अयोध्या प्रसाद ‘भारती’
क्या अब भी कोई शक रह गया है कि भारत आजादी के बाद के सबसे खराब दौर से गुजर रहा है ? जहां गुंडों को खुली छूट है। अपने अपराधी बचाए जा रहे हैं, दूसरे निरपराध और भले लोग भी फंसाए और बदनाम किये जा रहे हैं। संचार, विचारों और ज्ञान के प्रसार के साधनों, कानून और और न्याय के संस्थानों पर संकीर्ण आरएसएस और काॅरपोरेट परस्त लोगों का कब्जा हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट अभी तक इससे बचा था, जस्टिस दीपक मिश्र के प्रधान न्यायाधीश बनने के बाद यह कमी भी पूरी हो गयी। यह बड़ा ही दुखद है कि सर्वोच्च न्यायालय के जजों को पब्लिक के बीच में आकर कहना पड़ा कि आला अदालत में मनमानी हो रही है और लोकतंत्र खतरे में है।
न्यायपालिका पर लिखना बड़ा रिस्की काम है। न्यायपालिका अपने काम-काज, व्यवहार की जरा सी भी आलोचना पसंद नहीं करती। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इसके काम-काज को लेकर सवाल उठने लगे हैं। उन जजों के साहस को सलाम जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट में चल रही मनमानी पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर और बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस में उसे जारी कर उजागर किया। यह अलग बात है कि यही वह जज थे जिन्होंने कलकत्ता हाईकोर्ट के न्यायाधीश कर्णन के खिलाफ सजा सुनाई थी। न्यायाधीश कर्णन ने सुप्रीम कोर्ट में व्याप्त भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया था।
चीफ जस्टिस के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट के 4 वरिष्ठ जजों द्वारा प्रेस कॉन्फ्रेंस किए जाने के बाद बताया जाता है कि इससे न्यायपालिका के साथ-साथ भाजपा में भी हलचल मच गई है। ऐसा होना स्वाभाविक है। जस्टिस चेलामेश्वर, जस्टिस रंजन गोगाई, जस्टिस मदन भीमराव और जस्टिस कुरियन जोसेफ पहली बार मीडिया के सामने आए और सुप्रीम कोर्ट के कामकाज पर सवाल उठाए। उच्चतम न्यायालय के कामकाज को लेकर चारों जजों ने जो चिट्ठी चीफ जस्टिस को भेजी थी, वह सार्वजनिक कर दी गई है। चिट्ठी के मुताबिक, इस कोर्ट ने कई ऐसे न्यायिक आदेश पारित किए हैं, जिनसे चीफ जस्टिस के कामकाज पर असर पड़ा, लेकिन जस्टिस डिलिवरी सिस्टम और हाई कोर्ट की स्वतंत्रता बुरी तरह प्रभावित हुई है।
चिट्ठी में आगे लिखा है कि सिद्धांत यही है कि चीफ जस्टिस के पास रोस्टर बनाने का अधिकार है। वह तय करते हैं कि कौन सा केस इस कोर्ट में कौन देखेगा। यह विशेषाधिकार इसलिए है, ताकि सुप्रीम कोर्ट का कामकाज सुचारू रूप से चल सके। लेकिन इससे चीफ जस्टिस को उनके साथी जजों पर कानूनी, तथ्यात्मक और उच्चाधिकार नहीं मिल जाता। इस देश के न्यायशास्त्र में यह स्पष्ट है कि चीफ जस्टिस अन्य जजों में पहले हैं, बाकियों से ज्यादा या कम नहीं।
चिट्ठी के मुताबिक इसी सिद्धांत के तहत इस देश की सभी अदालतों और सुप्रीम कोर्ट को उन मामलों पर संज्ञान नहीं लेना चाहिए, जिन्हें उपयुक्त बेंच द्वारा सुना जाना है। यह रोस्टर के मुताबिक तय होना चाहिए। जजों ने कहा हमें यह कहते हुए दुख हो रहा है कि इन नियमों का पालन नहीं किया जा रहा है। चिट्ठी में कहा गया कि ऐसे भी कई मामले हैं, जिनका देश के लिए खासा महत्व है। लेकिन, चीफ जस्टिस ने उन मामलों को तार्किक आधार पर देने की बजाय अपनी पसंद वाली बेंचों को सौंप दिया। इसे तुरंत रोके जाने की जरूरत है। जजों ने लिखा कि यहां हम उन मामलों का जिक्र इसलिए नहीं कर रहे हैं, ताकि संस्थान की प्रतिष्ठा को चोट न पहुंचे। लेकिन इस वजह से न्यायपालिका की छवि को नुकसान हो चुका है।
