संजय शरमन जोठे
दुनिया भर का इतिहास देख लीजिये, जब भी व्यापक पैमाने पर सभ्यतागत या नैतिक उत्थान या पतन हुआ है तो वो धर्मों के बदलाव से जुडा हुआ है. इस्लाम पूर्व काल का बर्बर समाज इस्लाम के आने के साथ सामाजिक, नैतिक रूप से एकदम से उंचाई छूने लगता है. उनकी सामाजिक राजनैतिक शक्ति दुनिया का नक्शा बदल डालती है. उनका वैचारिक और दार्शनिक फलक भी अचानक से विस्तार लेने लगता है.यूरोप में जीसस के साथ केथोलिक इसाई धर्म के साथ पूरे यूरोप की सामाजिक नैतिक चेतना एक छलांग लेती है. बाद में मार्टिन लूथर प्रोटेस्टेंट इसाइयत की धारा बनाते हैं और यूरोप में पुनर्जागरण की शुरुआत होती है. आज का यूरोप अमेरिका और शेष दुनिया में छा गयी विज्ञान, दर्शन, कला, साहित्य, संस्कृति और सभ्यता की चमक इसी पुनर्जागरण से आई है.
चीन कोरिया और जापान का इतिहास भी बौद्ध धर्म से जुडा हुआ है. कन्फ्युशियास और ताओ को छोड़कर बौद्ध धर्म में प्रवश करते ही उन्होंने अपने समाज और राष्ट्र को एक नयी उंचाई पर पंहुचा दिया था. इसके बाद उनमे गजब के बदलाव हुए थे. उनके वैचारिक और दार्शनिक बदलाव बौद्ध धर्म से जुड़े हुए हैं.
भारत के बर्बर और बलि-आहुति-यज्ञवादी प्राचीन कबीलाई धर्म से बौद्ध धर्म में प्रवेश करते ही प्राचीन भारत में एक सामाजिक नैतिक क्रान्ति होती है. बौद्ध काल का भारत ही वास्तव में वो भारत है जिसे पूरी दुनिया इतिहास और पुरातत्व में सम्मान से देखती है.
बौद्ध धर्म पर इस्लामिक और ब्राह्मणी आक्रमण के बाद भारत में बौद्ध धर्म के पतन के साथ ही भारत का सामाजिक और नैतिक पतन भी होता है. इसी सामाजिक, नैतिक और दार्शनिक पतन की स्थिति में भारत हजार साल तक बार बार गुलाम हुआ. भारत का वैचारिक, दार्शनिक और सभ्यतागत पतन असल में किसी अन्धविश्वासी और शोषक धर्म के हावी हो जाने की घटना से जुडा हुआ है, वो पतन अचानक कहीं आसमान से नहीं टपका है.इस शोषक धर्म के खिलाफ और लगातार हो रहे वैचारिक, सामाजिक, सभ्यतागत और नैतिक पतन को रोकने के लिए अब अंबेडकर भारत को नवयान बौद्ध धर्म देकर गये हैं. ये भारत के लिए मार्टिन लूथर भूमिका है.जो मित्र भारत में दलितों बहुजनों को बौद्ध धर्म में जाने की पहल को व्यर्थ की कवायद मानते हैं वे पहले अरब, यूरोप, दक्षिण एशिया, और खुद भारत में हुई सांस्कृतिक, सामाजिक नैतिक क्रांतियों का इतिहास पढ़ें.
सभी देशों समाजों में सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक क्रान्ति एक नए धर्म के साथ आरंभ होती है. पुरानी अस्मिता और पुराने धर्म को छोड़े बिना कहीं भी बदलाव नहीं होता. हो भी नहीं सकता. पुरानी अस्मिताओ को छोड़ने का व्यापक कार्यक्रम ही धर्म बदलना है.व्यक्तिगत रूप से भी जब आप तरक्की करते हैं या स्वयं में बदलाव लाते हैं या सेल्फ इम्प्रूवमेंट करते हैं तो इस सेल्फ इम्प्रूवमेंट का अनिवार्य अर्थ पुराने सेल्फ से डिस्कनेक्ट करना ही होता है. पर्सनालिटी डेवलपमेंट के सिद्धांत भी इसी पर आधारित हैं.इसलिए अंबेडकर का दिया हुआ बौद्ध धर्म भारत के दलितों बहुजनों के लिए ही नहीं बल्कि पूरे भारत के सभ्य और समर्थ होने की दिशा में सबसे बड़ी देन है. भारत बुद्ध को अपनाएगा तो सभ्य और समर्थ होगा.
इसे अपने घर की दीवारों पर लिख कर रख लीजिये.बौद्ध धर्म अपनाने के बाद भारत के दलित बहुजनों में बहुत तेजी से बदलाव होते हैं। ये बात सैकड़ों अनुसंधानों से सिध्द हो चुकी है। महाराष्ट्र और दक्षिण भारत सहित उत्तर प्रदेश में जो रिसर्च हुई हैं उन सबमे साफ जाहिर होता है कि ऊपर ऊपर ही नहीं बल्कि बहुत बुनियाद में बदलाव हो रहे हैं।
पहला सबसे बड़ा बदलाव ये हो रहा है कि बौद्ध धर्म अपनाते ही उनकी अपनी जातीय और धार्मिक पहचान से जुड़ी हीन भावना खत्म होने लगती है। वे पहली बार खुद को एक इंसान समझते हैं।दुसरीं बात ये कि उनके घरों से व्यर्थ के देवी देवता और शास्त्र बाहर निकल जाते हैं। धीरे धीरे ब्राह्मणवादी कर्मकांड जैसे मृत्युभोज, श्राध्द, दहेज इत्यादि जैसे असभ्य और खर्चीले व्यवहार बन्द होने से उनके घर मे धन बचने लगता है।तीसरा ये कि काल्पनिक भगवानों और उनकी कार्टून कथाओं से बच्चे आजाद हो जाते हैं। वे जिंदगी को सीधे और वैज्ञानिक ढंग से देखते हैं और उनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित होने लगता है। बच्चो में शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ने लगती है।चौथा ये कि वे नए रोजगार की तलाश करते हुए शिक्षा, प्रबन्धन, कौशल और तकनीक से जुड़े कई प्रयोग करने लगते हैं, इससे उनमे नया बल और स्पष्टता जन्म लेती है।पांचवा ये कि उनमे एक नई सामाजिक और राजनीतिक चेतना जन्म लेती है जो उनमे आपस में सहयोग और सोशल नेटवर्किंग को बढ़ाती है। अब इसका एक अखिल भारतीय स्वरूप भी बन चुका है। इसका वैश्विक नेटवर्क भी पहले से ही मौजूद है।छठवां ये कि भारत के बौध्द अपनी प्रेरणाओं के लिए अरब या इटली पर निर्भर नहीं होते। बूद्ध और बौद्ध धर्म विशुद्ध भारतीय है। ये हमारा धर्म है। हम इसे आगे बढ़ाएंगे। इस कारण किसी दूर बैठे पोप या खलीफा से मार्गदर्शन नहीं लेना है। हमारे बूद्ध और अंबेडकर हमारे बीच मे बैठे हैं।
सातवां ये कि बूद्ध को मानने वाले कई देश हैं। आधे से ज्यादा एशिया सदियों से बुद्धमय हुआ बैठा है पश्चिमी देशों के बौद्धिक वर्ग में भी बुध्द का व्यापक प्रभाव है। वो समीकरण भी भारत को मदद करते हैं और आगे भी करेंगे।
ऐसे और सैकड़ो बिंदु हैं जो रिसर्च से निकलकर आये हैं।अब भारत के ओबीसी, दलीतों, आदिवासियों को इकट्ठे होकर एक देशव्यापी आंदोलन छेड़ देना है। बूद्ध के धर्म मे जाति, वर्ण और भेदभाव की कोई जगह नहीं है। जो बुराइयां पुराने अभ्यास की तरह गन्दी आदतों की तरह चली आती है उनका भी इलाज किया जा रहा है।
भारत के प्रबुद्ध और सभ्य होने का एकमात्र मार्ग बौद्ध धर्म से होकर गुजरता है। इस बात को पूरे भारत मे फैलाइए, ये बहुत बड़ा मिशन है और सभी बहुजनों पर एक बड़ी जिम्मेदारी है। अन्धविश्वास छोड़ें, बौद्ध आचार व्यवहार को खुद अपनाएं और दूसरों को प्रेरित करें। शरुआत अंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाओं से करें।
एक सीनियर जर्मन प्रोफेसर ने अपने बीस साल के भारत में काम के अनुभव से बताया कि भारत के विश्वविद्यालयों कालेजों और रिसर्च संस्थानों में उन्हें हजारों लोग मिले जो बौद्ध धर्म अपना लेना चाहते हैं, लेकिन कोई संस्थागत ढांचा ही नहीं है इसे अमल में लाने का …
कौन सा बौद्ध धर्म अपनाना चाहिए मियामार बाला भारत बाला या चाइना बाला लेखक महोदय हर भारतीय अपने धर्म मे मस्त है अपने मन ही दर्भावना को निकाल फेंको सब धर्म अच्छे है या सब बुरे है। इंसान धर्म की अच्छाइयों को लेता है या बुराइयों को बो इंसान के ऊपर है गलत तुम जैसे लोग है जो अपने धर्म को श्रेष्ठ और दूसरे धर्मों में कमिया निकलते
डॉ. सुनीलम्
