by -एच.एल.दुसाध
हिन्दू ईश्वर और धर्मशास्त्रों द्वारा अस्त्र-शस्त्र इस्तेमाल करने की एकमात्र अधिकृत हिन्दू जाति, अपनी भारी विजय के बावजूद ‘पद्मावती’ के निर्माता संजय लीला भंसाली के लिए एक इंच भी जमीन छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं. इस समर-वीर जाति के दबाव में आकर पद्मावती के निर्माता ने अनिच्छापूर्वक ढेरों समझौते कर लिए हैं, फिर भी सदियों से हिन्दू जन अरण्य में ‘सिंह’ की भांति विचरण करने वाले लोग, उसे बख्सने के मूड में नहीं दिख रहे हैं. पद्मावती के निर्माता की करुणतर स्थिति का अनुमान 15 जनवरी के कई अख़बारों में छपी इस फिल्म के फुल पेज की विज्ञापन सामग्री से लगाया जा सकता है. विज्ञापन में आज के सुपर स्टार रणवीर सिंह या शाहिद कपूर की कोई तस्वीर नहीं: करबद्ध तस्वीर है सिर्फ पद्मावती बनीं दीपिका पादुकोण की. पद्मावती के गेटप में दीपिका जिस तरह हाथ जोड़े नमूदार हैं, उससे ऐसा लगता है जैसे वह हाथ जोड़कर फिल्म को दिखाए जाने की गुहार लगा रही हैं. इस विज्ञापन में लिखा है ‘फिल्म ‘पद्मावत’सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी के महाकाव्य ‘पद्मावत’ पर आधारित है. फिल्म में अलाउद्दीन खिलजी और रानी पद्मावती के बीच कोई ‘ड्रीम –सिक्वेंस’ ना था और ना है. यह फिल्म राजपूतों की वीरता, साहस और विरासत को समर्पित एक यादगार कृति है. यह फिल्म रानी पद्मावती को अत्यंत सम्मान के साथ प्रस्तुत करती है और किसी भी तरह उनके चरित्र को धूमिल या गलत तरीके से प्रस्तुत नहीं करती. पद्मावत एक ऐसी फिल्म है जिस पर हर भारतीय को गर्व होगा.’
शायद भारतीय फिल्म हिस्ट्री में किसी भी निर्माता को एक समूह विशेष की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए फिल्म का नाम बदलने लेकर इस तरह का आश्वासन देने लिए विवश नहीं होना पड़ा होगा. वर्तमान समय में भारतीय फ़िल्मी दुनिया के एक बड़े स्तम्भ के इस तरह आत्म- समर्पण करने के बावजूद राणाप्रताप -मानसिंह-योद्धाबाइयों की वर्तमान पीढी को उनके प्रति कोई रहम नहीं. उन्होंने राजपूतों की धरती राजस्थान में हर हाल में फिल्म की रिलीज को रोकने के लिए सरकार पर दबाव बनाते हुए कह दिया है- ‘यदि फिल्म रिलीज होती है तो शेष में चितौड़ गढ़ की महिलाएं 24 जनवरी को जौहर करेंगी.’ बहरहाल फिल्म पद्मावती का परिवर्तित नाम ‘पद्मावत’ का रिलीज राजपूतों की प्रतिष्ठा से जुड़ चुका है और उनकी धमकी की अनदेखी कर अगर यह फिल्म रिलीज हो जाती है तो चितौड़गढ़ ,जिसका संपर्क रानी पद्मावती से है , की क्षत्राणियां अपने पुरुषों की इज्जत बचाने के लिए के लिए जौहर के इतिहास में कुछ नए पन्ने जोड़ देंगी. ऐसे में 21 वीं सदी में वास कर रहे लोगों को उस गौरवशाली परम्परा का एक बार फिर से दर्शन करने का अवसर मिल जायेगा जिसकी शुरुआत महाभारत काल से हुई थी.
महाभारत प्रेमी आमतौर पर यह नहीं गौर करते कि कुरुक्षेत्र के महारणांगन में अर्जुन अपने भाई-बंधुओं की संभावित मृत्यु की आशंका से नहीं , युद्धोतर वर्ण –संकरता के भयावह परिणाम की आशंका से डरकर गांडीव रख दिए थे . कुलक्षय से वर्ण-संकरता की सृष्टि हो सकती है, यह मानते हुए ही पार्थ ने श्रीकृष्ण के समक्ष करुण निवेदन करते हुए कहां था –‘ हे केशव ! हमलोग वंश नाश के कुफल से अवगत होते हुए भी ऐसे कार्य(युद्ध) से विरत क्यों नहीं हो रहे है? पुनः कृष्ण को समझाते हुए हुए कहे थे-‘हे कृष्ण! कुलक्षय अर्थात युद्ध में कुल के पुरुषों के निधन के परिणामस्वरूप कुलधर्म नष्ट होता है अर्थात कुल व कुल धर्म की रक्षा के लिए पुरुष नहीं बचते. कुल अधर्मग्रस्त होने से कुलबधू नारियां दूषित हो जाती हैं: नष्ट हो जाती हैं . और नारियां दूषित होने पर वर्ण संकर जन्म लेते हैं. वर्ण संकर जन्म लेने पर जो वंश नाश करता है , उसे नरक गमन करना पड़ता है. जो वंश नाश करते हैं उनके ही दोष से वर्ण संकर होते हैं और वर्ण संकर के फलस्वरूप जाति धर्म व कुल धर्म नष्ट हो जाता है. हमें वंशनाश के कुपरिणाम को समझते हुए इस प्रकार के पाप से विरत रहना चाहिए, यह हम क्यों नहीं समझ रहे हैं!’
वीर अर्जुन कुरुक्षेत्र की रणभूमि में खड़े होकर जो भय पाए थे, युद्धोपरांत उसके समाधान का चित्र देखने लिए उपस्थित हुए थे, द्वारका. श्रीकृष्ण के उकसावे में स्वयं उनकी और बलराम की संतानें , समग्र यदुकुल प्रभाष नदी के तीर पर मद्यपान से विभ्रांत होकर : आत्मघाती समर में मृत्य-देहों का स्तूप बन गए थे. स्वयं श्रीकृष्ण और बलराम तक निहत हुए थे. श्रीमद्भागवत के एकादस स्कन्ध की परिसमाप्ति होती है धूं-धूं करके जलती सतियों की चिता की अग्नि से. अकेले श्रीकृष्ण की सोलह सहस्र पत्नियां, एक लाख साठ हजार पुत्रों की पत्नियां, बलराम व अन्य यदुवंशियों की स्त्रियां एवं पुत्रबधुयें: सभी गांडीवधारी अर्जुन के सामने सती हुईं . कितने दिनों तक जलती रही होगी चिताग्नि, इसका सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है !
बहरहाल जाति-भेद प्रथा के जनक भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रथा को अजर-अमर रखने के लिए आर्य पुत्र अर्जुन को नारी-दाह का जो नुस्खा सुझाया, उसे भावी आर्य-पुत्रों ने मुक्त-ह्रदय से अपनाने में कोई कृपणता नहीं की. परिणामस्वरूप सुप्रचीनकाल में प्रभाष नदी के तीर से यदुवंशी रमणियों ने जिस प्रथा की शुरुआत की , वह मध्यकाल में राजस्थान की पद्मिनियों से लेकर आधुनिक काल में रूप कुंवरों तक आते-आते , एक ऐसी गौरवमयी प्रथा का इतिहास सृष्ट कर गयी, जिस पर हिन्दुओं के गर्व की कोई सीमा नहीं. सुप्रचीनकाल से लेकर रूप कुंवर तक लाखों-करोड़ों आर्य रमणियों ने हँसते-रोते प्राणोत्सर्ग कर , जिस गौरवमयी प्रथा का निर्वाह किया , उसका गौरवगान करने में इस देश के साहित्यकारों ने कोई कमी नहीं की. बहरहाल हिन्दू भगवान् कृष्ण ने जाति-भेद को कायम रखने के नारियों की प्राणाहुति की जो व्यवस्था आर्य –पुत्रों को दी एवं जिसकी बलिबेदी पर पंडित राहुल सांकृत्यायन के मुताबिक़ सवा करोड़ नारियां प्राणोत्सर्ग कीं, वह मृत्यु की एक सर्वथा भिन्न व्यवस्था रही . इसमें क़त्ल होने वाले को कातिल और उसके साथियों से कोई शिकायत नहीं : कातिल को अपने गुनाह का रत्ती भर ही अहसास नहीं रहा. दुनिया ने मृत्यु का साडम्बर अनुष्ठान प्राचीन रोम के ग्लैडियेटर युद्ध और स्पेन के बुल –फाईट में देखा है, किन्तु ये सारे अनुष्ठान सतीदाह के आध्यात्मिक अनुष्ठान के समक्ष फीके रहे. यहां सवाल पैदा हो सकता कि मृत्यु के इस निराले आध्यात्मिक अनुष्ठान में आर्य-नारियों ने क्यों हँसते-हँसते प्राणोत्सर्ग कर दिया? कारण एकाधिक रहे, पर मुख्य कारण जुड़े हैं धर्म शास्त्रों से जिनमें खास हैं.
वेद व शास्त्रों की यह प्रतिश्रुति कि जो नारियां मृत पति की चिताग्नि पर प्राणोत्सर्ग करेंगी, वे स्वर्ग में उनके साथ अनंतकाल, संभवतः 35, 000,000 वर्षों तक सुख भोग की अधिकारिणी होंगी; जिस तरह सपेंरा सांप को बिल से खींच लता है,उसी तरह सती अपने पति को नरक से खींचकर स्वर्ग में पहुंचा सकती हैं’. इसके अतिरिक्त मृत पति के साथ चितारूढ़ होकर प्राणदान करने से स्त्री के मायके व ससुराल वालों को विराट पुण्यलाभ के साथ ख्याति वृद्धि; वैधव्य के नारकीय जीवन की यंत्रणा से सदा-सदा के लिए मुक्ति पाने का कुछ मिनटों का कष्टकर विकल्प और सतीदाह के विनिमय में प्रसिद्धिलाभ एवं लम्बी समय से प्रचलित प्रथा के निर्वाह से मुंह चुराने के की परिणतिस्वरूप असहनीय सामाजिक व पारिवारिक उपेक्षा इत्यादि वे कारण रहे, जिससे यह प्रथा गौरवमयी बनी.
बहरहाल आर्य-पुत्रों के लिए सती-दाह की प्रथा जितनी भी गौरवमयी क्यों न रही हो , अंग्रेजों ने इसे मानवता के विराट कलंक के रूप में लिया. फलस्वरूप उन्होंने 4 दिसंबर, 1829 को कानून द्वारा इसे निषिद्ध घोषित कर हिन्दुओं को एक गौरवमयी प्रथा से वंचित कर दिया. किन्तु कानूनन इससे जबरन वंचित किये जाने के बावजूद उच्च वर्णीय लोगों का इसके प्रति आकर्षण बना रहा और उन्होंने रूप कुंवरों के माध्यम से इसे पुनर्स्थापित करने का छिट-फुट प्रयास भी किया. पर, कानून द्वारा कठोरता से हतोत्साहित किये जाने के कारण वे आगे नहीं बढ़ पाए, किन्तु आज हालात भिन्न हैं. राजस्थान सहित केंद्र में एक ऐसी सरकार मजबूती से कायम है ,जो अतीत की गौरवशाली परम्पराओं को पुनर्स्थापित करने के लिए सचेष्ट है. ऐसे में जौहर प्रथा के समर्थक इसे नए रूप में स्थापित करने के लिए प्रयासरत हो सकते हैं.
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं
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Abhishek Srivastava is with Awesh Tiwari and 10 others.
6 hrs · उत्तर प्रदेश के संस्कृत विद्यालयों में नियुक्तियों में आरएसएस की भूमिका पर खबर करने वाले पत्रकार Shiv Das और छापने वाले मंचों वनांचल एक्सप्रेस, मीडियाविजिल व नवजीवन पर संघ के लोगों ने एफआइआर करवायी है। जिन्होंने शिकायत की है, उनके खिलाफ शासन में खुद भ्रष्टाचार की एफआइआर है लेकिन उनका मानना है कि हमारी खबर से उनकी ‘प्रतिष्ठा’ धूमिल हुई है। ये ‘प्रतिष्ठा’ वाला मामला बड़ा लचीला है। सुप्रीम कोर्ट भी ‘प्रतिष्ठा’ का खयाल रखते हुए अभिव्यक्ति की आज़ादी के अधिकार को उसके सापेक्ष बताता है। सवाल सीधा बनता है कि क्या आपराधिक मानहानि का कानून पत्रकारों की ‘ऑनर किलिंग’ का कोई उपकरण है कि आपकी इज्जत को ठेस लगी और आपने हमें गोली मार दी? क्या छोटे शहर का छोटा पत्रकार खबर लिखना बंद कर दे? क्या छोटी संसाधनविहीन वेबसाइटें पत्रकारिता छोड़ दें? आखिर करें क्या?
मौजूदा परिदृश्य में यह लेख समस्या को समझने की एक कोशिश है और एक सार्वजनिक अपील भी, कि यदि आप दलीलों से सहमत हों तो जहां हैं, जैसे हैं, मानहानि के काले कानून के खिलाफ अपनी आवाज़ ज़रूर उठाएं जिस पर फिलहाल सब चुप हैं।Abhishek Srivastava ————–अभिषेक जैसे पत्रकार को परेशान किया जा रहा हे कोर्ट कचहरी की आग में जलाकर या मारपीट कर सिर्फ उन्ही लोगो को परेशान किया जाता हे जिनके पास पैसा और पीछे से सपोर्ट ना हो वार्ना यहाँ देखिये ज़ाहिद साहब कैसे देश के सबसे ताकतवर आदमी के खिलाफ खुल कर लिख रहे हे उखाड़ लो जो उखाड़ना हे इनके खिलाफ कार्यवाही नहीं करता कोई इन्हे कोर्ट में नहीं खींचता कोई नाख़ून भी नहीं काट सकता वजह ये हे सिकंदर हयात to zakir hussain 11 days ago
जाकिर भाई एक हम हे जिन्हे हर समय डर डर के रहना पड़ता हे एक एक लाइन सोच समझ डर डर कर लिखनी पड़ती हे एक्टिव तो हो ही नहीं पाते हे इसलिए हमें अंडरग्राउंड सा रहना पड़ता हे सबसे अधिक पाठक वाले माध्यम सोशल मिडिया से दूर रहता हु की पकडे गए तो जूते पड़ेंगे अपने ही लोग मारेंगे . जब मेने गायो पर लिखा तो फेसबुक पे पता चला की मेरे ही साथ फुटबॉल खेलने वाला दबग जाती का लड़का भी गौ रक्षा में इंट्रेस्टिड हे में डर गया की अगर इसे मेरा पता चला तो कही मेरे घर ही मोर्चा न लेकर आ जाए एक बार तो एक कटटरपंथी साहब तो मेरे ही गाँव के आस पास के थे कहने लगे तुम्हारे रिश्तेदारों ( सुन्नी सय्यद लोग ) से तुम्हारा पता निकाल कर घर आकर प्यार बरसायेंगे तो हमें इतना डर कर रहना लिखना पड़ता हे क्योकि पता हे की कुछ ऊंच नीच हो गयी तो कोई भी नहीं हे इस पूरी कायनात में , जो हमें बचाएगा या साथ खड़ा होगा इसलिए एक एक लाइन सोच समझ कर और बहुत लेट लेख लिखने पड़ते हे दूसरी तरफ आज़म और छोटे इकबाल के मित्र हमदम दमदम इन ZAHID साहब को देखिये जो मन में आये दबंग होकर लिखते हे नतीजा क्या होना हे यही ना या तो अपने यहाँ लोकप्रियता मिलेगी ही मिलेगी – विरोध हुआ कार्यवाही हुई जेल मुक़दमेबाज़ी हुई तो उससे भी अपने यहाँ और विपक्ष में भी जिन्दा शहीद का स्टेटस और बाहर आते ही MALAAYE जयजयकार मिलेगी दोनों हाथो में लड्डू , सूफी संत को देखिये रविश कुमार को देखिये भाजपा आई टी सेल और राइटिस्टों ने रविश का विरोध कर कर के उन्हें इतना ऊँचा उठा दिया हे की कुछ लोग तो रविश को पि एम् का उमीदवार बताने का सुझाव विपक्ष को देने लगे हे तो सब जगह यही हाल हे बस हम ही अभागे और मनहूस हे बाकी सबकी आज मौज़ हे ——————————————— ” Mohd ZahidYesterday at 13:17 · वो औरत कौन थी ?सारा गुजरात जानता था कि साहेब की पत्नी हैं परन्तु साहब विधानसभा चुनाव के तीन हलफनामें में खुद को कुंवारा बताते रहे , उच्चतम न्यायालय के कड़े आदेश के बाद उन्होंने 2014 में खुद को उनका पति तो बताया परन्तु पत्नी का हक नहीं दिया।वो इंजीनियर लड़की कौन थी ?
सारा गुजरात जानता है कि साहेब की “रखैल” थी।
वहाँ रहते हुए सरकारी आवास में ऐय्याशियाँ की गयीं और तड़ीपार ने इसकी चौकीदारी की , साहेब के करीबी आईएएस ने उच्चतम न्यायालय में शपथपत्र देकर उस लड़की के साथ साहेब के बंद कमरे के मिनट दर मिनट कारगुजारी का ब्यौरा दिया है जिसका साहेब ने कभी इंकार भी नहीं किया। दिल्ली रवानगी से पहले फिर वह लड़की गायब करा दी गयी। जीवित भी है या मर गयी कोई नहीं जानता।
तड़ीपार की पत्नी कौन थी ?
सारा गुजरात जानता है कि साहेब की रखैल थी।
आनंदी बेन किसके चंगुल में थीं ?
उनके पति के आडवाणी को लिखे पत्र के आधार पर
साहेब के चंगुल में फंस कर उन्होंने अपने पति को छोड़ दिया था।
साहेब का छिछोरापन सारी दुनिया ने देखा है।
सुनते हैं कि साहेब के घर का पिछवाड़ा भी इनकी मनपसंद की किसी मंत्री के घर के पिछवाड़े से मिलता है।
सबका हक मार कर चले हैं मुस्लिम महिलाओं को हक दिलाने।Mohd ZahidYesterday at 11:01 ·
देश के प्रधान प्रचारक जी बचपन मे चाय बेचते थे।उनकी माता जी 4 मुस्टंडों को जन्म देने के बाद भी दूसरों के घर बरतन मांजती थीं।
फिर भी बाल नरेंदर बचपन मे स्टूडियो जाकर टाई, सूट पहन कर फोटो खिंचवा लेते थे। मालगाड़ी में चाय बेंचकर यूपी के ग्वालो से हिंदी सीख लेते थे। दिल्ली से हरियाणा स्कूटर से जाते थे। गांव की लाइब्रेरी में खाली समय पढ़ने चले जाते थे। उस जमाने मे शरारत करने के लिए लड़कियों की चोटी में स्टेपलर से स्टेपल कर देते थे। गाँव के तालाब में मगरमच्छ का बच्चा पकड़ लेना तो एक खेल था।ये सब जानकारी माननीय जी ने खुद जनता को दी है। विदेशों में अपनी माता जी को याद करके रो भी लेते हैं। अपने जन्मदिन वाले दिन पूज्य माता जी को घर के बाहर बरामदे में बुलवाकर मीडिया के कैमरों की तरफ देखते हैं।ये सब तो पब्लिक को हजम हो गया। बस हमको ये जानने की बड़ी तीव्र इच्छा है कि इनके पूज्य पिता जी क्या काम धाम करते थे ? उनका स्वर्गवास कब और कैसे हुआ ?इनके बड़े भाई मोदी के भाई प्रह्लाद मोदी के बारे में तो अपने पास पुख्ता जानकारी है। ये जनाब कोई परचून की दूकान नहीं चलाते हैं ना चलाते थे, वो जो गरीबो को संस्था राशन कार्ड पर राशन बांटती है ये जनाब उसके अध्यक्ष हैं। इस संस्था में करोड़ों रुपयों की गड़बड़ होती है।
कमाई का अंदाजा लेने के लिए आजतक का 2013 का स्टिंग ऑपरेशन “ऑपरेशन ब्लैक” देखें। यूट्यूब पर उपलब्ध है। अभी पिछले हफ्ते ही इनकी लक्ज़री एसयूवी दुर्घटनाग्रस्त हो गयी थी।मीडिया की तो औकात ही नही है जो इसको कवर स्टोरी बनाये। सोशल मीडिया वालों को क्या दिक्कत है? झूठे के घर तक पहुंचो। असलियत सामने आ जायेगी।जब जब सच बोलने के लिए राजा हरिश्चंद्र का नाम लिया जाएगा तो झूठ बोलने के लिए भी अगली पीढ़ी को एक रोल मॉडल की जरूरत पड़ेगी। हुजूर इसमे सौ परसेंट फिट हैं !
राजेश यादव जी की पोस्ट ”————————————————————————————————————————————————अब देखिये पाठको ज़ाहिद साहब ने कैसे खुल कर दश के सबसे ताकतवर आदमी के –वेध सम्बन्धो पर कैसे खुल कर लिखा वैसे भी ये लोग खुल कर रहते और काम करते हे किसी की सपा से यारी हे तो किसी की किसी से तो इस तरह से खुल कर लिखने से कितने फायदे हे इस तरह से लिखने से आप विपक्ष की निगाह में चढ़ते जाओगे और अगर फिर खुदा ना खस्ता कोई कार्यवाही हुई आप गिरफ्तार हुए जेल गए तो इसमें भी क्या नुक्सान हे इधर आप जेल उधर बाहर आपका दोस्त छोटा इकबाल आपकी याद में रो रो कर नज़्म बना देगा ”हाय मेरा ज़ाहिद चला गया जेल कौम की खातिर हाय – हाययययययययय ” वो रो रोकर मुशायरो में पढ़ेगा और माल बटोरेगा बस उस माल से आपकी जमानत layer या खुदा न खस्ता मेक्स या फोर्टिस का लाखो का बिल आराम से आ जाएगा जेल और हॉस्पिटल से बाहर आते ही और कुछ नहीं तो पार्षद तो बन या टिकट का जुगाड़ तो पक्का तो आशय ये हे की हर कोई ना आज हर किस्म के प्रचार से किसी न किसी लाभ में ही हे एक हम ही करम के जले हे
मलिक मोहम्मद जायसी बङे सन्त थे । पद्मावत महाकाव्य मे पद्मावती व राजा रतनसेन के माध्यम से आत्मा के परमात्मा के मिलन की चाह का आध्यात्मिक सन्देश है ।
इस सन्देश को भंसाली ने गायब कर के रानी पद्मिनी के चरित्र हनन का प्रयास किया है जो हमे स्वीकार्य नही हो सकता।
हिन्दूकटटरपंथी कोई भी हो वो कायर अवश्य ही होगा अगर कोई व्यक्ति वीर हे तो फिर वो हिन्दूकटरपंथ में नहीं जा पायेगा , कायरता ही हिन्दूकटटरता की पहचान हे आभषूण हे ये दुनिया की सबसे कायर और दुष्ट विचार धारा हे ये हमेशा दस या पचास आते हे और एक पर हमला करते हे http://www.janjwar.com/post/dalit-man-beaten-up-in-muzaffarnagar-attackers-shoot-circulate-video-in-social-media-uttar-pradesh
Mayank Saxena
3 hrs ·
श्रीगंगानगर में नवम्बर 2017 तक 3 साल में कन्या भ्रूण मिलने के 26 मामले ‘दर्ज’ हुए थे…
अलवर में 2015 में शिशु अस्पताल के बाहर एक मूंगफली बेचने वाले ने कन्या भ्रूण मिलने की एफआईआर करवाई थी…ऐसे और भी मामले लगातार सामने आते रहे हैं…
22 सितम्बर की ही ख़बर के मुताबिक उदयपुर में मल्लातलाई इलाके में कन्या भ्रूण मिला और ये भी अकेला मामला नहीं है…न पहला, न आखिरी…
करौली में पांचनापुल के पास 6 जनवरी, 2017 को कन्या भ्रूण मिला…इसको भी पहला-आखिरी मत मान लीजिएगा…
8 मार्च, 2017…उदयपुर की फतेहसागर झील के पास कन्या भ्रूण मिला…मौका था अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का…उदयपुर के ही भींडर के एक गांव में 3 नवम्बर, 2017 को ही कचरे के ढेर में कन्या भ्रूण मिला…
16 जनवरी, 2015 को जयपुर में चांदपोल के महिला अस्पताल के पास कन्या भ्रूण मिला था…31 मार्च, 2012 को मैं ख़ुद जब एक प्रतिष्ठित हिंदी समाचार चैनल में काम करता था…जयपुर में ही 5 दिनों में चौथा कन्या भ्रूण मिला था…
और लिखने में कई दिन लग जाएंगे…तब तक बस एक ही बात…
जय पद्मावती !!!
जय करणी माता !!!
महिलाओं के सम्मान में, राजपूताना मैदान में… !!!
आइए सब मिल कर राजस्थान की महिलाओं के सम्मान को ठेस पहुंचाने वाली फिल्म का विरोध करें…—————————–Aarfa khanamजब जीती जागती लड़कियों के साथ रेप, गैंग-रेप, शव के साथ रेप किया जा रहा हो लेकिन जनता इन लड़कियों के जान-सम्मान के लिये नहीं बल्कि एक काल्पनिक महिला पद्मावती के लिये सड़कों पर हो, तो समझ लीजिये कि हमारा समाज मर चुका और राजनीति सड़ चुकी है।
Aarfa khanam———————-noj KumarFollow
13 hrs ·
आखिर वे दो कौन लोग हैं जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस लोया केस में गुहार लगाई है?
आखिर उनमें से एक पेटीशनर की वकालत के लिए वही वकील क्यों खड़े हो रहे हैं जो श्री अमित शाह की तरफ से सोहराबुद्दीन केस में वकालत कर चुके हैं?
जस्टिस लोया के मामले में मुम्बई हाई कोर्ट में मामला दाखिल किया जा चुका था फिर अचानक सुप्रीम कोर्ट में यह मामला क्यों और कैसे आया?
सुप्रीम कोर्ट इस मामले में इतनी जल्दीबाजी में क्यों है?
ये सब सवाल हैं| इनके निश्चित जवाब तो नहीं हैं, लेकिन इस रिपोर्ट के अनुसार एक पेटीशनर जिसे पत्रकार बताया जा रहा हैं बीजेपी के एक नेता का करीबी है| उसी पेटीशनर के लिए श्री अमित शाह की तरफ से शोहराबुद्दीन मामले में वकालत कर चुके वकील जस्टिस लोया के लिए वकालत करने को तत्पर हैं|बाकी आप खुद रिपोर्ट पढ़िए|—————-
–Prem Choudhary Bana Offline रहता हुँ
तो सिर्फ दाल, रोटी, नौकरी एवं परिवार की ही चिंता रहती हैOnline होते ही
धर्म, समाज, राजनिती, देश, विश्व और ब्रम्हाण्ड की चिंताए होने लगती है
https://www.youtube.com/watch?v=xwihPlmHQlA
Geetanjali Yesterday at 12:49 · माहवारी भारतीय समाज के लिए हमेशा से टैबू ही रहा,,। एक ऐसा विषय जिस पर फुसफुसाहट तो हो सकती है पर मंच देना संस्कृति का हनन माना जाता है,, धर्म व संस्कार के नाम पर आवश्यक मुद्दों को हाशिये पर धकेलने की हमारी पुरानी परंपरा है,, हम कभी इस पर खुल कर बात नही करना चाहते है,, घर के पुरुष सदस्य हमेशा से इस विषय व दर्द को समझ ही नही पाए या उन्हें इन सब से किसी साजिश के तहत दूर रखा गया,, ये सोचना होगा,।
महिलाओं की सबसे ज्यादा मौत सर्वाइकल कैंसर से होती है। और इसका कारण है सफ़ाई की कमी व जागरूकता का अभाव,,,।
भारत को तो इसे महिलाओं के हित में टैक्स फ्री करना चाहिए,,, क्योकि हमारी असली चिंता गांव की व ग़रीब महिलाएं है,,। जो बहुत कुछ सहती है,, चुपचाप,,,।
फिल्म पैडमैंन आ रही है , ये एक बहुत ही साहसिक व जागरूक पहल साबित हो ऐसी उम्मीद है,, ऐसा ना हो ये सिर्फ एक फ़िल्म ही साबिर हो कर रह जाये,,,। समाज मे हो सकता है इसको लेकर अंतर्विरोध हो,,,, क्योकि आखिर ये विषय छुपा हुआ जो है,, इस पर खुल कर चर्चा आज भी निषिद्ध है,, शायद ये फ़िल्म नए द्वार खोलने में कामयाब होगी,, स्त्री के दर्द व परेशानी को सांझा रूप से देखने की पहल हो सकती है,, ये फ़िल्म,,, क्या गांव में स्त्रियां इस फ़िल्म को पुरुषों के साथ बैठ कर देख सकेंगी???? समय बदला है,, पर विचार अभी भी बहुत पीछे है,, ये इस लिए कह सकती हूँ क्योकि गांव में घूमते समय अक्सर मैं इसे महसूस करती हूं,,, । एक वाकिया सुनिए,,, एक गांव में सरकार की तरफ से सामूहिक शौचालय निर्माण किया गया है,, पर उसे गांव का कोई व्यक्ति नही वापरता,,, कारण पूछा तो जवाब चौकाने वाला था, ये बताया गया कि मर्दो के सामने हम औरते शौच करने कैसे जा सकते है,,, शहर तो बदल रहा है,, पर गांव कब बदलेगा,, ये हमे सोचना होगा,,। आज इसकी आवश्यकता भी दिखती है,,।
ये वाकई क्रांतिकारी कदम होगा जब सभी जगह ,, खासकर गांवों में पुरुष व महिलाये इसे साथ मे बैठ कर देखे,, और गंभीरता से इस पर चर्चा करें। ना कि दोनों अलग अलग बैठ कर देखे और ऐसा कोई सीन आने पर मुँह दबा कर खी खी करें।
Geetanjali
21 hrs · Geetanjaliहम कितनी आसानी से काम का बहाना बना कर पतिदेव को बोल देते है कि #पैड ख़त्म हो गया है, pls लेते आना,, और पति भी शान से ला कर देते है,,। क्या पति कभी बोलते है कि #कंडोम खत्म हो गया है लेते आना,,,,।????
नही,, कभी नही बोलेंगे,, क्योकि ये उनके वर्चस्व का क्षेत्र है,, उसमे आपकी घुसपैठ,, संस्कृति के लिए खतरनाक है,, फिर कहती हूँ,, भारतीय पुरुष कर अंतःकरण में आज भी वही स्त्री की छुईमुई वाली छवि अंकित है,,। जो सर झुका कर आपका अनुकरण करे,, इससे पुरुष के अहम को तुष्टि मिलती है,,। वो वही काम आपको बोलते है जो घरुकाम होता है बाजार का वर्चस्व वो अपने हाथ में रखते है।।।।
भई हंसो नही,, सोचो,,,। हम क्या जानबूझ कर निर्भर होना पसंद करती है,, ।
बहुत सी ऐसे ही कई लिस्ट है जो हम बेझिझक पतियों को थमा देते है, और फिर खुद से कमजोर होते जाते है।
कही हम खुद से तो नही पीछे खड़ी है,, मैने बहुत बार देखा है कई पुरुषों को अपनी पत्नियों के लिए ब्रा पेंटी व पैड खरीदते हुए,, और कई महिलाओं से पूछा भी है इस बारे में ,,, तो वो बोलती है कि अरे पुरुष दुकानदार के सामने खड़े हो कर कौन ब्रा पेंटी पसंद करें या सेनेटरी पैड मांगे,, ।।
अरे जब इतनी हिम्मत नही करोगी तो समाज से कैसे सामना कर सकोगी,,,।
Geetanjali
सिकंदर हयात
सिकंदर हयात 18 minutes ago
चेनेल रात दिन साम्प्रदायिकता फैला रहे हे अब किसी में विनोद शर्मा जी की तरह हिम्मत नहीं हे जैसे इन्होने गुजरात दंगो के बाद बहस में मनोज रघुवंशी को धमकाया था अपने इकलौते बेटे की बहुत ही दर्दनाक मौत वो शायद देर रात घर पर सौ रहा था दोस्त आये उठाकर ले गए शायद कुछ खाने पिने और रस्ते में ट्रक ने कुचल दिया उसके बाद इनकी बहुत हालात ख़राब थी मगर कुछ दिन बाद ही बड़ी हिम्मत से नार्मल हो गए————————————– Shesh Narain Singh is with Vinod Sharma.
Yesterday at 09:21 ·
आज विनोद शर्मा का जन्मदिन है . मैं उनको बहुत वर्षों से जानता हूँ… जब चंद्रशेखर को टरका कर देवी लाल ने तिकड़म से वी पी सिंह को प्रधानमंत्री बनवा दिया था, तब मैंने विनोद शर्मा की धमाकेदार पत्रकारिता का जलवा देखा था. चंद्रशेखर के व्यक्तित्व पर की गई उनकी आफ द रिकार्ड एक टिप्पणी मुझे हमेशा याद रहती है . अपने अखबार के पाकिस्तान में नियुक्त संवाददाता के रूप में आई एस आई ने उनके ऊपर जो ज़ुल्म ढाया था उसके बाद मैंने उनकी हिम्मत का लोहा माना था. दिल्ली में जब उनके ऊपर पुत्र की दुर्घटना का वज्र पड़ा था ,तब भी मैंने विनोद और अर्ची की हिम्मत देखी थी. आजकल पत्रकारिता के चारण युग में जिस तरह से विनोद विदुर की तरह सत्य के साथ खड़े हैं ,मैं उसका भी बहुत सम्मान करता हूँ . जन्मदिन बहुत बहुत मुबारक हो विनोद शर्मा , तुम जियो छियानबे साल, हर बरस के दिन हों पचास हज़ार Girish Malviya
Yesterday at 09:31 ·
केंद्रीय मंत्री सत्यपाल सिंह ने दावा किया है कि मानव के क्रमिक विकास का चार्ल्स डार्विन का सिद्धांत ‘वैज्ञानिक रूप से ग़लत है.इंसान जब से पृथ्वी पर देखा गया है, हमेशा इंसान ही रहा है.’ उन्होंने स्कूल और कॉलेज के पाठ्यक्रम में इसमें बदलाव की भी जरूरत बताई
लगता है कि मंत्रियों ने मोदीजी की महत्वाकांक्षी ‘दीनदयाल पकोड़ा तलो रोजगार गारण्टी योजना’ पर अमल शुरू कर दिया है… यदि ऐसा ज्ञान स्कूलो में दिया जाएगा तो हमारे बच्चे पकोड़े तल कर ही रोजगार पा सकेंगे
क्या प्रधानमंत्री देश की जनता से कुछ भी झूठ बोल देते हैं
सिकंदर हयात
सिकंदर हयात 3 hours ago
aese desh ki bhla kya izzat ho sakti he
Mayank Saxena3 hrs ·
श्रीगंगानगर में नवम्बर 2017 तक 3 साल में कन्या भ्रूण मिलने के 26 मामले ‘दर्ज’ हुए थे…
अलवर में 2015 में शिशु अस्पताल के बाहर एक मूंगफली बेचने वाले ने कन्या भ्रूण मिलने की एफआईआर करवाई थी…ऐसे और भी मामले लगातार सामने आते रहे हैं…
22 सितम्बर की ही ख़बर के मुताबिक उदयपुर में मल्लातलाई इलाके में कन्या भ्रूण मिला और ये भी अकेला मामला नहीं है…न पहला, न आखिरी…
करौली में पांचनापुल के पास 6 जनवरी, 2017 को कन्या भ्रूण मिला…इसको भी पहला-आखिरी मत मान लीजिएगा…
8 मार्च, 2017…उदयपुर की फतेहसागर झील के पास कन्या भ्रूण मिला…मौका था अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का…उदयपुर के ही भींडर के एक गांव में 3 नवम्बर, 2017 को ही कचरे के ढेरमें कन्या भ्रूण मिला…
16 जनवरी, 2015 को जयपुर में चांदपोल के महिला अस्पताल के पास कन्या भ्रूण मिला था…31 मार्च, 2012 को मैं ख़ुद जब एक प्रतिष्ठित हिंदी समाचार चैनल में काम करता था…जयपुर में ही 5 दिनों में चौथा कन्या भ्रूण मिला था…
और लिखने में कई दिन लग जाएंगे…तब तक बस एक ही बात…
जय पद्मावती !!!जय करणी माता !!!
