रमजान और इस जैसे दूसरे कई शब्द भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लामिक संस्कृति की पहचान रहे हैं और इनका चलन से बाहर होना सिर्फ धार्मिक मामला नहीं है
हर साल आने वाला वह महीना फिर आ चुका है. मुसलमानों ने रोजे रखने शुरू कर दिए हैं. और साथ ही इस दौरान एक शब्द के प्रयोग को लेकर बहस फिर छिड़ गई है : इस महीने को रमजान कहा जाए या रमदान?
ऐतिहासिक रूप से भारतीय उपमहाद्वीप के ज्यादातर मुसलमान इस महीने को रमजान कहते आए हैं. फारसी भाषा से आया यह शब्द भारत में उर्दू से लेकर बांग्लाभाषी मुसलमानों तक समान रूप से प्रचलित रहा है. हालांकि इसके साथ ही पिछले तकरीबन दो दशक में रमजान के स्थान पर रमदान – जिसे मुसलमान अरबी शब्द कहते हैं, बोलने का चलन तेजी से बढ़ा है.
भाषाई शुद्धता के पैमाने पर यह चलन सही नहीं है
इस महीने के नाम का यदि हम अरबी से रोमन ट्रांसलिट्रेशन या लिप्यांतरण करके हिंदी में उच्चारण करें तो यह होगा ‘रमदान’. यहां बड़ी दिलचस्प बात है कि इस नाम में ‘द’ शब्द एक तरह से रहस्यमयी है क्योंकि प्राचीन अरब में द का उच्चारण जिस तरह से होता था उस जैसे उच्चारण वाला शब्द न तो हिंदी में है और न ही अंग्रेजी में और इसलिए इसका उच्चारण गैरअरबी लोगों के लिए काफी मुश्किल है. भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमान इसे ‘द’ कहते हैं तो उपमहाद्वीप के बाहर पश्चिमी देशों के मुसलमान ‘द’ का उच्चारण ‘ड’ करते हैं.
सबसे बड़ी विडंबना है कि आज अरबी लोग ‘द’ का उच्चारण जिस तरह करते हैं वह तब से बिल्कुल अलग है जब कुरान लिखी गई. इंटरनेशनल जर्नल ऑफ लैंगुएज एंड लिंग्युस्टिक के पिछले साल जनवरी में प्रकाशित हुए अंक में छपा एक शोधपत्र भी इस बात की तस्दीक करता है. यह हैरानी की बात नहीं है कि किसी भी भाषा के शब्दों और अक्षरों में समय के साथ ये बदलाव होते ही हैं. इस आधार पर कहा जा सकता है कि कुरान को आज अरबी उच्चारण के साथ पढ़ने वाले भी उसका पूरी तरह से सही उच्चारण नहीं करते.
भाषा किसी समुदाय विशेष की पहचान और दिशा-दशा का प्रतीक होती है और लोग अक्सर उसे एक आदर्श स्वरूप में रखने की कोशिश करते हैं. लेकिन अरबी के उदाहरण से स्पष्ट है कि ऐसा हो नहीं पाता.
भारतीय मुसलमान यदि रमजान को सही शब्द न मानकर इसके बजाय रमदान कह रहे हैं तो यहां भी वे सही शब्द का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं. तो फिर उनकी इस पूरी कवायद का क्या मतलब है? रमजान के बदले रमदान कहना किसी धार्मिक उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता लेकिन, इसका सांस्कृतिक महत्व जरूर है. मुसलमानों और वह भी खासकर उर्दूभाषी मुसलमानों के बीच यह नया चलन संकेत देता है कि अब यह समुदाय सांस्कृतिक नजरिए से खुद को किस तरह देखता है.
भारतीय इस्लाम की जड़ें फारसी संस्कृति में हैं
यदि हम केरल को छोड़ दें तो भारतीय इस्लाम मूल रूप से अरब के बजाय मध्य एशिया और ईरान से आया है. भारतीय इस्लाम की जड़ें फारसी संस्कृति में हैं. यहां तक कि लंबे अरसे तक भारत में फारसी सबसे प्रमुख भाषा बनी रही और आज मराठी और बंगाली में फारसी के कई शब्द इस्तेमाल किए जाते हैं. इसी से जुड़ी एक दिलचस्प बात है कि आज भारत में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा – हिंदी को यह नाम खुद फारसी से मिला है (ईरान में भारतीयों को हिंदी कहा जाता है).
इस लिहाज से कहा जा सकता है कि भारतीय इस्लाम की भाषा पर फारसी का सबसे ज्यादा असर है. यह विचित्र विरोधाभास है कि जो धर्म अरबी भाषा में पला-पनपा और बढ़ा भारत में उसपर सबसे ज्यादा असर फारसी का है. हमारे यहां फारसी से नमाज (अरबी – सालाह) और रोजा (अरबी – साउम) जैसे शब्द आए हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात है कि ‘ईश्वर’ के लिए भी फारसी शब्द – खुदा, का इस्तेमाल किया जाता है.
इन शब्दों और परंपराओं के साथ स्थानीयता के मेल ने भारतीय इस्लामिक संस्कृति का विकास किया है जो सदियों से अपने आप में अलहदा है और मजबूती से जमी हुई है.
कैसे अरब ने उपमहाद्वीप के मुसलमानों को प्रभावित करना शुरू किया
भारतीय इस्लाम पर खुद अरब के इस्लाम में आए बदलाव का असर देखा जा रहा है. प्रथम विश्व युद्ध के बाद सऊद परिवार ने अरब खाड़ी के एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया था. मक्का और मदीना भी इस परिवार द्वारा शासित क्षेत्र में आ गए थे. यह परिवार इस्लाम की कट्टर विचारधारा – वहाबी का समर्थक है और इसकी वजह से सऊदी अरब में मुसलमान वहाबी धारा को सबसे ज्यादा मानते हैं.
