पुण्य प्रसून बाजपेयी
1947 : डेढ आने का बेसन । एक आने का आलू-प्याज । एक आने का तेल । तीन पैसे का गोयठा । कहे तो गोबर के उबले । चंद सूखी लकड़ियां । और सड़क के किसी मुहाने पर बैठ कर पकौडा तलते हुये एक दिन में चार आने की कमाई। 2018 : 25 रुपये का बेसन । दस रुपये का आलू प्याज । 60 रुपये का सरसों तेल । सौ रुपये का गैस । या 80 रुपये का कैरोसिन तेल । और सड़क के किसी मुहाने पर ठेला लगाकर पकौड़ा तलते हुये दिन भर में 200 से तीन सौ रुपये की कमाई । करीब चार आने खर्च कर चार आने की कमाई जब होती थी तब हिन्दुस्तान आजादी की खुशबू से सराबोर था। करीब 31 करोड़ की जनसंख्या में 21 करोड़ खेती पर टिके थे। और पकौड़े या परचून के आसरे जीने वालो की तादाद 50 से 80 लाख परिवारों की थी । और अब ठेले के अलावे दो सौ रुपये लगाकार दो सौ रुपये की कमाई करने वाला मौजूदा हिन्दुस्तान विकास के अनूठे नारों से सराबोर है । सवा सौ करोड़ की जनसंख्यामें 50 करोड़ खेती पर टिके है। और पकौड़े या परचून के आसरे जीने वालों की तादाद 10 से 12 करोड़ परिवारों की है । तो आजादी के 71 वें बरस में बदला क्या या आजादी के 75 वें बरस यानी 2022 में बदलेगा क्या। नेहरु के आधी रात को सपना देखा।
मौजूदा वक्त में दिन के उजाले में सपने पाले जा रहे हैं। क्योंकि संगठित क्षेत्र में सिर्फ 2 करोड़ 80 लाख रोजगार देकर देश विकसित होना चाहता है । जबकि 45 करोड़ से ज्यादा लोग असंगठित क्षेत्र में रोजगार से जुड़े है । जो भविष्य नहीं वर्तमान पर टिका है। इसमें भी 31 करोड़ दिहाड़ी पर जीते है । यानी भविष्य छोड़ दीजिये । कल ही का पता नहीं है क्या कमाई होगी । तो कमाई और रोजगार से जुझते हिन्दुस्तान में पकौड़ा संस्कृति को तोडने के लिये मनरेगा लाया जाता है तो करोडों खेत-मजदूर से लेकर दिहाडी करने वालो में आस जगती है कि दो सौ रुपये लगाकर हर दिन दो सौ कमाने की पकौडा संसक्कृति से तो छूटकारा मिलेगा । पर मनरेगा में 100 दिन का रोजगार देना भी मुश्किल हो जाता है । और लाखो लोग दुबारा पकौडा संस्कृति पर लौटते है । ये है कि 25 करोड 16 लाख मनरेगा मजदूरो की तादाद में सिर्फ 39,91,169 लोगो को ही सौ दिन मनरेगा काम मिल पाता है । और सरकार के ही आंकडे कहते है 2017-18 में 40 दिन ही औसत काम मनरेगा मजदूर को मिल पाया । यानी 40 दिन के काम की कमाई में 365 दिन कोई परिवार कैसे जियेगा । जबकि 40 दिन की कमाई 168 रुपये प्रतिदिन के लिहाज से हुये 6720 रुपये । यानी जिस मनरेगा का आसरे रोजगार को खुछ हदतक पक्का बनाने की सोच इसलिये विकसित हुई कि पकौडे रोजगार से इतर देश निर्माण में भी कुछ योगदान देश के मजदूर दे सके । औऱ उसमें भी देश के 25 करोड से ज्यादा मनरेगा मजदूरों में काम मिला सिर्फ 7 करोड़ को। और सालाना कमाई हुई 6720 रपये । यानी 18 रुपये 41 पैसे की रोजाना कमाई पर टिका मनरेगा ठीक है । या फिर दो सौ रुपये लगाकर दौ सौ रुपये की कमाई वाला पकौडा रोजगार ।
जाहिर है पकौड़ा रोजगार में सरकार हर जिम्मेदारी से मुक्त है । लेकिन पकौडा रोजगार का अनूठा सच ये है कि शहरी गरीब लोगों के बीच पकौड़े बेच कर ज्यादा कमाई होती है । और जो नजारा देश के कमोवेश हर राज्य में बेरोजगारी का नजर आ रहा है उसके मुताबिक रोजगार दफ्तरो में रजिस्टर्ड बेरोजगार की तादाद सवा करोड पार कर गई है । और शहर दर शहर भटकते इन बेरोजगार युवाओं की जेब में इतने ही पैसे होते है । कि वह सडक किनारे पकौड़े और चाय के आसरे दिन काट दें । मसलन देश के सबसे ज्यादा शहरी मिजाज वाले महाराष्ट्र के आधुनिकतम पुणे, नागपुर , औरगाबाद समेत बारह शहरो में एक लाख से ज्यादा बेरोजगार छात्रसडक पर निकल आये क्योकि हर हाथ में डिग्री है पर काम कुछ भी नहीं । उस पर राज्य राज्य पब्लिक सर्विस कमीशन ने सिर्फ 69 वैकेसी निकाली