महिलाओं के सम्मान में, राजपूताना मैदान में… !!!
आइए सब मिल कर राजस्थान की महिलाओं के सम्मान को ठेस पहुंचाने वाली फिल्म का विरोध करें…—————————–Aarfa khanamजब जीती जागती लड़कियों के साथ रेप, गैंग-रेप, शव के साथ रेप किया जा रहा हो लेकिन जनता इन लड़कियों के जान-सम्मान के लिये नहीं बल्कि एक काल्पनिक महिला पद्मावती के लिये सड़कों पर हो, तो समझ लीजिये कि हमारा समाज मर चुका और राजनीति सड़ चुकी है।Aarfa khanam———————-noj KumarFollow
13 hrs ·आखिर वे दो कौन लोग हैं जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस लोया केस में गुहार लगाई है?
आखिर उनमें से एक पेटीशनर की वकालत के लिए वही वकील क्यों खड़े हो रहे हैं जो श्री अमित शाह की तरफ से सोहराबुद्दीन केस में वकालत कर चुके हैं?
जस्टिस लोया के मामले में मुम्बई हाई कोर्ट में मामला दाखिल किया जा चुका था फिर अचानक सुप्रीम कोर्ट में यह मामला क्यों और कैसे आया?
सुप्रीम कोर्ट इस मामले में इतनी जल्दीबाजी में क्यों है?ये सब सवाल हैं| इनके निश्चित जवाब तो नहीं हैं, लेकिन इस रिपोर्ट के अनुसार एक पेटीशनर जिसे पत्रकार बताया जा रहा हैं बीजेपी के एक नेता का करीबी है| उसी पेटीशनर के लिए श्री अमित शाह की तरफ से शोहराबुद्दीन मामले में वकालत कर चुके वकील जस्टिस लोया के लिए वकालत करने को तत्पर हैं|बाकी आप खुद रिपोर्ट पढ़िए|—————-
–Prem Choudhary Bana Offline रहता हुँ
तो सिर्फ दाल, रोटी, नौकरी एवं परिवार की ही चिंता रहती हैOnline होते ही
धर्म, समाज, राजनिती, देश, विश्व और ब्रम्हाण्ड की चिंताए होने लगती है
Girraj Ved14 hrs · अगर ये बंदा अपना थूका हुआ नहीँ चाटता, चिंदी चोर और बलात्कारी नहीँ होता तो मुझे हमेशा शक रहता की ये साँचा भगवाधारी भी है या नहीँ !
लेकिन अब यकीन हो गया की #उपदेश_राणा साँचा भगवाधारी है !…………….जब उपदेश राणा अपने गांव में रहता था तब उसने अपनी हि भाभी का दुष्कर्म किया था जब इस बात का पता गांव वालों को चला तो उसको गांव से निकाल दिया गया, उसके बाद उपदेश राणा मुम्बई चला गया और वहां जाकर फिल्म इंडस्ट्री में घुसने का काफी प्रयास किया !
वो एक्टर तो नहीँ बन पाया लेकिन एक्टर्स के बाउंसर और सिक्योरिटी वालों से पिट पिटाकर, लात घूंसे खाकर कुछ एक्टर -एक्ट्रेस के साथ फोटो खिंचाने में सफल हो गया ! उसे मुम्बई में कोई सफलता नहीं मिली इस सदमे में वह काफी टूट गया और फिर नशेड़ी बन गया !
तभी इधर मोदी राज आने के बाद से हिंदुत्व के नाम से उसके दिमाग में लोगों को मूर्ख बनाने का आइडिया आया !
फिर वो धीरे-धीरे भड़काऊ फेसबुक पोस्ट के माध्यम से अपनी पहचान बनाने की कोशिश करने लगा !
लेकिन बेरोज़गार और नशे के आदी उपदेश राणा को पैसे की समस्या ज्यादा थी ! तो पैसा कमाने के लिए उसने भगवा तरीका यानी मूर्ख बनाने का तरीका निकाला !
इसके लिए उसने हिरो-हिरोइन के साथ जो फोटो खिंचवाये थे उसके माध्यम से वो हिन्दू लड़के लड़कियों को फिल्म इंडस्ट्री में काम दिलाने का सपना दिखाकर साथ जयपुर बुलाता और यहाँ उनसे पैसे ऐठंता था !
कुछ दिन जयपुर के होटल में ठहराता था ! उसी दौरान उसने और उसके साथियों ने कई लड़कियों से दुष्कर्म किया ! कुछ लड़कियों ने केस भी कर रखा है और न जाने कितनी लड़कियाँ शर्म के मारे चुप बैठी हुई है !
अपनी भाभी का बलात्कार करने वाले उपदेश राणा ने हि अपनी बहन का बलात्कार करने वाले शंभू रैगर को बचाने के लिए सबसे पहले मोर्चा खोला था !
वर्तमान में उपदेश राणा जो कर रहा है वो उपदेश राणा को पब्लिसिटी और पैसा दोनों दे रहा है लेकिन उपदेश राणा अन्दर से अब भी बहुत टूटा हुआ है टूटने की असली वजह है उसका घर और गांव वाला अब भी उसको अपने गांव में प्रवेश नहीं दे रहे हैं !
Paytm ही उपदेश राणा का जीवन रेखा है बहुत से भक्त और अब तो बड़े बड़े लोग भी उपदेश राणा के Account में पैसे भेजते है !
एक लड़की नाम अंजली मल्होत्रा है वो पहले उपदेश राणा गैंग में काम करती थी लेकिन जब उसको उपदेश की सच्चाई पता चली तो वो दीपक शर्मा के गैंग में चली गई अंजली मल्होत्रा और उसके दोस्तों का भी बहुत सारा पैसा उपदेश राणा खा चुका है !
Note:- उपदेश राणा के खिलाफ इधर उधर की पोस्ट करने से अच्छा है इस सच्चाई को काॅपी करके पोस्ट कीजिए, क्योंकि उपदेश आपके विरोध से नहीं डरता है बल्कि अपनी सच्चाई के खुलने से डरता है !Girraj Ved
18 January at 12:34 ·
उमा भारती, आडवाणी, कल्याण सिंह, विनय कटियार और गोपीनाथ मुंडे के बाद, एक और हिंदू शेर
प्रवीण तोगड़िया भी कोंडोम कि गति को प्राप्त हुऐ !
आठसौ साल बाद आयी हिंदू सरकार में हिंदुत्व के झंडाबरदारों कि ऐसी दुर्गति !
भौत नाइंसाफी है ये भौत
हम तो पहले हि बोल रहे थे, ये फैजलवा किसीको नहीँ छोड़ेगा, जो सर उठायेगा मारा जायेगा !
अब देखना है कि अगला नम्बर पहले नागपुर वाले ऊद बिलाव बाबा का आयेगा या सू सू स्वामी का
#भक़्तो #हिंदुत्व_खतरे_में
–Sheetal P Singh
4 hrs ·
हितेन्द्र अनंत
मोदी जी से इंटरव्यू के लिए कड़े और मुश्किल सवालों की सूची। जो चाहे इस्तेमाल कर ले:
१. मोदी जी आप बहुत क्यूट हैं। (ये सवाल ही है)
२. नरेंद्र मोदी जी आप 24 में 26 घंटे काम करते हैं। इतना कम क्यों सोते हैं आप?
३. आदरणीय प्रधानमंत्री जी, आपने पूरी दुनिया में देश की इज्जत बढ़ा दी है। ये कैसे हुआ?
४. परम आदरणीय प्रधानमंत्री जी, स्वच्छ भारत अभियान की शानदार सफ़लता का राज क्या है?
५. प्रातः स्मरणीय, परम आदरणीय प्रधानमंत्री जी, विपक्ष आप पर झूठे और अनर्गल आरोप लगा रहा है, आखिर विपक्ष इतना झूठ क्यों बोलता है?
६. प्रातः स्मरणीय, परम आदरणीय, पूज्य प्रधानमंत्री जी, आपको खाने में क्या पसन्द है?
७. प्रातः स्मरणीय, परम आदरणीय, परम पूज्य प्रधानमंत्री जी, पाकिस्तान हमसे डरा हुआ है, चीन घबराया हुआ है, भारत विश्वगुरु है। अब देश दुनिया को क्या सीख दे?
८. श्री श्री १००८, हिन्दू हृदय सम्राट, युगनायक प्रधानमंत्री जी, युवाओं के लिए आपका क्या संदेश है।
९. हे दुःख हरण, हे तारणहार, हे पालनहार, हे राष्ट्रनायक प्रधानमंत्री जी, दिल्ली में आपको गुजरात की याद नहीं आती?
१०. हे कल्कि अवतार, हे युगपुरुष, हे युगप्रवर्तक, हे महायोगी प्रधानमंत्री जी, आपके कुर्ते का डिज़ाइन दुनियाभर में प्रसिद्ध हो गया है। आपने फैशन डिज़ाइन का हुनर कब सीखा?
११. हे महावीर, महाबलि, महापराक्रमी, महाबलवान प्रधानमंत्री जी, आखिरी और सबसे।मुश्किल सवाल, आप सी प्लेन में उड़े, कैसा अनुभव था वह?
हमें दर्शन देने और हमसे आशीर्वचन कहने के लिए आपके श्रीमुख का, आपका और आपके दैवीय व्यक्तित्व का जितना भी धन्यवाद दिया जाए कम है। फ़िर भी, हमें साक्षात्कार देने के लिए हृदय के अंतःस्थल से कोटि-कोटि, अब्ज-अब्ज, अनंत-अनंत, अणु-परमाणु, एकाधिक, शताधिक, साष्टांग, दंडवत प्रणाम, धन्यवाद, प्रणाम, धन्यवाद, प्रणाम, नमन, नमामि, नमस्ते, चरण स्पर्श, वन्दे, जय-जय, जय-जय-जय , प्रणाम।
#वर्चस्व_कि_जंग_का #गैंगवार———————————
http://www.bbc.com/hindi/india-42788909 ( Abbas Pathan) लोग कह रहे है फ़िल्म पद्मावत से मुसलमानो की भावनाएं आहत होनी चाहिए, क्योकि ख़िलजी को क्रूर और पाशविक दर्शाया गया है। हम कह रहे है “भावनाए उनकी आहत हो जिनके “तुर्क मंगोल” दामाद हुए है, हमारी भावनाएं क्यो आहत होने लगे। जिनकी घड़ी 13वी सदी में अटकी हुई है उनकी भावनाएं आहत हो। हमारी घड़ी कहीं नही अटकी हुई है, बादशाहत को हमने ठोकरों में रखा है। तख्तों ताज ठोकरों में पड़े थे। तब भी हम खुश थे और आज पंचर बनाकर भी अल्लाह का शुक्र अदा करते है। मुहम्मद गौरी अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली की गद्दी पे बैठाकर चला गया था। बादशाह “मखदूम अशरफ” ने 12 साल सिमनान पे राज किया, बाद उसके राज पाट से मोहभंग हो गया तो सुल्तान की गद्दी छोड़कर सूफी लिबाज़ ओढ़े हज़ारो मील दूर भारत चले आए। इस धरती की मिट्टी में कुछ ना कुछ बात जरूर थी कि दुनियाभर के सूफी संत यहाँ आकर खानाबदोश बन गए। आज मौजूदा कालखण्ड में जमानेभर के सांप बिच्छू जैसे जहरीले संघटन इसी धरती पे पैदा हो गए ये अफसोस कि बात है। इसे जलवायु परिवर्तन का असर कहा जा सकता है।आपका मान सम्मान और अभिमान राजे महाराजे है, लेकीन हमारा अभिमान गुजर चुके बादशाह नही है। हम हमारी तकरीरों में सूफी संतों की फाकामस्ती के किस्से सुनाते है बादशाहों की चमकती तलवारों का वजन नही बताते।आप रुपहले पर्दे पे बादशाहों को चाहे मर्जी जितना उज्जड दिखा दीजिए हमे कोई फर्क नही पड़ने वाला है लेकिन दुनिया तो जानती है कि यही वे चंद लोग थे जो घोड़ो पे बैठकर आये और यहां के वीर पराक्रमी योद्धाओ की मूंछे उखाड़कर कर ले गए।रही बात उग्र विरोध की तो भैया आपका देश है, हम तो सौतेली औलाद है। आप चाहे मर्जी जितना अपनी भारत माता की छाती पे मूंग दलिये, आप ही राष्ट्रवादी है.. राष्ट्र के पंख उखाड़ फेंकिये। तलवारे लरहराइये, कोर्ट जलाइए और हो सके तो वापस रियासत कालीन दौर ले आइये। लेकिन इतना याद रखियेगा की इतिहास के लिए वर्तमान को क्षतिग्रस्त करके आप अपना लिखा जाने वाला इतिहास बिगाड़ रहे है, आपकी ही आने वाली नस्लो की नजरें आपके इस इतिहास को सुनकर झुक जाएगी।
( Abbas Pathan)————–Sheetal P Singh added 3 new photos.
1 hr ·
वे दावोस में FDI लाने के लिए भारत की विविधता और गांधी की अहिंसा का गान कर रहे हैं और यहां अहमदाबाद के एक मॉल को दंगाइयों की भीड़ दिनदहाड़े आग के हवाले कर रही है सरकार की मदद से !
वे सोच रहे हैं कि FDI वालों को क्या पता चलेगा ?———Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
8 hrs · Dehra Dun ·
दुनिया मे जो सबसे गन्दा और कुत्ता नशा है , उनमे से एक है गांजा । स्कूल टाइम पर एक बार साथ के लौंडों ने मुझे पिला दिया था । तबसे क़सम खाई कि आइंदा यह महा नीच नशा नहीं करना ।
इसकी सामान्य मात्रा लेने पे एक की जगह दो दिखाई पड़ते हैं । कोई बहुत ज़्यादा मात्रा में इसका सेवन कर ले , तो एक के छह भी दीख सकते हैं । ऐसी हालत में मनुष्य को अपनी आंखों के सन्मुख दुनिया घूमती सी दीखती है । या फिर वह स्वयं ही बे वजह दुनिया घूमने लगता है , और अपनी हंसी उड़वाता है ।
मलिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत मेरी दृष्टि में एक दो कौड़ी की कथा है । इसमें अतिशयोक्ति अलंकार भी पनाह मांगता है । मुझे लगता है कि जायसी ने भी एक को छह दिखाने वाला नशा करने के बाद यह कबित्त लिखा ।
दुर्भाग्य वश यह बकवास कथा मेरे कॉलेज के कोर्स में थी । लेकिन इसका पूर्वाद्ध पढ़ कर ही मैने यह किताब फेंक दी , तथा उस पर्चे में नकल कर पास हुआ । यदि मैने पूरा पद्मावत पढ़ लिया होता , तो आज मेरा दिमाग भी ठस्स हो गया होता , जैसा करणी का है ।
कथा यह है कि सिंघल द्वीप की राजकुमारी पद्मावती अनिंद्य सुंदरी थी । उसका एक मुंह लगा तोता था । तोता ने चित्तौड़ के राजा रत्न सेन से उसके हुस्न की चुगली खाई । कामुक और लम्पट राजा अपनी ब्याहता बीबी को छोड़ पद्मावती को लेने चल पड़ा । सिंघल राजा के महल में उसे वहां की सेना का कड़ा प्रतिरोध सहना पड़ा । किंतु अंततः शिब जी , हनुमान जी एवं पारबती जी इत्यादि उसकी मदद में आये , और वह जीत गया , तथा पद्मावती को लेकर अपने राज को आया । … आगे की कथा भी इसी भी इसी तरह स्टंट और बकवास है ।
प्रश्न यह है , कि जिसकी मदद में शिब जी , हनुमान जी आदि स्वयं दौड़े चले आते थे , वह ससुरे म्लेच्छ अलाउद्दीन खिलजी से क्योकर हार गया ?
फिर भी मैं सिनेमा घर जा कर यह खेल अवश्य देखूंगा । क्योंकि इसे देख कर मैं संविधानेत्तर शक्तियों को चुनौती दूँगा ।Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
22 January at 07:41 · Dehra Dun ·
देखो , यह ठीक से बैठ नहीं पाता , न सुन पाता , न बोल पाता । फिर भी सत्ता की वासना नहीं जाती । बैठता है , तो मेंढक जैसा दिखता है । चलता है , तो लगता है कोई बला चली आ रही है । बोलता है , तो बार बार ऊपर के दांतों की नकली पंक्ति को जीभ से ठेलता है । नमस्कार बोलो , तो इसे बेताल घाट सुनाई पड़ता है । सामने से जगदीश टाइटलर आये , तो इसे कमल नैथ दिखाई पड़ता है । कानों में सांय सांय और सर में भाँय भाँय होती है ।मुंह मे दांत नहीं , पेट मे आंत नहीं । हाज़मा बिगड़ गया , फिर भी चटोरे हैं ।
इन्हीं लालची , खूसट , दम्भी और घामड़ बुड्ढ़ों की वजह से कांग्रेस की दुर्गत हुई है । इस जैसे कई हैं । कहते हैं कि जीवन भर कांग्रेस की सेवा की । अबे सेवा की , तो मेवा नहीं पाया क्या ? जीवन भर सत्ता सुख भोगा ।
क्या इन्हीं के भरोसे कांग्रेस 2019 की जंग फतेह कर पायेगी ? दूसरी ओर बीजेपी को देखो । 75 पार के सभी बुड्ढों को जबरन घर बिठा दिया ।
ऐ जवानों , आगे बढ़ो । इनके ड्राइवर से गाड़ी की चाबी छीन लो । बंगले की लाइट काट दो । रसोइया भगा दो । चश्मा छीन लो । तभी ये पापग्रह टलेंगे । अपने गांव लौट जाएंगे । और तुम्हारा पथ प्रशस्त होगा ।
See Translation
http://www.bbc.com/hindi/india-42793512 Devanshu Jha
3 hrs ·
पद्मावत के बहाने एक बार फिर….
लड़-लड़ जो रण बाँकुरे, समर,
हो शायित देश की पृथ्वी पर,
अक्षर, निर्जर, दुर्धर्ष, अमर, जगतारण
भारत के उर के राजपूत,
उड़ गये आज वे देवदूत,
जो रहे शेष, नृपवेश सुत-बन्दीगण…..निराला
निराला के अमर काव्य तुलसीदास में मुगलों के आधिपत्य में गल रहे भारतीय समाज का चित्रण है । साथ ही कवि कह रहे हैं कि जो महावीर उद्धारक, अक्षर राजपूत थे, जो भारत के उर थे, वे सब उड़ कर विलुप्त हो चुके हैं और जो रहे वे राजा के वेश में बंदियों के पुत्र हैं ।
आज पद्मावत पर जैसी स्थिति हो गई है, उसे देखकर मन अथाह दुख, ग्लानि और उद्वेग से भर उठा है । भारतीय इतिहास के सबसे बड़े लड़ाके इतने कमजोर, इतने शंकालु और आत्महंता हो चुके हैं कि खुद ही अपने शौर्य की महान गाथा को मलिन कर रहे ! न सिर्फ मलिन कर रहे बल्कि एक झटके में उसे पददलित कर कठमुल्लों के समक्ष खड़ा कर रहे ! और विरोध करने वाले हतभाग्य, हताश किकर्तव्यविमूढ़ हैं ! हम जैसे लोग कुछ लिखने से घबराते हैं कि अगले ही क्षण पच्चीस गालियां न पड़ जाए ।
कोई कहता है जा अपनी मां का डान्स देखता रह ! तो कोई कहता है कि उचक्के करणी सेना और उऩके समर्थक नहीं तू है तेरा बाप है…! इससे भी खऱाब खऱाब टिप्पणियां मुझे सुननी पड़ी हैं । यहां तक कि विदेशों में बैठे बड़े-बड़े ठाकुर साहब मुझे अमित्र किये दे रहे हैं ।
हद है,जिस इतिहास को मुल्लों के आक्रांतकारी युग में, सैकड़ों वर्षों के पराजय काल में, वामपंथियों के षड़यंत्र में दबाया मिटाया ना जा सका, उसे भंसाली एक घूमर दिखा कर मिटा दे रहा ! जो इतिहास राजस्थान के चप्पे-चप्पे से चलकर हमारे बिहार के भागलपुर जिले के गांव तक आ पहुंचा( मेरी मां ने बचपन में पद्मावती के जौहर की कथा सुनाई थी ) वो इतिहास भंसाली की एक फिल्म से नष्ट हो रहा ! हमारी सांस्कृतिक चेतना पर इससे दारुण अट्टहास क्या हो सकता है..!
छि:.. सोच कर शर्म आती है कि महाराणा कुंभा जैसे उज्ज्वल, धवल वीर की धरती पर इतने भाट और किन्नर उग आए हैं । जिन महाराणा ने युद्ध जीतने के साथ संगीत और नृत्य में खुद को प्रवीण किया, जो संगीत और नृत्य पर पुस्तकें लिखा करते थे, जो मध्यकालीन भारत के महानतन वास्तुकार थे.. उनके साम्राज्य को एक घूमर से खतरा है ! कहो तो बुरके में घूमर दिखा दें…? तुम्हारी आत्मा तर जाएगी । और तब तुम भारत से बहिष्कृत होकर अरब में वास करना । क्योंकि नृत्य को घृणा के भाव से देखने की रीत भारत की नहीं । वह तो देवाधिदेव के नटराज रूप में झुकने वालों का देश है ।
सबसे दुखद बात तो ये कि भारतीय बलिदान की प्रतीक चरित्र महारानी पद्मावती को अपनी भौजी बना कर बांध डाला है। यानी राजपूतों के सिवा पद्मावती के बारे में कोई बात नहीं करेगा । ऐसे एक नहीं सैकड़ों पोस्ट पढ़ चुका हूं.. रोज पढ़ता हूं । ऐसा लगता है जैसे बुद्धि विवेक पर महाकाल की छाया पड़ गई हो । भारत के वीर लड़ाके इतने विमूढ और अराजक कैसे हो सकते हैं ?
एक तरफ जिन नरेन्द्र भाई मोदी के नाम पर ये भारत माता की जय करते हैं.. दूसरी तरफ उन्हीं नरेन्द्र भाई की मिट्टी पलीद करते हैं । वो मुल्क-मुल्क घूमकर विदेशियों को भारत बुलाते हैं.प्राचीन भारत का गौरवगान करते हैं और हम अपने मुल्क में घूम-घूम कर विध्वंस करते हैं, मॉल जलाते हैं हुल्लड़ करते हैं, सेल्फी खिंचवाते हैं और इस तरह से देवी पद्मावती के सम्मान की रक्षा करते हैं ! और विदेशियों तक पैगाम भिजवाते हैं कि मोदी जो बोल रहे हैं उसे सिर्फ भाषण समझना.. क्योंकि हमारा असली रूप तो यही है ।
जिस मूर्ख ब्राह्मण ने मुझसे कहा था कि अपनी मां का डांस देखता रह, उससे मैंने तब भी कहा था, जरूर देखता अगर मेरी मां भारतनाट्यम की निष्णात नृत्यांगना होतीं, ना सिर्फ मैं देखता बल्कि फेसबुक पर सभी मित्रों को निमंत्रण देता कि आइये आज मेरी मांता की नृत्य की प्रस्तुति है । नृत्य क्या है, जानते ही नहीं और बकवास करते हैं ।
जिस ठाकुर ने कुछ भी जाने बगैर मुझे और मेरे पिता को नीच कहा, उसे एक बार अपने पिता से मिलवाता फिर पूछता कि बता कौन है नीच..
बंद कर दो ये अऩर्थ ! ये अन्याय है…। जब फिल्म का ट्रेलर आया था तभी ये स्थापित हो गया था कि फिल्म तो वस्तुत: राजपूती वीरता का बखान है.. लेकिन अफवाहों के सहारे उसे भारतीय संस्कृति पर सबसे बड़ा हमला बना दिया गया ।
सेंसर बोर्ड ने पास किया…सुप्रीम कोर्ट ने पास किया…श्रीश्री रविशंकर ने कहा कि फिल्म तो राजपूती वीरता की गाथा है लेकिन सबको गाली ! जिन श्रीश्री के नाम की माला कुछ दिनों पहले तक जाप रहे थे उन्हें कहने लगे उसकी मां का साकीनाका ! पूरे मीडिया जगत को गरिया दिया, सबको भांड कह दिया और निकल पड़े सड़क पर उत्पात मचाने ।
अपने शौर्य के महान पूर्व को याद कर झुको, उसे उठान दो..उसकी अधौगति ना करो ! जरा सोचो, आज ओवैसी जैसे कठमुल्ले हम पर हंस रहे । इसलिए बंद कर दो ये उत्पात ! देवी पद्मावती.. सदैव पूजनीया रहेंगीं और मेवाड़ का मस्तक हमेशा ऊंचा रहेगा । कोई सिनेमा बनाने वाला उसे झुका नहीं सकता ।———————————-Girish Malviya
2 hrs ·
कभी आपने सुना कि, इनकी तकलीफे कम हो जाए इसलिए किसी ने माल में तोड़फोड़ कर बाहर खडी गाड़िया जला दी होGirish Malviya
8 hrs ·
पद्मावत काव्य के लेखक मलिक मोहम्मद जायसी (1477 – 1542 ) अपने समय के विलक्षण कवि थे.
उन्हें भक्तिकालीन प्रेम मार्गीय शाखा के प्रवर्तक माना जाता हैं जायसी अपने से क़रीब ढाई सौ साल पहले के एक चरित्र को उठाते हैं और अपने समय के एक चरित्र को पिरोकर मध्यकालीन भारत की भौगोलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक स्थितियों का ऐसे वर्णन करते हैं कि वो वास्तविक लगने लगता है.
जी हाँ यह सच है कि पद्मावत की रचना 16वीं शताब्दी की है जबकि अलाउद्दीन ख़िलजी का काल 14वीं शताब्दी की शुरुआत से शुरू होता है. वास्तविकता यह हैं कि यह इतिहास नही है
सूफ़ी प्रेमगाथा काव्य की परंपरा में “पद्मावत” का स्थान सर्वोपरि है। कथानक की प्रौढ़ता और वर्णन की सहजता इसे अन्य प्रेमगाथाओं से बहुत उच्च कोटि की रचना बना देती है। जायसी की ‘पद्मावत’ मूलतः सूफी अवधारणा पर आधारित है. इस सूफी अवधारणा के मुताबिक, अल्लाह एक महबूब है और इंसान उसका एक आशिक है. इस अवधारणा में महबूब और आशिक मिलकर फना हो जाते हैं. ये एक तरह का सूफी रोमांस ही है. ‘पद्मावत’ का भी यही आधार है
पद्मावत की कथा समाप्त करते हुए उपसंहार में जायसी ने रूपक का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है –
“तन चितउर, मन राजा कीन्हा हिय सिंघल, बुधि पदमिनि चीन्हा।
गुरू सुआ जेई पन्थ देखावा बिनु गुरू जगत को निरगुन पावा?
नागमती यह दुनिया–धंधा।बाँचा सोइ न एहि चित बंधा।।
राघव दूत सोई सैतानू।माया अलाउदीं सुलतानू”।।
उपर्युक्त वर्णन के अनुसार तन चित्तौड है,…….. संकल्प–विकल्पात्मक मन रत्नसेन है, ……….रागात्मक हृदय सिंहल है, ………….शुद्द बुद्दि पद्मावती है, …….हीरामन तोता गुरू है, नागमती संसारिक मोह है, ……….राघवचेतन जीवात्म को पथभ्रष्ट करने वाला शैतान है। …………..और अलाउद्दीन माया है……इस प्रकार सभी पात्र विभिन्न संकेतार्थ रखते है
इस प्रकार कवि ने सम्पूर्ण कथा को रूपक बतलाया है। कथा में उल्लिखित विभिन्न पात्रों को उसने मनुष्य की मानसिक शक्तियों का प्रतीक अथवा प्रतिरूप माना है और कथा में वेद वाक्य ‘यत्पिण्डे तद्ब्रह्माण्डे’ जैसे विशिष्ट दार्शनिक मत की ओर संकेत किया है कि जो पिण्ड में है, वही ब्रह्माण्ड में है ।
यह इतिहास नही है यह एक प्रसिद्ध साहित्यिक रचना है और पद्मावती का कैरेक्टर उस काव्य की उपज हैअब इस तरह के महाकाव्य पर यदि फ़िल्म बनती है तो इसमें विवाद खड़ा करना सिर्फ और सिर्फ मूर्खता ही कहलाएगी, जैसा कि प्रसिद्ध इतिहासकार हरबंस मुखिया कहते हैं कि दरअसल, इतिहास के साथ छेड़छाड़ करणी सेना जैसे दलों के लोग करते हैं, जो राष्ट्रवाद के नाम पर इस तरह के हिंसक कदम उठा रहे हैं.
पुनश्चः कल रात 2000 लोगो की भीड़ ने अहमदाबाद के 4 माल में तोड़फोड़ कर 70 बाइको में आग लगा दी है
Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
5 hrs · Dehra Dun ·
मनोरंजन एवं धनोरंजन के लिए बनाए गए खेल – तमाशा को अपने जातीय स्वाभिमान का विषय न बनाइये । इस हद तक तो हरगिज़ नहीं , कि आप उपहास के पात्र बन जाएं ।
गल्प , कबित्त , एवं नाटक चेटक में कभी भी शुद्ध इतिहास नहीं होता । हो भी नही सकता । और सिनेमा के खेल में तो हरगिज़ नहीं । जहां तक मेरा प्रश्न है , मैं ब्राह्मण कुलोद्भव हूँ । फिर भी यदा कदा यह कह कर गाली और धमकी खाता रहता हूं , कि इतिहास में ब्राह्मण समुदाय सर्वाधिक मुफ्त खोर रहा है । तथा ब्राह्मणों ने नृपों से मिलीभगत कर वर्ण व्यवस्था पुष्ट की ।
साथ ही मैं कभी भी स्वयं को परशुराम का वंशज नहीं मानता । जो ऐसा दावा करते हैं , वे एक ओर अपने dna को संदिग्ध बनाते हैं , साथ ही परशुराम पर भी प्रकारांतर से जार कर्म की लांछना लगाते हैं । क्योंकि जब परशुराम जी आजन्म ब्रह्मचारी रहे , तो उनकी सन्तति कैसे हो सकती है ? वे वेद व्यास जी की तरह नियोग क्रिया के अभ्यस्त भी न थे । अतः आप भी रानी पद्मावती के नहीं , अपितु अपने दादा – परदादों के वंशज हैं ।
मैं भृगु , रावण , परशुराम प्रभृति क्रोधी और दम्भी ब्राह्मणों की कटु भर्त्सना करता हूँ । साथ ही यह भी जानता और मानता हूं कि ये सभी कवि कल्पित हैं ।
जौहर अथवा सती क्रिया एक क्रूर कर्म है । सुवामा जाति के प्रति जघन्य और निबिड़ अपराध है । इसका महिमा मंडन न कीजिये । अपने घर परिवार की लड़कियों को पर्दे से निकाल उन्हें स्कूल भेजिए , ताकि आपकी भावी पीढियां आपकी तरह मूर्ख , जाहिल और दुराग्रही न हों ।————–Sheetal P Singh shared Vijay Akshit’s post.753 Views
Vijay Akshit is with A K Mishra and 47 others.
1 hr · देखिये वीडीओ सायद आप वीडीओ देख कही शर्म से न मरिये,4-5 साल के बच्चे स्कूल जा रहे थे,उन बच्चों के बसों पर पत्थर फेका करनी सेना वालो ने,
सारे बच्चे सीट के निचे जान बचाने के लिए छुप के रो रहे थे,एक 5 साल का बच्चा रोते हुए कहता है प्लीज ड्राइवर अंकल बस को BSF वाले अंकल के पास ले चलो,मैं यह वीडीओ देख कर स्तब्ध हुं,आक थू रे आतंकी मोदी सरकार।
वाह रे हिजड़े राजपूत।।
मोदि कि ६सेना https://www.youtube.com/watch?v=r0mzW0IqOEE
Vijay Akshit
1 hr ·
——लोगो की गली में कुछ बच्चे पैदा हुए,
आगे चल कर वो बच्चे बड़े हुए,
फिर उन्होंने एक संगठन बनाया,
और उन संगठन का नाम रखा “करनी सेना”
आक थू करनी आतंकी ।लूटते रहे “फूलन” की इज्जत तो सारी दुनिया मौन थी
“पद्मावती” अगर हिन्दू थी
तो
फूलन देवी कौन थी ?Vijay Akshit
3 hrs ·
हम: मोहल्ला क्लिनिक बनवाया,
वो: स्वराज कहाँ हैंYugal Kishor is with Vijay Akshit and Hitesh Choudhary.