सऊद परिवार के अंतर्गत इस राज्य में इराक भी आता था लेकिन, इतना विशाल भू-भाग होने के बावजूद यह कोई महान या ताकतवर सल्तनत नहीं रहा. सऊदियों की किस्मत तब पलटी जब यहां तेल के भंडार खोजे गए. जैसे-जैसे औद्योगीकरण बढ़ता गया, पेट्रोल-डीजल की जरूरत बढ़ती गई और सऊदी अरब समृद्ध और मजबूत होता गया.
वहीं भारतीय उपमहाद्वीप में मुसलमानों का जो कुलीन तबका था वह अंग्रेजों के हाथों पस्त हो चुका था. उसकी धन-संपदा में कमी आ गई थी और वह इस्लाम की जन्मभूमि पर रह रहे अपने सहधर्मियों के उलट मुसीबतें झेल रहा था.
इस वजह से भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों ने धीरे-धीरे सऊदी अरब की धर्म आधारित शासन व्यवस्था को अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक धुरी मानना शुरू कर दिया. इस तरह सऊदी अरब का प्रभाव भी यहां बढ़ने लगा.
उदाहरण के लिए इस समय पाकिस्तान में इस्लाम के सबसे लोकप्रिय विद्वान-प्रचारक इस्लाम के अरबी प्रतीकों को बड़े गर्व के साथ स्वीकारते हैं और बढ़ावा देते हैं. भारत में भी यदि हम कुछ समय से विवादों में चल रहे इस्लामी प्रचारक और टीवी के जानेमाने चेहरे जाकिर नायक का उदाहरण लें तो वे कभी रमजान कहते हुए सुनाई नहीं देते, नायक हमेशा रमदान ही कहते हैं.
भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों का उच्च तबका इस समय इन अरबी शब्दों को अपनी सांस्कृतिक पहचान मानकर अपना रहा है. इसके जरिए वे आम मुसलमान नहीं बल्कि उस तरह के मुसलमान बन रहे हैं जो सऊदी अरब द्वारा प्रचारित हैं. इस बदलाव का शिकार सिर्फ ‘रमजान’ नहीं है. ‘खुदा’ जैसे शब्द को, जो सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों जैसे उर्दू शायरी का बेहद अहम शब्द रहा है, भी अरबी नाम से बदला जा रहा है. भारतीय उपमहाद्वीप में विदा लेते-देते समय ‘खुदा हाफिज’ सदियों से बोला जाता रहा है लेकिन, अब इसकी जगह ‘अल्लाह हाफिज’ का इस्तेमाल भी बराबरी से हो रहा है.
धार्मिक इस्तेमाल के लिहाज से शब्दों में हेरफेर कोई बड़ी बात नहीं है और इससे कुछ विशेष फर्क भी नहीं पड़ता. हां लेकिन जब स्थानीयता के मेल से जन्मे और किसी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहे शब्दों जैसे खुदा हाफिज को बदलने की प्रक्रियाएं शुरू हो जाती हैं तो यह इस बात का संकेत है कि आप अपनी संस्कृति को बचा नहीं पा रहे हैं.
—satyagrah.scroll.in/article/101051/ramzaan-ramadan-debate-india
Wo sab bat nahi hai men bat yah hai urdu ya hindi me Ramjan hota hai aur Arbi me Ramadan hota hai ye bhasha isliye jayada parchlit ho raha ki aj kal bahut log bidesh rahte hai
Har gaw me nahito 100 /50 log honge avi Saudi ya any desh me is liye waha Ka juban se dhire dhire ye Ramadan sabd jyada parchlit ho gya
Abbas Pathan
10 hrs ·
सुनने में आ रहा है कि मुसलमानो के घोर आलोचक “दीपक शर्मा” की कार का लखनऊ फ़िरोजाबाद मार्ग पे एक्सीडेंट हो गया है जिसमे उनके एक मित्र शिवम वशिष्ट की मौत हो गई। दीपक शर्मा की हालत भी गम्भीर बताई जा रही है।
रमजान के इस मकबूलियत वाले महीने में अल्लाह से दुआ है कि अपने हबीब मुहम्मद मुस्तफा ﷺ के सदके में “दीपक शर्मा” को जिंदगी बक्शे और नेक हिदायत दे। इस हादसे में उसके दिल से “नफरत किना बुग्ज़ और अदावत की मौत कर दे” और दीपक को तन्दरुस्त कर दे।
Abbas Pathan
5 hrs ·
किसानों द्वारा “गांवबन्द” के व्यापक असर देखने को मिल रहे है। सड़को पे पानी की तरह दूध बहाने के वीडियो सामने आ रहे है। आंदोलनकारियों द्वारा ये जबरदस्ती बहाया जा रहा है। सब्जियां भी महंगी हो चुकी है… इस 10 दिन के गांवबंद में मरेगा सिर्फ और सिर्फ गरीब मेहनतकश इंसान.. मध्यमवर्गीय के हिस्से में थोड़ी दुश्वारीया आएगी जिसे वो खींच लपेटकर काम चला लेगा।
दूध यदि 25 की बजाय 100 लीटर बिकने लगेगा तो मरेगा गरीब ही.. टमाटर अगर 8 रु की जगह 25 किलो में मिलने लगा तो गरीब के बच्चो का निवाला छोटा होगा। अमीर वर्ग इस महंगाई का सामना आसानी से कर लेगा।