जिग्नेश की जीत बड़गांव के उन मतदाताओं की जीत है, जिन्होंने देश के प्रधानमंत्री पर विश्वास करने के बजाय एक नए ऊर्जावान युवा संघर्षवादी, सिद्धान्तवादी पर विश्वास किया। जो लोग बड़गांव में नहीं गए उनको यह समझाना मुश्किल है कि भाजपा ने क्या-क्या षडयंत्र रचे। अगर कोई इसे केवल दलित, मुस्लिम, ठाकुर समीकरण की जीत बतलाता है तो मेरी सहमति नहीं होगी।
मैंने देखा कि जिग्नेश हर सभा में हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात करते थे। उनके शब्दों में वे हर जगह कैंची चलाते हैं, मैं जोड़ूंगा, आप सिलाई मशीन पर मुझे वोट दें।
जिस दिन जिग्नेश के लिए कांग्रेस ने सीट छोड़ने की घोषणा की थी, पूरे क्षेत्र के मतदाताओं ने उन्हें हाथोहाथ लिया था। जिस तरह उनकी सभाओं में समाज के हर तबके के हर उम्र के मतदाता उमड़ते थे, उसको देखकर मैंने 15 दिन पहले ही पोस्ट लिख दिया था जीत पक्की होने के बारे में। ”बड़गांव के मतदाताओं को विशेष तौर पर इसलिए बधाई कि उन्होंने देश को एक नया नेता दिया है, जो 50 किलोमीटर दूर बड़नगर से नेता बने मोदीजी से दो-दो हाथ करेगा”, जिग्नेश ने सभा में यही कहा था।
दो बार विधायक रहने के कारण यह कह सकता हूं कि उन्होंने आज के बाद समय की दृष्टि से पहली प्राथमिकता बड़गांव को देनी होगी। उनके समर्थक पूरे देश में हैं। वे चाहेंगे कि वे राष्ट्रीय स्तर पर समय दें। दोनों के बीच संतुलन बनाना होगा। बड़गांव में अपना संगठन खड़ा करना होगा। जिन तबकों का उन्हें प्रतिनिधि माना जा रहा है, उससे आगे बढ़कर बड़गांव के हर नागरिक का प्रतिनिधित्व करना होगा। आम मतदाताओं को उपलब्ध होना उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी।
कांग्रेस ने सीट छोडी तभी जिग्नेश विधायक बन सके, यह राहुल गांधी के स्तर पर लिया गया बड़ा नीतिगत फैसला था। इसके पीछे की सोच थी कि जो कुछ जमीन पर कांग्रेस से छूट गया, जिनकी आवाज़ कांग्रेस नहीं बन सकी, जिन्होंने इन मुद्दों पर संघर्ष किया, उनको जगह छोडी जाए। राहुल गांधी की इस सोच के अच्छे नतीजे आए हैं।
जिग्नेश का चुनाव कई स्तरों पर लड़ा गया। देश भर के साथियों से जेएनयू के पूर्व अध्यक्ष मोहित पांडेय जी ने संपर्क किया। लगभग हर राज्य के जनांदोलनों के साथी नैतिक समर्थन देने, प्रचार करने गांव-गांव घूमे। खेडउत नेता सागर राबरी के साथ पूरी युवा टीम दिन रात भिड़ी रही। सबसे घिनौनी भूमिका बीएसपी की रही जिसने पूरी दम और संसाधन लगाकर जिग्नेश पर निचले स्तर पर उतरकर व्यक्तिगत हमला बोला।
विस्तार से फिर कभी लिखूंगा।देश को एक नया सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय के लिए एकसाथ संघर्ष करने वाला जनसंघर्षों का नेता मुबारक।
हार्दिक पटेल, अल्पेश और जिग्नेश तीन युवाओं ने मोदी जी की चूलें हिला दीं। काश, तीनों एक साथ आकर नया विकल्प दे पाते तब गुजरात की राजनीति को नई दिशा मिल सकती थी। दलित आंदोलन को एक ऐसा नया चेहरा मिला है जिसको लेकर वह नई ऊंचाइयों को छू सकता है।
डॉ. सुनीलम————————————-Premkumar Maniएक दलितवादी मित्र ने जिग्नेश की जीत पर दलितों को सावधान किया है कि वह मूलतः मार्क्सवादी हैं . उसी टिप्पणी पर दिया गया जवाब —
आंबेडकर मार्क्सवाद विरोधी नहीं थे . दोनों के सोच की पृष्ठभूमि समान थी . मार्क्स और आंबेडकर दोनों का चिंतन इंग्लैंड में पार्लियामेंट के विकास ,अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम और फ़्रांस की राज्य क्रांति से प्रभावित है . मार्क्स के अर्थ -विज्ञान को भी आंबेडकर स्वीकार करते हैं . भारत सहित अन्य पूर्वी क्षेत्रों की राजनीतिक निरंकुशता ,जिसे ओरिएण्टल डिस्पोटिस्म कहते हैं , को मार्क्स ने वास्तविक अर्थों में समझा था और कहा था कि इसका कारण उत्पादन की सरल प्रणाली और भारतीय ग्रामीण संस्कृति है . इसे भारत में कम्युनिस्टों से अधिक आंबेडकर ने समझा था . यही कारण था कि वह पंचायती राज व्यवस्था के समर्थक नहीं थे . आंबेडकर का समय मार्क्स से आगे का है .कुछ अंतर स्वाभाविक है . जैसे आंबेडकर शासन प्रणाली में सर्वहारा की तानाशाही की जगह लोकतंत्र के हिमायती हैं . आंबेडकर भारतीय चिंतन परम्परा , खासकर श्रमण -बौद्ध परम्परा , से मनुष्य की व्यक्तिगत गरिमा और अस्मिता के प्रश्न को लेते है और उसे आधुनिक सामाजिक -राजनैतिक चिंतन का हिस्सा बना देते हैं . यह उनका मौलिक योगदान है . दलित ,स्त्री और श्रमिक आंबेडकर की दिलचस्पी व चिंतन के क्षेत्र हैं .इन्हे वह आधुनिक सामाजिक -राजनैतिक जीवन के केंद्र में तबतक रखना चाहते है ,जबतक ये हाशिये से निकलकर मुख्यधारा में न आ जाएँ . अब कुछ दलित ऐसे हैं जो आंबेडकर को दलित घेरे से निकालने के विरुद्ध हैं . वह उन्हें संविधान निर्माता और आरक्षणदाता तक सीमित रखना चाहते हैं . ऐसे लोगों को ही मार्क्स और आंबेडकर में द्वैत दिखता है . दरअसल यह आंबेडकर का खापीकरण है .
-Premkumar Mani
Sanjay Shraman Jothe
Yesterday at 06:15 ·
मानव इतिहास की महान विदुषी एरियल ड्यूरेंट जब अपने पति विल ड्यूरेंट के साथ मिलकर विश्व इतिहास और सभ्यता सहित दर्शन के विकास का अत्यंत विस्तृत लेखा जोखा लिख रही थीं, उसी दौर में बर्ट्रेंड रसल भी दर्शन का इतिहास लिख रहे थे. फ्रायड मनोविज्ञान के रहस्य खोल रहे थे, फ्रेडरिक नीत्शे मूल्यों को और ईश्वर को चुनौती दे रहे थे, लुडविन वित्गिस्तीन पूरे तर्कशास्त्र को ही नया रूप दे रहे थे, डार्विन इसी समय में क्रमविकास की खोज करते हुए इंसान की उत्पत्ति और विकास की पूरी समझ ही बदल डाल रहे थे, हीगल के प्रवाह में मार्क्स और एंगेल्स पूरे इतिहास और मानव समाज के काम करने के ढंग को एकदम वैज्ञानिक दृष्टि से समझा रहे थे. आइन्स्टीन, मेक्स प्लांक, नील्स बोर और श्रोडीन्जर अपनी अजूबी प्रतिभा से क्लासिकल न्यूटोनियन फिजिक्स और यूक्लिडीयन जियोमेट्री सहित भौतिकशास्त्र की पूरी समझ को एक नए स्तर पर ले जा रहे थे.
उस समय भारतीय चिन्तक क्या कर रहे थे?
उन्नीसवी सदी के आरंभ से बीसवीं सदी के अंत तक भारतीय पंडित पश्चिमी विद्वानों से शर्मिन्दा होते हुए या तो अन्टार्कटिका में अपने पूर्वजों की खोज कर रहे थे या फिर फर्जी राष्ट्रवाद के लिए गणेश-उत्सव का कर्मकांड रच रहे थे. बंगाल के कुछ चिंतक इसाइयत की कापी करके नियो-वेदांत की और मिशनरी स्टाइल समाज सेवा की रचना कर रहे थे, अपने ब्रिटिश आर्य बंधुओं के “आर्य-आक्रमण” को अपने लिए वरदान मानते हुए भरत मिलाप सिद्ध कर रहे थे और पश्चिमी स्त्री की स्वतन्त्रता से शर्माते हुए सती प्रथा से पिंड छुडाने के लिए पहला सभ्य प्रयास कर रहे थे. इसी दौर के दुसरे संस्कारी पंडित जन भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्री फुले पर गोबर और पत्थर फेंक रहे थे, ज्योतिबा फूले के बालिका स्कूल और विधवा आश्रम को बंद कराने के लिए सब तरह के षड्यंत्र कर रहे थे, अंबेडकर को पढने लिखने से रोकने की सनातनी चाल चल रहे थे, कुछ चिन्तक-योगी नीत्शे और डार्विन की खिचड़ी बनाकर अतिमानस और पूर्ण-योग की रचना कर रहे थे.
