Written by अनिल द्विवेदी Published in टीवी
पुण्य प्रसून और रामदेव विवाद : जब संत व्यापारी हो जाए तो सवाल उठेंगे ही… योग गुरू बाबा रामदेव जी पर मेरी गहरी आस्था है इसलिए नहीं कि वे हिन्दू संत हैं, गोया कि देश-दुनिया में भारतीय योग और स्वदेशी का ब्राण्ड बन चुके हैं. बाजार पतंजलि के उत्पादों से इस कदर भर गया है कि हिंदुस्तान लीवर जैसी कंपनियों के छक्के छूट गए हैं। बाबा की आलोचना को भी मैं दरकिनार करता आया हूं तो इसीलिए क्योंकि दुनिया की नजरों से तो भगवान भी नहीं बच सके थे, बाबा रामदेव तो महज एक इंसान हैं।
लेकिन इस भरोसे पर तब कुठाराघात हुआ जब खबर आई कि योग गुरु से महज एक सवाल पूछने के आरोप में देश के ख्यातलब्ध पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी की नौकरी चली गई. हो सकता है यह महज कयास भर हो. क्योंकि प्रसूनजी ने अपने इस्तीफे में ऐसी कोई वजह नहीं लिखी और न ही उनके मीडिया हाउस ने कोई स्पष्टीकरण दिया है. पर कुहांसे के जो बादल देश के आम मन में कुछ सालों से घिर आए हैं, उसी के मुताबिक इंटरव्यू में बाबा रामदेव से यह सवाल हुआ कि आपने टैक्स बचाने के लिए ट्रस्ट बना लिया..? सवाल सही था इसलिए वैसे ही जवाब की उम्मीद भी थी लेकिन जब प्रसूनजी ने सवाल के साथ यह जोड़ दिया कि स्वदेशी की बात करने वाले बाबा महंगी कार और चार्टर प्लेन में घूमते हैं, तब योग-गुरु उखड गए, फिर भी पतंजलि ग्रुप के जनक ने ऐसी लम्बी सफाई दी कि आरोप बेसिर-पैर का लगने लगा!
हालांकि प्रसून जी ने वही सवाल उठाया था जो बाबा के लाखों प्रशंसक या आलोचकों के मन में यदा-कदा घुमडता रहता है. किसी संत का आश्रम जब कार्पोरेट घराने में तब्दील हो जाए या 11 हजार करोड़ चैरिटी में खर्च कर रहा हो, उससे इसकी सफाई मांगने या देने में क्या हर्ज होना चाहिए भला. वैसे योग गुरु ने जो सफाई दी, उसने ऐसे आरोप की धज्जियां उड़ाकर रख दी। लेकिन बात बिगड़ती चली गई. दरअसल पत्रकारिता को बाजार के अधीन करने या मान लेने का जो षड्यंत्र पैर पसार रहा है, ताज़ा विवाद भी इसी की उपज है.
प्रसूनजी तो आज के शिकार हैं, नवभारत रायपुर के संपादक स्वर्गीय बबन प्रसाद मिश्र को महज इसलिए इस्तीफा देना पडा था क्योंकि उन्होंने फ्रण्ट पेज पर ब्राम्ही आंवल केश तेल का विज्ञापन देने का विरोध किया था. तब मैं ट्रेनी हुआ करता था। मिश्रजी का मानना था कि पहले पेज पर खबरों का अधिकार बनता है, विज्ञापन का बाद में. सबसे तेज चैनल होने का दावा करने वाले न्यूज चैनल आजतक को पतंजलि ग्रुप करोड़ों के विज्ञापन देता है इसलिए दबाव तो आना ही था. प्रबंधन ने पहले प्रसूनजी के प्राइम टाइम बुलेटिन ’10तक’ को छोटा किया और उसके बाद बाजपेईजी ने सीधे इस्तीफा ही सौंप दिया. सुना है कि शवासन करने से मन चित्त और शांत रहता है, गुस्सा नही आता, फिर बाबा रामदेव दुर्वासा श्रृषि क्यों बन गए. संत तो बड़े उदार दिल के होते हैं. सिर्फ एक सवाल पूछनेभर से यदि संतत्व काफूर हो रहा है तो यह समझना आसान है कि योगत्व कितना प्रभावकारी होता है..!