इन सबके बीच एक सबसे कड़वी और हकीकत बात ये है कि किसान इस दौर का सबसे बड़ा भिखमंगा हो चुका है। किसान को कोई अधिकार नही की वो सब्सिडी पे लोन लेकर उसे माफ करवाने की मांग करे। दरअसल किसानों को “अन्नदाता अन्नदाता” कहकर सिर चढ़ा दिया है। ये जितने भी करज माफी की लाइन में लगे है इनमें अधिकांश लोग किसान है ही नही, ये हकीकत में जमींदार है और जमींदारी इनका धंधा है। सरकार इनके खेत में होद खुदवाने से लगाकर बिजली के ट्रांसफॉर्मर लगवाने तक लाखो रुपये का अनुदान करती है और उसके बाद बैंक से लिया कर्ज भी माफ कर देती है.. फिर भी जमींदार सदैव भूमिहीन किसानों को फ्रंट पे लेकर रोता रहता है। जबकि भूमिहिन किसानों को न तो लोन मिलता है जिसे वे माफ करवाए और न ही किसी प्रकार की सब्सिडी.. अब आप कहेंगे कि किसान आत्महत्या करता है, तो भैया आत्महत्या कौन नही करता?? आत्महत्या व्यापारी भी करता है, खुद सैनिक आत्महत्या कर रहे है। मज़दूर वर्ग पूरे परिवार के साथ आत्महत्या करता है।
भूमिहीन किसान और जलहीन किसान जो वर्षा के पानी पे निर्भर है सिर्फ उन्ही को सरकारी फायदे मिलने चाहिए… बाकी के जितने भी लोग किसान बनकर मलाई मांग रहे है वे जमींदार और पशु व्यापारी है।
Abbas Pathan
Yesterday at 18:24 ·
अभी चाहे हम जितने बड़े समाजशास्त्री, राष्ट्रवादी और धर्म धुरंधर बनकर दुनियाभर की मगजमारी कर ले लेकिन बहुत जल्द वो वक्त आने वाला है जब हम सबके पास सिर्फ एक ही मुद्दा होगा… वो मुद्दा होगा “प्रकृति”:
हमारे पास सबसे बड़ा सवाल ये रह जाएगा कि धरती को कैसे जीवित रखा जाए… अभी क्रिकेट स्टेडियम गीला क़रने के लिए हमारे पास अरबो लीटर पानी है, लेकिन बहुत जल्द ऐसा समय आएगा की हमारे घरों में कान भिगोने जितना पानी नही बचेगा। बर्फ के ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे है जिसके कारण समुद्रों का जल स्तर बढ़ रहा है। ग्लेशियरो पिघलने से प्राकृतिक नहरे और नदियों में पानी की कमी आ रही है, पानी की कमी से लड़ने के लिए हम लोग एक कपड़े का जोड़ा तीन दिन चलाने और दो दिन में एक बार नहाने की आदत डालने के बजाय अपने घरों में टैंकर डलवा रहे है। बोरवेल से पानी निकालकर बेचने के इस धंधे के कारण धरती का जल स्तर लगातार गहराई में चला जाता जा रहा है। ज्ञात रहे, धरती की आखरी परत में अग्नि है… धरती से जो अग्नि निकले उसे ज्वालामुखी कहते है… कल को आपके शहर से आग निकलने लगे तो हैरत मत किजियेगा।
बहरहाल खूब पानी बर्बाद हो रहा है, औसत रुप से एक व्यक्ति प्रतिदिन 15 लीटर पानी बर्बाद करता है। कल जहां जंगल थे आज वहां बस्तियां है, यानि जंगल काटकर शहर बसाए गए है। भारी मात्रा में पेड़ो की कटाई ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण है।
प्लास्टिक का उपयोग धड़ल्ले से हो रहा है। नदी नालों में बच्चो के नेपकिन से लगाकर फैक्टरियों के जहरीले द्रव्य भारी मात्रा में फेंके जा रहे है। जो प्लास्टिक हम अपनी सुविधा के लिए उपयोग करते है ये अंत मे गठरियों के रूप में जलाशयों में जाकर फंस जाता है। अत्यधिक सुविधाप्रेमी होता हमारा समाज हमारी आने वाली नस्लो को एक ऐसी लड़ाई में झोंक रहा है जिसके लिये वे तैयार नही है। इंसान ने चाहे जितनी तरक्की कर ली हो, किन्तु प्राकृतिक आपदाओं को रोकने के लिए अभी तक वो कोई मिसाइल तैयार नही कर पाया। ऐसी कोई मिसाइल नही बनी जो आपके शहर की तरफ बढ़ते हुए तूफान में ठोंककर तूफान को रोक सके। ऐसा कोई यंत्र नही बना जिससे बरसात को रोका जा सके, ऐसा कुछ आविष्कार नही हो सका जिससे सुनामी के रुख को मोड़ा जा सके। हमारी सुविधाजनक जिंदगी जीने की हवस हमारी आने वाली नस्लो को एक ऐसी भयानक जंग का हिस्सा बनाएगी जिससे वे कभी जीत नही पाएंगे।
Sushobhit
31 May at 12:00 ·
अंतरराष्ट्रीय समुदाय में सबसे ज़्यादा महत्व इस बात का होता है कि आपने अपने पक्ष में क्या “नैरेटिव” बनाया है और इस्लाम को इसमें महारत हासिल है.
दुनिया की यह एक चौथाई आबादी ख़ुद को “विक्टिम” साबित करने के खेल में हमेशा क़ामयाब रहती है.
इराक़ ख़ुद को अमेरिका का, अफ़गानिस्तान ख़ुद को रूस का, फ़लस्तीन ख़ुद को इज़राइल का, कश्मीर ख़ुद को भारत का विक्टिम साबित करने की कोशिशों में क़ामयाब है.
