबानी की इस कंपनी पर ये मेहरबानी क्यों की गई? फ्री में ?
अनिल अंबानी की कंपनी ने इस सवाल पर एक जवाब दिया है। उसे यहां बीच में ला रहा हूं। ” हमें अपने तथ्य सही कर लेने चाहिए. इस कॉन्ट्रैक्ट के तहत कोई लड़ाकू विमान नहीं बनाए जाने हैं क्योंकि सभी विमान फ्रांस से फ्लाई अवे कंडीशन में आने हैं. भारत में HAL को छोड़ किसी भी कंपनी को लड़ाकू विमान बनाने का अनुभव नहीं है. अगर इस तर्क के हिसाब से चलें तो इसका मतलब होगा कि हम जो अभी है उसके अलावा कभी कोई नई क्षमता नहीं बना पाएंगे. और रक्षा से जुड़े 70% हार्डवेयर को आयात करते रहेंगे”
ओह तो भारत सरकार ने एक नई कंपनी को प्रमोट करने के लिए अनुभवी कंपनी को सौदे से बाहर कर दिया? “रक्षा से जुड़े 70 फीसदी हार्डवेयर का आयात ही करते रहेंगे।” अनिल अंबानी को बताना चाहिए कि वो कौन कौन से हार्डवेयर बना रहे हैं जिसके कारण भारत को आयान नहीं करना पड़ेगा। क्या उन्हें नहीं पता कि इस डील के तहत ट्रांसफर ऑफ टेक्नालजी नहीं हुई है। यानी डास्सो ने अपनी तकनीक भारतीय कंपनी से साझा करने का कोई वादा नहीं किया है। इस पर भी प्रशांत भूषण ने सवाल उठाए हैं कि यूपीए के समय ट्रांसफर ऑफ टेक्नालजी देने की बात हुई थी, वो बात क्यों ग़ायब हो गई। बहरहाल अनिल अंबानी की कंपनी स्वीकार कर लेती है कि वह नई है। अनुभव नहीं है। आप फिर से ऊपर के पैराग्राफ जाकर पढ़ सकते हैं।
भारत सरकार की बातें निराली हैं। जब यह मामला राहुल गांधी ने उठाया तो रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि देश के सामने सब रख देंगे। मगर बाद में मुकर गईं। कहने लगीं कि फ्रांस से गुप्तता का क़रार हुआ है।
जबकि 13 अप्रैल 2015 को दूरदर्शन को इंटरव्यू देते हुए रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर बता चुके थे कि 126 एयरक्राफ्ट की कीमत 90,000 करोड़ होगी.
एक रक्षा मंत्री कह रहे हैं कि 90,000 करोड़ की डील हैं और एक रक्षा मंत्री कह रही हैं कि कितने की डील है, हम नहीं बताएंगे।
यही नहीं दो मौके पर संसद में रक्षा राज्य मंत्री दाम के बारे में बता चुके थे तो फिर दाम बताने में क्या हर्ज है। आरोप है कि जब टेक्नालजी नहीं दे रहा है तब फिर इस विमान का दाम प्रति विमान 1000 करोड़ ज़्यादा कैसे हो गया? यूपीए के समय वही विमान 700 करोड़ में आ रहा था, अब आरोप है कि एक विमान के 1600-1700 करोड़ दिए जा रहे हैं। किसके फायदे के लिए?
अजय शुक्ला ने भी लिखा है कि डील के बाद प्रेस से एक अनौपचारिक ब्रीफिंग में सबको दाम बताए गए थे। उन् लोगों ने रिपोर्ट भी की थी। इसी फेसबुक पेज @RavishKaPage पर मैंने अजय शुक्ला की रिपोर्ट का हिन्दी अनुवाद किया है।
इस साल फ्रांस के राष्ट्रपति मैंक्रां भारत आए थे। उन्होंने इंडिया टुडे चैनल से कहा था कि भारत सरकार चाहे तो विपक्ष को भरोसे में लेने के लिए कुछ बातें बता सकती हैं। उन्हें ऐतराज़ नहीं है। आप ख़ुद भी इंटरनेट पर इस इंटरव्यू को सर्च कर सकते हैं।
अब यहां पर आप फिर से 25 मार्च 2015, 8 अप्रैल 2015 और 10 अप्रैल 2015 की तारीखों को याद कीजिए। प्रशांत भूषण का आरोप है कि 28 मार्च 2015 को अदानी डिफेंस सिस्टम एंड टेक्नॉलजी लिमिटेड और 28 मार्च को रिलायंस डिफेंस लिमिटेड कंपनी को इस प्रक्रिया में शामिल कर लिया जाता है। जो खेल 28 मार्च को हो गया था उसके बारे में भारत के विदेश सचिव को पता ही नहीं है। वो तो HAL का नाम ले रहे थे। यानी उन्हें कुछ पता नहीं था कि क्या होने जा रहा है।
प्रशांत भूषण इस स्तर पर एक नई बात कहते हैं। वे कहते हैं कि अगर किसी स्तर पर कोई नई कंपनी डील में शामिल होती है तो इसके लिए अलग से नियम बने हैं। 2005 में बने इस नियमावली को आफसेट नियमावली कहते हैं। इस नियम के अनुसार उस कंपनी का मूल्यांकन होगा और रक्षा मंत्री साइन करेंगे। तो क्या रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने किसी फाइल पर साइन किया था, क्या उन्हें इस बारे में पता था? साथ ही रक्षा मामलों की कैबिनेट कमीटी में क्या इस पर चर्चा हुई थी?