7 hrs ·
विश्व के विकसित देश दिनों दिन प्रगति कर रहे हैं और 200 साल आगे की सोच को लेकर चल रहे हैं लेकिन अपने भारत के लोग 700 साल पीछे के वर्चस्व की लडाई लड़ रहे हैं फिर कैसे विकसित होंगे।
पिछले कुछ दिनों से सरकार कुछ जाति विशेष की कठपुतली सी बन गयी है जो लोकतंत्र के लिए खतरा है।
➡पद्मावत पर बैन होने से इतिहास नहीं बदल सकता। रिलीज हो जाती, तो भी न बदल पाता। सिर्फ चित्रण बदलता है, घटना नहीं। यह घटना बताती है कि रजवाड़ों के दौर में औरतों की बहुत दुर्गति थी। वरना सैकड़ों औरतों का सामुहिक आत्मदाह कोई जुनून नहीं। एक लाचारी थी। अलाउद्दीन खिलजी को कमीना कहने से मन को तसल्ली मिलती है। लेकिन द्रोपदी चीरहरण के पीछे कोई खिलजी नहीं था। उसके अपने ही थे। क्षत्रिय ही थे। द्रोपदी को वस्तु की तरह दांव पर लगा दिया। फिर बेइज्जत किया। सीता के साथ भी कोई अच्छा सलूक नहीं हुआ। लेकिन हम सिर्फ अतीत पर हंगामा करते हैं। देश में रोजाना औसतन 28 गैंगरेप हो रहे हैं। लेकिन फिक्र किसे है? भला हो अंग्रेजों का। देश में आए। हमें कानून दिया, पुलिस दी, अदालतें बनाई। आज के दिन लक्ष्मण ने सरूपनखां का नाक काटा होता तो 326 लग जाती। वो दौर रजवाड़ों के लिए ठीक रहा होगा। प्रजा के लिए नहीं। विडंबना यही है कि हमारे पास सिर्फ इतिहास है। उसी में जी रहे हैं। भविष्य के लिए कोई प्लानिंग नहीं। जबकि तमाम विकसित देश 100 साल का एडवांस प्लान लेकर चल रहे हैं। हम सिर्फ तमाशबीन हैं। इसलिए ‘टाइगर’ सलमान पर्दे पर आतंकियों को मारकर 300 करोड़ कमा चुका। हमारे फौजियों की विधवाओं को पेंशन के लिए भी मुकदमे लड़ने पड़ते हैं।
।। ये ही है हमारा भारत । जिसे हम कहते है मेरा भारत महान है
हम: नए स्कूल्स बनवाऐ,
वो: स्वराज कहाँ है?Vijay Akshit
7 hrs ·
मोदी जी हिंदी में भाषण दिए,
गद्दार कवि ने तुरंत मोदी जी को बधाई दिया,
लेकिन उसी भाषण में मोदी जी ने “हिंदी”के साथ जो “माँ-बहन”एक कर दिया,
70 साल को 17 साल बोला,””रोजमर्रा””को “रोज मरा”बोला,
इसके लिए गद्दार कवि चुप क्योँ है??
क्या गद्दार कवि का यही हिंदी प्रेम है?
अगर थोड़ा सा भी गद्दार कवि को शर्म है तो माफी मांग कर प्रधानमंत्री से सवाल करे,
संघी गद्दार कवि शर्म करो।।
See Translation
हम: मोहल्ला सभा करवाएं,
वो: स्वराज कहाँ है?
हम: बिजली पानी मुफ्त दिया,
वो: स्वराज कहाँ है?
हम:- सड़क दुर्घटना में घायल लोगो को प्राइवेट अस्पताल में मुफ्त इलाज लागू किया,
वो:- स्वराज कहाँ है?
हम:-दिल्ली के खिलाड़ियों बच्चो को हर साल खर्च के लिए डेढ़ लाख से 3 लाख देंगे,
वो:- स्वराज कहाँ है?
हम: मुद्दों की राजनीति करेंगे
वो: स्वराज कहाँ है?
हम: स्टूडेंट्स को 10 लाख तक का एजुकेशन लोन दिया,
वो: स्वराज कहाँ है पार्टी में?
हम: नए रैनबसेरे खोलें,
वो: स्वराज कहाँ है?
हम: महिलाओं को सुरक्षा के लिए बस मार्शल लाया,
वो: स्वराज कहाँ है?
हम:- 500 करोड़ के ब्रिज 300 करोड़ में बनाया,
वो:- स्वराज कहाँ है?
हम: शहीदों को 1 करोड़ देंगे
वो: स्वराज नही हैं
हम: स्वराज क्या है यार, आखिर क्या हैं स्वराज?
वो: कुमार सर को RS भेजो
हम: भाग Boss DK???? नही है स्वराज??
–एडिटेड————————-Shambhunath Shukla is with Uday Singh.
58 mins ·
करणी सेना, रामसेना और परशुराम सेना बनाकर ऊधम भले काट लिया जाए और मीडिया पर कवरेज पा ली जाए। लेकिन सत्य तो यह कि इन सब सेनाओं का पब्लिक में कोई सम्मान नहीं है। आज राजपूत की पुरानी शान-ओ-शौक़त से कोई प्रभावित नहीं होता। क्षत्रिय शिरोमणि मुफ़लिसी में या तो आन गाँव जाकर ‘हीन’ काम कर रहे हैं या बटखोरी। पंडित जी लोग दिल्ली-मुंबई में पकोड़े तलते हैं, रिक्शा खींचते हैं या ठीहे में निकम्मे बैठकर ठगाही का काम। पंजाब में ब्राह्मणी घर-घर जा कर रोटी माँगती है। कृष्णा सोबती ने अपने एक उपन्यास में लिखा है कि शाहनी अपनी जिस बेटी से आजिज़ आ जाती थीं, उसे श्राप देती थीं कि ‘तैनूं निकम्मे बाँभना नूँ ब्याह देना!’ बंगाल,ओड़िसा और असम में ब्राह्मण जाति के लिहाज़ से हीन समझे जाते हैं। दक्षिण में राजा कही जाने वाली जाति हीन है। तब किस बात की आन-बान-शान!——————-Swati Mishra
42 mins ·
ब्राह्मण महान थे।
राजपूत महान थे।
वैश्य महान थे।
सब महान थे, फिर भी इतिहास कीचड़ है हमारा।
उपमहाद्वीप के हिन्दू मुस्लिम कठमुल्लाओ कटटरपन्तियो में हैरान कर देने वाली समानताये हे पढ़े———————————————————————————- Pawan 23 January at 19:00 · We support …..सुना है,पद्मावत फ़िल्म में पद्मावती के विलक्षण सुंदर रूप का वर्णन खिलजी के सम्मुख एक ‘ब्राह्मण’ करता है ! फ़िल्म में ‘ब्राह्मण’ ही अलाउद्दीन खिलजी को मेवाड़ पर पद्मावती को हासिल करने के लिए आक्रमण हेतु उकसाता है ! तत्कालीन इतिहास के अनुसार राजा रतन सिंह को रिहा कराने के लिए उनके दो भतीजे गोरा और बादल, स्त्री-भेष में सैकड़ों सिपाहियों के साथ अनेक पालकियों में छिपकर खिलजी पर साहसिक आक्रमण कर राजा रतन सिंह को निश्चित मृत्यु से बचाकर वापस ले आते हैं ! भीषण युद्ध होता है और सैकड़ों राजपूत योद्धा राजपूती आन के लिए अपने जीवन का बलिदान भी करते हैं……..
मगर कुचेष्टा और वैचारिक षड्यंत्र देखिए…… ‘पद्मावत’ फ़िल्म के अनुसार ‘अलाउद्दीन खिलजी की #बेगम राजा रतन सिंह के हालात और पद्मावती से सहानभूति रखते हुए,राजा रतन सिंह को सुरक्षित निकलने का मार्ग प्रशस्त करती है, अर्थात सदियों से गोरा और बादल की असीम वीरता के वृतांतों को झूठ सावित करती है यह फ़िल्म ….. यह फ़िल्म सनातन द्विज स्वाभिमान को अपमानित करती है…..विदेशी आक्रमणकारियों को महिमामंडित करती है……मुगले,अफगानी और तातारी दुर्दांत हत्यारे और लुटरे, जो घोड़ी और ऊँठों का दूध पीते थे,कई इसमें नरभक्षी भी थे,उन्हें महिमा मंडित करती है यह फ़िल्म……..Pawan
5 hrs ·
#करणी_सेना को शांतिपूर्ण साथ और नैतिक समर्थन दीजिए
मुनाफाखोर फिल्मी भांड भंसाली को नहीं !
यह राजपुताना शान और सनातन सम्मान का प्रश्न है !!
मीडिया और देशद्रोहीयों के मकड़जाल में न फंसें !!
फ़िल्म से दूर रहे, सनातन आत्मस्वाभिमान की जद्दोजहद है यह !!
जयश्रीराम-जय हिन्दूराष्ट्र !!Pawan
2 hrs ·
अनुराग श्रीवास्तव !!
(Who is this ‘Bhansali’)
मेरा सवाल कुछ तथ्यों पर आधारित है जो पहले से ही पब्लिक डोमेन में है, अगर कोई जानना चाहे तो… सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यही उन सबके मूल में है जिससे संजय लीला भंसाली जैसे सड़कछाप भांड पैदा होते हैं। सवालों का जवाब किसी के पास हो तो जरूर बताये बाकी इस भन्साली को कोई जौहर भी करवा दे यहाँ किसे फर्क पड़ता है ?
संजय लीला भंसाली की कम्पनी Bhansali Productions Private Limited जो 8 मई 2003 को रजिस्टर हुई थी, की authorized share capital मात्र रु. 5 लाख है और paid up capital मात्र रु. 1 लाख है, के पास रु. 200 करोड़ की लागत की फ़िल्म पद्मावत बनाने के लिए कहाँ से पैसा आया?
यह एक अहम् प्रश्न है। इस कम्पनी ने रु. 16.50 करोड़ का ऋण वर्ष 2003 में लिया था जो कभी Pay back नहीं किया गया। 2015 के बाद से इसने कोई बैलेन्स शीट भी रजिस्ट्रार कम्पनीज़ के यहाँ फ़ाइल नहीं की है। भंसाली की उक्त कम्पनी प्रथमदृष्ट्या एक Ponzi (Fraudulent) कम्पनी है। मोदी सरकार द्वारा अन्य ऐसी कम्पनियों के ख़िलाफ़ जाँच की जा रही है तो भंसाली की कम्पनी के ख़िलाफ़ क्यों नहीं ?
भंसाली की कम्पनी का CIN No. U92110MH2003PTC140367 और registration number: 140367 है। भंसाली की कम्पनी में स्वमं भंसाली के अलावा इसकी बहन बेला दीपक सहगल व इसकी माँ लीला भंसाली ही निदेशक हैं। इसकी कम्पनी का CA दीपक पारिख है जिसके अंडर वर्ल्ड डॉन से सम्बंध पूरा बॉलीवुड जानता है।
फ़िल्म पद्मावत में अम्बानी की कम्पनी Viacom 18 Media Pvt. Limited का केवल 50% पैसा ही लगा है। शेष पैसा भंसाली के पास कहाँ से आया ……
मैं इसका आर्थिक और सामाजिक पहलू देख रहा हूँ ….फिल्मों में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं पवन बरेली .”.———————————————————————————–Mohd Zahid
3 hrs ·
राजपुताना शौर्य का प्रदर्शन आज करणी सेना ने गुड़गांव में बच्चों की स्कूली बस पर पथराव करके किया है।
दरअसल झूठे राजपुताना शौर्य का यही वास्तविक रूप है।
“पद्मावत” में भी अलाउद्दीन खिलजी की सेना पर उस वक्त आक्रमण करने की राजपूती रणनीति बनाई गयी जब खिलजी की सेना नमाज़ पढ़ रही थी और अज़ान होते और नमाज़ पढ़ते ही राजपूतों ने धार्मिक फर्ज निभा रही सेना पर आक्रमण किया।
यह युद्ध का राजपुताना सिद्धांत आज के करणी सेना के बच्चों पर पथराव के समान ही है।
जय हो राजपुताना कीMohd Zahid is with Mohd Zahid.
15 hrs ·
“पद्मावत “फर्स्ट लुक” :- रीव्यूव
पद्मावत” संजय लीला भंसाली की फिल्म में कृतिम संवाद और फिल्मांकन के माध्यम से अपनी पत्नी की रक्षा ना कर पाने वाले अदने से चित्तौड़ के कायर राजा रतन रावल को राजपुताना गौरव और शूरवीर बनाने की कोशिश और हिन्दुस्तान के शानदार शहंशाह अलाउद्दीन खिलजी को पूरे 3•5 घंटे वहशी , धोखेबाज , औरतबाज ,गफूर नाम के एक छक्के को खिलजी की पत्नी कह कर उन्हें लउंडेबाज और कांडू दिखाना सिर्फ़ एक महान शहंशाह के चरित्रहनन करने का प्रयास किया गया है।
ज़ाहिर सी बात है ₹200 करोड़ की पूंजी को सच दिखाकर बर्बाद करने की हिम्मत भंसाली क्या उसका बाप मुकेश अंबानी भी नहीं कर सकता।
फिल्म की शुरुआत देर तक स्प्ष्टीकरण से शुरू होती है जिससे भंसाली की फटती तबियत का दर्शन होता है और आगे की फिल्म की पटकथा का एहसास हो जाता हो।
भंसाली एक घटिया और निहायत ज़लील निर्देशक है , आज खुशी हो रही है कि करणी सेना वालो ने उसे पीटा , हाँलाकि हिंसा उचित नहीं परन्तु भंसाली की फिल्मों और कम से कम पद्मावत और मस्तानी दिवानी को देख कर उसे पीटने का मन तो करता ही है।
निरंकुश आत्याचारी पेशवाओं को शानदार तरीके से पर्दे पर उतारना और एक मुसलमान मस्तानी को उसकी प्रेमिका और दूसरी बीवी बना कर बहुसंख्यकों के एक वर्ग का और अलाउद्दीन खिलजी जैसे शानदार इतिहास वाले शहंशाह को खलनायक के विभत्स रूप में प्रस्तुत करके उसी वर्ग को लुभाने का सिर्फ़ प्रयास से अधिक कुछ नहीं।
आज के बदले भारतीय वातावरण मे भंसाली यह कमीनापन दिखाकर सिर्फ अपना वित्तीय हित साधता है।
दिवानी मस्तानी में आत्याचारी और निरंकुश पेशवाओं को हीरो बनाने के ध्वज को भगवा दिखाता है तो खिलजी को खलनायक बनाने के लिए उसके ध्वज को चाँद सहित हरा अर्थात इस्लामिक झंडे से मिलता जुलता दिखाना और पूरी फिल्म में अल्लाह का नाम और इस्लामिक शब्दों का प्रयोग करना मौजूदा भारतीय वातावरण के वित्तीय दोहन का घटिया प्रयास है।
जगीरा , मोगैम्बो और गब्बर सिंह से भी अधिक विभत्स और कबिलाई सरादरो के डरावने गेटअप में अलाउद्दीन खिलजी जैसे हिन्दुस्तान के एक शानदार शहंशाह को दिखाना बहुसंख्यकों के एक वर्ग के अंदर के भगवा ज़हर को ध्यान में रख कर ही किया गया है।
बाकी राजपुताना दंभ के जोशीले संवाद , खिलजी के विभत्स गेटअप को दिमाग से निकाल कर पूरी फिल्म की कहानी पर विचार करिएगा तो राजपुताना बहादुरी तार तार होती दिखेगी।
एक राजपूत राजा की चौदंहवी पत्नी पद्मावती को उसके महल में घुस कर अकेले देखने की इच्छा उसके पति से करना हिम्मत का ही काम है , उसके पति का डर कर पत्नी को खिलजी को दिखाने की सहमति देना दरअसल कांडुओं का काम है, पूरे चित्तौड़ और राजपुताना किले को 7 महीने खिलजी द्वारा बंधक बना लेना बहादुरी का ही काम है जिसे राजपुताना महिमामंडल के लिए फर्जी जोशीले संवाद से इसे बैलेन्स किया गया है।
एक झूठ भी दिखाया गया है कि राजा रतन सिंह खिलजी से दो पक्षिय तलवारबाजी में जीत गया था जिसे धोखे से उसको मार दिया गया।
बगल वाले भाईसा की एक बुदबुदाती टिप्पणी गौर करने लायक है कि इस फिल्म में खिलजी की पत्नी मलिका मेहरुन्नीसा पद्मावती से लाख गुना सुंदर हैं।
काल्पनिक कहानी का डिसक्लेमर देकर इतिहास के असली महापुरुषों के चरित्र हनन करने के भंसाली के इस प्रयास पर मैं उसके मुंह पर थूकता हूं।
अब इस फिल्म को देखकर फिल्म का विरोध करने वाले राणा और करनी सेना में राजपुताना गौरव जरा भी बाकि है तो विरोध करने वालों को जौहर कर लेना चाहिए।
भंसाली के कमीनेपन से वह अबतक अंजान थे , दरअसल इस फिल्म का तिव्र विरोध मुसलमानों को करना चाहिए पर इस देश का मुसलामान बर्दाश्त करना सीख गया है।
यदि यह फिल्म मलिक मुहम्मद जायसी की पद्मावत का हू बहू रूप में ही फिल्माया गया तो भंसाली को जायसी से सीख लेनी चाहिए कि उन्होंने एक शानदार मुसलमान शहंशाह को खलनायक बताया।
हालाँकि यह झूठ है।
फिल्म पर पूरा विवाद प्रायोजित लगता है और फिल्म निहायत बकवास है। यह बेहद औसत दर्जे की फिल्म से भी कम स्तर की फिल्म है।
Abbas Pathan
1 hr ·
हम में से अधिकांश लोगों ने करणी सेना के चर्चे पद्मावत और आनंदपाल एनकाउंटर से पहले नही सुने होंगे। करणी सेना के नाम से फिलहाल तीन संघटन चल रहे है। अभी इस समय करणी सेना के मार्फ़त राजपूत समुदाय की छवि हुड़दंगी की बन चुकी है लेकिन प्रश्न ये है कि जो लोग हुड़दंग मचा रहे है क्या वे वाकेहि राजपूत है? इन्हें हुड़दंग मचाने की ट्रेनिंग किसने दी??
सीधा सा उत्तर है, करणी सेना ने कभी हथियार नही बांटे, करणी सेना ने कभी भी सशस्त्र प्रशिक्षण नही दिए, करणी सेना ने 2017 से पहले कभी भी भारत बन्द करवाने का आह्वान नही किया फिर आज अचानक ये राजपूत कहाँ से निकल आए जो स्टूडियो में तलवारे लहरा रहे है और कोर्ट को जलाने की बात कर रहै है। इन्होंने कब भारत बन्द करना सीखा और कहाँ से आया इन्हें बच्चो से भरी बस पे पथराव करना? हथियार बांटने का काम बजरंग दल, शिवसेना और विहिप ने किया है, शस्त्र चलाने की ट्रेनिंग भी यही दल देते रहे है। भारत बन्द करवाने का अच्छा खासा अनुभव भी इन्ही संघटनो के पास है। जो कुछ भी करणी सेना के बैनर तले उत्पात मचाया जा रहा है इसकी ट्रेनिंग इन्हें कट्टरपंथी हिंदूवादी संघटनो से मिली है। स्पष्ट है कि बैनर करणी सेना है लेकिन हुड़दंगी राजपूत नही बल्कि बजरंग दल और विहिप जैसे कट्टर हिन्दू संघटनो के सदस्य है। यहां सिर्फ बैनर बदलता है, फ़सादी भीड़ वही होती है। कभी ये भीड़ श्रीराम सेना के बैनर के नीचे आ जाती है तो कभी विहिप और बजरंग दल के बैनर के नीचे शोर मचाने लगती है और अभी वही भीड़ करणी सेना के बैनर तले लोकतंत्र को रौंद रही है किंतु इस भीड़ को सिर्फ राजपूतो की भीड़ कहना नाइंसाफी होगी। कट्टरपंथ एक अलग ही पंथ है जिसका दुसरी किसी जाति या धर्म से ताल्लुक नही होता।Abbas Pathan
15 mins ·
संजय लीला भंसाली कट्टर हिंदुत्व के समर्थक रहे है.. राजपूत समाज को लठैती पे कायम रखने के लक्ष्य को साधने की नियत से इन्होंने ये ऐतिहासिक ड्रामा तैयार किया है।
राजपूत समाज टेक्नोलॉजी के दौर में रेत की नाव लेकर समुद्र में उतरता रहे इसलिए ये ऐतिहासिक ड्रामा तैयार किया गया।
राजपूत समाज मर्यादा के नाम पे अपनी औरतो को पढ़ाई लिखाई से दूर करके घर मे सजावट के वस्तु बनाए रखे इसलिए ये ऐतिहासिक ड्रामा तैयार किया गया।
राजपूत समाज भगवाछाप नेताओ के लिए हिंदुत्व की रक्षा के नाम पे गुंडा बना रहे इसलिए ये ऐतिहासिक ड्रामा तैयार किया गया है।
राजपूत समाज अपना धड़ हाथ मे लेकर मुसलमानो के खिलाफ भगवा परचम लहराता रहे इसलिए ये ऐतिहासिक ड्रामा तैयार किया गया है।
राजपूत समाज आधुनिक प्रगति को भूलकर तलवार की नौक पे अम्बेड़कर द्वारा निर्मित संविधान को रखकर “हु हा” करता रहे इसलिए ये ऐतिहासिक ड्रामा तैयार किया गया है।
राजपूत समाज का झूठा महिमामंडन करके उसे हुड़दंगी गिरोहों का सड़कछाप गुंडा बनाए रखने के लिए ये ऐतिहासिक ड्रामा तैयार किया गया है।
राजपूत समाज को वीरता की कपोल कल्पित दुनिया मे कैद करके बलि चढवाने की नियत से ये ऐतिहासिक ड्रामा तैयार किया गया है।
डिप्लोमेसी के युग राजपूत समाज को कट्टर हिंदुत्व का पैदल सैनिक बनाने के लिए ये ऐतिहासिक ड्रामा तैयार किया गया हैं।
कट्टरपंथी संघटनो का पेट चीरने से पहले हुड़दंगी संघटनो की ढाल बन चुके राजपूतो के खून से धरती लाल करनी पड़े इसलिए ये ऐतिहासिक ड्रामा तैयार किया गया है।
कट्टर हिंदूवादी एजेंडा स्थापित करने के लिए हज़ारो नौजवानों के खून की जरूरत है। राजपूतो के खून से वो जरूरत पूरी करने के लक्ष्य को प्राप्त करने की नियत से ये ऐतिहासिक ड्रामा तैयार किया गया है।
राजपूत समाज किताबो की जगह तलवारे हाथ मे पकड़ ले इसलिए ये ऐतिहासिक ड्रामा तैयार किया गया है।
अपना खूनी लक्ष्य साधने के लिए इन्हें कुछ जातियो की जरूरत है जो मुरखतापूर्वक हाथ मे शीश लेकर वार दे इसलिए ये ऐतिहासिक ड्रामा तैयार किया गया है।
राजपूत समाज का ब्रेन वाश करके इन्हें कट्टर हिंदुत्व का फिदायीन बनाने के लिए ये ऐतिहासिक ड्रामा तैयार किया गया है।
अब राजपूत समाज को सोचना है कि उन्हें अपनी नस्लो के हाथ मे किताबे देनी है या तलवारे? अब राजपूत समाज को सोचना है कि उन्हे अपनी आने वाली नस्लो को देश सेवा के लिए भारतीय सेना में भेजना है या देश के पंख उखाड़ने के लिए फ़र्ज़ी हिंदुत्व की रक्षा करने वाली सेनाओं में भेजना है। अब राजपूत समाज को सोचना है कि उन्हें झुंड में शोर मचाने वाला श्वान बनना है या अपने छोटे से परिवार में खुश रहने वाला शेर बनना है।
स्वर्ण समाज मे आज सबसे बुरी दुर्गति राजपूत समाज की ही है। अन्य स्वर्ण जातियां राजपूतो से बहुत ज्यादा तरक्की में है। राजपूत समाज की गलती ये है कि इसने अपने नौजवानों को संघ के रास्ते कट्टर हुड़दंगी संघटनो में राजी खुशी जाने दिया वहां इन्हें लठैती करने की ट्रेनिंग मिली जो करणी सेना द्वारा किया जा रहा है। और भारत भर में राजपूत समाज़ एक असभ्य और फ़सादी कौम का चेहरा बन गया।
राजपूतो के इतिहास में एक बहुत ही आसानी से समझ आने वाली बात ये है की “राजपूत केवल राजपूत होता है, उसका किसी धर्म मजहब से बैर नही होता यही कारण है कि राजपूत लड़ाके मंगोल, तुर्क, फ्रांसीसी, पुर्तगाली और ब्रिटिश के साथ खड़े रहे थे, यदि इनके दिमाग मे धार्मिक कीड़ा होता तो ये कभी भी किसी के तम्बू में जाकर ना बैठते””
इनके दिमाग मे धर्म का इंजेक्शन लगाने का काम आरएसएस और उसके बगलबच्चे संघटनो ने किया है। राजपूत जबतक राजपूत था तबतक उनका वकार था, जैसे ही ये भगवा संघटनो में शामिल हुआ, ये आर्थिक रूप से पिछड़ता चला गया और इसका सामाजिक स्तर कम होता चला गया। राजपूतो के पास अब भी समय है समझ जाए की भगवा संघटनो का लठैत बनने से अच्छा है राजपूत बना रहे उसी में भलाई है।Randhir Singh Suman
15 hrs · Barabanki ·
नागपुरी ही अलाउद्दीन खिलजी की हरम की औलादे हैं————Nitin Thakur3 hrs · कल स्कूल बस पर हमला करके कायर साबित हुए, आज डीसी गुरुग्राम के किसी ट्वीट का, जिसमें लिखा है कोई हमला नहीं हुआ, स्क्रीनशॉट फैलाकर झूठे साबित होना चाहते हो? मैं उनके आधिकारिक ट्वीटर एकाउंट पर घूम आया लेकिन ऐसा ट्वीट तो कहीं नहीं मिला जहां वो घटना से इनकार कर रहे हों। मज़ाक बनाकर रख दिया है देश का। पहले कायरता दिखाते हैं और उसके बाद जस्टिफाई कर लेते हैं.. ठीक वैसे ही जैसे पहले राजकुमारियों की शादी मुगलों से की और बाद में उन्हें काल्पनिक ठहरा कर मूंछें बचाने लगे।———Himanshu Kumar
1 hr ·
अभी जो कुछ करणी सेना एक फिल्म के प्रदर्शन को रुकवाने के लिए कर रही है, वह मात्र एक घटना नहीं है। बल्कि वह भारत में बढ़ रहे जातिवाद, सांप्रदायिकता और राजनीतिक फायदा लेने की चालबाजियों का एक नमूना है।
आज की राजनीति विभिन्न जातियों को भड़काकर आपस में द्वेष पैदा करवा कर पीछे से सबको पुचकार कर सत्ता प्राप्त करने की है।
इसलिए बजाय इसके कि हम लोग इस समय राजपूतों को बुरा भला कहें, या इतिहास में हुई कुछ राजपूतों की गलतियों का जिक्र करके राजपूतों को लज्जित करें, हमें इस पूरी समस्या को समग्रता से देखना चाहिए।
भारत की राजनैतिक और अर्थव्यवस्था की विफलता जैसी सभी बातों को जब तक हम नहीं देखेंगे तब तक हम जाट आंदोलन, राजपूतों का गुस्सा, पटेलों की जाति आरक्षण की मांग, दलितों में बढ़ता असंतोष, ओबीसी आंदोलन, मुसलमानों में बढ़ती असुरक्षा इन सब को ठीक से समझ नहीं पाएंगे।
ऐसा नहीं है कि भारत में कोई भी समुदाय पूरा का पूरा बहुत बुरा है, या कोई समुदाय पूरा का पूरा बहुत अच्छा है। सभी जातियों, सभी संप्रदायों में अच्छे और बुरे लोग मौजूद हैं।
इसलिए इस समय जो कुछ हो रहा है उसके लिए उस जाति की नकारात्मक ऐतिहासिक घटनाओं को ढूंढ कर लाना एक गलत विश्लेषण होगा, जिससे हालत और बिगड़ेगी।
हमें इस बढ़ते जातिवाद और सांप्रदायिकता को भारत के ऐतिहासिक राजनैतिक विकास के क्रम में देखना पड़ेगा।
भारत में जब आजादी आई उसके बाद मिश्रित अर्थव्यवस्था को स्वीकार किया गया। जिसके तहत यह सोचा गया कि एक तरफ तो हम बड़े उद्योगपतियों को काम करने देंगे और दूसरी तरफ हम गांव में कुटीर उद्योग लघु उद्योग को बढ़ावा देंगे।
तो नेहरू के समय में ही एक तरफ बड़ी-बड़ी कपड़ा मिलें लगा दी गईं, और दूसरी तरफ सरकार खादी और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए कुछ छूट देती रही।
लेकिन हम सब जानते हैं कि अगर कोई चीज गांव में बनेगी, उसे गांव के लोग बनाएंगे, छोटे स्तर पर कम उत्पादन होगा, शुद्ध कच्चा माल लगेगा, मजदूर की मजदूरी देनी पड़ेगी, तो उस उत्पाद की एक न्यायोचित कीमत हमें देनी पड़ेगी। लेकिन अगर वही चीज कोई बड़ा पूंजीपति बनाएगा, तो वह मशीन से बनाएगा, कच्चा माल भी वो सरकार की मदद से किसानों, जंगलों, पहाड़ों से सस्ते दाम में हड़प लेगा और उसका सामान गांव के बने सामान से सस्ता होगा।
इसके अलावा बड़े उद्योग वाला पूंजीपति तो टीवी, रेडियो, अखबार के मार्फत अपना विज्ञापन करके अपना माल ज्यादा बेच लेगा। और गाँव का सामान बिकेगा नहीं। गाँव का उद्योग बंद हो जाएगा। इस तरह अगर आप किसी एक माल के उत्पादन में गांव और बड़े उद्योगपति के बीच कंपटीशन करवाएंगे तो उसमें बड़ा उद्योगपति जीत जाएगा।
भारत में यही गलती करी गई। भारत में ऐसे हजारों काम धंधे गांव-गांव में चलाए जा सकते थे जिनसे भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत होती। देश के करोड़ों लोगों को रोजगार मिलता। गांव के नौजवान गांव में ही रहते। लेकिन वैसा नहीं किया गया। गांव में कपड़ा बन सकता है, कागज बन सकता है, जूते चप्पल साबुन स्याही पेन पेंसिल ब्रेड बिस्किट इन सारी चीजों को बड़े उद्योगों द्वारा बनाया जाना प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए था।
उससे इस देश के गांव-गांव में सूती रेशमी ऊनी कपड़े बनते, गांव गांव में रोजगार पैदा होते लेकिन यह सारी चीजें बड़े-बड़े उद्योगपतियों को उत्पादन करने की छूट दे दी गई।
उसके कारण गांव के सारे उद्योग नष्ट हुए गांव में बेरोजगारी फैल गई और नौजवान शहरों में नौकरी के लिए निर्भर हो गए।
धीरे-धीरे पूंजीपतियों ने अपने कारखानों में मशीनें लगाईं और रोजगार कम करते गए। तो भारत की राजनीति भारत की अर्थव्यवस्था ऐसी हो गई कि जिसमें ना गांव में रोजगार बचा ना ही शहरों में रोजगार बचा।
ऐसी हालत में भारत की राजनैतिक पार्टियों ने नौजवानों के मन में यह डालना शुरू किया कि तुम्हारी बेरोजगारी का कारण आरक्षण है। और अगर तुम आरक्षण की मांग करोगे तो तुम्हें रोजगार मिल जाएगा। जबकि सच्चाई यह थी कि पढ़े-लिखे नौजवानों के मात्र 2% लोगों को ही रोजगार मिल सकता है जिसमें से कुछ आरक्षण है।
लेकिन सारे नौजवानों को यह भड़का दिया गया कि अगर तुम आरक्षण की मांग करोगे तो तुम्हें रोजगार मिल जाएगा। और तुम्हारे रोजगार तो आरक्षित वर्ग के लोग खा रहे हैं।
अब राजनीति जो रोजगार नहीं दे सकती थी वह पूरी राजनीति धीरे-धीरे बड़े पूंजीपतियों के जेब में समाती चली गई। पूंजीपति और बड़े बनते गए। वह चुनावों में पैसा देने लगे।
बड़े पूंजीपतियों को किसानों आदिवासियों की जमीनें पहाड़ जंगल सरकारें छीन छीन कर देनें लगी। मानवाधिकारों का हनन होने लगा। और भारत की राजनीति एक ऐसे मोड़ पर आ गई जहां वह जनता की राजनीति नहीं बल्कि बड़े पूंजीपतियों, अमीरों के दलालों, अमीरों के लिए काम करने वाली पुलिस, अमीरों के लिए काम करने वाले अर्धसैनिक बल, गरीबों के मानवाधिकारों का हनन में लग गये।
यह जो दौर है इसको अगर हम ठीक से नहीं समझेंगे और आपस में जातियों के लोग एक दूसरे को गाली देंगे नीचा दिखाएंगे एक दूसरे की कमियां ढूंढेगे। तो देश की जनता को अलग-अलग जातियों में बाँट कर चुनाव जीतने वाली पार्टियों का फायदा होगा।
इसलिए हमें इस समय सभी जातियों के नौजवानों से बात करनी चाहिए और उन्हें बताना चाहिए कि दरअसल उनकी बदहाली के लिए जिम्मेदार यह राजनीति है। यह अर्थव्यवस्था है। और जब तक देश के लोग इसको बदलने के लिए तैयार नहीं होंगे तब तक कांग्रेस भाजपा समाजवादी मायावती सभी पार्टियां यही खेल खेलती रहेंगी।
इन सभी पार्टियों का आर्थिक ढांचा वही है यहां तक कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां भी अभी इसी आर्थिक मॉडल को चलाती हैं। उनकी भी आर्थिक सोच अलग नहीं है। इसलिए यह काम भारत के विचारकों सामाजिक कार्यकर्ताओं राजनीतिक कार्यकर्ताओं का है कि वह देश की जनता को बताएं कि यह अर्थव्यवस्था आर्थिक मॉडल जब तक नहीं बदला जाएगा। तब तक इस जातिवाद की राजनीति और इस सामाजिक उथल-पुथल से छुटकारा नहीं पाया जा सकता।
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सिकंदर हयात सिकंदर हयात • 32 minutes ago
Urmilesh Urmil
16 hrs ·
निजी तौर पर मैं पैलेट गनों के इस्तेमाल के विरुद्ध हूं। पर आज मेरे दिमाग में यह सवाल बार-बार उठ रहा है, इस वक्त वो पैलेट गनें कहां गईं? क्या वो सिर्फ भारत के ‘अविभाज्य अंग’ कश्मीर के लिए इजरायल से आई हैं? भाई, आप ही बताओ, ये करणी-करणी क्या है–फासीवाद के लकड़बग्घे या हिंदुत्वा की भगवा ब्रिगेड के लठैत!
वस्तुत: हरियाणा और राजस्थान सहित अनेक राज्यों की सरकारें ‘करणी’ के साथ खड़ी हैं! संविधान की भावना और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ खड़े तत्वों से हाथ मिलाकर भी ये सरकारें मजे में क्यों हैं?
# where are those Pallet Guns, sir!Urmilesh Urmil
21 hrs ·
ये ‘करणी-करणी’ क्या है? लव जेहाद और गौरक्षा के नाम पर उपद्रव मचाने वालों का ही एक खेमा है! इनके उपद्रव का सत्ताधारियों को जितना फायदा लेना था सो लिया। जरूरत के हिसाब से आगे भी लेंगे। पर अब बड़े और दोस्ताना सेठ के पैसे से बनी फिल्म को ‘हिट’ भी कराना है! सो देखते रहिए, आगे-आगे होता है क्या!Sheetal P Singh
5 hrs · Sheetal P Singh
14 hrs ·
जब किसी कौम को आज के युग में किसी कलाकृति चित्र लेख व्यंग्य पुस्तक या फ़िल्म में बैन की माँग करते पाता हूँ तो इनके मध्ययुगीन मानसिक विकास पर करुणा उत्पन्न होती है !
