रेहान फ़ज़ल, बीबीसी संवाददाता
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्र भानु गुप्त अक्सर कहा करते थे, ‘बहुगुणा के नाम पर मत जाइए. उनका व्यक्तित्व और चरित्र उसके ठीक उल्टा है.’
कांग्रेस के दिग्गज नेताओं में से एक रहे सी बी गुप्ता को बहुगुणा की तिकड़म का स्वाद तब चखना पड़ा, जब 1974 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अपने गढ़ लखनऊ में न सिर्फ़ वो हारे, बल्कि उनकी ज़मानत भी ज़ब्त हो गई, 1977 के लोकसभा चुनाव के दौरान जब दोनों एक पार्टी में आ गए तो गुप्ता ने बहुगुणा से पूछ ही लिया, ‘बहुगुणा अब बता ही डालो कि 1974 में तुमने किया क्या था?’
बहुगुणा अपनी शर्मीली मुस्कान बिखेर कर बोले थे, ‘पुरानी बातों को भूल जाइए बाबूजी.’
सबसे चतुर नेताओं में थी गिनती
1977 के लोकसभा चुनाव के बाद जब मत पेटियों को सेफ़ हाउज़ में रखा जा रहा था, तो बहुगुणा ने ये सुनिश्चित करवाया कि उस सेफ़ हाउज़ के रोशनदान तक को सील किया जाए.
चंद्र भानु गुप्त ने उस समय बड़ी दिलचस्प और बारीक टिप्पणी की थी, ‘अब मुझे पता चला कि उस चुनाव में मेरी ज़मानत क्यों ज़ब्त हुई थी.’
इस घटना में सच्चाई हो या न हो, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि अपने ज़माने में हेमवती नंदन बहुगुणा की गिनती भारत के सबसे चतुर नेताओं में होती थी.
बहुगुणा को नज़दीक से जानने वाले वरिष्ठ पत्रकार बी एन उन्याल कहते हैं, ‘बहुगुणा बहुत तेज़ थे, मेधावी थे. बहुत जल्दी हर इंसान की नब्ज़ पहचान लेते थे. एक नज़र से किसी को भाँपना, तोल लेना और ये अंदाज़ा लगा लेना कि वो किस काम के काबिल है, बहुगुणा की ख़ूबी थी.’
वो कहते हैं, ‘उस दौर में उन्हें पूरे उत्तर प्रदेश के लोगों के बारे में इतनी जानकारी हो गई थी कि वो हर पंचायत से लेकर ब्लॉक और राज्य तक वो हर नेता को न सिर्फ़ नाम से बल्कि शक्ल से भी जानते थे. और अपनी पार्टी के नेता को ही नहीं, बल्कि विपक्षी पार्टियों के नेताओं को भी. और खाली जानना ही नहीं था, बल्कि जिसे कहते हैं गोट बैठाना. वो जानते थे कि किस की नब्ज़ कहाँ है? कौन किसकी सुनता है? किस का किस पर असर है? कौन किसके कहने से क्या करेगा? कौन हाँ कहेगा? कौन न कहेगा? कैसे इससे हाँ कहलवाना है? ये सब गुर उनमें थे.’
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राजकुमारी अमृत के चुनाव से बहुगुणा ने खींची सबकी नज़र
बहुगुणा की राजनीति की शुरुआत इलाहाबाद से हुई थी, जहाँ वो पहले छात्र नेता और फिर मज़दूर नेता हुआ करते थे. लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उनकी पहचान तब बनी जब जवाहरलाल नेहरू ने अपने मंत्रिमंडल में स्वास्थ्य मंत्री रही राज कुमारी अमृत कौर का चुनाव लड़वाने मंडी भेजा.
बी एन उन्याल बताते हैं, ‘1952 में पहले संसदीय चुनाव में राज कुमारी अमृत कौर को हिमाचल प्रदेश के मंडी संसदीय सीट से टिकट दिया गया था. वो कभी पहाड़ों पर गई नहीं थी. कुछ दिनों में वो तंग आ गईं और नेहरू को फ़ोन कर उन्होंने कहा, कहाँ भेज दिया तुमने मुझे जवाहर लाल? मेरे लिए बड़ा मुश्किल हो रहा है. किसी को मेरी मदद के लिए यहाँ भेजो तुरंत. पंडितजी ने इलाहाबाद में कभी आनंद भवन में बहुगुणाजी को देखा होगा. उन्होंने शास्त्रीजी से कहा, वो इलाहाबाद में जो पहाड़ी लड़का था न बहुगुणा, वो कहाँ है आज कल? शास्त्रीजी ने कहा, वहीं होगा इलाहाबाद में. नेहरू ने कहा, उसे तुरंत मंडी भेजो, अमृत के चुनाव में काम करने के लिए.’
वो कहते हैं, ‘बहुगुणा ने इससे पहले कभी मंडी का नाम भी नहीं सुना था. लेकिन जवाहरलाल समझते थे कि चाहे यूपी का पहाड़ी हो या हिमाचल का, सब एक जैसे हैं. बहरहाल बहुगुणा वहाँ पहुंचे और उन्होंने दो महीने राज कुमारी अमृत कौर के चुनाव के लिए जम कर काम किया. चुनाव जीतने के बाद दिल्ली लौट कर अमृत कौर ने नेहरू से बहुगुणा की जम कर तारीफ़ की. वहाँ से वो जवाहरलाल की नज़र में आ गए. उसके बाद स्थानीय कांग्रेस में भी उनका क़द बढ़ गया. उससे उनको फ़ायदा ये हुआ कि उन्हें चार लोग जानने लगे. दिल्ली में उनकी इतनी पहचान हो गई कि जब वो लोगों से मिलने जाएं, तो लोग उन्हें मुंह लगाने लगे.’
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जब बहुगुणा ने नेहरू की मीटिंग की बत्ती गुल कराई
राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए बहुगुणा अपनी तरफ़ से भी काफ़ी जतन करते थे.
मशहूर पत्रकार जनार्दन ठाकुर ने अपनी किताब ‘ऑल द जनता मेन’ में बहुगुणा से जुड़ा एक बहुत मज़ेदार किस्सा लिखा है, ‘1951 में जब जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष बने तो वो इलाहाबाद आए. लाल बहादुर शास्त्री ने बहुगुणा को बुला कर कहा कि वो नेहरू के स्वागत के लिए एक बहुत बड़ी रैली कराएं.’
वो कहते हैं, ‘बहुगुणा ने पुरुषोत्तम लाल टंडन पार्क में लोगों की भीड़ जमा करने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया. जब रैली हुई तो टंडन पार्क लोगों से खचाखच भरा हुआ था. लेकिन बहुगुणा को मंच पर नहीं जाने दिया गया. वो भीड़ के पीछे चले गए और चाट खाने लगे. अचानक चारों तरफ़ अंधेरा छा गया. बत्ती चली गई और सब कुछ सुनाई देना बंद हो गया. लोग बेचैन हो उठे और भीड़ के बीच बहुगुणा, बहुगुणा की आवाज़े उठने लगीं. बहुगुणा भागते हुए मंच पर पहुंचे. जैसे ही उनके कदम मंच पर पड़े, बत्ती वापस आ गई. लोगों ने नेहरू की उपस्थिति में ही नारा लगाया, ‘बहुगुणा ज़िदाबाद’!’
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मुख्यमंत्री बनते ही इंदिरा से मतभेद शुरू
बहुगुणा के आलोचक कहते हैं कि ये सब बहुगुणा ने खुद करवाया था. 1971 में इलाहाबाद से लोकसभा का चुनाव जीतने के बाद इंदिरा गाँधी ने उन्हें पहले अपने मंत्रिमंडल में संचार राज्यमंत्री बनाया और फिर 1974 में उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बना कर उन्हें लखनऊ भेजा. लेकिन कुछ दिनों के भीतर ही उनके और इंदिरा गाँधी के बीच मतभेद शुरू हो गए.
ख़ुद बहुगुणा ने एक बार बीबीसी से बात करते हुए कहा था, ‘मेरे मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही मेरे और इंदिरा गाँधी के बीच एक बुनियादी बात पर झगड़ा हो गया. उनका ख़्याल था कि मैं हर काम उनसे पूछ कर करूंगा. मेरा कहना था कि ‘बैक सीट ड्राइविंग’ संभव नहीं है. इतने बड़े प्रदेश को चलाने वाले मुख्यमंत्री को अपना फ़ैसला ख़ुद लेना होगा. मैंने उनसे साफ़ कहा कि मेरे कंधे पर आपका सिर नहीं हो सकता. वो चाहती थीं कि मैं उनके लड़के को लेकर उत्तर प्रदेश में घूमूं, जैसे कि राजस्थान और महाराष्ट्र जैसे राज्यों के मुख्यमंत्री कर रहे थे. मैंने इंकार कर दिया. मैंने कहा उन्हें अपने पैरों पर चलना होगा. वो काम करें, आगे बढ़ें, लेकिन मेरे कंधों पर ये नहीं हो सकता.’