एक प्रश्न और उठाया है। 4 जुलाई 2014 को यूरोफाइटर्स रक्षा मंत्री अरुण जेटली को पत्र लिखती है कि वह अपनी लागत में 20 प्रतिशत की कटौती के लिए तैयार है। याद कीजिए कि 2011 में भारतीय वायु सेना ने दो कंपनियों को अपने हिसाब का बताया था। एक डास्सो और दूसरी यूरोफाइटर्स। प्रशांत भूषण, अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा का आरोप है कि जब यह कंपनी सस्ते में विमान दे रही थी तब नया टेंडर क्यों नहीं निकाला गया?
यूपीए के समय 18 विमान उड़ान के लिए तैयार अवस्था में देने की बात हो रही थी, अब 36 विमानों की बात होने लगी। क्या इसके लिए भारतीय वायु सेना अपनी तरफ से कुछ कहा था कि हमें 18 नहीं 36 चाहिएं? और अगर इसे तुरंत हासिल किया जाना था तो आज उस डील के तीन साल से अधिक हो गए, एक भी राफेल विमान क्यों नहीं भारत पहुंचा है?
रिलायंस डिफेंस का कहना है कि उस पर ग़लत आरोप लगाए जा रहे हैं कि इस सौदे से 30,000 करोड़ का ठेका मिला है। कंपनी का कहना है कि रिलायंस डिफेंस या रिलायंस ग्रुप की किसी और कंपनी ने अभी तक 36 राफेल विमानों से जुड़ा कोई कॉन्ट्रैक्ट रक्षा मंत्रालय से हासिल नहीं किया है. ये बातें पूरी तरह निराधार हैं।
जवाब में इस बात पर ग़ौर करें, “कोई कांट्रेक्ट रक्षा मंत्रालय से हासिल नहीं किया गया है। ”
लेकिन अपने प्रेस रीलीज में रिलायंस डिफेंस कंपनी एक और आरोप के जवाब में कहती है कि “विदेशी वेंडरस के भारतीय पार्टनर्स के चयन में रक्षा मंत्रालय की कोई भूमिका नहीं है. 2005 से अभी तक 50 ऑफसेट कांट्रेक्ट साइन हो चुके हैं, सब में एक ही प्रक्रिया अपनाई गई है. रिलायंस डिफेंस ने इसके जवाब में कहा है कि इस सवाल का जवाब रक्षा मंत्रालय ही सबसे सही दे सकता है।”
प्रशांत भूषण कहते हैं कि आफसेट कंपनी के लिए अलग से रूल है। आप समझ गए होंगे कि यहां रिलायंस डिफेंस कंपनी इसी आफसेट कंपनी के दायरे में आती है। प्रशांत कह रहे हैं कि ऐसी कंपनी के मामले में रक्षा मंत्री साइन करेंगे। अनिल अंबानी की कंपनी कहती है कि रक्षा मंत्रालय की कोई भूमिका नहीं होती है कि विदेशी वेंडर्स(विमान कंपनी) किस भारतीय कंपनी को अपना साझीदार चुनेगा?
क्या वाकई रक्षा मंत्रालय की इसमें कोई भूमिका नहीं है? मगर प्रशांत भूषण ने तो आफसेट नियमावली का पूरा आदेश पत्र दिया है। अनिल अंबानी को कैसे पता कि अभी तक 50 आफसेट कांट्रेक्ट साइन हो चुके हैं और सबमें एक ही प्रक्रिया अपनाई गई है? क्या रक्षा मंत्रालय के हिस्से का जवाब रक्षा मंत्रालय को नहीं देना चाहिए?