आज की संचार क्रांति के युग में अमरीका तक में अपनी चड्ढी बनियान छिपा रखने की कूवत नहीं है (उसका सब कुछ रोज़ “लीक” हो रहा है ) , तब किसी बैन का रियल में कोई मतलब है ?
सलमान रुशदी की सैटनिक वर्सेज़ अब दुनिया में कहाँ किसके पास नहीं है ? तस्लीमा नसरीन की लज्जा ने बांग्लादेशियों की सारी लज्जा दुनिया के हर चौराहे पर तार तार कर दी है ! जब बालीवुड की हर फ़िल्म पाइरेटेड बाज़ार में रिलीज़ के साथ साथ मौजूद होती हो,
तब सिनेमाहाल वालों बच्चों महिलाओं बूढ़ों जवानों को डराकर ,बस या दुकान जलाकर तोड़कर या कुछ और उपद्रव करके तुम लोगों को फ़िल्म से दूर कर लोगे ?
गदहों अब यह फ़िल्म हिंद महाद्वीप में जन्मे हर नागरिक का कौतूहल है ! इसको इतने लोग इतनी बार इतनी तरह देखेंगे कि तुम जीवनभर में गिन न सकोगे !
तुम्हें पता ही नहीं कि तुमने यह क्या कर दिया मूर्खों ?
Gujrat model में बच्चों की बस पर वयस्क लम्पट पुरुष पथराव किया करते हैंHaider Rizvi
3 hrs ·
Ajay Yadav
मत कहिये…
कि करणी सेना जब स्कूली बच्चों की बसों पर पत्थर बरसा रही है…आग लगा रही है…तलवारें भांज रही है…पुलिस को दौड़ा रही है…कोर्ट को अपने ‘विशेष अंग’ पर रख रहीं है…तो सरकार क्या कर रही है?
सोचिये,
कि एहसान जाफरी अभी मरे नहीं है, बल्कि वे और उनके परिवार के साथ और भी लोग आग की लपटों के बीच घिर चुके हैं और मरने से पहले वे फोन पर फोन मिला रहे हैं, गुहार लगा रहे हैं…
सोचिये…
पहलू खान के सीने पर लोग कूद रहे हैं, मरने से पहले लोग उनका मोबाइल लूट रहे हैं, पैसे भी छीन रहे हैं…
सोचिये…
रोहित वेमुला ने अब अपना दरवाजा बंद कर लिया है और उसे मनुवादियों की दुनियां में जीने से ज्यादा आसान गले में फंदे डालना लग रहा है…
सोचिये…
उना के दलितों के कमर पर डंडे मारते लड़के का डंडा छीनकर दूसरा उससे भी तेजी से डंडा बरसाने लगा है…
सोचिये…
बिलकिस बानो का रेप होने के बाद उसी के सामने उसकी बच्ची को पत्थरों पर पटककर मारना बाकी है…अभी वो खुद के लिए तड़प रही है…बच्ची की मौत पर बिलखना बाकी है…
सोचिये…
दाभोलकर, पानसरे, गौरी लंकेश की हत्या से पहले एक टीम व्हाट्सअप मैसेज तैयार कर रही है, जरूरत आने की कॉपी-पेस्ट बाकी है…
सोचिये…
और सोचते जाइये…
चंद्रशेखर रावण ने मनुवादियों के सामने झुकने से इनकार कर दिया है और मूछों पर ताव दे रहा है…
उन्हें अभी लाल कंबलों के बीच लेटे कराहना बाकी है…
सोचते जाइये..
जोड़ते जाइये
और सुनते जाइये- “गुड टेररिस्ट और बैड टेररिस्ट” का भाषण…!!!
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सिकंदर हयात • an hour ago
http://www.mediavigil.com/i…
Girish Malviya
51 mins ·
गहरी चाल………
इस लेख के शीर्षक से चौकिए मत , बस ध्यान से पूरी पोस्ट पढ़ जाइये
क्या आपको आश्चर्य नही हो रहा कि जब हरियाणा राजस्थान मध्यप्रदेश राजस्थान में कोई सिनेमाघर फ़िल्म दिखा ही नही रहा है ओर फ़िल्म में ऐसी कोई विवादस्पद बात ही नही है तो यह स्कूल बसो पर हमले , माल के बाहर तोड़फोड़ आगज़नी यानी दहशत का माहौल क्यों बनाया जा रहा है ?,
साफ नजर आ रहा है , जातीय अस्मिता के नाम पर एक विशेष समूह को सबल किया जा रहा है ताकि अगले चुनाव से पहले वोटो की फसल जमकर काटी जा सके, लेकिन यह बात आप इतनी आसानी से नही मानेंगे
थोड़ा विस्तार से समझते हैं
2018 में आप 90 के दशक वाली बजरंग दल ओर विश्व हिंदू परिषद वाली राजनीति नही कर सकते, अब ओर ज्यादा फाइन ट्यूनिंग की जरूरत है जो करणी सेना के माध्यम से पूरी की जा रही है
गेम यह है कि पहले करणी सेना की अच्छे से ब्रांडिंग करो, उसे पीछे से समर्थन दो ओर दो चार लोगों को मीडिया में चिल्लाने के लिए भेजो कि भाजपा पर दोहरी राजनीति कर रही है ताकि आप पर पूरा इल्जाम न आने पाए, पुलिस प्रशासन को मूक दर्शक बना कर रखो, इस से कई उद्देश्य पूरे होते हैं
पहला : अल्पसंख्यक समुदाय में एक डर का माहौल बनता है जो चुनाव तक बनाए रखना बहुत जरूरी है यह दंगो से पैदा हुए डर के सब्स्टीट्यूट के रूप में काम करेगा
दूसरा : यह उन लोगो को एकजुट रखेगा जो हमेशा उग्रता ही पसन्द करते है ओर यह तबका अब भाजपा से छिटकने को तैयार ही बैठा था जैसे उदाहरण के लिए महाराष्ट्र में शिवसेना का भाजपा से रिश्ता खत्म कर लेना, करणी सेना एक तरह से महाराष्ट्र की शिवसेना का ही विस्तार है और वह भी अधिक व्यापक रूप में, इसे उसी ट्रेक पे आगे बढ़ाया गया है
तीसरा : यह एक ड्रेस रिहर्सल है एक उदाहरण देता हूँ आपने कभी ध्यान दिया कि आपको कभी ऐसे मैसेज आते हैं कि यह मैसेज दस लोगो तक भेजो आपका बहुत लाभ होगा पुलिस का यह मानना है कि यह एक चेन रिएक्शन के पैटर्न को समझने के लिए कुछ खास किस्म की मार्केटिंग एजेंसियों द्वारा भेजे जाते हैं इसके तेजी से फैलने के पैटर्न से मार्केटिंग कम्पनियों को अपने निष्कर्ष निकलने में सहायता मिलती है………..
राजनीति में कुछ इसी तरह का पैटर्न सेट किया जाता है, पहले छोटे छोटे गाँवो कस्बों में गोहत्या जैसी अफवाह फैला कर वहाँ वैमनस्य फैलाना, फिर लव जिहाद जैसी बात कर शम्भू रैगर जैसे कांड करना , उसके बाद जातीय अस्मिता के प्रतीक के अपमान को जनमानस में स्टेबलिश करना ओर उसे किसी ऐसे माध्यम से जोड़ देना जो जनता में बेहद लोकप्रिय हो जैसे फ़िल्म, ( आप किसी किताब को फ़िल्म से रिप्लेस नही कर सकते , किताब लोकप्रिय माध्यम नही है ) इसके लिए माध्यम वह वर्ग बनता है जो अधिक पढ़ा लिखा नही है, ओर उस वर्ग को आतंकित किया जाता है जो पढ़ा लिखा है और इनकी हकीकत पहचानता हैं
अब आप सोच रहे होंगे कि यह सब तो ठीक है लेकिन आखिर इसका उद्देश्य क्या है ?
इसका पहला उद्देश्य है जनता का ध्यान मूल समस्याओं से हटाना
ओर दूसरा उद्देश्य है पोलोराइजेशन यानी ध्रुवीकरण, लोगो को अलग अलग खेमे में धकेल देना, यानी ‘डिवाइड एंड रूल’
इसी तरीके को हिटलर ने भी इस्तेमाल किया था,Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
2 hrs · Dehra Dun ·
काल बना है कालवी
मरणी सेना का सेनापति
क्लीव , नराधम , निपट निरक्षर
धावा करता खल , अबोध बच्चों के रथ पर
हत शासक , जड़ कुंद प्रशासक
टुकुर टुकुर देखा करते इस शठ पातक को
धरती पर लाएगा फिर से
बर्बर , गत पाषाण काल
लोक् तंत्र की परम अधोगति
मरणी सेना का सेनापतिRajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
4 hrs · Dehra Dun ·
रजपूती ख़ून रगां में है
फाट्योड़ा बूट पगां में है
—————————–
अर्थात , रगों में तो उच्च राजपूती रक्त हिलोरे ले रहा है , लेकिन पैरों में फ़टे जूते हैं । यह एक समकालीन राजस्थानी , सम्भवतः राजपूत कवि की पंक्तियां हैं , जो उन वीर बाँकों को इंगित करती है , जो झूठे जातीय स्वाभिमान के लिए बड़ी बड़ी मूछें बढ़ाये हैं , पर मूछों पर चुपड़ने को जिनके पास तेल नहीं । और तेल हो भी कहाँ से ? ज़मीनें तो बेच खायीं , और स्कूल कभी गए नहीं । आखिर जिस स्कूल में चमार का बेटा साथ पढ़ता हो , उसमे ठाकर सा के कंवर कैसे पढ़ें ?
लोक तंत्र की देवी ने बड़े बड़े राजे महाराजाओं की हेकड़ी उतार , उन्हें जनता के सम्मुख नत मस्तक कर दिया । अब यह कुंठा , हताशा , दारिद्र्य का दैन्य और चमार के बेटे को कलक्टर देखने की झल्लाहट यदा कदा सड़कों पर उतर आती है । राजपूती आन बान के नाम पर कायर , गद्दार बच्चों की बस पर धावा बोलते हैं ।
अलाउदीन ख़िलजी के सिन ( युग ) मे अनेक राजपूत तथा उनके चारण – भाट कवि , हुए । इसके सिवा 7 सुल्तानों के दरबार मे काम कर चुका अमीर खुसरो भी इसी युग का है । किसी ने भी पद्मावती का उल्लेख नहीं किया , न चित्तौड़ के जौहर का । ख़िलजी के कोई ढाई सौ साल बाद रायबरेली के पास जायस में मलिक मुहम्मद जायसी नामक एक कवि हुआ , जो इतिहास और कल्पना का मिश्रण बनाने में माहिर था । चूंकि जायसी काव्य का शिल्प बहुत बारीक बुनता था , अतः उसने तबसे अब तक पर्याप्त ध्यानाकर्षण पाया है । यह पद्मावती उसी जायसी की उपज है , नकि इतिहास की । जायसी ने सल्तनत काल बीत जाने के बहुत बाद मुग़ल काल मे यह गल्प कथा लिखी , जब मुग़लों की उदार न्याय प्रणाली लागू हो चुकी थी , अन्यथा सल्तनत काल के मुस्लिम शासक ऐसा काव्य लिखने पर छह दिन तक प्रति दिन चार चार रत्तल गोबर खिलाने के बाद , सातवें दिन जीते जी खाल खिंचवाते थे ।
पुनः एक सत्य प्रसंग । सातवें दशक में मध्य प्रदेश के युवा कांग्रेस नेता बालकवि बैरागी चुनाव प्रचार में थे । उनसे पहले जनसंघ की वरिष्ठ नेता राजमाता विजय राजे सिंधिया धुआं धार सभाएं कर बार बार सवाल उठा रही थीं , कॉंग्रेस ने इन बीस वर्षों में क्या किया ? घुमंतू न्यून जाति के बैरागी ने उत्तर दिया – कांग्रेस ने यही किया कि तुम सात पर्दों की महारानी आज धूल फांक कर दर दर वोटों की भीख मांग रही हो , और मैं भीख मांगने वाला नन्द लाल बैरागी ( बालकवि का मूल नाम ) आज मिनिस्टर हूँ । बस मजूर के हजूर बन जाने की यही झल्लाहट है अन्न दाता जी हुकुम को ।
( मेरी इस पोस्ट के उत्तरार्ध को कांग्रेस प्रशस्ति न माना जाए । लम्पट कांग्रेसियों से मेरी उतनी ही दूरी है , जितनी साम्प्रदायिक संघियों से )————-Nitin Thakur
8 mins ·
गुड़गांव में सरकारी बसों पर हमला हुआ था, फिर कल स्कूल बस पर हमला हुआ। गुड़गांव पुलिस पहले भी पुख्ता इंतज़ामों की बात करती रही और कल से फिर कर रही है। मुझे गुड़गांव पुलिस की क्षमता पर कभी शक नहीं रहा और अब तो मुझे उन पर तरस ही आ रहा है। जिस सूबे का मुख्यमंत्री लोगों से फिल्म के बहिष्कार का आह्वान करे.. उसका सबसे कद्दावर मंत्री बार-बार लोगों को फिल्म ना देखने के लिए कहे.. उस राज्य की पुलिस आखिर किस मनोबल के साथ गुंडों से निपटेगी? भाजपा के नेताओँ ने सरकार और में होने या होने का फर्क ही मिटाकर रख दिया है। ये सरकार में बैठकर भी ऐसे व्यवहार कर रहे हैं जैसे विपक्ष में बैठे हों। सरकार के कर्ताधर्ता जिस आधे मन से लोगों को थिएटर में मिलनेवाली सुरक्षा का दावा कर रहे हैं वो दरअसल परोक्ष चेतावनी ही है कि हम तो सुप्रीम कोर्ट के हाथों मजबूर होकर व्यवस्था बनाएंगे ही लेकिन सवारी अपने सामान की खुद ज़िम्मेदार है, और सफर ना करे तो ही बेहतर है।
ऐसे राज्य में बसों का टूटना-फूटना और लोगों पर हमले होना हैरान नहीं कर रहा है। चिंता इसी बात की है कि बीजेपी का दोहरा रवैया आम लोगों की जान खतरे में ना डाल दे।Nitin Thakur
11 hrs ·
कई घंटों बाद फेसबुक पर आया हूं। पोस्ट्स पढ़ कर अंदेशा हो रहा है कि गुड़गांव में करणी सेना ने अपनी कोई नई कायरता दिखाई है। अब वक्त है कि राजपूतों को करणी सेना के लोगों को बिरादरी से बाहर कर देना चाहिए। कायरों को कौन बिरादरी अपने बीच जगह देना चाहेगी। संयोग है कि मेरा जन्म इसी जाति में हुआ है। मुझे ऐसी किसी चीज़ पर गर्व नहीं जो मैंने अपनी योग्यता से अर्जित ना की हो। इस जाति, धर्म या राष्ट्र में पैदा होने के पीछे मेरी कोई मेहनत नहीं। हां इतना ज़रूर है कि इस राष्ट्र के नायकों से मैं प्रेरणा लेता हूं।मेरे धर्म की तमाम अच्छी बातों से मुझे जीवन में एक दृष्टि मिली। राजपूत जाति के इतिहास में मुझे रुचि है और जब मुझे जन्म लेने का अपना संयोग याद आता है तो अपने अस्तित्व को मैं इस इतिहास में ही खोजता हूं, लेकिन क्या करणी सेना जैसे संगठन के कृत्यों से हमारी भावी पीढ़ी गर्व महसूस करेगी? विरोध के नाम पर सिर्फ मीडिया में माइलेज लेने और आगामी चुनाव में सीटों का मोलतोल करने के लिए ताकत बढ़ाने की इन ओछी कोशिशों को मैं राजपूतों के साथ नहीं जोड़ सकता। ये वही कालवी हैं जो कांग्रेस और हाल ही में बसपा के कारिंदे रह चुके हैं। ये पेशेवर आंदोलनकारी हैं। आरक्षण विरोधी हैं। महिला विरोधी हैं। कला विरोधी हैं। मैं जिस जाति में पैदा हुआ हूं उसके ठेकेदार कम से कम ऐसे लोग तो नहीं हो सकते। ये उन राजा गायकवाड़ की जाति है जिन्होंने बाबासाहेब का हमेशा समर्थन किया। ये अर्जुन सिंह- वीपी सिंह की जाति है जिन्होंने अल्पसंख्यकों और पिछड़ों का साथ दिया। ये उन राजपूतों की जाति है जिन्होंने मुगल सल्तनत के साथ कंधा मिलाकर देश को गंगा -जमुनी तहज़ीब की ऐसी विरासत दी जिसे अंग्रेज़ भी नहीं खत्म कर सके और जिसकी वजह से आज तक मुल्क का मुसलमान लाख दुर्घटनाओं के बावजूद खुद को पराया महसूस नहीं करता। अब बहुत लोगों ने फिल्म देख ली है। कहीं किसी पद्मिनी का अपमान नहीं हुुआ। फिल्म भी काल्पनिक है और फिल्ममेकर ने दावा तक नहीं किया कि वो इतिहास दिखा रहा है। जिस गुजरात में फिल्म का प्रदर्शन तक नहीं हो रहा है वहां तक राजपूतों के नाम पर गुंडई दिखाई गई। इसका क्या औचित्य था? साफ है कि तुम गुंडे हो और राष्ट्र निर्माण में लगी जातियों के साथ अग्रणी भूमिका निभानेवाले राजपूतों के तुम प्रतिनिधि नहीं हो सकते। एक अपील राजपूतों से भी है… टीवी पर गाल बजाने वाले किसी भी डेढ़ पसली के आदमी को राजपूतों का ठेकेदार मत बनने दीजिए। ये थोथे चने बस चुनावी टिकटों के जुगाड़ में ज़्यादा बज रहे हैं। मैं जाति- बिरादरी से कितना दूर हूं ये मेरे आसपास के लोग बेहतर जानते हैं पर गुड़गांव और अहमदाबाद देखकर मुझे राजपूत के तौर पर अपील करनी पड़ रही है। देश मत जलाइए। बच्चों को मत डराइए। राजपूतों की ऐसी छवि मत स्थापित कीजिए कि हमारी पीढ़ियां शर्मसार हों।——————-Vibhavari Jnu
23 January at 14:12 ·
“जब पीएम को कश्मीर के लोगों के साथ खड़े होना चाहिए था तब वे एक दूसरे मुल्क के पीएम के साथ पतंग उड़ा रहे थे. उन्हें कश्मीर में पतंग उड़ानी चाहिए
…मैं नहीं कह रही…उद्धव ठाकरे कह रहे थे.———–Sandhya Singh
11 hrs ·
माँ पद्मावती के मान सम्मान की रक्षा करके सेना का.सैनिक जब घर पहुंचा.. माँ ने पूछा. कहाँ थे बेटा… तुमसे मतलब चुपचाप पडी रहो.. बहन ने पानी देने मे देर कर दी.गिलास का पानी मुँह पर …यही बनाई हो कहके थाली पत्नी के मुँह पर… पिता के इंतज़ार मे जगी हुई बेटी को देखकर पत्नी को बुलाकर जोरदार थप्पड़ जड सो गया..।
See Translation
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सिकंदर हयात सिकंदर हयात • 2 hours ago
Amitabh Shukla
3 hrs ·
कुछ लोग जो ख़ामोश हैं ये सोच रहे हैं।
सच बोलेंगे जब सच के ज़रा दाम बढ़ेंगे।
सुरेंद्र सिंह चौहान भोपाल में कर्णी सेना के सक्रिय सदस्य हैं, आर्थिक दशा बहुत अच्छी नहीं है।
कर्णी सेना के वीर कार्यकर्ता भोपाल में ज्योति टाकीज के बाहर फिल्म का विरोध कर रहे थे,अपनी मारुती स्विफ्ट पास में खड़ी करके चौहान जी भी विरोध करने लगे।
दिक्कत ये हो गई की गलती से कर्णी सेना के कार्यकर्ताओं ने ठाकुर साहब की कार ही जला दी।
अब ठाकुर साहब पुलिस की शरण में हैं।
ये अत्यंत मूर्खता भरी अराजकता और हिंसा है।
बोतल से जिन्न निकालना आसान है लेकिन फिर यदि वो जिन्न बोतल में वापस जाने से इंकार कर दे तो?
क्या मुल्क धीरे धीरे गृह युद्ध की तरफ सरक रहा है?
क्या गारंटी है कर्णी सेना की अपार सफलता से प्रेरित होकर कुर्मी सेना,दलित सेना परशुराम सेना आदिवासी सेना,तमिल सेना,हुसैन सेना हालेलुया सेना नहीं बन जाएगी?
प्रशासन पुलिस और न्याय प्रणाली से यदि लोगों का विश्वास उठ जाएगा तो यह स्थिति खतरनाक होगी भारत गणतंत्र के लिए।
आज कितने बड़े बड़े नेता उच्च संवैधानिक पदों पर बैठे हैं।
सब पर संगीन आरोप थे,सबको चतुराई से संदेह का लाभ देकर बरी कर दिया गया।
संदेह का लाभ मिला इसका मतलब ये नहीं कि वो सब निर्दोष थे?
पुलिस ने सही तरीके से केस प्रस्तुत नहीं किया ,सबूत मिट जाने दिया।
सब जानते हैं सलमान खान ने लोगों को रौंदा, हिरणों को मारा,लेकिन सलमान को सन्देह का लाभ मिला।
आरुषि की हत्या के लिये तलवार दम्पत्ति को सन्देह का लाभ देकर बरी किया गया।
सन्देह की तलवार जाने कितने महान नेताओं के सर पर लटक रही है।
जनता सब देख समझ रही है।
ये विश्वास का संकट है।
अब लालू यादव को सज़ा हो रही है।
फिर क्यों यादव जनता ये नहीं सोचेगी की लालू प्रसाद यादव को साज़िश के तहत फंसाया गया है?
क्या सही है और क्या गलत अब इस धुंध में कह पाना मुश्किल है।
विश्वास का संकट
न्याय का संकट
व्यवस्था पर प्रश्न।
ये तो नहीं कहता हूँ कि सच-मुच करो इंसाफ़।
झूटी भी तसल्ली हो तो जीता ही रहूँ मैं।
पगलेट तिवारी 23 hrs · जितनी सहानुभूति थी, सब सत्यानाश कर दिया इन गुण्डो ने। दुखद है——————kanupriya आपको उनसे सहानुभूति थी तो मुझे आपसे सहानुभूति हो रही है. पद्मावती इतिहास थी ये किस इतिहास में लिखा है?Kanupriya
43 mins ·
By the way मोदी जी की विदेश जाने की टाइमिंग बड़ी ग़ज़ब होती है, जब भी देश मे घमासान होता है, वो विदेश में होते है और इस कदर अनभिज्ञ रहते है जैसे कोई मासूम बच्चा जो क्लास में टीचर के सवाल पूछने पर कहता हो मैं तो कल absent था.
उनका twitter account उधर आधार कार्ड से लिंक नही है क्या?Ravish Kumar
27 mins ·
किसान नेता ने गोली मारकर ख़ुदकुशी की
भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष भानु प्रताप सिंह के बेटे ने ख़ुद को गोली मार ली है। यूपी के एटा के रहने वाले ओम प्रताप सिंह भारतीय किसान यूनियन के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके हैं। आलू का घाटा सहन नहीं कर सके और अवसाद में चले गए।
आलू के किसानों की हालत बहुत ख़राब है । नोटबंदी जैसे नेशनल फ्राड के कारण आलू की कीमत में जो गिरावट आई वो अभी तक नहीं सँभली है। रिज़र्व बैंक की गिनती कब पूरी होगी पता नहीं ।
योगी सरकार ने अपनी दूसरी कैबिनेट बैठक में फैसला किया था कि 2016-17 के दौरान सरकार एक लाख मिट्रिक टन आलू ख़रीदेगी। 487 रुपये प्रति क्विंटल के भाव से । इसका क्या हुआ ? कितना आलू ख़रीदा गया? यह सब सवाल पूछने से अच्छा है आप पूरे परिवार के साथ हिन्दू मुस्लिम डिबेट प्रोजेक्ट में ध्यान लगाएँ । किसान के लिए जवान नहीं बोलेगा और जवान के लिए किसान नहीं बोलेगा। नौजवान टीवी देखेगा।
सब मिलकर लगाओ नारा- सारे दुखो का एक इलाज , हिन्दू मुस्लिम का हो विवाद। सत्यानाश, सत्यानाश ।
इतनी बड़ी ख़बर कतरन की तरह किनारे छपी है।Ravish Kumar
15 hrs ·
भारतीय अर्थव्यवस्था का तीस साल में सबसे ख़राब प्रदर्शन, हिन्दू मुस्लिम डिबेट प्रोजेक्ट का स्वर्ण युग
इंडियन एक्सप्रेस में अर्थशास्त्री कौशिक बसु का लेख पढ़िए। बता रहे हैं कि भारत की जीडीपी का तीस साल का औसत निकालने पर 6.6 प्रतिशत आता है। इस वक्त भारत इस औसत से नीचे प्रदर्शन कर रहा है। पहली दो तिमाही में ग्रोथ 5.7 प्रतिशत और 6.3 प्रतिशत रहा है। सरकार का ही अनुमान है कि 2017-18 में ग्रोथ रेट 6.5 प्रतिसत रहेगा।
हम तीस साल के औसत से भी नीचे चले आए हैं। अब वक्त कम है। इसलिए आप कभी पदमावत तो कभी किसी और बहाने सांप्रदायिक टोन का उभार झेलने के लिए मजबूर है क्योंकि अब नौकरियों पर जवाब देने के लिए कम वक्त मिला है। 2014 के चुनाव में पहली बार के मतदाताओं को खूब पूछा गया। उनका अब इस्तमाल हो चुका है वे अब बसों को जलाने और फिल्म के समर्थन और विरोध में बिछाए गए सांप्रदायिक जाल में फंस चुके हैं। सत्ता को नया खुराक चाहिए इसलिए फिर से 2019 में मतदाता बनने वाले युवाओं की खोज हो रही है।
नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ी है क्योंकि यह बुद्धिविहीन फैसला था। हम इसके बुरे असर से भले निकल आए हैं और हो सकता है कि आगे जाकर अच्छा ही है लेकिन इन तीन सालों की ढलान में लाखों लोगों की नौकरी गई, नौकरी नहीं मिली, वे कभी लौट कर नहीं आएंगे। इसीलिए ऐसे युवाओं को बिजी रखने के लिए सांप्रदायिकता का एलान ज़ोर शोर से और शान से जारी रहेगा क्योंकि अब यही शान दूसरे सवालों को किनारे लग सकती है।
कौशिक बसु ने लिखा है कि हर सेक्टर में गिरावट है। भारत अपनी क्षमता से बहुत कम प्रदर्शन कर रहा है। कम से कम भारत निर्यात के मामले में अच्छा कर सकता था। भारत में असमानता तेज़ी से बढ़ रही है और नौकरियों की संभावना उतनी ही तेज़ी से कम होती जा रही है। इधर उधर से खबरें जुटा कर साबित किया जा रहा है कि नौकरियां बढ़ रही हैं जबकि हकीकत यह है कि मोदी सरकार इस मोर्चे पर फेल हो चुकी है। उसके पास सिर्फ और सिर्फ चुनावी सफलता का शानदार रिकार्ड बचा है। जिसे इन सब सवालों के बाद भी हासिल किया जा सकता है।
कौशिक बसु ने लिखा है कि 2005-08 में जब ग्रोथ रेट ज़्यादा था तब भी नौकरियां कम थीं लेकिन उस दौरान खेती और उससे जुड़ी गतिविधियों में तेज़ी आने के कारण काम करने की आबादी के 56.7 प्रतिशत हिस्सा को काम मिल गया था। दस साल बाद यह प्रतिशत घट कर 43.7 प्रतिशत पर आ गया। इसमें लगातार गिरावाट आती जा रही है।
इसलिए अब आने वाले दिनों में भांति भांति के हिन्दू-मुस्लिम प्रोजेक्ट के लिए तैयार हो जाएं। आप इसमें फंसेंगे, बहस करेंगे, दिन अच्छा कटेगा, जवानी खूब बीतेगी। पदमावत के बाद अगला कौन सा मुद्दा होगा….
तमाम तरह के चयन आयोगों के सामने लाचार खड़े नौजवान भी इसी में बिजी हो जाएं। वही बेहतर रहेगा। सांप्रदायिक गौरव इस उम्र में खूब भाता है। वे फार्म भरना बंद कर दें हिन्दू मुस्लिम डिबेट प्रोजेक्ट में शामिल हो जाएं।
मैं गारंटी देता हूं कि दस बारह साल बिना नौकरी के मज़े में कट जाएंगे। दुखद है लेकिन क्या कर सकते हैं। मेरे कहने से तो आप रूकेंगे तो नहीं, करेंगे ही। कर भी रहे हैं।
नोट- आई टी सेल अब आप आ जाएं कमेंट करने। 600 करोड़ वोट आपके नेता को ही मिल सकते हैं। आबादी का छह गुना। वाकई भारत ने ही शून्य की खोज की थी।
Mohd Zahid17 hrs · आज मेरे स्नातक के सहपाठी प्रवीण मिश्रा जी मिल गये जो एक कालेज में मध्यकालीन इतिहास के अध्यापक हैं।
उनके ही शब्दों में
“अरे ज़ाहिद भाई यह च——- हैं , इनको अलाउद्दीन खिलजी के बारे में क्या पता ? अलाउद्दीन खिलजी की बाजार व्यवस्था को मैं पिछले 20 सालों से पढ़ा रहा हूं , इंटर से पोस्टग्रेजुएट तक मध्यकालीन इतिहास की कोई ऐसी पुस्तक नहीं जिसमें “अलाउद्दीन खिलजी” के बाजार व्यवस्था का अध्याय ना हो। आज भारत की अर्थव्यवस्था खिलजी की “बाजार व्यवस्था” पर ही आधारित है। बनिए पहले ग्राहकों को घटतौली करके सामान देते थे , अलाउद्दीन खिलजी ने ही यह व्यवस्था की कि जो जितना कम तौलेगा उतना गोश्त उसके शरीर से निकाल लिया जाएगा। अलाउद्दीन खिलजी ने भारत को अर्थ व्यवस्था दी , शेरशाह सूरी ने सड़क व्यवस्था के रूप में जीटी रोड दी तो मौलाना अबुल कलाम आजाद ने आज के भारत की शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया तो डाक्टर एपीजे ने देश को परमाणु संपन्न बनाया मिसाईल दी”ये ससुरे तो चड्ढी तक अपनी नहीं बना पाए , अंग्रजों की चड्ढी पहनते हैं।—————————————————————————————————————————————-
दास्ताँ-इ-खिलजी
MANN- लेखक मन·FRIDAY, 26 JANUARY 2018
कुछ ८०० वर्ष पूर्व जब भारत देश में लोग अत्यंत गरीबी और भूखमरी से जूझ रहे थे , तब तुर्कदेश से अत्यंत दयालु, कृपालु, सभ्य और अति पढ़े लिखे कुछ साधुओं का दल घोड़ों पर बैठ भारत घुमते घामते आ पहुंचे. उन्होंने जब इधर ये हाल देखा , तो उनका ह्रदय बहुत द्रवित हो गया और वो भारत को अपना मान यहीं बस गए- उनका उद्देश्य लोगों की पीड़ा दूर कर उन्हें सद्मार्ग लाना था. इन्ही साधु महात्मा के वंशजो में एक थे महात्मा अलाउद्दीन खिलजी. उस समय महात्मां खिलजी के चाचा जलालुद्दीन दिल्ली के प्रमुख दरवेश थे और अल्लाउद्दीन उनके प्रमुख चेले थे. दया और ममता में वो अपने गुरु और चाचा से भी चार कदम आगे थे. अपनी गुरुपुत्री और अपनी चचेरी बहन को उन्होंने अपनी भार्या का दर्ज़ा दिया था.
चूँकि उनके चाचा अब बुजुर्ग और असहाय हो रहे थे, उन्होंने अपने चाचा को वैकुण्ठ धाम का मार्ग दिखाया. महात्मा ख़िलजी धर्मज्ञ, मर्मज्ञ थे और विधि के विधान को मानते थे। अपने श्वसुर द्वारा देवगिरी से मिले चंदे के धन के लिए आरोपित हुए श्री ख़िलजी ने कहा – जो करता है परमात्मा करता है, मैं निमित्त मात्र हूँ। तत्पश्चात उन्होंने मूढ़ श्वसुर जलालुद्दीन की शिरोच्छेद किया. इस तरह से खिलजी महाशय दिल्ली मठ के प्रमुख संत बने..मठाधीश बनने के बाद आपने अपने दया का परचम पूरे भारत में फहराया. महात्मा ख़िलजी भारत के प्रथम ईक्वल अपार्च्युनिटि इम्प्लायर थे जिन्होंने अपने समलैंगिक प्रेमी को अपना सेनापति नियुक्त किया.महात्मा ख़िलजी प्रतिदिन साँयकाल संध्यावंदन के पश्चात गंगा के तट पर बैठ कर जामुन खाते थे। इस प्रकार भारत में गँगा-जमुनी परंपरा का जन्म हुआ.
दिल्ली के मठाधीश रहते खिलजी महाराज ने अनेको राज्यों में अपनी दया और ममता उड़ेली. जहा कहीं उन्हें स्त्रियों पर अत्याचार की खबर मिलती, वो वहां पहुंच जाते और महिलाओं को उत्प्रेरित करते और वहां के पुरुषों को अपने धर्म और कर्म से अधीन कर उन स्त्रियों को अपने महिला आश्रम में दाखिल करते थे- आश्रम का नाम उन्होंने हरम रख रखा था. दिल्ली पर जब मंगोल साधु संत चढ़ आये, तब उन्होंने उनको शाश्त्रार्थ में पराजित किया था. उन्होंने एक कहावत सुनी – ग्रेट डीड्स नीड मेनी हेड्स पुट टुगेदर। अत: राष्ट्र रक्षा हेतु महात्मा ख़िलजी ने सिरी के क़िले की नींव में २०० काफ़िर मंगोलों का सिर दफ़ना कर भारतीय वास्तुशैली में नया अध्याय जोड़ा.
त्रिलोकदर्शी श्री ख़िलजी जानते थे कि फ़्रिंज एलीमेंट भविष्य में उनके अपमान का प्रयास करेंगे अत: उन्होंने पहले ही अपने नाम में ही ‘जी’ लगा लिया. हम सब से एक अपराध हो गया हैं- वैसे तो खिलजी इतने महान थे की अपने नाम में खुद ही जी लगा कर चलते थे, मगर हम मूर्खों को उनका नाम आदर से लेना , आइंदा सब लोग खिलजी जी ही कहे- नोट: इस extra G का काफूरजी से कोई सम्बन्ध नहीं है. संत ख़िलजी का उदार हृदय ही था जिसने अपने पुरूष प्रेम को महिलाओं को हरम सुख का सत्संग प्राप्त करने से वंचित नहीं होने दिया। महात्मा ख़िलजी सत्य ही स्त्री-पुरुष, किशोर-वृद्ध की परिभाषा से परे महामानव थे। “आदमी हूँ, आदमी से ही प्यार करता हूँ “- इस गाने की उत्पति खिलजी से ही हुई थी- उन्होंने अनेकों किशोरों को गिलमा बनने के लिए प्रोत्साहित किया और उन्हें अकेले में ज्ञान भी दिया था. इतिहासकार और कई संकुचित मानसिकता के प्राणी उनकी महानता को कदापि समझ ही नहीं पाए- परन्तु कालांतर में एक कालजई सिनेमा बनने के बाद आधुनिक नर नारी खिलजी की महानता समझ गए थे.