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राज्यसभा चुनाव में बिरला की हार
उसी दौरान मशहूर उद्योगपति के. के. बिड़ला ने उत्तर प्रदेश से राज्यसभा का चुनाव लड़ा. उन्हें इंदिरा गाँधी का समर्थन हासिल था, लेकिन बहुगुणा ने उनका विरोध किया, जिसकी वजह से वो चुनाव हार गए.
हेमवती नंदन बहुगुणा की बेटी रीता बहुगुणा जो कि इस समय उत्तर प्रदेश सरकार में पर्यटन मंत्री हैं बताती हैं, ‘के. के. बिड़ला की आप आत्मकथा उठा लीजिए. उन्होंने बहुगुणा पर पाँच छह पन्ने लिखे हैं. इंदिराजी ने उन्हें समर्थन दिया, लेकिन गुप्त रूप से, खुल कर नहीं और न ही उन्होंने उन्हें अपना उम्मीदवार घोषित किया. पिताजी का कहना था कि अगर पार्टी इन्हें अपना उम्मीदवार बनाए, तब तो मैं इन्हें जिताउंगा, वर्ना नहीं. मेरे पिता ‘लेफ़्ट टु सेंटर’ की राजनीति करते थे. उन्होंने कहा कि मैं किसी पूंजीपति को बिना पार्टी का समर्थन मिले, नहीं जिता सकता.’
वो कहती हैं, ‘इंदिराजी खुलेआम बिड़ला का समर्थन नहीं करना चाहती थीं, क्योंकि उनकी प्रगतिशील नेता की छवि थी. संजय गांधी ने पापा को बुलवाया. वो नहीं गए. आप बिड़ला की आत्मकथा उठा कर पढ़ लीजिए. वो कहते हैं कि संजय गाँधी ने कहा कि बिड़ला को इसका खामियाज़ा भुगतना पड़ेगा. इंदिरा और संजय इस बात से बहुत नाराज़ हुए और ये एक कारण बना बहुगुणा के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से जाने का.’
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इंदिरा के आँख की किरकिरी
इसके अलावा कुछ ऐसी भी चीज़े हो गईं जिसकी वजह से इंदिरा गाँधी को भ्रम हो गया कि बहुगुणा उनकी कुर्सी हथियाने की फ़िराक में हैं.
बी. एन. उनियाल बताते हैं, ‘बहुगुणा ने एक बार लखनऊ में ‘ग्लोबल मुस्लिम कांफ़्रेंस’ कराई. वो बहुत अच्छे इंतेज़ामकर्ता थे. छोटी छोटी बातों का बहुत ध्यान रखते थे. हर मुल्क के प्रतिनिधि ने जब लखनऊ से दिल्ली आ कर इंदिरा गाँधी से मुलाकात की तो एक स्वर से कहा कि बहुगुणा बहुत क़ाबिल है. चारों तरफ़ उनकी वाह वाह शुरू हो गई, ख़ास तौर से मुस्लिम समाज में.’
वो कहते हैं, ‘इंदिरा गाँधी के एक ख़ास दरबारी होते थे मोहम्मद यूनुस. एक बार इंदिरा ने उन्हें मध्यपूर्व देशों के दौरे पर भेजा. उन्होंने वापस आ कर बताया कि वहाँ तो हर शख़्स बहुगुणा का ही नाम ले रहा है. कहते हैं मोहम्मद यूनुस ने बहुगुणा के ख़िलाफ़ इंदिरा गाँधी के काफ़ी कान भरे. उनको समझाया गया कि बहुगुणा ज़मीन तैयार कर रहे हैं प्रधानमंत्री बनने के लिए.’
मुसलमान मानते थे बहुगुणा को अपना सबसे बड़ा नेता
चाहे नवाब हों या आम मुसलमान लोग, सभी बहुगुणा के मुरीद थे. जवाहरलाल के बाद अगर उत्तर प्रदेश का मुसलमान किसी को अपना नेता समझता था, तो वो थे हेमवती नंदन बहुगुणा. मुज़फ़्फ़रनगर से ले कर गोरखपुर तक वो मुसलमानों के अकेले नेता थे.
उनको उर्दू बोलने का शौक था और वो अक्सर अपने भाषणों में शेरो-शायरी किया करते थे, जिसे मुसलमान बेहद पसंद करते थे.
हाँलाकि उनके आलोचक कहा करते थे कि वो अपने उर्दू भाषण देवनागरी में लिखवा कर उन्हें रट लिया करते थे. आज कल के राजनीतिक इफ़्तारों से कहीं पहले बहुगुणा ने इफ़्तार पार्टियाँ देना शुरू किया था.
कई बार किसी पब्लिक मीटिंग के दौरान अज़ान की आवाज़ सुनाई देना पर वो बोलना बंद कर देते थे. ईद के दिन उन्हें ईदगाह के बाहर मुसलमानों से गले मिलते देखा जाता था. ये चीज़े उन्हें मुसलमानों से जोड़ती थी लेकिन उनके आलोचक इसे ‘स्टंट’ की संज्ञा देते थे.
खाना बनाने के शौकीन थे बहुगुणा
बहुगुणा की बेटी रीता बहुगुणा बताती हैं, ‘पिताजी पढ़ते बहुत थे. उनकी याददाश्त ग़ज़ब की थी. कोई चीज़ भूलते नहीं थे.’
वो कहती हैं, ‘उन्हें खाना बनाने का शौक था. जब वो बहुत मूड में होते थे, तो कहते थे आज चूल्हा जलाओ. उस ज़माने में कोयले पर खाना बना करता था. वो बेहतरीन ‘कुक’ थे. वो पुलाव बहुत अच्छा बनाते थे. वो जिन सब्ज़ियों पर हाथ लगा देते ते, उनमें स्वाद ही स्वाद भर जाता था. वो नॉन वेजेटेरियन थे. नॉनवेज खाना भी वो बहुत अच्छा बनाते थे. संगीत का उन्हें इतना शौक नहीं था, लेकिन सहगल के गाने उन्हें बहुत पसंद थे.’
जगजीवन राम से बहुगुणा की गुप्त मुलाकातें
1977 में जब आम चुनाव की घोषणा हुई तो बहुगुणा ने जगजीवन राम से कई बार गुप्त मुलाकातें की.
जनार्दन ठाकुर अपनी किताब ऑल द जनता मेन में लिखते हैं, ‘बहुगुणा ने बहुत होशियारी से ऐलान करवा दिया कि वो यूपी निवास में बीमार पड़े हैं. कई डॉक्टर उनके कमरे में आते जाते, जिससे ये ख़बर फैल गई कि बहुगुणा वाकई गंभीर रूप से बीमार हैं.’
उन्होंने आगे लिखा, ‘जैसे ही रात होती वो एक मुड़ी तुड़ी धोती निकालते, अपने आप को कंबल से ढ़कते और जगजीवन राम के 6 कृष्ण मेनन वाले निवास पर पहुंच जाते. वहाँ वो न सिर्फ़ जगजीवन राम से बातें करते, बल्कि उनकी पत्नी और बेटे सुरेश राम से भी बतियाते. फिर वो उसी भेष में शाही इमाम से मिलने जामा मस्जिद चले जाते.’
बी. एन. उनियाल बताते हैं, ‘वो पहले इस संबंध में चव्हाण साहब से मिले. उन्होंने कहा कि ये क्या बेवकूफ़ी की बात कर रहे हो. उन्हें इस बात का डर था कि कहीं उनकी बातें टेप न की जा रही हों. इसलिए वो उनसे अपने लॉन में आ कर बातें करते थे. आख़िर में वो माने नहीं. जब बहुगुणा ने अपना ध्यान जगजीवन राम पर केंद्रित किया. उनसे मिलने के लिए उन्हें बहुत मशक्कत करनी पड़ती थी.’
वो कहते हैं, ‘हमारे जैसे दोस्त उनके काम आते थे. वो टैक्सी लेकर आते थे और इंडिया गेट पर उतर जाते थे. फिर वहाँ से पैदल जोधपुर हाउज़ जाते थे. फिर वहाँ से दूसरी गाड़ी बदल कर किसी तरह जगजीवन राम के घर पहुंचते थे. शुरू में उनको राज़ी करना भी बहुत मुश्किल था. जब बहुगुणा ने उन्हें समझाया कि आप अगले प्रधानमंत्री बनेंगे, तब जा कर वो राज़ी हुए. इसमें बहुगुणा से ज़्यादा भूमिका उनके बेटे सुरेश राम ने निभाई और बहुगुणा ने सुरेश राम पर भी काफ़ी काम किया.’