अब रिलायंस डिफेंस रक्षा मंत्रालय के बारे में एक और बात कहती है। ” ये समझना बेहतर होगा कि DPP-2016 के मुताबिक विदेशी वेंडर को इस चुनाव की सुविधा है कि वो ऑफ़सेट क्रेडिट्स के दावे के समय अपने ऑफसेट पार्टनर्स का ब्योरा दे सके। इस मामले में ऑफसेट obligations सितंबर 2019 के बाद ही ड्यू होंगी। इसलिए ये संभव है कि रक्षा मंत्रालय को Dassault से उसके ऑफ़सेट पार्टनर्स के बारे में कोई औपचारिक जानकारी ना मिली हो।
कमाल है। अनिल अंबानी को यह भी पता है कि रक्षा मंत्रालय में 50 आफसेट डील एक ही तरह से हुए हैं। यह भी पता है कि उनके डील के बारे में रक्षा मंत्रालय को पता ही न हो। वाह मोदी जी वाह ( ये अनायास निकल गया। माफी)
HAL के बाहर किए जाने पर रिलायंस डिफेंस की प्रेस रीलीज में जवाब है कि HAL 126 MMRCA प्रोग्राम के तहत नामांकित प्रोडक्शन एजेंसी थी जो कभी कॉन्ट्रैक्ट की स्टेज तक नहीं पहुंची।
लेकिन आपने शुरू में क्या पढ़ा, यही न कि 25 मार्च 2015 को डास्सो एविशन कंपनी के सीईओ HAL के चेयरमैन का शुक्रिया अदा कर रहे हैं और 8 अप्रैल 2015 को विदेश सचिव HAL के प्रक्रिया में बने रहने की बात कहते हैं। अगर यह कंपनी कांट्रेक्ट की स्टेज तक नहीं पहुंची तो डील के दो दिन पहले तक इसका नाम क्यों लिया जा रहा है।
सवाल तो यही है कि रिलायंस डिफेंस कैसे कांट्रेक्ट के स्टेज पर पहुंची, कब पहुंची, क्या उसने इसका जवाब दिया है, मुझे तो नहीं मिला मगर फिर भी एक बार और उनके प्रेस रीलीज़ को पढूंगा।
यह कैसी डील है कि अप्रैल 2015 से अगस्त 2018 आ गया अभी तक रक्षा मंत्रालय को जानकारी ही नहीं है, डास्सो एविएशन ने जानकारी ही नहीं दी है, और रिलायंस को सब पता है कि रक्षा मंत्रालय को क्या जानकारी है और क्या जानकारी नहीं है। वाह मोदी जी वाह( सॉरी फिर से निकल गया। )
आपने एक बात पर ग़ौर किया। सरकार कहती है कि इस डील से संबंधित कोई बात नहीं बता सकते। देश की सुरक्षा का सवाल है और गुप्तता का करार है। लेकिन यहां तो रिलायंस डिफेंस कंपनी चार पन्ने का प्रेस रीलीज़ दे रही है। तो क्या गुप्पतता का करार डील में हिस्सेदार कंपनी पर लागू नहीं है? सिर्फ मोदी जी की सरकार पर लागू है? वाह मोदी जी वाह( कान पकड़ता हूं, अब नहीं बोलूंगा, अनायस ही निकल गया)
अब तो रक्षा मंत्रालय को जवाब देना बनता है। रक्षा मंत्री नहीं बोल सकती तो कोई और मंत्री बोल दें। कोई ब्लाग लिख दे, कोई ट्विट कर दे। इस सरकार की यही तो खूबी है। कृषि पर फैसला होता है तो गृहमंत्री बोलते हैं और रक्षा मंत्रालय के बारे में कानून मंत्री बोलते हैं।
रिलायंस डिफेंस कहती है कि उसे 30,000 करोड़ का ठेका नहीं मिला है। डास्सो एविएशन किस ऑफसेट पार्टनर को कितना काम देगी, यह अभी तय नहीं हुआ है। डास्सो एविएशन ने इसके लिए 100 से अधिक भारतीय कंपनियों को इशारा किया है। इसमें से दो सरकारी कंपनियां हैं एचएएल और भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड।
क्या डास्सो एविएशन ने आंख मार कर इशारा किया है या सीटी बजाई है। 100 कंपनियां पार्टरन बनने वाली हैं फिर भी रक्षा मंत्रालय को आफसेट पार्टरन के बारे में पता नहीं होगा? रिलायंस को पता है मगर रक्षा मंत्रालय को नहीं। दो सरकारी कंपनियां हैं, उनके बारे में सरकार को तो पता होगा।