गुजरात में जब वो कीर्तन करने गए, तो वहां के राजा ने प्रसन्न होकर अपनी महारानी कमला देवी उन्हें भेंट में दे दी और अपनी पुत्री देवल देवी उनके महान पुत्र ख़िज़्र खान को नज़र करी. जब खिलजी को चित्तोड़ की सुंदरी पद्मिनी के बारे में पता चला, तो उन्होंने साधु संतो की एक टोली लेकर चित्तोड़ लेकर चल दिए. राजा रत्नसेन के मना करने पर उन्होंने वहां ६ महीने धरना दिया और मात्र स्टील के एक जादुई गिलास में पानी पी पी दिन गुजारे. राजा के गुजर जाने के बाद उन्होंने लाख कोशिश करी कि रानी सती/ जौहर ना करे, लेकिन रानी ने उनकी संगत में आने की वजह आत्मसात कर लिया. निराश होकर खिलजी वापस दिल्ली में अपने मठ में वापस आये और इस तरह से भारत वर्ष में अपनी तपस्या से अपना नाम रोशन किया .
उनके उदाहरणीय और अनुकरणीय जीवन पर बने कालजयी चलचित्र के पक्ष में चीत्कार करते बुद्धिजीवी उदारवादी इस बात का साक्षात प्रमाण हैं कि महात्मा खिलजी पुण्यात्मा थे जिन्होंने आजीवन राष्ट्रीय एकता के लिये अनावृत प्रयास किया. उनका जन्मदिन राष्ट्रीय अवकाश हो ऐसा हमारी मांग है .
नोट – इस लेख में समीर कपूर, साकेत सूर्येश एवं कानपूर के एक अज्ञात आचार्य जी का पूरा पूरा हाथ है.
Tanvir Khan
19 hrs ·
#ख़िलजी_भंसाली_की_अप्रेम_कथा
मुझे फिल्में देखने का शौक़ नहीं क्योंकि आमतौर पर में उनका रिव्यु पढ़ लेता हूँ फिर उस फ़िल्म को देखने की चाहत ही ख़त्म हो जाती है.
लेकिन भारत की अब तक कि सबसे कंट्रोवरशियल फ़िल्म यानी पद्मावती के रिवीयू पड़ने की मुझे जिज्ञासा थी तो तीन चार वेबसाइट पर उनको पढ़ा.
रिवियु पढ़कर यह समझ में आगया कि पिछले कुछ सालों से देश में जिस तरह मुसलमानों की जो ख़राब इमेज बनाई जा रही है भन्साली ने अपनी फ़िल्म को हिट कराने में उसको भुनाने की पूरी कोशिश की है, #अलाउद्दीन_ख़िलजी जैसे शानदार बादशाह को जिसने
> 1298 में बघेल राजा कर्ण को हराकर गुजरात पर विजय प्राप्त करी थी, यहीं से मलिक काफ़ूर नाम के अछूत मेहतर ज़ात के हिजड़े को उसकी बहादुरी को देखते हुवे अपना सेनापति बनाया, बाद में उसी मलिक काफ़ूर ने ख़िलजी के लिये बहोत सी जंगे जीतीं.
> 1299 में उसकी सेना के घोड़े चुराने के कारण उसने राजा दूदा और तिलक सिंह को हराकर जैसलमेर जीता.
> 1301 में अलाउद्दीन ने रणथम्भौर पर हमला किया क्योंकि वहां के अत्यंत बलशाली और अपने साहस के लिये प्रसिद्ध राजा हम्मीरदेव ने मंगोल नेता मुहम्मद शाह एवं क़ेहब को अपने यहाँ शरण दे रखी थी, हार के बाद राजा हम्मीरदेव और उसकी रानियों ने जोहर कर लिया था.
> 1303 ई. को सुल्तान चित्तौड़ के अभेद माने जाने वाले क़िले पर अधिकार करने में सफल हुआ, वहां का #राणा_रतन_सिंह युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ, क़िले पर अधिकार में अलाउद्दीन की सेना से लड़ते हुवे लगभग 30,000 राजपूत वीरों ने बलिदान दिया और ऐसा माना जाता है कि रतन सिंह की एक पटरानी रानीपद्मिनी ने अन्य रानियों और राजपूत स्त्रियों के साथ जौहर कर लिया. जीत के बाद अलाउद्दीन ने चित्तौड़ का नाम ख़िज़्र ख़ाँ के नाम पर ‘ख़िज़्राबाद’ रखा और उसी को सौंप कर दिल्ली वापस आ गया.
(1316 में अलाउद्दीन की म्रत्यु के 5 साल बाद 1321 में चित्तौड़ और पूरे मेवाड़ पर राजपूतों ने दुबारा क़ब्ज़ा कर लिया था, (जो लोग यह कहते हैं कि राजपूत कभी जंगे नहीं जीते वोह बतायें की बिना जंग लड़े चित्तौड़ और मेवाड़ राजपूतों के क़ब्ज़े में कैसे आगये??)
> 1305 में अलाउद्दीन ने चंदेरी से लेकर उज्जैन तक पूरे मालवा पर विजय प्राप्त करी.
> 1305 ई. में ही कमालुद्दीन गुर्ग के नेतृत्व में सुल्तान की सेना ने जालौर के कान्हणदेव को युद्ध में पराजित किया और उसके साथ ही अलाउद्दीन की राजस्थान विजय का कठिन कार्य पूरा हुआ.
> 1311 ई. तक नेपाल, कश्मीर एवं असम को छोड़कर पूरे उत्तर भारत पर अलाउद्दीन अधिकार कर चुका था.
अलाउद्दीन ख़िलजी के सामने दक्षिण भारत मेंसिर्फ़ तीन महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ थीं-
1. देवगिरि के यादव
2. तेलंगाना के काकतीय और
3. द्वारसमुद्र के होयसल
> 1309 ई. में ख़िलजी की सेनाओं ने अपने ख़ज़ाने भरने के लिए तेलंगाना पर आक्रमण किया गया, तेलंगाना के शासक प्रताप रुद्रदेव द्वितीय ने अपनी एक सोने की मूर्ति बनवाकर और उसके गले में सोने की जंजीर डाल कर आत्मसमर्पण हेतु मलिक काफ़ूर के पास भेजा थ, विश्वप्रसिद्ध कोहिनूर हीरा ख़िलजी ने यहीं से जीता था.
> 1311 में ख़िलजी की सेनाओं ने मलिक काफ़ूर के नेतृत्व में होयसल पर आक्रमण किया, वहां का शासक वीर #बल्लाल_देव तृतीय था, इसकी राजधानी द्वारसमुद्र थी, युद्ध के पहले दिन ही बल्लाल देव ने ख़िलजी की ताक़त को देखते हुवे अपने सैनिकों की जान बचाने की ख़ातिर मलिक काफ़ूर के आगे आत्मसमर्पण कर अलाउद्दीन की अधीनता ग्रहण कर ली थी.
> 1311 में होयसल विजय के बाद ख़िलजी की सेनायें मालाबार की तरफ़ बढ़ीं, जिसको तब #पाण्ड्य के नाम से भी जाना जाता था, यहाँ के शासक सुन्दर पाण्ड्य को वीर पाण्ड्य ने पराजित करदिया था तब सुन्दर पाण्ड्य ने ख़िलजी से मदद मांगी थी तब मलिक काफ़ूर ने पाण्ड्यों के महत्त्वपूर्ण केन्द्र ‘वीरथूल’ पर आक्रमण कर दिया और बरमतपती में स्थित ‘लिंग महादेव’ के सोने के मंदिर में खूब लूटपाट की, कहा जाता है कि उसके अलावा भी और कई मंदिर उसके द्वारा लूटे एवं तोड़े गये. (यहां एक बात ग़ोर करने वाली है, मलिक काफ़ूर मेहतर से मुस्लिम बना था और मंदिरों को तोड़ने के पीछे उसकी दलितों को मंदिरों में नहीं घुसने देने के बदले के रूप में देखा जाता है), ख़िलजी की सेनाओं ने रामेश्वरम तक विजय प्राप्त कर अपनी सत्ता बढ़ाई. उसके बाद काफ़ूर अपार धन सम्पत्ति के साथ दिल्ली पहुँचा, लेकिन वोह वीर पांड्या को नहीं ढूंढ पाया.
> 1298 से 1304 के बीच का वक़्त ख़िलजी और भारत के इतिहास के लिये सबसे महत्वपूर्ण काल माना जाता है, जब चंगेज़ ख़ान और हलागू ख़ान कज़ाख़स्तान, किर्गिस्तान, ईरान और ईराक़ को विजय कर तबाह कर रहे थे तब मंगोलों ने भारत पर चार बड़े बड़े आक्रमण किये थे, ख़िलजी ने अपने सेनापति मलिक काफ़ूर को दक्षिण विजय के अभियान पर लगाकर मंगोलों की सर्वशक्तिशाली सेनाओं से ख़ुद मुक़ाबला किया था. यह ख़िलजी की बहादुरी और नेतृत्व छमता ही थी जो दुर्दांत मंगोल भारत की सीमाओं में दाख़िल नहीं हो सके, वर्ना आज भारत का इतिहास कुछ और होता.
अलाउद्दीन ख़िलजी बहोत ही शानदार Administrator/ प्रशासक था, उसकी लागू करी हुई बाजार/मंडी व्यवस्था देश में आजतक उसी स्थिति में लागू है, उसने बाज़ार के लिये दारोग़ा जिसे #शहन_ए_मंडी कहते थे का पद स्थापित किया इसके अलावा उसने #मुहतसिब – यानी माप-तौल का निरीक्षण करनेवाला पद स्थापित किया था, जिस्से सरकार ले ख़ज़ाने में मंडी टेक्स regularized हुवा और व्यापारियों द्वारा किसानों को लूटने पर लगाम लगी.
पुलिस, गुप्तचर, न्यायपालिका, डाक व्यवस्था में अलाउद्दीन ख़िलजी का योगदान भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया है.
अर्थिक सुधार में अलाउद्दीन ख़िलजी ने सभी अनाजों, दलहनों के मूल्य निर्धारित कर दिये थे.
अकाल या बाढ़ के समय अलाउद्दीन प्रत्येक घर को आधा मन अनाज देता था, राशनिंग व्यवस्था अलाउद्दीन के दिमाग़ की उपज थी.
उसने मवेशियों, घोड़ों और दासों के लिये बाज़ार में चार नियम लागू किये थे
1> किस्म के अनुसार मूल्य का निर्धारण
2> व्यापारियों एवं पूंजीपतियों का बहिष्कार
3> दलाली करने वाले लोगों पर सख़्त कार्यवाही और
4> सुल्तान द्वारा बार-बार हर चीज़ की जांच पड़ताल.
ऐसे शानदार सुल्तान को भंसाली ने चालबाज़ और ख़ूँख़ार खलनायकों की तरह दिखाया है, जो बड़े का भुना गोश्त खाता है, राने चबाता है, हमेशा काजल लगाकर, बड़ी बड़ी आंखे दिखाता है, जिसके चेहरे पर हमेशा मिट्टी मली रहती है जिस्से वोह गन्दा दिखे, ऊपर से ख़िलजी को फ़िल्म में काले या गहरे रंग के कपड़े पहने दिखाया गया है, यानी पूरा विलन.
एक मुस्लिम शासक को इतना निगेटिव शेड में दिखाने के बाद, ख़ूँख़ार, धोखेबाज़, काइयाँ दिखाने से भी किसी मुसलमान की भावनाएं आहत नहीं हुईं, उसका एक सिम्पल सा कारण है, मुसलमान इन शासकों को अपना हीरो नहीं मानते, मुसलमान फॉलो करता है पैग़म्बर ह. मुहम्मद स.अ. व. को, चारों ख़लीफ़ाओं को, इमाम हसन र.अ. और ईमाम हुसैन र.अ. को, Hero Worship या व्यक्ति पूजा इस्लाम में वैसे ही हराम है. मुसलमानों पर तो इस फ़िल्म से कोई असर नहीं हुआ लेकिन इसबार संजय लीला भंसाली दूसरे नेहरू, इंदिरा, राजीव गांधी की लाईन में जा खड़े हुवे, जिनका तुष्टिकरण करके और उनके द्वारा कमाई करने के लिये उन्होंने फ़िल्म बनाई वही बहुसंख्यक, भंसाली को सबसे ज़्यादा गालीयाँ बक रहे हैं.Tanvir Khan
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सिकंदर हयात • 17 minutes ago
Yashwant Singh
3 hrs ·
मैं फिलिम पद्मावती उर्फ पद्मावत प्रकरण पर पहली बार लिख रहा हूं. और, ये आखिरी बार भी है. प्वाइंट वाइज…
-ऐसे दंगा भड़का के, जबरन विवाद खड़ा करवा के, देश के पूरे तंत्र का इस्तेमाल करके फिल्म हिट कराने के फंडे को बेहूदा मानता हूं. ऐसी हरकतों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए. इसलिए इस मसले पर लिखने-बोलने से बचता रहा. यही कारण है कि ब्रांडिंग की इस घटिया सामंती टाइप भारतीय तरीके के प्रतिकार स्वरूप यह फिल्म देखने न गया न जाउंगा.
-मैंने खुद अपनी जाति तब ही तिरोहित कर दी थी जब आदरणीय कामरेड Lal Bahadur Singh के नेतृत्व में आइसा ज्वाइन कर लिया था. फिर भाकपा माले के जरिए गांवों-खेतों में मजदूर-किसानों के बीच जाने लगा. जातियां हमारे डीएनए और हमारे अस्तित्व में नहीं भरी हैं, ये समाज और ये सिस्टम जबरन इसे हमारे डीएनए और हमारे अस्तित्व का हिस्सा बना देता है. ये सच है कि जातीय जकड़ बहुत गहरे है अपने देश में जिससे निकलने में दशकों लग जाएंगे लेकिन एक वक्त तो आएगा ही जब नया पढ़ा लिख विश्व नागरिक जातियों और धर्मों की सच्चाई को बूझ चुका होगा… इन चिरकुटाइयों से मुक्त-उन्मुक्त हो चुका होगा… वो सत्ता और बाजार के सारे खेल-तमाशे समझता होगा.. दुर्भाग्य से हमारा देश अब भी कम पढ़े लिखे और अकलहीन लोगों का देश है… सो, नेता और अभिनेता कायदे से इस जनता की मार कर अपनी तिजोरी भरने और अपना साम्राज्य बचाने-फैलाने में लगे हैं…
-एक साहब फिल्म देखकर आए और कहे कि इस फिल्म में तो खुदे खिल्जिया नांच रहा है, बताइए… राजपूतों-ठाकुरों की कहां बेइज्जती है, इसमें तो खिलजियों की ही बेइज्जती भरी पड़ी है… खिलजी जी अगर इसे देख लेते तो तलवार खुदे को मार कर सुसाइड कर लेते….सिनेमाहाल में ही…
-बाजार का सारा खेल कुछ यूं होता है कि हम समझ ही नहीं पाते और इसके हिस्से बन जाते हैं. अंबानी का पूरा पैसा लगा है भंसाली की फिल्म में. दो सौ करोड़ को आठ सौ करोड़ में कनवर्ट करने का पूरा खेल है. सौ करोड़ फेंक दिए गए नेताओं, मीडिया वालों और ढेर सारी चिरकुट सेनाओं पर… जैसा कि भाजपा नेता अपने स्टिंग में कुबूल कर रहा है कि उन लोगों की मजबूरी ये है कि जो लोग विरोध कर रहे हैं, वे सब उनके वोटर हैं, और उनकी भावनाओं को वो कुचलना नहीं चाहते… तो, अंबानी का गणित, भंसाली का गणित, भाजपा की गणित, सरकारों की गणित…. सब मिला दीजिए तो इज इक्वल टू बहुत मुनाफा परक हो जाता है… नोट-वोट सब इसमें पोलराइज हो रहा है… सो, लोकतंत्र अगर जले तो जलता रहे…
-आगे भी ध्यान रखिए, चिरकुट मुद्दे जो जबरन क्रिएट किए जाते हैं, सत्ता द्वारा, बाजार द्वारा, मीडिया द्वारा… उन पर न लिखिए न रिएक्ट करिए… देखिए वो दम तोड़ देंगे… यही कारण है कि आजकल पूरी की पूरी मुख्यधारा की मीडिया सरकारों द्वारा इनडायरेक्ट रूप से खरीद ली गई है ताकि सरकार अपने खेल को इन मीडिया के द्वारा जनता में परोस सके… और फिर जनता अपने मूल जीवन से जुड़े मुद्दों को भूल कर इन पैराशूट प्राब्लम्स में उलझ जाती है और आंय बांय सांय किए जाती है… चिरकुट किस्म के औसत बुद्धिजीवी भी लग जाते हैं और ढेर सारे पेड आनलाइन वर्कर दिन रात कलम तोड़ने लगते हैं… नतीजा क्या आता है.. आप देख-जान चुके हैं… कभी संवेदना मारी जाती है तो कभी संविधान को नीचा दिखा दिया जाता है तो कभी मनुष्यता कलंकित होती है तो कभी अपनी हत्या पर लोकतंत्र जार जार रोता है…
जैजै
यशवंत
पदमावती जैसे कांड जो पिछले दिनों हुए देश का इतना दिमाग खाया गया उसके पीछे काम करती हे ज़हरीली सोच की लड़किया औरते इंसान नहीं होते होती हे इज़्ज़त , कोई देता हे कोई लेता हे कोई लूट लेता हे की बकवास इस बकवास के पीछे हे शोषणकारी तत्वों के एजेंट जो हर गली में मौजूद हे लड़कियों को दे आज़ादी और बराबरी आपके ही शोषण से जुड़ा मुद्दा हे ये भी -दो घटनाएं देखे और आम आदमी आम मध्यमवर्गीय निम्न मध्यमवर्गीय जिनका देश में बहुमत हे वो देखे और समझे की उन्हें लड़कियों को आज़ादी और फुल बराबरी देनी ही होगी वैसे तो आज पहले के मुकाबले लड़कियों के लिए बहुत बेहतर समय आ गया हे मगर फिर भी एक आम आदमी एक मध्यमवर्ग का आदमी और बहुत से समाज में आज भी लड़कियों और महिलाओ को बरांबरी नहीं हे इसी का एक नज़ारा देखने को मिला जब एक तरफ भड़ास मिडिया पर ये खबर पढ़ी https://www.bhadas4media.com/article-comment/14549-bhagi-huyi-ladkiyan की कुछ लड़किया घर से भाग गयी बाहर रही ठोकरे खायी होटलो में रही पर घर नहीं गयी और वजह वो भी नहीं की कोई लड़का या कोई प्रेम प्रसंग या कोई और अप्रिय घटना पुलिस जाँच में पता चला की फरारी के दौरान इन लड़कियों ने ना किसी के साथ कुछ गलत किया ना इनके साथ कुछ बुरा हुआ इनका कहना था की इनके घर वाले इन्हे घर में बंद रखना चाहते थे और फिर ज़ाहिर हे की पहली फुर्सत में बिना कुछ देखे भाले स्वजातीय लड़के से इनकी शादी चाहते होंगे इन लड़कियों का इस सबसे दम घुट रहा होगा उनका कहना था की वो सिर्फ जीना चाहती हे घूमना चाहती हे पढ़ना चाहती हे ना की जैसा की होता ही हे की घर में बंद रहना और फिर जल्द से जल्द शादी करके बच्चे पालना इन लड़कियों को ये मंजूर ना था वो घर से भाग गयी उन्हें पता था की ये बहुत जोखिम हे मगर जीने की प्यास में उन्होंने ये कदम उठाया दूसरी तरफ दिल्ली में अंकित नामके लड़के की ऑनर किलिंग हुई संघियो ने मौका देख कर हमेशा की तरह इसे कम्युनल रंग दिया जबकि भारत में अपने ही धर्म में भी प्रेमविवाह फिर नाराज़ घर वालो द्वारा हत्याओं का लम्बा और रोज़मर्रा का इतिहास रहा हे वो मुस्लिम लड़की अगर किसी मुस्लिम ही लड़के से प्रेम और विवाह चाहती तब भी ये सब हो सकता था अंकित अगर मुस्लिम नहीं किसी और जाती या वर्ग की हिन्दू लड़की से प्रेम करता तो भी ये हो सकता था होता आया हे असल मुद्दे कुछ और हे लोग आखिर क्यों लड़कियों को आज़ादी नहीं देना चाहते इसमें क्या घबराहट हे कौन हे जो उन्हें उकसाते हे कौन हे जो उन्हें बताते हे की लड़कियाँ इंसान नहीं होती हे हमारी तरह , बल्कि घर की ” इज़्ज़त ” होती हे हर समय हमें इस इज़्ज़त की हिफाज़त और चिंता करनी चाहिए और लड़कियों के घर से बाहर निकलने से और निकलने के कारण गैर मर्दो के संपर्क में आने फिर प्यार होने से लड़की के अपनी मर्ज़ी से शादी करने से हमारी इज़्ज़त ख़राब होती हे इतनी ख़राब और बेहूदा सोच आज भी कौन लोग फैलाते हे उनका क्या मकसद होता हे इस सबके पीछे ————— ? , यहाँ तक भी देखा गया हे की लड़कियों के अपनी मर्जी से शादी करने पर माँ बाप भाई कई साईं साल बाद बच्चे होने के बाद भी आ आकर ऑनर किलिंग करते हे ज़ाहिर हे की कोई हे जो उन्हें भड़काते हे ये कौन लोग हे हम आपको बताते हे की ये हे शोषणकारी तत्व और उनके एजेंट ये ही आम लोगो को भड़काते हे की वो अपनी लड़कियों दबाकर रखे उनकी खुशिया छीने किसलिए ताकि इनका शोषण और वर्चस्व कायम रहे जी हां लड़कियों को दबाने के पीछे शोषणकारियो की यही भावना काम रही हे बेचारे आम लोग इसे पहचान नहीं पाते वो कही अपनी लड़कियों की जीने की चाह का गला घोटते हे तो कही ऑनर किलिंग करके अपने पुरे परिवार को तबाह कर लेते हे और पीछे मुस्कुराते रहते हे शोषणकारी तत्व ताकते और उनके एजेंट पहले केस की बात करे तो जिसमे लड़किया रो रो कर कह रही हे की उनके अपने उन्हें पढ़ने नहीं देते जीने नहीं देते घूमने नहीं देते तो फिर वो अपने जो लड़कियों को इस तरह से दबाकर रखना चाहते हे वो फिर क्या चाहते होंगे आख़िरकार —————- ? यही ना की जल्द से जल्द इन लड़कियों की शादी कर दी जाए जल्द से जल्द शोषणकारी तत्वों के एजेंट यही समझाते हे की जल्द से जल्द लड़कियों की शादी कर दो बला टालो लड़किया इंसान नहीं हे घर की इज़्ज़त हे और इज़्ज़त इसी में हे जल्द से जल्द शादी कर दो पुराने ज़माने में ही नहीं आज भी यही सोच हे भारत में बहुत हे ही , इस सोच को बढ़ावा देते ध्यान से गहराई से देखेंगे तो जड़ में मिलेंगे आपको आपको शोषणकारी तत्व ताकते और उनके लोग , जानते हे ये ऐसा क्यों करते हे ये ऐसा इसलिए करते हे की जैसा की रविश कुमार ने कहा था की प्राइवेट स्कूलों और प्राइवेट हॉस्पिटल्स ने लोगो को गुलाम बना लिया हे इसके आगे भी आयाम हे स्कूल इनके हे हॉस्पिटल्स इनके हे बैंक में पैसा इनका हे बिल्डर ये हे नेता इनके हे तो ये चाहते हे की लोग जल्द से जल्द शादिया करे जल्दी शादिया होंगी तो बच्चे अधिक होंगे और इनके स्कुल और हॉस्पिटल भरे रहेंगे भरे रहते हे भारत की आबादी सवा अरब से भी बहुत अधिक हो चुकी हे इसमें शोषणकारी ताकतों का कोई नुक्सान नहीं हे इनका तो फायदा हे अधिक आबादी तो इनके स्कुल और हॉस्पिटल्स में तिल धरने को जगह नहीं मुँह मांगे दाम और अधिक आबादी तो उसके लिए अधिक मकान बिल्डर ये हे मनमाने दाम लेते हे फिर मकान के लिए लोन और ब्याज बैंक में पैसा इनका हे जो आप लोन लेकर सारी जिंदगी चुकाते हो फिर जल्द बीवी बच्चो घर ग्रहस्ती की चक्की में लोग पीस जाए तो उनके पास सोचने का मौका नहीं होगा ( इसलिए मेने देखा की हमारे यहाँ का एक महाभरष्ट करोड़पति जिसका सिर्फ एक लड़का हे कोई पोता पोती नहीं शादी को छह साल हो गए , फिर भी वो मेरी जान खाता हे की शादी करो बच्चे पैदा करो जबकि मेरी मदर के पहले ही 11 नातिया पोतिया हे सोचिये ऐसा क्यों ताकि में उसका गुलाम बनु —————————— ? ) इसलिए आपने देखा होगा की शोषणकारी तत्वों को जे एन यु जैसे संस्थानों से हिस्टीरिया की हद तक नफरत हे जहा बड़ी उम्र के लड़के और लड़किया पढ़ते हे चिंतन करते हे इसी चिंतन से इन्हे अपनी पोल खुलने की चिंता रहती हे – शोषकारी तत्व इसलिए लड़कियों को दबाने की पैरवी करते हे ताकि वो जल्द शादिया जल्द शादिया होंगी तो आबादी भी अधिक होगी घर ग्रहस्ती के ही बोझ से लोग दबे रहेंगे तो कुछ ना सोच पाएंगे ना कर पाएंगे ना कुछ बदलाव होगा लोग इनके भेड़ बकरी बने रहेंगे जिन्हे ये जब चाहे अपने फायदों को इस्तेमाल और बलि कर ते रहेंगे – जिससे लोगो की खुद भले ही जिंदगी नर्क हो जाए मगर उससे शोषणकारी तत्वों का तो फायदा ही फायदा हे एकतरफ खरीदार अधिक होंगे दूसरी तरफ पूंजी और सस्ती लेबर का उसे लाभ मिलेगा अपने चारो तरफ देख लीजिये की जो ऊपर कहा सेम वही हो रहा हे यानि और शोषणकारी वयवस्था के बेनिफिशरी या फिर उनके एजेंट ही लड़कियों को दबाकर रखने उन्हें हमारी तरह इंसान नहीं बल्कि” इज़्ज़त ” मानने की पैरवी करते हे या नहीं ——– ? अब इसी तरह बात आगे देखे तो जैसा की अंकित के केस में हुआ की लड़किया फिर भी नहीं दबती खतरे उठाकर भी वो घर से बाहर निकलती हे अपनी जिंदगी जीती हे प्रेम करती हे प्रेम विवाह करती हे तो इससे फिर शोषणकारी तत्वों का गुस्सा बढ़ता हे प्रेम से इन्हे सख्त चिढ हे कारण की प्रेम इंसान को उदार बना देते हे और फिर वो जाती धर्म के ठेकेदारों की जकड़बन्दियों में नहीं पड़ता हे उसे ये सब बेमानी लगने लगता हे प्रेम में पड़ा इंसान सॉफ्ट हो जाता हे वो औरो से भी प्रेम करने लग सकता हे इस सोच से शोषणकारी तत्वों के ही एजेंट धर्म और जाती आदि के लोकल ठेकेदार राजनीतिबाज़ चिढ उठते हे उन्हें इस सोच से अपनी सत्ता खिसकती हुई लगती हे फिर वो अपने लोगो को नीचे तक चार्ज करते हे और आख़िरकार जोड़ो के परेंट्स के कान में ये बात फूंक दी जाती हे की इस प्रेमविवाह से आपकी इज़्ज़त धूल में मिल गयी हे और फौरी भावनाव के उबाल में वो ऑनर कीलिंग जैसा अपराध करके अपना पूरा का पूरा परिवार तबाह कर लेते हे वो तो तबाह हो जाते हे मगर शोषक तत्व इस पर खुश होते हे की इन काण्ड के बाद दूसरे लड़के लड़कियों को भी सबक मिलेगा और उनकी सत्ता सुरक्षित रहेगी और पाठको सत्ता से कोई नहीं हटना चाहता हे अब ये देखना आम आदमी को हे वो लड़कियों को दबाकर डराकर उनकी खुशिया उनकी इंसान के रूप में डिग्निटी छीन कर अगर सोचता हे की वो अपनी इज़्ज़त की रक्षा कर रहा तो एकबात ठन्डे मन से सोच ले की असल में तो ये सब आपकी इज़्ज़त आपकी डिग्निटी पर सबसे बड़ा हमला हे लड़कियों को दबाकर रखने की सीख देने वाले लोग असल में उस वयवस्था से जुड़े हे डायरेक्ट या इनडायरेक्ट वो लोग जो असल में आपको गुलाम बनाकर रखे हुए और रखना चाहते हे इस गुलामी से छुटकारा चाहिए तो पहला काम कीजिये लड़कियों को बराबर इंसान मानिये नार्मल रहिये ये रवैया क्रांति होगा फिर देखिये धीरे धीरे इससे ही आपको एक गुलामी से छुटकारा मिलेगा ——————————जारि
जैसा की ऊपर कमेंट में विस्तार से बताया कहे की आखिर ये लोग ऐसा क्यों चाहते हे वजह हे लोगो से आबादी बड़वाकर उन्हें शोषित रखना
Sheetal P Singh
3 hrs · Lucknow ·
भारतीय लकड़बग्घा पार्टी के एक विधायक जी कै रये हैं कि लड़कियों को आठ दस साल की होते होते शादी करके जीवन भर की क़ैद दे देनी चाहिये क्योंकि बड़ी होते ही वे भाग जाती हैं !————————–
लड़कियों को नार्मल इंसान ना मानने और उन्हें अपनी इज़्ज़त मानने और उनकी आज़ादी से जुडी किसी भी गतिविधि को अपनी इज़्ज़त जाने की भी मानसिकता से पीक पर अंजाम जा सकता हे ऑनर किलिंग फिर जेल कुर्की बर्बादी से भी पीक – फिर वो हे कन्या भूर्ण हत्या मुसलमानो में खेर महिला आज़ादी का मसला गंभीर हे लेकिन इस बात के लिए बधाई की मुसलमानो में ये बुराई नहीं हे अगर में गलत नहीं हु तो इसका सर्टिफिकेट घोर मुस्लिम विरोधी साध्वी ऋतम्भरा ने ही दिया था ऐसी खबर पढ़ी थी खेर यानी इसकी पीक जाती हे कन्या भूर्ण हत्या की लड़की ना हो घर में ना लड़की होगी न उसकी आज़ाद गतिविधियों की या किसी तथाकथित ऊंच नीच की चिंता होगी कन्या भूर्ण को मारो और बेफिक्र हो जाओ मगर समय सबकी —— हे जिन समाजो ने ये किया अभी दस पंद्रह साल पहले ही तो हम पढ़ते थे की कन्या भूर्ण हत्या हो रही हे और उसके नतीजे सामने आ भीगए सबसे अधिक ऑनर किलिंग और कन्या भूर्ण हत्या वाले समाज में कई जगह अब लड़किया नहीं मिलती लोग कुंवारे हे और कही कही से लड़किया लाते और अपनी सनस्क्रति खत्म होते देख रहे हे बहुत ही भयावह दर्शय इस समाज के कुछ लड़को के सोशल मिडिया पर देख कर में हिल गया अजीब सा जीवन , वो ढेर सारे फोटो लगाते हे मगर कोई महिला नहीं दिखती हे ( तालिबान में बुर्के तो दीखते हे कम से कम यहाँ तो गायब ) बहुत ढूंढने पर एक महिला का फोटो दिखाई देता हे वो हे उनकी माँ जो उनके लिए स्वाद चुल्ल्हे की रोटियां बना रही होती हे अभी कम उम्र हे इस्थिति की गंभीरता का पूरा अंदाज़ा नहीं हे तो तो ढेर सारे लोंडो के साथ फोटो लगाते हे की वो सहर के छोरो की तरह लोंडियो के पीछे नहीं भागते बल्कि ”यारा नाल बहारा ” यारो के यार यारो के साथ बहुत खुश हे —— ? वगैरह वगैरह उफ़ बहुत ही अजीब तो कहने का आशय ये हे की लड़कियों को बराबर का इंसान नहीं समझा तो बहुत ही भयानक नतीजा भी हो सकता हे बहुत डरावना
( शादियों में दहेज़ का दबाव अभी कम हुआ हे पर खर्चो का दबाव बहुत बढ़ा हे -शेष नारायण सिंह )——————————————————————–
हमारे यहाँ तो दहेज़ कोई मसला नहीं रहा हम ना देते ना मांगते कोई मुद्दा नहीं मगर फिर भी तबाही बहुत हुई हम आज करोड़पति होते वो भी शुद्ध अपने बुते पर किसी का कैसा भी सपोर्ट नहीं शुद्ध मेहनत शुद्ध संघर्ष और शुद्ध रचनातमकता के दम पर होते और अच्छे इंसान भी हे ही सो हम जेसो की कामयाबी से हम समाज का भला करते बहुत करते मगर सब कुछ बर्बाद हो गया मेरा नेल्सन मंडेला जैसा संघर्ष बेकार सा जा रहा हे और इसकी सबसे बड़ी वजह हे शादियों का दबाव इस दबाव से दो दो बहुत मेहनती पिता और भाई की मौत हो चुकी हे सत्यानाश हो सड़ी गली सामाजिक मान्यता का हमें इन शादियों शादियों का दबाव तथाकथित समय पर शादियों की हायतौबा शादियों के ख़र्चे चर्चे फिर इन शादियों को ढोते चलाते रहने के दबाव शादियों से जुडी बकवास से हमे आज़ादी चाहिए गौर करे तो शोषणकारी वर्ग और उसके लग्गू भग्गू ही लोगो पर शादियों और बच्चो का दबाव डालते हे ताकि लोग इनके गुलाम बने रहे ——————————————————————————————————————————————————————————————————————————-Shesh Narain SinghYesterday at 14:36 · महिला दिवस पर मेरी इच्छा है कि मेरे गाँव की लड़कियों को भी कम से कम अपनी शिक्षा के अनुसार काम करने और अपनी पसंद की शादी करने का अधिकार मिले.महिला दिवस के दिन अच्छे भविष्य का संकल्प लेने की ज़रूरत सबसे ज्यादा गाँव में होती है . मेरे बचपन में मेरे गाँव में महिलाओं की इज्ज़त कोई नहीं करता था. लड़कियों को बोझ माना जाता था. उनके जन्म के बाद से ही उनकी शादी की बातें शुरू हो जाती थीं. चौदह पंद्रह साल की होते होते शादी हो जाती थी. मेरे गाँव की ज़्यादातर लड़कियों की शादी सरुवार में होती थी. माना जाता था कि अयोध्या में जब स्टीमर से सरजू पार करके लकड़मंडी पंहुचते थे तो सरुवार का इलाका शुरू हो जाता है . अब तो सरजू नदी पर पुल बन गया है . लकड़मंडी से गोंडा और बस्ती की सवारी मिलती थी. वहीं हमारे गाँव की लडकियां ब्याही जाती थीं. लेकिन जब से मैंने होश सम्भाला सरुवार में शादी ब्याह लगभग ख़त्म हो गया है . अब फैजाबाद, प्रतापगढ़ और रायबरेली में लडकियां ब्याही जाती हैं. उतनी दूर अब कोई भी लडकियां भेजने को तैयार नहीं है .
