शमशाद इलाही शम्स
मेरे कदीमी क़स्बा मवाना (जिला मेरठ-उत्तर प्रदेश) के नज़दीक एक गाँव है नंगला हरेरू। 1988-89 में यह गाँव राष्ट्रीय अखबारों की सुर्ख़ियों में तब आया था जब इस गाँव के कुछ दलितों ने सार्वजनिक कार्यक्रम के दौरान सिख धर्म कबूल किया था। फिर इस गाँव में एक गुरुद्वारे का शिलान्यास 29 अप्रैल 1989 को अकाली दल नेता लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोरा के हाथों हुआ था। 1988 में पचास और 1989 में 290 दलितों ने अमृत छक कर सिख धर्म कबूल किया था। मवाना तहसील के अन्य कई गावों पाब्ला, छोटा मवाना, रहावती, किशोरपुर, नया गाँव, खालदपुर जैसे गाँवों के दलितों का ये धर्म परिवर्तन अख़बारों की जमकर सुर्खियां बना। यह वही दौर था जब पंजाब सिख अतिवादी आन्दोलन से लगातार सिहर रहा था, ऐसे हालात में सत्ता संस्थानों में इन ख़बरों से हडकंप मच गया था, कांग्रेस, आर्य समाज और संघ दलित समाज में हो रही इस प्रतिक्रिया को कुचलने के लिए दिन रात एक कर रहे थे।
नंगला हरेरू में दरअसल 1988 के ग्राम पंचायती चुनाव के दौरान माहौल तनावपूर्ण हो गया था, ध्यान रहे इस गाँव में बहुसंख्यक आबादी मुसलमानों की है, गाँव का प्रधान मुसलमान था, जमींदार मुसलमान था और मुसलमानों ने दलितों पर जमकर उत्पीड़न किया था। यह दलितों द्वारा धर्म बदलने का पहला अध्याय नहीं था, 1950 और 1960 की दहाई में रिपब्लिकन पार्टी के प्रभाव और उसके आह्वान पर नंगला हरेरू के दलित बौध धर्म में शामिल हो चुके थे। मुसलमान प्रधान के गुंडों द्वारा इस गाँव के दलितों पर आक्रमण से कुछ दिन पहले हापुड़ के नज़दीक सोठावाली गाँव में जाटों ने एक साथ तीन दलित पत्रकारों की हत्याएं करके सनसनी फैला दी थी।
इसी गाँव के पास दूसरे एक गाँव में राजपूतों ने दलितों के साथ मारपीट की थी। इसलिए कुल मिलाकर इलाके में दलितों के लिए एक भय का वातावरण था। जिससे बाहर निकालने के लिए प्रतिक्रिया के रूप में दलितों ने सिख धर्म अपनाने का रास्ता चुना था। नंगला हरेरू की घटना से एक बात साफ़ हो गयी कि दलित उत्पीड़न में हिन्दुओं की दूसरी अगड़ी जातियों की तरह मुसलमान भी कम नहीं हैं। हाँ कुछ कम है तो कुछ ज्यादा बस इतना फर्क हो सकता है।
नगला हरेरू की कहानी यहाँ ख़त्म नहीं होती है। दरअसल कहानी का यहाँ से आग़ाज़ है। धर्म परिवर्तन की इस घटना के बाद जो राजनैतिक और सामाजिक प्रतिक्रियायें हुईं। वह बहुत दिलचस्प हैं। उन दिनों सिखों को आतंकवादी बता कर उनके नौजवान लड़कों को मारा जा रहा था। उत्तर प्रदेश में भी ऐसी घटनाएँ हुईं। सो कुछ नव सिख दलितों ने बढ़ाये हुए सर के बाल कटा लिए थे और छुप कर सिख बने रहे। लेकिन कुछ दलित परिवारों में इस बात को लेकर तनाव पैदा हो गया, जिनके भाई बंद सरकारी नौकरी में थे। उन्होंने सिख धर्म कबूल करने वालों पर प्रेशर डाला कि अनुसूचित जाति-जन जाति के नाम पर मिलने वाली सुविधाएँ सिख बनने के बाद नहीं मिलेंगी। कांग्रेस और आर्य समाज ने अपने तरीके से इन नव सिखों की घर वापसी के अभियान चलाये और बाकायदा ‘शुद्धीकरण शिविर’ लगा कर तीन दिन का समारोह भी किया गया।
इस मुद्दे पर प्रोफ़ेसर जगपाल सिंह का रिसर्च पेपर ‘Ambedkarisation and Assertion of Dalit Identity,Socio-Cultural Protest in Meerut District of Western Uttar Pradesh’ Ecomonic and Political Weekly Oct 3,1998 में प्रकाशित हुआ है। उसमें धर्म परिवर्तन और फिर घर वापसी करने वाले दलित लोगों के साक्षात्कार भी हैं। उसमें दलितों की संस्कृति पर जिक्र करते हुए लिखा गया है कि दलित बस्तियों में रविदास मंदिर, या डाक्टर आंबेडकर की प्रतिमा, उनके जन्मदिन पर होने वाले समारोह, दैनिक रहन सहन, देवी-देवता, धार्मिक मेले, दलितों में होने वाली शादियों, तीज-त्यौहारों में हिन्दुओं की भांति ही व्यवहार किया जाता है।
दरअसल दलितों को सबसे अधिक समस्या हिन्दू रूढ़िवादिता से है, यदि हिन्दू धर्म और समाज अपनी रुढ़ियों में परिवर्तन कर ले और उन्हें समाज का सहज अंग बना ले तो उन्हें हिन्दू रहने में कोई समस्या नहीं। दलितों द्वारा बौद्ध धर्म स्वीकार करना इतना आध्यात्मिक कर्म नहीं था जितना कि वह एक राजनैतिक पैंतरा था ताकि उन्हें खो देने वाला समाज एक झटका खाकर सुधर जाए। और नतीजतन दलितों के जीवन में कुछ मूलभूत सुधार हों। नंगला हरेरू के दलितों द्वारा सिख धर्म कबूल करना डाक्टर आंबेडकर द्वारा किये गए 14 अक्टूबर 1956 में बौध धर्म परिवर्तन का ही दूसरा अध्याय था।
नंगला हरेरू के दलित समाज द्वारा डाक्टर आंबेडकर को सिरहाने रख कर सिख धर्म अपनाना अपने आप में आंबेडकर का खंडन करना था, यदि वह आंबेडकरवादी होते तो 1930 की दहाई में डाक्टर आंबेडकर और सिख नेता मास्टर तारा सिंह के साथ उनकी खतो-किताबत का इल्म होता और उन वजुहात का भी इल्म होता जिसके तहत सिख धर्म उनकी पसंद का पहला धर्म होने के बावजूद वह उसे अपना नहीं सके, खैर यह बहस का एक अलग विषय है।
इस अध्ययन पत्र को पढ़ने के बाद जो स्वाभाविक प्रश्न उठता है, वह यह है कि जिन लोगों ने डाक्टर आंबेडकर के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार किया था क्या उनके जीवन में कोई सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक बदलाव आया? बौद्ध धर्म की चादर ओढ़ने के बाद क्या उनमें से भी कोई वापस हिन्दू धर्म में आया? आया तो उसके क्या सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक कारण थे? भारतीय राज्य द्वारा दलितों को आरक्षण के नाम पर दी जाने वाली सुविधाएँ उन्हें हिन्दू धर्म की परिधि में बनाये रखने का उपक्रम नहीं है? क्या डॉक्टर आंबेडकर द्वारा दलित समाज के लिए सरकारी सुविधाएँ देने की पुरजोर मुहिम और फिर अपनी मृत्यु से कुछ महीने पहले ही हिन्दू धर्म का दामन छोड़ कर बौद्ध धर्म की शरण में जाना अपने आप में अंतर्विरोधी नहीं है?
क्या धर्म परिवर्तन दलित राजनीति का प्रतिक्रियावादी रूप नहीं है जिसे आज भी तथाकथित अम्बेडकरवादी नेता अक्सर धमकी के रूप में इस्तेमाल करते हैं। ध्यान रहे भीमा-कोरेगांव की घटना के बाद मायावती ने भारत के हिन्दू खलीफाओं को धमकी भरे अंदाज़ में कहा था कि यदि हिन्दू समाज सुधर नहीं जाता तो वह अपने लाखों समर्थकों के साथ बौद्ध हो जायेंगी।
1956 के बाद से वोल्गा से गंगा तक बदलाव का कितना पानी गुजर चुका है, हमें मालूम है। डाक्टर आंबेडकर यदि विज्ञान के इस युगांतकारी युग के खुद गवाह होते तो यकीनन धर्म के बारे में उनके वह विचार नहीं होते जो 1956 में थे। विज्ञान, सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में जितनी प्रगति पिछले 20-30 सालों में हुयी वैसी प्रगति मानवजाति के इतिहास में पहले दर्ज नहीं हुई। लिहाजा धर्म के बारे में डाक्टर अम्बेडकर के 1950 की दहाई के उपदेशों को मान लेना किसी भक्त का काम ही हो सकता है। बुद्धिवादी का नहीं।
इंसान को धर्म के आडंबर से बचाना ही किसी बुद्धिवादी की प्रथम प्राथमिकता हो सकती है। लेकिन व्यक्ति पूजक, विज्ञान रहित सोच वाले नेतृत्व का भक्त बनना और भक्त बनाने में जो स्वाद मिलता है उसके फायदे मायावती जैसी नेत्री से अधिक और कौन जान सकता है? दुनिया के किसी दार्शनिक के अनुयायी को क्या आपने कभी जय सुकरात, जय प्लोटो, जय अरस्तु, जय अरबिंदो या जय मार्क्स कहते सुना है? लेकिन जय भीम वालों की बीन लगातार सुनाई देती है, ठीक जय हनुमान, जय श्रीराम वालों की तरह। जय भीम का उद्घोष अपने आप में हिन्दू उद्घोषों की तरह की ही पुनरावृति है, अपनी अंतर्वस्तु में, गुणों में जय भीम, जय श्रीराम से किसी भी तरह से अलग नहीं है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं। ‘जनचौक’ का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।)
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Kanwal Bharti
17 hrs ·
हमारे मिथक हमारी ऊर्जा
[कँवल भारती]
यह विडम्बना ही है कि अभी तक इस बात को नहीं समझा जा रहा है कि आलोचना और विमर्श की दक्षिण और वाम धाराओं के अलावा कोई तीसरी धारा भी है, जिसे बहुजन की धारा कह सकते हैं. वाम धारा तो अत्याधुनिक धारा है, जबकि भौतिक और अभौतिक दो धाराएं भारत में प्राचीन काल से रही हैं. इसे हम वैदिक और अवैदिक चिन्तन धाराएं भी कह सकते हैं. इस दृष्टि से देखा जाये तो वाम धारा तीसरी धारा है. परन्तु आज जिस तरह दक्षिण और वाम दो धाराएं सर्वमान्य बन गई हैं, उनके समानांतर बहुजन धारा तीसरी धारा बन गई है. यह तीसरी धारा न धर्मविरोधी है, और न धर्मभीरु है; न यह दक्षिण विरोधी है और न वाम विरोधी है. इसलिए इस धारा को ठीक से न समझने के कारण ही वाम धारा के लोग, जो खुद बंगाल में दुर्गा पूजा में बढ़चढ़कर हिस्सा लेते हैं, बहुजन मिथकों को न सिर्फ खारिज कर देते हैं, बल्कि उसका उपहास भी उड़ाते हैं. इसके विपरीत दक्षिण पंथ के हिन्दूवादी लोग बहुजन मिथकों से बौखला जाते हैं. यह कितना दिलचस्प है कि बहुजन मिथकों का वाम चिंतक उपहास उड़ाते हैं, और हिन्दू चिंतक परेशान हो जाते हैं. पिछले साल जब बहुजन समाज ने महिषासुर बलिदान दिवस मनाया था, तो भारत की संसद में भी भूकम्प आ गया था. हिन्दुत्ववादियों का बहुजन मिथकों से उत्तेजित होना अकारण नहीं है. वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि मिथकों में बहुजन नायक ब्राह्मणवाद और वैदिक संस्कृति के विरोधी हैं. वे शूद्रों के विद्रोह की जमीन तैयार करते हैं. इसलिए उन्हें अगर रोका न गया तो वे हिंदुत्व के लिए खतरा बन जायेंगे.