गाज़ा पट्टी के मुस्लिम, यूरोप के शरणार्थी, म्यांमार के रोहिंग्या, चीन के उइघर, मध्येशिया के तातार “विक्टिमहुड” का वह खेल खेलना बख़ूबी जानते हैं, जिसके बाद आतंकवादी कार्यवाहियों, घुसपैठ, ज़मीन पर बलात् कब्ज़े, आबादी के असंतुलन जैसी चीज़ों को नज़रअंदाज़ करना आसान रहता है.
“माय नेम इज़ ख़ान” एक सफल नैरेटिव है. एक क़ामयाब ब्रांड. कश्मीर के विस्थापित पंडित एक नाकाम नैरेटिव है, जिसे कोई भी ख़रीदने को तैयार नहीं.
कश्मीर को लेकर दुनिया में जो आम राय है, उसमें दोष भारत का ही है. जब भारत के प्रथम प्रधानमंत्री स्वयं कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र में ले गए तो उसे एक विवादित क्षेत्र की तरह ले गए. अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने कहा, जब आप ख़ुद ही कश्मीर को “डेस्प्यूटेड टेरेटरी” मान रहे हैं तो हमसे क्या उम्मीद कर सकते हैं?
आज सच्चाई यही है कि “पाकिस्तान ऑकुपाइड कश्मीर” के बजाय “इंडिया ऑकुपाइड कश्मीर” का नैरेटिव दुनिया में जमा हुआ है. वैसा मानने के पीछे अंतरराष्ट्रीय समुदाय के भू-राजनीतिक न्यस्त स्वार्थ तो हैं ही, लेकिन अपने पक्ष में भारत की आवाज़ भी तो प्रबल नहीं. लीडिंग पब्लिक इंटेलेक्चुअल दुनिया की यूनिवर्सिटीज़ में जाकर स्पीच देते हैं और इस नैरेटिव का निर्माण करते हैं कि कश्मीर में इंडियन आर्मी मानवाधिकारों का हनन कर रही है, सिक्के का दूसरा पहलू दुनिया को कौन बताएगा?
यूएन में प्रधानमंत्री या विदेश मंत्री जो स्पीच देते हैं, वह तो एक “यूनिलेटरल स्टेटमेंट” माना जाएगा ना, ऑफ़िशियल स्टैंड. उस पर एक न्यूट्रल व्यू कहां से आएगा, जो कि पब्लिक इंटेलेक्चुअल को देना होता है.
मीडिया, एकेडमी और लिट्रेचर लोकविमर्श की रंगशालाएं होती हैं. वे ही आपके साथ नहीं.
भारतीय मुस्लिम ख़ुद को “विक्टिम” और “सबाल्टर्न” की तरह दिखाने में क़ामयाब रहे हैं, यह एक गंभीर मसला है. दादरी और कठुआ को जिस तरह से अंतरराष्ट्रीय समुदाय हाथों-हाथ लेता है, वह अकारण नहीं है.
इस्लाम को एक “सबाल्टर्न कैटेगरी” में देखना भ्रामक है. ये भ्रम “अल्पसंख्यक” के पश्चिमी कॉनसेप्ट से पैदा होता है. पश्चिमी देशों में माइनोरिटीज़ जो होती हैं, वो ऑलमोस्ट डिफ़ंक्ट स्पेशीज़ होती है, विलुप्त होती कोई प्रजाति. जबकि इंडिया में ये “सो कॉल्ड माइनरिटी” इतनी तादाद में है, जितनी अनेक यूरोपियन देशों की कुल आबादी भी नहीं होगी.
आज भारत में अल्पसंख्यक शब्द मुसलमानों का पर्याय बन गया है, यह एक भारी तकनीकी भूल है. मुस्लिमों को “दूसरा सबसे बड़ा बहुसंख्यक वर्ग”, “दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी” के रूप में बार बार परिभाषित करना होगा, ताकि विक्टिमहुड की जकड़बंदी टूटे.
भारतीय मुस्लिमों की “री-ब्रांडिंग” सेकंड लार्जेस्ट मैजोरिटी के रूप में की जाए, यह समय की मांग है!
दूसरी बात, यह “अन्यीकरण” जो इस्लाम के द्वारा दुनिया को दिखाया जाता है कि साहब हमें नौकरी नहीं दी जाती, हमें किराए का घर नहीं दिया जाता, हमें चुनावों में सीट नहीं दी जाती आदि इत्यादि, यह एक दूसरा पॉपुलर नैरेटिव है.
सच्चाई यह है कि यह अन्यीकरण भारत देश ने इस्लाम पर नहीं थोपा है, यह इस्लाम ने ख़ुद पर “सुपरइम्पोज़” किया है. वे ही भारत के सुविख्यात “कल्चरल मिक्स” का हिस्सा बनने को तैयार नहीं, वे ही घुलने-मिलने को राज़ी नहीं, वे ही अपनी अलग बस्तियों में मुतमईन. वे कहीं ना कहीं इस श्रेष्ठताबोध से उपजी कुंठा से भी ग्रस्त कि 600 सालों तक हमने इस मुल्क़ पर राज किया था, और उनके दिमाग़ में यूटोपिया का कॉन्सेप्ट यही है कि भारत पर फिर से इस्लाम का परचम फहराए!
इस्लाम को विक्टिम के नज़रिए से देखना दिखाना बहुत बड़ी भूल है. इन फ़ैक्ट, इंडिया जो है, वह इस्लाम की विक्टिम है, भारतीय मुस्लिम यहां की हुक़ूमत के विक्टिम नहीं हैं. ऐसा वे प्रिटेंड करते हैं. इस नैरेटिव को उलटना ज़रूरी है.