इस प्रकरण पर पूर्व वित्त मंत्री और भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा का स्टेंड काबिलेगौर है। उन्होंने कहा- सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ सार्वजनिक तौर पर आवाज उठाने वाले चारों जजों के साथ वह अडिग होकर खड़े हैं। उन्होंने कहा कि जजों की आलोचना करने के बजाय लोगों को उन मुद्दों पर मंथन करना चाहिए जो उन्होंने बताए है। यशवंत सिन्हा ने ट्वीट किया- सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों द्वारा की गई प्रेस कॉन्फ्रेंस निश्चित रूप से अभूतपूर्व थी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब राष्ट्रीय हित का दाव होता है तब व्यापार के सामान्य नियम लागू नहीं होते हैं।
एक और महत्वपूर्ण बात यह भी हुई कि कम्युनिस्ट पार्टी के नेता और तमिलनाडु से राज्यसभा सांसद डी राजा जस्टिस चेलामेश्वर के घर उनसे मुलाकात करने पहुंच गए। इस मुलाकात के बारे में जब उनसे मीडिया ने जानना चाहा तो उन्होंने कहा- चेलामेश्वर को लंबे समय से जानता हूं। जब मुझे पता चला कि उन्होंने अन्य जजों के साथ असाधारण कदम उठाया है, तो लगा कि उनसे जरूर मिलना चाहिए। मैं इसे सियासी रंग नहीं दे रहा हूं। इस बात पर सबको ध्यान देना चाहिए। यह देश के भविष्य और लोकतंत्र की बात है।
स्मरण रखें कि कुछ दिन पहले ही चीफ जस्टिस से वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण का विवाद हुआ था। भूषण उनकी मनमानी को लेकर परेशान थे। प्रशांत भूषण के पिता शांति भूषण सर्वोच्च न्यायालय में भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठा चुके हैं।
चार जजों के आरोपों से संकेत मिलता है कि तय नियमों के बजाए प्रधान न्यायाधीश कोर्ट का काम-काज अपनी मर्जी के हिसाब से चलाने का प्रयास कर रहे हैं। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और मनमानी का व्यवहार कोई पहली बार सामने नहीं आ रहा है। निचली अदालतों से लेकर उच्च अदालतों तक में यह प्रायः देखने को मिलता है। कभी-कभी बड़ा अजीब लगता है कि कई बार सामान्य मामलों में भी कोर्ट स्वतः संज्ञान लेकर मामले चलाता है तो कई बार गंभीर मामलों में याचिकाएं दाखिल होने पर भी बात नहीं सुनी जाती।
नोटबंदी से कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई थी जिसमें मांग की गई थी कि सहारा और बिरला की डायरियों में गुजरात के मुख्यमंत्री को दी गई रकम का जो जिक्र है उसकी जांच के आदेश सुप्रीम कोर्ट दे। यह अलग बात है कि इस मांग को शीर्ष अदालत ने नामंजूर कर दिया। लेकिन नोटबंदी के समय यह चर्चा खूब हुई कि न्यायालय कोई आदेश क्या पता दे ही दे इससे बड़ा धमाका देश भर में होगा, क्योंकि बात तब के गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से जुड़ी थी, इसलिए इससे पहले दूसरा धमाका कर दिया जाए, इसलिए आनन-फानन में नोटबंदी की गई। खैर… हकीकत तो मोदी ही जानते होंगे।
इधर पिछले करीब दो महीने से जस्टिस लोया की संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मौत, जो भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से जुड़ा एक मुकदमा देख रहे थे, की जांच पर सुप्रीम कोर्ट के रवैये पर कुछ चर्चा बाहर आई थी। तब से सुप्रीम कोर्ट में कुछ खदबदा रहा था। उपरोक्त चारों जजों का और भी कुछ दुख-दर्द रहा हो सकता है, लेकिन उन्होंने बहुत कुछ न बताते हुए कम शब्दों में ही यह इशारा कर दिया है कि शीर्ष अदालत में काम-काज में कोई भारी गड़बड़ है।
मामले पर कुछ लोग कह रहे हैं कि इन चार जजों को ऐसा नहीं करना चाहिए था, कोलेजियम में बात रखते, राष्ट्रपति के पास जाते, यह करते और वह करते। लेकिन जो किया वह न करते। भले लोगों सब जानते हैं कि जिस व्यवस्था के हम अंग होते हैं उसमें नीचे से ऊपर तक कोई नहीं सुनता। यह चारों जज भी कोई मामूली जज नहीं हैं। प्रेस कांफ्रेंस में इनके चेहरे पर जो दुख और हताशा दिख रही थी उससे यह साफ है कि वे जानते थे कि उनकी बात कहीं नहीं सुनी जानी है। इसलिए पब्लिक में बात रखना उनके लिए मजबूरी बन गया था। और उन्होंने सही किया। अंदर क्या चल रहा है अब इस पर बात होनी चाहिए। पब्लिक की मेहनत की कमाई से न्यायपालिका पर भी भारी-भरकम खर्च होता है इसलिए कहां क्या हो रहा है, जनता को पता होना चाहिए और व्यवस्थाएं दुरुस्त होनी चाहिए।