तो आवेदन करने वाले दो लाख से ज्यादा छात्रो में आक्रोश फैल गया । छात्रो में गुस्सा है क्योकि पिछले बरस 377 वैकसी की तुलना में इस बार सिर्फ 69 वैकसी निकाली गई । जबकि अलग अलग विभागों में 6 हजार से ज्यादा पद रिक्त है । यूं राज्य में करीब 20 लाख रजिस्ट्रड बेरोजगार है । और डिग्रीधारी बेरोजगार छात्रों के अलावे राज्य में 27 लाख 44 छात्र बेरोजगार ऐसे है जो तकनीकी तौर पर काम करने में सक्षम है पर इनके पास काम नहीं है । तो चाय-पकौडे पर कमोवेश हर हर बेरोजगार की सुबह-शाम कट जाती है । तो देश किस हालात को सच माने । 2 करोड 80 लाख संगठित क्षेत्र के रोजगार को देखकर या फिर 45 नकरोड से ज्यादा अंसगठित क्षेत्र में रोजगार करते लोगो को देखकर । क्योंकि अब तो दो सौ रुपये पकौडे की कमाई से इतर पहली बार सरकार ने 1650 करोड रुपये स्कालरो को फेलोशिप देने के लिये मुहर लगा दी है । यानी फेलोशीप के तहत जो स्कालर चुने जायेगें उन्हे हर महीने 70 से 80 हजार रुपये दिये जायेगें । तो क्या अब सरकार जागी है जो उसे लग रहा है कि पढे लिखे छात्रो को स्कॉलरशीप देकर देश में रोका जा सकता है । क्योंकि देश का अनूठा सच तो यही है कि हर बरस 5 लाख छात्र उच्च शिक्षा के लिये विदेश चले जाते है । और देश का दूसरा अनूठा सच यही है कि सरकार का उच्च शिक्षा का बजट है 35 हजार करोड । जिसके तहत देश में साढे तीन करोड छात्र पढाई करते है । और जो पांच लाख बच्चे दूसरे देशो में पढने चले जाते है वह फीस के तौर पर 1 लाख 20 हजार करोड देते है । यानी दुनिया में पढाई के लिये जितना छात्रो से वसूला जाता है उस तुलना में सरकार देश में ही शिक्षा पर बेहद कम खर्च करती है । वजह भी यही है भारतीय शिक्षा संस्धानो का स्तर लगातार नीचे जा रहा है । इसी साल आईआईटी बॉम्बे,आईआईटी मद्रास और इंडीयन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस की रैकिंग तक गिर गई । यानी विदेश का अपना मोह है। और इस मोह को फेलोशिप के बरक्स नहीं तोला जा सकता। क्योंकि सवाल सिर्फ छात्रों का नहीं है । बीते बरस भारत के 7000 अति अमीरों ने दूसरे देश की नागरिकता ले ली। 2016 में यह आकंड़ा 6000 का था । और बीते 5 बरस का अनूठा सच ये भी है कि 90 फीसदी अप्रवासी भारतीय वापस लौटते नहीं हैं । तो क्या माना जाये पकौडा रोजगार वैसा ही मजाक है जैसे शिक्षा देने की व्यवस्था।
Girish Malviya
43 mins ·
एक आम आदमी यदि घर के लिया गया कर्ज भर नही पाता है तो बैंक द्वारा बकायदा उसके घर की नीलामी डोंडी पिटवा कर की जाती है ……….
एक किसान जब फसल तैयार करने के लिए बैंक से कर्ज लेता है और उसे नुकसान होता है तो उसे आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ता हैं………
लेकिन जब जब एक बड़ा कारपोरेट बैंक से कर्ज लेता है और उसे नही चुका पाता तो बैंक उसका कर्ज को बट्टे खाते में डाल देता है……..
जब किसानों की कर्ज माफी की बात आती है तो वित्तमंत्री अरुण जेटली साफ बोल देते है कि राज्य अपने पास से यह पैसा दे लेकिन हजारो करोड़ बट्टे खाते में डालना होता है तो इनके माथे पर शिकन तक नही आती क्योंकि ये पैसा उन कारपोरेट घरानों ने डुबोया है जो इन्हें मोटा चन्दा देते हैं, उनका नाम तक बताने में इनकी जुबाने तालु से चिपक जाया करती है
आपको यह तथ्य भी जरूर जानना चाहिए जो कल सामने आया है 2016-17 में कुल 81,683 करोड़ रुपये के बैड लोन को बट्टे खाते में डाल दिया जो पांच साल में सर्वाधिक हैं अकेले स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया ने 2016-17 में 20,339 करोड़ रुपये के बैड लोन को बट्टे खाते में डाल दिया जो सार्वजनिक क्षेत्र के अन्य सभी बैंकों में सबसे ज्यादा हैं यह आंकड़ा उस वक़्त है जब भारतीय स्टेट बैंक में अन्य बैंकों का विलय नहीं किया गया था.