कांग्रेस में फिर वापसी और इस्तीफ़ा
जनता पार्टी सरकार दो साल से अधिक चल नहीं पाई. बहुगुणा ने एक बार फिर इंदिरा कांग्रेस का दामन पकड़ा. वहाँ एक बार फिर इंदिरा गाँधी से उनकी नहीं बनी और फिर उन्हें कांग्रेस छोड़नी पड़ी.
बहुगुणा ने एक बार बीबीसी को खुद बताया था, ‘मैं जनता पार्टी और बाद में चरण सिंह के साथ बहुत खुश नहीं था. इंदिरा गाँधी के लोगों ने मुझसे संपर्क किया. नेहरू जयंती के दिन वो शाँति वन से लौटते हुए सपरिवार मेरे सुनहरीबाग रोड वाले निवास पर रुकीं. संजय, राजीव, सोनिया, राहुल और प्रियंका सब उनके साथ थे. वहीं इंदिरा ने संजय से कहा कि मामाजी के पैर छुओ.’
वो कहते हैं, ‘इसके बाद मेरी और उनकी क्नॉट प्लेस के एक होटल सेंटर पॉइंट में लगातार चार दिनों तक मुलाकात हुई. धवन उन्हें अपनी कार में बैठा कर लाते थे. उन्होंने मुझे अपनी पार्टी का सेक्रेटेरी जनरल बनाया. लेकिन चुनाव जीतने के बाद उन्होंने मेरी अवहेलना करनी शुरू कर दी और मेरे लिए उनकी पार्टी में सम्मान के साथ रहना मुश्किल हो गया. मैंने न सिर्फ़ उनकी पार्टी छोड़ी, बल्कि गढ़वाल लोकसभा सीट से भी इस्तीफ़ा दे दिया.’
इलाहाबाद में हार
बहुगुणा इलाहाबाद में 1984 का लोकसभा चुनाव अमिताभ बच्चन से हार गए. इसके बाद उनका राजनीतिक जीवन कभी उठ नहीं पाया. बहुगुणा शायद उन ऊँचाइयों को नहीं छू पाए जिसकी कि उनके प्रशंसक या वो ख़ुद उम्मीद करते थे. लेकिन एक बात तय थी कि वो आम राजनेताओं से हट कर थे.
बी. एन. उनियाल कहते हैं, ‘शायद उनमें एक कमी थी कि उनमें धीरज नहीं था. वो रुक नहीं सकते थे. हर चीज़ में थोड़ी जल्दबाज़ी करते थे. दूसरी सबसे बड़ी बात ये थी कि वो चतुर ज़रूर थे, लेकिन विवेकशील नहीं थे. उनमें दीर्घ दृष्टि नहीं थी. इसकी वजह से उनसे कई ग़लत फ़ैसले हुए जिनका उन्हें बहुत राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ा.’
—bbc.com
Nitin Thakur
33 mins ·
पहले Ravish Kumar के नाम पर आईटी सेल वाले ये नकली खबर फैलाएंगे कि रवीश ने गीता के रेप को मर्ज़ी से बनाया गया यौन संबंध कहा. इसके बाद यही आईटी सेल वाले अपने चम्मचों-चंपुओं-चिंटुओं से रवीश को गाली दिलवाएंगे कि क्यों तुमने “हिंदू गीता” के बारे में ऐसा कहा. फिर यही आईटी सेल वाले अपने बिना दिमाग की बेवकूफ फौज में रवीश का नंबर बंटवाकर उनकी मां और बेटी को गाली दिलवाएंगे. (स्क्रीनशॉट नीचे है)
रवीश कुमार के पिता नहीं हैं. मां हैं. दूर रहती हैं लेकिन अक्सर वो मां से मिलने गांव जाते हैं. अपनी मां को लेकर वो उतने ही भावुक हैं जितने हम में से हर एक. मां को दी गई गाली उन्हें उतनी ही अखरती होगी जितनी हम सभी को.
रवीश कुमार प्यारी बेटियों के पिता भी हैं. वेश्याओं के ठिकानों पर जाकर की गई उनकी एक रिपोर्ट मुझे याद दिलाती है कि महिलाओं को लेकर उनके मन में कितनी वेदना रही है. इसके अलावा निजी जीवन में उनकी दोस्त और सहयोगियों से मैंने जाना है कि औरतों को लेकर वो सम्मान और फिक्र से हमेशा ही कितने भरे रहते हैं..
इधर आलम ये है कि ज़माने भर की महिलाओं को लेकर जो इतना संवेदनशील है और सरकारों की अकर्मण्यता को चुनौती देकर आपके हमारे बेटों-भाइयों को नौकरियां दिलवाकर रोज़ दुश्मन बढ़ा रहा है उसे हमारे ही भाई-बेटे मां और बहन की गाली लिखकर भेज रहे हैं!!
विड़ंबना है कि ये गाली उसे जिस बात के लिए दी जा रही हैं वो उसने कही ही नहीं.
जनता के मुद्दों पर ही मुखर रहनेवाले रवीश कुमार ने आज अपना निजी दर्द साझा कर ही दिया. लिख रहे हैं कि पुलिस के पास जाओ तो वो भी कुछ नहीं करती. अब सोच लीजिए कि तकनीक और प्रौद्योगिकी का ढोल पीटनेवाली सरकारों की पुलिस साइबर गुंडों के हाथों कैसी तमाशबीन होकर रह गई है. मजबूरन रवीश ने वो नंबर भी शेयर किया है जिससे उनको गाली लिखकर भेजी जा रही हैं. रवीश तो फिर भी चर्चित हैं. हम जैसे कितने ही लोग इसके आम शिकार हैं. जो अपनी ज़िंदगी में पिटते रहे वो भी सोशल मीडिया और वॉट्सएप पर जान लेने की धमकी उड़ा रहे हैं.
जान लेने-देने की धमकी तो फिर भी अपनी जगह है. उससे बुरा है किसी संवेदनशील इंसान की मां, बहन, बेटियों को टारगेट बनाकर गाली देना. गाली देनेवाले जानते हैं कि जिसे वो गाली दे रहे हैं वो सभ्य और भावुक है इसलिए वो बार-बार ऐसा करते हैं. ये बात भी नहीं कि रवीश गाली और धमकी देनेवालों की हमेशा फिक्र करते हों पर यदि आपके दिल में अभी भी कहीं कोमलता बची होगी तो आप एक हद के बाद आहत होंगे. गालीबाज़ों के लिए ये आम है.
मेरी आप सबसे अपील है. रवीश के नाम से जारी किए गए संदेशों को उनका ना मानें. ऐसा करनेवालों में दोनों तरफ के लोग हैं. सिर्फ रवीश के दिए गए भाषण, इस पोस्ट में ऊपर टैग की गई उनकी प्रोफाइल और टैग किए गए इस Ravish Kumar पेज को ही आधिकारिक मानें. इस पर की जानेवाली पोस्ट या कमेंट ही उनके अपने हैं बाकी सब हवा में उड़ाई गई अफवाह हैं.
सभी स्क्रीन शॉट्स कमेंटबॉक्स में लगा रहा हूं. इनका प्रसार कीजिए. ये ही है जो हम कर सकते हैं. जीवट वाले पत्रकारों को बचा लीजिए वरना आपको पत्रकारिता का स्तर खुद भी पता है. कल ये और गिरा तो इसका ज़िम्मा इस बार सिर्फ पत्रकारों पर नहीं बल्कि तमाशा देखकर चुप रहनेवाले आप लोगों पर भी होगा.
Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
16 hrs ·
जब विमान बुरी तरह हिलने डुलने लगा , तो राहुल गांघी ने शिव जी से मन्नत मांगी , और अब उस मन्नत को पूरा करने वह कैलास मानसरोवर जा रहे हैं । यह क्या विप्लव देव् जैसी जहालत भरी बात है भाई ? आखिर एक कमर्शियल पायलट के बेटे हो । आपके पिता ने बचपन मे आपको विमान के इस तरह हिलने डुलने के कारण और परिणाम अवश्य बताए होंगे । साथ ही यह भी बताया होगा कि ऐसे में शिव जी कुछ भी नहीं कर सकते । लेकिन राहुल गांधी धूर्त संघियों को अपनी खिल्ली उड़ाने का अवसर स्वयं ही देते हैं ।
लेकिन इसके पीछे एक गहरा मनोविज्ञान भी है । देख रहा हूँ , कि पिछले करीब चार वर्षों से , राष्ट्रवादी सरकार के गठन के बाद , भारत के मुस्लिम बढ़ चढ़ कर पाकिस्तान को गालियां देते हैं , अथवा उसका झंडा जलाते हैं । ऐसा वह स्वयं को भारत निष्ठ सिद्ध करने हेतु करते हैं , क्योंकि कुछ मूर्ख उन पर संदेह करते हैं । ठीक इसी तरह से हाल के वर्षों में राहुल गांधी के हिन्दू होने पर जानबूझ कर षड्यंत्र के तहत सवाल उठाए जाते हैं , शायद इसी की काट में राहुल ने उक्त वक्तव्य दिया है । मैं कहता हूं कि माना अगर राहुल हिन्दू नहीं भी हैं , तो क्या फर्क पड़ता है ? भारतीय होना ही पर्याप्त नहीं क्या , जो वह निसन्देह हैं ।
राहुल और भारतीय मुस्लिम दोनों का भय अनावश्यक है । वे षड्यंत्रकारी संघियों के प्रेशर में न आएं ।
Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
28 mins ·
पहले हम तुझको तोड़ेंगे
फिर तुझ पर कुत्ते छोड़ेंगे
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11 साल की अबोध बच्ची के प्रकरण पर कुछ बेशर्म , ढीठ और क्रूर कठमुल्ले एकदम से घिना दिए हैं , और थुथुवा दिए हैं । बच्ची को भाभी बोल कर दांत निपोरते हैं हरामी । दंगा करने को इनके भी बिष दांत और पैने खुर खुजला रहे हैं ।
ऐसे में मेरा सुझाव है कि सभ्य समाज संयुक्त रूप से अपनी अपनी कॉलोनियों में एक या अधिक खूंख्वार संघी पाले । दिन में उन्हें बांध कर रखे , तथा रात को दुष्ट हिंसक मुसन्घियों की गली में छोड़ दे । भयंकर आवाज़ और आक्रमण करने वाले संघियों से कटवाना और नुचवाना ही इनका इलाज़ प्रतीत होता है ।
Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
Yesterday at 07:59 ·
बुद्धा जयंती स्पेशल
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यह राहुल बाबा और मोदी काका दोनों के लिए विचारणीय है । यदि शासन सत्ता से जन गण के दुखों का निदान सम्भव होता , तो बुद्ध पहले बन को न जाते , और फिर समाज मे आकर जन अभिक्रम को न जगाते । वह राजपुत्र थे । तत्काल बजट पास करते और जरा – व्याधि के निवारण हेतु कोई योजना चलाते । लेकिन उन्हें विदित था भय , लालच और विभेद के बल पर चलने वाली राज सत्ता कभी भी मनुष्य को समाधान नहीं दे सकती । इसीलिए गांधी स्वयं राष्ट्रपति अथवा प्रधान मंत्री न बने , अपितु नेहरू , पटेल जैसे कांग्रेस के नम्बर one नेताओं को भी उन्होंने सत्ता का लोभ छोड़ गांव में बैठने की सलाह दी । जिस दिन नेहरू दिल्ली में पद और गोपनीयता की शपथ ले रहे थे , उसी दिन और उसी वक़्त गांधी नोआखाली के गावों में घूम , मनुष्य का सन्ताप हरने का उपक्रम कर रहे थे ।
बुद्ध ने तत्कालीन सत्ता , सम्पति और शस्त्र के वर्चस्व को तोड़ा । क्रूर और मदान्ध नृपतियों को जनता के सम्मुख अवनत किया । ठग ब्राह्मणों की लम्पटई का भांडा फोड़ा । बुद्ध न होते , तो न समता की अवधारणा होती और न लोकतंत्र होता । ज़ाहिर है कि कबीर , गांधी और आम्बेडकर भी न होते ।
Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
29 April at 06:59 ·
रश्के शीराजे कुहन , हिन्दोस्तां की आबरू
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एक बार मैं दिल्ली से देहरादून की बस पकड़ने दिल्ली गेट से कश्मीरी गेट को रिक्शा पर जाता था । दिल्ली में धुआं धार भागती बसों के नीचे कुचले जाने की आशंका के बावजूद मैं रिक्शा पर चलना ही पसन्द करता हूँ । मुस्लिम रिक्शा चालक से दोस्ती हो गयी । जामा मस्जिद के पास हम दोनों ने काला खट्टा पिया , और फिर चलते चलते बातचीत होने लगी । पूछने पर उसने बताया , हमे दिल्ली में सैकड़ों साल हो गए । दोनों बेटे अपना कारोबार करते हैं , और अलग रहते हैं । दिल्ली में रहते सैकड़ों साल हो गए , और अभी तक आपने अपना मकान नहीं बनाया ? मैंने हैरान हो पूछा । इस पर मुजस्सम अली ने जवाब दिया कि उनका दिल्ली में अपना मकान था , पर वह छीन लिया गया । अब मेरे और हैरान होने की नौबत थी । क्या अंधेरगर्दी है ? क्या सरकार ने कोई मदद नहीं की ? तब उसने बताया कि सरकार ने खुद ही हमारा मकान छीना है , तो क्या मदद करेगी ?
इतने में रिक्शा लाल किले के सामने से गुजरने लगा , और तब उसने उंगली से इशारा कर बताया – यह रहा हमारा मकान । उसकी बात एकदम झूठ भी नहीं थी । मुझे 1857 की ग़दर के बाद का एक प्रसंग याद आया , जो मैंने कहीं पढा था । बहादुर शाह को काबू करने के बाद जब अंग्रेज़ आला हाकिम लाल किले में गया तो वहां एक झुग्गी बस्ती थी , जो अब तक घास फूंस की टट्टियों में छुपा कर रखी गईं थी । उसके बारे में किसी को अब तक पता न था । वहां के निवासियों में बच्चे तो क्या , बूढ़े तक अध नङ्गे या पूरी तरह नङ्गे थे । वे भूख से बिबिलाते थे , और गंदगी के कारण वहां महामारी का साम्राज्य था ।
ये सब , मुग़ल बादशाह के भाई , भतीजे , पुत्र कलत्र , चाचा अथवा पोते थे । दरअसल ये बादशाहों और उप बादशाहों की जारज संतानें थीं , जिन्हें लाल किले के अंदर ही बनी इस बस्ती में ठेल दिया जाता था । उन्हें शाही महल महल की ओर से गुज़ारा भत्ता मिलता था , जो ऊंट के मुंह मे जीरा जैसा था । नतीजतन वे मौका मिलते ही महल में हथलपकियाँ करते , और पकड़े जाने पर पिटते अथवा फांसी चढ़ते थे । उन्हें शाही खानदान का होने की वजह से कहीं बाहर छोटी मोटी नौकरी करने की भी छूट न थी ।
1857 की ग़दर फेल होने के बाद अंग्रेज़ का सर्वाधिक क़हर मुसलमानों पर ही टूटा । दिल्ली के जो मुसलमान फांसी से बच गए , वह दर ब दर होकर फिरे । कई नवाबों और उमराव ने मजदूरी या किसानी कर जीवन यापन किया । लखनऊ की ग़दर के वक़्त वहां बहादुर शाह जफर का एक सगा भाई घूमता था । वह सनक गया था , और उसने स्वयं को हिन्दोस्तान का बादशाह घोषित कर दिया । उसने तीन पैसे के कांच खरीद कर अपने फटे लबादे पर चिपका दिए , और कबाड़ी बाजार से एक छाता ले कर उसे शाही छत्र की तरह ओढ़ कर चलने लगा । अपनी तार तार हो चुकी पगड़ी पर उसने कबूतर का पंख खोंस लिया , और बांस के एक डंडे पर रंगीन कागज़ चिपका कर उसे राजदंड घोषित कर दिया । वह पकड़ा गया , लेकिन पागल होने की वजह से बाद को छोड़ दिया गया ।
तब मुझे ध्यान आया कि रिक्शा चालक की बात एकदम गलत भी नहीं है , और कमसे कम लाल किले पर उसका दावा डालमिया से तो काफी अधिक बनता है ।
Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
28 April at 19:48 ·
यह एक भयावह दुःस्वप्न की तरह है । क्या भारत का प्रधान मंत्री अब किसी का किरायेदार या कस्टमर बन कर देश को सम्बोधित करेगा ? क्योंकि डालमिया कह चुका है – लालकिले में आने वाला हर व्यक्ति उसके लिए कस्टमर होगा ।
आज सुबह ही मेरे एक चिंतित मित्र ने मुझे सलाह दी , लाल किला या उस जैसी इमारतों को खरीदने वाले हर ब्योपारी को डराओ , और चेतावनी दो कि आने वाले इतिहास में , जब सत्ताएं बदलेंगी , तो ऐसे सौदेबाज़ों को भारी आर्थिक और मानसिक क्षति सहनी पड़ेगी । मित्र की बात में विनोद थोड़ा सा था , लेकिन सचाई बहुत अधिक । अतः मैं अपना फर्ज निभाते हुए सौदागर को डरा रहा हूँ ।
जिस शाहजहां ने लाल किला तामीर करवाया , उसे अपने जीवन के उत्तरार्ध में दारुण दुःख देखना पड़े । इसके अंतिम वारिस बहादुर शाह को अंग्रेज़ काला पानी ले गए । इससे पेश्तर उसके जवान पुत्रों को मार डाला । लाल किले पर जब अंग्रेजों का गज़ब पड़ा , तो कई शहजादियाँ अपनी जान लेकर वहां से पैदल भागी । उनको पालम गांव के गूजरों ने पकड़ लिया , और उनकी कुर्तियों पर टँकी सुनहरी छींट को आग में जला कर सोना चांदी निकाल लिए , और शह ज़ादियों से गोबर के उपले पथवाये ।
फिर लाल किले से जिस प्रधान मंत्री ने भाषण दिया , उनमे से ज़्यादातर मर गए । इनमें जवाहर लाल नेहरू , गुलज़ारी लाल नन्द , इंदिरा गांधी , मोरारजी देसाई , चरण सिंह , राजीव गांधी , वीपी सिंह , चंद्रशेखर और नरसिंहाराव प्रमुख हैं ।
अतः डालमिया को चाहिए कि वह डरे और इस पचड़े में न फंसे । क्योंकि जब देश की जनता क्रोधित होकर सचमुच में डाल देगी , तो चिल्लाते फिरोगे कि निकाल मियां , निकाल मियां ।
डालमिया के पूर्वज राम किशन डालमिया , मेरे साहित्यकार मामा विद्या सागर नौटियाल के साथ 1962 – 65 मे दिल्ली तिहाड़ जेल में बंद रहे । दोनों की क़ैद के कारण अलग अलग थे । अगर फेस बुक ने पुनः ब्लॉक न किया , तो यह किस्सा कल बताऊंगा ।
Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
28 April at 10:30 ·
बहुगुणा के गुण अवगुण
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कल शाम ही चश्मा कहीं गिर पड़ा , जो अभी तक भी नहीं मिला है । लेकिन मेरी निष्ठा देखिए कि बगैर चश्मे के भी , अक्षर टटोलते हुए आपके लिए यह पोस्ट लिख रहा हूँ । एक बांसुरी वादक होने के नाते मुझे यह अभ्यास है । बांसुरी बजाते वक़्त आंखें बंद करके उंगीलियों से उसके छेद टटोलने पड़ते हैं । अतः मुझे अंधेरे में भी उंगली से अक्षर और छेद टटोलने का अभ्यास है ।
अस्तु , हेमवती नन्दन बहुगुणा ने अपनी प्रेमिका कमला त्रिपाठी से शादी कर ली , और यह बात घर मे सिर्फ अपनी दीदी दुर्गा ( जनरल भुवन चन्द्र खंडूरी की माँ ) को बताई । इस शादी का हाल सुन उनके पिता रेवती पटवारी जी अत्यधिक व्याकुल हुए । लेकिन हेमवती बाबू के नए ससुर प्रो त्रिपाठी एक सुलझे हुए व्यक्ति थे । उन्होंने कहा , शादी तो कर रहे हो , पर खाओगे क्या ?
अंग्रेज़ भारत से जा रहे थे , और उनकी कोठियां खाली हो रही थीं । प्रो त्रिपाठी ने अपने प्रभाव का उपयोग कर हेमवती जी को हेस्टिंग्स रोड़ पर एक बंगला दिला दिया । रोजी रोटी के लिए हेमवती जी ने कुछ दिन रेत बजरी का काम किया , और रिक्शा के परमिट भी लिए । लेकिन यह सब अस्थायी रोजगार था । लाल बहादुर शास्त्री उन दिनों उत्तर प्रदेश के गृह मंत्री बन चुके थे और ग्रेजुएट स्वाधीनता सेनानी युवकों को सीधे पुलिस उपाधीक्षक पद पर भर्ती कर रहे थे । कमला जी ने हेमवती बाबू को अवसर लपक लेने की सलाह दी , और कपड़े में रोटी लपेट लखनऊ की ट्रेन में बिठा दिया । हेमवती जी लखनऊ चार बाग़ स्टेशन से ही वापस फिर आये । भार्या ने कारण पूछा , तो बताया कि ट्रेन में मुझे झपकी आयी , और शास्त्री जी मेरे सपने में आये , और कहा , कि तुम डिप्टी बनने के फेर में कहां पड़े हो , तुम्हे तो सूबे के cm बनना है ।
Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
27 April at 12:39 · Dehra Dun ·
अपने प्रदेश के एक विलक्षण राजनेता हरीश रावत को उनकी जयन्ति पर मंगल कामनाएं । वह उत्तराखंड के एक ऐसे विलक्षण राजपुरुष हैं , जिन्हें पूरा प्रदेश जानता है , तथा जो पूरे प्रदेश को सम्यक रूप से जानते हैं । उत्तराखंड के भूगोल , इतिहास , समाज , संस्कृति , निवासी और निसर्ग की जितनी गहरी समझ उन्हें है , शायद ही किसी दूसरे को हो ।
साथ ही मैं उन्हें होम्यो पैथी का एक अच्छा डॉक्टर भी मानता हूं । क्योंकि होम्योपैथ की तरह वह भी मीठी गोली देते हैं , और मरीज को पता ही नहीं चलता कि वह ठीक हो रहा है या खराब हो रहा है । उनके शब्द कोष में किसी के लिए न नहीं है । अगर कोई उन्हें कहे , कि वह अमेरिका का राष्ट्रपति बनने का इछुक है , तो रावत जी कहेंगे , हां ठीक है करवा देंगे । बात चल रही है , मैने ओबामा को भी राजी कर लिया , चीन का राष्ट्रपति भी तय्यार है , इत्यादि , इत्यादि कहते हुए रावत जी 4 साल निकाल देंगे । फिर पांचवें साल कहेंगे कि क्या करें , सब कुछ ठीक हो गया था , पर फ्रांस के प्रधामंत्री ने ऐन मौके पर टांग अड़ा दी ।
अस्तु , जो भी हो । वह अब 70 पार हैं , और हम अब उनकी प्रव्रित्तियों को नहीं बदल सकते । इसलिए उनके माइनस फैक्टर को भूल , उनके अनुभव , योग्यता और सक्रियता का लाभ प्रदेश हित मे उठाया जाए । पुनः उनके दीर्घ एवं सक्रिय जीवन की कामना करता हूँ ।
Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
27 April at 10:34 · Dehra Dun ·
अनेक मित्रों ने आग्रह किया है कि मैं हेमवती नन्दन बहुगुणा पर कुछ और लिखूं , अतः मैं ऐसा ही कर रहा हूँ , तथा प्रयास कर रहा हूँ कि ऐसी चीजें आपको बताऊं जो कम लोगों को पता है । लेकिन यह बताता चलूं की वह मेरे चाचा ताऊ कुछ भी न थे । सिर्फ सरनेम कॉमन था ।
जब वह भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान दिल्ली में पकड़े गए , तो जमा मस्ज़िद में अक्सर छुप रहते थे । शाही इमाम से उनकी तब की ही दोस्ती थी और मुस्लिम समाज के तौर तरीके भी उन्होंने तभी जाने , जिसका फायदा उन्हें बाद में मिला । इमाम को उन्होंने 1977 के चुनाव में कांग्रेस के विरुद्ध सड़कों पर उतार दिया । ऐसा पहले कभी न हुआ था ।
1946 तक वह गांधीवादी न थे , अपितु क्रांति कारी थे । उन्होंने दिल्ली इंडिया गेट पर लगी जॉर्ज़ पंचम की मूर्ति की नाक काटी थी । उन पर उस ज़माने में 5 हज़ार रुपये का इनाम था , जो एक बड़ी रकम थी । क्योंकि सुल्ताना डाक़ू के सर पर भी इतना ही इनाम था ।