एक सामान्य, गरीब आदमी न्याय से काफी दूर है। कहने को कहते रहिए कि हर किसी को न्याय उपलब्ध है। करोड़ों केस यूं ही नहीं पेंडिंग पड़े हैं। जस्टिस दीपक मिश्र के प्रधान न्यायाधीश बनने से पहले ही यह बात पब्लिक में आ चुकी थी कि वे सत्ताधारी पार्टी के समर्थक हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि सत्ता के लोगों से जुड़े कुछ बड़े मामलों को वे प्रभावित करने का प्रयास कर रहे होंगे। ऐसा पहले भी होता रहा है, आखिर न्यायालय भी सरकार का ही एक विभाग है और जज भी औरों की तरह एक सामान्य मनुष्य। सत्ता का समर्थन या कोई लालच उसे भी प्रभावित करता होगा। कहा जा रहा है कि इससे लोगों में न्यायपालिका पर से भरोसा उठ गया है। अरे साहब, कोर्ट-कचहरियों के चक्कर लगाईये, प्रभावित लोगों के बीच रहिए, पता लगेगा, न्यायपालिका से भरोसा उठे जमाना गुजर गया।
इस प्रकरण से एक बात और साबित हो गयी, पहले कहा जाता था कि न्यायालय ही न्याय की आखिरी उम्मीद है। हालांकि हताश लोग फिर भी थक हार कर मीडिया के पास जाते थे। 12 जनवरी 2018 को यह साबित हो गया कि सर्वोच्च अदालत के लोगों को भी न्याय की आखिरी उम्मीद मीडिया में नजर आई। मजाक करने को यह भी कहा जा सकता है आजाद भारत के 70 सालों में यह भी पहली बार हुआ कि सर्वोच्च न्यायालय के जजों को सरकारी व्यवस्था से भरोसा उठ गया और उन्हें हताश होकर अपनी बात पब्लिक के सामने कहनी पड़ी। यह अलग बात है कि नरेंद्र मोदी और उनके भक्त इसको एक उपलब्धि के रूप में लेंगे कि नहीं। लेकिन जो गड़बड़ियां न्यायपालिका में हैं, इस प्रकरण से वे दुरुस्त होंगी, ऐसी हम उम्मीद हमें करनी चाहिए।
यूं कहा जा रहा है कि सरकार ने प्रकरण से पल्ला झाड़ लिया है। सरकार समर्थक भक्त प्रवक्ता टीवी और पब्लिक में चारों जजों के विरोध के तरीके को गलत बता रहे हैं। इससे यह संदेह तो पैदा हो ही रहा है कि सरकार का हित प्रभावित हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट की अंदरूनी कलह का कारण भी कुछ हद तक सरकार है। ऐसे में देश और दुनिया में पहले के तमाम प्रकरणों को लेकर भारत की जो साख गिरती आ रही है अब उसमें भारी इजाफा हो गया है। अमेरिकी कोर्ट वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के फैसले एक के बाद एक पलटते आ रहे हैं। वहीं पिछले एक साल से सुप्रीम कोर्ट पर गवर्नमेंट फ्रेंडली होने का आरोप लग रहा है। इसलिए वर्तमान प्रकरण से सरकार पर सवाल उठेंगे ही। अब देखना यह है कि सुप्रीम कोर्ट और सरकार न्यायपालिका में जनता का भरोसा कैसे लौटाते हैं।
Vikram Singh Chauhan1 hr · देखिएगा आज कैसे अंजना ओम कश्यप बोलेगी कि तोगड़िया ये इल्जाम खुद को बचाने के लिए लगा रहे हैं।रुबिका बोलेगी इसके पीछे हार्दिक पटेल का हाथ है ,वे ही मिलने गए थे।रोहित सरदाना बोलेगा कांग्रेस से हाथ मिला लिया है तोगड़िया ने,अरनब राहुल गांधी से जवाब मांगेगा। सुधीर चौधरी रात को तोगड़िया का डीएनए टेस्ट करेगा और बोलेगा तोगड़िया का डीएनए तो मोदी विरोधियों से मैच कर रहा है।मोदी को जबरन घसीटा जा रहा है।इस तरह से एक रात में मुद्दा खत्म। फिर किसी दिन किसी अनजान बीमारी से तोगड़िया भी खत्म।Vikram Singh Chauhan1 hr ·तोगड़िया का वर्तमान उन हिंदुओं का भविष्य है जो आज तलवार लेकर मुसलमानों को काटने निकल जाते हैं। हर हिन्दू के हाथ में त्रिशूल देने वाला तोगड़िया आज अपनी जान बचाने रो रहा है। न जाने कितने बेगुनाह मुस्लिम इनके फैलाये नफरत के शिकार बने हैं।एक इंसान होने के नाते किसी के रोने पर दया आती है,इस पर भी आ रही है।बुजुर्ग भी हो गए हैं।