‘रिडिल्स इन हिन्दुइज्म’ में डा. आंबेडकर ने एक बड़ा महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है कि क्यों वैदिक स्त्रियाँ ने एक भी युद्ध नहीं लड़ा? और क्यों सारे युद्ध पुराणों की स्त्रियों ने ही लड़े? इसी में वे यह भी पूछते हैं कि पुराणों ने उसी स्त्री को देवी का दर्जा क्यों दिया, जिसने असुरों का संहार किया? ये प्रश्न एक बड़े संघर्ष को प्रमाणित करते हैं. अत: जो लोग यह कहते हैं कि मिथक केवल कल्पनाएँ हैं, वास्तविक पात्र नहीं हैं, उनसे आंशिक सहमति है. वे वास्तविक पात्र नहीं हैं, यह सच है. फिल्मों, उपन्यासों और कहानियों में भी पात्र वास्तविक नहीं होते हैं, वहां भी पात्र गढ़े जाते हैं, परन्तु उनमें वर्णित घटनाएँ सत्य पर आधारित होती हैं. क्या हम प्रेमचन्द की कहानियों में चित्रित यथार्थ को झुठला सकते हैं? इसलिए मिथक भले ही ऐतिहासिक नहीं हैं, पर उनमें इतिहास के यथार्थ की अनदेखी नहीं की जा सकती. भारत में हिन्दू संस्कृति का आधार क्या है? हिन्दू तीज- त्यौहारों का आधार क्या है? ये सारी संस्कृति और तीज-त्यौहार मिथकों पर ही टिके हुए हैं. हम मानते हैं कि महाभारत एक महाकाव्य है और उसमें वर्णित सारे पात्र अवास्तविक हैं. हम यह भी मानते हैं कि उसके पात्रों के जन्मस्थान और घटना-स्थल भी निर्मित किए गए हैं. पर हम इस सबको नकारकर भी पूरी हिन्दू संस्कृति को उखाड़ नहीं सकते हैं? किन्तु, यदि हम इस कालखंड में से एकलव्य को निकाल कर, द्रोपदी को निकाल कर व्यवस्था के प्रति उनके भीतर के विद्रोह को उभारते हैं, तो इससे हिंदुत्व की शक्तियां विचलित हो जाती हैं. अगर हम रामायण से शम्बूक को निकालकर उसके अंदर के विद्रोह को उभारते हैं, तो शम्बूक उनके लिए मिथक हो जाता है, और उनकी भावनाएं आहत हो जाती हैं. अगर एकलव्य मिथक हैं, शम्बूक मिथक हैं, तो क्या कृष्ण, द्रोणाचार्य और राम मिथक भी नहीं हैं? वे ऐतिहासिक और वास्तविक कैसे हो गए? एकलव्य और शम्बूक के विद्रोह महाभारत और रामायण में नहीं हैं, क्योंकि उनमें प्रतिपक्ष आया ही नहीं है. तब क्या जनता को प्रतिपक्ष बताने की जरूरत नहीं है? क्या घटनाएँ चुपचाप हो जाती हैं? क्या संघर्ष में दूसरा पक्ष समपर्ण कर देता है— ‘कि मैं तुम्हारे हाथों अपमानित होने, अपना अंग भंग कराने और मरने को तैयार हूँ. आओ मुझे मारो, तुम्हारे हाथों मरकर मुझे स्वर्ग मिलेगा?’ क्या यह एक विजेता का पक्ष नहीं है? बहुजन नायकों का पक्ष उनमें नहींआया है. यह काम बहुजनों को करना है कि वे अपने नायकों के पक्ष को सामने लायें. यह उन्हें करना ही होगा. बहुजन नायक कायर नहीं थे, वे समर्पण नहीं कर सकते थे, वे अपनी मृत्यु की याचना नहीं कर सकते थे. उनके साथ धोखा, छल, अधर्म, अन्याय और अपराध हुआ है.
दो बातें विशेष ध्यान देने की हैं. एक यह कि हिन्दू अपने मिथकों पर ज्यादा जोर क्यों देते हैं? जब वे कहते हैं कि प्लास्टिक सर्जरी भारत में ही पैदा हुई, जब वे कहते हैं कि विमान बनाने की तकनीक हमारे वेदों में मौजूद है, जब वे कहते हैं कि राम के नाम में इतनी महिमा है कि वानरों ने पत्थरों पर राम लिखकर समुद्र में डाले और वे तैरने लगे और इस तरह एक विशाल पुल हनुमान जी ने बनाया, जब वे कहते हैं कि उनके ऋषि-मुनि सर्वज्ञ थे, उन्हें वर्तमान, भूत और भविष्य सब पता रहता था, तो इसके पीछे उनका लक्ष्य हिन्दुओं को ऊर्जावान बनाने का होता है. उन्होंने मिथक के बल पर ही अयोध्या में रामलला के जन्म की कथा गढ़ी, और इतना बड़ा मन्दिर आन्दोलन खड़ा किया कि वे सत्ता में आ गये. वे समय-समय पर तमाम तरह के मिथक गढ़ते रहते हैं, कभी गणेश की प्रतिमा को दूध पिलवाते हैं, और रातोरात पूरा हिंदुत्व गणेश को दूध को पिलाने के लिए लाइन में खड़ा हो जाता है. वे पागल नहीं हैं, जो दुर्गा और पद्मावती के मिथकों को जिन्दा रखने के लिए हिंसक आन्दोलन खड़े करते हैं. वे इस तरह अपने विरोधियों—बहुजनों और मुस्लिमों के प्रति अपनी नफरत को जिन्दा रखते हैं.
दूसरी जो बात बहुजनों को समझनी है, जिसे अक्सर दलित बुद्धिजीवी समझना नहीं चाहते, वह यह है कि भारत में पूरे दलित आन्दोलन ने अपनी ऊर्जा मिथकों से ग्रहण की है. यह एक ऐसी सच्चाई है, जिसे नकारना दलित विमर्श के उद्भव और इतिहास को नकारना है. पहले मैं बाबासाहेब डा. आंबेडकर का संदर्भ देता हूँ. हिन्दू मिथकों को गढ़ने, उनके बल पर पूरे देश को हिंसा की आग में झोंकने का जो सबसे बड़ा कारखाना है, वह नागपुर में है. इस कारखाने का प्रमुख प्रतिवर्ष नागपुर के रामलीला मैदान में दशहरे के दिन हिन्दुओं को दिशानिर्देश जारी करता है, सारे हिन्दू मिथकों में उनकी आस्था को मजबूत करता है, और हिंदुत्व की रक्षा के लिए उन्हें उतिष्ठित-जागृत करता है. बाबासाहेब ने बौद्धधर्म की दीक्षा के लिए नागपुर को ही चुना, और दशहरे का ही दिन चुना. उन्होंने इसे सम्राट अशोक के ‘धम्म-विजय’ से जोड़ा और ‘विजय दशमी’ का नाम दिया. उन्होंने भारत में बौद्धधर्म के पुनरुद्धार का प्रवर्तन ही नहीं किया, बल्कि नये बौद्धों को 22 प्रतिज्ञाएँ भी करायीं, जो हिन्दू मिथकों में उनकी आस्था को खत्म करती हैं. यह तो बाबासाहेब के अंतिम समय की घटना है. लेकिन जब उन्होंने पिछली सदी के तीसवें दशक में ‘डायरेक्ट एक्शन मूवमेंट’ की शुरुआत की, जिसमें महाद और नासिक के सत्याग्रह शामिल थे, तो, उन्होंने गीता को अपना आधार बनाया था. उन्होंने कहा था कि जब अर्जुन ने कृष्ण से कहा कि रणभूमि में मेरे सामने मेरे ही भाई-बन्धु खड़े हैं, तो मैं इनसे कैसे लड़ सकता हूँ, तो कृष्ण ने कहा कि इन्हें इस दृष्टि से देखो कि ‘ये अन्यायी हैं, इन्होंने तुम्हारे अधिकारों को हड़पा है. न्याय के लिए इनसे युद्ध करना जरूरी है.’ बाबासाहेब ने कहा कि ‘अछूतों को भी हिन्दुओं से लड़ना होगा, क्योंकि उन्होंने भी अछूतों के साथ अन्याय किया है, उनके अधिकारों का दमन किया है.’ इस प्रकार बाबासाहेब ने हिन्दुओं के विरुद्ध हिन्दू मिथक को ही अपना हथियार बनाया.
यहाँ महात्मा फुले की ‘गुलामगिरी’ को भी ध्यान में रखना जरूरी है, जिसमें उन्होंने मिथकों को ही हथियार बनाया है. ब्राह्मणों ने अवतारवाद के जितने भी मिथक गढ़े थे, महात्मा फुले ने ‘गुलामगिरी’ में उन सबका वैज्ञानिक विश्लेषण किया है, जिसने बहुजन समाज को नये विमर्श की नई ऊर्जा दी है. हालाँकि बाबासाहेब ने आर्य थियरी का खंडन किया है, पर सवाल यह है कि ब्राह्मणवाद तो उसी पर टिका है. उसी के बल पर हिन्दू संस्कृति में ब्राह्मण सबका पूज्य और माईबाप बना हुआ है. इसलिए उसके प्रतिरोध में ‘गुलामगिरी’ महत्वपूर्ण है.
हिंदी क्षेत्र में, ख़ास तौर से उत्तरप्रदेश में दलित आन्दोलन को खड़ा करने वाले उद्भावकों में स्वामी अछूतानन्द, चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु और ललई सिंह सबसे प्रमुख थे. इनके द्वारा शम्बूक, एकलव्य और नाग यज्ञ पर नाटक लिखे गये नाटकों को पढ़कर ही ब्राह्मणवाद के खिलाफ दलितों में जागरण हुआ था. जिज्ञासु जी की किताबें— ‘ईश्वर और उनके गुड्डे’, ‘शिव तत्व प्रकाश’ तथा ‘रावण और उसकी लंका’ को पढ़कर ही मेरे जैसे व्यक्ति दलित लेखन में आए थे. उस दौर के बहुजन लेखकों ने हिन्दू मिथकों का जिस तरह प्रतिपक्ष रखा था, और जिस तरह उन्हें बहुजन आन्दोलन का हथियार बनाया था, हमने उसी से ऊर्जा ग्रहण की थी. उसी ने हमें चिंतक और लेखक बनाया था. हम मार्क्स को पढ़कर लेखक नहीं बने थे, मार्क्स उस समय तक हम तक पहुंचे भी नहीं थे. जब पहुंचे, तब भी वह हमारे लिए बहुत जटिल थे. भला हो, राहुल सांकृत्यायन का, जिनकी एक किताब ‘भागो नहीं, बदलो’ उसी दौर में पढ़ने को मिली, जिसने हमें वर्ग-संघर्ष से परिचित कराया. पर यह वह दौर था, जिसमें गरीबी नहीं, बेइज्जती अखरती थी. हम गरीब होने की वजह से नहीं, बल्कि, दलित होने की वजह से पीड़ित थे. क्या एकलव्य का अंगूठा उसकी गरीबी के कारण काटा गया था? क्या शम्बूक का सिर इसलिए काटा गया था कि वह गरीब था? क्या कर्ण का अपमान उसकी गरीबी की वजह से किया गया था? इनमें से किसी का भी जवाब हाँ में नहीं दिया जा सकता. इसलिए हिंदी पट्टी का सारा दलित आन्दोलन मिथकों के पुनर्पाठ से पैदा हुआ था. हिंदुत्व के विरुद्ध हमें इसी को प्रतिरोध का हथियार बनाना होगा.