आप सभी पाठकों से निवेदन हैं कि मैंने हिन्दी की सेवा के लिए इतनी मेहनत की है। हिन्दी के अख़बारों में ये सब होता नहीं है। आप इसे करोड़ों लोगों तक पहुंचा दें।
अगर यशंवत सिन्हा, प्रशांत भूषण और अरुण शौरी के प्रेस कांफ्रेंस के बाद सरकार जवाब देगी तो उसे भी विस्तार से पेश करूंगा। इनकी प्रेस रीलीज़ बहुत लंबी है, अंग्रेज़ी में है इसलिए सारी बातें यहां पेश नहीं की हैं और न ही रिलायस डिफेंस के जवाब की सारी बातें। आप दोनों ही इंटरनेट पर सर्च कर सकतें हैं।
Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
13 August at 11:01 ·
एक अपील
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मेरी मित्र सूची पुनः अनायास ही 5 सहस्र तक पँहुच गयी है । कई सुयोग्य पात्रों को शामिल करना मुहाल है ।
मैं संप्रदायिकों , मूर्खों , घामड़ों , अहमकों , गधों और उल्लू के पट्ठों से निवेदन करता हूँ कि अपनी प्रवृत्ति से ओतप्रोत पोस्ट डाल कर अथवा मेरे वाल पर कमेंट कर अपना परिचय दें , ताकि जगह बना सकूं । न हो तो सन्निद्द 15 अगस्त को ध्यान में रख कोई अंध राष्ट्र वाद को झलकाती पोस्ट ही डाल दें । महती कृपा होगी । शीघ्र करें । आज ही 25 सीटें खाली करनी है । हमेशा की तरह मेरी मदद करें । इतना भी पर्याप्त होगा कि अपने प्रोफाइल पिक की जगह झंडे का फोटो लगाएं , ताकि मैं समझ पाऊं की आप झंडू हैं । गटर गैस के पक्ष में कुतर्क कर अथवा घर बैठे बिठाए चीन – पाकिस्तान को ललकार कर भी आप मेरा सहयोग कर सकते हैं ।
Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
14 hrs ·
विनय पत्रिका
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कृपया मुझे स्वतंत्रता दिवस की बधाई वाले सन्देश न भेजें । इसमे बधाई जैसी कोई बात वर्तमान में तो हरगिज़ नहीं है । स्वतंत्रता आपके या मेरे प्रयासों से नहीं मिली है । जिन्होंने इसके लिए विविध तरीक़ों से बलिदान दिया , और सुदीर्घ संघर्ष किया , आज देश उनके सपनों और आकांक्षाओं की धुर विपरीत दिशा में अग्रसर है । स्वतंतन्त्रता संघर्ष के महा नायक के जघन्य हत्यारे का महिमामंडन आज खुले आम हो रहा है । हत्यारों और ज़हरीले सांपों को प्रच्छन्न राजकीय संरक्षण प्राप्त है । अंग्रेजों की मुखबरी और दलाली करने वालों के विचार वंशज सर्वोच्च सत्ताओं पर हैं । देश को तोड़ने वाले राष्ट्र शत्रु पूजनीय हैं । यह मेरे लिए शर्म और ग्लानि का हेतु है । क्योंकि मेरे पिता ने अंग्रेजों , राजाओं की जेल सही । और आज मैं निष्क्रिय तथा पंगु हूँ। मैं स्वयं पर शर्मिंदा हूँ । भ्रष्ट कोंग्रेसियो से छूट कर देश और महा गर्त में जा गिरा है ।
मुझ पर कृपा करें । मैं इस अवसर पर न किसी को बधाई देता , न लेता । अस्तु , स्वाधीनता का मूल्य मैं खूब समझता हूं । मुझे इसके लिए आपकी अथवा किसी अन्य की आवश्यकता नहीं ।
Sanjay Shramanjothe
Yesterday at 08:51 ·
अभी स्वदेशी के एक प्रखर प्रवक्ता का लेक्चर सुन रहा था. उनका कहना है कि संस्कृत विश्व को भारत की पहली देन है और इससे भी पुरानी ब्राह्मी लिपि है. वे ब्राह्मी लिपि और भारतवर्ष – दोनों की आयु भी बताते हैं. उनके अनुसार भारत देश और ब्राह्मी लिपि दोनों एक अरब छियालीस करोड़ साल पुराने हैं.