आजादी के बाद हमारे महानुभाव फिलहाल क्या कर रहे हैं?
एक महर्षि बीस मिनट के ध्यान से हवा में उड़ने की तकनीक सिखा रहे थे. एक योगानन्द जी क्रियायोग के बीस बरस के अभ्यास से बीस करोड़ सालों का क्रमविकास सिद्ध करने का दावा कर रहे थे. एक महात्मा जी बकरी के दूध और उपवास का महात्म्य समझा रहे हैं. कुछ महान दार्शनिक अपने ही शिष्य की थीसिस चुराकर शिक्षक दिवस पर लड्डू बाँटने का इन्तेजाम कर रहे थे.एक रजिस्टर्ड भगवान पश्चिमी मनोवैज्ञानिकों जैसे फ्रायड जुंग और विल्हेम रेख की जूठन की भेल पूरी बनाकर बुद्ध और कबीर के मुंह में वेदान्त ठूंस रहे थे. इस षड्यंत्र से वे जोरबा-द-बुद्धा की रचना करके अभी अभी गए हैं. हाल ही में एक बाबाजी हरी लाल चटनी और रसगुल्ले खिलाकर किरपा बरसा रहे हैं. एक अन्य महाराज जमुना का उद्धार कर ही चुके हैं और एक गुरूजी देश भर की नदियों को बचाने के लिए सडकों की ख़ाक छानकर फिलहाल सुस्ता रहे हैं, जल्द ही किसी नए अभियान पे निकलेंगे. वहीं एक अन्य बाबाजी दुनिया के सबसे प्रदूषित शहर में प्राणायाम का विश्वरिकार्ड बनाकर च्यवनप्राश बाँट रहे हैं, व्यवस्था परिवर्तन और क्रान्ति से शुरुआत करके आजकल दन्तकान्ति, केशकान्ति बेच रहे हैं.
नतीजा सामने है.पश्चिम में वे नई सभ्यता और नैतिकता सहित ज्ञान विज्ञान साहित्य, कला दर्शन, फेशन, फिल्मों, कपडे लत्ते, चिकित्सा, भोजन, भाषा, संस्कृति और हर जरुरी चीज का विकास और निर्यात कर रहे हैं और हम सबकुछ आयात करते हुए, खरीदते हुए जहालत के रिकार्ड तोड़ते हुए गोबर के ढेर में धंसते जा रहे हैं.
– संजय जोठे Sanjay Shraman Jothe is with Bhanwar Meghwanshi.
28 mins ·
जिग्नेश की सफलता बहुत कुछ बताती है, ठोस विचारधारा और मुद्दों से जुडी राजनीति के प्रति युवाओं और आम जन में जागरूकता बढ़ रही है. ये इस देश के लिए अच्छा संकेत है.
सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि अब भारत की दलित, मुस्लिम और ओबीसी जनता राजनीतिक, धार्मिक, सांप्रदायिक, आर्थिक और यहाँ तक कि भाषा और भोजन जैसे मुद्दों पर भी राजनीतिक रूप से तटस्थ नहीं रह सकती. हाल की सांप्रदायिक ताकतों ने भगवान् से लेकर भोजन तक को जिस तरह से राजनीतिक हथकंडे की तरह इस्तेमाल किया है उससे उन्हें तात्कालिक लाभ जरुर हुआ है लेकिन दूरगामी ढंग से ये उन्ही को सत्ता और समाज से बाहर भी निकालेगा.
इसका एक विशेष कारण है.
सदियों से भारत के गरीब मजदूर, शिल्पी, किसान (ओबीसी) और अछूत (दलित) और स्त्रीयां राजनीतिक रूप से तटस्थ रहे हैं. उनमे राजनीतिक चेतना का अभाव रहा है. “को नृप होऊ हमें का हानि” भारत की ओबीसी और दलित जनता का मूल चरित्र रहा है. लेकिन पिछले कुछ दशकों मे साम्प्रदायिक और जातीय अस्मिता की राजनीति ने बड़े से लेकर छोटे मुद्दे से जुडी राजनीतिक तटस्थता की संभावना को खत्म कर दिया है.
अब भोजन की थाली में क्या है और धर्मस्थल के शिखर पर कलश है या गुम्बद है – ये दो ध्रुवीय छोर और इनके बीच आने वाला हर छोटा बड़ा मुद्दा अब राजनीतिक निर्णय या चुनाव प्रचार और रणनीति से जुड़ चुका है. एक ख़ास अर्थ में इसका मतलब है कि अब कोई भी समूह, वर्ग, जाति, संप्रदाय अब राजनीतिक रूप से अनिर्णय की स्थिति में नहीं रह सकेगा. यह बीजेपी द्वारा इस देश को दिया गया एक महत्वपूर्ण तोहफा है. इसके लिए उन्हें धन्यवाद दिया जाना चाहिए. गलती से ही सही उन्होंने भारतीयों की राजनीतिक चेतना में एक अच्छा और निर्णायक बदलाव कर दिया है.
कांग्रेस अब तक परदे के पीछे से चुपचाप जो खेल खेलती आई है उसे बीजेपी ने ढोल नगाड़े के साथ गली गली में पहुंचा दिया है. कांग्रेस की घाघ सर्वोदयी बुद्धि ने भारतीय ओबीसी, मुसलमानों और दलितों में राजनीतिक चेतना की आग के उभार को साठ साल तक बड़ी खूबसूरती से रोके रखा था उसे बीजेपी ने महज पांच साल में ही देसी गाय का घी डालकर भडका दिया है.
अब हर मुद्दे के राजनीतिक इम्प्लिकेशन जाहिर हो रहे हैं, भोजन की थाली से लेकर कपडे और पाकिस्तान चीन से विदेशनीति और व्यापार तक स्थानीय राजनीति से जोड़े जा चुके हैं. ऐसे में भारत की ओबीसी मुस्लिम और दलित जनता धीरे धीरे ठोस सामाजिक आर्थिक और धार्मिक मुद्दों पर जागरूक एवं लामबंद हो सकेगी. अब एक मुर्गा एक बोतल से वोट तय नहीं होगा बल्कि अब आम आदमी भी सवाल पूछेगा. अगले कुछ वर्षों में इससे भारतीय लोकतंत्र समृद्ध और मजबूत होगा.
ऐसे में जो युवा साथी दमितों, पिछड़ों, मजदूरों और स्त्रीयों के मुद्दों को किन्हीं ठोस एवं इतिहास-सिद्ध विचारधाराओ के रुझान के साथ उठाएंगे उन्हें सफलता मिलेगी और उनकी सफलता में इस देश के सफल होने की संभावना बढ़ेगी. अभी तक बिकती आयी दलित और ओबीसी राजनीति के लिए यह एक बड़ा सबक है. इसे एक निर्णायक बदलाव की शुरुआत की तरह देखा जाना चाहिए.
राजनीतिक चेतना के उभार की इस प्रक्रिया के समानांतर अब अंबेडकर, मार्क्स, गांधी और लोहिया की विचारधाराओं को एकसाथ अपनी अपनी विशिष्टताओं की घोषणा करते हुए नए स्वतंत्र और साझे विकल्प देने होंगे और आपस में साझा सहमती और असहमति के बिन्दुओं की पहचान करते हुए कुछ न्यूनतम साझा पहल की रणनीति बना लेनी होगी. इस दिशा में पहल हो भी रही है ये अच्छा संकेत है.
Ajay Yadav
12 hrs ·
#ललुआ
इस देश में तीन यादव हैं…लालू, मुलायम और शरद यादव…आपको कौन सा यादव पसंद है?