[23/1/2018]Kanwal Bharti
. खाने की बर्बादी पर बात तो सही हे शमशाद साहब की मगर वही बात की आदर्श कोई भी हो चलना एक बहुत ही बड़ी सरदर्दी हे जो चले उसकी जिंदगी झंड हे मुझे भी खाने की बर्बादी बहुत ही खराब लगती हे इसी का नतीजा छह फुट के हिसाब से मेर आदर्श वजन अस्सी होना चाहिए मगर दस किलो एक्स्ट्रा हे इसकी बहुत ही बड़ी वजह एक ये भी हे की मुझसे खाने की बर्बादी बर्दाश्त नहीं होती हे इसी चक्कर में में फालतू भी खा लेते हे और बहुत नुकसान होता हे , अब या फालतू खाना या तो कूड़े में जाता हे या चोकर या चिडियो को यानी बर्बाद ही होता हे मगर और करे क्या भाई —? घरेलु कामगार भी आजकल खाने को इतना इच्छुक नहीं रहते हे पहले कामवाली चाय ब्रेड ले लेती थी अब वो भी नहीं लेती हे किसको ढूंढे —- ? फिर मेने देखा की गाडी साफ़ करने वाला का वजन होगा चालीस किलो उससे बात की तो वो फालतू खाना लेना को हामी तो भर गया मगर भाई बहुत सरदर्दी हे सुबह सुबह खाना रोटी ब्रेड इकठा करो उसे ढूंढो उसे दो फिर देना भी डिग्निटी के साथ पड़ता हे पैक करके यानी पहले मन में जगह दो फिर देखो फिर पैक करो ढूंढो दो अरे यार दिमाग घिसता हे इस सबमे एनर्जी घिसती हे लोहे के नहीं हे हम बहुत भेजा फ्राई हे असल में भारत में अच्छा बनना ही बेहद कठिन और मुश्किल होता जा रहा हे अच्छा होना आदर्शो पर चलना नरमदिली मेरे घर में दो दो अकाल मौत तक हो चुकी हे इन्ही आदर्शो और नेक होने के कारण ‘——————————————————————————————————————————————-‘Shamshad Elahee Shams
Yesterday at 10:26 · Brampton, ON, Canada ·
खाना बचाओ – मानव बचाओ !!!
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पच्चीस तीस साल पहले जब शहरी मध्यवर्ग के लौंडे लपाड़ों के साथ उठाना बैठना शुरू हुआ तब मैंने एक बात नोटिस की थी, चाय पीने के बाद वह कुछ चाय अपने कपों -गिलासों में छोड़ देते थे. खाने की प्लेट में खाना छोड़ देना भी उसी संस्कृति का अटूट हिस्सा थी. बाद में मैं जब दुबई में वर्षो रहा तब इस संस्कृति की मानो पराकाष्ठा देखी. अब कनाडा में हूँ तो यहाँ इस अपसंस्कृति की चरम सीमा देखता हूँ. यह संक्रामक रोग तमाम धर्मो , रंगों , जातियों, मुल्कों के लोगों में समान रूप से देख-देख कर तपता रहा हूँ.
दुनिया में १/३ खाना बर्बाद होकर कूड़े के ढेरो का हिस्सा बन जाता है, और इसी दुनिया में करीब ७९५ मिलियन लोग इस वक्त खाने के लिए तरस रहे हैं (नीचे एक लिंक दे रहा हूँ, दो चार मिनट देखिये कि हर सैकिंड दुनिया में भूख से मरते लोगो की गिनती चल रही है)
भारत में ४०% खाने की बर्बादी अमेरिका के बराबर है, हर साल जाहिल लोग ७५० अरब डालर का खाना कूड़े में डाल देते हैं. भारत में ६७ मिलियन टन खाना (रु० ९२,००० करोड़ मूल्य का )आपके घरों, होटलों, विवाह मंडपों आदि से कूड़े में पहुँच जाता है. याद रहे ब्रिटेन का कुल खाद्य उत्पादन इतना ही है जितना भारत में कूड़ा बन जाता है. यह वही भारत है जिसका ग्लोबल हंगर इंडेक्स (११९ देशो की सूची) में १०० वा नंबर है ३१.४ स्कोर के साथ. घाना , नाइजीरिया उत्तर कोरिया, बंगलादेश, श्रीलंका आदि की स्तिथि भारत से बेहतर है. इस सूची में चीन २९ वे स्थान पर ७.५ स्कोर के साथ है.
खाना बर्बाद करने वाला इंसान मुझे इंसान नहीं लगता, यह मानव द्रोही कृत है. हमारे आफिस में हर सप्ताह खाने की बेहुरमती होती थी. मेरे रहते यह बंद हो चुकी. मैं बचा हुआ खाना फख्र के साथ घर ले आता हूँ और अपने परिवार के साथ बैठ कर खाता भी हूँ. अर्थशास्त्र पढ़ा है, समझा है और जी भी रहा हूँ. खाने की बर्बादी रोकें -मांग कम होगी, कीमते कम होंगी और उन भूखे पेटों को पेट भर खाना मिल सकेगा जो जरुरत के मुताबिक खरीद नहीं पाते. तुम्हारी जहनी बीमारी के कारण लाखो लोग भूखे मर रहे हैं, खाना फेंकने वाला भूखो का हत्यारा है, जालिम, बेहया, जाहिल और नामुराद भी है.
और हाँ एक बात और बता दूं, १ किलो खाना कूड़े के ढेर पर पड़ा ४ किलो मीथेन गैस बनाती है जो ओज़ोन लेयर में छेद करने में हथौड़े जैसा काम हर पल कर रही है.
जो खाना फेंके – उस पर हज़ार लानतें !!! ” Shamshad Elahee Shams
मतलब हम गरीबो के पीछे खाना लेकर फिरे इकक्ठा करे उन्हें दे इसके लिए बहुत कुछ ऊर्जा देनी पड़ेगी यानी हम अच्छे इंसान हे और अपनी ऊर्जा इंसानियत में लगाते हे और इंसानियत के सेकड़ो मुद्दे हे भारत में तो हज़ारो हे जिनमे हमारी एनर्जी बुरी तरह घिसती हे नतीजा हम अच्छे लोग हर जगह बुरी तरह पिछड़ते जा रहे हे और हर फिल्ड में आपको मोदी जैसे लोग आगे बढ़ते और सर पर चढ़ते नज़र आएंगे हर जगह ये मोदी आपको मिलेंगे ये ही लोग आज तरक्की पर हे ये किसी की परवाह नहीं करते हे इनकी तरफ से कोई मरे जिए इन्हे परवाह नहीं हे मोदी को तो अपने परिवार की भी परवाह नहीं थी दूसरे ”मोदी ” लोग समाज इंसानियत रिश्ते दोस्ती किसी की परवाह नहीं करते हे नतीजे में इनकी एकाग्रता ज़बर्दस्त होती हे इनकी सारी ऊर्जा खुद को आगे बढ़ाने में लगती हे तो ये आगे बढ्रते जा रहे हे और हम लोग अपनी इंसानियत के बोझ तले बुरी तरह दबते जा रहे हे हमारे ये अंजाम देख कर दूसरे लोग भी सतर्क हो रहे हे और वो भी मोदी बन रहे हे
Amaresh Misra
16 hrs ·
कासगंज, एटा…
A MUSLIM IS ALSO INJURED! IF A MUSLIM IS INJURED THEN WHO STARTED THE FIRING?
WHO FIRED TO KILL CHANDAN IN KASGANJ?
ITS A BIG CONSPIRACY…MY SOURCES ARE ON THE GROUND…
एक मुस्लिम भी घायल हुआ है!
कासगंज में जो गोली चन्दन को लगी वी किसने चलाई?
POLICE IS UNABLE TO SAY ANYTHING…PRO-JUSTICE SECTION OF THE ADMINISTRATION IS NOT SAYING FIRING STARTED FROM MUSLIMS!
KALYAN SINGH’S SON, THE BJP MP FROM ETAH, IS DIRECTLY INVOLVED!
एटा का MP कल्याण सिंह का बेटा है। MP ने खुद जाकर, सारे BJP MLAs के साथ, खुद दंगा करवाया है। पूर्व पुलिस अधिकारी भड़काऊ बयान दे रहें हैं।
सीधे RSS पर हमला करो। कहो RSS की साज़िश विफल हो गयी है। कहो हिन्दू मुस्लिम एकता ज़िन्दबाद। वर्ना बड़ी बुरी हालत है। तुम लोग समझ क्यों नही रहे?
SAY HINDU-MUSLIM UNITY ZINDABAAD!Amaresh Misra added 4 new photos.
12 hrs ·
TIMELINE…
BLOW BY BLOW ACCOUNT OF WHAT REALLY HAPPENED AT KASGANJ?
कासगंज की सच्चाई क्या है?
LIKE OTHER PATRIOTIC INDIANS, MUSLIMS WERE CELEBRATING REPUBLIC DAY. SANGHI GOONS WERE FORCING THEM TO HOIST A SAFFRON FLAG!
CHANDAN GUPTA WAS KILLED BY SANGHIS!
1. Muslims of Kasganj were celebrating Republic day on 26th January through a Indian national flag hoisting program AT VEER ABDUL HAMID TRI-CROSSING…Veer Abdul Hamid is the Parmaveer Chakra decorated martyr from Ghazipur, UP, who demolished several Pakistani Patton Tanks during the 1965 Indo-Pak war.
2. SO MUSLIMS WERE HOISTING THE NATIONAL FLAG.
3. Veer Abdul Hamid tri-crossing is located at the heart of a locality where Muslims and Hindus have been living peacefully for generations.
4. While Muslims were hoisting the tri-colour flag, a group of goons/boys suddenly tried gate-crashing the event. These goons/boys WERE NOT CONDUCTING A TIRANGA YATRA. You can see in PIC 1 that the goons/boys, ostensibly from ABVP or Bajrang Dal, WERE CARRYING A SAFFRON FLAG.
5. Muslims requested these goons/boys to join their program and celebrate Republic Day together. But the goons/boys BEGAN TEARING UP THE INDIAN NATIONAL FLAG. You can see in PIC 2 that the spot where Muslims were hoisting the Indian tri-color is blank. So-called ABVP goons/boys UPROOTED EVEN THE STAND ON WHICH MUSLIMS HAD HOISTED THE TRI-COLOUR.
6. Muslims of the locality tried to reason with these boys WHO WERE OUTSIDERS!
7. WHAT DID THESE GOONS/BOYS WANT? THEY WANTED MUSLIMS TO TEAR DOWN THE INDIAN NATIONAL FLAG–AND HOIST THE BJP–RSS SAFFRON FLAG!
8. MUSLIMS REFUSED TO DISHONOUR THE NATIONAL FLAG. THEY REFUSED TO HOIST THE SAFFRON FLAG.
9. At this, the goons/boys got violent. They slapped an elderly Muslim. There was a scuffle. Then the boys started abusing Muslims. THERE WAS HARDLY ANY TALK OF VANDE MATRAM!
10. THE SLOGAN raised by the goons/boys was–‘HINDI-HINDU-HINDUSTAN, K***E BHAAGO PAKISTAN!
11. There was a scuffle. The boys slapped an elderly Muslim man.
12. Then, fearing retaliation, LEAVING BEHIND THEIR BIKES, the goons/boys left the place.
13. SO, VIOLENCE DID NOT TAKE PLACE AT VEER ABDUL HAMID TRI-CROSSING.
14. After moving a considerable distance from the place of the scuffle, the goons/boys were JOINED BY ANOTHER team.
15. This other team and the goons/boys then began attacking Muslim Thelas, torching trucks at BILRAM CROSSING.
16. This group also attacked and looted Muslim shops.
17. This group had arms–they were firing in the air
…IT WAS AT THIS POINT THAT CHANDAN GUPTA, WHO WAS PART OF THE GROUP, WAS HIT BY A BULLLET!
18. CHANDAN GUPTA DIED IN ‘FRIENDLY FIRE’. Then the group shot Naushad, a Muslim!
19. Before that on 26th January morning, a Muslim man driving in from Aligarh to Kasganj, was brutally beaten up by a RSS mob (PIC 4).
20. The saffron flag which the group was trying to hoist, is still there at Veer Abdul Hamid Chowk (Pic 3)!Sheetal P Singh shared India Dialogue’s post.