इस आयु गणना को लेकर मैं चौंका. कभी कभी लगता है इस देश में कामन सेन्स नाम की कोई चीज ही नहीं है. यहाँ इतिहास, दर्शन, मनोविज्ञान, धर्म, चिकित्सा सबको जब तक सत्यनारायण की कथा न बना दें तब तक यहाँ के “बुद्धिजीवियों” को चैन नहीं मिलता. हर आयाम में हर विषय की दुर्गति करने में हम विश्वगुरु हैं.
मित्र इस आयु गणना के विषय में संयत भाषा में अपने विचार रख सकते हैं. कोई भी एकदूसरे पर आरोप न लगाएं, तथ्य और तर्क में बात करें.Follow
Sanjay Shramanjothe
13 August at 17:11 ·
भारत की गुलामी और पिछड़ेपन का असली कारण
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इस देश में एक तबका है जो अपने छोटे से दायरे में एक ही जाति और वर्ण के लोगों की टीम में बैठकर सदियों से निर्णय लेता रहा है। अन्य वर्ण और जातियों की क्या सोच हो सकती है उन्हें पता नहीं, न ही वे पता करने की जरूरत समझते हैं।
इसीलिए जिस हुजूम को भारत कहा जाता है वो कभी “एक समाज” नहीं बन सका। एक समाज बनते ही ऊपर के 15 प्रतिशत लोगों की सत्ता खत्म हो जायेगी और हाशिये पर पड़े लोगों को समाजनीति, राजनीति, व्यापार और धर्म में भी शामिल करना पड़ेगा। इस तरह समाज और देश में लोकतन्त्र को वास्तव वे जगह देनी होगी।
इस डर के कारण समानता के विचार से इस देश के ठेकेदारों को हमेशा से चिढ़ सी रही है।
समानता अगर आ गयी तो सामन्तवादी, पूंजीवादी और इश्वरसत्ता वादी कहां जायेंगे? ये प्रश्न ही खड़ा न हो इसलिए वे 15 प्रतिशत अभिजात्य नीचे के 85 प्रतिशत ओबीसी (शूद्रों) दलितों और आदिवासियों को शिक्षा, धर्म, राजनीती इत्यादि में शामिल ही नहीं होने देते थे। जब भारत अकेला था तब आंतरिक खेल में इसका जबरदस्त फायदा उन 15 प्रतिशत को होता रहा है।
लेकिन जब दूसरे सभ्य और जाति वर्ण विहीन मुल्कों से भारत की टक्कर हुई तब ये भारत का ये शोषक मॉडल बुरी तरह बेनकाब होकर पिट गया। इन 15 प्रतिशत मे से सिर्फ 5 प्रतिशत ने युद्ध और लड़ाई का अधिकार अपने पास सुरक्षित रखा था। 3 प्रतिशत ने पढ़ने का अधिकार रखा और शेष ने व्यापार पर कब्जा किया था।
लेकिन मुस्लिम, मंगोल, तुर्क, अफ़ग़ान, डच, स्पेनिश, पुर्तगीज, फ्रेंच और ब्रिटिश आदि समाजों की संरचना में ऐसे विभाजन न थे। वहां कोई भी आदमी योग्य होने पर कोई भी व्यवसाय या ज्ञान सीखकर सम्मान से जी सकता था। कोई भी सैनिक, व्यापारी, शिक्षक इत्यादि बन सकता था। एक खुली प्रतियोगिता वहां थी।
इसीलिये वहां ज्ञान विज्ञानं व्यापार और यद्ध कौशल का भी तेजी से विकास हुआ। भारत में सिर्फ 3 प्रतिशत लोग ज्ञान विज्ञान खोज रहे हैं, 5 प्रतिशत युद्ध अभ्यास कर रहे हैं। गौर से देखिये तो सिर्फ 8 प्रतिशत मानव संसाधन ही कुछ निर्णय लेने की स्थिति में है, इसमें भी अधिकांश आपस में लड़ रहे हैं।
लेकिन अन्य देशों में 100 प्रतिशत लोगों को अधिकार है कि वे योग्यता साबित करके कुछ भी बन सकते हैं। इसीलिये जब वहां के 1 प्रतिशत से भी कम लोगों ने भारत पर आक्रमण किया तब भारत का ज्ञान विज्ञान और भारत की सेनाएं उनके सामने टिक नहीं सकीं।
नतीजा क्या हुआ? भारत दो हजार साल लगातार गुलाम रहा