यही सवाल किया गया था मुझसे, एक साक्षात्कार में, पत्रकार बनने के लिए। सही जवाब (उनके लिए) तो होता कि मैं बोल देता- इनमें कोई नहीं! लेकिन मैंने बोला- शरद यादव। जानते हैं क्यों? उसकी वजह थी ‘ललुआ’ और ‘मुलायमा’ से ‘सवर्णों की नफरत’।
देश के दूसरे लोगों की तरह मैं भी मानता हूं कि दुनियां का सबसे खूबसूरत देश है भारत। जितनी भाषाएँ, जितने धर्म और जितने तरह की संस्कृतियां भारत में रची-बसी हैँ, उतना किसी एक देश में नहीं। किसी धर्म में जितनी तरह की धाराएं हैं, वे सभी किसी भी एक देश में मौजूद नहीं हैं, लेकिन भारत में हैं। यहां तक कि एक दूसरे को गैरइस्लामिक बताती इस्लाम की सभी धाराएं भी। विविधता ही इस देश की आत्मा है और जिस दिन इस विविधता को मार दिया जाएगा, ये देश मर जायेगा। 1990 में मुलायम सिंह ने इसी भारत को बचाने की कोशिश की थी, जब राममंदिर के नाम पर ‘भारतद्रोहियों’ ने भारत के इतिहास से बदला लेने की कोशिश की, ‘मुलयमा’ पीछे नहीं हटा, 16 ‘भारतद्रोही’ मारे गए, उस वक्त भारतीय इतिहास की एक कहानी कहती बाबरी मस्जिद ढहने से बच गई।
वहीं इस घटना के ठीक पहले बिहार में ‘ललुआ’ ने लालकृष्ण आडवाणी ‘जी’ की रथयात्रा रोक दी थी और हप्ते भर आडवाणी ‘जी’ को समस्तीपुर के एक घर में कैद कर दिया। ये वो ‘ललुआ’ था जो दलित महिलाओं को अपने साइकिल के कैरियर पर बिठाकर सरकारी दफ्तर लोन दिलवाने ले जाता था, ताकि सदियों से महरूम दलित भी अपनी भैंस खरीद सकें। ताकि सवर्ण अच्छी तरह समझ जाएं कि सरकारी दफ्तर उनका आंगन नहीं है। अब आप बताइए ऐसे ‘ललुआ’ और ‘मुलयमा’ को पसंद करना मेरे पत्रकारिता में चयन का ठीक उत्तर बन सकता था? इस पसंद से कम से कम मैं ऐसा पत्रकार तो नहीं ही बन सकता था, जो भविष्य में ‘ललुआ’ और उसके बेटे तेजस्वी पर अपनी माइक से हमला कर सके।
मैंने बचपन में देखा था कि किसी भी चुनाव में जब दलित पोलिंग बूथ पर मतदान करने जाते थे, उनके वोट पहले ही मारे जा चुके होते थे। गैरदलित उनपर हंसते थे और दलित निराश अपने घरों में लौट आते थे। तब उत्तर प्रदेश में मायावती की पार्टी 8-10 सीटें ही जीतती थी, लेकिन जब कांशीराम के कहने पर सपा-बसपा का गठबंधन हुआ तो चमार और अहीर के बीच की एक दीवार भी गिरी। यह एक सामाजिक गठजोड़ भी बना। दलितों ने झूमकर बेधड़क मतदान किया और पहली बार पता चला कि कितना वोट दलितों का है और यह सामाजिक गठजोड़ करने वाला भी वो ‘मुलयमा’ था, जिनकी धोती के नीचे तब खाकी निक्कर झांकती नहीं थी।
लेकिन वहीं ‘ललुआ’ आज भी लगातार दलितों, पिछड़ों और अकलियत के गठजोड़ की वकालत कर रहा था, उस गठजोड़ की जिसे सबसे ज्यादा नुकसान बाद के दिनों में मायावती और मुलायम ने ही पहुंचाया। ‘ललुआ’ चीख चीख कर कह रहा था कि ‘भारतद्रोहियों’ से देश को बचाना है तो अखिलेश और माया को मिलना ही होगा। वही ‘ललुआ’ जब मायावती ने राज्यसभा से इस्तीफा दिया तो अपनी पार्टी का कोटा लेकर मायावती के लिए खड़ा हो गया…भ्रष्टाचार के झंझावात में घेरे और घिर जाने के बाद भी…
वही ‘ललुआ’ आज जेल चला गया…चलो अच्छा हुआ, ‘भ्रष्ट’ होने की सज़ा तो मिलनी ही चाहिए…
लेकिन…
जो लोग ‘शम्बूक’ के ‘वध’ करने वाले राम’ को ‘भगवान’ और ‘एकलब्य’ के अंगूठा काटने वाले को ‘गुरु’ कहते हैं, उन्हें लालू को ‘भ्रष्ट’ कहते हुए जरा भी शर्म नही आती?…Ajay Yadav
21 December at 20:23 ·
एक फ़िल्म है ‘चिल्ड्रेन ऑफ हेवन’… ईरानी फ़िल्म है। इस फ़िल्म में दिखाया गया है कि एक बच्चे को स्कूल जाने के लिए जूते की जरूरत है और उसके देश में एक ऐसी दौड़ का आयोजन किया गया है, जिसमें दूसरा स्थान हासिल करने वाले बच्चे को इनाम के बतौर जूते मिलने वाले हैं…तो ऐसे में कैसे किसी बच्चे (इंसान) के लिए चैंपियन होने से ज़्यादा दूसरे स्थान पर बने रहना चुनौतीपूर्ण बन जाता है…
एक ऐसा बच्चा…जिसकी एक छोटी बहन भी है…दोनों स्कूल पढ़ने जाते हैं, लेकिन घर में एक ही जूता है। उस जूते को पहनकर पहले बहन स्कूल जाती है, लेकिन जिस वक्त बहन के स्कूल की छुट्टी होती है, वहीं वक़्त भाई के स्कूल जाने का होता है। भाई के स्कूल छूटने के ख्याल से बहन घर के रास्ते भागते हुये आती है और रास्ते में इंतजार कर रहा भाई फिर उसी जूते को पहनकर भागते हुए स्कूल जाता है…भाई-बहन की ये रोज की दिनचर्या होती है… दिखाया गया है कि किस तरह उस भाई-बहन के लिए ये पढ़ने से ज्यादा…रोज-रोज गरीबी को दौड़कर ढकने की कहानी बन जाती है…
इसी क्रम में भाई एक दिन अपनी बहन को खुशखबरी सुनाता है। बताता है कि स्कूली दौड़ का एक ऐसा आयोजन होने वाला है, जिसमें दूसरे स्थान पाने वाले को जूते इनाम में मिलेंगे…दोनों भाई-बहन नये जूते के ख्याल से खुश हो जाते हैं…
और एक दिन वह भी आता है जब भाई उस दौड़ में शामिल होता है…लेकिन वह दौड़ उस भाई के लिए इतनी बड़ी चुनौती बन जाती है कि जब वह अपनी रफ्तार तेज करता तो चैंपियन बनने का खतरा पैदा हो जाता था और जब वह अपनी रफ्तार धीमा करता तो उसका पीछा कर रहे लड़के उससे आगे निकल जाते। इसी कश्मकश में न चाहते हुए वह बच्चा चैंपियन बन जाता है…दुनियाँ अपने इस चैंपियन को सिर पर उठा लेती है, लेकिन यह चैंपियन आंखों में आंसुओं का समंदर लिए सिर्फ जूते निहारता रह जाता है…
…और उसी जूते को आजकल उत्तरप्रदेश के स्कूली बच्चे भी निहार रहे हैं…क्योंकि सन्यास मार्ग से सत्ता पर काबिज एक योगी के राज में एक ऐसा मौखिक फरमान आया है, जिसमें नौनिहालों के काबिल-नाकाबिल होने की परिभाषा तय कर दी गई है…यूपी के सरकारी स्कूलों में 40-50 फीसदी बच्चों को ही जूते बांटे जा रहे हैं, लेकिन जो बच्चे पढ़ने में कमजोर हैं, उन्हें नंगे पैर रहने की सज़ा दी जा रही है।
मेरी दोस्त Mamta Singh जो कि पेशे से स्कूल टीचर हैं, वे बताती हैं कि कैसे उनका एक छात्र, जो विकलांग है और पढ़ने में कमजोर भी…जूता न पाकर भीतर से टूट गया होगा…और कैसे आधे से अधिक बच्चों को जूता नहीं बांटकर वे भीतर से टूट गईं हैं..