10 hrs ·
India Dialogue
10 hrs ·
बीजेपी अकेली ऐसी पार्टी है जिसकी राज्य सरकारें दंगों से प्रसन्न होती हैं । हरियाणा में जाट बनाम सैनी एंड अदर्स हो चुका है फिर राम रहीम से एक नया ट्रेलर चलवाया और आजकल करणी सेना बनाम पबलिक चल रहा है । खट्टर प्रसन्न कि किसी राजनैतिक वायदे पर सवाल करने वाला कोई नहीं ।
यूपी ने कासगंज कर लिया । अब बीजेपी के सांसद विधायक पार्षद और तमाम क़िस्म के हिंदू संगठनों के तहख़ाने में सड़ रहे नेता नेती कासगंज की ओर ! अब योगी से कौन पूंछेगा कि महोदय गेहूँ की खेती को आवारा पशु चर ले रहे हैं और नई नस्ल बेरोज़गारी से आवारा पशु बन रही है ?
यूपी में दो लोकसभा सीटें लगभग दस महीने से ख़ाली हैं । यह दंगा उनमें राजनैतिक शून्य को सांप्रदायिक बंटवारे की खाद पहुँचायेगा । राजस्थान के उपचुनाव में सरकार के मंत्री सांसद विधायकों के टेप पर भाषण मौजूद हैं कि मुसलमान कांग्रेस को और हिंदू बीजेपी को वोट करें ।
सुप्रीम कोर्ट तक के ढह जाने के बाद अब यही सब देखने को देश अभिशप्त है ।Sheetal P Singh
11 hrs · New Delhi ·
अंशुमान तिवारी , संपादक इंडिया टुडे का कहना है कि गर बवाल न हुआ होता तो पद्मावत / पद्मावती फ्लाप फ़िल्मों में दर्ज हो जाती । सभी पैमानों पर एक बकवास फ़िल्म ।पर अब यह ऐतिहासिक ब्लाकबस्टर बनने की तरफ़ है !
प्रमोशन का नया फ़ंडा Sheetal P Singh
13 hrs ·
अभी अभी
न्यूज़ 24 पर RSS के राकेश सिन्हा ने कहा कि “हिंदुओं को सिर्फ पंद्रह सेकेंड लगेंगे मुसलमानों को साफ़………में ! वे एंकर मानक गुप्ता को संबोधित कर रहे थे । उन्होंने AIMIM के वकार अहमद को निशाने पर लिया हुआ था !
उन्होंने छोटे ओवैसी के बदनाम बयान का संदर्भ लिया था जिसमें उन्होंने पंद्रह मिनट माँगे थे और इसकी क़ीमत उन्हे जेल जाकर चुकानी पड़ी थी ।
एंकर मानक गुप्ता यह सुनकर सकते में आ गये “आपसे यह उम्मीद नहीं थी राकेश जी “ , वे बोले और राकेश सिन्हा ने एक घुटे संघी की तरह अपने कहे को अनकहा कह दिया !
यह बहुत गंभीर बात है । खुलेआम दंगा भड़काया जा रहा है नेशनल चैनल पर और हम बेबस !Urmilesh Urmil
19 hrs ·
स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे मौके पर भी अब ये दंगा मचाने लगे हैं। कल देश के अनेक स्थानों पर कुछ लोगों को मोटरसाइकिलों पर तिरंगा लेकर विद्वेषपूर्ण नारेबाजी करते देखा गया। जब आज़ादी और गणतंत्र के लिए लड़ना था तब भी इनके पूर्वज समाज का ताना-बाना बिगाड़ने और दंगा-फसाद कराने में लगे रहते थे। आज भी वही सिलसिला जारी है! अरे भाई, इस तिरंगे को क्यों बदनाम करते हो? प्लीज़, इसे दंगे-फसाद के लिए इस्तेमाल मत करो!Urmilesh Urmil
Yesterday at 08:29 ·
‘आप’ वाले बीच-बीच में तमाम तरह के ग़लत फैसले और मूर्खताएं भी करते रहते हैं पर धीरे-धीरे उनमें कुछ राजनीतिक-प्रौढ़ता भी आ रही है। दिल्ली विधानसभा की गैलरी में में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़ने वाले अनेक महान् योद्धाओं और नेताओं के कुल 70 चित्र लगे हैं। उनमें एक चित्र महान् योद्धा टीपू सुल्तान का भी है। इसे लगाने के विरुद्ध जब भाजपाई नेताओं ने आपत्ति जताई तो पार्टी प्रवक्ता सौरभ भारद्वाज ने भाजपा विधायकों-नेताओं से विनम्रतापूर्वक कहा, ‘ विधानसभा गैलरी में ब्रिटिश हुकूमत से लड़ने वाले योद्धाओं के चित्र लगते हैं। भाजपा-आरएसएस जैसे संगठनों के ऐसे तत्कालीन कुछ योद्धाओं के नाम भेजिए, हम उनके चित्र भी लगवायेंगे!’ यह प्रस्ताव दिए कई दिन हो गए पर भाजपा वाले अभी तक ऐसे लोगों के नाम की सूची लेकर नहीं आ सके!Kanwal Bharti
25 January at 21:36 ·
भाजपा शासित राज्यों में हिन्दू हिंसा, यानी हिन्दू आतंकवाद के पीछे आरएसएस का हाथ है. जब तक आरएसएस चाहेगा, यह आतंकवाद सड़कों पर तांडव करेगा. किसी भाजपा सरकार की हिम्मत नहीं है, जो इसे रोक ले. यह तभी रुकेगा, जब आरएसएस का इशारा होगा. आरएसएस का इशारा मिलते ही यह गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो जायेगा.Haider Rizvi
13 mins ·
इस लगातार बदलते माहौल में में मुसलमानो से सिर्फ़ इतना ही कहना चाहूँगा कि अपनी ज़ुबान और बंदूक़ दोनो को क़ाबू में रखें….
दोनो ग़लत जगह चल गयी तो इतिहास झट से पलट दिया जाएगा कि, मोदी जी तो विकास किए पड़े थे मुसलमानो ने ही गाली या गोली किया सहारा लेलिया….
एक झटके के बदले की कोई अहमियत नहीं होती, बदला तो तब है जब इतिहास ख़ुद उठ कर बदला ले और आपको न्याय दे….Himanshu Kumar संघ तो इसी इंतजार में बैठा है कि कैसे मुसलमानों की जरा सी गलती दिखा कर उनके खिलाफ भयानक हिंसा करी जा सके जिसमें सरकारी सुरक्षाबलों का इस्तेमाल करके लंबे समय तक के लिए खौफ बैठाया जा सके
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Haider Rizvi
Haider Rizvi कससगंज में कर दी न इन्होंने वही मूर्खता
Jagadishwar Chaturvedi
10 hrs ·
त्रिपुरा में वाम मोर्चे की विजय तय है –
कम्युनिस्टों का जिन राज्यों में सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव रहा है वहां पर दलितों -अल्पसंख्यकों के ऊपर हमलों की घटनाएं बहुत कम हुई हैं,यह संयोग नहीं है,बल्कि कम्युनिस्ट राजनीतिक सच्चाई है कि वंचितों को ऊँचा सिर करके जीने में उनसे मदद मिली है।
मैं कोलकाता में 27साल से अछूतकन्या के हाथ का खाना खा चुका हूँ,वही सब कामकाज करती थी,उसकी वजह से मैं निश्चिंत होकर लिख-पढ़ पाया ,लेकिन मैंने उसकी भाव-भंगिमा-भाषा-नजरिए आदि में कभी दलितचेतना के दर्शन नहीं पाए,वह हमेशा मजदूरों की भाषा में बेहद सजगभाव से बोलती थी,बहुत साफ समझ रखती थी,वह एकदम अनपढ़ थी,लेकिन सैंकड़ों कविताएं और लोकगीत उसे कंठस्थ थे।बेहद तकलीफ में रहती थी लेकिन हमेशा खुश नजर आती ,बेहद स्वाभिमानी और विनम्र ।
वह लालझंड़े की समर्थक थी,उसके पास मजदूरों की चेतना और हकों की सटीक समझ है,वह बेहद विनम्र है।
तकरीबन अछूतों का अधिकांश हिस्सा बंगाल में अछूतों की तरह नहीं मनुष्यों की तरह सोचता है,यह सब बनाने में कम्युनिस्टों के संघर्षों की बड़ी भूमिका रही है।बंगाल,केरल और त्रिपुरा में दलित सबसे ज्यादा सुरक्षित हैं और सम्मान की जिंदगी जीते हैं।
दलित अपनी मौजूदा बदहाल और शोषित अवस्था से मुक्त हों यह कम्युनिस्टों का सपना रहा है। दलित यदि जातिचेतना में बंधा रहेगा तो वह कभी जातिभेद के चक्रव्यूह से निकल नहीं पाएगा। दलितों के नाम पर आरक्षण एक सीमा तक दलितों की मदद करता है लेकिन दलितचेतना से मुक्त नहीं करता।
कम्युनिस्टों ने हमेशा लोकतांत्रिकचेतना के विकास पर जोर दिया है, इस समय दलितों का बडा तबका लोकतांत्रिक हक के रूप में आरक्षण तो चाहता है लेकिन लोकतांत्रिकचेतना से लैस करना नहीं चाहता,वे आरक्षण और जातिचेतना के कुचक्र में फंसे हैं। कम्युनिस्ट चाहते हैं दलितों के लोकतांत्रिक हक, जिसमें आरक्षण भी शामिल है, न्यायबोध,समानता और लोकतंत्र भी शामिल है।इनके साथ जातिचेतना की जगह लोकतांत्रिक चेतना पैदा करने और दलित मनुष्य की बजाय लोकतांत्रिकमनुष्य बनाने पर कम्युनिस्टों का मुख्य जोर है, यही वह बिंदु है जहां तमाम किस्म के बुर्जुआदलों और चिंतकों से कम्युनिस्टों के नजरिए का अंतर है।
सामाजिक परिवर्तन के सपने देखना सामाजिक परिवर्तन के लिए बेहद जरुरी है। जो व्यक्ति परिवर्तन का सपना नहीं देख सकता समझो उसका दिमाग ठहर गया है।जड़ ।दिमाग परिवर्तन के सपने नहीं देखता। डरपोक लोग दुःस्वप्न देखते हैं।
वामदलों की बहुत बड़ी भूमिका यह रही है कि उन्होंने आम जनता में सामाजिक परिवर्तन के विचार को यथाशक्ति जनप्रिय बनाया है। क्रांति,बदलाव,सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक न्याय, सामाजिक समानता आदि के तमाम नारों का स्रोत क्रांति का सपना रहा है।
क्रांति का मतलब हिंसा या अन्य के प्रति घृणा नहीं है। बल्कि इसका अर्थ है व्यक्ति के द्वारा व्यक्ति के शोषण का खात्मा। यह भावना हम सबमें होनी चाहिए। इस भावना से प्रेरित होकर ही हम अपने दैनंदिन जीवन के फैसले लें। हम जान लें त्रिपुरा में वाम मोर्चा फिर से चुनाव जीतने जारहऊआ रहा है और यह बात जितनी सफाई के साथ समझेंगे अपने हितों की उतनी ही स्पष्टता के साथ रक्षा कर पाएंगे।मजदूरों-किसानों-मध्यवर्ग के हितों के वे सच्चे रखवाले हैं।Jagadishwar Chaturvedi
11 hrs ·
मोदीजी संसद में आज गुस्से में बोले!पीएम यदि गुस्से में है तो समझो जनता से उसका विश्वास उठ रहा है। राष्ट्रपति जी ने अपने अभिभाषण में ऐसा कुछ नहीं बोला था जिस पर विपक्ष हमलावर होता। विपक्ष तो संसद में हाशिए के बाहर खड़ा है ,फिर मोदी जी को अभिभाषण का उत्तर देते समय इतना गुस्सा क्यों आया ?