शादी के तीन साल के अन्दर गौना किया जाता था.गौने में जाती हुयी लडकियां जितना रोती थीं ,उसको सुनकर दिल दहल जाता था. मुझे याद है कि जब मैंने अपनी माई से पूछा कि लडकियां रोती क्यों हैं तो उन्होंने बताया कि अपने माता पिता ,भाई-बहन, सही सहेलर को छोड़ने का दुख बहुत बड़ा होता है . लडकी किसी की विदा हो रही हो पूरे गाँव की औरतें रोती थीं. उनको अपनी बेटी की विदाई याद आती रहती थी . अपनी खुद की विदाई याद आती थी. माहौल में पूरा कोहराम होता था. रोते बिलखते लडकी चली जाती थी . ससुराल से लौटकर आई लड़कियां जब वहां की कठिन ज़िंदगी की बात अपनी मां को बताती थीं तो बहुत तकलीफ होती थी लेकिन गाँव वालों को अच्छी ससुराल की कहानी बताई जाती थी.
ग़रीबी के तरह तरह के आयाम का अनुभव मुझे उन्हीं लड़कियों की शादी और उसकी तैयारी में देखने को मिला . दहेज़ का आतंक अब जैसा तो नहीं था लेकिन जो भी अतिरिक्त खर्च शादी में किया जाता था , गिरस्त पर भारी पड़ता था. उसी गरीबी में अंदर छुपी खुशियों को तलाशने की जो कोशिश की जाती थी , उन दिनों मुझे वह सामान्य लगती थी . अब लगता है कि अशिक्षा के आतंक के चलते लोगों को मालूम ही नहीं चलता था कि वे घोर गरीबी में जी रहे हैं .
जिन लोगों के घर की लडकियां थोडा बहुत पढ़ लेती थीं, उनकी हालत बदल जाती थी. मसलन मेरी क्लास में पढने वाली लड़कियों ने जब मिडिल पास कर लिया तो उनको सरकारी कन्या पाठशाला में नौकरी मिल गयी और उनका दलिद्दर भाग गया . आस पड़ोस की गाँवों में लड़कियों में पढने का रिवाज़ था .नरिन्दापुर और बूधापुर की लडकियां प्राइमरी तो पास कर ही लेती थीं. इन गाँवों में पुरुष शिक्षित थे सरकारी काम करते थे लेकिन बाकी गाँवों की हालत बहुत ख़राब थी.
सोचता हूँ कि अगर उस वक़्त के मुकामी नेताओं ने महात्मा गांधी की तरह लड़कियों की शिक्षा की बात की होती तो हालात इतने न बिगड़ते . आज भी हालात बहुत सुधरे नहीं हैं . अपने उद्यम से ही लोग लड़कियों को पढ़ा लिखा रहे हैं लेकिन उद्देश्य सब का शादी करके बेटी को हांक देना ही रहता है . जब तक यह नहीं बदलता मेरे जैसे गाँवों में महिला दिवस की जानकारी भी नहीं पंहुचेगी .
इसी माहौल में मेरी माई ने एड़ी चोटी का जोर लगाकर अपनी बेटियों को पढ़ाने की कोशिश की थी. नहीं कर पाईं. लेकिन अपने चारों बच्चों के दिमाग में शिक्षा के महत्व को भर दिया था . नतीजा यह है कि उनकी सभी लड़कियों ने उच्च शिक्षा पाई और सब अपनी अपनी लडाइयां लड़ रही हैं . आज महिला दिवस पर मेरी इच्छा है कि मेरे गाँव की लड़कियों को भी कम से कम अपनी शिक्षा के अनुसार काम करने और अपनी पसंद की शादी करने का अधिकार मिले. फिर उनकी नहीं तो उनकी लड़कियों की जिंदगियां बाकी दुनिया की महिलाओं जैसी हो जायेगी .
Sanjeev Chandan
9 February at 13:19 ·
ये हिन्दू स्त्रियाँ जबतक सवर्ण मिथकों से नहीं निकलेंगी तबतक वे कोई स्त्रीवादी दृश्य नहीं रच सकतीं:
आज मैं इंडियन एक्सप्रेस में मृणाल पांडेय का महिलाओं की हंसी वाला लेख पढ़कर सोच रहा हूँ कि क्यों हिंदी पट्टी की सवर्ण स्त्रीवादी महिलाये हँसब, ठेठायब, फुलायब गालू वाले अंदाज में स्त्री विमर्श करना चाहती हैं। उन्हें कुछ दिनों पहले ही ‘बलात्कार होते रहते हैं’ जैसे महान उद्गार व्यक्त करने वाली रेणुका चौधरी की हंसी दुर्गा की हंसी सा दिखती है, महिषासुर के वध के पूर्व। यानी बलात्कार के प्रति अभ्यस्त भाव वाली दुर्गा रेणुका हैं और महिषासुर नरेंद्र मोदी। ऐसे ही और बिम्ब हैं मृणाल पांडेय के लेख में।
यह स्त्रीवाद अनजाने ही बड़बोले प्रधानमंत्री को उनकी जाति के हिसाब से भी ब्राह्मणेतर समुदाय से जोड़ देता है, जबकि उनकी ही पार्टी की मंत्री संसद में दुर्गा के अपमान पर बवाल काट चुकी हैं।
सवाल है कि क्यों मोदी जी और उनके समर्थक तथा उनके विरोधियों के सवर्ण-मन का चित्त एक ही भाव भूमि पर निर्मित है। जब वे रेणुका जी की हंसी को धारावाहिक रामायण से जोड़ रहे थे तो उनका तात्पर्य निश्चित तौर पर रामायण के खल-चरित्रों की हंसी से था-रावण की हंसी हो या मेघनाद की या ताड़का या शूर्पनखा की।
उनके विरोधियों ने उस हंसी को शूर्पनखा से जोड़ दिया। क्यों? क्योंकि रेणुका स्त्री हैं। निश्चित तौर पर पितृसत्ता स्त्रियों की हंसी, उनके ठहाके, पैर फैलाकर बैठना, उनका स्वतन्त्र घूमना, स्वतन्त्र निर्णय बर्दाश्त नहीं करती है। लेकिन क्या पितृसत्ता के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए हम उन मिथकों को हथियार बना सकते हैं, जिन्हें ब्राह्मणवादी पितृसत्ता ने दो उत्पीड़ित अस्मिताओं को लड़ाने के लिए खड़ा किया है।
वह तो भला हो उन महिलाओं का जो शूर्पनखा- हंसी के नाम से अपने ठहाके वाली तस्वीरें लगा रही हैं। मृदु-स्मित हासिनी, गजगामिनी आदि नियंत्रित भूमिकओं को चुनौती ही नहीं दे रही हैं, वरन शूर्पनखा से खुद को जोड़ भी रही हैं। यह अच्छा है। हालांकि बलात्कार को आम घटना मानने वाली रेणुका को शूर्पनखा से नहीं जोड़ा जा सकता। शूर्पनखा बलात्कार विरोधी संस्कृति की नायिका हैं। वह प्रेम की प्रतीक है। वह राम से प्रेम निवेदन करने गयी थी, उसे प्रेम निवेदन का दण्ड मिला। अन्यथा उसे क्या पता था कि एक पीढ़ी पहले ही जिस समाज में तीन बीबियों की प्रथा थी- दशरथ या दो बीबियों की-जनक, वहां एक पीढ़ी बाद ही राम एक पत्नी व्रत ले चुका है।
अनजाने ही सही शूर्पनखा यदि स्वतन्त्र स्त्री चेतना का प्रतीक बनती है तो वह ब्राह्मण मिथों की आदर्श देवियों से बेहतर होगी। वह अपने अपमान का बदला लेना जानती है, प्रतीकार जानती है, कथित आदर्श देवियों की तरह बलात्कार के बाद चुप्पी के बदले बुद्धिमानी के देवत्व- सरस्वती का दर्जा नहीं लेती।
Shweta Jha
22 hrs ·
” मैंने संदेश दे दिया है कि हमारी बेटी को भी प्यार करने का हक है और हमारी बहन को भी प्यार करने का अधिकार है !”
ये बात किसी संत वैलेंटाइन ने नही कही है ना ही किसी आम जन मानस ने कही! ये तो कहा वी.एच.पी प्रमुख प्रवीण तोगड़िया जी ने,जिनका पहले काम होता था! प्रेम में जहर घोलना,प्रेमी-जोड़ो को खदेड़ना,उन्हें पीटना,धमकाना और अब अचानक ही ह्रदय परिवर्तन? क्यों ?
क्या मौत का खौफ़ व्यक्ति को इस हद तक बदल देता है या उसे सही रास्ता दिखा देता है! तो इसका मतलब सत्ता में बैठे लोगों को मौत का खौफ़ नही,उन्हें लगता है वो सबको मौत का खौफ़ दिखा के हमेशा जिंदा रहने वाले है!
मौत से पहले मौत का खौफ़ इंसान को मार देता है या उसे पहले से ज्यादा जिंदा रहने की हिम्मत दे देता है,बस चुनाव हमारा है !
(तोगड़िया जी का संदेश जैसा की उन्होंने कहा ,लिंक कमेंट बॉक्स में )Shweta Jha
21 hrs ·
ये तस्वीर यू.पी की है और ये अकेली नही है! आज मैने कम से कम 10 ऐसे ही विडियो देखे,जिसमें दस लोगों का झुण्ड किसी रेस्तरां,पार्क,राह में चलते लोगों को घेर कर सीधे थप्पड़ मारने लगता है या उठक-बैठक करवा रहा है !
मै उन विडियो को शेयर नही करना चाहती थी क्यूंकि उन सब में लडकियों का चेहरा दिख रहा है जो जबरदस्ती बनाया जा रहा है और सरेआम बेज्जत करने जैसा है!
अब आते है इन संस्कृति के राक्षसों पे(संस्कृति माय फुट) ये लड़को को थप्पड़ मारते है,लड़की को जबरदस्ती पीछे से पकड़ते है उसे किस करते है उसकी छाती दबाते है और दोनों से कहते है सॉरी बोल!
तो ये हो रहा है आपके हमारे पुरे देश में आपको यही चाहिए था!
मुझे लगता है ये बात पूरी दुनिया में पता लगनी चाहिए! वो जो आपका वास्कोडिगामा मोदी जी है उन्हें स्वयं को पहुँचानी चाहिए,जो पूरी दुनिया के चक्कर लगा रहे है कि देखो इस देश की कैसी सरकारे है–जो अपना योग आप पर जबरदस्ती थोप रही है अपने होली,दिवाली जैसे धर्मिक त्योहारे पुरे दुनिया में लेके घूम रहे है!
लेकिन जो प्राकृतिक है प्रेम! जो एक स्पेशल इज़हार डे’ के रूप में आपके यहाँ से किसी नाम के रूप में आया है उसे भारत में लोग कैसे ट्रीट करते है!
इन बलात्कारियों की आदत नही प्रेम करना,ऋषि मुनियों से लेकर ताज़ा जाट आन्दोलन तक,जिसके सारे केस वापस लिए जा रहे है ! यहाँ तो आन्दोलनों में भी बलात्कार होते है ऐसे में प्रेम जैसी चीज़ इस संस्कृति को नही पचती!
कल को ये रैली निकालेंगे और इन के साथ कोई हादसा हो गया तो इनकी माएं इनके लिए शहीद का दर्ज़ा मांगेंगी,50 लाख मांगेगी…पर अभी नही रोकेगी कि बेटे लड़की का रेप मत कर,तेरे घर में भी बहन है और मैं भी तेरी माँ हूँ !Shweta Jha
13 February at 18:16 ·
वैसे तो माँ जानती है कि व्रत-पूजा इन सब से एक हाथ की दूरी बना कर रखती हूँ!
बेशक मंदिर,मस्जिद,चर्च,गुरुद्वारे इन सब जगह घुमने में मुझे परहेज़ नहीं क्योंकि घूमना मेरा शौक है तो सब जगह घूम लिया जाता है!
खुद को नास्तिक सिद्ध करने के चक्कर में,वो चीज़े भी न रह जाये जो प्राकृतिक तौर से अद्भुत हो और लोगों के डर ने वहां उनके ईश्वर की जगह बना दी!
क्योंकि मेरे मन-मस्तिस्क ने हमेशा से अपने सारे काम इमानदारी से किए है और वो जानता है तर्क-वितर्क से लेकर सही और गलत का फर्क!
वैसे भी इस देश में चार घर पर सबके अपने-अपने पांच पूजा स्थल है!
घर में तो रखते ही है उसके बावजूद भी,पेड़ के पीछे,दीवार के पीछे,खेतो के बीच में हर जगह उनका भगवान/ईश्वर अपना एक स्थान चुनवा ही लेता है!
हाँ,देश की अच्छी खासी आबादी बेघर जरुर है! शौचालय बन चुके है,ईश्वर करे २०२२ तक इनके घर भी बन जायें!
वैसे तो वादा नेता जी ने किया है पर नेता जी की सारी राजनीति का केंद्र ईश्वर ही है तो क्यों न डायरेक्ट उन्हीं से बोला जायें!
ख़ैर माँ कहती है कम से कम इस बार तो शिवरात्री का व्रत कर लेना!
मैंने हमेशा की ही तरह क्यों? नही पूछा और मना कर दिया कि मुझे नही करना!
मैंने कहाँ क्यों करू व्रत? अच्छे दुल्हे के लिए?
माँ ने कह हां !
मुझे तो खा-पीकर भी अच्छा लड़का मिल ही जाएगा !
व्रत तो उन लड़को को करने चाहिए,वो भी 16 सोमवार के ताकि मुझ जैसी सुंदर,सुशील,तेज़,विद्वान् टाइप की लड़की मिले!
ये कह कर मैंने माँ को हंसा तो दिया और माँ ने भी ये कह के बात खत्म कर दी कि तेरा तो पेट ही पहाड़ है!
वैसे भी वो जानती हैं,ये करने वाली नही है!
पर आज का सच तो यही है कि जो बिना किसी आँकरो के ही बताया जा सकता है!
वो है इस समाज में स्त्रियों का क्या हाल!
जहाँ पैदा होते ही कभी नालीयों में फेंक दी जा रही है तो कभी किसी कचरे के डब्बे में,कभी थैली में कोई कुत्ता उसे नोच के खा रहा होता है तो कभी आदमी कुत्ता बनके उसे खा जाता है!
आठ महीने की बच्ची का बलात्कार करते है कभी आठ साल तक एक ही कमरे में बंद करके नोचते है,कभी बीवी बना के नोचते है कभी बहन के रिश्ते को भी शर्मिंदा कर देते है और कभी तो भी गर्भ में ही साँसे बंद कर दी जाती है!
उसके बाद भी जो बची रहती है ये समाज उन्हें सिखाता है उन्हें पाने के उनके लिए व्रत,पूजा जैसे ढोंग करे!
जबकि ये व्रत ढोंग आपको करने की जरूरत है क्योंकि वो वक्त आ गया है जब आपके लिए कोई स्त्री ही नही रहेगी,आपके लड़को वाला वंश बढाने को,इतनी ही अहमियत दी हुई है आपने स्त्रियों को !
ऐसे में क्या इस समाज के दोहरे लोगों को ये कभी महसूस नही होता है कि वो एक साथ संथारा कर ले? व्रत का व्रत हो जाएगा और आपका प्रायश्चित भी जो आप इस समाज की स्त्रियों के साथ कर रहे है!
न्arendra Nath
10 hrs ·
शुरू से कह रहा था डरें अतिवाद से। जो डर था,वही हो रहा है।
नीचे तस्वीर देखये। जम्मू में एक हैवान ने 8 साल की बच्ची के साथ रेप और मर्डर किया।
पकड़ में आने पर उसके गांव वाले उसके सपोर्ट में आ गए छुड़वाने। हिन्दू एकता मंच के बैनर तले तिरंगा के साथ रेपिस्ट को भारत माता की जय के नारे के उद्घोष में छुड़ाने निकल पड़े। मानो तिरंगा हर अपराध को ढंकने का हथियार बन गया हो।
राष्ट्र्रवाद पर टची होने से यही होता है।कल जाकर सारे क्रिमिनल पॉकेट में छोटी तिरंगा और भारत माता की जय की पुर्जी रख सकते हैं।अगर पकड़ा गए तो इसे दिखा राहत मिल जाएगी। उन्हें पकड़ने वाले को हो देशद्रोही घोषित किया जा सकता है।नरुका जितेन्द्र updated his cover photo.
14 February at 21:51 ·
बेटा जब मातृ पितृ दिवस मे विश्वास रखे तो हम डेट पर कैसे जाएं ?
See Translationनरुका जितेन्द्र
15 February at 10:13 · नरुका जितेन्द्र
13 February at 15:31 ·
इंबोक्सिया प्रेम ही दुनिया का सबसे पवित्र प्रेम है जिसमे देह की कोई चाहत नहीं, फोटो पर ही लट्टू रहते ?
दिप्ती सलगांवकर धीरू अम्बानी की बेटी है और उनकी बेटी इशिता से निशाल मोदी की शादी हुई है जो 11000 करोड़ PNB घोटाले के मुख्य आरोपी नीरव मोदी के भाई हैं और सहआरोपी भी। अब मीडिया की क्या हिम्मत की इसे बड़ी न्यूज बनाये और मोदी ने तो चुनाव जीतते ही अम्बानी के प्रति कृतज्ञता जाहिर की सम्बोधन मे। नोटबन्दी, 4 साल में 4 गुना NPA, FRDI बिल प्रस्ताव और अब खुल्लमखुल्ला लूट!! बैंकिंग व्यवस्था इतनी अविश्वनीय कभी नही रही।नरुका जितेन्द्र
15 February at 21:39 ·
घोर पूंजीवादी भाजापा और मोदी से ईमानदारी की उम्मीद रखने वाले उनसे भी बड़े कूपमण्डूक हैं जो उम्मीद करते हैं की भाजपा सीमा पर शांति ला देगी!! पाकिस्तान को सबक सिखा देगी। सीमा पर कई गुना हमले, कश्मीर में अशांति और दोगुने से ज्यादा सैनिक सिर्फ 45 महीने मे खो देना स्प्ष्ट करता है कि इनके शासन काल मे पाकिस्तान फिर सिर चढ़कर बोल रहा है क्योंकि पाकिस्तान में तो 70 के दसक से ही लगातार भाजपा जैसी नफरत की राजनीति चरम पर है, बर्बाद कर चुकी है पाकिस्तान को।
खैर मोदी जी और भाजपा से ईमानदारी की उम्मीद कितनी बड़ी बेवकूफी इसपर नजर डालते हैं।
ADR के ताजा आंकड़ो के अनुसार 2017 में Goa, Manipur, Punjab, Uttarakhand, Uttar Pradesh के पांच राज्यों के चुनाव मे 5 राष्ट्रीय और 16 क्षेत्रीय पार्टियों को कुल चंदा 1,500 करोड़ मिला जबकि चुनावों में खर्च 494 दिखाया गया है।
खैर असली बात पर नजर मारिये 5 राष्ट्रीय पार्टियों को कुल चंदा मिला 1,314.29 करोड़ जिसमे अकेली भाजपा को 1,214.46 करोड़ चंदा मिला है जो कुल चंदे का 92.4 प्रतिशत है!!
ये सिर्फ 5 राज्यों के चुनावों के 1 साल के आंकड़े हैं।
2013 से 2016 तक अकेली भाजपा को 87% कॉरपोरेट चंदा मिला है!!
अब अंधा भी समझ सकता है कि क्यों मीडिया सिर्फ मोदी/भाजपा के गुण गाता है।
क्यों अम्बानी की सम्पति डेढ़ गुना, अडानी की 4 गुना, मुख्य घरानों की 31% बढ़ गयी और पिछले साल सिर्फ 1% लोग 73% पूंजी पर कब्जा कर गए।
हजारों करोड़ के चमकिले चुनाव और रोक स्टार से मोदी के रोड शो विदेशों तक मे के बाद अगर कोई उम्मीद करते हैं की ये सरकार जनहित करेगी तो उल्लू कहना उल्लू की बेइज्जती होगी।
यों ही माल्या नीरव मोदी जनता का पैसा लूटेंगे, सिर्फ 4 साल में NPA 4 गुना हो गया है!! बैंकों को कंगाल किया जाएगा जिनमे जनता के पैसे हैं। जनता घण्टा बजाए हिन्दू मुस्लिम गाय गोबर राम मंदिर का…न.रुकाee original ·
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15 February 2017 ·
आखिर ये हिन्दू मुस्लिम आया कहाँ से!!
हल्दी घाटी युद्ध में महाराणा प्रताप का सेना पति हाकिम खान सूर अफगानी पठान था। अकबर के सेनापति तो राजा मान सिंह सब जानते हैं।
गौरी के आक्रमण का प्रमुख कारण ये भी था कि पृथ्वी राज ने गौरी के प्रतिद्वन्दी मीर हुसैन को सौंपने से इंकार कर दिया जिसे पृथ्वी राज ने शरण दे रखी थी।
रणथम्भोर का युद्ध हमीर देव चौहान और खिलजी में इसलिये हुआ की हमीर देव ने अपनी शरण में खिलजी के बागी सेनापति मोहम्मद शाह को सुपर्द करने से इंकार कर दिया।
इस घटना पर गौर कीजिए
मेड़ता के हिन्दू शासक जयमल की जोधपुर के हिन्दू शासक मालदेव से दुश्मनी थी और ताकतवर मालदेव ने जयमल से मेड़ता छीन लिया जो अकबर ने सैफुद्दीन के नेतृत्व में सेना भेज जयमल को वापस मेड़ता दिलवाया। सैफुद्दीन से जयमल के सम्बन्ध हो गए और ये ही चित्तौड़ पर हमले का कारण बना जब सैफुद्दीन अकबर का बागी हो गया और जयमल ने उसे अकबर के सुपुर्द नही किया तो अकबर ने मेड़ता पर आक्रमण कर दिया और जयमल को चितौड़ के शासक उदय सिंह द्वारा शरण देने पर चितौड़ पर हमला कर दिया। सैफुद्दीन को सुरक्षित मेड़ता पहुंचाने की कौशिश में जयमल के पुत्र सार्दुल सिंह की जान गई।
शिवाजी सारी जिंदगी मुगलों से लड़ते रहे पर बेमिशाल उदाहरण मिलता है शिवाजी के सेनापति ने एक मुगल हाकिम पर हमला कर शिवाजी के समक्ष उस हाकिम की खूबसूरत बेटी को तोहफे के रूप में प्रस्तूत किया तो शिवाजी इस कदर चिढ़े की तुमने मुझे शर्मसार कर दिया और उस युवती को बेटी संबोधित करते तोहफों सहित मुगल हाकिम के पास पहुँचाया और माफ़ी मांगी। वो युद्ध के दौरान किसी मस्जिद को नुकसान ना पहुंचे निर्देश देते थे।
इतिहास से स्प्ष्ट है चाहे साम्राज्य बढाने झगड़े संघर्ष मुगल हिन्दू शासकों के बीच खूब चले पर उसमे साम्प्रदायिक नफरत बिलकुल नही थी और जनता के बीच तो एक उदाहरण नहीं जब हिन्दू मुस्लिम फसाद हुए हों।
फिर आखिर ये हिन्दू मुस्लिम आया कहाँ से!!
अंग्रेजो की फुट डालो राज करो नीति से उनके द्वारा फ़ंडिंग से मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा व संघ का उदय हुआ जिन्ना और इन हिन्दू संगठनों के कथित पूज्य नेताओं ने भारत के बंटवारे की नींव रखी, लाखों जाने बटवारे से पहले व बाद में गयी इस नफरत की खेती से।
और अब तो राजनीति निम्नतर स्तर पर है शिवाजी जैसे लोगों का नाम ले कर हिन्दू राष्ट्र का शिवाजी का सपना परोसते हैं। महाराणा प्रताप को हिंदूवादी एंगल देकर नफरत परोसते हैं।
आप समझ सकते हैं इस देश के असली गद्दार कौन हैं!! पाकिस्तान को तो इस नफरती साम्प्रदायिक सोच ने बर्बाद कर दिया हो सके तो अपने भारत को बचालो इन गद्दारों से क्योंकि अब अंग्रेज़ों से भी धूर्त अमेरिका का इनके सिर पर हाथ है.. न. रूका———————————————ujeet Kumar Singh is with जितेन्द्र विसारिया and 3 others.
18 hrs · Allahabad ·
यह राधादेवी हैं। साकिन ग्राम-धर्मपुर, पोस्ट-दौलताबाद जिला आज़मगढ़ (उ.प्र.)। हिंदी के मूर्धन्य लेखक ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ जैसी प्रसिद्ध आत्मकथाओं के रचनाकार, प्रोफेसर डॉ. तुलसीराम जी की पहली पत्नी। प्रोफ़ेसर तुलसीरामजी से इनका बाल विवाह 2 साल की उम्र में हो गया था। 10-12 साल की उम्र में जब कुछ समझ आई तो इनका गौना हुआ। उस समय तक तुलसीराम जी मिडिल पास कर चुके थे। घर में विवाद हुआ कि तुलसी पढ़ाई छोड़ हल की मूठ थामें। पढ़ने में होशियार तुलसीराम को यह नागवार गुजरा और उन्होंने इस सम्बंध में अपनी नई-नवेली पत्नी राधादेवी से गुहार लगाई कि वह अपने पिता से मदद दिलायें, जिससे उनकी आगे की पढ़ाई पूरी हो सकें। राधादेवी ने अपने नैहर जाकर यह बात अपने पिता से कही और अपने पिता से तुलसीरामजी को सौ रुपये दिलवाए। इस प्रकार पत्नी के सहयोग से निर्धन और असहाय तुलसीराम की आगे की पढ़ाई चल निकली।
…पति आगे चलकर अपने पैरों पर खड़ा हो जाएगा, उन्हें सुख-साध देगा युवा राधादेवी ने अपने सारे खाँची भर गहने भी उतारकर तुलसीराम को दे दिए, जिनसे आगे चलकर तुलसीरामजी का बनारस विश्वविद्यालय में एडमिशन हो गया। पिता और 5 भाइयों की दुलारी राधादेवी के पति का भविष्य उज्ज्वल हो, इस हेतु राधादेवीजी के मायके से प्रत्येक माह नियमित राशन-पानी भी तुलसीरामजी के लिए भेजा जाने लगा। ससुराल में सास-ससुर देवर-जेठ और ननद-जेठानियों की भली-बुरी सुनती सहती अशक्षित और भोली राधादेवी, संघर्षों के बीच पति की पढ़ाई के साथ-साथ अपने भविष्य के भी सुंदर सपने बुनने लगीं थीं।
उधर शहर और अभिजात्य वर्ग की संगत में आये पति का मन धीरे-धीरे राधादेवी से हटने लगा। गरीबी में गरीबों के सहारे पढ़-लिखकर आगे बढ़ने वाले तुलसीराम को अब अपना घर और पत्नी सब ज़ाहिल नज़र आने लगे। शहर की हवा खाये तुलसीराम का मन अंततः राधादेवीजी से हट गया। बीएचयू के बाद उच्चशिक्षा हेतु तुलसीरामजी ने जेएनयू दिल्ली की राह पकड़ ली, जहाँ वह देश की उस ख्यातिलब्ध यूनिवर्सिटी में पढ़ाई और शोध उपरांत, प्रोफ़ेसर बने और समृद्धि के शिखर तक जा पहुँचे। प्रोफ़ेसर बनने के उपरांत तुलसीरामजी ने राधादेवी को बिना तलाक दिए अपने से उच्चजाति की शिक्षित युवती से विवाह कर लिया और फिर मुड़कर कभी अपने गाँव और राधादेवी की ओर देखा!!!
राधादेवी आज भी उसी राह पर खड़ी हैं, जिस राह पर प्रोफ़ेसर तुलसीराम उन्हें छोड़कर गए थे। जिस व्यक्ति को अपना सर्वस्व लुटा दिया उसी ने छल किया, इस अविश्वास के चलते परिवार-समाज में पुनर्विवाह का प्रचलन होने पर भी राधादेवी ने दूसरा विवाह नहीं किया। भाई अत्यंत गरीब हैं। सास-ससुर रहे नहीं। देवर-जेठ उन्हें ससुराल में टिकने नहीं देते कि ज़मीन का एकाध पैतृक टुकड़ा जो तुलसीरामजी के हिस्से का है, बंटा न ले इसलिए वे उन्हें वहाँ से वे दुत्कार देते हैं।
…दो साल पहले जब तुलसीरामजी का निधन हुआ तो उनके देवर-जेठ अंतिम संस्कार में दिल्ली जाकर शामिल हुए, पर राधादेवी को उन्होंने भनक तक न लगने दी! बहुत बाद में उन्हें बताया गया तो वे अहवातिन से विधवा के रूप में आ गईं, उनके शोक में महीनों बीमार रहीं देह की खेह कर ली किसी ससुराली ने एक गिलास पानी तक न दिया!! बेघरबार राधादेवी आज ससुराल और मायके के बीच झूलतीं दाने-दाने को मोहताज़ हैं!!!
…यद्दपि तुलसीरामजी अब इस दुनिया में नहीं हैं। पर उनकी पेंशन और किताबों की रॉयल्टी पहला हक़ उनकी पहली पत्नी श्रीमती राधादेवीजी का ही बनता है, जबकि इसका पूरा-पूरा लाभ दिल्ली स्थित उनकी दूसरी पत्नी को मिल रहा है। राधदेवीजी की तबाही में प्रोफ़ेसर तुलसीराम जी के अतिरिक्त उनकी दूसरी पत्नी प्रभा चौधरी जी का कितना हाथ है? इस बात का उन्हें पहले से कितना पता था भी या नहीं यह मुझे ज्ञात नहीं, न मैं उन पर इस तरह के किसी लांछन लगाने के पक्ष में हूँ। बतौर हक़ या मानवीय आधार पर ही सही आधा अंश या कुछ राशि, गुज़ारा भत्ता के रूप में प्रभा चौधरी की ओर से राधादेवीजी को अवश्य पहुँचानी चाहिए, जिससे वे जीवन रहते परवश और भुखमरी की शिकार न हों!! दिल्ली स्थित बुद्धिजीवी साथी और प्रोफ़ेसर तुलसीरामजी की पुत्री कॉमरेड Angira को भी इस हेतु आगे बढ़कर पहल करनी चाहिए। …आदरणीय राधादेवी भयंकर गरीबी और भुखमरी की शिकार हैं!!!