आपको इन पांच साल के आंकड़े भी ध्यान से देखना चाहिए क्योंकि इसकी भरपाई हमारे द्वारा दिये जा रहे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करो से की जा रही है दूसरे शब्दों में कहू तो यह आपका हमारा पेट काट कर बड़े पूंजीपतियों का घर भरा जा रहा है
साल बट्टे खाते की रकम
2012-13 27,231 करोड़ रूपये
2013-14 34,40 9 करोड़ रुपये
2014-15 49,018 करोड़ रुपये
2015-16 57,585 करोड़ रुपये
2016-17 81,683 करोड़ रुपये
यानी 15-16 के मुकाबले सीधे 41 प्रतिशत की बढ़ोतरी सिर्फ यही आंकड़ा आपको नोटबन्दी जैसे निर्णय की सफलता की कहानी कह देगा
बताया जा रहा है कि 2017- 18 के वित्त वर्ष के पहले 6 महीने 53 हजार करोड़ रुपये राइट ऑफ किये जा चुका है और सभी जानते हैं कि इसी बट्टे खाते की रकम को एडजस्ट करने के लिए सरकार 2 लाख 11 हजार करोड़ रुपये बैंको को देने जा रही है लेकिन आप ये नही जानते होंगे कि हम 2013-14 से लेकर चालू वित्त वर्ष 2017-18 की पहली तिमाही के बीच कुल 3 लाख 79 हजार 80 करोड़ रुपये हम आलरेडी बैंको को दे चुके हैं जबकि उसके पहले बीते दस वर्षो में महज करीब दो लाख करोड़ रुपये का प्रावधान करना पड़ा था.
याद रखिए तेल तिल्ली से ही निकलता है यानी यहाँ भी इस डूबे हुए कर्ज की भरपाई आम आदमी से टेक्स का बोझ बढ़ाकर की जाएगी, बाकी आप लोग लगे रहिये राम मंदिर, बाबरी मस्जिद करने में ,
सरकार को पता है जनता को 100 रु लीटर पेट्रोल क्यो न खरीदना पड़े , चाहे बढ़े हुए टेक्स देने के बाद उनके पास कोई बचत न बचे , चाहे उनके बच्चों के पास कोई रोजगार न भी हो , चाहे अर्थव्यवस्था का दीवाला भी निकल जाए तो भी वोट तो जाति धर्म सम्प्रदाय से जुड़े मुद्दों पर ही देंगे
See Translation————————-Vineet Kumar7 hrs ·रोजगार मामले में दिग्गज मीडियाकर्मी सफारी सूट न ही सिलें तो अच्छा है :
मीडिया के दिग्गज जब नौकरी को अंग्रेजों के बीच से उपजी कुंठित दासता से जोड़कर व्याख्या करने लग जाते है तो मेरा मन उनसे एकदम बेसिक सवाल करने का करता है- सरजी ! हमारी मानसिक, कुंठित दासता तो फिर भी समझ आती है लेकिन आपके साथ ऐसी कौन सी मजबूरी हुआ करती है कि फ्रीलांसिंग के बजाय, खुद का अखबार शुरू करने के बजाय सी-डी ग्रेड के चैनल और उतने ही दोयम दर्जे के व्यक्ति के साथ जुड़ना पसंद करते हैं ?आपके साथ ऐसी कौन सी कुंठा काम करती है कि आप बिना एमबीए की डिग्री के संपादक से सीईओ हो जाना पसंद करते हो ? मीडिया में आपकी पहचान पत्रकारिता करने से बनी और कुर्सी मैनेजरीवाली थाम लेते हो ?
इन दिनों देख रहा हूं कि नौकरी और रोजगार के सवाल को अस्मिता, भारतीय चेतना, राष्ट्रभक्ति आदि भारी-भरकम शब्दों से व्याख्यायित किया जाने लगा है जिसका सार ये है कि जो नौकरी की बात कर रहे हैं वो छोटी सोच के लोग हैं. बडी सोच के लोग वो हैं जो खुद रोजगार पैदा करते हैं, बढ़ाते हैं. ये एक किस्म से पूरे जनतंत्र को फेक ग्लोरी में ले जाने जैसा है.
मेरी अपनी समझ है कि नौकरी और रोजगार का संबंध मानसिकता का नहीं मिजाज का है. हम जैसे लोग एक सेटअप के भीतर अपनी सेवा देना पसंद करते हैं और बदले में जीवन चलाने के लिए साधन चाहते हैं. ये बात मुझे अच्छे से पता है कि मैंने कल को खुद का रोजगार किया तो ज्यादा पैसे कमा सकता हूं, कुछ को रोगजार दे भी सकता हूं. लेकिन
इसके साथ मुझे अपना मिजाज भी पता है. मुझे दिनभर प्रबंधन का काम संभालना होगा. कई स्तर पर चीजें मैंनेज करनी होगी. मेरे जैसा आदमी जो फोन पर जल्दी किसी से बात करना पसंद नहीं करता, एक्सेल शीट से कोफ्त होती है, वो खुद का रोजगार नहीं कर सकता. फिर मुझे बहुत पैसे के बजाय उतने पैसे चाहिए जिसे कि मैं जीवन सुंदर करने में लगा सकूं. मेरी तरह इस देश में लाखों लोग होंगेऐसे में दिग्गज मीडियाकर्मियों को चाहिए कि रोजगा के नाम पर सफारी सूट सिलने के बजाय लोगों के मिजाज की विविधता को भी समझें. उनकी दिलचस्पी कोरस गाने में है तो बिल्कुल गाएं लेकिन सोलो परफॉर्म करनेवाले को गैरजरूरी करार देने से बचें—————————Hemant Malviya की वाल से
सेवा में,
क्षेत्रीय प्रबंधक महोदय
इलाहाबाद बैंक
कानपुर, उत्तर प्रदेश
विषय : बाद मे सादी ओर पहिले रोजगार करने के लिए…
योजना का नाम : ‘तलेगा इंडिया तभी तो पलेगा इंडिया’ के तहत पकोड़े व्यापार हेतु ऋणप्राप्ति आवेदन
मान्यवर, जय श्री राम !