आमतौर पर विपक्ष जिन आरोपों या सवालों को उठाता है उनका पीएम जवाब देते हैं,लेकिन पीएम ने तो विपक्ष के उठाए सवालों के अपने भाषण में उत्तर न देकर तमाम किस्म की ऊल-जलूल बातें कहीं।
असल में पीएम आहत हैं राजस्थान की जनता की मार से ,उनके हाथ से जाट और दूसरी जातियों की डोर निकल चुकी है, विकास ठप्प हो गया है, देशी-विदेशी कोई भी उद्योगपति चार साल में कारखाना लगाने नहीं आया,स्कील डेवलपमेंट के लिए हाथ-पैर मारने के बावजूद ट्रेंड लोग दर-दर बेकार घूम रहे हैं।
आठ करोड लोगों को अब तक मोदी जी नौकरी देने वाले थे लेकिन अचानक नौकरियां गायब हो गयीं ,यही वजह है जिसके कारण मोदीजी गुस्से और कुंठाग्रस्त होकर संसद में बोल रहे थे,उनका पूरा भाषण सफेद झूठ के पुलिंदे के अलावा कुछ नहीं है। झूठ बोलने के कारण वे अनेक भूलें कर बैठे।Jagadishwar Chaturvedi
10 hrs ·
मथुरा के बाद जिस शहर ने मेरा मन जीता वह है कोलकाता।तमाम निजी परेशानियों के बावजूद मैं इस शहर को बहुत पसंद करता हूँ,यहां के रहने वालों,खासकर बंगाली जाति के प्रेम,आदरभरी भाषा और सभ्यता के उत्कर्ष का हृदय से कायल हूँ। मुझे यदि निष्पक्ष कहने को कहा जाए तो यही कहूँगा कलकत्ते जैसा सहज,सामान्य शहर होना दुर्लभ है।सबसमय मीठी भाषा,उसमें डूबी हुई आम बंगाली सभ्यता,उसमें छिपी बंगाली जाति की कमजोरियां,ह्रासशील प्रवृत्तियां,मनमौजीपन,टेबूरहित माहौल और सबसे बेहतरीन तत्व अबाधित जीवन जीने का शांत माहौल मुझे बहुत अपील करता है,कलकत्ते में न आया होता तो बड़े शहर की मानवीयता का अनुभव न कर पाता।कलकत्ते में चलते-फिरते मानुषगंध को महसूस कर सकते हैं।Jagadishwar Chaturvedi
58 mins ·
त्रिपुरा में भाजपा ने पीएम से लेकर केन्द्रीय मंत्रियों-मुख्यमंत्रियों की फौज को झोंक दिया है।एक छोटे राज्य में इतनी संख्या में भाजपा नेता नहीं हैं जितनी बड़ी संख्या में वहां भाजपा नेता बाहर से भाषण करने जा रहे हैं।
आज पीएम भी त्रिपुरा में झूठ बोलने जा रहे हैं।आओ हम सब मिलकर उनके झूठ को बेनकाब करें।————————————————–(समयांतर के अप्रैल अंक से साभार )-धीरेश सैनी माणिक सरकार को आप कितना जानते हैं?
JUL 10, 2017 0
” दरअसल, मणिक सरकार पिछले साल विधानसभा चुनाव में अपने नामांकन के बाद अचानक देश भर के अखबारों में चर्चा में आ गए थे। नामांकन के दौरान उन्होंने अपनी सम्पत्ति का जो हलफनामा दाखिल किया था, उसे एक राष्ट्रीय न्यूज एजेंसी ने फ्लेश कर दिया था। जो शख्स 1998 से लगातार मुख्यमंत्री हो, उसकी निजी चल-अचल संपत्ति अढ़ाई लाख रुपये से भी कम हो, यह बात सियासत के भ्रष्ट कारनामों में साझीदार बने मीडिया के लोगों के लिए भी हैरत की बात थी ”मेरी दिलचस्पी त्रिपुरा के मुख्यमंत्री मणिक सरकार (बांग्ला डायलेक्ट के लिहाज से मानिक सरकार) के बजाय उनकी पत्नी पांचाली भट्टाचार्य से मिलने में थी। मैंने सोचा कि निजी जीवन के बारे में `पॉलिटिकली करेक्ट` रहने की चिंता किए बिना वे ज्यादा सहज ढंग से बातचीत कर सकती हैं, दूसरे यह भी पता चल सकता है कि एक कम्युनिस्ट नेता और कड़े ईमानदार व्यक्ति के साथ ज़िंदगी बिताने में उन पर क्या बीती होगी। पर वे मेरी उम्मीदों से कहीं ज्यादा सहज और प्रतिबद्ध थीं, मुख्यमंत्री आवास में रहने के जरा भी दंभ से दूर। बातचीत में जिक्र आने तक आप यह भी अनुमान नहीं लगा सकेंगे कि वे केंद्र सरकार के एक महकमे सेंट्रल सोशल वेलफेयर बोर्ड के सेक्रेट्री पद से रिटायर हुई महिला हैं।
फौरन तो मुझे हैरानी ही हुई कि एक वॉशिंग मशीन खरीद लेने भर से वे अपराध बोध का शिकार हुई जा रही हैं। मैंने एक अंग्रेजी अखबार की एक पुरानी खबर के आधार पर उनसे जिक्र किया था कि मुख्यमंत्री अपने कपड़े खुद धोते हैं तो उन्होंने कहा कि जूते खुद पॉलिश करते हैं, पहले कपड़े भी नियमित रूप से खुद ही धोते थे पर अब नहीं। वे 65 साल के हो गए हैं, उनकी एंजियोप्लास्टी हो चुकी है, बायपास सर्जरी भी हुई, ऊपर से भागदौड़, मीटिंगों, फाइलों आदि से भरी बेहद व्यस्त दिनचर्या। पांचाली ने बताया कि दिल्ली में रह रहे बड़े भाई का अचानक देहांत होने पर मैं दिल्ली गई थी तो भाभी ने जोर देकर वादा ले लिया था कि अब वॉशिंग मशीन खरीद लो। लौटकर मैंने माणिक सरकार से कहा तो वे राजी नहीं हुए। मैंने समझाया कि हम दोनों के लिए ही अब खुद अपने कपड़े धोना स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक नहीं है तो उन्होंने पैसे तय कर किसी आदमी से इस काम में मदद लेने का सुझाव दिया। कई दिनों की बहस के बाद उन्होंने कहा कि तुम तय ही कर चुकी हो तो सलाह क्यों लेती हो।सीएम आवास के कैम्प आफिस के एक अफसर से मैंने हैरानी जताई कि क्या मुख्यमंत्री के कपड़े धोने के लिए सरकारी धोबी की व्यवस्था नहीं है तो उसने कहा कि यह इस दंपती की नैतिकता से जुड़ा मामला है। मणिक सरकार ने मुख्यमंत्री आवास में आते ही अपनी पत्नी को सुझाव दिया था कि रहने के कमरे का किराया, टेलिफोन, बिजली आदि पर हमारा कोई पैसा खर्च नहीं होगा तो तुम्हें अपने वेतन से योगदान कर इस सरकारी खर्च को कुछ कम करना चाहिए। और रसोई गैस सिलेंडर, लॉन्ड्री (सरकारी आवास के परदे व दूसरे कपड़ों की धुवाई) व दूसरे कई खर्च वे अपने वेतन से वहन करने लगीं, अब वे यह खर्च अपनी पेंशन से उठाती हैं।मैंने बताया कि एक मुख्यमंत्री की पत्नी का रिक्शा से या पैदल बाज़ार निकल जाना, खुद सब्जी वगैरहा खरीदना जैसी बातें हिंदी अखबारों में भी छपी हैं। यहां के लोगों को तो आप दोनों की जीवन-शैली अब इतना हैरान नहीं करती पर बाहर के लोगों में ऐसी खबरें हैरानी पैदा करती हैं। उन्होंने कहा कि साधारण जीवन और ईमानदारी में आनंद है। मैंने तो हमेशा यही सोचा कि मणिक मुख्यमंत्री नहीं रहेंगे तो ये स्टेटस-प्रोटोकोल आदि छूटेंगे ही, तो इन्हें पकड़ना ही क्यों। मैं नहीं चाहती थी कि मेरी वजह से मेरे पति पर कोई उंगली उठे। मेरा दफ्तर पास ही था सो पैदल जाती रही, कभी जल्दी हुई तो रिक्शा ले लिया। सेक्रेट्री पद पर पहुंचने पर जो सरकारी गाड़ी मिली, उसे दूर-दराज के इलाकों के सरकारी दौरों में तो इस्तेमाल किया पर दफ्तर जाने-आने के लिए नहीं। सरकारी नौकरी से रिटायरमेंट के बाद अब सीआईटीयू में महिलाओं के बीच काम करते हुए बाहर रुकना पड़ता है। आशा वर्कर्स के साथ सोती हूं तो उन्हें यह देखकर अच्छा लगता है कि सीएम की पत्नी उनकी तरह ही रहती है। एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता के लिए नैतिकता बड़ा मूल्य है और एक नेता के लिए तो और भी ज्यादा। मात्र 10 प्रतिशत लोगों को फायदा पहुंचाने वाली नई आर्थिक नीतियों और उनसे पैदा हो रहे लालच व भ्रष्टाचार से लड़ाई के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता और उससे मिलने वाली नैतिक शक्ति सबसे जरूरी चीजें हैं।दरअसल, मणिक सरकार पिछले साल विधानसभा चुनाव में अपने नामांकन के बाद अचानक देश भर के अखबारों में चर्चा में आ गए थे। नामांकन के दौरान उन्होंने अपनी सम्पत्ति का जो हलफनामा दाखिल किया था, उसे एक राष्ट्रीय न्यूज एजेंसी ने फ्लेश कर दिया था। जो शख्स 1998 से लगातार मुख्यमंत्री हो, उसकी निजी चल-अचल संपत्ति अढ़ाई लाख रुपये से भी कम हो, यह बात सियासत के भ्रष्ट कारनामों में साझीदार बने मीडिया के लोगों के लिए भी हैरत की बात थी। करीब अढ़ाई लाख रुपये की इस सम्पत्ति में उनकी मां अंजलि सरकार से उन्हें मिले एक टिन शेड़ के घर की करीब 2 लाख 22 हजार रुपये कीमत भी शामिल है। हालांकि, यह मकान भी वे परिवार के दूसरे सदस्यों के लिए ही छोड़ चुके हैं। इस दंपती के पास न अपना घर है, न कार। कम्युनिस्ट नेताओं को लेकर अक्सर उपेक्षा या दुष्प्रचार करने वाले अखबारों ने `देश का सबसे गरीब मुख्यमंत्री` शीर्षक से उनकी संपत्ति का ब्यौरा प्रकाशित किया। किसी मुख्यमंत्री का वेतन महज 9200 रुपये मासिक (शायद देश में किसी मुख्यमंत्री का सबसे कम वेतन) हो, जिसे वह अपनी पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी (माकपा) को दे देता हो और पार्टी उसे पांच हजार रुपये महीना गुजारा भत्ता देती हो, उसका अपना बैंक बेलेंस 10 हजार रुपये से भी कम हो और उसे लगता हो कि उसकी पत्नी की पेंशन और फंड आदि की जमाराशि उनके भविष्य के लिए पर्याप्त से अधिक ही होगी, तो त्रिपुरा से बाहर की जनता का चकित होना स्वाभाविक ही है।