Himanshu Narayan
21 December at 20:39 ·
अभिशप्त बिहार……
आज के बिहार बन्द ने सबसे पहले तो यह याद दिला दिया कि लालू जी की राजनीति जिस प्रकार की थी वैसी ही है और आगे भी रहेगी जबकि वक्त बदल चुका है और उनके दोनों बेटे आगे बढ़कर पार्टी की कमान हाथ में लगभग ले चुके हैं । भविष्य में भी कानून सम्मत, शांति प्रिय व्यवस्था की उम्मीद राजद से करना बेवकूफी ही होगी ।
ज्यादा आश्चर्य है नीतीश सरकार के कार्य कलापों पर….. समझ के बाहर है कि सरकार कर क्या रही है । लोग विशेषकर, गरीब भूखों मरने पर मजबूर हैं और यह उन्हें बातों में घुमाने में लगी है । लंबे समय से यह समस्या बनी हुई है लेकिन नीतीश सरकार इस गम्भीर मसले को सुलझाने में सफल नहीं हो पाई है ।
बिहार में उद्द्योग धंधा के नाम पर वास्तविकता में कुछ है नहीं और यह स्थिति नब्बे के दशक के लालू राज से चली आ रही है । ले दे कर गृह निर्माण उद्द्योग चल रहा है क्योंकि जनसंख्या बढ़ती जाती है और सर पर छत अत्यावश्यक है । लालू राज में पहले अपार्टमेंट्स के निर्माण में अप्रत्याशित वृद्धि हुई थी क्योंकि कानून व्यवस्था की हालत ऐसी हो गयी थी कि अकेले घर बना कर रहने की कोई कल्पना नहीं करता था । घर बनना शुरू हुआ नहीं कि रंगदारी टैक्स की मांग शुरू हो जाती थी ।
इसी सरकार में कुछ वर्ष पहले भेद खुला था कि नक्शा में आर्किटेक्टों द्वारा गलत तरीके से भवन बनाये गए थे और इस व्यवस्था को ठीक करने के लिए वर्षों लग गए जिसकी वजह से निर्माण कार्य लंबे समय तक बन्द रहा और अब यह बालू के नाम पर निर्माण कार्यों में रुकावट । यह वो उद्द्योग है जिसमें मजदूर वर्ग की अधिकता होती है और इसके रुकने का मतलब है लाखों गरीब परिवारों के सामने कमाने-खाने के लाले पड़ने ।
मेरी अपनी समझ है कि नीतीश जी मुख्यतः इस बात पर ही अपना सारा फोकस बनाये रहते हैं कि किस प्रकार वो लालू जी को समुचित जबाब दे कर, उन्हें कमजोर करते हुए खुद को सही ठहरायें । बोलें या नहीं, अंदर से वो भी जानते हैं कि उनका पहले भाजपा से अलग होना और एक बार फिर से वो ही चाल चलते हुए लालू जी से अलग हो कर भाजपा के साथ सरकार बनाने को आमजन ने स्वीकार नहीं किया है, उन्हें एक नीतिगत राजनीतिज्ञ के रूप में मानने को तैयार नहीं है ।
लालू जी को कमजोर बनाने के चक्कर में पहले नीतीश सरकार ने उनसे जुड़े उन लोगों पर कार्रवाई की जो सरकार की नजर में शराब के धंधे में थे और अब चूकि नीतीश जी की जानकारी के अनुसार लालू जी के लोग बालू खनन के क्षेत्र में भी ज्यादा हैं तो बालू खनन पर ही रोक लगा दिया । नीतीश जी दीवाल पर लिखी इबादत को पढ़ने में बिल्कुल फेल हुए हैं कि एक तरफ जहां शराबबंदी ने माफियाओं को पैदा किया है, घर घर शराब पहुंच रहा है तो दूसरी तरफ निर्माण उद्द्योग पर रोक लगा कर पता नहीं कितने घरों को चूल्हा बन्द रखने को मजबूर किया गया है ।
यह प्रश्न भी लाजिमी है कि पूर्व जानकारी के बाद भी सरकार क्या करती रही कि लोगों की मौत तक इस बिहार बन्द की वजह से हुई….. मौत का मुआवजा पैसा नहीं हो सकता मुख्यमंन्त्री जी, काश आपकी सरकार इतनी असंवेदनशील नहीं हुई होती । आवास, स्वास्थ्य और शिक्षा ये प्राथमिक आवश्यकताएं होती हैं और इन तीनों विषयों पर नीतीश सरकार बुरी तरह से फेल हुई है ।Himanshu Narayan————————————Hemant Kumar Jhaलालू प्रसाद जैसों की मुश्किल यह रही कि राजनीति करनी है, पार्टी चलानी है और इन सब के लिये पैसा चाहिये।
पैसा चाहिये, क्योंकि सामना कांग्रेस और भाजपा जैसी खुर्राट पार्टियों से है, जिन्हें न जाने कहाँ कहाँ से, न जाने किन किन रास्तों से, न जाने कितने कितने पैसे आते हैं कि उनका हारने वाला उम्मीदवार भी चुनाव में अकूत पैसा खर्च करने के बावजूद एक बैलेंस बचा लेता है और महंगी गाड़ियों पर फुर्र फुर्र उड़ता रहता है।
लालू बिहार के नेता रहे हैं, बिहार में राज करते रहे हैं। कॉरपोरेट को यहां से अधिक लेना देना कभी नहीं रहा। कॉरपोरेट फंडिंग का मामला ऐसा है कि करोड़ों-अरबों के वारे-न्यारे हो जाते हैं और किसी को कोई सबूत नहीं मिलता। कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियां इसका लाभ उठाती रही हैं और भ्रष्टाचार के लिये उस लालू या मायावती को कोसती रही हैं जिन्हें विवशता है कि फंड उगाही के लिये उनके पास अधिक विकल्प नहीं।
चारा घोटाला के बारे में कहा जाता है कि इसका सिलसिला 1977 से ही चल रहा था। 1990 में लालू के सत्ता में आने के बाद इसने और जोर पकड़ा। क्यों…?
क्योंकि लालू शातिर नहीं थे। पिछड़ा उभार की लहर पर सवार एक ऐसे राजनेता थे जो मुख्यमंत्री कम, राजा अधिक बनता जा रहा था। जो चैता सुना कर झुमा देने वाले को विधान परिषद भेज देता था और किसी पर मन खुश हो गया तो उसे राज्यसभा भेज देता था। सदियों की कुंठा से मुक्त होता लालू का समर्थक अपार जनसमूह अपने नेता की इन राजानुमा उदारताओं पर न्योछावर होता था।
पहले से चल रहे चारा घोटाले के षड्यंत्रकारियों ने लालू की इस कमजोरी को भांपा और उन्हें अपने मनोवैज्ञानिक शिकंजे में लेना शुरू किया। आर के राणा जैसे लालू के करीबियों ने उन्हें गलत रास्ते पर ले जाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी।
सत्ता पर पकड़ जब मजबूत होती है, विरोधी जब कमजोर लगते हैं तो सत्तासीन लोगों की दूरदृष्टि कमजोर होने लगती है। लालू के साथ भी ऐसा ही हुआ। उन्हें यह भ्रम हो गया कि समोसे में आलू की तरह वे बिहार के लिये अपरिहार्य हैं। इस भ्रम में उन्होंने समय और राजनीति की नजाकत को समझने में भूल की और सबूत पर सबूत छोड़ते गए।
मीडिया, नौकरशाही और एकेडमिक क्षेत्र में सवर्णों के एकछत्र प्रभुत्व को जिस अंदाज में लालू ने चुनौती दी वैसा उदाहरण दूसरा नहीं मिलता। लेकिन, सिर्फ चुनौती दी। वे गढ़ों और मठों को तोड़ पाते, इसके पहले वे स्वयं की राजनीति के अंतर्विरोधों के शिकार होने लगे। उनके अनेक मदमस्त सहयोगियों ने उनके राज को गुंडाराज में तब्दील करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सरकारी ठेकों और लाभ के पदों पर किसी एक जाति का प्रभुत्व पिछड़ों की एकता को तोड़ने में सहायक सिद्ध हुआ और भाजपा ने इस अवसर को नीतीश कुमार के रूप में लपक लिया। नीतीश कुमार ने अति पिछडों के कुंठित मनोविज्ञान को सहला कर पिछड़ा एकता की हवा निकाल दी।
चारा घोटाला सिर्फ बीसवीं शताब्दी का ही नहीं, इस कलियुग के सबसे बड़े घोटाले के रूप में चर्चित और प्रचारित हुआ। न जाने कितने जोक्स बने, न जाने कितनी तुकबन्दियाँ की गईं। लालू जिस जाति से आते हैं वह मूलतः पशुपालक समाज है और चारा उसका एक महत्वपूर्ण कंपोनेंट है। यह समीकरण जोक्स आदि के निर्माण में लोगों की कल्पनाशीलता को ऊंची उड़ान देने में सहायक सिद्ध हुआ।
मीडिया, नौकरशाही, एकेडेमिक्स आदि में सवर्णों के जिस प्रभुत्व को लालू ने आधुनिक इतिहास में गंभीरतम चुनौती दी थी, वे सबके सब एकजुट होकर चारा घोटाला के बहाने लालू पर टूट पड़े। अभिमन्यु की तरह लालू ऐसे चक्रव्यूह में घिरते गए, जिससे बाहर निकलने का रास्ता उन्हें नहीं पता था। न्यायपालिका की जातीय संरचना ने उनकी मुसीबतों को और अधिक बढाया जब सीबीआई का कोई अधिकारी किसी जज से परामर्श कर सेना की सहायता का ताना बाना बुनने लग गया। यह संविधान और प्रोटोकॉल का गम्भीरतम उल्लंघन था, लेकिन किसी ‘जंगल राज’ को मिटते देखने के उत्साह में भद्रलोक ने इस उल्लंघन को न सिर्फ नजरअंदाज किया, बल्कि इसके समर्थन में तर्क गढ़े। कायदे से उस पुलिस अधिकारी को तत्काल निलंबित कर इस जांच प्रक्रिया से अलग कर देना चाहिये था, लेकिन उसे हीरो बनाने की हर संभव कोशिश की गई। उस पुलिसिये का दलित होना लालू के विरुद्ध चक्रव्यूह रचने वालों के लिये एक अतिरिक्त नैतिक हथियार था। उस दौरान वह अधिकारी कविताएं भी लिखता था और उन कविताओं में “परम शक्तिशाली राजा” से एक अदने पुलिसिये की भिड़ंत को साहित्यिक धरातल पर नैतिक आभामण्डल देता था। उन बेहद साधारण कविताओं को, जिनका कोई साहित्यिक महत्व नहीं था, उस समय के बड़े बड़े संपादक अपने अखबारों में छापते थे और राजनीतिक धरातल पर लालू से मात खाया वर्ग बड़े उत्साह और चाव से उन्हें पढ़ता था।
उस पुलिस अधिकारी को लालू के खिलाफ हदों से पार जाने का साहस और अवसर इसलिये मिला कि तत्कालीन प्रधानमंत्री देवगौड़ा और बाद में गुजराल ने लालू को कमजोर करने के लिये उसे पर्याप्त छूट दी। यह उस दौर के किंग मेकर लालू के साथ किंग का सरासर धोखा था। राजनीतिक स्तरों पर भी, व्यक्तिगत स्तरों पर भी। धोखा लालू के राजनीतिक जीवन का एक महत्वपूर्ण अध्याय रहा है और इस मामले में जितना वे शिकार रहे हैं, उतना शायद ही कोई और बड़ा राजनेता रहा हो।