जिन देशों ने भारत पर राज किया वहां का समाज ईमानदारी से सबको मौके देता था इसलिए वे किसी भी मुद्दे पर बहुत जल्द कोई स्पष्ट राय बना पाते थे। इसी कारण वे युद्ध और आक्रमण जैसे अभियानों को संगठित कर सके। लेकिन भारत कभी कोई निर्णय न ले सका और आक्रमण तो बहूत दूर रहा आत्मरक्षा के लिए भी संगठित नहीं हो सका। विभाजन इतने गहरे थे कि क्षत्रियों में भी आपसी फूट थी। ये खुद आपस में लड़ रहे थे।
जिन लोगों ने भारत में ऐसी समाज व्यवस्था बनाई और चलाई वे असली गुनाहगार हैं। गौर से देखिये और समझिये भारत की गुलामी का यही बुनियादी कारण है। बाकी दूसरी बातें तो इसी बुनियादी कारण का परिणाम भर हैं।
जो लोग वर्ण और जाति व्यवस्था को बनाये रखते हैं और उसकी प्रशंसा में ग्रन्थ लिखते हैं सामाजिक नियम बनाते हैं वे ऐतिहासिक रूप से भारत के दुश्मन हैं। उन्होंने जान बूझकर इस देश को दो हजार साल से ज्यादा की गुलामी दी है। असली देशद्रोहियों को पहचानिये।
लेकिन दुर्भाग्य देखिये इस देश का! आजकल ये ही लोग हमें राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रवाद सिखा रहे हैं। जब चोरों के हाथ में तिजोरी की चाबी हो तो चोर सबसे पहले ईमानदारी पर भाषण देते हैं। भारत में यही दौर चल रहा है। उनके भाषण सुनिये और तालियां बजाते रहिये।
लेकिन आपको इस देश की जरा भी फ़िक्र है तो इस वर्ण और जाति के खिलाफ खड़े होइए। अब भारत ज्यादा देर तक इस आंतरिक फूट के साथ नहीं चल सकता। देखिये ये देश ग्लोबल समाज के सामने कितना कमजोर और फिसड्डी साबित हो रहा है। अभी तक ओलम्पिक में क्या मिला है? कितने नोबेल मिले है? कितने ऑस्कर मिले हैं?
अगर आप सच में भारत से प्रेम करते हैं तो ब्राह्मणवाद और वर्णव्यवस्था सहित जाति व्यवस्था के खिलाफ सक्रिय हो जाइए।
बाकी 15 प्रतिशत गद्दारों की लफ्फाजी से खुद को और अपने लोगों को बचाइये।
– संजय श्रमण
रोज़गार खत्म होंगे असमानता लूट बेईमानी बदमिजाजी जमाखोरी और बढ़ेगी दस साल पहले मेने भी बड़े मॉल किराना स्टोर खुलने के खिलाफ शोर मचाया था व्यंगय लिखे थे की छोटे दुकानदारों को बचाओ अब ये सब हो रहा हे खेर जो भी हे आम आदमी के सामने सिर्फ एक रास्ता बचा हे पहले भी लिखा था की अधिकतम देर से शादी करो बच्चे मिनिमम करो और शादी और बच्चो के बिना भी जीना सीखो इसके आलावा और कोई रास्ता नहीं हे आगे और बुरे हालात होंगे रोबोट भी आ रहे आपका रोज़गार छीनने फिर जो 1991 के जितने बाद पैदा हो रहा वो उतना ही अधिक भयंकर सेल्फिश हो रहा हे —————————————————————————–
” अमित सिंघल
Yesterday at 18:36 ·
सरकार कैसा भी नियम, कानून, नीति बना ले, डिजिटल क्रांति को नहीं रोक सकती.
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पिछले बीस वर्षो में किसी भी दुकान पे कोई भी इलेट्रॉनिक वस्तुए, खिलौने, घरेलु सामान खरीदने पर वहां चीन में बने उत्पाद मिलते थे. भारत में बना कोई भी उत्पाद दूकानदार रखता ही नहीं था क्योकि विदेशी माल चीन के किसी शहर से चलकर, जहाज पे लदकर, भारत में सड़क मार्ग से यात्रा करने के बाद भी दूकानदार और उपभोक्ता को सस्ता पड़ता था.