हालांकि, संसदीय राजनीति में लम्बी पारी के बावजूद लेफ्ट पार्टियों के नेताओं की छवि अभी तक कमोबेश साफ-सुथरी ही ही रहती आई है। त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और केरल की लेफ्ट सरकारों में मुख्यमंत्री रहे या केंद्र की साझा सरकारों में मंत्री रहे लेफ्ट के दूसरे नेता भी काजल की इस कोठरी से बेदाग ही निकले हैं। लेफ्ट पार्टियों ने इसे कभी मुद्दा बनाकर अपने नेताओं की छवि का प्रोजेक्शन करने की कोशिश भी कभी नहीं की। मणिक सरकार से उनकी साधारण जीवन-शैली और `सबसे गरीब मुख्यमंत्री` के `खिताब` के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि मेरी पार्टी और विचारधारा मुझे यही सिखाती है। मैं ऐसा नहीं करुंगा तो मेरे भीतर क्षय शुरू होगा और यह पतन की शुरुआत होगी। इसी समय केंद्र की कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार भ्रष्टाचार के लिए अभूतपूर्व बदनामी हासिल कर चुकी थी और उसकी जगह लेने के लिए बेताब भारतीय जनता पार्टी केंद्र में अपनी पूर्व में रही सरकार के दौरान हुए भयंकर घोटालों और अपनी पार्टी की राज्य सरकारों के मौजूदा कारनामों पर शर्मिंदा हुए बगैर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश को स्वच्छ व मजबूत सरकार देने का वादा कर रही थी। अल्पसंख्यकों की सामूहिक हत्याओं और अडानी-अंबानी आदि घरानों पर सरकारी सम्पत्तियों व सरकारी पैसे की बौछार में अव्वल लेकिन आम-गरीब आदमी के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण आदि मसलों पर फिसड्डी गुजरात को विकास का मॉडल और इस आधार पर खुद को देश का भावी मजबूत प्रधानमंत्री बताते घूम रहे नरेंद्र मोदी की शानो शौकत भरी जीवन-शैली के बरक्स मणिक सरकार की `सबसे गरीब-ईमानदार मुख्यमंत्री की छवि` वाली अखबारी कतरनों ने विकल्प की तलाश में बेचैन तबके को भी आकर्षित किया जिसने इन कतरनों को सोशल मीडिया पर जमकर शेयर किया। हालांकि, ये कतरनें मणिक सरकार की व्यक्तिगत ईमानदारी के तथ्यों को जरा और मिथकीय बनाकर तो पेश करती थीं पर इनमें भयंकर आतंकवाद, आदिवासी बनाम बंगाली संघर्ष व घोर आर्थिक संकट से जूझ रहे पूरी तरह संसाधनविहीन अति-पिछड़े राज्य को जनपक्षीय विकास व शांति के रास्ते पर ले जाने की उनकी नीतियों की कोई झलक नहीं मिलती थी। लोकसभा चुनाव में जाने से पहले माकपा का शीर्ष नेतृत्व सेंट्रल कमेटी की मीटिंग के लिए अगरतला में जुटा तो उसने प्रेस कॉन्फ्रेंस और सार्वजनिक सभा में त्रिपुरा के विकास के मॉडल को देश के विकास के लिए आदर्श बताते हुए कॉरपोरेट की राह में बिछी यूपीए, एनडीए आदि की जनविरोधी आर्थिक नीतियों की कड़ी आलोचना की। दरअसल, मणिक सरकार और त्रिपुरा की उनके नेतृत्व वाली माकपा सरकार की उपलब्धियां उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी की तरह ही उल्लेखनीय हैं लेकिन उनका जिक्र कॉरपोरेट मीडिया की नीतियों के अनुकूल नहीं पड़ता है।लेकिन, भ्रष्टाचार में डूबे नेताओं के लिए मणिक सरकार की ईमानदारी को लेकर छपी छुटपुट खबरों से ही अपमान महसूस करना स्वाभाविक था। गुजरात के मुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव के प्रचार अभियान के सिलसिले में अगरतला आए तो वे विशाल अस्तबल मैदान (स्वामी विवेकानंद मैदान) में जमा तीन-चार हजार लोगों को संबोधित करते हुए अपनी बौखलाहट रोक नहीं पाए। उन्होंने कहा कि कम्युनिस्ट खुद को ज्यादा ही ईमानदार समझते हैं और इसका खूब हल्ला करते हैं। उन्होंने गुजरात के विकास की डींग हांकते हुए रबर की खेती और विकास के सब्जबाग दिखाते हुए कमयुनिस्टों को त्रिपुरा की सत्ता से बाहर कर कमल खिलाने का आह्वान किया। लेकिन, उनका मुख्य जोर बांग्लादेश सीमा से लगे इस संवेदनशील राज्य में साम्प्रदायिक भावनाएं भड़काने और तनाव की राजनीति पर जोर देने पर रहा। उन्होंने कहा कि त्रिपुरा में बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण खतरा पैदा हो गया है जबकि गुजरात से सटा पाकिस्तान मुझसे थर्राता रहता है। झूठ और उन्माद फैलाने के तमाम रेकॉर्ड अपने नाम कर चुके मोदी को शायद मालूम नहीं था कि मणिक सरकार की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण सीआईए-आईएसआई के संरक्षण में चलने वाली आतंकवादी गतिविधियों पर नियंत्रण और आदिवासी बनाम बंगाली वैमनस्य की राजनीति को अलग-थलग कर दोनों समुदायों में बड़ी हद तक विश्वास का माहौल बहाल करना भी है।
माकपा के नृपेन चक्रवर्ती और दशरथ देब जैसे दिग्गज नेताओं के मुख्यमंत्री रहने के बाद 1998 में मणिक सरकार को यह जिम्मेदारी दी गई थी तो विश्लेषकों ने इसे एक अशांत राज्य का शासन चलाने के लिहाज से भूल करार दिया था। 1967 में महज 17-18 बरस की उम्र में छात्र मणिक प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार के खिलाफ चले खाद्य आंदोलन में बढ़-चढ़कर शामिल रहे थे। उस चर्चित जनांदोलन में प्रभावी भूमिका उन्हें माकपा के नजदीक ले आई और वे 1968 में विधिवत रूप से माकपा में शामिल हो गए। वे बतौर एसएफआई प्रतिनिधि एमबीबी कॉलेज स्टूडेंट यूनियन के महासचिव चुने गए और कुछ समय बाद एसएफआई के राज्य सचिव और फिर राष्ट्रीय उपाध्यक्ष चुने गए। 1972 में वे माकपा की राज्य इकाई के सदस्य चुने गए और 1978 में प्रदेश की पहली माकपा सरकार अस्तित्व में आई तो उन्हें पार्टी के राज्य सचिव मंडल में शामिल कर लिया गया। 1980 के उपचुनाव में वे अगरतला (शहरी) सीट से विधानसभा पहुंचे और उन्हें वाम मोर्चा चीफ व्हिप की जिम्मेदारी सौंपी गई। 1985 में उन्हें माकपा की केंद्रीय कमेटी का सदस्य चुना गया। 1993 में त्रिपुरा में तीसरी बार वाम मोर्चा की सरकार बनी तो उन्हें माकपा के राज्य सचिव और वाम मोर्चे के राज्य संयोजक की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी गईं। 1998 में पार्टी ने उन्हें पॉलित ब्यूरो में जगह दी और त्रिपुरा विधानसभा में फिर से बहुमत में आए वाम मोर्चा ने विधायक दल का नेता भी चुन लिया। कहने का आशय यह कि यदि अशांत राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी एक मुश्किल चुनौती थी तो उनके पास जनांदोलनों और पार्टी संगठन में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों का कीमती अनुभव भी था।
मणिक के मुख्यमंत्री कार्यकाल की शुरुआत को याद करते हुए जॉर्ज सी पोडीपारा (त्रिपुरा में उस समय सीआरपीएफ के आईजी) लिखते हैं कि आज के त्रिपुरा को आकर देखने वाला अनुमान नहीं लगा पाएगा कि उस समय कैसी विकट परिस्थितियां थीं जिन पर मणिक सरकार ने कड़े समर्पण, जनता के प्रति प्रतिबद्धता, विश्लेषण करने, दूसरों को सुनने, अपनी गलतियों से भी सीखने और फैसला लेने की अद्भुत क्षमता, धैर्य और दृढ़ निश्चय से नियंत्रण पाया था। जॉर्ज के मुताबिक, `एक सच्चे राजनीतिज्ञ की तरह उन्होंने राज्य के लिए बाधा बनी समस्याओं को अपनी प्राथमिकताओं में शामिल किया। उस समय राज्य में आदिवासी और गैर आदिवासी समुदायों के बीच आपसी अविश्वास और वैमनस्य सबसे बड़ी चुनौती थे। दो जाति समूहों के बीच का बैर किसी भी तरह के आपसी संवाद को बांस के घने बाड़े की तरह बाधित किए हुए था। निर्दोषों की हत्या, अपहरण और संपत्ति की लूटपाट 1979 तक भी एक आम रुटीन जैसी बातें थीं। मणिक सरकार ने महसूस किया कि जब तक यह दुश्मनी बरकरार रहेगी और जनता के बड़े हिस्से एक दूसरे को बर्बाद करने पर तुले रहेंगे, राज्य गरीब और अविकसित बना रहेगा। उन्होंने अपना ध्यान इस समस्या पर केंद्रित किया और अपनी सरकार के सारे संसाधन इससे लड़ने के लिए खोल दिए।`
मणिक सरकार ने एक तरफ टीयूजेएस, टीएनवी और आमरा बंगाली जैसे आतंकी व चरमपंथी संगठनों के खिलाफ सख्ती जारी रखी, दूसरी तरफ आदिवासी इलाकों में विकास को प्राथमिकता में शामिल किया। यहां की कुछ जनजातियों के नाम भाषण में पढ़कर आदिवासियों के प्रति भाजपा के प्रेम का दावा कर गए नरेंद्र मोदी को क्या याद नहीं होगा कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों के जंगलों में रह रहे आदिवासियों को कॉरपोरेट घरानों के हितों के लिए उजाड़ने और उनकी हत्याओं के अभियान चलाने में उनकी पार्टी भाजपा और कांग्रेस दोनों की ही सरकारों की क्या भूमिका रहती आई है? इसके उलट मणिक सरकार ने त्रिपुरा में आदिवासियों के बीच लोकतांत्रिक प्रक्रिया तेज कर निर्णय लेने में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने पर बल दिया। उनकी अगुआई वाली लेफ्ट सरकार ने सुदूर इलाकों तक बिजली-पानी, स्कूल, अस्पताल जैसी मूलभूत सुविधाएं सुनिश्चित कीं और कांग्रेस के शासनकाल में आदिवासियों की जिन ज़मीनों का बड़े पैमाने पर अवैध रूप से मालिकाना हक़ ट्रांसफर कर दिया गया था, उन्हें यथासंभव आदिवासयों को लौटाने की पूर्व की लेफ्ट सरकारों में की गई पहल को आगे बढ़ाया। प्रदेश में जंगल की करीब एक लाख 24 हेक्टेयर भूमि आदिवासियों को पट्टे के रूप में दी गई, जिसके संरक्षण के लिए उन्हें आर्थिक मदद दी जा रही है।खास बात यह रही कि उस बेहद मुश्किल दौर में मुख्यमंत्री मणिक सरकार ने यह एहतियात रखी कि शांति स्थापित करने के प्रयास निर्दोष आदिवासयों की फर्जी मुठभेड़ में हत्याओं का सिलसिला न साबित हों। वे सेना और केंद्रीय सुरक्षा बलों के अधिकारियों से नियमित संपर्क में रहे और लगातार बैठकों के जरिए यह सुनिश्चित करते रहे कि आम आदिवासियों को दमन का शिकार न होना पड़े। इसके लिए माकपा नेताओं और कार्यकर्ताओं को इस मुहिम में आगे रहकर शहादतें भी देनी पड़ीं। यूं भी आदिवासियों के बीच लेफ्ट के संघर्षों की लम्बी परंपरा थी। त्रिपुरा में राजशाही के दौर में ही लेफ्ट लोकतंत्र की मांग को लेकर संघर्षरत था। उस समय दशरथ देब, हेमंत देबबर्मा, सुधन्वा देबबर्मा और अघोर देबबर्मा जैसी शख्सियतों द्वारा आदिवासियों को शिक्षा के अधिकार के लिए जनशिक्षा समिति के बैनर तले चलाई गई मुहिम में लेफ्ट भी भागीदार था। 1948 में वामपंथ के प्रसार के खतरे के नाम पर देश की तत्कालीन नेहरू सरकार ने जनशिक्षा समिति की मुहिम को पलीता लगा दिया और आदिवासी इलाकों को भयंकर दमन का शिकार होना पड़ा तो त्रिपुरा राज्य मुक्ति परिषद (अब त्रिपुरा राज्य उपजाति गणमुक्ति परिषद यानी जीएनपी) का गठन कर संघर्ष जारी रखा गया। 1960 और 1970 में आदिवासियों के लिए शिक्षा, रोजगार, विकास और उनकी मातृभाषा कोरबरोक को महत्व दिए जाने के चार सूत्रीय मांगपत्र पर लेफ्ट ने जोरदार आंदोलन चलाए थे। राज्य में माकपा की पहली सरकार आते ही केंद्र की कांग्रेस सरकार व राज्य के कांग्रेस व दूसरे चरमपंथी संगठनों के विरोध के बावजूद त्रिपुरा ट्राइबल एरिया ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल (एडीसी) के गठन जैसे कामों के चलते भी आदिवासियों में माकपा का मजबूत आधार था।