जब तक लालू युग पुरुष बन कर बिहार की सीमाओं के पार देश भर के दबे कुचलों के नायक बन पाते, चारा घोटाला का कुहासा उनके आभामण्डल को घेर चुका था। देश भर का मीडिया चटखारे ले ले कर रपटें छापने लगा कि बिहार में कैसे स्कूटरों पर सांढ़ ढोये जाते थे। एक से एक किस्से। अतिरिक्त मसाले भरने की ट्रेनिंग तो पत्रकारों को ट्रेनी पीरियड में ही दी जाने लगती है। रही सही कसर लालू के साले द्वय के नेतृत्व में सत्ता के मद में डूबे गुंडे टाइप नेताओं ने पूरी करनी शुरू की। अवैध राइफलें लिये, सीना ताने, चौराहों से गुजरते गुंडों ने शान्तिकामी समाज में लालूराज के प्रति वितृष्णा के जो भाव पैदा किये, वे लालू की भविष्य की राजनीति के लिये बेहद भारी साबित हुए। वोटों की राजनीति में पब्लिक परशेप्शन का बहुत महत्व है। जब तक लालू अपने सालों और ऐसे अन्य उत्पाती गुंडे टाइप लोगों से किनारा कर पाते, उनका नुकसान हो चुका था। इस नुकसान की भरपाई अभी तक नहीं की जा सकी है और तेजस्वी यादव को अगर राजनीति में लंबी और गंभीर पारी खेलनी है तो इस तथ्य की उपेक्षा करना उनके लिये भी बहुत भारी पड़ेगा।
जो चक्रव्यूह लालू के खिलाफ रचा गया, वह एक मुकाम पा चुका है। लालू सजायाफ्ता हो कर चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित हो चुके हैं। उन्हें चारा घोटाले के ही एक अन्य मामले में हफ्ते दस दिन बाद एक और सजा सुनाई जाएगी। आरोप है किसी कोषागार से 89 लाख रुपयों की अवैध निकासी का। आज के दौर में कोई अदना सा भ्रष्ट सरकारी हाकिम या छुटभैया नेता,मंत्री अपनी साली के जन्मदिन में इतने रुपयों का तो गिफ्ट दे देता है, लेकिन, लालू के खिलाफ सबूत मिले हैं। इन्ही सबूतों के लिये तो सरकारी तोता इस डाल से उस डाल तक, इस झाड़ी से उस झाड़ी तक बरसों फुदकता रहा है। उसे हर हाल में सबूत जुटाने का आदेश था जो उसने जुटा लिया।
राजनीति में शुचिता की आवश्यकता पर और लालू के भ्रष्टाचार पर ऐसे ऐसे लोगों के वक्तव्य आ रहे हैं, जिनकी सुव्यवस्थित छत्रछाया में लाखों करोड़ रुपयों के संगठित कॉरपोरेट लूट को अंजाम दिया जा रहा है। एक एक उद्योगपति हजारों हजार करोड़ दबा कर बैठा है, न जाने कितने नेता अरबपति, खरबपति बन कर अपनी सात ही नहीं, सतहत्तर पीढ़ियों के ऐश करने का इंतजाम कर चुके हैं। लेकिन, इनके खिलाफ सबूत नहीं, और, न ही कोई एजेंसी इनके खिलाफ सबूत जुटाने के लिये फिक्रमंद है। सबूत तो लालू के खिलाफ हैं, क्योंकि राजनीति का तकाजा था कि सबूत जुटाना है, हर हाल में जुटाना है।
एक ऐसे समय में, जब मुखिया से लेकर मुख्यमंत्री तक आगामी चुनाव के लिये फंड इकट्ठा करने में कानून और नैतिकता की ऐसी तैसी करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हों, जब प्रधानमंत्री के निकटस्थ उद्योगपतियों और बड़े लोगों पर खरबों रुपयों की टैक्स चोरी के मामले उछल रहे हों, कॉरपोरेट की तिजोरी भरने के चक्कर में सरकारी बैंक दिवालिया होने के कगार पर पहुंच चुके हों, लालू प्रसाद जेल में बंद हैं, क्योंकि उनकी राजनीति चक्रवर्त्ती सम्राट के अश्वमेध के घोड़े की रास थामने में सक्षम होने का सबूत अतीत में दे चुकी है और भविष्य के लिये बड़ा खतरा साबित हो सकती है।
लालू एक व्यक्ति के रूप में जेल में हैं, बूढ़े और बीमार भी हो चुके हैं। अपने राजनीतिक जीवन में हुई चूकों, भूलों, गलतियों का हिंसाब वे लगा रहे होंगे। लेकिन, वे महज व्यक्ति नहीं रह गए हैं। वे एक प्रतीक बन चुके हैं। हजार सबूतों को ढूंढ कर ले आए कोई, जो लालू के भ्रष्टाचार को साबित करते हों, लेकिन, जितने सबूत इकट्ठे होंगे, उतने ही सवाल भी जन्म लेते जाएंगे। हर प्रश्न प्रतिप्रश्न को जन्म देगा।—–Hemant Kumar Jha
Sanjay Shraman Jothe
11 hrs · Dewas ·
कभी कभी लगता है कि जीवन के विरोधाभासों को दो सूत्रमय पंक्तियों में समेट देने की कला समाज मे बदलाव के लिये बड़ी घातक है। जिन मुल्कों, समाजों में ये कला परवान चढ़ी वहां के बौद्धिक वर्ग ने विरोधाभास और पीड़ा की अभिव्यक्ति को ही मुक्ति मान लिया। उन्हें सुनने पढ़ने वाले प्रशंसक भी पूरे इतिहास में तालियां ही बजाते रहे हैं।
दूसरी तरफ जीवन और जगत के विरोधों की व्याख्या और विश्लेषण करने वाली कौमों ने एक तर्कपूर्ण व्यवस्था विकसित की। पद्य की बजाय गद्य के विस्तार में जाकर समाज को रूमानी कल्पना विलास से बाहर निकाल कर ठोस इतिहास, समाज और राजनिति से जोड़ा।
शायद ये भी एक कारण है कि दक्षिण एशिया, मध्यपूर्व और सुदूर पूर्व के काव्यबोध से भरे हुए समाज बड़ी सुस्ती में जीते रहे और तर्कबोध से भरे पश्चिमी समाज तेजी से आपस में लड़ते मरते हुए अपनी भूलों से सीखते हुए आगे बढ़े।
काव्यबोध वाले समाज जीवन की बीमारी और कौरूप को भी मोहक अभिव्यक्ति में ऐसा बांधते हैं कि उसका इलाज करने की बजाय पीड़ित उसकी तारीफ में वाह वाह करता जाता है। आयुर्वेद के पुराने ग्रन्थ देखिये, वे बीमारी का वर्णन इतने काव्यमय ढंग से करते हैं कि बीमारी से ही प्यार हो जाता है, इलाज की जरूरत ही नहीं। इसी तरह शेर-ओ-शायरी है। सुनाने वाले शेर सुनाते रहते हैं, सुनने वाले दाद देते रहते हैं। मंच पर ही उन्हें मोक्ष मिल जाता है। मुशायरों और मंच के इस तरफ और उस तरफ दोनों पार्टियां एकदूसरे को वहीं का वहीं संतुष्ट कर देती हैं और ये संतोष समाज मे फैलकर शोषक सत्ताओं को अतिरिक्त समय और सुविधा उपलब्ध कराता है।
मालवा निमाड़ में कबीर या सिंगाजी के पद गाने वालोंको कभी देखिये। वे साखियों सूक्तियों के सौंदर्य में ही डूबे रहते हैं। उन साखियों में क्या कहा गया है उसकी तो कोई फिक्र नही करता लेकिन उसे भजन बनाकर जिंदगी भर गाते रहते हैं। ये गजब की पहेली है। वे भजन गाकर सुनकर ही मस्त हो जाते हैं आगे कुछ करने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
जो संवेदनशील हृदय क्रांति या बदलाव कर सकते थे वे जीवन और समाज की उलझनों को माशूका की लटों में लपेटते सुलझाते रहते है और उनके मुरीद इस सबको देख सुनकर कल्पनालोक में ही आजादी और बदलाव का रस पीकर मस्त पड़े रहते हैं।
शेरों और शायरी ने जिन ध्रुवीय विपरीतों को एक सूत्र या पद में संजोने का चमत्कार किया है उससे एक और परिणाम हुआ है। विरोधाभासों और वैषम्य की अभिव्यक्ति पर दाद बटोरने वाले मन और फन ने कभी भी विरोधाभास और विषमता को उखाड़ने का आंदोलन नहीं रचा।
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28 December 2016 ·
बौद्ध धर्म पर पुनर्जन्म का आरोप मढ़ने वाले अक्सर तिब्बत के दलाई लामा का उदाहरण देते हैं। आधुनिक भारत के शंकराचार्य अर्थात ओशो रजनीश जैसे वेदांती पोंगा पंडित ने भी बौद्ध धर्म में पुनर्जन्म को प्रक्षेपति करके बुद्ध का ब्राह्मणीकरण करने का सबसे बड़ा प्रयोग किया है। ओशो ने बारदो नामक अन्धविश्वास की व्याख्या करते हुए दलाई लामा के और खुद के तिब्बती अवतार की चर्चा की है। उनके भक्त इसे सर माथे पर लिए घूमते हैं।
आइए आपको बताता हूँ दलाई लामा और ओशो रजनीश के तर्कों को कैसे उधेड़ा जाये, ये सभी तार्किकों और मुक्तिकामियों सहित दलितों बहुजनों के काम की बात है। ध्यान से समझियेगा।
दलाई लामा अपने को पूर्व दलाई लामा का अवतार बताते हैं। उसी व्यक्ति की आत्मा का अक्षरशः पुनर्जन्म जो पहले राजा या राष्ट्र प्रमुख था। इसे समझिये। ये धर्म और राजनीति के षड्यंत्र का सबसे लंबा और जहरीला प्रयोग है। जब आप पुराने राजा के अवतार हैं तो आपको एक वैधता और निरंकुश अधिकार अपने आप मिल जाता है। और चूँकि सारा समाज ध्यान समाधि निर्वाण और पुनर्जन्म की चर्चा में डूबा है तो कोई सवाल भी नहीं उठा सकता। न विरोध होगा न विद्रोह न परिवर्तन, क्रांति या लोकतंत्र की मांग उठेगी।
राजसत्ता मस्ती से अपना काम करती रहेगी। गरीब मजदूर अपने अवतार के लिए रात दिन खटते रहेंगे। न कोई शिक्षा मांगेगा, न चिकित्सा न रोजगार मांगेगा। और न सभ्यता या विज्ञान का विकास ही हो सकेगा। इसीलिये तिब्बत पर जब आक्रमण हुआ तो वो आत्मरक्षा न कर सका और ढह गया। कोई संघर्ष भी न कर सका चीन के खिलाफ। और सबसे मजेदार बात ये कि जादू टोने रिद्धि सिद्धि और चमत्कार के नाम पर पूरे मुल्क पर शासन करने वाले लामा को खुद भी दल बल सहित पलायन करना पड़ा। कोई शक्ति या सिद्धि काम न आई।
ये तो हुई राजा द्वारा अपना पद सुरक्षित करने की बात अब आइये पुनर्जन्म की टेक्नोलॉजी पर। तिब्बती दलाई लामा अगर पिछले राजा की ही आत्मा का पुनर्जन्म है, उसी के संस्कार, विचार, शिक्षण, अनुभव और ज्ञान लेकर आ रहा है तो उसे इस जन्म में देश के सबसे कुशल और महंगे शिक्षकों की जरूरत क्यों होती है? उसे अंग्रेजी, गणित, राजनीति, इतिहास ही नहीं बल्कि उनका अपना पेटेंट विषय “अध्यात्म” सीखने के लिए भी दूसरे टीचर चाहिए।
टीचर क्यों चाहिए? अपने पिछले जन्मों में जाकर वहीं से डाऊनलोड क्यों नहीं कर लेते भाई ? क्या दिक्कत है? दूसरों को जो सिखा रहे हो वो खुद क्यों नहीं आजमाते? शिक्षकों की फ़ौज पर पच्चीस साल तक करोड़ों अरबों का खर्चा क्यों करते हैं?