आज इनको पश्चाताप भी हो रही होगी कि जिंदगी भर मुसलमानों का डर बताता रहा पर जो मारने आदमी भेजा वो हिन्दू था। तोगड़िया डॉक्टर हैं अच्छे सर्जन भी हैं। इसी पेशा को अच्छे से करते गरीबों का इलाज करते तो आज इनकी पूजा होती।पर बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से होय। इससे थोड़ा सबक ले लो मेरे हिन्दू भाइयों।Vikram Singh Chauhan16 hrs · सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों के विरोध के बावजूद सीजेआई दीपक मिश्रा ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी मनमर्जी जारी रखा है। दीपक मिश्रा ने सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में चल रहे अहम मामलों की सुनवाई के लिए कॉन्स्टीटूशन बेंच का गठन किया है जिसमें खुद के अलावा जस्टिस एके सीकरी, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस अशोक भूषण को रखा है। वही विरोध करने वाले जस्टिस चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस एमबी लोकुर और जस्टिस जोसेफ कुरियन में से किसी को भी स्थान नहीं दिया गया है।जबकि वरिष्ठता में जस्टिस चेलमेश्वर और जस्टिस रंजन गोगोई इन जजों से ज्यादा वरिष्ठ हैं और कानून के जानकार होने के साथ कई बडे फैसले पूर्व में दे चुके हैं।कॉन्स्टीटूशन बेंच आधार एक्ट की संवैधानिक मान्यता के साथ क्रिमिनल केसों का सामना कर रहे लीडर्स के डिसक्वालिफिकेशन के मामले की भी सुनवाई करेगी जो कि बहुत ही महत्वपूर्ण है। अब यह बात बिल्कुल साफ हो चुकी है कि दीपक मिश्रा किसी व्यक्ति को फायदा पहुंचाने के उद्देश्य के साथ सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। जूनियर और अपने चहेते जजों को बडे केस और बेंच देकर वे एक तरह से कुछ मामलों में मनमाने फैसला करना चाहते हैं।चार जजों के प्रेस कांफ्रेंस में लोकतंत्र के प्रति की गई चिंता कायम हैं।संघ के प्यादे सुप्रीम कोर्ट में घुस आए हैं और लोकतंत्र को खतरा है।संवैधानिक बाध्यताओं के कारण वे जज रोज-रोज प्रेस में नहीं आ सकते।उनके उठाये मुद्दों पर हमें ही आवाज बुलंद करनी होगी।Vikram Singh Chauhan17 hrs · प्रवीण तोगड़िया हिंदुत्व का ओल्ड वर्जन था। इस वर्जन को अब सपोर्ट नहीं मिल रहा था।आलरेडी हिंदुत्व के कई अपग्रेडेड वर्जन मार्केट में छाए हुए हैं। उत्तरप्रदेश में लांच 2017 मॉडल तो सर्वाधिक चर्चा में हैं।वहीं 2014 में लांच मॉडल मार्केट लीडर हैं।इस वजह से ओल्ड वर्जन को बाजार से हमेशा के लिए हटा रहे हैं ओल्ड वर्जन को किसी भी डिवाइस में सपोर्ट भी नहीं मिल रहा है।Vikram Singh Chauhan19 hrs · हिंदुत्व के जितने भी रक्षक होते हैं वे नंगे,लुच्चे ,लफंगे और रेपिस्ट ही क्यों होते हैं।अब शंभूलाल को देखिए ये भी वही निकला। इस बदमाश को हिंदुत्व ने तब अपना हीरो बना लिया जब इसने गरीब मुसलमान मज़दूर को धोखे से मार दिया। मरने वाला चूंकि मुसलमान था इसलिए हिंदुत्व ने इसे अपना लिया और उसकी मदद का दौर शुरू हुआ।किसी ने इस हत्यारे के लिए पैसा मांगा, किसी ने भीड़ इकट्ठा कर राजसमंद कुच करने की बात कही। किसी भी हिंदुत्व के झंडाबरदारों ने एक बार भी अफराजुल के लिए संवेदना नहीं जताया। उसके परिवार के लिए संवेदना नहीं जताया। अब जब शंभूलाल की हक़ीक़त सामने आई है तो सब हिंदुत्व के शेर चूहे बनकर बिल में घुस गए हैं।हिंदुत्व का नाश हो सर्वनाश हो। ”——————————————————————————————सही कहा विक्रम ने , हिंदुत्व बहुत ही दुष्ट और कायर विचारधारा हे , हिन्दुओ या हिन्दू से कोई बैर नहीं हे बल्कि अमीर हिन्दू अगर समाजवाद के निर्माण में हमारी सहायता करे तो में तो ऑफर देता हु की कानून बनाकर भारत के हिन्दू बहुमत को सुरक्षित रखा जाएगा जरुरत पड़े तो हिन्दुओ के कन्वर्जन पर बेन लगवा देंगे
Ravish Kumar
3 hrs ·
अपनी शामों को मीडिया के खंडहर से निकाल लाइये….