#जस्टिसफोरराधादेवी
जितेन्द्र विसारिया
अजय ब्रह्म्ताझ निक इतिहास की सांप्रदायिक मंशाएंः ‘पद्मावत’
यह लेख जवरीमल्ल पारख ने लिखा है। ‘पद्मावत’ के प्रशंसक और आलोचक दोनों इसे पढें। यह लेख संजय लीली भंसाली की मंशा और मंतव्य को समझने में मदद करेगा।
samayantar ke March 2018 men prakashit aalekh
काल्पनिक इतिहास की सांप्रदायिक मंशाएंः ‘पद्मावत’
जवरीमल्ल पारख
संजय लीला भंसाली की फ़िल्म अपने बदले नाम ‘पद्मावत’ के साथ जनवरी के अंतिम सप्ताह में प्रदर्शित हो गयी। फ़िल्म को लेकर विवाद की शुरुआत उसके निर्माण के दौरान ही हो गयी थी। बिना देखे और उसके बारे में फैली अफवाहों के आधार पर फ़िल्म के विरुद्ध आंदोलन शुरू हुआ। इस खबर के आने के बाद कि फ़िल्म 1 दिसंबर 2017 को रिलीज होगी, यह आंदोलन और तेज हो गया। इसे भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार का सक्रिय समर्थन मिला। यह आरोप लगाया गया कि फ़िल्म में रानी पद्मावती का जिस ढंग से चित्रण किया गया है वह उनके ऐतिहासिक चरित्र के अनुरूप नहीं है। उन्हें सबके सामने नृत्य करते दिखाया गया है। एक स्वप्न दृश्य में अलाउद्दीन खिलजी और पद्मिनी को प्रेम करते दिखाया गया है। फ़िल्म में पद्मिनी के गौरवशाली चरित्र को लांछित किया गया है और इस तरह राजपूतों की आन, बान और शान को कलंकित किया गया है। करणी सेना ने मांग की कि फ़िल्म उन्हें दिखाई जाए और जब वह मंजूरी दे तब ही उसे प्रदर्शित किया जाए। कई राज्यांे के भाजपा मुख्यमंत्रियों ने घोषणा कर दी कि वे अपने राज्यों में फ़िल्म को रिलीज नहीं होने देंगे। यहां तक कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने पद्मिनी को राष्ट्रमाता घोषित कर दिया। आंदोलन इस हद तक उग्र होता गया कि भंसाली को जान से मारने और पद्मिनी की भूमिका निभाने वाली अभिनेत्री दीपिका पादुकोन की नाक काट लाने की खुले आम धमकियां दी गयीं। लगभग तीन महीने तक टीवी चैनलों पर फ़िल्म को लेकर बहस के नाम पर घमासान मचा रहा। सारे देश में सांप्रदायिक माहौल बनाया गया। स्पष्टतः फ़िल्म के विरोध के बहाने हिंदू ध्रुवीकरण की कोशिश की गयी ताकि गुजरात के चुनावों में और कुछ ही समय बाद होने वाले मध्यप्रदेश और राजस्थान राज्यों के चुनावों में लाभ उठाया जा सके।
ऐसा वातावरण बना दिया गया कि फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड (सेंसर बोर्ड) पर भी उसका दबाव दिखायी देने लगा। बोर्ड ने फ़िल्म में ऐसे परिवर्तन करने के लिए कहा जिससे राजपूती इतिहास से उसका संबंध दिखायी न दे। फ़िल्म के आरंभ में यह घोषणा जोड़ी गयी कि यह फ़िल्म मलिक मोहम्मद जायसी के महाकाव्य ‘पदमावत’ (1540 ई.) पर आधारित है और इसके ऐतिहासिक होने का कोई दावा फ़िल्म नहीं करती है। अलाउद्दीन खिलजी और पद्मिनी का स्वप्न दृश्य फ़िल्म में पहले से ही नहीं था, या बाद में हटाया गया, कहना इसलिए मुश्किल है क्योंकि प्रदर्शित फ़िल्म में ऐसा कोई दृश्य नहीं है। यहां तक कि फ़िल्म के किसी एक फ्रेम में भी पद्मिनी और अलाउद्दीन खिलजी एक साथ दिखायी नहीं देते। सेंसर बोर्ड द्वारा फ़िल्म के प्रदर्शन की अनुमति दिये जाने के बावजूद भाजपा शासित राज्यों ने फ़िल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाये रखी। इन स्थितियो में मजबूर होकर संजय लीला भंसाली को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा।
फ़िल्म पर विवाद के दौरान पद्मिनी की ऐतिहासिकता और अनैतिहासिकता को लेकर काफी कुछ लिखा गया। प्रतिबंध समर्थकों के अनुसार पद्मिनी एक ऐतिहासिक चरित्र है और अलाउद्दीन खिलजी के साथ युद्ध के दौरान पद्मिनी सहित राजपूत स्त्रियों ने अपने सम्मान की रक्षा के लिए जौहर किया था जबकि अधिकतर इतिहासकार पद्मिनी और जौहर दोनों को काल्पनिक मानते हैं। अलाउद्दीन खिलजी ने 1296 से 1316 ई. तक दिल्ली पर शासन किया था। उसने यह सत्ता अपने चाचा और श्वसुर जलालुद्दीन खिलजी की हत्या कर हासिल की थी। बीस साल के शासन काल में उसने लगातार अपने राज्य का विस्तार किया। चितौड़गढ़ पर उसने 1303 के आसपास हमला किया था। उस हमले का विवरण अमीर खुसरो ने फारसी में लिखे ग्रंथ ‘खजै़तुल फतह’ में किया है जो उस दौरान सुलतान के साथ थे। लेकिन उसमें पद्मिनी जैसी किसी रानी का कोई उल्लेख नहीं मिलता और न ही जौहर का।
अलाउद्दीन ने अपने शासन के दौरान कई ऐसे काम किये जिसने इतिहास में उसे एक खास मुकाम हासिल है। बावजूद इसके कि उसने हिंदुओं पर जजिया कर लगाया था लेकिन उसके शासन का आधार शरीयत नहीं था। वह ईश्वर में यकीन करता था लेकिन धार्मिक प्रवृत्ति का नहीं था। उसने अपने रिश्तेदारों और शासन से जुड़े अधिकारियों पर भी कई तरह के अंकुश लगाये। वह पहला ऐसा शासक था जिसने किसानों की पैदावार का उचित मूल्य निर्धारित करने का चलन आरंभ किया। व्यापारियो के लिए भी उसने चीजों की कीमतें तय कर दी थीं और तय कीमतों से ज्यादा वसूलने वालों के लिए कठोर सजा भी मुकर्रर कर दी थी। रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए भी उसने कड़े कानून बनाये थे। अपनी विशाल सेना के लिए उसने सस्ते दामों पर चीजें मुहैया कराईं। अपनी इसी सेना के बल पर उसने न सिर्फ मंगोलों के हमले को रोका वरन सभी दिशाओं में विजय भी हासिल की।
चितौड़ पर अलाउद्दीन की विजय की कथा में पद्मिनी का उल्लेख पहली बार ‘पदमावत’ में ही आता है जो अलाउद्दीन की मृत्यु के लगभग सवा दो सौ साल बाद लिखा गया था। इतिहासकार रजत दत्त के अनुसार इसी के बाद राजस्थान के चारण कवियों ने पद्मिनी का उल्लेख अपनी काव्य रचनाओं में किया है। हेमरतन की ‘गोरा बादल चैपाई’ (1589), नेनसी मोहता की ‘ख्यात’ (1660), ‘सिसोद वंशावली’ (1657) और ‘रावल रणजी री वात’ (1691) में पद्मिनी का उल्लेख मिलता है। लेकिन पद्मिनी को एक सूफी कवि की कल्पना और बाद में चारण कवियों द्वारा उसे दंतकथा में बदलने की कोशिश को ऐतिहासिक पात्र में बदलने का काम सबसे अविश्वसनीय इतिहासकार कर्नल जेम्स टाॅड ने किया जिन्होंने अपने ग्रंथ ‘एनल्स एंड एंटीक्विटीज आॅफ राजस्थान’ (1829) में पद्मिनी का ऐतिहासिक व्यक्ति के रूप में उल्लेख किया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने ग्रंथ ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ (1940) में वीरगाथा काल की रचनाओं पर विचार करते हुए कहा है कि इस काल के कवियों ने अपने ग्रंथों मे भले ही ऐतिहासिक चरित्रों की कथा कही हो लेकिन उन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों का सदैव अनुकरण नहीं किया। उनका मकसद अपने आश्रयदाता राजा की वीरता का गुणगान करना होता था और इसके लिए वे काल्पनिक प्रसंगों को भी समाविष्ट करते थे। इन काल्पनिक प्रसंगों में प्रेम कथा जरूर होती थी। उन्हीं के शब्दों में “जैसे योरप में वीरगाथाओं का प्रसंग ‘युद्ध और प्रेम’ रहा, वैसे ही यहां भी था। किसी राजा की कन्या के रूप का संवाद पाकर दलबल के साथ चढ़ाई करना और प्रतिपक्षियों को पराजित कर उस कन्या को हरकर लाना वीरों के गौरव और अभिमान का काम माना जाता था। …जहां राजनीतिक कारणों से भी युद्ध होता था वहां भी उन कारणों का उल्लेख न कर कोई रूपवती स्त्री ही कारण कल्पित करके रचना की जाती थी।” यह बात सिर्फ ‘पृथ्वीराज रासो’ और ‘हम्मीर रासो’ पर ही नहीं लागू होती, ‘पदमावत’ महाकाव्य पर भी लागू होती है जिसे एक सूफी कवि ने लिखा था।
पद्मिनी की ऐतिहासिकता को सिद्ध करना मुश्किल है लेकिन यह भी सही है कि ‘पदमावत’ काव्य और उसके बाद चारणों द्वारा रचे गये ग्रंथों, दंतकथाओं और लोकश्रुतियों ने इस काल्पनिक चरित्र को लोगों की स्मृतियों में एक जीवित और ऐतिहासिक चरित्र बना दिया। लोक में ऐसी कई दंतकथाएं प्रचलित होती रही हैं जो ऐतिहासिक तथ्यों से मेल नहीं खातीं। ऐतिहासिक पात्रों और प्रसंगों को लेकर रचे जाने वाले साहित्य में इतिहास के तथ्यों का यथावत उल्लेख नहीं होता और न होना आवश्यक है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रख्यात उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में बाणभट््ट और हर्षदेव को छोड़कर प्रायः सभी पात्र काल्पनिक हैं लेकिन इससे उनके उपन्यास का महत्त्व कम नहीं हो जाता। प्रसाद के नाटकों और वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यासों के बारे में भी यही सत्य है। इसलिए ऐतिहासिक घटनाओं और पात्रों को लेकर लिखे गये साहित्य या उन पर बनायी गयी फ़िल्मों का मूल्यांकन केवल ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर नहीं किया जा सकता और ऐसा किया जाना आवश्यक भी नहीं है क्योंकि साहित्य या फ़िल्म इतिहास नहीं हैं। वे सृजनात्मक कला रचनाएं हैं और उनका मूल्यांकन रचनाकार के उद्देश्य, उसके दृष्टिकोण और रचना की प्रासंगिकता के संदर्भ में किया जाना चाहिए।
प्रासंगिकता की कसौटी/रचनात्मक संभावनाओं का बाजारीकरण
ऐतिहासिक चरित्रों की जो लोक चेतना में छवि है, उस छवि के बिल्कुल विपरीत छवि अपनी कलाकृति में गढ़ने की कोशिश को भी प्रायः लोगों के गले उतारना मुश्किल होता है। फिर भी, श्रेष्ठ कलाकार इस लोक प्रसिद्ध छवि को बनाए रखकर भी उसमें ऐसे रंग भरने में कामयाब हो जाते हंै जो उस छवि को नया रूपाकार दे देती है। इस प्रक्रिया में लोक प्रसिद्ध छवि को नष्ट किये बिना इस नयी छवि को भी जनमानस स्वीकार कर लेता है। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में बाणभट्ट की ऐतिहासिक छवि को विस्थापित किये बिना द्विवेदी जी बाण की एक नयी छवि निर्मित करते हैं। इसी तरह ‘मुग़ले आज़म’ में के. आसिफ़ भी अकबर की लोक प्रसिद्ध छवि को बनाये रखकर भी फ़िल्म यह बताने में नहीं हिचकिचाती कि अकबर अन्य मध्ययुगीन शासकों की तरह एक निरंकुश शासक था और उसकी यह निरंकुशता संगतराश की चित्रकारी और अनारकली के प्रति उसके रवैये से सामने आती है। ऐतिहासिक कथानकों पर फ़िल्म बनाने वाले फ़िल्मकार का दृष्टिकोण सदैव प्रगतिशील और जनोन्मुखी हो यह आवश्यक नहीं है। संजय लीला भंसाली की फ़िल्म ‘पद्मावत’ पर विचार करते हुए उसकी कथावस्तु और प्रमुख चरित्रों की ऐतिहासिकता और ‘पदमावत’ महाकाव्य के फ़िल्मांतरण की सफलता या असफलता से ज्यादा महत्त्वपूर्ण प्रश्न एक फ़िल्म के रूप में उसकी प्रासंगिकता और प्रभाव का है।
फ़िल्म ‘पद्मावत’ (2018) संजय लीला भंसाली के निर्देशन में बनने वाली नौवीं फ़िल्म है। निर्देशक के तौर पर उनकी पहली फ़िल्म ‘खामोशीः द म्युजिकल’ थी जो 1996 में प्रदर्शित हुई थी और जिसे काफ़ी सराहना मिली थी। 1999 में उन्होंने ‘हम दिल दे चुके सनम’ फ़िल्म का निर्देशन किया था जिसके निर्माता भी वही थे। यह फ़िल्म भी बाॅक्स आॅफिस पर काफी कामयाब रही थी। उनके द्वारा निर्देशित अन्य फ़िल्मों में ‘देवदास’ (2002), ‘ब्लेक’ (2005), ‘सांवरिया’ (2007), ‘गुज़ारिश’ (2010), ‘गलियों की रासलीला-रामलीला’ (2013), ‘बाजीराव मस्तानी’ (2015) और ‘पद्मावत’ हैं। अपनी अंतिम चार फ़िल्मों के संगीत निर्देशक भी वे ही थे। ‘सांवरिया’ और ‘गुज़ारिश’ को छोड़कर शेष सभी फ़िल्में बाॅक्स आॅफिस पर जबर्दस्त कामयाब रही हैं।
भंसाली की पहचान लोकप्रिय विधा में लोकप्रिय अभिनेताओं को लेकर संगीतमय रूमानी फ़िल्म बनाने वाले फ़िल्मकार के तौर पर रही है। उनकी पहली फ़िल्म ‘खामोशीः द म्युजिकल’ से वे एक संवेदनशील और समर्थ फ़िल्मकार के रूप में सामने आये थे। लेकिन दूसरी और तीसरी फ़िल्मों से यह साफ हो गया था कि व्यावसायिकता उनके लिए अन्य बातों से ज्यादा महत्त्व रखती है। ‘खामोशी’ संगीत प्रधान रोमांटिक कथा पर आधारित एक अच्छी और साफ सुथरी फ़िल्म थी। लेकिन ‘हम दिल दे चुके सनम’ और ‘देवदास’ में आभिजात्य वैभव और मध्ययुगीन पारिवारिक मूल्यों को महिमामंडित करते हुए उन्होंने जबर्दस्त व्यावसायिक सफलता हासिल की।
‘देवदास’ अतिमहत्त्वाकांक्षी फ़िल्म थी और उसे अपार सफलता मिली थी। लेकिन जिन लोगों ने शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास को पढ़ा है और इस पर बनी पी.सी. बरुआ की 1935 में बनी फ़िल्म और 1955 में बनी बिमल राॅय की इसी नाम की फ़िल्मों को देखा है, वे जानते हैं कि संजय लीला भंसाली की फ़िल्म मूलकथा के साथ न सिर्फ़ न्याय नहीं करती वरन इस लोकप्रिय उपन्यास के व्यावसायिक दोहन की अत्यंत भौंडी कोशिश थी। भंसाली की फ़िल्म ‘देवदास’ पहले इसी नाम से बनी दोनों फ़िल्मों की तुलना में तकनीकी दृष्टि से काफी आगे है। उसकी विलासपूर्ण भव्यता, उसके हर फ्रेम और हर शाॅट में दिखाई देने वाली चमक और शान दर्शकों को जल्दी ही यह आभास करा देती है कि वह एक ऐसी फ़िल्म देख रहे हैं जिसके अभिजात चरित्रों का संबंध सिर्फ़ अपनी दुनिया से है। वहां न समाज की रूढ़ियों का दबाव है और न उससे न लड़ पाने के अपराध बोध से टूटता व्यक्ति है। न वह स्त्री है जो सामाजिक मर्यादाओं पर बली चढ़ा दी गयी है और न ही वह नायक जिसकी कथित सभ्य समाज में कोई जगह नहीं है। 1935 और 1955 में बनी फ़िल्में देवदास के दुख का न तो जश्न मनाती नज़र आती है और न प्रेम का परिहास करती हैं। उनका अभिजात एक टूटते सामंती समाज का अभिजात है जबकि भंसाली के ‘देवदास’ का अभिजात औपनिवेशिक सत्ता के साथ गठजोड़ कर उससे ताकत हासिल करने वाला अभिजात है। जहां समाज की रूढ़िया नहीं बल्कि स्वार्थ के कुचक्र दूसरों के प्रेम के मार्ग में कांटे बोते हैं। भंसाली के ‘देवदास’ में देवदास की त्रासदी का रूपांतरण यदि एकता कपूर के धारावाहिकों के आपराधिक अभिजातवाद में हुआ है, तो उसकी प्रस्तुति की शैली में रीतिवाद का पुनरुत्थान दिखाई देता है। यह उत्तर आधुनिकता की विचारधारा से उपजी फ़िल्म है जो एक साहित्यिक रचना की आड़ लेकर रचनात्मक संभावनाओं का बाजारीकरण करती है। यह सर्जनशीलता नहीं है। इसमें न तो मौजूदा समाज को समझने की कोशिश है और न ही बीसवीं सदी के उन आरंभिक दशकों को जिसने ‘देवदास’ उपन्यास की रचना की।
प्रतिगामी सोच का फ़िल्मकार
‘देवदास’ से बहुत भिन्न नहीं थी ‘बाजाीराव मस्तानी’। यह फ़िल्म पेशवा बाजीराव (1700-40) और उनकी दूसरी पत्नी मस्तानी की प्रेमकथा पर आधारित है। पेशवा बाजीराव मराठा शासन में मुख्य सेनापति थे जिन्हें यह पद उनके पिता की मृत्यु के बाद मिला था। पेशवा मराठा साम्राज्य में बहुत शक्तिशाली हो गये थे। सत्ता पर वास्तविक अधिकार पेशवा बाजीराव के पास ही रहा। बाजीराव एक वीर सेनानायक था और उसने अपने बीस साल के शासन में कई लड़ाइयां लड़ीं और प्रत्येक लड़ाई में विजयी हुआ। बाजीराव को भी शिवाजी की तरह ऐसे हिंदू शासक की तरह देखा जाता है जिसने मुस्लिम शासकों के विरुद्ध लगातार लड़ाइयां लड़ीं और उन्हें परास्त किया। मस्तानी राजपूत राजा छत्रसाल और उसकी मुस्लिम पत्नी की बेटी थी। ‘देवदास’ की तरह इस फ़िल्म को भी भंसाली ने वैभवपूर्ण साजसज्जा, चटकीली-भड़कीली वेशभूषाओं और अतिरंजनापूर्ण नाटकीयता से भरपूर मसाला फ़िल्म बना दिया था। बाजीराव के चरित्र को जिस तरह महिमामंडित किया गया है, वह ऐतिहासिक सच्चाइयों से मेल नहीं खाता।
यह सही है कि बाजीराव ने एक मुस्लिम लड़की से प्रेम किया और उसके लिए उसने अपनी माता राधा बाई और अपने ब्राह्मण रिश्तेदारों का विरोध भी झेला लेकिन पेशवाओं का राज कोई आदर्श राज नहीं था। मराठा सेनाओं द्वारा भारी लूटपाट, मनमाने ढंग से किसानों से करों की वसूली और दलितों का भयावह उत्पीड़न पेशवाओं के राज की असली पहचान थी। भंसाली ‘बाजीराव मस्तानी’ फ़िल्म में पेशवाओं के शासन के इन नकारात्मक पक्ष की न सिर्फ़ उपेक्षा करते हैं वरन एक शक्तिशाली हिंदू सेनानायक के रूप में बनी उनकी पहचान को ही और अधिक महिमामंडित और वैभवपूर्ण बनाकर पेश करते हैं।
संजय लीला भंसाली यथास्थितिवादी सोच के प्रतिगामी फ़िल्मकार हैं। अपनी फ़िल्मों के लिए कहानियों का चयन करते हुए पात्रों के बीच भावनात्मक संघर्ष द्वारा अतिनाटकीयता पैदा करने पर उनका अधिक बल रहता है। इसी वजह से उनकी फ़िल्में बहुत कोलाहलपूर्ण (लाउड) और प्रदर्शनप्रिय होती हैं। वे बहुत अधिक दिखाने और सुनाने में यकीन करते हैं। इसके लिए वे फ़िल्म को भव्य और वैभवपूर्ण बनाने की कोशिश करते हैं। वे चटकीले रंगों, भव्य साजसज्जा और विशाल सेटों का इस्तेमाल करते हैं। यह विशेषता उनकी सभी फ़िल्मों में प्रायः देखी जा सकती है। स्पष्ट है कि वैभवशाली भव्यता साधारण लोगों के जीवन में नहीं हो सकती, इसलिए उनकी अधिकतर फ़िल्मों में सामंती पृष्ठभूमि वाले शासकवर्गीय संपत्तिशाली लोगों की कहानियां कहती हैं। उनकी बाद की तीन फ़िल्मों में हिंसा एक अनिवार्य तत्व की तरह जुड़ी नजर आती है। प्रेम कहानी और हिंसक युद्धों को समानांतर रखते हुए वे अपनी फ़िल्म का तानाबाना बुनते हैं। ‘बाजीराव मस्तानी’ और ‘पद्मावत’ में व्यक्ति प्रेम को राष्ट्र प्रेम से जोड़ दिया गया है और इस तरह युद्ध के दौरान होने वाली हिंसा को एक राष्ट्रवादी औचित्य प्रदान किया गया है। ‘पद्मावत’ उनके इस युद्धोन्मादी राष्ट्रवादी दृष्टिकोण का चरम है।
वह ‘बाजीराव मस्तानी’ की ही अगली कड़ी है। फ़िल्म से जाहिर है कि इसका न तो ऐतिहासिक तथ्यों से कोई संबंध है और न ही जायसी की रचना ‘पदमावत’ से। ऐतिहासिक तथ्य सिर्फ़ इतना है कि अलाउद्दीन खिलजी ने चितौड़गढ़ पर हमला किया था और उस पर विजय प्राप्त की थी। जहां तक जायसी के ‘पदमावत’ का सवाल है, फ़िल्म में कुछ प्रसंग और कुछ पात्र ‘पदमावत’ से लिये गये हैं लेकिन फ़िल्मकार ने उन्हें अपने ढंग से पेश किया है। मसलन, महाकाव्य में राजा रतनसेन (न कि रतनसिंह) सिंहल द्वीप नागमती के लिए मोती लेने नहीं जाता वरन पद्मिनी को हासिल करने ही जाता है जिसके सौंदर्य का बखान हीरामन सुआ करता है और उसको सुनकर राजा मूर्छित हो जाता है। महाकाव्य का सिंहल द्वीप वर्तमान श्री लंका नहीं है वरन वहां तक पहुंचने के लिए सात समुद्र पार करने पड़ते हैं। रतनसेन जोगी के वेश में सिंहल द्वीप जाता है और बहुत सी कठिनाइयों के बाद वह पद्मिनी को प्राप्त करने में कामयाब होता है। सिंहल द्वीप में ही उनका विवाह होता है। फिर वे दोनों चितौड़गढ़ लौट आते हैं। यह पूरी कथा महाकाव्य के दो तिहाई हिस्से में फैली हुई है और तरह तरह की चमत्कारिक घटनाओं और मिथकीय चरित्रों से भरी है। जबकि फ़िल्म में यह शुरू का बहुत छोटा सा हिस्सा है और उसका भी महाकाव्य की कथा से कोई संबंध नहीं है।
महाकाव्य में राघवचेतन राजपुरोहित नहीं वरन रतनसेन के दरबार का तांत्रिक होता है और अपनी जादुई विद्या द्वारा झूठ को सच साबित कर देता है। ऐसा ही एक झूठ पकड़े जाने पर रतनसेन उसे अपने राज्य से निष्कासित करता है, न कि पद्मिनी को छुपकर देखने के अपराध में। एक ब्राह्मण के दरबार से निकाले जाने की घटना से किसी अनिष्ट की आशंका से भयभीत होकर पद्मिनी राघवचेतन को दान स्वरूप अपने हाथ का कंगन दे देती है और यही कंगन बाद में राघव चेतन अलाउद्दीन को अपनी बात की सच्चाई के प्रमाण के रूप में पेश करता है। महाकाव्य में पद्मिनी दिल्ली जाने के लिए तैयार होती है लेकिन वह नहीं जाती जबकि फ़िल्म में वह स्वयं गोरा और बादल के साथ जाती है और अलाउद्दीन की पत्नी मेहरुन्निसा की मदद से रतनसेन को छुड़ा लाती है। महाकाव्य के अनुसार चितौड़ लौटने के बाद जब रतनसेन को मालूम पड़ता है कि कुंभलनेर का राजा देवपाल भी पद्मिनी को हासिल करने के लिए छल-कपट कर रहा है तो रतनसेन क्रोधित हो जाता है और कुंभलनेर पर हमला बोल देता है। युद्ध में लड़ते हुए देवपाल और रतनसेन दोनों मारे जाते हैं। नागमती और पद्मिनी दोनों ही रतनसेन के शव के साथ सती हो जाती हैं। जब सुलतान सेना लेकर चितौड़गढ़ पर चढ़ाई करता है और युद्ध में विजय प्राप्त कर किले में प्रवेश करता है तो वहां राख के ढेर के अलावा उसे कुछ नहीं मिलता। इसके विपरीत देवपाल की कथा फ़िल्म से पूरी तरह गायब है। ‘पदमावत’ महाकाव्य में रतनसेन अलाउद्दीन के साथ युद्ध करते हुए नहीं मारा जाता और न ही पद्मिनी अलाउद्दीन के हाथों अपमानित होने से बचने के लिए जौहर करती है जैसाकि फ़िल्म में दिखाया गया है। इसलिए फ़िल्म अपने सार में भी और विस्तार में भी ‘पदमावत’ महाकाव्य का रूपांतरण नहीं है। अगर इसकी कहानी किसी के सबसे नजदीक है तो बाद में गढ़ी गयी दंतकथाओं और जनश्रुतियों के जिनके गढ़ने में चारणों का और जिसे इतिहास बताने में कर्नल जेम्स टाॅड जैसे औपनिवेशिक इतिहासकारों का हाथ है जो मध्ययुग के पूरे इतिहास को हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संघर्ष के रूप में दिखाते हैं।
करणी सेना और भाजपा द्वारा फ़िल्म पर जो-जो आरोप लगाये गये फ़िल्म से वे सही साबित नहीं होते वरन इसके विपरीत फ़िल्म उन्हीं विचारों की वाहक बनकर सामने आती है जिनका प्रतिनिधित्व करणी सेना और भारतीय जनता पार्टी करती हैं। पहले की फ़िल्मों के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि भंसाली उसी वैचारिक दायरे में अपनी फ़िल्में बनाते हैं जिनका प्रतिनिधित्व भारतीय जनता पार्टी करती है और ‘पद्मावत’ इसका अपवाद नहीं है। पहले की किसी भी फ़िल्म से ज्यादा उग्र ढंग से यह हिंदुत्व राजनीति की वाहक है। यह फ़िल्म उस गढे़ गये सांप्रदायिक इतिहास की पुनर्रचना है जिसमें मुस्लिम शासक सदैव विदेशी आक्रमणकारी, युद्धोन्मादी, क्रूर, बर्बर और हिंसक होते हैं। सत्ता हासिल करने के लिए वे नजदीक से नजदीक रिश्तेदार की हत्या कर डालते हैं। स्त्री को वे भोग की वस्तु समझते हैं और उन्हें पाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। उनके इन्हीं अत्याचारों के कारण राजपूत स्त्रियों को अपनी अस्मिता बचाने के लिए जौहर (सामूहिक आत्मदाह) का मार्ग अपनाना पड़ा था। यह फ़िल्म इतिहास की इसी सांप्रदायिक समझ का अनुकरण करती है।
फ़िल्म में अलाउद्दीन खिलजी को जिस ढंग से पेश किया गया है, वह ऐतिहासिक अलाउद्दीन से मेल नहीं खाता, वह ‘पदमावत’ महाकाव्य के अलाउद्दीन से भी मेल नहीं खाता। श्याम बेनेगल के धारावाहिक ‘भारतः एक खोज’ के एपिसोड 25 में ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर अलाउद्दीन के जीवन और कार्यों से जुड़े प्रसंगों का नाट्य रूपांतरण प्रस्तुत किया गया था। उसे देखने से स्पष्ट होता है कि अलाउद्दीन खिलजी की जो छवि फ़िल्म ‘पद्मावत’ में गढ़ी गयी है, वह पूरी तरह से अनैतिहासिक है।
फ़िल्म में अलाउद्दीन खिलजी को बर्बर, हिंसक और व्यभिचारी बताया गया है। जिस तरह उसे अपने नजदीकी लोगों की निर्मम हत्या करते हुए, औरतों को अपनी हवस का शिकार बनातेे हुए दिखाया गया है वह उसके वास्तविक चरित्र से मेल नहीं खाता। लंबे और खुले बाल रखना, क्रूर हँसी हँसना, मांस को जानवरों की तरह खाना, यहां तक कि नाचते और गाते हुए भी शरीर और चेहरे पर क्र्रूर भाव प्रकट करना उसके चरित्र को एक खास सांचे में ढालता है। इसके विपरीत रतनसेन को सुसंस्कृत, सभ्य और शिष्ट आचरण करता हुआ दिखाया गया है। एक ओर खिलजी अपनी पत्नी मेहरुन्निसा के साथ क्रूर ढंग से पेश आता है, उसे सार्वजनिक रूप से अपमानित करता है जबकि रतनसेन पद्मिनी के सम्मान का सदैव ध्यान रखता है। खिलजी से मेहरुन्निसा भय खाती है जबकि पद्मिनी रतनसेन से प्रेम करती है और पति की सेवा करना ही अपना धर्म समझती है। उसके लिए अपने प्राणों तक की आहूति देने को तैयार हो जाती है। खिलजी के खाने के असभ्य तरीके के विपरीत रतनसेन के यहां जब अलाउद्दीन के सामने चांदी की थाली में भोजन पेश किया जाता है तो ऐसा दिखाने का प्रयास किया गया है कि वह शाकाहारी भोजन है और जिसे बहुत ही शिष्टाचार के साथ पेश किया गया है। खिलजी और रतनसेन की यह जो भिन्न और विपरीत छवियां पेश की गयी है, उसके पीछे की प्रेरणा विद्वेेषपूर्ण और सांप्र्रदायिक है। यह उस सांप्रदायिक और सवर्ण हिंदू मानसिकता को पुष्ट करती है जिसके अनुसार हिंदू शाकाहारी होता है, अहिंसक होता है और स्त्री को देवी समझ कर पूजा करता है जबकि मुसलमान मांसाहारी होता है, हिंसक और बर्बर होता है और स्त्री पर अत्याचार करने वाला व्यभिचारी होता है। फ़िल्म के अनुसार खिलजी इसी बर्बर मुस्लिम मानसिकता का प्रतिनिधि है और रतनसेन और पद्मिनी सुसंस्कृत हिंदू मानसिकता का।
सती प्रथा का महिमामंडन
फ़िल्म आरंभ से अंत तक राजपूती गौरव का महिमामंडन करती है। उन्हें ऐसी वीर जाति के रूप में पेश किया गया है जो अपने आत्मसम्मान के लिए अपनी जान दे भी सकती है और जान ले भी सकती है। इसी आत्मसम्मान की रक्षा के लिए राजपूती स्त्रियां सामूहिक आत्मदाह करने से भी नहीं डरती। फ़िल्म के आरंभ में यद्यपि कहा गया है कि फ़िल्म सती प्रथा का समर्थन नहीं करती लेकिन फ़िल्म में जौहर के पूरे कृत्य को जिस विस्तार से धार्मिक परंपरा का पालन करते हुए भव्यता से दिखाया गया है वह शर्मनाक भी है और खतरनाक भी। संजय लीला भंसाली ने जौहर को युद्ध का ही एक रूप बताकर उसका औचित्य सिद्ध करने की कोशिश की है। जबकि यह पितृसत्तात्मक सोच का सर्वाधिक घृणित रूप है जो सतीत्व की रक्षा के नाम पर स्त्री को जबरन आत्महत्या की ओर धकेलता है। सती और जौहर न तो राजपूत परंपरा का अनिवार्य हिस्सा है और न ही युद्धों में शत्रुओं के हाथों में पड़ने से पहले आत्मसम्मान की रक्षा के लिए राजपूत औरतें हमेशा जौहर करती थीं। सच्चाई यह है कि युद्ध के बिना भी राजपूत राजाओं के मरने पर उनकी रानियों को ही नहीं उनकी दासियों को भी सती प्रथा के नाम पर सामूहिक रूप से आत्मदाह के लिए मजबूर किया जाता था।
राजपूत रानियों का इतिहास एक आयामी नहीं है। 1298 में अलाउद्दीन की सेनाओं ने गुजरात के शासक करणदेव पर हमला किया था। इस हमले में करण देव की पत्नी कमला देवी को गिरफ़्तार कर दिल्ली ले आया गया था जबकि करण देव अपनी बेटी देवल देवी को लेकर दक्षिण भाग गया था जहां उसने देवगिरी के शासक रामचंद्र देव के यहां शरण ली थी। दिल्ली में अलाउद्दीन ने कमला देवी से विवाह कर लिया और उसे अपनी तीसरी रानी बना लिया था। इसी कमला देवी को लेकर छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद ने ‘प्रलय की छाया’ नाम से मुक्त छंद में लंबी कविता लिखी है। देवल देवी का विवाह उसकी मां कमला देवी अलाउद्दीन के बेटे खिज्र खां से करवाती है। खिज्र खां और देवल देवी की प्रेम कथा पर अमीर खुसरो ने एक मसनवी भी लिखी थी। राजपूत राजा अपनी बेटियां मुस्लिम शासकों से ब्याहते आये हैं। उन राजपूती रानियों के बेटे हिंदुस्तान के शासक भी बनते रहे हैं। यह तथ्य इस बात का प्रमाण है कि उनके बीच रिश्तेदारियां एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए या राजपूतों को अपमानित करने के लिए नहीं होती थीं। रणथंभौर की रानी ने अपनी रक्षा के लिए मुग़ल बादशाह हुमायूँ के पास राखी भिजवाई थी और हुमायूँ ने रानी की मदद की थी। पद्मिनी को राजपूती गौरव और बलिदान का प्रतीक बनाकर पेश करने के पीछे जातिपरस्त और सांप्रदायिक सोच काम कर रही है। अन्यथा मीरा बाई भी उसी राजपूती परंपरा से आती है जिसने अपने पति के साथ सती होने की बजाए अपना स्वतंत्र रास्ता चुना और उस रास्ते पर चलने के लिए हर तरह के खतरे का सामना भी किया। मीराबाई पर किसी मुस्लिम शासक ने नहीं वरन उनके अपने परिवार के लोगों ने जुल्म ढाये थे। इन अत्याचारों से पीड़ित होकर ही मीरा को मेवाड़ छोड़कर गुजरात जाना पड़ा था।
व्यावसायिक और राजनीतिक निहितार्थ
यहां यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जौहर जैसी स्त्री विरोधी घृणित परंपरा के महिमामंडन को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर दिखाये जाने की छूट मिलनी चाहिए? क्या इस फ़िल्म के विरुद्ध चलाये जा रहे आंदोलन का विरोध कर लोकतांत्रिक अधिकारों के समर्थकों ने गलती की है? ‘पद्मावत’ अपने मंतव्य में सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने वाली, उच्च जातीय अहंकार को बढ़ावा देने वाली और स्त्री पराधीनता को महिमामंडित करने वाली फ़िल्म है और इसी वजह से यह फ़िल्म संविधान के आधारभूत मूल्यों- धर्मनिरपेक्षता, स्वतंत्रता और समानता के विरुद्ध खड़ी नज़र आती है। फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड अपने दायित्व का निर्वाह करने में न केवल पूरी तरह नाकामयाब रहा है वरन प्रतिगामी आंदोलन के दबाव में आकर उसने जौहर जैसी अमानुषिक परंपरा को दिखाने की भी पूरी छूट दे दी है।
बाॅक्स आॅफिस के आंकड़ों से स्पष्ट है कि ‘पद्मावत’ एक कामयाब फ़िल्म साबित हुई है। 180 करोड़ में बनी इस फ़िल्म ने कई गुना ज्यादा कमाई की है। इसके विरुद्ध चले आंदोलन ने इसकी व्यावसायिक सफलता को पहले से ही सुनिश्चित कर दिया था। ‘पद्मावत’ के संदर्भ मंे इस तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए कि इस फ़िल्म का निर्माण ‘भंसाली प्रोडक्शंस’ और ‘वायकम 18 मोशन पिक्चर्स’ ने मिलकर किया था। ‘वायकम 18 मोशन पिक्चर्स’ ‘वायकम 18’ की सहायक कंपनी है जो ‘वायकम’ और ‘नेटवर्क 18’ का संयुक्त उपक्रम है। ‘नेटवर्क 18’ की मालिक रिलायंस इंडस्ट्रीज है जो फ़िल्म निर्माण के अलावा कई टीवी चैनलों की भी मालिक है। ज्यादातर उन चैनलों की जिन पर फ़िल्म को लेकर बहसें चल रही थीं। रिलायंस इंडस्ट्रीज के मालिक मुकेश अंबानी है और उनकी भाजपा सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से निकटता एक सर्वज्ञात तथ्य है। इसलिए यह निष्कर्ष निकालना गलत न होगा कि इस फ़िल्म के विरुद्ध चलाया गया आंदोलन ‘स्वतःस्फूर्त’ नहीं वरन राजनीतिक लाभ के लिए छेड़ा गया जानबूझ कर खड़ा किया गया (मेनुफेक्चर्ड) आंदोलन था। यह भारतीय समाज को और पीछे धकेलने के संघ परिवार के विराट अभियान का ही एक हिस्सा था। दूसरे शब्दों में फ़िल्म अपनी राजनीतिक मंशा में भी सफल रही है।
‘पद्मावत’ विरोधी आंदोलन और उसकी सफलता मे निहित चुनौती जितनी दिखायी दे रही है, उससे ज्यादा भयावह और विकराल है। भविष्य में बनने वाली फ़िल्मों, लिखी जाने वाली किताबों पर ऐसे या इनसे भी उग्र हमले हो सकते हैं जो संघ परिवार के सांप्रदायिक फासीवादी अभियान के विरुद्ध जाते हों। ‘पद्मावत’ फ़िल्म का उदाहरण इस बात का एक और सबूत है कि संघ परिवार के लिए किसी भी मसले पर लोगों को आंदोलित करने के लिए किसी ऐतिहासिक प्रमाण, तर्कशीलता और वैज्ञानिक दृष्टि की आवश्यकता नहीं है। वह लोगों की धर्म, जाति और समाज संबंधी रूढ़िबद्ध अवधारणाओं और विश्वासों का इस्तेमाल करता है, उनके अज्ञान का फायदा उठाता है और परंपरा, धर्म और राष्ट्र से जोड़कर उनको भावनात्मक रूप से उद्वेलित और आंदोलित करता है। साहित्य, कला और संस्कृति का पूरा क्षेत्र लंबे समय से उनके हमले की जद में आया हुआ है। भारतीय संस्कृति के नाम पर वे लोगों के खानपान, वेशभूषा, रहन-सहन और उनकी अभिरुचियों तक को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे हैं। वे कभी भी किसी को निशाना बना सकते हैं। स्थितियां इसलिए और भी भयावह है कि रचनात्मक आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर संघ परिवार के हमले के विरुद्ध लड़ने के लिए कोई विश्वसनीय राजनीतिक संगठन दूर तक साथ आने के लिए तैयार नहीं है।
Arvind Shesh
24 April at 10:55 ·
पूजा सकत भीमा-कोरेगांव उत्सव के दिन हिंसा करने वालों और घर जलाने वाले दंगाइयों के खिलाफ चश्मदीद थी! धमकियों के बावजूद उसने चुप रहने से इनकार कर दिया था।
उसकी लाश कुएं में मिली।
सामाजिक सत्ताधारियों को चुप रहने और गुलामी करने वाले चेतना से खाली दलित-बहुजन की जरूरत है! स्वतंत्र और चेतना से लैस दलित-बहुजनों के वे दुश्मन हैं! वे हर अगले दिन इसे साबित कर रहे हैं कि खुद पर भरोसा करने वाले स्वतंत्र और स्वाभिमानी दलित को बर्दाश्त नहीं करेंगे..!