आप समझे कुछ?
ये पुनर्जन्म की जहरीली खिचड़ी सिर्फ दूसरों को खिलाने के लिए है ताकि गरीब जनता नये लामा अर्थात नये राष्ट्राध्यक्ष की वैधता और निर्णयों पर प्रश्न न उठाये।
लेकिन यहां ध्यान रखिएगा किइसका ये मतलब नहीं है कि दलाई लामा बुरे व्यक्ति हैं। वे सज्जन पुरुष हैं, उनका पूरा सम्मान है। वे जगत के शुभ हेतु शक्तिभर प्रयास कर रहे हैं लेकिन अपनी संस्था और संस्कृति के अतीत में जो अन्धविश्वास फैलाकर एक पूरे मुल्क का सत्यानाश किया है उसको वे अनकीया नहीं कर सकते। इससे हमें सबक लेना चाहिए।
-संजय जोठे
*चित्र गूगल से साभारDilip C Mandal
2 hrs ·
कथा सीखने के लिए पंडित वासुदेव शास्त्री के पास अपनी जवान लड़कियों को भेजने वाले माता-पिता का उचित ‘सम्मान’ किए बिना तो बाबा की पिटाई अधूरी है!
Mahendra YadavDilip C Mandal
5 hrs ·
मथुरा में कोई बाबा वासुदेव भागवत कथा सुनाने के नाम पर लड़कियों का यौन शोषण करता था. लोगों ने मार-मार कर ब्राह्मण बना दिया.Dilip C Mandal
6 hrs ·
क्या आपने कभी सोचा है कि ज्यादातर SC, ST, OBC और अल्पसंख्यक अफसर बेईमान क्यों नहीं है?
किसी दफ्तर में इन समूहों के कर्मचारी और अफसर सबसे कम रिश्वतखोर क्यों होते हैं? सवर्णों के बराबर वेतन के बावजूद एक बहुजन अफसर की गाड़ी छोटी क्यों होती है? इनके मकान छोटे क्यौं होते हैं?
यह जानने के लिए एक सवाल का जवाब दीजिए.
योगी आदित्यनाथ ने अपने ऊपर लगे मुकदमे हटा लिए. अमित शाह ने भी केंद्र में सरकार बनने के बाद यही किया. यही सुविधा शिबू सोरेन, लालू प्रसाद, बहन मायावती, छगन भुजबल आदि को क्यों नहीं है?
वे भी तो लगातार सत्ता में रहे. केंद्र में भी इनके समर्थन से सरकारें चलीं. इनके मुकदमे चलते क्यों रहे. जाहिर है कि ये लोग भारत के सबसे करप्ट और मालदार नेता नहीं हैं. लेकिन ये ही क्यों उलझ जाते हैं?
इस प्रश्न के जवाब में भारतीय समाज का सबसे बड़ा राज छिपा है.
यही जानते ही आपको समझ में आ जाएगा कि तरक्की करने के मौके कुछ लोगों के पास ज्यादा क्यों हैं, कुछ लोग धड़ल्ले से करप्शन कैसे कर लेते हैं और बच भी जाते हैं. वहीं आपके पास करप्ट होने का विकल्प क्यों नहीं है.
बहुजनों की मजबूरी है कि वे ईमानदार रहें, ईमानदार नजर भी आएं क्योंकि वे निर्दोष होकर भी फंस सकते हैं.
सवर्णों के सात खून यूं ही माफ हैं. आम तौर पर कोई शिकायत ही नहीं करेगा. शिकायत हो भी गई तो बड़ा अफसर, जो आम तौर पर सवर्ण होगा, आपको बचा लेगा. सीबीआई और ऐंटी करप्शन में इनके लोग बैठे हैं, बचा लेंगे. गलती से मामला कोर्ट में चला गया तो कोई सवर्ण जज इसकी सुनवाई करेगा, इसके काफी मौके हैं. वह बचा लेगा. इन्हें आपनी जाति का रसूख वाला वकील मिल जाएगा.
इसके अलावा करप्शन का पैसा छिपाने के लिए एक तंत्र की जरूरत होती है. इसके लिए विदेशों में आपके रिश्तेदार होने चाहिए जो हवाला से काला को सफेद करने में आपकी मदद करें.
आपके या रिश्तेदारों के पास NGO होना चाहिए, जिसके जरिए हेराफेरी हो सके. NGO को बचाने के लिए ऊपर अफसर होने चाहिए.
आपके या रिश्तेदारों के पास कंपनियां होनी चाहिए. तब काला पैसा खपा पाएंगे.
मतलब कि यह सारा तंत्र जिनके पास नहीं है, वह करप्शन का बड़ा पैसा छिपा ही नहीं पाएगा.
यह तंत्र भारत में किस सामाजिक समूह के पास है?
ऊपर कौन बैठा है जो आपको बचा लेगा. सुप्रीम कोर्ट में एक दलित जज नहीं है. आपको बचाएगा कौन? जाहिर है आपको सजा का डर होगा. आप करप्ट हो ही नहीं सकते. हो भी गए, तो जेल जाएंगे.
Kanwal Bharti
26 December at 19:44 ·
दलित पैंथर का दस्तावेजी इतिहास
(कँवल भारती)
महाराष्ट्र के दलित आन्दोलन और साहित्य में जे. वी. पवार एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर माने जाते हैं. उनकी महत्ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि डा. आनन्द तेलतुमड़े उन्हें उत्तर-आंबेडकर दलित आन्दोलन का ‘इनसाइक्लोपेडिया’ (विश्वकोश) और भाऊ तोरसेकर आंबेडकर-आन्दोलन का ‘गूगल’ कहते हैं. इसलिए ऐसे महत्वपूर्ण लेखक की ‘दलित पैंथर के दस्तावेजी इतिहास’ पर लिखी गई पुस्तक को पढ़ा जाना निश्चित ही एक नए अनुभव से गुजरना है. यह जे. वी. पवार की मराठी पुस्तक ‘दलित पैंथर’ का अंग्रेजी अनुवाद है, जो ‘Dalit Panthers : An Authoritative History’ नाम से रक्षित सोनावणे ने किया है. इस जरूरी इतिहास का प्रकाशन ‘फारवर्ड प्रेस बुक्स’ और ‘दि मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन’ नई दिल्ली ने मिलकर किया है. इस महत्वपूर्ण प्रकाशन के लिए प्रमोद रंजन और संजीव चन्दन दोनों धन्यवाद के पात्र हैं.
‘दलित पैंथर’ अस्सी के दशक का वह क्रांतिकारी आन्दोलन था, जिसने महाराष्ट्र के दलितों को ही नहीं, बल्कि वहां की राजनीति को भी प्रभावित किया था. इसी दलित पैंथर के गर्भ से मराठी दलित साहित्य का जन्म हुआ था. इससे पहले दलित शब्द का अस्तित्व तो था, पर वह प्रचलन में नहीं आया था. इस क्रांतिकारी संगठन का निर्माण 29 मई 1972 को हुआ था. किन्तु इसने लम्बी उमर नहीं पाई. और पांच साल बाद 7 मार्च 1977 को ही उसे भंग कर दिया गया.