निवेदन के साथ सूचित करता हूँ की हम ही आपके मोहल्ले के ऐकमात्र एम बी.ए. पास बेरोजगार सुदर्शनं बाहुबली युवक है !… पिछली बार मोहल्ले की कांवड़य़ात्रा हम ही आयोजित कराये थे .. वही ज़िसमे dj के पिछवाडे पे फायरींग हुए थी .. नहीं आपको पता न हो तो … आपकी बिट्टी से ही पुछा लिजियेगा उसी के चक्कर मे तो पुरा बावेला कटा था .
हा तो आगे आपसे निवेदन ये हैं ! कि यू तो हमने मोदी योगी भक्त व्हाट्सएप यूनीवरसिटी से पब्लिक चीटर ओंनली मोदी रिपीटर भक्ती ट्रेण्ड में डिप्लोमा भी कर रखा है। और फिलहाल हम मोदी जी की स्पीच सूनकर बेहद प्रभावित है… तो हम भी मेक पकोडा इंडिया योजना के तहत… ‘तलो पकौड़ा बनो फ़कोडा’, उद्योग के माध्यम से अपनी शिक्षा एवं बाहुबल के अनुभव का सदुपयोग कर आपकी बिट्टी से सादी बनाना चाहते है…. किन्तु हमारी इस चाह में धन की कमी एक व्यवधान बन गयी है।
पर चुकि हम एक योग्य ओर स्वभिमानी कर्मठ युवक है …अतः हमारी योजना है की हम अपने घर से थोड़ी दूर स्थित मैकडोनाल्ड डॉमिनोज वालो के बाजू मैं एक छोटी सी पकोडी की कढाई स्थापित कर ले … बाकी नगर निगम प्रसासन मे अपने जीजाजी अल्डरमन है वो माल के बाजू वाली गुमटी की बात जमा दिये है
आप निश्चिंत रहे ओर हम पे भरोसा रखे.. बाकी इस आवेदन के साथ हम अपने सारे सम्बद्ध कागजात की प्रतिलिपियाँ मे अपने हाथो के आपके लिए स्पेशयल बनाये स्वादिष्ठ मूंग दाल बेसन भजिये पकोड़े और समोंसा भेज रहे है और साथ मे स्वयं हमारे हाथ से तली मिर्चे ओर ईटा से पिसी पुदीने की हरी चटनी भी है ! एक बार खाएंगे तो बार बार पछताएंगे ..
तो बहरहाल मामला यू है कि हमारे राष्ट्र की तरक्की ओर विकास के लिये जल्द से जल्दी हमरे आवेदन को फ़टाफट ok मंजूरी दे देवे…
वरना आंटी जी रोज आपकी बिट्टी के साथ वोडाफोन वारे ‘पग’ को घुमाने मुताए लाने हमरे घर के आगे से ही रोज पार्क मे आती जाती है | खैर थोड़ा ही लिखे है.. समझ लिजियेगा | बाकी एक बार बस अपनी दुकान चल जाये फिर अपने बुऊजी को आपके घर भेजेगे ,….देख लिजियेगा …..का समझे ?
अतः आपसे विनम्र निवेदन है की नियमानुसार ही सही एक हमार बनाये पकोड़े टेस्ट कर यथासंभव आसान किस्तों पर हमें मुद्राऋण प्रदान करने की कृपा करें। क्योकि जब
तलेगा इंडिया, तभी तो पलेगा इंडिया ! बाकी हम हमारे दहेज मे पटा लेंगे
धन्यवाद।
भवदीय
छुट्टन कुमार पाण्डे
बी-ब्लॉक 210/3
हेमंत मालवीयजी का बाडा
कानपुर, उत्तर प्रदेश।
अमिताभ और मिडिया के अमिताभ अरुण पूरी पर शोध होना चाहिए की आखिर वो क्या बात हे जो इंसान को इस उम्र और इस हालात में भी इतना रीढ़ विहीन बना देती हे इस उम्र में तो इंसान को भुत और यमराज से भी कोई डर कोई खौफ होना ही नहीं चाहिए फिर ये गली के गुंडो और सरकार से इतना क्यों डरते हे https://www.bhadas4media.com/edhar-udhar/14701-mahila-patrakar-ko-aruni-puri-ne-nikala———————–Abhishek Upadhya 9 February at 05:29 · देश मे हिन्दू-मुसलमान को लेकर चल रही ज़बरदस्त बहसों के बीच एयरफोर्स के ग्रुप कैप्टन अरुण मारवाह साहब धर लिए गए हैं। उन्हें पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI तक गोपनीय दस्तावेज लीक करने के आरोप में धरा गया है। दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने गिरफ्तार कर लिया है। ये आंख का कीचड़ पोछने का वक़्त है। मारवाह कोई पहले उदाहरण नही हैं। न ही आखिरी हैं। न देश भक्ति का कोई मजहब है। न देश द्रोह का। रात दिन सरकारी दफ्तरों में पान की पीकें थूककर घूस मांगते और खींसे निपोरते लोग शाम होते होते टीवी की बहसों में देश भक्त बन जाते हैं। इनकम टैक्स रिटर्न के हर कॉलम में