21 नवंबर को कैरवान( carvan) पत्रिका ने जज बी एच लोया की मौत पर सवाल उठाने वाली रिपोर्ट छापी थी। उसके बाद से 14 जनवरी तक इस पत्रिका ने कुल दस रिपोर्ट छापे हैं। हर रिपोर्ट में संदर्भ है, दस्तावेज़ हैं और बयान हैं। जब पहली बार जज लोया की करीबी बहन ने सवाल उठाया था और वीडियो बयान जारी किया था तब सरकार की तरफ से बहादुर बनने वाले गोदी मीडिया चुप रह गया। जज लोया के दोस्त इसे सुनियोजित हत्या मान रहे हैं। अनुज लोया ने जब 2015 में जांच की मांग की थी और जान को ख़तरा बताया था तब गोदी मीडिया के एंकर सवाल पूछना या चीखना चिल्लाना भूल गए। वो जानते थे कि उस स्टोरी को हाथ लगाते तो हुज़ूर थाली से रोटी हटा लेते। आप एक दर्शक और पाठक के रूप में मीडिया के डर और दुस्साहस को ठीक से समझिए। यह एक दिन आपके जीवन को प्रभावित करने वाला है। साहस तो है ही नहीं इस मीडिया में। कैरवान पर सारी रिपोर्ट हिन्दी में है। 27 दिसंबर की रिपोर्ट पढ़ सकते हैं।
29 नवंबर 2017 को टाइम्स आफ इंडिया में ख़बर छपती है कि अनुज लोया ने बांबे हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस से मिलकर बताया था कि उसे अब किसी पर शक नहीं है। तब उसी दिन इन एंकरों को चीखना चिल्लाना चाहिए था मगर सब चुप रहे। क्योंकि चीखते चिल्लाते तब सवालों की बातें ताज़ा थीं। लोग उनके सवालों को पत्रिका के सवालों से मिलाने लगते। अब जब रिपोर्ट पुरानी हो चुकी है, अनुज लोया के बयान को लेकर चैनल हमलावार हो गए हैं। क्योंकि अब आपको याद नहीं है कि क्या क्या सवाल उठे थे।
मीडिया की यही रणनीति है। जब भी हुज़ूर को तक़लीफ़ वाली रिपोर्ट छपती है वह उस वक्त चुप हो जाता है। भूल जाता है। जैसे ही कोई ऐसी बात आती है जिससे रिपोर्ट कमज़ोर लगती है, लौट कर हमलावार हो जाता है। इस प्रक्रिया में आम आदमी कमजोर हो रहा है। गोदी मीडिया गुंडा मीडिया होता जा रहा है।
14 जनवरी को बयान जारी कर चले जाने के बाद गोदी मीडिया को हिम्मत आ गई है। वो अब उन सौ पचास लोगों को रगेद रहा है जो इस सवाल को उठा रहे थे जैसे वही सौ लोग इस देश का जनमत तय करते हों। इस प्रक्रिया में भी आप देखेंगे या पढ़ेंगे तो मीडिया यह नहीं बताएगा कि कैरवान ने अपनी दस रिपोर्ट के दौरान क्या सवाल उठाए। कम से कम गोदी मीडिया फिर से जज लोया की बहन का ही बयान चला देता ताकि पता तो चलता कि बुआ क्या कह रही थीं और भतीजा क्या कह रहा है।
क्यों किसी को जांच से डर लगता है? इसमें किसी एंकर की क्या दिलचस्पी हो सकती है? एक जज की मौत हुई है। सिर्फ एक पिता की नहीं। वैसे जांच का भी नतीजा आप जानते हैं इस मुल्क में क्या होता है।
अब अगर गोदी मीडिया सक्रिय हो ही गया है तो सोहराबुद्दीन मामले में आज के इंडियन एक्सप्रेस में दस नंबर पेज पर नीचे किसी कोने में ख़बर छपी है। जिस तरह लोया का मामला सुर्ख़ियों में हैं, उस हिसाब से इस ख़बर को पहले पन्ने पर जगह मिल सकती थी। सीबीआई ने सोमवार को बांबे हाईकोर्ट में कहा कि वह सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले में बरी किए गए तीन आई पी एस अफसरों के ख़िलाफ़ अपील नहीं करेगी। इसे लेकर गोदी मीडिया के एंकर आक्रामक अंग्रेज़ी वाले सवालों के साथ ट्विट कर सकते थे। वंज़ारा को नोटिस नहीं पहुंच रहा है क्योंकि उनका पता नहीं चल रहा है। अदालत ने सीबीआई से कहा है कि वंज़ारा को पता लगाएं। एंकर चीख चिल्ला सकते हैं। चाहें तो।
आपको क्यों लग रहा है कि आपके के साथ ऐसा नहीं होगा? क्या आपने विवेक के तमाम दरवाज़े बंद कर दिए हैं? क्या आप इसी भारत का सपना देखते हैं जिसका तिरंगा तो आसमान में लहराता दिखे मगर उसके नीचे उसका मीडिया सवालों से बेईमानी करता हुआ सर झुका ले। संस्थाएं ढहती हैं तो आम आदमी कमज़ोर होता है। आपके लिए इंसाफ़ का रास्ता लंबा हो जाता है और दरवाज़ा बंद हो जाता है।
आप सरकार को पसंद कर सकते हैं लेकिन क्या आपकी वफ़ादारी इस मीडिया से भी है, जो खड़े होकर तन कर सवाल नहीं पूछ सकता है। कम से कम तिरंगे का इतना तो मान रख लेता है कि हुज़ूर के सामने सीना ठोंक कर सलाम बज़ा देते। दुनिया देखती कि न्यूज़ एंकरों को सलामी देनी आती है। आपको पता है न कि सलाम सर झुका के भी किया जाता है और उस सलाम का क्या मतलब होता है? क्या आप भीतर से इतना खोखला भारत चाहेंगे? न्यूज़ एंकर सर झुकाकर, नज़रें चुरा कर सत्ता की सलामी बजा रहे हैं।