गिरफ्तार होकर वह सुल्तानपुर जेल में रहे । वहां उन्हें फेफड़ों के भयंकर इंफेक्शन हो गया , तथा उनके साथियों ने जब चीख पुकार मचाई , तो अंग्रेज़ सरकार ने उनके पिता को सूचित किया । उनके पिता जो अंग्रेजों के वफादार मुलाज़िम थे , आये और उनकी जमानत करवा उन्हें घर ले गए । स्वस्थ होते ही वह पुनः इलाहाबाद आ गए । उनके पिता को किसी ने सलाह दी कि इसकी शादी करवा दो तो रस्ते पर आ जायेगा । उन्हें घर बुलवा कर शादी करवा दी गयी । उनकी प्रथम पत्नी गढ़वाल के प्रतिष्ठित चन्दोला परिवार से थी । कहा जाता है कि हेमवती बाबू की शादी में घोड़ों और पालकियों की कोई गिनती न थी । बरात का एक सिरा उनके गांव बुघाणी में था तो दूसरा पौड़ी में । बरात में रह रह कर बंदूकों की धमक छूटती थी , तथा कलदारों के तोड़े बरसाए जाते थे । गढ़वाल का हर प्रतिष्ठित व्यक्ति उस शादी में शरीक था । ऐसा संभव भी है , क्योंकि उनके पिता रेवती नन्दन पटवारी जी इलाके के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे , तथा अंग्रेज़ एवं टिहरी नरेश दोनो के विश्वास पात्र थे ।। अस्तु , शादी के कुछ ही दिन बाद हेमवती बाबू इलाहाबाद चले आये , और अपनी पत्नी से कोई नाता न रखा । क्योंकि वह पहले से ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर राम प्रसाद त्रिपाठी की पुत्री कमला के प्यार में थे ।
1946 के आसपास जब उन्हें लगा कि कांग्रेस में ही उनका राजनीतिक भविष्य हॉइ , तो वे कांग्रेस की चवन्निया मेम्बरशिप के लिए अर्जी दिए । तब एक स्थानीय ब्लॉक कांग्रेस अध्यक्ष ने उन्हें कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता दिलाई । ब्लॉक अध्यक्ष जी के साथियों ने कहा भी कि यह पहाड़ी अच्छा आदमी नहीं है , और बदमाश किस्म का हॉइ , पर अध्यक्ष जी न माने । लाल बहादुर शास्त्री हेमवती बाबू को पहले से ही जानते और मानते थे ।
( नोट :- मैने कुछ दिन पूर्व एक पोस्ट में हेमवती बाबू के बचपन की एक घटना का ज़िक्र किया था , जब उन्हीने अंग्रेज़ कलेक्टर को नमन करने से मना कर दिया । किसी भक्त ने यह बात अवश्य मोई जी को बताई होगी । कल प्रधान मंत्री जी ने अपनी भाषण में इस घटना का हू ब हू ज़िक्र कर तालियां बटोरीं । मेरा ज़िक्र करना तो दूर , उनके भक्तों ने fb में रिपोर्ट कर मुझे 3 दिन तक ब्लॉक रखवाया । कलयुग के और क्या लक्षण हैं )
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Abhishek Srivastava
1 May at 22:15 · Ghaziabad ·
बड़ी खुशी हुई आज चौराहे पर चल रही चर्चा सुन कर। लगा देश समझदार हो गया है। मामला कुछ यूं था कि शुक्ला जी बाबाओं को गरिया रहे थे। बाकी लोग हुंकारी भर रहे थे। सब अपने अपने अनुभव गिनवा रहे थे कि कैसे बाबा लोग जनता को मूर्ख बनाते हैं। आसाराम का संदर्भ था। बात उठी तो यहां तक पहुंची कि भिखारी भी सब दुष्ट होते हैं, रैकेट चलाते हैं। शनि के नाम पर बर्तन में तेल डालकर पैसे मांगने वाले भी फ़्रॉड होते हैं। जो औरतें बच्चों को गोद में लेकर पैसा मांगती हैं, वे बच्चे किराए पर लाती हैं।
मुझे आश्चर्य हो रहा था कि जनता अचानक इतनी रेशनलिस्ट कैसे हो रही है। धीरे धीरे बात पूजा पाठ और आडंबर पर आ गयी। मिश्राजी बोले- “मैं तो मन ही मन पाठ कर लेता हूँ। कोई दिखावा नहीं।” और क्या? दुबेजी कूदे- “मुसलमानों को देखिये, उन्हें तो समय होने पर नमाज़ के लिए बैठना ही पड़ता है। अपने यहां ये सब पाबंदी नहीं है।” बहस पहचानी दिशा में मुड़ रही थी। मेरा भरोसा कम हो रहा था कि अचानक बीच में जैन साहब आ गए।
बोले- “बाइस्साब, आप यकीन नहीं करोगे, ये सड़क पर जितने भिखारी हैं न, इनमें केवल बीस परसेंट हिन्दू हैं, बाकी मुसलमान हैं।” इस बात पर सब अचानक सक्रिय होते दिखे। शुक्लाजी ने बात आगे बढ़ाई- “अरे हिन्दू बाबा तो मुट्ठी भर हैं, ट्रेन में देखते नहीं हो कितने पीर-बंगाली बाबाओं का पोस्टर चिपका रहता है। सब वही तो हैं।” अंधविश्वास के मर्दन से शुरू हुई बहस हिन्दू विमर्श में देखते देखते बदल चुकी थी। बहस का विसर्जन कुछ यूं हुआ कि मोदीजी का रहना जरूरी है, चाहे कितने ही कष्ट क्यों न झेलने पड़ें। मैं चुपचाप खिसक लिया।
Abhishek Srivastava
1 May at 20:07 ·
मजदूर को कभी-कभार अपने घर-परिवार की मजूरी भी करनी चाहिए। रोज तो दूसरों के घर बनाता ही है। अपना घर कब संवारेगा? यही सोचकर आज इस मजदूर ने अघोषित छुट्टी मार ली। सुबह-सुबह कूलर की घास की तलाश में निकल पड़ा। मोलभाव कराया। घास खरीदी। बिजली मिस्त्री को बुलाया। कूलर ठीक कराया। पंखा उतारा। नया कनडेंसर लगवाया। पिछले साल इस मजदूर के साथ एक ऐतिहासिक घटना घटी थी। घोर गर्मियों के बीच एक सहृदय मित्र ने अपना एसी दे दिया था। आज दिन उपयुक्त था। एसी की साफ-सफाई, गैस भराई की गई। फिर सफाई का सिलसिला शुरू हुआ। पानी में पूरा छप-छप किया। ढलती दोपहर में बचे-खुचे राशन को मिक्स कर के एक नया व्यंजन बनाया। जम कर जीमा। देह में ठंडी हवा लगी तो पलट कर कुत्ते की तरह सो गया।
एक मित्र ने शाम को फोन कर के जगा दिया। पूछा, आप कार्यक्रम में नहीं आए? मैंने बिना किसी अपराधबोध के कहा- नहीं। पिछले साल तक भी 1 मई को प्रोग्रामों में जाना हुआ। अब मन नहीं करता। एक ही गीत, एक ही नारे, एक जैसी शक्लें, एक जैसी बातें। लगता है मजदूरों के बीच काम करने वाले लोग किसी काल्पनिक मजदूर को संबोधित करते हों। बहुत गैप है। हर बार मूड खराब हो जाता है मजदूर बस्तियों में जाकर। इसलिए ज्यादा सोचा ही नहीं। विशुद्ध हरामखोरी की।
बीच में एक घर बेचने वाले का फोन आया। उससे पूरी तन्मयता के साथ प्यार से आधा घंटा बात की। प्रधानमंत्री आवास योजना का हूल दे रहा था। मैंने मन ही मन ढाई लाख का डिसकाउंट ले लिया। लगा कि घर भी खरीद ही लिया। अब पंखे और एसी की हवा जान ले रही है। भयंकर लोटवांस लग रही है। कायदे से लग रहा है कि आज अपना दिन है। एक अक्षर लिखाई नहीं, पढ़ाई नहीं, अनुवाद नहीं। जलने वाले जलें। विश्वकर्माजी जिंदाबाद।
Abhishek Srivastava is with Om Thanvi and 32 others.
30 April at 21:59 · कौन कहता है कि हिंदी में नॉन-फिक्शन नहीं बिकता? RTI आन्दोलन के इतिहास की ज़मीनी कहानी पर राजकमल से प्रकाशित अरुणा राय और उनके साथियों की लिखी यह पुस्तक जो पर्याप्त भारी है, हज़ार से ज्यादा प्रति हाथोहाथ निकल चुकी है और जल्द ही दूसरे संस्करण में जा रही है. यह तब है जबकि कल मजदूर दिवस पर दिन में बारह बजे राजस्थान के एक छोटे से कस्बे भीम में इसका लोकार्पण होने जा रहा है.अंग्रेजी की किताब पीछे रह गयी, हिंदी काफी आगे निकल गयी. इससे यह सबक मिलता है कि आन्दोलन जिस भाषा में हो, उसकी कहानी भी उसी भाषा में लिखी जाएगी तो लोग ज़रूर पढेंगे. मैं राजस्थान तो नहीं जा सका, लेकिन आज इस किताब का हिंदी संस्करण देख कर ही संतुष्ट हूँ. दिल्ली में अगर कोई लोकार्पण हुआ तो ज़रूर बताना चाहूँगा कि इसका अनुवाद करने का मेरा तजुर्बा क्या रहा. एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन के ज़मीन से खड़े होने की दुश्वारियां समझने के लिहाज से यह सहेजे जाने लायक किताब है.