जाहिर है कि आतंकवाद के खिलाफ सख्त पहल और विकास कार्यों में तेजी के अभियान में मणिक सरकार की पारदर्शी कोशिशों को परेशानहाल आदिवासियों और खून-खराबे का शिकार हुए गरीब बंगालियों दोनों का समर्थन हासिल हुआ। हालांकि, शांति की इस मुहिम में तीन दशकों में माकपा के करीब 1179 नेताओं-कार्यकर्ताओं को जान से हाथ धोना पड़ा। कांग्रेस की राज्य इकाई हमेशा आदिवासियों और बंगाली चरमपंथी संगठनों को हवा देकर दंगे भड़काने में मशगूल रहती आई थी और इन संगठनों की बी टीमों को चुनावी पार्टनर भी बनाती रही थी। केंद्र की कांग्रेस सरकारें भी आतंकवादी संगठनों से जूझने के बजाय उनके साथ गलबहियों का खेल खेलती रहीं। लेकिन, आदिवासियों के बीच लेफ्ट का प्रभाव बरकरार रहा और राज्य में शांति स्थापित हुई तो दोनों ही समुदायों ने चैन की सांस ली। मणिक सरकार का यह कारनामा दूसरे राज्यों और केंद्र के लिए भी प्रेरणा होना चाहिए था लेकिन इसके लिए विकास की नीतियों को कमजोर तबकों की ओर मोड़ने की जरूरत पड़ती और कॉरपोरेट को सरकारी संरक्षण में जंगल व वहां के रहने वालों को उजाड़ने देने की नीति पर लगाम लगाना जरूरी होता।
मुख्यमंत्री मणिक और उनकी लेफ्ट सरकार की वैचारिक प्रतिबद्धता का ही नतीजा रहा कि बेहद सीमित संसाधनों और केंद्र सरकार की निरंतर उपेक्षा के बावजूद त्रिपुरा में जनपक्षधर नीतियां सफलतापूर्वक क्रियान्वित हो पाईं। केंद्र व दूसरे राज्यों में जहां सरकारी नौकरियां लगातार कम की जा रही हैं, एक के बाद एक, सरकारी महकमे बंद किए जा रहे हैं, वहीं त्रिपुरा सरकार ने तमाम आर्थिक संकट के बावजूद इस तरफ से अपने हाथ नहीं खींचे हैं। गरीबों के लिए सब्सिडी से चलने वाली कल्याणकारी योजनाएं बदस्तूर जारी हैं और सरकार की वर्गीय आधार पर प्राथमिकताएं स्पष्ट हैं। मसलन, राज्य कर्मचारियों को केंद्र के कर्मचारियों के बराबर वेतन दे पाना मुमकिन नहीं हो पाया है। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने कर्मचारियों के बीच इसे मुद्दा बनाने की कोशिश की थी लेकिन मुख्यमंत्री राज्य कर्मचारियों को यह समझाने में सफल रहे थे कि केंद्र ने राज्य की मांग के मुकाबले 500 करोड़ रुपए कम दिए हैं। लेकिन, तमाम दबावों के बावजूद राज्य सरकार हर साल 52 करोड़ रुपये की सब्सिडी उन गरीब लोगों को बाज़ार मूल्य से काफी कम 6.15 रुपये प्रति किलोग्राम भाव से चावल उपलब्ध कराने के लिए देती है जिन्हें बीपीएल कार्ड की सुविधा में समाहित नहीं किया जा सका है। गौरतलब है कि बीपीएल कार्ड धारकों को तो 2 रुपये प्रति किलोग्राम चावल दिया जा ही रहा है। गरीबों को काम देने के लिए लेफ्ट के दबाव में ही यूपीए-1 सरकार में लागू की गई मनरेगा स्कीम जहां देश भर में भयंकर भ्रष्टाचार का शिकार है, वहीं त्रिपुरा इस योजना के सफल-पारदर्शी क्रियान्वयन के लिहाज से लगातार तीन सालों से देश में पहले स्थान पर है।
तार्किक आलोचना की तमाम जगहों के बावजूद त्रिपुरा सरकार की विकास की उपलब्धियां महत्वपूर्ण हैं। प्रदेश की 95 फीसदी जनता चिकित्सा के लिए सरकारी अस्पतालों पर निर्भर है। सुदूर क्षेत्रों तक चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने के साथ ही राज्य सरकार अपने कॉलेजों से पढ़कर नौकरी पाने वाले डॉक्टरों को पहले पांच साल ग्रामीण क्षेत्र में सेवा करने के लिए विवश करती है। प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से त्रिपुरा उत्तर-पूर्व राज्यों में पहले स्थान पर है तो साक्षरता दर में देशभर में अव्वल है। प्राथमिक स्कूलों से लेकर उच्च शिक्षा संस्थानों के फैलाव, एनआईटी और दो मेडिकल कॉलेजों ने राज्य के छात्रों, खासकर आदिवासियों व दूसरी गरीब आबादी के छात्रों को आगे बढ़ने और सरकारी मशीनरी का हिस्सा बनने का मौका दिया है। सिंचाई सुविधा के विस्तार, सुनियोजित शहरीकरण, फल, सब्जी, दूध, मछली उत्पादन आदि में आत्मनिर्भरता पर त्रिपुरा गर्व कर सकता है। कभी खूनखराबे का पर्याय बन गया त्रिपुरा आज रक्तदान के क्षेत्र में भी देश में पहले स्थान पर है और इसमें आदिवासी युवकों का बड़ा योगदान है।
नरेंद्र मोदी ने अगरतला में अपने भाषण में त्रिपुरा सरकार पर रबर की खेती को बढ़ावा देने के लिए गुजरात की तरह जेनेटिक साइंस का इस्तेमाल न करने का आरोप भी लगाया था। लेकिन, रबर उत्पादन में त्रिपुरा की उपलब्धि की जानकारी मोदी को नहीं रही होगी। रबर उत्पादन में त्रिपुरा देशभर में केरल के बाद दूसरे स्थान पर है। यह बात दीगर है कि रबर की खेती से आ रहा पैसा नई चुनौतियां भी पैदा कर रहा है। मसलन, परंपरागत जंगल और खाद्यान्न उत्पादन के मुकाबले काफी ज्यादा पैसा देने वाली रबर की खेती त्रिपुरा की प्राकृतिक पारिस्थितिकी में अंसतुलन पैदा कर सकती है लेकिन उससे पहले सामाजिक असंतुलन की चुनौती दरपेश है। आदिवासियों में एक नया मध्य वर्ग पैदा हुआ है, जो गरीब आदिवासियों को सदियों के सामूहिक तानेबाने से अलग कर देखता है। उसके बीच सामाजिक-आर्थिक न्याय के सवालों पर बात करना इतना आसान नहीं रह गया है। यह नया मध्य वर्ग और दूसरे पैसे वाले लोग गरीब आदिविसियों की जमीनों को 99 साला लीज़ की आड में हड़पना चाहते हैं और एक बड़ी तबका अपनी ही ज़मीन पर मजदूर हो जाने के लिए अभिशप्त हो रहा है। माकपा के मुखपत्र `देशेरकथा` के संपादक और माकपा के राज्य सचिव मंडल के सदस्य गौतम दास कहते हैं कि उनकी पार्टी ने प्रतिक्रियावादी ताकतों से और गरीबों की शोषक शक्तियों से वैचारिक प्रतिबद्धता के बूते ही लड़ाइयां जीती हैं। उम्मीद है कि युवाओं के बीच राजनीतिक-वैचारिक अभियानों से ही इस चुनौती का भी मुकाबला किया जा सकेगा।
पड़ोसी देश बांग्लादेश के साथ त्रिपुरा सरकार के संबंधों का जिक्र भी तब और ज्यादा जरूरी हो जाता है जबकि आरएसएस और बीजेपी लम्बे समय से बांग्लादेश के साथ हिंदुस्तान के संबंधों को सिर्फ और सिर्फ नफ़रत में तब्दील कर देने पर आमादा हैं। मोदी ने उत्तर-पूर्व के दूसरे इलाकों की तरह अगरतला में भी नफ़रत की इस नीति पर ही जोर दिया। लेकिन, मुख्यमंत्री मणिक सरकार और उनकी सरकार का बांग्लादेश की सरकार साथ बेहतर संवाद है। बांग्लादेश में अमेरिका और पाकिस्तानी एंजेसियों के संरक्षण में सिर उठा रही साम्प्रदायिक ताकतों के दबाव के बावजूद वहां की मौजूदा शेख हसीना सरकार हिंदुस्तान के साथ दोस्ताना है और त्रिपुरा सरकार के साथ भी उसके बेहतर रिश्ते हैं। इस सरकार ने त्रिपुरा में आतंकवाद के उन्मूलन में भी मदद की है। अगरतला से सटे आखोरा बॉर्डर पर तनावरहित माहौल को आसानी से महसूस किया जा सकता है। बांग्लादेश के उदार, प्रगतिशील तबकों व कलाकारों के साथ त्रिपुरा के प्रगाढ़ रिश्तों को अगरतला में अक्सर होने वाले कार्यक्रमों में देखा जा सकता है जिनमें मणिक सरकार की बौद्धिक उपस्थिति भी अक्सर दर्ज होती है। त्रिपुरा के लेफ्ट, उसके मुख्यमंत्री और उसकी सरकार की यह भूमिका दोनों ओर के ही अमनपसंद तबकों को निरंतर ताकत देती है।
56 इंच का सीना जैसी तमाम उन्मादी बातों और देह भंगिमाओं के साथ घूम रहे उस शख्स से त्रिपुरा के इस सेक्युलर, शालीन, सुसंस्कृत मुख्यमंत्री की तुलना का कोई अर्थ नहीं है। कलकत्ता यूनिवर्सिटी से कॉमर्स के इस स्नातक की कला, साहित्य, संस्कृति में गहरी दिलचस्पी है और यह उसके जीवन और राजनीति का ही जीवंत हिस्सा है। बहुत से दूसरे ताकतवर राजनीतिज्ञों और अफसरों की आम प्रवृत्ति के विपरीत इस मुख्यमंत्री को सायरन-भोंपू के हल्ले-गुल्ले और तामझाम के बिना साधारण मनुष्य की तरह सांस्कृतिक कार्यक्रमों को सुनते-समझते, कलाकारों से चर्चा करते और संस्कृतिकर्मियों से लम्बी बहसें करते देखा-सुना जा सकता .
-धीरेश सैनी
(समयांतर के अप्रैल अंक से साभार )
Narendra Nath
10 hrs ·
शुरू से कह रहा था डरें अतिवाद से। जो डर था,वही हो रहा है।
नीचे तस्वीर देखये। जम्मू में एक हैवान ने 8 साल की बच्ची के साथ रेप और मर्डर किया।
पकड़ में आने पर उसके गांव वाले उसके सपोर्ट में आ गए छुड़वाने। हिन्दू एकता मंच के बैनर तले तिरंगा के साथ रेपिस्ट को भारत माता की जय के नारे के उद्घोष में छुड़ाने निकल पड़े। मानो तिरंगा हर अपराध को ढंकने का हथियार बन गया हो।
राष्ट्र्रवाद पर टची होने से यही होता है।कल जाकर सारे क्रिमिनल पॉकेट में छोटी तिरंगा और भारत माता की जय की पुर्जी रख सकते हैं।अगर पकड़ा गए तो इसे दिखा राहत मिल जाएगी। उन्हें पकड़ने वाले को हो देशद्रोही घोषित किया जा सकता है।नरुका जितेन्द्र updated his cover photo.
14 February at 21:51 ·
बेटा जब मातृ पितृ दिवस मे विश्वास रखे तो हम डेट पर कैसे जाएं ?
See Translationनरुका जितेन्द्र
15 February at 10:13 · नरुका जितेन्द्र
13 February at 15:31 ·
इंबोक्सिया प्रेम ही दुनिया का सबसे पवित्र प्रेम है जिसमे देह की कोई चाहत नहीं, फोटो पर ही लट्टू रहते ?