आईटी सेल वाले गाली देकर चले जाएंगे मगर उन्हें भी मेरी बात सोचने लायक लगेगी। मुझे पता है। जब सत्ता एक दिन उन्हें छोड़ देगी तो वो मेरी बातों को याद कर रोएंगे। लोकतंत्र तमाशा नहीं है कि रात को मजमा लगाकर फ़रमाइशी गीतों का कार्यक्रम सुन रहे हैं। भारत की शामों को इतना दाग़दार मत होने दीजिए। घर लौट कर जानने और समझने की शाम होती है न कि जयकारे की।
पत्रकारिता के सारे नियम ध्वस्त कर दिए गए हैं। जो हुज़ूर की गोद में हैं उनके लिए कोई नियम नहीं है। वे इस खंडहर में भी बादशाह की ज़िंदगी जी रहे हैं। खंडहर की दीवार पर कार से लेकर साबुन तक के विज्ञापन टंगे हैं। जीवन बीमा भी प्रायोजक है, उस मुर्दाघर का जहां पत्रकारिता की लाश रखी है।
आप इस खंडहर को सरकार समझ बैठे हैं। आपको लगता है कि हम सरकार का बचाव कर रहे हैं जबकि यह खंडहर मीडिया का है। इतना तो फ़र्क समझिए। आपकी आवाज़ न सुनाई दे इसलिए वो अपना वॉल्यूम बढ़ा देते हैं।
जो इस खंडहर में कुछ कर रहे हैं, उन पर उन्हीं ध्वस्त नियमों के पत्थर उठा कर मारे जा रहे हैं। इस खंडहर में चलना मुश्किल होता जा रहा है। नियमों का इतना असंतुलन है कि आप हुज़ूर का लोटा उठाकर ही दिशा के लिए जा सकते हैं वरना उनके लठैत घेर कर मार देंगे। इस खंडहर में कब कौन सा पत्थर पांव में चुभता है, कब कौन सा पत्थर सर पर गिरता है, हिसाब करना मुश्किल हो गया है।Ravish Kumar
Ravish Kumar28 mins · बकवास और बोगस मुद्दा है लाभ के पद का मामला
हर सरकार तय करती है कि लाभ का पद क्या होगा, इसके लिए वह कानून बनाकर पास करती है। इस तरह बहुत से पद जो लाभ से भी ज़्यादा प्रभावशाली हैं, वे लाभ के पद से बाहर हैं।
लाभ के पद की कल्पना की गई थी कि सत्ता पक्ष या विपक्ष के विधायक सरकार से स्वतंत्र रहें। क्या वाक़ई होते हैं? बात इतनी थी कि मंत्रियों के अलावा विधायक कार्यपालिका का काम न करें, सदन के लिए उपलब्ध रहें और जनता की आवाज़ उठाएं। आप अगर पता करेंगे कि किस राज्य की विधानसभाएं 100 दिन की भी बैठक करती हैं तो शर्म आने लगेगी। सदन चलते नहीं और लाभ के पद के नाम पर आदर्श विधायक की कल्पना करने की मूर्खता भारतीय मीडिया में ही चल सकता है।
जब ऐसा है तो फिर व्हीप क्यों है, क्यों व्हीप जारी कर विधायकों को सरकार के हिसाब से वोट करने के लिए कहा जाता है। व्हीप तो खुद में लाभ का पद है। किसी सरकार में दम है क्या कि व्हीप हटा दे। व्हीप का पालन न करने पर सदस्यता चली जाती है। बक़ायदा सदन में चीफ़ व्हीप होता है ताकि वह विधायकों या सांसदों को सरकार के हिसाब से वोट के लिए हांक सके।अगर इतनी सी बात समझ आती है तो फिर आप देख सकेंगे कि चुनाव आयोग या कोई भी दिल्ली पर फालतू में चुनाव थोप रहा है जिसके लिए लाखों या करोड़ों फूंके जाएंगे। मीडिया ने इन सब बातों को नहीं बताया, लगे भाई लोग सर्वे कर रिजल्ट ही बताने कि चुनाव होगा तो क्या होगा।
संविधान में लाभ का पद परिभाषित नहीं है। इसकी कल्पना ही नहीं है। इसका मतलब है जो पद लाभ के पद के दायरे में रखे गए हैं वे वाकई लाभ के पद नहीं हैं क्योंकि लाभ के पद तो कानून बनाकर सूची से निकाल दिया जाता है! लोकतंत्र में टाइम बर्बाद करने का गेम समझे आप?
अदालती आदेश भी लाभ के पद को लेकर एक जैसे नहीं हैं। उनमें निरंतरता नहीं है। बहुत से राज्यों में हुआ है कि लाभ का पद दिया गया है। कोर्ट ने उनकी नियुक्ति को अवैध ठहराया है,उसके बाद राज्य ने कानून बना कर उसे लाभ का पद से बाहर कर दिया है और अदालत ने भी माना है। फिर दिल्ली में क्यों नहीं माना जा रहा है?
कई राज्यों में retrospective effect यानी बैक डेट से पदों को लाभ के पद को सूची से बाहर किया गया। संविधान में प्रावधान है कि सिर्फ क्रिमिनल कानून को छोड़ कर बाकी मामलों में बैक डेट से छूट देने के कानून बनाए जा सकते हैं। फोटो क्लियर हुआ ?