रवीश कुमार जी ने कभी कहा था कि जिस लोकतंत्र में सवाल पूछना मना हो जाए, वह मरने लगता है. यहां मैं एनडीटीवी मीडिया हाउस के दृष्टिकोण की तारीफ करना चाहूंगा जिसने सरकारी—तोप से डरे बगैर, टीआरपी में सबसे नीचे गिर जाने के बावजूद रवीशजी की नौकरी नही खाई और उन पर भरोसा बनाये रखा हुआ है. एनडीटीवी से मेरे वैचारिक मतभेद हैं, बावजूद इसके मुझे यह चैनल सबसे ज्यादा पसंद है क्योंकि यहां सवाल उठाने की आजादी है, जनसरोकारों से जुडा चैनल लगता है.
एक दौर 1975 में इमरजेंसी का था. मीडिया घरानों में सरकारी अफसर पत्रकार बनकर बैठे हुए थे. तब बीबीसी का एक इंटरव्यू प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ तय हुआ. यह पहला मौका था जब ‘गूंगी गुडिया’, लोहिया जी ने इंदिरा गांधी को यही नाम दिया था, मीडिया के सवालों का जवाब देने आ रही थीं. पीएम निवास पर बीबीसी की टीम तैयार थी. अचानक इंदिराजी आईं और गुस्से में बोलीं, आपको यहां किसने बुलाया..आप जा सकते हैं.! बाद में मार्क टुली ने अपनी एक पुस्तक में खुलासा किया कि इंदिराजी बीबीसी के कई सवाल खड़े करने से नाराज थीं लेकिन हमने सिर्फ अपना फर्ज अता किया था क्योंकि देश उनसे कई सवालों के जवाब मांग रहा था.
तो चाहे मार्क टुली रहे हों, चाहे वो रवीश जी हों, प्रसून जी हों या बस्तर के सांई रेड्डी, सवाल आज भी जिंदा हैं और उसे पूछने वाले पत्रकार भी. सत्ता के सामने जो झुके हैं या रेंग रहे हैं, वे पत्रकार नही हैं. कल शाम को ही मैं सरकार के एक कैबिनेट स्तर के नेता के साथ था. फोन पर एक पत्रकार से बतिया रहे थे. पत्रकार एक ही सवाल बार-बार पूछ रहा था. अंततः नेता जी ने भद्दी सी गाली देते हुए फोन काट दिया. फिर मेरी ओर मुखातिब होते हुए बोले, अब आप जैसे लोग मीडिया छोड़ेंगे तो ऐसे ही चिरकुट राज करेंगे. बात अंदर तक हिला गई थी लेकिन मन खदबदा रहा है कि सवाल पूछना इतना बुरा क्यों लगता है..!
लेखक अनिल द्विवेदी छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे संपर्क 09826550374 के जरिए किया जा सकता है
Abhishek Srivastava
16 hrs ·
सबको पता है कि किसान महासभा CPM की है. 35000 किसान उसी के बैनर तले बम्बई आए हैं. आप CPI के हों, ML की किसी भी धारा के, गैर-संसदीय वामपंथी हों, समाजवादी हों, गांधीवादी हों, सर्वोदयी हों, लाल रंग से पटी सड़कों की तस्वीरें देख कर अच्छा तो लग ही रहा है. देह में थोड़ा हीमोग्लोबिन बढ़ा ही है, कम नहीं हुआ. जब 11 मजदूर संगठन संयुक्त रैली दिल्ली में किये थे, तब भी अच्छा लगा था. बेरोज़गारी पर भी कोई मतभेद नहीं है. न गरीबी पर, या भ्रष्टाचार पर. फिर प्रॉब्लम क्या है भाई? जब किसी के झंडे से दिक्कत नहीं है, तो बाकी दिक्कतें बाद में सुलटाते रहना!