दुनिया में ऐसा कई बार हुआ है कि एक क़ौम ने दूसरे मुल्क़ पर धावा बोला हो और उस पर कब्ज़ा जमा लिया हो, जैसे रोमनों ने ग्रीस पर, स्पेनीयार्ड ने लैटिन अमेरिका पर, अंग्रेज़ों ने एबोरिजिनल्स पर, और कथित रूप से, जैसा कि वामपंथी नैरेटिव है, आर्यों ने अनार्यों पर.
लेकिन दुनिया के इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण दूसरा नहीं मिलता कि ऐसी कोई “इनवेडिंग ट्राइब” एक सीमा के बाद उस मुल्क में आबादी के आधार पर अपना एक पृथक हिस्सा मांग ले. भारत से पाकिस्तान और बांग्लादेश की मांग करना और यह दोनों इस्लामिक मुल्क हासिल कर लेने के बावजूद भारतीय मुख्यधारा का हिस्सा बनने से इंकार करना एक ऐसी हद दर्ज़े की ढिठाई है कि उसका कोई मुक़ाबला दुनिया में दूसरा नहीं है.
यह लगातार कहा जाता है कि हमको इस्लाम को “मोनोलिथिक स्ट्रक्चर” के रूप में नहीं देखना चाहिए और उसके भीतर जो शिया और अहमदी कम्युनिटी के धड़े हैं, उनके प्रति सदाशय होना चाहिए. लेकिन मेरा मानना यह है कि यह ज़िम्मेदारी उनकी ज़्यादा है, बनिस्बत हमारी. इतिहास के सबक़ अगर भारतीय बहुसंख्या को सशंक करते हैं तो इसमें उसका दोष नहीं है. इस संशय का उन्मूलन “सो कॉल्ड अल्पसंख्यक कम्युनिटी” की ज़िम्मेदारी है. उसको आगे आना होगा, उसको हिंदुस्तान के साथ मिक्स अप होना होगा, उसको इंडियन मेनस्ट्रीम में शामिल होने की तमाम कोशिशें करना होंगी. उसको यह संकेत देना होंगे कि अब वह इंडियन कांस्टिट्यूशन के आधार पर चलने के लिए तैयार है, अपनी दक़ियानूसी किताब के आधार पर नहीं.
गालियां इलाज नहीं हैं. धमकियां जवाब नहीं है. बलप्रयोग से बात बिगड़ जाती है. ख़ून बहने से तो उल्टे “विक्टिमहुड” का नैरेटिव पुख़्ता होता है, जैसे गुजरात के बाद हुआ था.
ज़रूरत दो मोर्चों पर काम करने की है-
पहला, अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने भारत का पक्ष स्पष्ट रूप से रखा जाए और वैसे पब्लिक इंटेलेक्चुअल्स को आगे बढ़ाया जाए, जो आपका नैरेटिव सामने रख सकें. क्योंकि आज की दुनिया में पॉपुलर नैरेटिव की जीत ही सबसे बड़ी जीत होती है.
दूसरा, अल्पसंख्यक समुदाय के लिबरल और भारत-समर्थक धड़े को यह संदेश दिया जाए कि अगर भारत के विकास रथ का हिस्सा बनने के लिए आप तैयार हैं तो स्वागत है. समान नागरिक संहिता को अपनाकर, जन्मदर नियंत्रण के लिए सक्रिय पहल करके और उदार सांस्कृतिक समावेश का परिचय देकर भारतीय मुस्लिम यह कर सकते हैं.
सवाल तो यह है कि फ़र्ज़ी मातम और छातीकूट को त्यागकर क्या वे ऐसा करने के लिए तैयार हैं?
—————————————————————————————————————————————————————
Sarfraz Katihari
30 May at 11:26 ·
दरअसल सुधीर चौधरी जिस बुर्के का विरोध कर रहा है उसे भारतीय मुस्लिम महिलाएँ सदियों से पहनती आ रही हैं, नीचे दो तस्वीर है, एक नवाब भोपाल बेगम शाहजहाँ की दिल्ली दरबार की है, दूसरी प्रसिद्ध स्वतंत्रा सेनानी अमज़दी बेगम की है और ये दोनो उसी बुर्क़े में हैं जिसे आज अपनी जहालत को रिसर्च का नाम देकर DNA कहने वाला तिहाङी चौधरी तालिबानी बुर्का का नाम दे रहा है!