कांता कथुरिया, राजस्थान के कांग्रेस विधायक थे। लाभ के पद पर नियुक्ति हुई। हाईकोर्ट ने अवैध ठहरा दिया। राज्य सरकार कानून ले आई, उस पद को लाभ के पद से बाहर कर दिया। तब तक सुप्रीम कोर्ट में अपील हो गई, सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार भी कर लिया। विधायक की सदस्यता नहीं गई। ऐसे अनेक केस हैं।
2006 में शीला दीक्षित ने 19 विधायकों को संसदीय सचिव बनाया। लाभ के पद का मामला आया तो कानू न बनाकर 14 पदों को लाभ के पद की सूची से बाहर कर दिया। केजरीवाल ने भी यही किया। शीला के विधेयक को राष्ट्रपति को मंज़ूरी मिल गई, केजरीवाल के विधेयक को मंज़ूरी नहीं दी गई।
मार्च 2015 में दिल्ली में 21 विधायक संसदीय सचिव नियुक्त किए जाते हैं। जून 2015 में छत्तीसगढ़ में भी 11 विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त किया जाता है। इनकी भी नियुक्ति हाईकोर्ट से अवैध ठहराई जा चुकी है, जैसे दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली के विधायकों की नियुक्ति को अवैध ठहरा दिया।
छत्तीसगढ़ के विधायकों के मामले में कोई फैसला क्यों नहीं, क्यों चर्चा क्यों नहीं। जबकि दोनों मामले एक ही समय के हैं। आपने कोई बहस देखी? कभी देखेंगे भी नहीं क्योंकि चुनाव आयोग भी अब मोहल्ले की राजनीति में इस्तमाल होने लगा है। सदस्यों को अपना लाभ चाहिए, इसलिए ये आयोग के बहाने लाभ के पद की पोलिटिक्स हो रही है।
मई 2015 में रमन सिंह सरकार ने 11 विधायकों को संसदीय सचिव बना दिया। इसके बारे में किसी को कुछ पता नहीं है। न्यू इंडियन एक्सप्रेस में 1 अगस्त 2017 को ख़बर छपी है कि छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने सभी संसदीय सचिवों की नियुक्ति रद्द कर दी है क्योंकि इनकी नियुक्ति राज्यपाल के दस्तख़त से नहीं हुई है। दिल्ली में भी यही कहा गया था।
हरियाणा में भी लाभ के पद का मामला आया। खट्टर सरकार में ही। पांच विधायक पचास हज़ार वेतन और लाख रुपये से अधिक भत्ता लेते रहे। पंजाब हरियाणा कोर्ट ने इनकी नियुक्ति अवैध ठहरा दी। पर इनकी सदस्यता तो नहीं गई।
राजस्थान में भी दस विधायकों के संसदीय सचिव बनाए जाने का मामला चल ही रहा है। पिछले साल 17 नवंबर को हाईकोर्ट ने वहां के मुख्य सचिव को नोटिस भेजा है। इन्हें तो राज्य मंत्री का दर्जा दिया गया है।
मध्य प्रदेश में भी लाभ के पद का मामला चल रहा है। वहां तो 118 विधायकों पर लाभ के पद लेने का आरोप है। 20 विधायक के लिए इतनी जल्दी और 118 विधायकों के बारे में कोई फ़ैसला नहीं? 118 विधायकों के बारे में ख़बर पिछले साल 27 जून 2017 के टेलिग्राफ और टाइम्स आफ इंडिया में छपी थी कि 9 मंत्री आफिस आफ प्रोफिट के दायरे में आते हैं।
2016 में अरुणाचल प्रदेश में जोड़ तोड़ से बीजेपी की सरकार बनती है। सितंबर 2016 में मुख्यमंत्री प्रेमा खांडू 26 विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त कर देते हैं। उसके बाद अगले साल मई 2017 में 5 और विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त कर देते हैं।
अरुणाचल प्रदेश में 31 संसदीय सचिव हैं। वह भी तो छोटा राज्य है। वहां भी तो कोटा होगा कि कितने मंत्री होंगे। फिर 31 विधायकों को संसदीय सचिव क्यों बनाया गया? क्या लाभ का पद नहीं है? क्या किसी टीवी चैनल ने बताया आपको? क्या अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री ने अपराध किया है, भ्रष्टाचार किया है?
क्या 31 संसदीय सचिव होने चाहिए? क्या 21 संसदीय सचिव होने चाहिए? जो भी जवाब होगा, उसका पैमाना तो एक ही होगा या अलग अलग होगा। अरविंद केजरीवाल की आलोचना हो रही है कि 21 विधायकों को संसदीय सचिव क्यों बनाया? मुझे भी लगता है कि उन्हें नहीं बनाना चाहिए था। पर क्या कोई अपराध हुआ है, नैतिक या आदर्श या संवैधानिक पैमाने से?
केजरीवाल अगर आदर्श की राजनीति कर रहे हैं, इसलिए उन्हें 21 विधायकों को संसदीय सचिव नहीं बनाना चाहिए था तो फिर बाकी मुख्यमंत्री आदर्श की राजनीति नहीं कर रहे हैं? क्या वो मौज करने के लिए मुख्यमंत्री बने हैं और लालच देने के लिए संसदीय सचिव का पद बांट रहे हैं?