झूठ भरने वाले बस वंदे मातरम का “लाई डिटेक्टर टेस्ट” पास कर सच्चे हो जाते हैं। ज़िंदगी की हर डील में ईमान बेचने वाले मुफ्त में भारतमाता के नाम का बुलेटप्रूफ खरीदकर अजेय हो जाते हैं। आखिर क्यों? क्या ईमान के खून की जाँच बस पाकिस्तान की मुख़ालफ़त कर पूरी हो जाती है? ये वक़्त थोड़ा रुकने का है। थोड़ा सोचने का है। इंसान भी दोनो तरफ हैं। हैवान भी दोनो तरफ हैं। और हमे मोहरा बनाकर सियासत की बिरयानी की डकार लेने वाले भी दोनो तरफ हैं। ये सारी लड़ाई चुनने की है। नया रचने की है।————–Dilip C Mandal
8 hrs ·
सवर्ण पुरुषों का इंसान बनना एक लंबी प्रक्रिया में ही संपन्न हो पाएगा।
इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि इतिहास में आज तक एक भी ऐसा सवर्ण समाज सुधारक नहीं हुआ, जिसने सवर्णों से कहा कि सबको बराबरी का हक दो, हिंसा त्याग दो, आदमी बनो।——————ravish aur abhisar ke baare me ek bada sanghi —————————Siddhartha Shankar Gautam
1 February at 13:50 ·
दोनों बकैत (ravish aur abhisar ) खबरों की लाश के साथ बलात्कार करने में माहिर हैं।————————Subodh Rai
7 hrs ·
योगी आदित्यनाथ के पास अगर चार लाख की संपत्ति और होती तो वो करोड़पति होते। योगी आदित्यनाथ परिवार से मुक्त, मोह माया से परे अपने तरीके के अनोखे योगी हैं। सीएम योगी की कुल संपत्ति 96 लाख है। उधर जिस माणिक सरकार को हराने के लिए बीजेपी के सेठों ने अपनी तिजोरियां खोल रखी हैं। अगरतला के सारे होटल बुक कराके बीजेपी के बड़े नेता डेरा डाले हुए हैं। प्रधानमंत्री के दौरे पर दौरे कराए जा रहे हैं। त्रिपुरा के उस मुख्यमंत्री की संपत्ति 26 लाख (पत्नी की संपत्ति समेत) है। माणिक सरकार पारिवारिक दायित्वों से भी बंधे हैं। दरअसल राजनीति में पाखंड का स्वर्णकाल चल रहा है और अगर मैं गलत नहीं हूं तो योगी जी इस पाखंड के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं।Ashok Kumar Pandey
12 hrs · New Delhi ·
दो दिन से शेहला राशिद पर कुछ स्टेट्स दिख रहे थे। समझ नहीं आया। आज Ankit Raj के यहां देखा तो मामला समझ आया। शेहला ने मुस्लिम लड़कियों के हिन्दू लड़कों से शादी को लेकर कहा तो कुछ मुसलमान लड़कों की मर्दानगी जाग गई।
जब शेहला या कोई संघ पर हमला करता है तो आप ख़ुश भले होते हों लेकिन भीतर से आपमें और संघी चिन्टूओ में कोई फ़र्क़ नहीं। आप उनके जुड़वा हो। देश और समाज के उतने ही बड़े दुश्मन। डेमोक्रेसी के लिये वैसा ही ख़तरा।
कुछ को हटा दिया है लिस्ट से बाक़ी जिन जिन को बुरा लगे बेहतर हो चले जाएं। मैं बहस भी नहीं करना चाहता। मेरे लिए अपनी बेटी का किसी मुस्लिम लड़के से ब्याह उतना सहज है जितना अपने भाई का किसी मुस्लिम लड़की से। इन दोनों में फ़र्क़ करने वाला मेरा समान रूप से दुश्मन है।—————–Ashok Kumar Pandey
11 February at 23:33 · New Delhi ·
अस्मा जहाँगीर
तुम्हारा कद बहुत ऊँचा नहीं, बल्कि देखा जाए तो दरमियाने से कम ही था; भीड़ में होती तो तुम अक्सर नज़र न आती . जब तक जलूस उस जगह तक नहीं पहुँच जाता जहाँ पुलिस या रेंजेर्स (पकिस्तन की पैरा-मिलिट्री फ़ोर्स) उसे रोकते. तब तुम सबसे आगे होती, पुलिस अफसर से हाथ भर छोटी, मगर उसकी लाठी को दोनों हाथ से पकडे, साथियों पर बरसने से रोके, हमकदम कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाती, शासकों की ताकत को ललकारती, मार खाने को उपस्थित, मार खाने वालों की तरफ से लड़ने के लिए तत्पर, छोटे कद और बुलंद ख्यालों की असमा जहाँगीर ; नामी वकील, ह्यूमन राइट्स के लिए लड़ने वाली इंसान, औरतों की बराबरी की लड़ाई की मज़बूत सिपाही.