एक हो जाओ येचुरी-सुधाकर-दीपांकर जी! सही समय यही है. टैम बीत रिया है भौत तेजी से. दिल से कै रिया हूँ. हम सियासी अनाथों की कसम है तुम्हें…! पिलीज…Abhishek Srivastava
30 mins ·
पहले रामविलास पासवान अपने किसिम के अकेले हुआ करते थे। अब उनके किसिम के किसिम-किसिम के लोग हैं। रीता बहुगुणा जोशी से लेकर नरेश अगरवाल तक लंबी फेहरिस्त है। पिछले कुछ वर्षों में वैचारिक या राजनीतिक पालाबदल में शर्म, हया, संकोचादि का धीरे-धीरे क्षरण हुआ है। आपको क्या लगता है कि मामला केवल राजनीतिक महत्वाकांक्षा का है? बीजेपी को किसी भी तरह सत्ता प्राप्ति के लिए बेहया होने की रियायत देते हुए पूछना चाहता हूं कि दोषी नरेश अगरवाल ही अकेले क्यों हैं? राजनीति को आईना दिखाने वाले समाज-संस्कृति का क्या हाल है? कोई नेता जब पाला बदलता है, तो उसके दिमाग में उसके समाज, समाज के वैचारिक अगुवाओं की संभावित प्रतिक्रिया और शर्मिंदगी का खयाल क्यों नहीं आता? ”लोग क्या कहेंगे” वाली वर्जना कैसे खत्म होती चली गई है इस समाज में, इस पर एक बार सोचिए।
छह-सात साल पहले तक संघ के आयोजनों में संघ-विरोधियों के आने-जाने को लेकर गरमागरम बहसें रह-रह कर उठती थीं। एक लिबरल धड़ा था जो आवाजाही के लोकतंत्र की पैरवी करता था। कोई अगर कहता कि नहीं, संघ के मंच पर जाने से उन्हें वैलिडिटी मिलती है, तो उसे कट्टर और संकीर्ण माना जाता था। ध्यान दीजिएगा कि यह बहस बिना किसी वैचारिक निष्कर्ष के कोई तीन साल पहले वीरगति को प्राप्त हो गई। ऐसा लगा गोया लिखने-पढ़ने वाले समाज ने राजनीतिक बिरादरी को सैंक्शन दे दिया हो कि जहां जाना है जाओ, जो करना है करो। हो सकता है यह बात मैं अतिरंजना में कर रहा हूं। किसी को यह भी लग सकता है कि राजनीतिक बिरादरी के आगे बौद्धिक बिरादरी की क्या बिसात? वास्तव में ऐसा है नहीं। सामाजिक-सांस्कृतिक बहसों का फ़र्क पड़ता है। धीरे-धीरे रिस कर सब नीचे तक जाता है।
अब बीच से या नीचे से कोई अवरोध नहीं है। अभी बहुत से लोग जो नरेश अगरवाल की मौज ले रहे हैं, कोई लेखक संघ के मंच पर चला गया तो पाला बदल के बोलेंगे कि अपनी बात वहां जाकर रखने में हर्ज़ ही क्या है। ये जो उहापोह है, घटनाओं के हिसाब से प्रतिक्रिया तय करने की सेलेक्टिव और परिस्थितिजन्य नैतिकता है, उसने शुचिता, अखंडता और नैतिकता नाम की चिडि़या का राजनीति, समाज, संस्कृति में वध कर दिया है। सब अर्जुन बने पड़े हैं। सबको चिडि़या की बाईं आंख दिखती है। मौका मिला नहीं कि तीर छोड़ दिया। द्रोणाचार्यों का सहर्ष सैंक्शन है। पहले चिडि़या को मारो, फिर कर्म का युद्धोपदेश लेकर कुरुक्षेत्र में कूद जाओ। कुरु कुरु स्वाहा…।
कुछ भाजपा समर्थको को थोड़ा अजीब लग रहा हे की आखिर ये हिन्दुत्वादी बकौल तिवारी -हरामदेव और मोदी जो आडवाणी को खुलेआम जूते से मार रहे हे उन्हें ताज़्ज़ुब भी हो रहा हे की आखिर ये हिंदूवादी वीर मोदी रामदेव इतने बुरे कैसे हो सकते हे इन मूर्खो को इतनी समझ नहीं हे की दोनों पर दंगे भड़काने हत्याओं के कई आरोप हे दोनों बुरे आदमी हे इन्ही बुरीऊर्जा के साथ दोनों आगे ही आगे बढ़ते गए इनकी बुराई और असवेंदनशीलता ने इनकी आगे बढ़ने में मदद की बहुत की अब क्या लगता हे की अच्छाई बुराई का क्या कोई ऑन ऑफ बटन होता हे क्या भला ————- ? ये बुरे हे और बुरे ही रहेंगे इनकी हत्याओं और गुजरात दंगो पर हिन्दू कठमुल्वादी शैतान तालिया बजाते थे और अब सोच रहे हे की ये इतने बुरे कैसे हो सकते हे
डांस करने वालो का में तो सम्मान करता हु नाचना बेहद मुश्किल और मेहनत भरा काम और कला तो हे ही मेने खुद तीस के बाद हड्डी पसली एक करके जैसे तैसे फुटबॉल खेलना सीखा और खेला हाफ मेराथन भी दौड़ लिया मगर डांस करना बहुत मुश्किल हे मेरे जैसे हट्ठे कट्टे वयायाम फुटबोल मेराथन वाले बंदे के- मेरे बस की बात बिलकुल नहीं हे जो कर लेते हे उन्हें सलाम , बहुत कठिन हे डांस सारा लोड बार बार घुटने पर आता हे घुटनो की बेंड बज जाती होगी ”नचनियों ” को हम तो उनकी मेहनत के लिए आदाब करते हे ————————————————————————————————
” Urmilesh Urmil
5 hrs · नृत्यांगना शब्द सभ्य समाज का आज एक सम्मानित शब्द है। पर विकृत-सामंती दिमागों ने हिंदी क्षेत्र में इसके लिए एक स्थानीय शब्द गढ़ा: ‘नचनिया’! कई बार शब्द अपना अर्थ और बोध बदलते हैं पर इस शब्द के साथ आज भी अपमान, हिकारत और ओछेपन का बोध जुड़ा हुआ है।
यूपी के ज्यादातर हिस्सों में सपा, भाजपा, कांग्रेस या इसी तरह की ज्यादातर पार्टियों में सामंती ऐंठन से भरे लोगों की भरमार है। ऐसे असभ्य और असंस्कृत लोग किसी अभिनेत्री या महिला नाट्य कर्मी के लिए अक्सर ‘नचनिया-गवनिया’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं। सिर्फ सियासत में ही नहीं, हमारे आम समाज में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है!