बहरहाल, किताब ऑनलाइन उपलब्ध है. यहाँ से मंगवा सकते हैं. https://www.amazon.in/RTI-Kaise-Aai-Aruna-Roy/dp/9387462838————-
Narendra Nath
7 hrs ·
पहले से टिकट की परेशानी बनी ही हुई थी,अब जिस तरह ट्रेनों का लेट होना फिर पुराने दिनों की तरह हो गया है,रेलवे सरकार की बड़ी विफलता के रूप में दिख रही है। बिहार-यूपी की ओर जाने वाली ट्रेन घंटो लेट चल रही है। बिना कारण। और उसपर जब प्लेन से भी अधिक पैसा लेकर ऐसा हो तो जले पर नमक छिड़कने की बात हो जाती है।
नोट-अब सरकार समर्थक बताएंगे कि 12 घंटे की ट्रेन 24 घंटे चले,वह कैसे देश हित मे है। फिर पूछेंगे “तब कहाँ थे जब ट्रेन भाप इंजिन से चलती थी”
Shesh Narain Singh
1 May at 18:20 ·
स्व मधु लिमये का जन्मदिन है
शेष नारायण सिंह
आज मधु लिमये का जन्मदिन है. मुझे मधु जी के करीब आने का मौक़ा १९७७ में मिला था जब वे लोक सभा के लिए चुनकर दिल्ली आये थे. लेकिन उसके बाद दुआ सलाम तो होती रही लेकिन अपनी रोजी रोटी की लड़ाई में मैं बहुत व्यस्त हो गया. . जब आर एस एस ने बाबरी मस्जिद के मामले को गरमाया तो पता नहीं कब मधु जी से मिलना जुलना लगभग रोज़ ही का सिलसिला बन गया . इन दिनों वे सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुके थे और लगभग पूरा समय लिखने में लगा रहे थे. बाबरी मस्जिद के बारे में आर एस एस और बीजेपी वाले उन दिनों सरदार पटेल के हवाले से अपनी बात कहते पाए जाते थे. हुम लोग भी दबे रहते थे क्योंकि सरदार पटेल को कांग्रेसियों का एक वर्ग भी साम्प्रदायिक बताने की कोशिश करता रहता था. उन्हीं दिनों मधु लिमये ने मुझे बताया था कि सरदार पटेल किसी भी तरह से हिन्दू साम्प्रदायिक नहीं थे. दिसंबर १९४९ में फैजाबाद के तत्कालीन कलेक्टर के के नायर की साज़िश के बाद बाबरी मस्जिद में भगवान् राम की मूर्तियाँ रख दी गयी थीं . केंद्र सरकार बहुत चिंतित थी . ९ जनवरी १९५० के दिन देश के गृह मंत्री ने रूप में सरदार पटेल ने उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री गोविन्द वल्लभ पन्त को लिखा था. पत्र में साफ़ लिखा है कि ” मैं समझता हूँ कि इस मामले दोनों सम्प्रदायों के बीच आपसी समझदारी से हल किया जाना चाहिए . इस तरह के मामलों में शक्ति के प्रयोग का कोई सवाल नहीं पैदा होता… मुझे यकीन है कि इस मामले को इतना गंभीर मामला नहीं बनने देना चाहिए और वर्तमान अनुचित विवादों को शान्ति पूर्ण तरीकों से सुलझाया जाना चाहिए .”
मधु जी ने बताया कि सरदार पटेल इतने व्यावहारिक थे किउन्होने मामले के भावनात्मक आयामों को समझा और इसमें मुसलमानों की सहमति प्राप्त करने की आवश्यकता पर जोर दिया . उसी दौर में मधु लिमये ने बताया था कि बीजेपी किसी भी हालत में सरदार पटेल को जवाहर लाल नेहरू का विरोधी नहीं साबित कर सकती क्योंकि महात्मा जी से सरदार की जो अंतिम बात हुई थी उसमें उन्होंने साफ़ कह दिया था कि जवाहर ;लाल से मिल जुल कर काम करना है . सरदार पटेल ने महात्मा जी की अंतिम इच्छा को हमेशा ही सम्मान दिया ..
मधु लिमये हर बार कहा करते थे कि भारत की आज़ादी की लड़ाई जिन मूल्यों पर लड़ी गयी थी, उनमें धर्म निरपेक्षता एक अहम मूल्य था . धर्मनिरपेक्षता भारत के संविधान का स्थायी भाव है, उसकी मुख्यधारा है। धर्मनिरपेक्ष राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। मौजूदा राजनेताओं को इस बात पर विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को सत्ता में बने रहने की रणनीति के तौर पर नहीं राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में संचालित करना पड़ेगा। क्योंकि आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था..
धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है – ”अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।”
महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अली, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी . महात्मा गाँधी के दो बहुत बड़े अनुयायी जवाहर लाल नेहरू और कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने धर्मनिरपेक्षता को इस देश के मिजाज़ से बिलकुल मिलाकर राष्ट्र की बुनियाद रखी.
मधु जी बताया करते थे कि कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ”सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।” (हिंदुस्तान टाइम्स – 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं। सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बेटी भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ”इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। …………… मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ………… एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।”
सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता।
बाद में इन चर्चाओं के दौरान हुई बहुत सारी बातों को मधु लिमये ने अपनी किताब ,” सरदार पटेल: सुव्यवस्थित राज्य के प्रणेता ” में विस्तार से लिखी भी हैं . १९९४ में जब मैंने इस किताब की समीक्षा लिखी तो मधु जी बहुत खुश हुए थे और उन्होंने संसद के पुस्तकालय से मेरे लेख की फोटोकापी लाकर मुझे दी और कहा कि सरदार पटेल के बारे के जो लेख तुमने लिखा है वह बहुत अच्छा है . मैं अपने लेखन के बारे में उनके उस बयान को अपनी यादों की सबसे बड़ी धरोहर मानता हूँ जो उस महान व्यक्ति ने मुझे उत्साहित करने के लिए दिया
Faiq Ateeq Kidwai
9 hrs ·
-सावरकर का पत्र-
कार्ड भी भेजा, घर जाकर बारात में चलने के लिए बोला लेकिन कोई कॉंग्रेसी बारात नही गया, बल्कि जब बारात निकली तो नेहरू खाली बाल्टी लेकर खड़े हो गए, इतना ही नही छींक भी दिया…
घर की नींव रखी गई, मिठाई भिजवाई लेकिन किसी कॉंग्रेसी ने बधाई नही दी….नज़र अलग लगाई, हमारे फूफा के इकलौती लड़की थी, उसकी शादी की बात चल रही थी, एकदम फिक्स थी अचानक लड़को वालो ने मना कर दिया,
बात तो बाद में खुली की कोई शेरवानी वाला आया था, उनसे जाकर कह दिया कि लड़की के मामा का लड़का लफ़ाड़ी दारूबाज है
सब भुला दिया कि चलो होगा कोई बात नही, बेशर्मो की तरह फिर इनके पास गए, एक एक से बोला कि इस रविवार घर मे अखंड रामायण बैठाई है, इसलिये आप सब से निवेदन है कि सपरिवार उपस्थित हो, इंदिरा बिटिया को भी लेते आये,
शनिवार की रात को कहलवा देते है कि कमला की तबियत ठीक नही है इसलिए नही आ पाएंगे, जबकि रविवार सुबह से ही जिन्ना के जन्मदिन की पार्टी के लिए उनके घर पहुंच जाते है,
देखो तुमसे शिकायत कर रहे है वरना हमे कोई चिंता नही, मिले मिले वरना भाड़ में जाये हमे क्या। कौन इनके आने से लाल लग जायँगे, जवाहरलाल बड़े आए है लाल वाले…
(फ़ायक इन मूड)
Zaigham Murtaza
Yesterday at 04:54 ·