इसलिए लाभ के पद का मामला बकवास है। इसके ज़रिए दिल्ली पर एक फालतू का मसला थोपा गया है। अव्वल तो इस व्यवस्था और इससे होने वाले कानूनी झंझटों को ही हमेशा के लिए समाप्त कर देना चाहिए।
आपकी संस्थाओं का तमाशा उड़ रहा है। आंखें खोल कर देखिए। टीवी चैनलों के भरोसे देश को मत छोड़िए। पता करते रहिए। देखते रहिए। आप किसी की साइड लें मगर तथ्य तो देखें। यह भी तो देखें कि चुनाव आयोग किसी का टाइपिस्ट तो नहीं बन रहा है।
नोट- यह लेख काफी मेहनत से हिन्दी के पाठकों के लिए तैयार किया है ताकि कम समय में उन्हें सब पता चले। वरना टीवी चैनल और रद्दी अखबार उन्हें अंधेरे कुएं में धकेल देंगे। जान लीजिए फिर चाहे जिसकी मर्ज़ी साइड लीजिए। अगर आपने मूर्ख बने रहने की कसम खा ली है तो फिर कुछ नहीं किया जा सकता लेकिन ये मैंने बहुत मेहनत से तैयार की है और वो भी निशुल्क है। फ्री। हिन्दी माध्यम के परीक्षार्थियों आपके लिए पूरा नोट्स है ये। फोटो कापी करके रख लीजिएNitin Thakur
1 hr ·
आम आदमी पार्टी ने 21 विधायकों को मुख्य संसदीय सचिव बनाया तो उसे गैर संवैधानिक माना गया। ज़ाहिर है संविधान के खिलाफ नियुक्ति साबित होने के बाद उन्हें हटना ही था और वो हटे भी, लेकिन मुख्य चुनाव आयुक्त ए के ज्योति (जो गुजरात में मोदी जी के सीएम रहने पर उनके मुख्य सचिव भी थे) ने सोमवार को होनेवाले रिटायरमेंट से पहले जिस तेज़ी के साथ विधायकों की सदस्यता खत्म करने की सिफारिश की वो हैरान करता है। हरियाणा में 4 बीजेपी विधायकों का मामला हूबहू यही था लेकिन वो विधायक बने रहे। सदस्यता पर कोई आंच नहीं आई। ठीक इसी तरह 18 अकाली-बीजेपी विधायकों के साथ भी पंजाब में ऐसा ही वाकया पेश आया मगर किसी की सदस्यता रद्द करने की सिफारिश नहीं हुई। उन्होंने अपने पांच साल आराम से बिताए। वीरभद्र की सरकार में हिमाचल प्रदेश में 9 मुख्य संसदीय सचिव थे। मामला शिमला हाईकोर्ट में पहुंचा मगर जब तक कुछ होता तब तक तो कार्यकाल ही खत्म हो गया और नए चुनाव आ गए। वैसे चुनाव आयोग ने उस मामले में कुछ करने की शुरूआत भी नहीं की थी।
आखिर चुनाव आयोग का ये खास रिश्ता केजरीवाल की पार्टी से ही क्यों है? जब इसी अपराध की सज़ा किसी और को नहीं दी गई तो फिर आम आदमी पार्टी को ही क्यों चुना गया? चुन चुन कर वार करेंगे और फिर सवाल उठेंगे तो कहेंगे कि आपका भरोसा सिस्टम में नहीं है। अब ये भी ध्यान रखिएगा कि सोमवार को रिटायर होनेवाले ज्योति जी किस काम में लगाए जाएंगे।
See Translation
https://www.livehindustan.com/national/story-15-year-old-boy-main-executioner-of-kathua-rape-1903517.html खासकर हिंदी सोशल मिडिया पर कई सारे संघी शैतान बैठे हुए हे तिवारी हो गया चिप हो गया कई झा हे एक साला आई एस का साला हे भाई बहन दोनों खतरनाक हे बहन भी कासगंज पर अफवाहे फैला रही थी मराठी रिटायर्ड टकला राक्षस हे लड़की का भेष धरने वाला रविश का पडोसी हे ढेर सारे अधेड़ और गधेड हे जो भाजपा के लिए लौंडे फांसते हे इस तरह के लौंडे लपाड़े ही इनका आसान शिकार बनते हे लड़का पहले से ही झगड़ालू था सिगरेट शराब पीता था लड़किया छेड़ता था यानि जिंदगी से परेशान था कुंठित ऊर्जा से भरा था ऐसे ही लौंडो पर इन संघी सोशल मिडिया के भाजपाई और संघी अधेड़ो और गधेड़ो की नज़र रहती हे ये इन कुंठित लौंडो को भाजपा संघ के लिए फांसते हे अपने फ़र्ज़ी राष्ट्रवाद और हिंदुत्व का सोमरस पिलाकर इन जिंदगी से परेशान लौंडो में खास होने का नशा पैदा करते हे की अरे हिंदुत्व और देश खतरे में हे और तुम ज़ाहिल लौंडे ही इन्हे बचा लेने वाले सैनिक हो कोई c ——– नहीं हो तुम जैसा सब और तुम खुद भी हमे पढ़ने से पहले खुद को समझते थे ये अधेड़ खुद बेहद कायर हे और भाजपा से माल और अपने बच्चो के लिए बढ़िया कैरियर चाहते हे मगर इन लौंडो से हिंसा चाहते हे