मुझे अच्छी तरह याद है, मेरे एक वरिष्ठ साथी की बेहद प्रतिभाशाली पुत्री जब नाटयकर्म में सक्रिय हुई तो कई ‘पढ़े-लिखे’ और अपने को ‘सभ्य समाज का हिस्सा’ समझने वाले उनके कुछ पड़ोसी और कुछेक मित्र भी कहते थे कि अमुक जी, अपनी बेटी को ‘नचनिया-गवनिया’ बनवा रहे हैं! ऐसी स्थिति आमतौर पर बंगाल, केरल, कर्नाटक या महाराष्ट्र जैसे अपेक्षाकृत सांस्कृतिक रूप से समुन्नत समाजों, खासकर उनके शहरी क्षेत्र में नहीं मिलेगी। इसलिए आज अगर सपाई से भाजपाई बना कोई कथित बड़ा नेता एक जमाने की यशस्वी अभिनेत्री को ‘नचनिया’ कहकर उनका अपमान करने की धृष्टता करता है तो इसके लिए हिंदी क्षेत्र के बड़े हिस्से की सामाजिक- सांस्कृतिक बनावट और राजनीति में सामंती दबदबे का सिलसिला भी जिम्मेदार है!
यह संयोग या अपवाद नहीं कि संस्कृति और राष्ट्रवाद के स्वघोषित ठेकेदारों को अपसंस्कृति और असभ्यता के ये प्रतीक-चरित्र पसंद आते हैं! कुछ समय पहले एक बड़ी महिला राजनीतिज्ञ को अपशब्द कहने वाले एक पार्टी पदाधिकारी की पत्नी को मंत्री बनाकर पुरस्कृत किया गया था। ऐसे अनेक उदाहरण मिल जायेंगे। और यह किसी एक पार्टी या सिर्फ राजनीति तक सीमित नहीं हैं। जीवन के दूसरे क्षेत्रों में भी अपसंस्कृति का फैलाव कुछ कम नहीं है।
ऐसी मानसिकता, सोच, संस्कृति और राजनीति के खिलाफ यूपी जैसे प्रदेशों में बहुत कम संघर्ष हुआ है। मंदिर-मस्जिद, लव-जेहाद, गौ-गुंडई से फुर्सत ही कहां है! इसी का नतीजा है कि असभ्य आचरण और अपशब्दों के लिए विवादास्पद हो चुके चरित्रों को भी आज कोई बड़ी पार्टी बड़ी बेशर्मी से माला पहनाकर अपने साथ जोड़ लेती है!
रही बात आदरणीया जया जी के सपा प्रत्याशी के तौर पर राज्यसभा में चौथी बार भेजे जाने का तो उस पर मैं पहले ही अपनी राय जाहिर कर चुका हूं!————–Om Thanvi
15 hrs ·
सीता मैया और हनुमानजी के कथित अपमान के लिए संघ परिवार ने महान कलाकार एमएफ़ हुसेन की कृतियाँ उजाड़ीं, उन्हें अपना प्यारा वतन हमेशा के लिए छोड़ देने को मजबूर कर दिया। और एक ये नरेश अग्रवाल हैं जिन्होंने संसद की ज़मीन पर जिन नाम की शराब में सीता माता को नहला दिया और ठर्रे में हनुमानजी को उतार दिया। फिर भी सुषमा स्वराज तक ने कहा है – भाजपा में आपका स्वागत है!