उदाहरण के लिए, जब भारत में 1980 के दशक में रंगीन टेलीविजन आया तो उस समय बहुत सी कंपनियां जैसे कि टेस्ला, डायनेमो, बुश इत्यादि यहीं पर टीवी बनाकर बेचती थी. फिर एकाएक बाजार में चीन से आए सस्ते टेलीविजन से भर गया. ओनिडा तो एक टीवी खरीदने पर एक छोटा टीवी फ्री देता था, वह भी भारत में बने किसी भी टीवी की तुलना में सस्ता. उस समय किसी भी व्यापारी और दुकानदार को मेड इन इंडिया प्रोडक्ट की याद नहीं आई. भारतीय कंपनियों के दिवालिया होने का ध्यान नहीं आया और उन में काम कर रहे कर्मचारियों, जो अब बेरोजगार होने वाले थे, के बारे में कोई चिंता नहीं थी. उन्हें सिर्फ इस बात की चिंता थी कि उपभोक्ता को क्या माल चाहिए और जब उन्होंने जाना कि उपभोक्ता को सस्ता माल चाहिए तो भारत में बने माल जाए भाड़ में. वह चाहे टेलीविजन हो, वॉशिंग मशीन हो, फ्रिज या बिजली की झालर हो. और तो और, दीपावली के लक्ष्मी और गणेश भी चीन में बनने लगे, पटाखे चीन से, और भारत के कुम्हारों को बेरोजगारी के संकट से जूझना पड़ा.
कई बार मैं लिख चुका हूं कि हम भारतीयों में महत्वाकांक्षा और उद्यमशीलता की कमी है. बहुत ही जल्दी शोर मचाने लगते हैं, लेकिन इस बात पर ध्यान नहीं देते कि कैसे विदेशी कंपनियों को उन्हीं के खेल में मात दिया जाए. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि भारतीय ओयो कंपनी चीन में होटल और घरो में रूम बुक करने वाली सबसे बड़ी कंपनी बनने की तरफ अग्रसर है. यही हाल भारत के पेटीएम, भीम और रुपए एप का है जिसने वीजा और मास्टरकार्ड को अच्छी चुनौती दे दी है.
एक मित्र चंबल में बैठकर वहां के किसानों को रातों-रात ₹21 लीटर की जगह ₹30 लीटर की दर से A 2 दूध खरीद कर उसका घी अमेरिका बेच रहे हैं. एक अन्य मित्र अपने ही घर में मसाले बनाकर ऑनलाइन पूरे भारत में बेच रहे हैं और वे मांग के हिसाब से माल नहीं बना पा रहे है.
दुकानदार लोग अपने प्रतिष्ठानों में रोजगार देने की बहुत हांकते हैं. जरा बताने का कष्ट करेंगे कि वह लोग दुकान में काम करने वाले “लड़कों” को कितना वेतन देते हैं? न्यूनतम दर से भी कम वेतन दिया जाता है. मेरे वृहद परिवार में दुकानें हैं और कई बार मैंने आश्चर्य किया कि उस दुकान पर काम करने वाले लड़के को मिलने वाली तनख्वाह से उस का गुजारा कैसे होता होगा? और अगर 8 करोड़ दुकानों ने 40 करोड़ लोगों को सहारा दिया है तो भारत में कैसे इतनी भयंकर गरीबी हो गई? हमें तो यही बताया गया है कि आधे से ज्यादा भारतीय किसानी में लगे हुए हैं, 40 करोड़ दुकानदारी में लगे हैं. तो फिर समस्या कहाँ है?
कुछ विचार आपके समक्ष रखूँगा (इन प्रश्नों को मै पहले भी उठा चूका हूँ); उत्तर की अपेक्षा है.
अगर पब्लिक पालिसी के नजरिये से देंखे तो सरकार की क्या नीति होनी चाहिए?
पहला, क्या सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उत्पादकों, व्यवसायियों और दुकानदारों को अधिक लाभ मिले या या उपभोक्ताओ को सस्ता उत्पाद मिले?
दूसरा, किस बिंदु पर उत्पादकों, दुकानदारों और उपभोक्ताओ का हित एक हो सकता है?
तीसरा, क्या सरकार नवयुवक और नवयुवतियों को छोटे और पारम्परिक व्यवसायियों को बचाने के लिए ऑनलाइन उद्यम लगाने से मना कर सकती है?
चौथा, क्या सरकार – या कोई भी राजनैतिक दल या हम स्वयं भी – डिजिटल युग में आने वाले नए इन्नोवेशन या खोज को रोक सकते है?
पांचवां, कैसे इस डिजिटल युग में विश्व भर में होने वाले व्यापारों और उद्यमों से कैसे टक्कर लेंगे, अगर हम अपने देश में ही इस युग के विकास पे रोक लगा देंगे?