तुमसे एक बार की ही मुलाक़ात है. वैसे दो बार और भी मिलना तय हुआ था, लेकिन आखिरी लम्हे में तुमने फोन करके बताया कि तुम्हे कहीं और जाना है. कहाँ जाना है, जब यह सुना तब विशवास हो गया की तुम्हारा वहां रहना ज्यादा ज़रूरी है; किसी निरपराध की बेल की कोशिश या ‘ब्लासफेमी ‘ में फंसे गए मासूम के लिए उपस्थित रहकर, जनगन की आवाज़ बनना ज्यादा ज़रूरी काम तो है ही. न मिल पाने का दुःख तुम्हारी हिम्मत पर गर्व में दब गया. तीसरी बार मिली भी तो बस बीस एक मिनट के लिए, मुस्कुराती हुई, थोड़ी थकी क्योंकि दिनभर कोर्ट में लग गया था, ज़रा अस्त व्यस्त खिचड़ी बाल ठीक करने की कोशिश करती, क्षणों में सामने वाले का जायजा ले लेने वाली, मोटे चश्मे के पीछे से तेज़, बहुत ज़हीन आँखे. धीमी आवाज़ में बात करती, जो कचेहरी में शेरनी की दहाड़ की तरह गूंजती.
कब तय किया था तुमने की जीवन जाएगा तुम्हारा संघर्ष में? छात्र जीवन में तुमने जिया-उल-हक का समय झेला और महिलाओं को सिर ढँक कर रहना होगा इसके खिलाफ खड़ी हुई; बेहया कहलाई क्योंकि तुमने लाहौर शहर के मुख्य चौराहे पर दुपट्टों के अम्बार लगाकर आग लगाईं थी. क्या तब तुम्हे मालूम था कि तुम जद्दोजहद का वह सिपाही बनोगी जो कभी मोर्चा छोड़ नहीं पायेगा?
कहते हैं की तुम्हारा उस कबीले से तालुक है जो कुकेज़ी कहलाते हैं और जिनका काम चट्टानों को काट कर, पत्थर की सिले ढोने से लेकर, मूर्तियाँ तराशने तक होता है. देखने वाले तो शायद यही कहे की तुमने अपने खानदानी काम से कोई तालुक़ नहीं रखा. लेकिन समझने वाले जानते हैं की तुमने बिलकुल वही किया; जिंदिगी भर तुम समाज और कानून नाम के कठोर पत्थर को तराशकर जिंदिगी की खूबसूरती को उकेरती रही. नहीं, न छैनी न हथोडा कोई औजार कोई साधन नहीं था तुम्हारे हाथ, बस एक जिद थी की जो बेजान है, नीरस है उसमे जान फूंकनी है; जो अन्याय तले कुचला है, शासकों का दमन सह रहा है, उसके साथ खड़ा होना है.
लोग यह भी कहेंगे की तुम्हे भला यह सब करने की ज़रूरत ही क्या थी? अच्छे, खाते पीते घर में जन्म लिया, वकील बनी, ज़मीन जायदाद के झगडे निपटाती, खुद कमाती, आराम की जिंदिगी जीती, क्यों बेकार उन लोगों के लिए लड़ने की ठानी जो तुम्हारी फीस तो दूर, तुम्हारी टैक्सी का भाड़ा भी नहीं दे सकते थे. कुछ लोग यह भी कहेंगे की अपने देश के मजलूमों की लड़ाई लडती वहां तक भी ठीक था. सरहद पार से अमन हो, शान्ति रहे इसकी कोशिश करने की तो बिलकुल तुम्हे ज़रूरत नहीं थी. भला इस सब में औरत का क्या काम, जो करेगा सो शासक वर्ग करेगा. लेकिन तुम्हारा यकीन की महिलायें ही सबसे ज्यादा अमनपसंद होती हैं, क्योंकि ‘युद्ध में लडे चाहे कोई भी हारती केवल औरत है.’ यह वाक्य तुम्हारा उस छोटी सी मुलाक़ात में दिल में आजतक गूंजता है.
इतने पर भी तुमने बस कहाँ किया; उठी लड़ने के लिए उनके लिए जिन्हें उनका देश ही भेजकर कहाँ याद रखता है? भला भेजे हुए जासूस भी कोई देश अपनाता या स्वीकारता है? तुम्हारा हठ की जासूस हो या मुखबिर, सबसे पहले तो इंसान है.
कितने मोर्चे पर मौजूद रहती थीं तुम, कितने लाम पर लड़ रही थीं? सवाल यह भी करते लोग, की क्या जीत रही हो? मज़ाक उड़ाते ‘कभी तो जीता भी करो कोई मुक़दमा!’ शायद सौ में से २-३ % जीत नसीब होती हो, या शायद उतनी भी नहीं. लेकिन अपने संघर्ष इंसान इसलिए भी चुनता है की वह अपने ज़मीर का कैदी होता है, वह अन्याय देख नहीं सकता, दमन सह नहीं सकता. जीत मिले या न मिले, दुनिया को यह दिखाना और जताना ज़रूरी होता है की हम अभी मोर्चे पर मौजूद हैं, हम अभी हारे नहीं हैं, हम बाकी हैं; और जब तक हमारा यह जज्बा बाकी है तुम अन्यायी इस ग़लतफ़हमी में न रहना की तुम जीत गए हो !
नहीं, तुम कहीं गई नहीं हो, इसलिए तुम्हे अलविदा नहीं कहा जा सकता!
असमा जहाँगीर, तुम्हे सलाम !
लड़ाई जारी है साथी!