दिप्ती सलगांवकर धीरू अम्बानी की बेटी है और उनकी बेटी इशिता से निशाल मोदी की शादी हुई है जो 11000 करोड़ PNB घोटाले के मुख्य आरोपी नीरव मोदी के भाई हैं और सहआरोपी भी। अब मीडिया की क्या हिम्मत की इसे बड़ी न्यूज बनाये और मोदी ने तो चुनाव जीतते ही अम्बानी के प्रति कृतज्ञता जाहिर की सम्बोधन मे। नोटबन्दी, 4 साल में 4 गुना NPA, FRDI बिल प्रस्ताव और अब खुल्लमखुल्ला लूट!! बैंकिंग व्यवस्था इतनी अविश्वनीय कभी नही रही।नरुका जितेन्द्र
15 February at 21:39 ·
घोर पूंजीवादी भाजापा और मोदी से ईमानदारी की उम्मीद रखने वाले उनसे भी बड़े कूपमण्डूक हैं जो उम्मीद करते हैं की भाजपा सीमा पर शांति ला देगी!! पाकिस्तान को सबक सिखा देगी। सीमा पर कई गुना हमले, कश्मीर में अशांति और दोगुने से ज्यादा सैनिक सिर्फ 45 महीने मे खो देना स्प्ष्ट करता है कि इनके शासन काल मे पाकिस्तान फिर सिर चढ़कर बोल रहा है क्योंकि पाकिस्तान में तो 70 के दसक से ही लगातार भाजपा जैसी नफरत की राजनीति चरम पर है, बर्बाद कर चुकी है पाकिस्तान को।
खैर मोदी जी और भाजपा से ईमानदारी की उम्मीद कितनी बड़ी बेवकूफी इसपर नजर डालते हैं।
ADR के ताजा आंकड़ो के अनुसार 2017 में Goa, Manipur, Punjab, Uttarakhand, Uttar Pradesh के पांच राज्यों के चुनाव मे 5 राष्ट्रीय और 16 क्षेत्रीय पार्टियों को कुल चंदा 1,500 करोड़ मिला जबकि चुनावों में खर्च 494 दिखाया गया है।
खैर असली बात पर नजर मारिये 5 राष्ट्रीय पार्टियों को कुल चंदा मिला 1,314.29 करोड़ जिसमे अकेली भाजपा को 1,214.46 करोड़ चंदा मिला है जो कुल चंदे का 92.4 प्रतिशत है!!
ये सिर्फ 5 राज्यों के चुनावों के 1 साल के आंकड़े हैं।
2013 से 2016 तक अकेली भाजपा को 87% कॉरपोरेट चंदा मिला है!!
अब अंधा भी समझ सकता है कि क्यों मीडिया सिर्फ मोदी/भाजपा के गुण गाता है।
क्यों अम्बानी की सम्पति डेढ़ गुना, अडानी की 4 गुना, मुख्य घरानों की 31% बढ़ गयी और पिछले साल सिर्फ 1% लोग 73% पूंजी पर कब्जा कर गए।
हजारों करोड़ के चमकिले चुनाव और रोक स्टार से मोदी के रोड शो विदेशों तक मे के बाद अगर कोई उम्मीद करते हैं की ये सरकार जनहित करेगी तो उल्लू कहना उल्लू की बेइज्जती होगी।
यों ही माल्या नीरव मोदी जनता का पैसा लूटेंगे, सिर्फ 4 साल में NPA 4 गुना हो गया है!! बैंकों को कंगाल किया जाएगा जिनमे जनता के पैसे हैं। जनता घण्टा बजाए हिन्दू मुस्लिम गाय गोबर राम मंदिर का…न.रुकाee original ·
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15 February 2017 ·
आखिर ये हिन्दू मुस्लिम आया कहाँ से!!
हल्दी घाटी युद्ध में महाराणा प्रताप का सेना पति हाकिम खान सूर अफगानी पठान था। अकबर के सेनापति तो राजा मान सिंह सब जानते हैं।
गौरी के आक्रमण का प्रमुख कारण ये भी था कि पृथ्वी राज ने गौरी के प्रतिद्वन्दी मीर हुसैन को सौंपने से इंकार कर दिया जिसे पृथ्वी राज ने शरण दे रखी थी।
रणथम्भोर का युद्ध हमीर देव चौहान और खिलजी में इसलिये हुआ की हमीर देव ने अपनी शरण में खिलजी के बागी सेनापति मोहम्मद शाह को सुपर्द करने से इंकार कर दिया।
इस घटना पर गौर कीजिए
मेड़ता के हिन्दू शासक जयमल की जोधपुर के हिन्दू शासक मालदेव से दुश्मनी थी और ताकतवर मालदेव ने जयमल से मेड़ता छीन लिया जो अकबर ने सैफुद्दीन के नेतृत्व में सेना भेज जयमल को वापस मेड़ता दिलवाया। सैफुद्दीन से जयमल के सम्बन्ध हो गए और ये ही चित्तौड़ पर हमले का कारण बना जब सैफुद्दीन अकबर का बागी हो गया और जयमल ने उसे अकबर के सुपुर्द नही किया तो अकबर ने मेड़ता पर आक्रमण कर दिया और जयमल को चितौड़ के शासक उदय सिंह द्वारा शरण देने पर चितौड़ पर हमला कर दिया। सैफुद्दीन को सुरक्षित मेड़ता पहुंचाने की कौशिश में जयमल के पुत्र सार्दुल सिंह की जान गई।
शिवाजी सारी जिंदगी मुगलों से लड़ते रहे पर बेमिशाल उदाहरण मिलता है शिवाजी के सेनापति ने एक मुगल हाकिम पर हमला कर शिवाजी के समक्ष उस हाकिम की खूबसूरत बेटी को तोहफे के रूप में प्रस्तूत किया तो शिवाजी इस कदर चिढ़े की तुमने मुझे शर्मसार कर दिया और उस युवती को बेटी संबोधित करते तोहफों सहित मुगल हाकिम के पास पहुँचाया और माफ़ी मांगी। वो युद्ध के दौरान किसी मस्जिद को नुकसान ना पहुंचे निर्देश देते थे।
इतिहास से स्प्ष्ट है चाहे साम्राज्य बढाने झगड़े संघर्ष मुगल हिन्दू शासकों के बीच खूब चले पर उसमे साम्प्रदायिक नफरत बिलकुल नही थी और जनता के बीच तो एक उदाहरण नहीं जब हिन्दू मुस्लिम फसाद हुए हों।
फिर आखिर ये हिन्दू मुस्लिम आया कहाँ से!!
अंग्रेजो की फुट डालो राज करो नीति से उनके द्वारा फ़ंडिंग से मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा व संघ का उदय हुआ जिन्ना और इन हिन्दू संगठनों के कथित पूज्य नेताओं ने भारत के बंटवारे की नींव रखी, लाखों जाने बटवारे से पहले व बाद में गयी इस नफरत की खेती से।
और अब तो राजनीति निम्नतर स्तर पर है शिवाजी जैसे लोगों का नाम ले कर हिन्दू राष्ट्र का शिवाजी का सपना परोसते हैं। महाराणा प्रताप को हिंदूवादी एंगल देकर नफरत परोसते हैं।
आप समझ सकते हैं इस देश के असली गद्दार कौन हैं!! पाकिस्तान को तो इस नफरती साम्प्रदायिक सोच ने बर्बाद कर दिया हो सके तो अपने भारत को बचालो इन गद्दारों से क्योंकि अब अंग्रेज़ों से भी धूर्त अमेरिका का इनके सिर पर हाथ है.. न. रूका———————————————ujeet Kumar Singh is with जितेन्द्र विसारिया and 3 others.
18 hrs · Allahabad ·
यह राधादेवी हैं। साकिन ग्राम-धर्मपुर, पोस्ट-दौलताबाद जिला आज़मगढ़ (उ.प्र.)। हिंदी के मूर्धन्य लेखक ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ जैसी प्रसिद्ध आत्मकथाओं के रचनाकार, प्रोफेसर डॉ. तुलसीराम जी की पहली पत्नी। प्रोफ़ेसर तुलसीरामजी से इनका बाल विवाह 2 साल की उम्र में हो गया था। 10-12 साल की उम्र में जब कुछ समझ आई तो इनका गौना हुआ। उस समय तक तुलसीराम जी मिडिल पास कर चुके थे। घर में विवाद हुआ कि तुलसी पढ़ाई छोड़ हल की मूठ थामें। पढ़ने में होशियार तुलसीराम को यह नागवार गुजरा और उन्होंने इस सम्बंध में अपनी नई-नवेली पत्नी राधादेवी से गुहार लगाई कि वह अपने पिता से मदद दिलायें, जिससे उनकी आगे की पढ़ाई पूरी हो सकें। राधादेवी ने अपने नैहर जाकर यह बात अपने पिता से कही और अपने पिता से तुलसीरामजी को सौ रुपये दिलवाए। इस प्रकार पत्नी के सहयोग से निर्धन और असहाय तुलसीराम की आगे की पढ़ाई चल निकली।
…पति आगे चलकर अपने पैरों पर खड़ा हो जाएगा, उन्हें सुख-साध देगा युवा राधादेवी ने अपने सारे खाँची भर गहने भी उतारकर तुलसीराम को दे दिए, जिनसे आगे चलकर तुलसीरामजी का बनारस विश्वविद्यालय में एडमिशन हो गया। पिता और 5 भाइयों की दुलारी राधादेवी के पति का भविष्य उज्ज्वल हो, इस हेतु राधादेवीजी के मायके से प्रत्येक माह नियमित राशन-पानी भी तुलसीरामजी के लिए भेजा जाने लगा। ससुराल में सास-ससुर देवर-जेठ और ननद-जेठानियों की भली-बुरी सुनती सहती अशक्षित और भोली राधादेवी, संघर्षों के बीच पति की पढ़ाई के साथ-साथ अपने भविष्य के भी सुंदर सपने बुनने लगीं थीं।
उधर शहर और अभिजात्य वर्ग की संगत में आये पति का मन धीरे-धीरे राधादेवी से हटने लगा। गरीबी में गरीबों के सहारे पढ़-लिखकर आगे बढ़ने वाले तुलसीराम को अब अपना घर और पत्नी सब ज़ाहिल नज़र आने लगे। शहर की हवा खाये तुलसीराम का मन अंततः राधादेवीजी से हट गया। बीएचयू के बाद उच्चशिक्षा हेतु तुलसीरामजी ने जेएनयू दिल्ली की राह पकड़ ली, जहाँ वह देश की उस ख्यातिलब्ध यूनिवर्सिटी में पढ़ाई और शोध उपरांत, प्रोफ़ेसर बने और समृद्धि के शिखर तक जा पहुँचे। प्रोफ़ेसर बनने के उपरांत तुलसीरामजी ने राधादेवी को बिना तलाक दिए अपने से उच्चजाति की शिक्षित युवती से विवाह कर लिया और फिर मुड़कर कभी अपने गाँव और राधादेवी की ओर देखा!!!
राधादेवी आज भी उसी राह पर खड़ी हैं, जिस राह पर प्रोफ़ेसर तुलसीराम उन्हें छोड़कर गए थे। जिस व्यक्ति को अपना सर्वस्व लुटा दिया उसी ने छल किया, इस अविश्वास के चलते परिवार-समाज में पुनर्विवाह का प्रचलन होने पर भी राधादेवी ने दूसरा विवाह नहीं किया। भाई अत्यंत गरीब हैं। सास-ससुर रहे नहीं। देवर-जेठ उन्हें ससुराल में टिकने नहीं देते कि ज़मीन का एकाध पैतृक टुकड़ा जो तुलसीरामजी के हिस्से का है, बंटा न ले इसलिए वे उन्हें वहाँ से वे दुत्कार देते हैं।
…दो साल पहले जब तुलसीरामजी का निधन हुआ तो उनके देवर-जेठ अंतिम संस्कार में दिल्ली जाकर शामिल हुए, पर राधादेवी को उन्होंने भनक तक न लगने दी! बहुत बाद में उन्हें बताया गया तो वे अहवातिन से विधवा के रूप में आ गईं, उनके शोक में महीनों बीमार रहीं देह की खेह कर ली किसी ससुराली ने एक गिलास पानी तक न दिया!! बेघरबार