सही कहते हैं। 70 साल में देश में कुछ नहीं हुआ। अब हो रहा है।——————————-वे मिश्रा ‘गुरु’
15 hrs · Satna ·
भाजपा की आईटी सेल वालों तुम कल भी चूतिये थे और आज भी हो….सोशल मीडिया पर भाजपा की ताक़त हम से है तुम जैसे चप्पल ढोने वालों से नहीं….उम्मीद है आज अपनी औकात समझ आ गयी होगी, भाजपा के प्रवक्ता तक माथे का पसीना पोंछ रहे अगरबाल के पक्ष में तर्क देने में तो तुम्हारी औकात ही क्या है? नरेश अगरबाल को डिफेंड करके तुम लोग पार्टी की और बेइज़्ज़ती ही करवा रहे हो….ज़रा भी अंदर का पानी बचा हो तो इस निर्णय की आलोचना करके खुद की क्रेडिबिलिटी बचा लो नहीं तो एक दलाल में और तुमनें कोई अंतर नहीं रह जायेगा, यही फ़र्क होता है पैसा और पद लेकर लिखने में और विचारधारा के लिए लिखने में, ये फ़र्क हमनें बनाया है अपने निःस्वार्थ लेखन से और तुमने? ख़ैर छोड़ो तुमसे ना हो पायेगा….
प्रभु श्री राम को क्या मुँह दिखाओगे बे….छि छि मिश्रा ‘गुरु’
16 hrs ·
कूटनीतिये कह रहे मायावती को राज्य सभा जाने से रोकने में नरेस अगरबाल काम आएगा? मैं कहता हूँ इस भड़वे को भाजपा में लेने से अच्छा होता कि मायावती को ही साध लेते….उसने हिन्दुओं का अपमान किया जो सहा जा सकता है पर इस भड़वे ने श्रीराम, माता जानकी और हनुमान जी का अपमान किया है, हम अपना अपमान तो सह सकते हैं पर अपने आराध्य का कैसे सहें? क्या इतना गिर गए हैं हम? एक राज्यसभा सदस्य को रोकने के चक्कर में कितने लाख कार्यकर्ता निराश हुए अंदाज़ा भी है? और राजनीति में नैतिकता जाए भाड़ में मानता हूँ पर नरेश अगरबाल जैसे नीच को लेके कौन सा लाभ मिलने वाला है वो जल्द ही पता चल जाएगा….वो कोई विभीषण नहीं कि धर्म और नीति पर ज्ञान सुनूँ! ऐसी घटिया तुलना कमसे कम मैं तो नहीं सुन सकता, मुझे तो कुम्भकरण और मेघनाथ भी उतने ही प्रिय हैं जितना विभीषण, विभीषण यदि धर्म के साथ था तो कुम्भकरण और मेघनाथ भी अपने भाई और पिता के साथ मरते दम तक साथ देकर धर्म ही निभा रहे थे….अपना अंत देखकर भी रावण का साथ नहीं छोड़ा, नरेस अगरबाल जैसा नीच किसी का सगा नहीं वह केवल अपना उल्लू सीधा करने ही आया है….भाजपा को जितना लाभ नहीं होगा उससे कहीं अधिक हानि होगी भविष्य में दिख भी जाएगा…
राजनैतिक दांव पेंच हमें भी समझ आते हैं पर आंखों देख मक्खी निगलना ये तो खुद को धोखा देना ही है।
एक बार फिर से थू…..और तब तक थू जबतक इस जलील को बाहर नहीं फेंक दिया जाता।वे मिश्रा ‘गुरु’
19 hrs · Satna ·
थूकता हूँ ऐसी रणनीति, कूटनीति, राजनीति और राष्ट्रवाद की दुहाई देने वाले जलीलों पर कोई ज़मीर नहीं होता नेताओं और सुवरों का…..आज नरेश अगरबाल जैसा भड़वा भी भाजपा को फायदे का सौदा लग रहा तो थू है उसके नीति नियंता और पार्टी के चप्पल चाटने वालों पर…..