Noor Zaheer
Pushya Mitra
4 hrs ·
त्रिपुरा राज्य में माणिक सरकार की सरकार का पतन और देश भर में पसर रही भाजपा की विश्वसनीयता अलग-अलग मसले हैं. कलफदार अद्धी का कुर्ता पहनने वाले माणिक सरकार देखने में संभ्रांत पुरुष लगते हैं. वामदलों की यह परंपरा रही है कि सरकार चलाने वाले लोग अपने वेतन का कुछ हिस्सा रखकर बांकी पार्टी को वापस कर देते हैं. यह कितनी उचित है कहना मुश्किल है, क्योंकि आज के दौर में सामान्य जीवन जीने के लिये कुछ पैसों की जरूरत होती है.
कहा जाता है कि माणिक सरकार अपने वेतन का सिर्फ 10 हजार ही अपने पास रखते हैं, बुद्धदेव भी सिर्फ 5 हजार रुपये ही लेते थे. हालांकि माणिक सरकार की पत्नी सरकारी सेवा में है और उन्हें ठीक ठाक सैलरी मिलती होगी. उनके जीवन में खाने-पीने की तकलीफ कम होगी.फिर भी यह सच है कि वे आम आदमी की तरह रहते हैं और वामदल इस बात को अपनी ब्रांडिंग के तौर पर भुनाते रहते हैं.
इसमें कोई शक नहीं कि राजनीतिक भ्रष्टाचार के मामले में वामदलों का ट्रैक रिकॉर्ड बेहतर है मगर फिर भी जगह-जगह ये खारिज हो रहे हैं. वजह यह है कि बदले माहौल में उनके पास कोई एक्शन प्लान नहीं है. लोगों की अपेक्षाएं सरकार से लगातार बढ़ रही है. आर्थिक विकास इन अपेक्षाओं में सबसे ऊपर है. मगर यह विडंबना है कि देश के सबसे शिक्षित राज्य त्रिपुरा में सबसे अधिक बेरोजगारी है. लगभग 20 फीसदी.
आखिर 1978 से आजतक जिस राज्य में लगभग पूरी अवधि में वामदलों का ही शासन हो, वहां रोजगार और गरीबी उन्मूलन के लिये कोई कारगर कार्यक्रम न होना आखिर किसका फेल्योर है? उसी तरह त्रिपुरा के आदिवासी समूह लगातार अपनी अस्मिता के लिये संघर्षरत रहे हैं, उनकी भावनाओं को तुष्ट करने के लिये माणिक सरकार ने क्या किया?
यही दो बड़े मसले हैं, जिन्हें बीजेपी ने भुनाया और यही त्रिपुरा में वाम शासन के पतन की वजह बनी. वामदलों को इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए कि वे लोगों की अपेक्षाओं को पूरा करने में असफल रहे. इनके लगातार सिमटने की वजह भी यही है. इनके पास विरोध के लिए तथ्य और आंकड़े भरपूर हैं, भ्रष्टाचार के मसले पर इनका ट्रैक रिकॉर्ड भी बेहतर है. मगर इनके पास कोई ढंग का आर्थिक कार्यक्रम नहीं है.
सोवियत रूस का मॉडल फेल हो गया है, चीन में कहने भर को वाम सरकार है, उसका मॉडल पूंजीवाद का मॉडल है. यूपीए की सरकार में वाम विचारकों ने मनरेगा, खाद्य सुरक्षा, मिड डे मील जैसी योजनाओं को गरीबी और रोजगार उन्मूलन के उपाय के रूप में प्रोमोट किया. इनसे समस्या मिटी नहीं, बस भ्रष्टाचार बढ़ा. अगर एक विकल्प के तौर पर वामदल मजबूत होना चाहता है तो उसके पास एक प्रोग्राम होना ही चाहिये. अभी भी वे केरल में बचे हैं, वहां इसे लागू कर देश को दिखा सकते हैं.
अब सवाल यह है कि विकल्पहीनता के इस दौर में एक छलावे के रूप में पसरती भाजपा क्या त्रिपुरा के लोगों की इन अपेक्षाओं को पूरा कर सकती है? इनसे कितनी उम्मीद रखी जाए. देश में चार साल से काबिज इस पार्टी के पास गरीबी और बेरोजगारी को लेकर क्या सचमुच कोई प्रोग्राम है भी?
अगर होता तो रेलवे के डी ग्रुप और एसएससी की परीक्षाओं के लिये देश का युवा वर्ग इतना परेशान नहीं होता, सड़क पर दौर धूप नहीं करता.
2014 से आज तक भाजपा एक छलावे के रूप में ही आगे बढ़ रही है. जिस छलावे की परख हिंदी पट्टी के लोगों को होने लगी है उसका जादू गैर हिंदी भाषी इलाकों में जग रहा है. उत्तरपूर्व ही नहीं, बंगाल और केरल, तमिलनाडु जैसे इलाके में भी इनकी संभावनाएं हैं. मगर जैसे कोलकोला का जादू उतरा वैसे इनका जादू भी क्षणिक है.