छठा, कैसे ऑनलाइन विक्रेता और छोटे दुकानदारों अपना काम कर सके, साथ ही नए इन्नोवेशन या खोज, नए उद्यमों और नवयुवक और नवयुवतियों को भी बढ़ावा मिले?
सातवां, कुछ ही वर्षो में पेट्रोल का उत्पादन करने वाले देशो का एकाधिकार ख़त्म हो जायेगा. क्या हम गैर पारम्परिक ऊर्जा के श्रोतो का उत्पादन बंद कर दे, क्या इलेक्ट्रिक कार मार्केट में ना आने दे, क्यों कि पेट्रोल पंप के मालिक की दुकाने बंद हो जाएगी? इलेक्ट्रिक कार में लगभग 24 मूविंग पार्ट्स या घूमने वाले हिस्से होंगे, जबकि पेट्रोल कार में लगभग 150 होते है. क्या कार मैकेनिक के जॉब चले जाने के डर से भारत में इलेक्ट्रिक कार ना आने दे?
सरकार ई-कॉमर्स के डिस्काउंट पे रोक नहीं लग सकती. कुछ उदाहरण के साथ समझाने का प्रयास करते हैं.
चलिए अमेजन तो एक विदेशी कंपनी हुई, लेकिन कल को वही अमेजन भारत में एक सब्सिडियरी क्रिएट कर देती है जिसका मालिक एक भारतीय है. तब आप क्या करेंगे? उदाहरण के लिए क्या कोलगेट एक विदेशी कंपनी है या भारतीय कंपनी? क्या प्रोक्टर एंड गैंबल एक विदेशी कंपनी है या भारतीय कंपनी? Suzuki एक विदेशी कंपनी है या भारतीय? Hyundai विदेशी कंपनी है या भारतीय? टाटा एक विदेशी कंपनी है या भारतीय. याद रखिए टाटा की यूरोप में कार और स्टील बनाने की भी मिले हैं.
और जिन ऑनलाइन कंपनियों को आप डिस्काउंट देने से मना करेंगे अगर वह कोर्ट चले गए तब?
ओला और उबेर में यात्रा दिल्ली की काली पीली टैक्सी से सस्ती पड़ती है. क्या आप ओला और उबेर को बैन कर देंगे?
चलिए सरकार ने कहा कि 31 इंच के टीवी की कीमत यह होगी. अब कंपनी कहती है 42 इंच का TV आपको 31 इंच के दाम पर देंगे. क्या आप उसे ऐसा करने से मना कर देंगे? या फिर कंपनी कहती है कि हम आपको इसी दाम पर HD TV की जगह 4K टीवी देंगे. साथ में बढ़िया एक्सटर्नल स्पीकर भी देंगे. क्या उस पर सरकार एक्शन लेगी?
या फिर ऑनलाइन सेल फोन विक्रेता कहता है कि आप इस ब्रांड का सेल फोन खरीदेंगे तो आपको एक साल जियो का सब्सक्रिप्शन फ्री. क्या आप उस पर रोक लगा सकेंगे?
एक अन्य उदाहरण. जूता बेचने वाला कहता है की एक जोड़ा जूता खरीदने पर एक जोड़ा जूता मुफ्त. फिर आप क्या करेंगे? या फिर एक किलो दाल खरीदने पर एक किलो चावल मुफ्त. क्या आप इसे डिस्काउंट बोलेंगे या चावल का प्रमोशन या विज्ञापन.
क्या सरकार बतलाएगी कि जूते की कीमत क्या होनी चाहिए? या फिर सेल फ़ोन की, जिसमे हर छः महीने में नया फीचर जैसे कि शक्तिशाली कैमरा, मेमोरी, फ़ास्ट प्रोसेसर इत्यादि के बाद भी दाम वही रहता है? या फिर आटे की कीमत, चाहे गेंहू शरबती हो, आर्गेनिक हो, या फिर बेसन और सोया का मिक्स हो? किस अनुपात में अन्य अनाज का आटा मिक्स होना चाहिए, क्या सरकार इसे निर्धारित करेगी? या फिर, अगर उद्यमी या ऑनलाइन विक्रेता पांच किलो आटे पे एक किलो बेसन फ्री में देना चाहे तब सरकार को क्या करना चाहिए?
मैं यह विनम्रतापूर्वक कहना चाहूंगा कि कोई भी सरकार कैसा भी नियम, कानून, नीति बना ले, इस डिजिटल क्रांति के प्रभाव को नहीं रोक सकती है. ”