अब तो वाकई में घिन आ रही है, मुखर्जी-उपाध्याय अटल-आडवाणी की पार्टी को और कितना गिराओगे मोदी-शाह….? अब गटर और वर्तमान भड़वा पार्टी में मेरी नज़र में कोई भेद नहीं रहा….असलियत आ गयी सामने….टट्टी पर कितनी भी धूल डालो पैर पड़ते ही दुर्गंध मारने लगती है, आज वाकई बेहद निराशा हुई….वे मिश्रा ‘गुरु’
23 hrs · Satna ·
उड़ती उड़ती ख़बर मिली है, भैंसा नरेस अगरबाल भाजपा में आ रहा है? अगर ये भैंसा आया तो भाजपा को इतनी गालियाँ दिलवाऊंगा जितनी पिछले चार सालों में वाकई गैंग ने भी ना दी होंगी….ये कमीना हमारे आराध्य श्रीराम का अपमान कर चुका है, दारू से तुलना कर…..इस बार कोई कूटनीति नहीं चलेगी समझे रहना
सभि को थोदा बहुत योग आसन य दान्स कर्न चहिये कम्ररे के अन्दर् दान्स किया जाना चहिये सव्जनिक स्थलो मे नहि दान्स्कर्ने से शरिर मे फुर्ति भि रहति है मोतापा नहि रहेग
विठल कानिया बाबा के बिज़नेस की कामयाबी का राज़ जल्द ही साफ़ होगा इसी विठल कानिया बाबा की ज़हालत से इम्प्रेस होकर नोटबंदी की गयी जिसमे खरबो का नुकसान हुआ दोसो लोगो की जान ली गयी https://www.bhadas4media.com/sabha-sangat/14890-alok-tomar-ki-yaad-mei-seminar
Abhishek Srivastava
(साधु-संतों का सवाल)
मेरी नानी बड़े साहित्यिक परिवार से आती थीं। निराला और महादेवी वर्मा के सान्निध्य में दारा्गंज में रही थीं। उनका असर पड़ा था। जब बाबरी टूटी, तब उन्होंने कुछ कविताएं लिखी थीं। वे अकसर साधु-संतों से मिलती थीं। घर में टंगी सफेद दाढ़ी वाले भक्त हनुमान की पालथी मारे झांझ बजाती तस्वीर को एकटक देखा करती थी। वह आखिरी दौर था जब तक साधु-संत इस समाज की नैतिकता के रखवाले हुआ करते थे। यह समाज हर करवट लेने से पहले उनका मुंह देखता था। लोग भी सीधे-सच्चे हुआ करते थे। संत भी। सरकारें चाहे कितनी ही ढीठ रही हों, साधु-संतों को नहीं छेड़ती थीं। धीरेंद्र ब्रह्मचारी या चंद्रास्वामी जैसे लोग भले कहने को बाबा रहे हों, आम लोग उन्हें संत की तरह नहीं पूजते थे। जानते तक नहीं थे। बाबरी विध्वंस पहला अध्याय था जब लोकप्रिय और सम्मानित साधु-संत राजनीतिक बने। इसके बाद यह सिलसिला थमा नहीं।
पिछले ढाई दशक में जनता के संत और राजनीति के संत के बीच की दूरी मिटती गई। धर्म और राजनीति का घालमेल ऐसा हुआ कि राजनीतिमुक्त शुद्ध संतों को खोजना दुर्लभ हो गया। फिर आई उस पार्टी की बहुमत वाली सरकार जिसकी राजनीति ही धर्म पर टिकी थी। जिसकी चुनावी पैदाइश बाबरी विध्वंस से हुई थी। जिसने अनिवार्यत: साधु-संतों की राजनीति की थी। ज़ाहिर है, कुछ सत्ता के संत बने, तो कुछ विपक्ष के। धर्म के क्षेत्र में राजनीतिक दोफाड़ हो गया। इसका नतीजा ऐसे ही निकलना था, जैसा हम देख रहे हैं। राम-रहीम भीतर हैं। रामपाल का आश्रम बरबाद हो गया। जेल चले गए। जय गुरुदेव के सबसे बड़े शिष्य को मार दिया गया। साथ में सैकड़ों भक्त भी निपटा दिए गए। प्रधानजी के अपने गुरु स्वामी दयानंद चले गए। आसाराम भीतर हैं ही। साई बाबा मरे, तो जैसी छीछालेदर हुई वह सबने टीवी पर देखा। अवध में हज़ारों भक्तों के प्रात: स्मरणीय शोभन सरकार एक्सपोज़ हो गए। राधे मां मनोरंजन का औज़ार बन गई। नित्यानंद, प्रेमानंद, भीमानंद, असीमानंद सब भीतर हो आए। गंगा के लिए लड़ रहे निगमानंद को सरकार ने ही निपटा दिया। इधर पांच बाबाओं ने शिवराज सिंह को ब्लैकमेल किया और मंत्री बन गए। उनमें एक भइयूजी ने आज खुद को गोली मार ली। उनके भक्त नेता घडि़याली आंसू बहा रहे हैं।