यह उतरेगा, मगर क्या तब हमारे पास कोई ढंग का विकल्प होगा? और अगर विकल्प नहीं हुआ तो क्या जनता हर कर एक मौका इन्हें ही नहीं दे देगी? यह मुमकिन है, क्योंकि अभी भी देश की राजनीति में किसी कारगर विकल्प की सुगबुगाहट सुनाई नहीं देती।
पोते को दादा का पुनर्जन्म भी कहा जाता हे अंग्रेज़ो की———— औलाद थे संघ और मुस्लिम लीग और संघ की औलाद हे भाजपा , अब ये बिलकुल अपने दादा के जैसे हो गये हे अंग्रेज़ो के राज़ में जैसे बड़े बड़े अकालों में भी लोगो का खून चूसा जाता था फिर हिन्दू मुस्लिम दंगे करात जाते थे सेम ये दादा के पोते कर रहे हे ———————————————————————————————————————————————–उत्तराखंड में आर्थिक ग़ुलामी की दस्तक, मेडिकल की फीस में 400 प्रतिशत की वृद्धिरवीश कुमार March 29, उत्तराखंड के प्राइवेट मेडिकल कालेज ने 400 प्रतिशत फीस बढ़ा दी है। यहां के तीन प्राइवेट मेडिकल कालेज में करीब 650 छात्र छात्राएं पढ़ती हैं। आधे उत्तराखंड के ही हैं। राज्य सरकार ने मेडिकल कालेज को फीस बढ़ाने की छूट दे दी है। इस खेल का असर आप जानेंगे तो रातों की नींद उड़ जाएगी। उसके बाद हिन्दू मुस्लिम के नाम पर किसी धार्मिक जुलूस में ख़ुद को स्वाहा कर लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा।
अभी तक यहां के मेडिकल छात्र प्रथम वर्ष एम बी बी एस की फीस 6 लाख 70 हज़ार थी जो अब 23 लाख हो गई है। दूसरे साल की फीस 7 लाख 25 हज़ार थी जो अब 20 लाख हो गई है और तीसरे साल की फीस 7 लाख 36 हज़ार से बढ़कर 26 लाख हो गई है। जो छात्र दूसरे वर्ष में हैं उन्हें बैक डेट से प्रथम वर्ष की फीस का बढ़ा हुआ हिस्सा भी देना होगा यानी दूसरे वर्ष के छात्र को करीब 40 लाख रुपये देनी होगी।
अब यह आर्थिक ग़ुलामी नहीं तो और क्या है। सरकार ने जनता को ग़ुलाम बनाने का तरीका खोज रखा है। इनके पास अब कोई विकल्प नहीं बचा है। या तो सरकार इस अमानवीय फीस वृद्दि को 24 घंटे में वापस कराए या फिर ये छात्र आर्थिक ग़ुलामी को स्वीकार कर लें। क्या कोई भी कालेज फीस के नाम पर इस हद तक रियायत ले सकता है कि आपका सब कुछ बिकवा दे। ठीक है कि 6 लाख भी फीस कम नहीं मगर कैरियर के लिए छात्र लोन ले लेते हैं, उन पर 50 लाख का और बोझ, किस हिसाब से डाला जा रहा है। यही समझ कर ना, अब वे फंस चुके हैं, लोन लेंगे ही। इसे ही आर्थिक ग़ुलामी कहते हैं।
मुख्यमंत्री ने टीवी 18 से कहा है कि एक प्राइवेट मेडिकल कालेज बनाने में 700-800 करोड़ लगते हैं। वाकई किसी ने इतना पैसा लगाकर मेडिकल कालेज बनाया है? किसने आडिट किया है कि 800 करोड़ का एक मेडिकल कालेज है। आर्थिक चेतना न होने का लाभ उठाकर ये सब तर्क दिए जा रहे हैं। आप धार्मिक उन्माद की भेंट चढ़ते रहें, इसकी आड़ में स्कूलों कालेजों में लोग आर्थिक दासता के शिकार हो रहे हैं।
मैंने कई परिवारों से सीधा पूछा कि क्या आप में से कोई ब्लैक मनी वाले परिवार से है, बहुत पैसे वाले हैं, जो जवाब मिला उल्टा शर्मिंदा हो गया। ज़्यादातर छात्र मध्यम और साधारण श्रेणी के परिवारों से हैं। ये डोनेशन वाले नहीं हैं। ये सभी नीट प्रतियोगिता परीक्षा पास कर आए हैं। 450 अंक लाकर। इन कालेजों का चुनाव इसिलए किया कि प्राइवेट कालेज महंगे होते हैं मगर लोन के सहारे एक बार डाक्टर तो बन जाएंगे। अब इनकी इसी मजबूरी का फायदा उठाते हुए यह बोझ डाला गया है । इनके सर पर परमाणु बम फोड़ दिया गया है। यह क्या हो रहा है, हमारे आस पास। क्या वाकई नेताओं ने जनता को ग़ुलाम समझ लिया और जनता भी ख़ुद को ग़ुलाम समझने लगी है।रवीश कुमार —————-Anwar Ashraf
10 hrs · समस्तीपुर के मुसलमान भाइयो – जाईए, जेल से अपने हिन्दू भाइयों को छुड़ा लीजिए. ये बुरे लोग नहीं हैं, हो ही नहीं सकते – ये सब आपके भाई हैं. बीजेपी के मक्कार नेताओं के चक्कर में फंस गए हैं, गंदी राजनीति के शिकार हो गए हैं. अपना दिल बड़ा कीजिए, आप दोनों हजारों साल से एक साथ रह रहे हैं – आगे भी साथ रहेंगे. आपकी दानिशमंदी मिसाल बनेगी. जाईए, जेल वालों से बोल दीजिए कि आपको कोई शिकायत नहीं, ये अपने भाई हैं. उनके साथ बैठ कर चाय पीजिए, गले लगाइए और समझिए-समझाइए कि किस तरह अपनी नाकामी छिपाने के लिए बीजेपी भाई-भाई को लड़ा रही है.-