लेकिन कितने दिन और…! खुद को ‘ऊंच’ मानने वाले अविकसित दिमाग वाले बर्बर असभ्य अमनुष्य लोगों… कितने दिन और..!
Arvind Shesh
23 April at 23:11 ·
मिश्रा जी ने कहीं जाने के लिए कैब बुक किया! कैब आई तो ड्राइवर मुसलमान निकला और मिश्रा जी ने बुकिंग कैंसिल करवा ली! ( इस ब्योरे को मिश्रा जी ने अपनी बाल पर ठससे के किया।)
अब एक सीनः मिश्रा जी से प्रेरणा लेने वाले और उसके नक्श-ए-कदम पर चलने वाले ओबीसी या एससी-एसटी बच्चन यादव (काल्पनिक नाम) या बच्चू सिंह या कोई भी नाम, अपनी मां का इलाज कराने ले जा रहे थे कि मिश्रा जी ने ‘कैब’ बुक कराने की सलाह दी! बच्चू सिंह ने कैब में मुसलमान को देख कर कैंसिल करवा लिया और अगली कैब में ट्राइ करने लगे. लेकिन हा रे भाग्य…! अगली दो कैब भी वही आई… कोई दिखने में पता चल जाए और कोई नाम से पता चल जाए..! इसी उधेड़बुन में थे कि बच्चू सिंह को मां की मौत हो गई..!
सबक-
मिश्रा जी का संस्कार उनकी सत्ता के काम आएगा… दलित-बहुजन अगर मिश्रा जी ऐसे काम सीखेंगे तो हर बार नुकसान में रहेंगे..!
Arvind Shesh
24 April at 19:33 ·
लीजिए..! जो लोग आरएसएस-भाजपा से यह मांग कर रहे थे कि दलितों को मंदिर का पुजारी बना के दिखाओ… आरएसएस का प्रमुख बना के दिखाओ… शंकराचार्य बना के दिखाओ तो जानें… उनकी मांग अब पूरी होने की दहलीज पर खड़ी है… पूरी हो रही है! दलित को मंदिर का पुजारी तो पहले ही बना दिया, अब अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने एक दलित ‘संत’ कन्हैया प्रभु नंदगिरी को महामंडलेश्वर बनाने का फैसला भी कर दिया है!
अब ‘महामंडलेश्वर’ पर संतोष कर लिए तो ठीक, इसके बाद भी मांग जारी रही तो अगले कदम के रूप में अगर आरएसएस का प्रमुख या फिर शंकराचार्य किसी दलित को बना दिया जाए तो मुझे हैरानी नहीं होगी!
ब्राह्मणवाद से लचीली ‘वस्तु’ दुनिया में कोई और नहीं है! यह उसी हद तक आपको अपनी सत्ता से खारिज करता है, जब तक आप उसकी सत्ता के दायरे में बने रहने की जिद करते हैं, उसी को अपना अधिकार मानते रहते हैं। जैसे ही इसे अंदाजा होता है कि अब अगर मना किया गया तो आप इसकी व्यवस्था को लात मार कर इससे बाहर जा सकते हैं, तो अछूत और घृणा का पात्र बनाने वाला ब्राह्मण आपको कंधे पर बिठा कर मंदिर में ले जाता है!
एक स्वतंत्र सोच वाला चेतना से लैस दलित उसे स्वीकार नहीं है। वह उस गुलाम और आदेशपालक दलित को स्वीकार करेगा, भले ही उसे पुजारी, महामंडलेश्वर, सरसंघचालक और शंकराचार्य भी क्यों न बनाना पड़े! उसे बहुत अच्छी तरह से पता है कि ये पद देने से उसी की सत्ता और व्यवस्था बची रहती है, आपकी आजादी और चेतना की जमीन नहीं बन सकती!
Arvind Shesh
24 April at 23:15 ·
पैसों का स्रोत पता नहीं, लेकिन अब तक खोजने पर IIT वालों की ‘बाप’ की अकेली ताकत ‘नवीन विद्रोही’ मिले।
ऐसा लगता है कि शायद दलित पृष्ठभूमि के नवीन विद्रोही को बहुत मेहनत से तैयार किया गया है! उनमें अपनी प्रतिभा भी होगी। लेकिन भारत की औसत जनता के लिहाज से देखें तो नवीन विद्रोही एक शानदार वक्ता हैं, जो अपने सामने बैठी जनता को मंत्रमुग्ध करते हैं। इस मामले में वे मोदी को मात देते हैं।
दरअसल, भारत में जनता के बीच काम करने और उसे अपने साथ लाने के मोर्चे पर बेहतरीन वक्ता को उनके सामने खड़ा करना वक्त की जरूरत है।
फर्क यह है कि आरएसएस-भाजपा अपने बीच की वैसी प्रतिभाओं को खोजती है, चुनती है, उसे तैयार करती है और उसे पूरा मौका देकर उसके साथ खड़ी रहती है। दूसरे दलों में इस पहलू को जरूरी नहीं समझा जाता! ज्यादातर निजी महत्त्वाकांक्षाओं और असुरक्षाबोध की वजह से!
विचारधारा की फिक्र जिस भी पक्ष को होगी, वह सबसे पहले अपने सामने मौजूद जनता का अध्ययन और आकलन करेगा। मकसद यह कि जनता किन-किन रास्तों से उसके साथ आ सकती है। इसमें जनता से संवाद करने वाले व्यक्ति की अहमितयत सबसे ज्यादा होती है। आरएसएस-भाजपा ने मोदी सहित अपने बीच की वैसी प्रतिभाओं की खूब अच्छे से पहचान की है, उन्हें उभारा है, जरूरी होने पर प्रशिक्षण दिया/दिलाया है और लोगों को अपनी चपेट में लिया है।
दूसरी पार्टियों के लिए विचारधारा कितनी अहम है, यह नहीं पता, लेकिन जनता से संवाद के पहलू की उन्होंने जितनी अनदेखी की है, उसी का खमियाजा है कि बहुत अच्छे विचार रखने वाले नेताओं और पार्टियों को जनता का साथ मिलने में मुश्किल पेश आ रही है।
अगर आरएसएस-भाजपा का ठोस और ईमानदारी से सामना करना है तो आरएसएस-भाजपा से यह सीखना होगा। अपने बीच से अच्छी सामाजिक छवि वाले बहुत सारे शानदार वक्ताओं को चुन कर उनके लिए मौके मुहैया कराने होंगे। उस वक्ता की सामाजिक पहचान सबसे अहम होगी। मामला भारत की साधारण जनता से संवाद कायम करने का है, क्रांतिकारियों, कवियों-कहानीकारों-साहित्यकारों या बुद्धिजीवियों को संबोधित करने का नहीं।
Arvind Shesh
25 April at 19:21 ·
आसाराम को सजा का सबसे बड़ा सबक यह होना चाहिए कि जितने भी बाप दुखों से मुक्ति के लिए बाबाओं के चरण में शरण गहते हैं, वे अपने दिमाग की बत्ती जलाएं और तमाम पंडों-बाबाओं के मायाजाल से खुद को मुक्त करें। श्रद्धा और आस्था के नाम पर पंडों-बाबाओं की गुलामी करते हुए वे अपनी बेटियों को इसी तरह किसी आसाराम की भूख के हवाले कर सकते हैं, इससे अलग कुछ नहीं। बेटियों और सभी महिलाओं को यह समझने की जरूरत है कि पंडों-बाबाओं की भक्ति और जाल में फंस कर उन्हें तोहफे में सिर्फ दिमागी गुलामी मिल सकती है, आजादी का सपना तक उनसे दूर रहेगा।
कोई भी पुरुष या स्त्री किसी भी पंडे या बाबा के साए में सुख महसूस करता है, वह इससे अलग कोई नतीजा हासिल नहीं कर सकता, जो आसाराम बतौर प्रसाद देता रहा। कल्पना कीजिए कि आसाराम मुंह में मक्खन रख कर थूकता था और सामने खड़ी महिलाएं या पुरुष अपने मुंह खोल कर उस थूक-मक्खन को लपक कर गर्व करते थे, तो वह किसी भी सभ्य समाज में कैसा दृश्य रचता है। कोई इसे आस्था और भक्ति के नाम पर सही ठहराएगा तो उसे मर जाना चाहिए।
इस मूर्खता को जीने वाले लोग मामूली बीमारियों को ठीक करने के लिए किसी धूर्त बाबा के आपराधिक कुकर्मों में भागीदार क्यों नहीं बनेंगे? किसी स्त्री के पेट में मरोड़ उठने पर तंत्र-साधना से इलाज करने वाला बाबा इससे अलग कुछ नहीं करता, जो आसाराम ने उस बच्ची के साथ किया। फर्क यह है कि उस बच्ची ने बर्दाश्त नहीं किया, बहुत सारी महिलाएं उसे भक्ति का प्रसाद मान कर चुप रह जाती होंगी! और इस तरह आसारामों के कुकर्मों का बाजार बना रहता है!
बहरहाल, तमाम जोखिम उठा कर एक बेहद ताकतवर अपराधी के खिलाफ आवाज उठाने, उससे टकराने, टिके रहने और सजा तक पहुंचाने वाली इस बहादुर लड़की और उसकी हिम्मत को मेरा सैल्यूट। अपनी बेटी का बलात्कार करने वाले आसाराम के खिलाफ मुकदमा लड़ कर जीत हासिल करने वाले पिता को भी सलाम। लेकिन यह भी सच है कि मूर्खतापूर्ण भक्ति में अपनी बेटी को उस त्रासदी की आग में झोंकने के लिए भी वही जिम्मेदार है। बहादुर बेटी ने आवाज नहीं उठाई होती तो..?
आस्थावाद का वहम आसारामों की शरण में ले जाता है, जहां भक्ति के शर्मनाक और त्रासद अंजाम भी सह जाने की गुलामी में कैद रखा जाता है। अगर आप खुद को गुलाम नहीं, आजाद मानते हैं तो सबसे पहले पारलौकिक आस्थावाद और उससे अभिन्न रूप से जुड़े पंडों-बाबाओं के जाल से बाहर आने की हिम्मत कीजिए। वरना एक मामले की सजा से इस बाबा-तंत्र की त्रासदी से आजादी नहीं मिलने वाली।
Arvind Shesh
1 hr ·
किसी दलित पृष्ठभूमि के व्यक्ति के साथ खाना खाकर महान बने लोगों… आपके लिए..!
कुछ दिन पहले Ritu ने जब सामाजिक व्यवहार में जाति का जहर घुले होने का सवाल उठाया तो एक सुशिक्षित शिक्षक और आधुनिक ब्राह्मण युवती ने मेहरबानी के लहजे में कहा कि “कहां है जाति का जहर… इसका सबूत तुम खुद हो कि मैं कई बार तुम्हारे साथ खाना खा चुकी हूं!”
इस पर दुख और गुस्से से भर कर Ritu ने जो जवाब दिया, उससे मेरी भी सहमति है-
“तुम्हें दलितों से घृणा नहीं है, क्योंकि तुम मेरे साथ कई बार खाना खा चुकी हो। बड़ी मेहरबानी की तुमने कि मेरे साथ खाना खाया। यानी मुझ ‘अछूत’ के साथ खाना खाकर यह साबित किया कि तुम इतनी महान हो कि एक ‘अछूत’ के साथ खाना खा सकती हो..!
दरअसल, तुम्हारे भीतर इतनी न्यूनतम और बुनियादी संवेदना नहीं है कि तुम अपने इस कहे के पीछे की बर्बरता को समझ सको कि किसी को ‘नीच’ जाति का होने का एहसास दिला कर उसके साथ खाना खाने को तुम एहसान के रूप में पेश कर रही हो। या फिर साथ खाना खाने के बाद उसे उसकी जातिगत ‘हैसियत’ का एहसास दिला रही हो!
अतीत से लेकर आज भी कई इलाकों में सवर्ण सामंती जातियों के मर्द दलित-वंचित जातियों को अछूत और घृणास्पद मानते रहे। लेकिन दलित-वंचित जातियों की महिलाओं का बलात्कार करते हुए, यौन-शोषण करते हुए उन्हें छूत नहीं लगती है। तुम्हारा मेरे साथ खाना खा लेना मुझे उसी तरह की ‘उदारता’ और ‘महानता’ लग रही है।
तुम अपनी इस महानता पर गर्व करना, लेकिन मैं तुम्हारी समझ और संवेदना पर तरस खाऊंगी! ‘ऊंच’ जाति से होने का मनोविज्ञान किसी संवेदनशील इंसान को भी सीमित समझ वाला संवेदनहीन दरिंदा बना डालता है। मैं तुम्हारी इस महानता को लात मारती हूं… मेरे साथ तुम्हारे खाना खाने के मौके के लिए खुद पर अफसोस जताती हूं..!”
उनका यह जवाब मैं तमाम वैसे लोगों को सादर समर्पित कर रहा हूं, जो मानते हैं कि किसी दलित के साथ खाना खाकर उन्होंने जाति का विरोध कर लिया, खुद को जातीय सड़ांध से ऊपर मानने लगे! मेरा भी मानना है कि दरअसल किसी भी ‘नीच’ कही जाने वाली जाति वाले व्यक्ति के साथ खाना खाने को ‘बड़ा’ काम मानना उस व्यक्ति को अपमानित करना है… उसे इस बात का एहसास दिलाना है कि वह एक ऐसा व्यक्ति है, जिसके साथ खाना नहीं खाया जाना चाहिए, लेकिन जो साथ खा रहा है, वह महान है! अगर कोई खुद को जाति से मुक्त मानता है, तो साथ खाने को अपनी उदारता के रूप में पेश करना, जताना या खुद में खास महसूस करना यह बताता है कि ऐसा करने वाला व्यक्ति ज्यादा जटिल पाखंड से गुजर रहा है
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Abrar Khan
28 January 2018
फिल्म पद्मावती देखने के बाद खिलजी को मन ही मन हजारों गालियां देते हुए सुबह के 4:00 बजे जैसे ही सोया वैसे ही सपने में अलाउद्दीन खिलजी अपने साथ अमीर खुसरो और गफूर मलिक के साथ आ धमके । अमीर खुसरो को देखा तो मैं बड़ा खुश हुआ लपककर उनसे मुसाफा किया गले लगाया उनके हाथ चुम्मा मगर साथ ही मैंने गफूर को और अलाउद्दीन को नजरअंदाज कर दिया । अमीर खुसरो ने बात आगे बढ़ाते हुए उन दोनों से मेरा ताअर्रुफ कराया मैंने फिर से नजरअंदाज कर दिया । सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी को यह बात नागवार गुजरी जिसका ऐतराज़ उन्होंने अमीर खुसरो से जताया आपके यह दोस्त लगातार मेरी तौहीन किए जा रहे हैं मेरे सलाम का जवाब भी नहीं दे रहे हैं । इतना सुनना था कि मैं फट पड़ा मैंने कहा मियां अलाउद्दीन होगा तुम्हारे सर पर ताज मगर मुझे पसंद हैं तो खुसरो जैसे फकीर साहित्यकार और सूफी तुम्हारे जैसे भिखारियों में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है । अलाउद्दीन का सिपहसालार इतना सुनते ही आग बबूला हो उठा वह मेरी गर्दन काटता है इसके पहले ही अमीर खुसरो ने उसे डपट लिया और मुझसे कहा कि माज़रा क्या है अपनी पूरी बात कहो । मैंने कहा हां मैंने इस बंदे को भिखारी कहा क्योंकि इसकी यही औकात है इसके पास कुछ भी नहीं है न लेने के लिए न देने के लिए लोगों की गर्दन काटता है उनकी बीवियां छीन लेता है शहरों को जला देता है बस्तियों को लूट लेता है ।
मेरा गुस्सा खिलजी के ऊपर से कम होने का नाम नहीं ले रहा था मेरे मुंह में जो आए मैं बके जा रहा था । मैंने कहा मैं किसी तानाशाह की तारीफ नहीं करता तुम खिलजी हो मुगल हो तुर्की हो जितने हो सब के सब एक नंबर के अय्याश रहे हो तानाशाह रहे हो । दूसरों की जमीन हड़प लेते थे दूसरों की गर्दन काट देते थे उनकी बीवियां हड़प लेते थे और तो और तुम लोग अपने ही परिवार के सदस्यों का क़त्ल कर देते थे सिर्फ सत्ता के लिए । करो तुम भरे हम । जो तुमने किया अच्छा या बुरा उसकी सफाई आज हम मुसलमानों को देनी पड़ती है ।
हम भारतीय मुसलमान हैं लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं, हम गर्दन काटने में नहीं भाईचारे में विश्वास रखते हैं, हम भारतीय मुसलमान अपने संविधान में आस्था रखते हैं संविधान का पालन करते हैं । हम दूसरों की पत्नियां नहीं हड़पते । किसी की बीवी पर किसी की बेटी पर किसी की बहन पर अपनी नियत खराब नहीं करते, चार शादियां भले इस्लाम में जायज है मगर हम एक ही शादी करते हैं । हम ऐसे क्रूर शासक का आदर सत्कार कैसे कर सकते है जिसने सत्ता पाने के लिए अपने ही चाचा का कत्ल कर दिया हो जिसने गुजरात के राजा करण बघेल की पत्नी हड़प ली, जिसने राजा रतन सिंह की पत्नी पद्मावती को हड़पने के लिए अपनी पूरी सत्ता दांव पर लगा दी अंततः रानी पद्मावती को 16000 रानियों के साथ जौहर करने पर विवश कर दिया । जबकि हम मुसलमान मुर्दा भी नहीं जलाते ऐसे में हम अलाउद्दीन खिलजी के किए पर सफाई क्यों दें इसका सम्मान क्यूँ करें ?
जब इतना सब कह कर मैं चुप हुआ उसके बाद अलाउद्दीन खिलजी पहली बार मुस्कुराया और मेरा मज़ाक उड़ाते हुए उसने कहा कि तुम सिर्फ कद में छोटे नहीं हो बल्कि इल्मो अक्ल से भी अभी बच्चे हो । अब तुम अपनी कर चुके हो तो मेरी भी सुन लो मेरा इतिहास मैं बेहतर जानता हूँ संजय लीला भंसाली से ज्यादा जानता हूँ अमीर खुसरो जी से पूछ लीजिए जिन्हें आप पीर समझते हैं ।
कौन कहता है क्या सबूत है कि मैंने अपने चाचा का कत्ल किया था ? हाँ मेरे चाचा का कत्ल हुआ था मगर वह कत्ल मैंने नहीं किया था । चाचा का कत्ल हुआ ज़रूर मगर उनकी लापरवाही के नाते हुआ उनके दुश्मनों को मौका मिला उन्होंने घात लगाकर उनकी हत्या कर दी । चूंकि सुरक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी मेरी थी वहाँ का शासक मैं था इसलिए लोगों ने मुझे दोषी समझ लिया । मगर क्या आप जानते हैं कि जब मैं इलाहाबाद से दिल्ली के लिए चला तो अपने ऊपर लगे इस इल्जाम को धोने के लिए सारे रास्ते अशरफिया लुटाते हुए गया हालांकि मैंने कोई गुनाह नहीं किया था क्योंकि इसका कोई सुबूत किसी के पास नहीं है । आप कैसे इल्जाम लगा सकते हैं कि मैंने अपने चाचा का कत्ल किया था ? क्या मेरे फिंगरप्रिंट मिले हैं ? क्या क़त्ल वाली जगह पर मेरे फुट मार्क मिले हैं? क्या कोई ऑडियो वीडियो रिकॉर्ड आपके पास है जिससे यह साबित हो कि मैंने अपने चाचा का कत्ल किया ? क्या मेरे चाचा ने मरने से पहले मुझ पर इल्जाम लगाया था ? क्या किसी ने मुझे क़त्ल करते हुए देखा ….? अगर नहीं देखा तो मुझे मेरे चाचा के कत्ल का इल्जाम से बरी किया जाना चाहिए 800 साल हो चुके हैं इल्जाम को सर पर ढोते हुए ।
इतना सब कहते-कहते अलाउद्दीन खिलजी की आंखें भर आई आवाज भर्रा उठी । मुझे उस पर तरस आया, पहली बार मैंने उसे पानी का गिलास थमाया टिशू पेपर दिया पानी पीकर कुछ देर चुप रहने के बाद अलाउद्दीन खिलजी ने फिर बोलना शुरू किया
उसने कहा अबरार मान लीजिए मैंने मेरे चाचा का कत्ल किया तो क्या मेरा शासन मेरे चाचा के शासन से खराब था अगर नहीं था तब भी इस कत्ल के इल्जाम से मुझे बरी किया जाना चाहिए क्योंकि किसी भी मुल्क को एक बेहतरीन बादशाह की जरूरत होती है । आप तारीख उठा कर के देख लें मैं अपने चाचा जलालुद्दीन खिलजी से कहीं बेहतर बादशाह रहा हूँ यानी कि उस वक्त मुल्क को आवाम को मेरे चाचा की नहीं मेरी जरूरत थी । अगर बादशाह सही ना हो तो उसे सत्ता से उतार देना चाहिए और सत्ता से न उतरे तो उसे मार देना चाहिए क्योंकि बादशाह का एक गलत फैसला पूरी आवाम को मुश्किल में डाल सकता है । मैं फिर कहूंगा मैंने मेरे चाचा का कत्ल नहीं किया ।
मैंने कहा चलिए मान लेता हूँ तुमने तुम्हारे चाचा का क़त्ल नहीं किया मगर क्या यह झूठ है कि तुमने गुजरात के राजा कर्ण बघेल की पत्नी छीन कर उससे निकाह कर लिया था ? क्या यह झूठ है कि तुमने रानी पद्मावती को जौहर करने पर मजबूर किया ? क्या यह झूठ है कि तुमने राजा रतन सिंह का कत्ल किया ?
खिलजी थोड़ा झुंझलाया और फिर उसने कहना शुरू किया अबरार साहब आप किस तरह के मुसलमान हैं मुझे नहीं पता मगर मैं मोहम्मद बिन कासिम, हिजाज बिन यूसुफ के नक्शे कदम पर चलने वाला मुसलमान हूँ । हाँ यह सही है कि मैंने बघेल की बीवी से निकाह करके उसे इज्जत बख्शी क्योंकि उसी बघेल ने अपने ही प्रधानमंत्री की पत्नी छीन कर उसे अपनी रखैल बना ली थी । बघेल बहुत ही अय्याश इंसान था गुजरात भर में जो लड़की उसे पसंद आती उसके साथ मुंह काला कर लेता था इसी बात से आहत होकर बघेल की पत्नी कमला ने मुझे खत लिखा । अल्लाह के नेक बंदे आज के हिजाज बिन यूसुफ मुझे इस दौर के शैतान दाहिर कर्ण से बचा लो गुजरात की लड़कियों को बचा लो हमारी जिंदगी यहाँ नर्क बनी हुई है हमें छुड़ा लो । इतना सुनना था कि मोहम्मद बिन कासिम की सूरत मेरी नज़र के सामने लहराने लगी । मुझे लगा मैं रोज़े महशर अल्लाह के सामने खड़ा हूँ और गुजरात से रानी कमलावती समेत सैकड़ों लड़कियाँ मेरी तरफ इशारा करके अल्लाह से कह रही हैं यही वह सुल्तान था जो मदद मांगने के बावजूद हमारी मदद को नहीं आया । उसी वक्त मैंने फैसला कर लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए सत्ता रहे या चली जाए मैं जिंदा वापस आऊं या ना आऊं मगर इन लड़कियों को रानी कमलावती को बघेल जैसे शैतान के चंगुल से छुड़ाने की पूरी कोशिश करूंगा और मैंने उन्हें छुड़ाया । गुजरात जीतने के बाद मैंने बंधक बनी तमाम लड़कियों को आजाद कराया उन लड़कियों की शादी करवाई, उसी सिलसिले में रानी कमलावती से मैंने निकाह किया उन्हें इज्जत बख्शी उन्हें अपना नाम दिया उन्हें हिंदुस्तान की मल्लिका बनाया । आपकी नजर में अपराध हो सकता है मेरी नजर में बहुत ही सवाब का काम था । कभी कमलावती मिलें तो उनसे पूछना वह मेरे साथ खुश थी़ या राजा बघेल के साथ खुश थीं ।
मगर अलाउद्दीन तुम इस बात को कैसे जस्टीफाई करोगे कि रानी पद्मावती के इश्क़ में तुम इतने पागल हुए कि पूरे चित्तौड़ की महिलाओं को जौहर करना पड़ा ।
इसके बाद अलाउद्दीन ने अपनी आस्तीन ऊपर चढ़ाई और अपनी बांह पर बंधी हुई एक ताबीज निकाली मेरे हाथ में पकड़ा दी । मैंने पूछा यह क्या है तो कहने लगा उसे खोलकर देखो मैंने जब उसे खोला तो उसमें से एक धागा बरामद हुआ । मैं कुछ नहीं समझा । मैंने मदद के लिए खुसरो की तरफ देखा खुसरो मंद मंद मुस्कुरा रहे थे तब अलाउद्दीन ने बोलना शुरू किया कि मैं किसी पद्मावती के इश्क़ में पागल होकर के चित्तौड़ पर धावा बोलने नहीं गया था । यही वह पवित्र धागा जिसे रक्षाबंधन कहा जाता है यही वह पवित्र धागा है जिसे बांधने के बाद भाई बहन के रिश्ते की मजबूत इमारत खड़ी हो जाती है, यही वह जगह है जिसे बांधने के बाद कोई भी मर्द अपनी बहन को तन्हा नहीं छोड़ सकता बल्कि उसके लिए दुनिया से लड़ सकता है । मेरा सर चकराया मैंने कहा इस धागे का तुम्हारे इश्क़ से क्या ताल्लुक है इस धागे का रानी पद्मावती से क्या ताल्लुक है चित्तौड़ से क्या ताल्लुक हैं ? तब अलाउद्दीन ने मुझे विस्तार से समझाया । अलाउद्दीन ने कहना शुरू किया कि रानी पद्मावती रतन सिंह की बीवी नहीं थी रतन सेन ने रानी पद्मावती का अपहरण कर रखा था । रानी पद्मावती की तरह हजारों और भी खूबसूरत लड़कियों को चित्तौड़ के किले में बंधक बना रखा था एक दिन मौका पाकर पद्मावती ने एक पुरोहित के हाथ मुझे एक रक्षासूत्र भेजा । मुझे मेरे अल्लाह का वास्ता देकर के कहा भाई इस बहन को बचा लो और फिर उसके बाद सैकड़ों रक्षा सूत्र और खत मुझे आते रहे । हर खत में पद्मावती अपने ऊपर हो रहे जुल्म की दास्तान लिखती वहां बंधक बनी तमाम लड़कियों की दास्तान लिखा करती थी जिन्हें पढ़कर मैं घंटों रोया करता था अल्लाह से उनके लिए दुआ करता था । और इस बीच मेरी कोशिश थी कि राजा रतनसेन बिना किसी लड़ाई झगड़े के किले में कैद पद्मावती सहित तमाम लड़कियों को आजाद कर दे इसके लिए मैं चित्तौड़ के किले में रतन सेन के पास खुद गया निहत्था गया अकेले गया ताकि दोस्ती कायम करूँ और फिर दोस्ती का हवाला देकर इन महिलाओं को आजाद करवा लूं । मगर कोई फायदा नहीं हुआ राजा रतन उसके दरबारी उसके सिपाही इन लड़कियों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे वह लड़ने पर आमादा थे । हालांकि उनके साथ राजपूताना से कोई राजपूत नहीं था राजपूताना का हर राजपूत रतन सेन की काली करतूत से वाकिफ था और उससे घृणा करता था । फिर जब मेरे पास कोई चारा नहीं बचा तब मैंने चित्तौड़ पर हमला किया राजा रतनसेन को मार गिराया । मगर जब रतनसेन को मारकर मैं किले के भीतर पहुंचा तब तक रतन सेन के सिपाही दरबारी पद्मावती समेत सारी महिलाओं को जिंदा जला चुके थे जिसका अफसोस मुझे आज भी है कि मैं उन लड़कियों को रानी पद्मावती को बचा नहीं पाया
आपको लगता है मैं चित्तौड़गढ़ अय्याशी करने गया था रेगिस्तान में खाक छानने गया था यह सरासर गलत है जिस तरह कूफियों के तमाम इसरार के बाद बहुत बुलावे के बाद दीन दुनिया के हवाले के बाद हज़रते हुसैन को कर्बला जाना पड़ा था शहीद होना पड़ा था उसी जज्बे के तहत और कुछ वैसे ही हालात में मुझे भी चित्तौड़गढ़ जाना पड़ा । मेरी आशिकी के किस्से सरासर झूठ हैं इनमें कोई सच्चाई नहीं है । अगर आपको सच्चाई पता करनी है तो भारत से बाहर निकलो चीन के इतिहासकारों को पढ़ो अरब के इतिहासकारों को पढ़ो यूरोप के इतिहासकारों को पढ़ो तब तुम्हें पता चलेगा कि उस दौर में मैं दुनिया का सबसे बड़ा बादशाह था । उस दौर में कोई ऐसी ताकत नहीं थी जो मुझे चुनौती देती उस दौर में मेरे मुल्क की सरहदें सबसे बड़ी थी उस दौर में मेरे मुल्क में सबसे ज्यादा अमन और शांति थी
उसके बाद मैंने पूछा कि फिर क्या वजह है यह करणी सेना वाले आपको और संजय लीला भंसाली को गालियां दे रहे हैं क्या यह सच में पद्मावती की वारिस हैं ? अलाउद्दीन ठठाकर हंसा उसने कहा करणी सेना वालों से कह दो कि अगर इन्हें रक्षा करनी है तो जो बेटियां जीवित हैं उनकी रक्षा करें जो मर गई उनके लिए नौटंकी करना छोड़ दें । और यह पद्मावती के वारिस नहीं हैं चित्तौड़ में शहीद होने वाली तमाम वीरांगनाओं के वारिस नहीं हैं क्योंकि जब चित्तौड़ में हम जंग जीत गए किले पर हमने कब्ज़ा कर लिया तो वहां जितने अनाथ बेसहारा घायल लोग थे उन सबका मैंने इलाज करवाया उनके रहने खाने पीने का बंदोबस्त किया जिससे मुतासिर होकर उन तमाम लोगों ने इस्लाम धर्म क़ुबूल लिया था । इस तरह से देखा जाए तो जो लोग चित्तौड़ में शहीद हुए थे उनके वारिस आज मुसलमान हैं यानी पद्मावती करणी सेना वालों की मां नहीं है वह तुम्हारी और तुम जैसे मुसलमानों की मां है, वहां जंग में मारे गए लोग उनके नहीं तुम्हारे पूर्वज हैं ।
मैंने आंख मीच कर खुसरो की तरफ देखा खुसरो ने सर हिलाकर अलाउद्दीन की बात की तस्दीक तब जाकर मैं मुतमईन हुआ । उसके बाद अमीर खुसरो ने अपनी कई रचनाएं मुझे गाकर सुनाई उन्होंने मुझसे जब कुछ सुनाने को कहा तो मैंने अपनी एक ग़ज़ल उन्हें सुना दी । खुसरो ने अजीब समूह बनाया बोले मियां माना कि तुम्हारी उर्दू बहुत मीठी जुबान है तुम्हारी उर्दू अभी बहुत जवान है मगर जो बात देशज भाषा में है वह किसी और भाषा में नहीं है । मैं फ़ारसी लिखकर पूरी दुनिया में मशहूर हो गया मगर हिंदुस्तान पाकिस्तान के लोग मुझे बिल्कुल न पहचानते अगर मैंने देशज भाषा में शायरी न की होती । उसके बाद मैंने खुसरो को बेकल उत्साही बलरामपुरी के लिखे कुछ गीत कुछ गजलें और कुछ दोहे सुनाएं तब जाकर खुसरो खुश हुए और झूम उठे जाते-जाते मुझसे कह गए अगर सच में आशिक मिजाज हो तो वसीम बरेलवी को पढ़ा करो उनको सुना करो
नोट – अगर आप मलिक मोहम्मद जायसी की काल्पनिक कविता पर आंख बंद करके भरोसा कर सकते हैं उससे अपनी आस्था जोड़ सकते हैं अगर आप संजय लीला भंसाली के इमैजिनेशन को इतिहास कह सकते हैं तो मेरे इस ख्वाब को इतिहास क्यों नहीं मान सकते ? आपको मदीने में ख़्वाब देखने वाले शैख साहब की झूठी कसम है आप मेरी इस पोस्ट को वायरल करें और सात दिन में चमत्कार देखें वरना आठवें दिन क्या होता है आप जानते होंगे ।