हाशिमपुरा की बरसी पर सब आंसू बहा रहे हैं तो सोचा हम भी थोड़ी सियासत करलें। अदालत में इंसाफ की क़तार में लगे उन ग़रीब बढ़ई और जुलाहों को याद करलें जो अपनी दिहाड़ी गंवाकर अदालत की सीढ़ी पर भिखारी से बैठ जाते थे। जिनके लिए न आंसू बहाने वाले आते थे, न मदद के दावे करने वाले और न क़ौम के नामी बैरिस्टर और वकील। सोचता हूं वो कौन लोग थे जो इन हारे हुए लोगों की पैरवी कर रहे थे। ये कूफे में कौन थे जो वहब और जौन की तरह हारने वालों के साथ आकर खड़े हो गए थे। बहरहाल हाशिमपुरा के काले चेहरे का एक उजला सच ये भी है कि विभूती नारायण राय न होते तो हाशिमपुरा मुरादनगर की नहर में बह गया होता। वॄंदा ग्रोवर और रेबेका जाॅन न होतीं तो कोर्ट में आपके कोई पैरोकार तक न होते। आपके सालार ख़ान जैसे वकील तो यज़ीद को ख़लीफा बना चुके होते और मुलज़िमों को चुपके से बचाकर निकल लेते । इससे भी पहले अगर प्रवीण जैन के दिल मे बेईमानी आ गयी होती तो हाशिमपुरा की दर्दनाक हक़ीक़त कौन रावी आकर सुनाता? आपकी आज की फेसबुक क्रांति में आपकी बेईमानियों के क़िस्से दब गए होते मियांजी। कौन पता करता कि कोर्ट में गवाही से पलटने वाले ग़यूर कौन थे? कौन पता लगाता कि जो घरों में बैठे रहे मगर कभी कोर्ट में पैरवी को न गए वो पड़ोसी कौन थे। बहरहाल, हाशिमपुरा की तस्वीर के पीछे आपकी कूफे वाली फितरतें नुमाया होती हैं। आराम से घर में बैठिए। मत पता कीजिए अदालत में वकील को क्या चाहिए, कहां दलील देनी है, कहां गवाही देनी है, कहां पैसा देना है और किसकी मदद करनी है? जब अदालत फैसला सुना दे तो जम्हूरियत, सेक्युरिज़्म और अदालत की अंधी देवी को कोसिए और फिर सो जाईए। साल में एक बार बरसी मनाईए और फोटो खिंचाइए। मुर्दा क़ौम ऐसे ही करती हैं। सियासत वैसे भी सबसे आसान शेवा है। लड़ना कर्बला के ज़माने से ही भारी काम रहा है। ❕?❔Ajay Walia
Yesterday at 13:52 · Narayangarh ·
ये गफूर चाचा हैं। बहुत दिन बाद मिलने सीधे मेरे स्कूल आ गए । गफूर चाचा मेरे ससुराल किशनपुरा (यमुनानगर) के पास के गाँव कुटीपुर से हैं। ससुराल के पास के गाँव से होने के चलते मेरे बच्चे इन्हें नाना बोलते हैं।
गफूर चाचा से मेरा सम्बन्ध हमदर्दी और प्यार का है। गफूर चाचा उन चंद लोगों में से एक हैं जिनसे जुड़ने के बाद मैंने माना कि दिल के रिश्ते खून के रिश्तों से ज्यादा बड़े होते हैं बशर्ते दोनों व्यक्ति इस रिश्ते को इतनी ही शिद्दत से निभाएं।
15 दिसम्बर 2012 को मैं अपने ससुराल गया हुआ था कि सवेरे सवेरे नाश्ता करते हुए सामने पड़े अखबार पर नजर गई जिस की एक headline सामने थी कि “टैक्स बैरियर पर करन्ट लगने से मजदूर की मौत” । इस खबर में जिस मजदूर की मौत का ब्यौरा था वो ससुराल के पास का गाँव कुटीपुर था। मन में जिज्ञासा उठी तो ससुर जी ने बताया कि इस मजदूर का पिता “गफूर” भी मजदूर है। बहुत गरीब लोग हैं। दो दिन पहले बिजली विभाग ने बिना सूचना दिए वहाँ लाइन गिराई हुई थी जिसकी चपेट में आने से “गफूर” का बेटा मर गया। मैंने पूछा बिजली विभाग पर कोई एफआईआर दर्ज हुई? किसी ने बिजली विभाग से बात की? ससुर जी बोले हम लोग गए थे पर वहाँ बिजली वाले टालमटोल कर गए। एफआईआर का पता नहीं।
बस पता नहीं कि दिल नहीं माना और मैं अपने बड़े साले साहब अमित को साथ लेके निकल पड़ा गफूर चाचा के घर।
उसके गाँव पहुँचे जहाँ से उसके घर गए। घर बिल्कुल छान का बना हुआ था और उसका गेट इतना छोटा था कि झुक के अंदर जाना पड़ा था। गफूर की अधेड़ उम्र की बीवी मिली उसने बताया कि गफूर काम पर चला गया है क्योंकि घर में जो पैसे थे वो बेटे के जनाजे और दूसरे खर्चों पर खर्च हो गए। उधार किसी से मिला नहीं तो वो काम पर चला गया। ये कहकर वो हमारे लिए पानी लेने चली गई।
मेरा दिमाग फटने वाली हालत में था कि भगवान तुम कहाँ हो? जिसने 2 दिन पहले अपना जवान बच्चा खोया वो आज परिवार का पेट भरने की मजबूरी में कौनसे मन से दिहाड़ी कर रहा होगा….
मैंने संपर्क करके गफूर चाचा को बुलाया और उसे विश्वास दिलाया कि मैं उठाऊंगा उसकी आवाज। गफूर चाचा को भी पता नहीं क्यों पहली ही बार में मुझ पर ऐतबार हो गया।
बस मन बन गया कि मैं लड़ूंगा ये केस। वहाँ से थाने…. थाने से बिजली विभाग… पहले बिजली वाले अड़े रहे कि जो होता है कर लो… पर उसी शाम गफूर चाचा का फोन आया तो पता चला कि वो जनाजे के खर्च के तौर पर और कुछ दिन के गफूर चाचा के खर्च के लिए 60000 रुपये अस्थायी मुआवजे के तौर पर देके गए हैं। मन को तसल्ली मिली कि कोशिश करूँ तो बुजुर्ग को और मुआवजा मिल जाएगा।
इसके बाद कोर्ट, वकील… मानवाधिकार आयोग, अल्पसंख्यक आयोग, मुख्यमंत्री, सब जगह represntation दिए।
केस की तारीख को लेके कभी मैं गफूर चाचा से मिलता तो कभी चाचा घर आ जाते।
कोर्ट में मामला आया… केस चला…. 3 साल बाद 5 लाख रुपए अदालत ने गफूर चाचा के खाते में डलवा दिये। बेटे की कमी तो माँ बाप के लिए कोई पूरा नहीं कर सकता हाँ मुआवजे के पैसे ने कुछ मरहम लगा दिया। अब हमने केस अगले कोर्ट में डाला…
पैसे मिले अभी मुश्किल से एक महीना हुआ था कि गफूर चाचा ने मुझे फोन किया। मैंने नहीं उठाया क्योंकि पिता जी हस्पताल में एडमिट थे और और next day उनका एक बड़ा ऑपरेशन होना था । ऑपरेशन को डॉक्टर सीरियस बता रहे थे।
उसके बाद थोड़ी थोड़ी देर बाद गफूर चाचा के कई फोन आए । आखिर मैंने थोड़ा गुस्से के साथ फोन उठाया और चाचा से बोला चाचा जब मैं फोन नहीं उठा रहा हूँ तब आपको समझना चाहिए कि मैं बिजी हूँ। अच्छा बताइये क्या बात है?
गफूर चाचा ने कहा कि बस यूं ही फोन कर लिया। तुम ठीक हो ना बेटा। घर सब ठीक है ना। मैंने सारी बात बताई कि मैं हस्पताल में हूँ और पिता जी का ऑपरेशन होना है। बोले कि मैं आ रहा हूँ। मैने कहा चाचा ये हस्पताल पंचकूला में है। आपको पता नहीं मिलेगा। आप मत आना। ये कहकर मैंने फोन काट दिया। 5-6 घण्टे बाद शाम के 8 बजे मुझे दोबारा चाचा का फोन आया । मैंने उठा लिया तो बोले कि बेटा कहाँ हो ? मैंने कहा हस्पताल में हूँ। बोले मैं हस्पताल के बाहर हूँ। मैं तेजी से बाहर गया तो वो बाहर खड़े थे।
मैं हैरान था क्योंकि मैंने ये तो बताया ही नहीं था कि मैं किस हस्पताल में हूँ। कि एक अनपढ़ बूढ़ा आदमी सिर्फ मेरी परेशानी सुनकर मुझसे मिलने यहाँ तक आ गया। मैंने कहा आपने मुझे कैसे ढूँढ लिया? किसने बताया यहां का पता?
उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि बेटा जिस खुदा ने तुझको मेरे दर्द में मेरे पास भेजा था उसी खुदा ने मुझे तेरे पास भेज दिया। फिर उन्होंने तफसील से बताया कि वो पहले मेरे घर नारायणगढ़ गए वहाँ घरवालों से एड्रेस लेके यहां आ गए। इसके बाद उन्होंने अपने एक फ़टे से थैले में हाथ डाला और पुराने से कपड़े में लिपटा हुआ एक बंडल मेरे हाथ पर रखा और बोले ये रख लो।
मैंने कपड़ा हटाया तो दो लाख रुपये मेरे हाथ में थे… बोले ये पैसे रख लो कल आपके पिताजी का ऑपरेशन हैं … अभी ये पैसे मेरे किसी काम के नहीं….
मैं कभी उन पैसों को कभी गफूर चाचा को देख रहा था। आँखे बरस पड़ी थी । मैंने कहा चाचा मुझे पैसे की जरूरत नहीं है। मेरे लिए तो यही बड़ा अहसान था आपका कि आप यहाँ तक आए। पैसे वापिस लो। वो नहीं माने तो मैंने बताया कि मेरे पापा और मैं दोनों सरकारी मुलाजिम हैं तो हमारी बीमारी का खर्च सरकार उठाती है। तो मैंने जबरदस्ती वो पैसे वापिस कर दिए।
फिर मैंने कहा कि चलो आओ खाना खाते हैं।