दरअसल जदीद दौर में बुर्का कब नकाब और फिर हिजाब बन गया इसका इल्म शायद ही किसी को है! बुर्का, नकाब, हिजाब और अमाया में अंतर है और ये भारतीय मुस्लिम महिलाओं के लिए हमेशा से पर्दा का अहम हिस्सा रहा है।
खैर, तिहाङी को दाढ़ी, टोपी और बुर्का के अलावा भारत में शायद ही कोई बुराई दिखती है, अगर दिखती तो उसे तालिबानी आतंकवादियों का गढ़ उस जगह दिखाई देता जहाँ नाबालिग लड़कियों के हाथों में हथियार देकर उन्के दिलो दिमाग में लव जिहाद के नाम पर जहर भरा जाता है, जहाँ भगवा गमछा ओढ़े बच्चो से नौजवानों तक के हाथ में हथियार इस लिए थमाए जा रहे कि वो एक वर्ग विशेष से असुरक्षित महसूस कर रहे हैं जबकि वो वर्ग विशेष देश का अल्पसंख्यक है।
Ashraf Hussain की वाल से
Sarfraz Katihari
24 May at 14:53 ·
संवैधानिक पद की गरिमा को अगर किसी ने सबसे पहले ठेस पहुँचाया है तो वो राजीव गांधी थे। पंचायती राज के नारे को इन्होंने अपने राजनीतिक मक़सद के लिए रामराज के नारे में बदल दिया था। संवैधानिक पद पर बैठे ये पहले व्यक्ति थे जिन्होंने समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक राज व्यवस्था के बजाय रामराज का नारा दिया था। आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि साल 1989 था, तारीख़ थी 3 नवम्बर। राजीव गांधी की फ़ैज़ाबाद (बाबरी मस्जिद वाला जिला ) में रैली थी। इन्होंने इस रैली में लोकतांत्रिक मर्यादाओं एवं संवैधानिक मूल्यों को ध्वस्त करते हुये ये कहा था कि “आप मुझे वोट दीजिए मैं रामराज वापस लाउँगा”। यहाँ इन्होंने रामराज लाने की खुलकर वकालत की। पर आपको आश्चर्य होगा ये जानकर कि इनका भाषण लिखने वाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मणिशंकर अय्यर के मुताबिक़ भाषण के शब्द आख़िरी वक़्त में बदल दिए गए थे। भाषण में पंचायती राज का नारा दिया गया था।
यही नहीं साल 1989 में देश में कुल 706 दंगे हुये थे जिसकी ज़िम्मेदार यही राजीव गांधी और इनकी सरकार थी। इसी साल भारत के इतिहास का सबसे वीभत्स दंगा बिहार के भागलपुर में हुआ। जिसमें मरने वाले दस हज़ार से अधिक लोग थे। भागलपुर दंगे के उपरांत जब राजीव गांधी 26 अक्टूबर को भागलपुर दौरे पर जाते हैं तो वहाँ एक पत्रकार ने जब इनसे पूछा कि आप रामशिला जुलूस पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाते हैं तो यही सेक्युलर राजीव गांधी जी ने कहा अभी तक राम शिला आयोजनों से कोई लॉ एंड ऑर्डर को समस्या नहीं हुई है।
ये थी इनकी सोच। ऐसे थे राजीव गांधी।
Majid Majaz के कलम से
Sarfraz Katihari
24 May at 14:21 ·
Ranjan Yadav और इन जैसे कई लोग ढीठपन से कल के बंगलोर मे हर वर्ग के हिन्दू नेताओ के जमावड़े को सामाजिक न्याय कहते है।
मतलब इनके सामाजिक न्याय में मुस्लिम ,ईसाई का हर वर्ग का प्रतिनिधित्व तो छोड़ो एक भी मुस्लिम या ईसाई नही था मंच पर।
इन जैसो का सामाजिक न्याय कही अल्पसंख्यक द्वारा इनके लिए बैनर पोस्टर धोना और नारा लगाना , इनके नाइंसाफी और जुल्म का गुणगान करने का तो नाम भर नही है ?
खैर, मुझे तो ऐसा ही लगता है
जय शातिर हिंदूवाद।
नोट : फ़ोटो मे देखिये हर वर्ग ,हर एरिया के हिन्दू नेता मंच पर मौजूद है , एक भी मुस्लिम नेताओं को खोज कर दिखाने वालो को 100 rs का paytm मिलेगा।
Sarfraz Katihari
23 May at 23:16 ·
लोग कह रहे है के ओवीसी उमराह पर गया है लेकिन क्या बदरुद्दीन अजमल , डॉक्टर अयूब जिन्होंने अभी सपा का समर्थन भी किया है, मौलाना रशादी जिन्होंने उत्तरप्रदेश चुनाव में बसपा का समर्थन दिया , iuml जो के काफी सालो से केरल में कांग्रेस के साथ है ,
क्या ये सब उमराह पर गए है क्या ?
एक भी मुस्लिम नही , किसी भी मुस्लिम वर्ग का प्रतिनिधित्व नही , किसी भी रीजन के मुस्लिम का प्रतिनिधित्व ।
क्या यही भारतीय सेकुलरिज्म है?
तो ये सेकुलरिज्म चिंताजनक है,, येे इंसाफ के नाम पर नाइंसाफी है। ये सेकुलरिज्म नही बल्कि सेकुलरिज्म और इंसाफ के नाम पर शुद्ध हिंदूवाद है जिसको शातिर हिंदूवाद/शातिर ब्राह्मणवाद कहना ज्यादा बेहतर है।
आइए भारत को सच्चा सेक्युलर राष्ट्र बनाइये जहा हर वर्ग को इंसाफ नही तो कम से कम स्तर वाला इंसाफ जरूर मिले, जहा हर वर्ग ,हर समुदाय आगे बढ़े ना के सिर्फ हिन्दू के विभिन्न वर्ग ही सब जगह कब्जा जमाए हुए रहे।
नोट : हिन्दुओ का सभी वर्ग मंच पर , अल्पसंख्यक वर्ग (मुस्लिम , ईसाई ) नीचे नारे लगाते हुए )
Vivek Shukla
25 May at 15:52 · रमजान में राष्ट्रपति भवन