सोचिए, कट्टर हिंदू विचार की पार्टी भाजपा और कथित सॉफ्ट हिंदू विचार वाली कांग्रेस की दोध्रुवीय राजनीति के दौर में हिंदू धर्मरक्षकों का ये हाल क्यों हो रहा है? जो अपराधी हैं और जिनके अपराध खुल गए, उन्हें छोड़ दें तो बाकी के बारे में सवाल बनता है कि हिंदू हित वाली सरकारों को हिंदुओं के संतों से क्या कोई दिक्कत है? इस देश में धर्म की सत्ता और राजनीति की सत्ता हमेशा से समानांतर चली है। राजनीति से विमुख होने वाले के लिए धर्म हमेशा एक आसरा रहा है। क्या हिंदुओं की राजनीति करने वाले ये आसरा हिंदू जनता से छीन लेना चाहते हैं? क्या वे चाहते हैं कि लोग इसी सड़ी-गली राजनीति को अंतिम सत्य मान लें और उनके पास कोई नैतिक आलम्बन न बचे? भारत जैसे एक व्यक्तिपूजक और श्रद्धा केंद्रित समाज में लोकप्रिय संत की खुदकुशी सतह के नीचे चल रहे बदलावों पर बहुत कुछ कहती है। यह ब्लैक एंड वाइट मामला नहीं है। इसलिए तत्काल कोई राय बनाने से पहले एक बार सोचिए कि राजनीति और धर्म का घालमेल कर के सत्ता में बहुमत से आई किसी पार्टी को आखिर धर्म से अब क्यों दिक्कत होगी? आखिर पुलिसवाले खुदकुशी करें, नेता खुदकुशी करे, छात्र खुदकुशी करे, किसान-मजदूर खुदकुशी करे तो समझ आता है। जिसके कदमों में प्रधान है, दुनिया-जहान है, उसे मरने की क्या पडी है?
S B Jain
10 hrs ·
नए नियम का हवाला दे कर भले ही सादिया को तन्वी नाम से पासपोर्ट मिल गया हो पर पुरे काण्ड से पांच बाते हुई :-
१) सादिया को मिला पासपोर्ट किसी काम का नहीं, क्योंकि दुनियां भर की एजेंसियों में भेजी भक्तों की इमेल ने वीजा मिलना असंभव कर दिया है .. इस पासपोर्ट से बस आधार कार्ड जैसे लखनऊ का एड्रेस प्रूफ बनेगा . इतने विवाद के बाद कोई IT कंपनी अब उनका वीसा प्रोसेस के लिए भी नहीं भेजेगी .
२) सादिया और उसका पति आज अपने लिए पर पछता रहे होंगे क्योंकि अब वे दोनों कई दिनों से ऑफिस नहीं जा रहे हैं और उनकी जिन्दगी में लम्बे समय तक चलने वाला उपद्रव हो गया है .. सामान्यत: कोई भी कम्पनी तीन दिनों की अकारण अनुपस्थिति को कारण मान कर सेवामुक्त कर सकती है. और पुन: नौकरी मिलना कठिन होगा . मैं भी एक आईटी कम्पनी में हूँ और ये लिखना बहुत कठिन है पर ये दुखद सच्चाई है कि कम्पनी कामचोर बेईमान कर्मचारी को बर्दाश्त करलेती है पर विवादित कर्मचारी को नहीं .. इनफ़ोसिस के पूर्व को-फाउंडर फणीश मूर्ति एक ऐसा ही उदहारण हैं.
३) विकास मिश्रा ने भले ही तबादला झेला पर भक्तों के समर्थन ने उन्हें नैतिक और आत्मबल दिया होगा और विभाग ही नहीं देश में उनकी कर्तव्य-परायणता की प्रशंसा हुई और होगी .. आम तौर पर ऐसी विभागीय कार्यवाही तीन से छ: माह में निरस्त होती है वो भी बिना हल्ले के .. मामला ठंडा होने के बाद .
४) सुषमा जी जननेता थीं और उन्होंने बहुत बड़ा मौका गँवा दिया , जैसे मोदी जी एक टोपी रिजेक्ट कर के हीरो बने थे ऐसे ही सुषमा जी सिर्फ विकास मिश्रा पर की गई अनुचित कार्यवाही निरस्त कर के हीरो बन सकती थीं पर उन्होंने मौका गँवा दिया .. राजनीति में सही गलत से ज्यादा नेरेटिव जरुरी होता है. मुझे लगता है की ये काण्ड सुषमा जी के राजनितिक जीवन में आडवाणी के जिन्ना काण्ड जैसे प्रतिकूल प्रभाव लाएगा .