इस मस्जिद में देश के राष्ट्रपति रमजान पर नमाज पढ़ने आते रहे हैं। डा. जाकिर हुसैन, फ़ख़रुद्दीन अली अहमद, डा.एपेजी अब्दुल कलाम सबने इधर रमजान के दौरान नमाज अदा की है। ये राष्ट्रपति भवन की मस्जिद है। यहां की पुरानी रिवायत है कि रमजान पर ‘खत्म शरीफ’ के मौके पर राष्ट्रपति इधर अवश्य आते हैं। रमजान में सभी मस्जिदों में कुरआन सुनाई जाती है। वो जिस दिन मुकम्मल होती है, उसे ‘खत्म शरीफ’ कहते हैं। इन दिन राष्ट्रपति मस्जिद में गाजे-बाजे के साथ पहुंच कर इमाम साहब को पगड़ी पहनाते हैं। उन्हें उपहार भी देते हैं। इस मौके पर राष्ट्रपति भवन में रहने वाला स्टाफ और उनके परिजन बड़ी संख्या में उपस्थित रहते हैं। इस मस्जिद का कोई नामतो नहीं है, पर इसे राष्ट्रपति भवन मस्जिद ही कह सकते हैं। ये सन 1950 के आसपास बनी थी। यानी जब राष्ट्रपति भवन ( पहले वायसराय भवन) सन 1931 तक बनकर तैयार हुआ तब यहां पर मस्जिद नहीं थी। इसके वास्तुकार एडवर्ड लुटियन ने मस्जिद के लिए कोई जगह नहीं दी थी। देश के पहले राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद की पहल पर राष्ट्रपति भवन परिसर में मंदिर-मस्जिद बने। संभवत: चर्च या गुरुद्वारे के लिए इसलिए जगह आवंटित नहीं की गई होगी क्योंकि राष्ट्रपति भवन के ठीक बाहर गुरुद्वारा रकाबगंज और नार्थ एवेन्यू में कैथडरल चर्च हैं। इनके बनने से राष्ट्रपति भवन परिसर में रहने वाले स्टाफ को सुविधा अवश्य हो गई। एक अनुमान के मुताबिक, राष्ट्रपति भवन के भीतर करीब 500 परिवार रहते हैं। मस्जिद की एंट्री राष्ट्रपति भवन के विलिंगडन क्रिसेंट गेट से होती है। इसे गेट नंबर 31 भी कहा जाता है। इस मस्जिद के पहले इमाम हाफिज हसीनउद्दीन साहब थे। उनका सन 2005 में निधन हो गया था। वे इस्लामिक विद्वान भी थे। उन्हें लगभग सभी राष्ट्रपति किसी खास मसले पर सलाह लेने के लिए भी बुला लिया करते थे। वे श्रीमती इंदिरा गांधी के सरकारी आवास 1, सफदरजंग रोड में भी जाते थे। ईद पर इस मस्जिद में जश्न का माहौल रहता है। राष्ट्रपति की तरफ से सारे स्टाफ को मिठाइयां बांटी जाती हैं। इमाम साहब के लिए इधर परिवार के साथ रहने की भी व्यवस्था है। लेकिन उनके शादीशुदा बच्चों को यहां सुरक्षा कारणों के चलते रहने की मनाही है। इमाम साहब की सैलरी की व्यवस्था यहां पर रहने वाले स्टाफ के सहयोग से ही होती है। रमजान शुरू होते ही यहां फिर गतिविधियां बढ़ गई हैं। समाप्त।
Vivek Shukla
21 May at 12:08 ·
कलेजा फट रहा था राजीव गांधी की अंत्येष्टि के दौरान
On Rajiv Gandhi’s Death Anniversary, Remembering His Funeral
राजीव गांधी की मौत के गम में सारा मुल्क डूबा हुआ था। अब अंतिम संस्कार का वक्त आ गया था । 24 मई,1991 को अंत्येष्टि होनी थी। दिल्ली में गर्मी का कहर टूट रहा था। राहुल गांधी अपने परिवार के करीबी मित्र अमिताभ बच्चन के साथ अमेरिका से वापस भारत आ चुके थे। राहुल उन दिनों हारवर्ड, अमेरिका में ही पढ़ते थे। शांतिस्थल के करीब शक्तिस्थल पर अंत्येष्टि की तैयारियां पूरी हो गईं थी। शवयात्रा केरास्ते परलाखों लोगों का हुजूम था। सड़क के दोनों तरफ बूढ़े-बच्चे,महिलाएं,नौजवान,किशोर सभी थे। मकसद सिर्फ अपने अजीज नेता के अंतिम दर्शन करना था। भीड़ एसी जो सिर्फ पहले गांधी जीऔर नेहरु जी की शवयात्रा के दौरान सड़कों पर उतरी थी। कहते हैं, कि गांधी जी की शवयात्रा में राजधानी के आसपास के गांवों से हजारों ग्राणीण अपने घरों से घी के डिब्बे लेकर आए थे जिसका उपयोग बापू की अंत्येष्टि केलिए किया जा सके। बहरहाल,इस तरह की बात राजीव गांधी की शवयात्रा में नहीं थी। जाहिर है इस दौरान देश काफी हद तक बदल गया था। बहरहाल, एक-एक इंच पर लोग खड़े थे। शवयात्रा को तीन मूर्तिसे अपने गंतव्य में पहुंचने में करीब तीन घंटे का वक्त लगा था। और अब वक्त आ गया था राजीव गांधी को विदा कहने का। शाम सवा पांच बजे अपार जनसमूह के सामने अंत्येष्टि वैदिक मंत्रोचार के बीच शुरू हुई। उस वक्त भी सूरज आग उगल रहा था। सोनिया गांधी काला चश्मा पहने अपने पुत्र को पिता की चिता पर मुखाग्नि देने के कठोर काम को सही प्रकार से करवा रहीं थीं। जो भी उस मंजर को देख रहा था,उसका कलेजा फट रहा था। अमिताभ बच्चन भी वहां पर थे। तब तक उनके गांधी परिवार सेघनिष्ठ संबंध बने हुए थे। अंत्येष्टि के दौरान बनारस से खासतौर पर आए पंडित गणपत राय राहुल गांधी और अमिताभ बच्चन को बीच-बीच में कुछ समझा रहे थे। कई लोग रो रहे थे। आंखें तो सबकी नम थी। इस सारे मंजर को दुनियाभर से आई गणमान्य हस्तियां देख रही थीं। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ,उनकी प्रतिद्धंद्धी बेनजीर भुट्टो,बांग्लादेश की प्रधानमंत्री बेगम खालिदा जिया,फिलीस्तीन मुक्ति संगठन के प्रमुख यासर अराफात वगैरह मुरझाए चेहरों के साथ बैठे थे। ब्रिटेन की प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर भी थीं।अराफात तो बार-बार फफक कर रो भी पड़ते थे। उनका गांधी परिवारसे बहुत करीबी रिश्ता था। वे इंदिरा गांधी की भी अंत्येषिट में आए थे। नवाज शरीफ और बेनजीर दूर-दूर बैठे थे। याद नहीं आता कि उन्होंने आपस में बात की हो। शरीफ के साथ लंबी-चौडी टोली भी आई थी। करीब डेढ़ घंटे तक चली अंत्येष्टि। चारों तरफ लोग ही लोग दिखाई दे रहे थे। शक्ति स्थल से वापस दफ्तर जाने का कोई साधन नहीं था। सड़कों पर लाखों लोग उमड़े पड़े थे। पैदल ही दफ्तर पहुंचे। उस खबर को कैसे लिखा, मालूम नहीं। अपने को कोस रहा था कि काश इस खबर को लिखने का मौका नहीं मिलता।
Samar Anarya is in Hong Kong.
Yesterday at 19:58 ·
I am half Muslim. I don’t fast, but I don’t let a single Iftar go by!
आधा मुसलमान हूँ मैं- रोज़ा रखता नहीं, इफ़्तार छोड़ता नहीं।
Samar Anarya updated his cover photo.
Yesterday at 21:27 ·
At an Iftar organised by an NGO named Christian Action and attended by Hindus, Muslims, Christians, Atheists and agnostics. The world is indeed beautiful- despite the fanatics!
क्रिश्चियन ऐक्शन नाम के एनजीओ की इफ़्तार पार्टी में- जिसमें हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, नास्तिक, संशयवादी सब शरीक हुए। दुनिया ख़ूबसूरत है- इन फसादियों के बावजूद।
Samar Anarya
23 hrs ·
अभी लिखा था कि आधा मुसलमान हूँ- रोज़ा रखता नहीं, इफ़्तार छोड़ता नहीं। इस पर समधी DrMohd Maruf Jnu ने एक कमाल बात याद दिलायी- कि सहरी किए बिना कब सोए समधी! समधिया पगलाया है आज- बड़े प्यार से लिखा, वरना हम दोनों एक दूसरे को गरियाते गरियाते ही बुढ़ा गए! पर समधी ने लिखी बड़े मार्के की बात!
सच में अक्सर सहरी करके ही सोता था! क्या था कि जेएनयू के दिनों में रात में भटकने की बड़ी आदत थी! एक रिंग रोड दिल्ली में है और एक जेएनयू में भी! उस पर कभी प्रेमिका के, कभी दोस्तों के साथ भटकते ही सुबह हो जाती थी अक्सर- हमारा सोने का वक़्त!
ऐसे में रमज़ान का महीना हो तो जो हॉस्टल पास में हो मज़े में पहुँच जाते थे- प्रेमिका साथ हो तो विरोध के बावजूद, दोस्त हों तो कोई मसला ही नहीं। सीधे मेस में- और हमेशा मुहब्बत ही मिली- तमाम बार बदमाशियों के साथ- का बाबा- ख़ाली सहरी और इफ़्तार करके मुसलमान बनेंगे- कभी रोज़ा भी रखिए। याद हैं उस पर लगने वाले ठहाके।
दरअसल जेएनयू से नफ़रत करने वालों की ये भी एक बड़ी वजह है। जेएनयू अपने अंदर आने वाले ज़्यादातर को हिन्दू या मुसलमान रहने ही नहीं देता था आख़िर, इंसान बना के मानता था। 25 से 30 परसेंट मुस्लिम छात्र होते ही होते थे जेएनयू में, फिर आप चाहे जितनी नफ़रत लेकर घुसे हों- दिन रात का साथ दोनों तरफ़ के फ़सादियों को दिखा देता था कि हम बिलकुल यकसाँ हैं, अपनी नफ़रत और जाहिलियत तक में, मुहब्बतों की बात छोड़ ही दें।
जेएनयू इनके सपनों में इसी मुहब्बत की वजह से गड़ता है, गड़ता रहेगा। आप से हो सके तो एक काम करें- गाँव गाँव गली गली जेएनयू गढ़ लें। कोई मुस्लिम दोस्त तो उसे कल इफ़्तार की दावत दें, अपने घर पर। न हो तो कल एक बनाएँ और परसों दावत दें। आप मुस्लिम हों तो कल किसी हिन्दू दोस्त को इफ़्तार पर बुलायें- ना हो तो कल बनाएँ और परसों बुलाएँ। देखिएगा, नफ़रत वालों को भागने की जगह ना मिलेगी।
बाक़ी, मारूफ भाई समधी क्यों? इसलिए कि ऊ हर होली पे गदहे पे बैठ हर साल मेरी तब की नातिन और अब पर नातिन पुरुष छात्रावास झेलम निवासिनी झेल कुमारी से अपने निठल्ले बेटे (अब नाती) का ब्याह करवाने आता है और हम लोग हर साल भगा देते हैं। एक साल तो हमारे दुश्मन साईं मगर झेल कुमारी के बड़े अब्बू Faiz Ashrafi जंग लगा गंड़ासा लेकर दौड़ाये थे जिससे आलू न कटे, पर तब भी मारुफवा उफ़ उफ़ करके भाग गया था।