५) मेरे जैसे भक्तों को क्या फर्क पड़ा ?? तो भाई जहाँ रोहिंग्या को पासपोर्ट मिल जाता हो वहाँ एक सादिया से क्या फर्क पड़ना, इस मामले में मैं मुसलामानों का कायल हूँ कोई भी जीत छोटी नहीं होती और कोई भी हार बड़ी नहीं .. चरवैति.. चरवैति————————–
Ajit
12 hrs · लकड़बग्घों की भावना बेन फिर आहत हो गयी हैं ।
उनको लगता है कि MEA बोले तो Ministry Of External Affairs बोले तो विदेश मंत्रालय ने उनकी भावनाओं का अनादर करते हुए तन्वी सेठ का पासपोर्ट बहाल कर दिया ।
Fact मने तथ्य ये है कि मोदी सरकार ने बहुत से sectors में reforms किये हैं और बहुत से लचर कानूनों को खत्म किया है । जैसे कि पहले छात्र बेचारे अपने Certificates को Attest कराने के लिए अफसरों के सामने गिड़गिड़ाया करते थे ……. मोदी सरकार ने सर्टिफिकेट attest कराने की बाध्यता खत्म कर दी । अब आप स्वयं attest कर दीजिए कि आपका certificate सही है ।
उसी तरह हर विभाग में Reforms हुए हैं । passport बनाने में भी December 2016 से ही नए नियम लागू हो चुके थे ।
इन नियमों के तहत आपको किसी किस्म का कोई Marriage Certificate देने की ज़रूरत नही , DOB में कोई भी सर्टिफिकेट जिसपे जन्मतिथि अंकित हो चल जाएगा , आप चाहे जहां रहते हों , कोई फर्क नही पड़ता , चाहे जहां से अप्लाई कर दीजिए , माँ बाप का नाम देना जरूरी नही , तलाकशुदा हैं तो पति का नाम देना जरूरी नही , साधू सन्यासी है तो माँ बाप की जगह अपने गुरु का नाम दे सकते हैं ……… ऐसे बहुत से रिफॉर्म्स मोदी सरकार ने किए थे जो दिसंबर 2016 से ही लागू हो चुके हैं ……..
अब आपको इनकी जानकारी नही है तो ये आपकी समस्या है MEA या सुषमा स्वराज की नही ।
तन्वी सेठ की पासपोर्ट एप्लीकेशन पूरी तरह जायज़ थी , नए कानूनों के तहत उसमे कोई विसंगति नही पाई गई । एड्रेस वेरिफिकेशन अब कोई Issue ही नही है । बाकी पुलिस वेरिफिकेशन में उसके आचरण या किसी गैरकानूनी गतिविधि में लिप्त होने जैसी कोई एडवर्स रिपोर्ट नही थी , Marriage Certificate लगाना नही है , शादी से पहले महिला का क्या नाम था और शादी के बाद क्या हो गया इससे MEA को कोई मतलब नही ……… सो नए नियमों से उसके पासपोर्ट को होल्ड करने या रद्द करने का कोई आधार ही नही था ।
जिस अधिकारी का निलंबन / स्थानांतरण हुआ इस विवाद में उनपे आरोप ये है कि उन्होंने 2016 में नियम बदल जाने के बावजूद अनावश्य सवाल पूछे Applicant से …….. मैरिज सर्टिफिकेट में नाम को ले के अनावश्यक विवाद किया जिसकी आवश्यकता नही थी …….. Applicant ने अपनी दसवीं क्लास के सर्टिफिकेट में जो नाम और Dob दर्ज है उसी नाम का पासपोर्ट मांगा जो पूरी तरह जायज है ।
तन्वी सेठ के पासपोर्ट को रद्द करने या होल्ड पे रखने का कोई आधार नही था इसलिए पासपोर्ट जारी कर दिया गया ।
MEA अपने नियम कानून के हिसाब से चलेगा न कि हमारी आपकी भावनाओं के आधार पे ……… रिफॉर्म्स 2016 में ही हो गए थे । बाकायदे गजट में नोटिफाई किया गया था । अभी जो App launch हुआ है वो भी इन्ही reforms के तहत हुआ जिससे आप आसानी से , बिना हील हुज्जत के passport बनवा सकें ।
मैं पहले दिन से ही ये कहता रहा हूँ कि किसी व्यक्ति का पासपोर्ट , किसी का तबादला या Suspension ये बहुत बहुत छोटे मुद्दे हैं Petty Issues ……..आपके लिए हो सकता है बहुत बड़ा मुद्दा हो , पर सरकार के लिए और MEA जैसे विभाग के लिए , सुषमा जी जैसे Busy मंत्री के लिए ये बहुत छोटा issue है , ये routine में Clerk और मझोले अधिकारी के डील करने के मामले हैं ।
अपनी भावनाओं को खुद सम्हाल के रखिये और आहत होने से बचाइए । सरकार जिम्मेवार नही है ।
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