दलित पैंथर किन परिस्थितियों में अस्तित्व में आया, और उसकी क्या गतिविधियाँ रही थीं, यह जानना बेहद दिलचस्प होगा. जे. वी. पवार दलित पैंथर के संस्थापकों में हैं. उन्होंने अपनी किताब में ‘दलित पैंथर’ की पृष्ठभूमि पर जो अध्याय लिखा है, उसके अनुसार सत्तर का दशक महाराष्ट्र में दलितों पर बेहद अमानवीय अत्याचारों का दौर था. रिपब्लिकन पार्टी (रि.पा.) के नेता आपस में लड़ रहे थे. जुल्म करने वालों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हो रही थी, जिससे उनके हौसले बुलंद होते जा रहे थे. जुल्म हदें पार कर रहा था. दलित औरतों के साथ बलात्कार, उन्हें नंगा घुमाने, दलितों का सामाजिक बहिष्कार करने, उनके कुओं में मानव मल डालने, पीट-पीटकर मारने, हत्या करने, जिन्दा जलाने, घरों को जलाने, उनकी जमीनों पर कब्जा करने, और श्मशान की भूमि पर उनके मृतकों की चिता न जलाने देने की घटनाएँ बढ़ती जा ही रही थीं. ये घटनाएँ दलितों के रोष को बढ़ा रही थीं.
मुम्बई में 14 अप्रैल 1972 को दलित बस्ती चिंचवाड़ी (बांद्रा) में डा. आंबेडकर जयंती के कार्यक्रम में लाउडस्पीकर की आवाज़ को लेकर वहाँ के सवर्णों ने पुलिस में शिकायत की, जिससे पुलिस को दलितों पर हमला करने का मौका मिल गया. पीएसआई नानावारे की पुलिस टीम ने न सिर्फ वहां जाकर दलितों को मारा-पीटा, बल्कि बाबासाहेब डा. आंबेडकर और बुद्ध के फोटो भी फाड़ दिए. यह खबर जंगल की आग की तरह पूरे मुम्बई शहर में फ़ैल गई. शीघ्र ही भारी संख्या में लोग विरोध करने के लिए बांद्रा पुलिस स्टेशन पहुँच गए. पूरे मुम्बई शहर में दलितों के प्रदर्शन हुए. 16 अप्रैल 1972 को डा. आंबेडकर के पुत्र भैयासाहेब आंबेडकर ने मंत्रालय के सामने प्रदर्शन का नेतृत्व किया. प्रदर्शनकारियों ने बांद्रा घटना की जांच और दोषी पुलिस अधिकारी को निलम्बित करने की मांग की. बैरिस्टर बी. डी. काम्बले और भाऊसाहेब केलशीकर ने भी अलग से एक प्रदर्शन-मार्च का नेतृत्व किया और पुलिस अधिकारी के निलम्बन की मांग की. दोनों प्रदर्शनों के नेताओं ने तत्कालीन राज्य मंत्री डी. टी. रूपावटे को ज्ञापन दिया. पर, जे. वी. पवार के अनुसार, कोई कार्यवाही नहीं हुई.
वे आगे लिखते हैं कि इसी समय आरपीआई अनेक गुटों में विभाजित हो गई थी. कारण कुछ भी हो, पर सत्ता में जाने का लोभ इसके केंद्र में था. 14 अप्रैल 1972 को चैत्यभूमि मुम्बई में आंबेडकर जयंती पर बोलते हुए कहा कि वे आरपीआई के कुछ नेताओं को सत्ता के लोभ में पार्टी छोड़कर कांग्रेस में जाने से नहीं रोक पाए.
इसी समय शिवसेना के विधायक वामन राव महादिक ने बांद्रा की घटना पर एक सभा आयोजित की, जिसमें मनोहर जोशी और अभिनेत्री वैजयंतीमाला के पति डा. चमनलाल बाली भी शामिल हुए थे. इस सभा में आरपीआई की आलोचना हुई, जिसने कुछ उन दलित युवकों को ज्यादा प्रभावित किया, जो शिवसेना के समर्थक थे. उन्होंने मुम्बई के कमाठीपुरा इलाके में शिवसेना की तर्ज पर ‘भीमसेना’ का गठन किया. इसकी पहली बैठक पद्मशाली कम्युनिटी हाल में हुई, जिसमें शांताराम अधंगले, कमलेश संतोजी गायकवाड़, नारायण गायकवाड़, सीताराम मिसाल, बी. आर. काम्बले, विष्णु गायकवाड़, वी. एस. अस्वारे, एस. आर. जाधव और टी. डी. यादव आदि कुछ प्रमुख लोगों ने भीमसेना पर चर्चा की. वे इसके नाम से तो सहमत थे, परन्तु इस नाम से एक संगठन पहले से ही हैदराबाद में था. अंतत: उन्होंने भीमसेना के स्थान पर आरपीआई के दलित नेताओं को सबक सिखाने के लिए ‘रिपब्लिकन क्रांति दल’ नाम रख दिया. लेखक लिखता है कि दलितों को शिवसेना में जाने से रोकने के लिए यह संगठन भी उद्देश्य को पूरा नहीं कर रहा था. इसलिए उसका फिर से नाम बदलकर ‘रिपब्लिकन एक्य क्रान्ति दल’ किया गया. लेखक के अनुसार इस नये दल के कुछ नेता भी लालच में आकर अपने उद्देश्य से अलग हो गए.
लेखक लिखता है कि यही वह समय है, जब दलित लेखकों ने दादर में विचार-विमर्श के लिए बैठकें करना शुरू कीं. दलित लेखकों की ये बैठकें दादर में ईरानी रेस्टोरेंट में होती थीं. ये लेखक थे दया पवार, अर्जुन डांगले, नामदेव ढसाल, प्रह्लाद चेंदवानकर और स्वयं लेखक जे. वी. पवार. यह इन्दिरा गाँधी की निरंकुशता, कांग्रेस नेताओं की गुंडागर्दी और दलितों पर बढ़ते अत्याचारों का दौर था. साथ ही युवक क्रान्ति दल, रिपब्लिकन क्रान्ति दल, युवक अघाडी, समाजवादी युवक सभा और मुस्लिम सत्यशोधक समिति का भी दौर था. ‘दलित पैंथर’ का जन्म इसी पृष्ठभूमि में हुआ था.
(कल दलित पैंथर के उद्भव और विकास की कहानी)Kanwal Bharti
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दलित पैंथर का निर्माण—2
(कँवल भारती)
दलित पैंथर के गठन के पीछे ‘इलायापेरुमल समिति’ की रिपोर्ट का भी बड़ा हाथ था. इस बारे में जे. वी. पवार बताते हैं कि 1965 में सम्पूर्ण देश में दलित जातियों पर हो रहे अत्याचारों के मामलों का अध्ययन करके उन्हें दूर करने के उपाय सुझाने के लिए सांसद एल. इलायापेरुमल की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया था. इस समिति ने दलित उत्पीड़न के लगभग 11 हजार मामलों का अध्ययन करके 30 जनवरी 1970 को अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी. उसने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि दलितों को न्याय मुहैया कराने में इन्दिरा सरकार की पूरी तरह विफलता सामने आई है. किन्तु सरकार ने इस रिपोर्ट को सदन के पटल पर रखने में कोई रूचि नहीं ली. इसका कारण यह था कि दलितों पर अत्याचार करने वाले अपराधी मुख्य रूप से कांग्रेसी, ब्राह्मण और गैरब्राह्मण ही थे. इस रिपोर्ट ने युवाओं के दिमागों में सामाजिक परिवर्तन की चिंगारी सुलगा दी थी. हालाँकि विभिन्न गुटों में विभाजित रिपब्लिकन नेता इस मुद्दे पर शांत पड़े हुए थे. किन्तु युवा लेखक और कवि चाहते थे कि सरकार इस मामले में कार्यवाही करे. उस समय दादर के एक ईरानी रेस्टोरेंट में दया पवार, अर्जुन डांगले, नामदेव ढसाल, प्रह्लाद चेंदवानकर और जे. वी. पवार आदि कुछ दलित लेखक बैठकर बातचीत किया करते थे. यह उनके बैठने का नियमित अड्डा था. एक दिन उन सबने तय किया कि ‘इलायापेरुमल समिति’ की रिपोर्ट पर सरकार को चेतावनी देने के लिए एक सार्वजनिक वक्तव्य जारी करना चाहिए. इस प्रस्ताव पर 12 दलित लेखकों ने हस्ताक्षर किए. बाबुराव बागुल ने हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था. दया पवार सरकारी कर्मचारी होने के नाते सेवाशर्तों से बंधे हुए थे. प्रह्लाद चेंदवानकर, जैसा कि जे. वी. पवार ने लिखा है, ढुलमुल किस्म के थे, और भरोसेमंद नहीं थे. आखिरकार, राजा ढाले, नामदेव ढसाल, अर्जुन डांगले, भीमराव शिर्वले, उमाकांत रंधीर, गंगाधर पांत़ावने, वामन निम्बालकर, मोरेश्वर वाहने और जे. वी. पवार के हस्ताक्षरों से एक सार्वजनिक वक्तव्य प्रेस को जारी किया गया. लेखक ने खुलासा किया है कि जिस वजह से बाबुराव बागुल और दया पवार हस्ताक्षर करने से डर रहे थे, वह वक्तव्य की ये पंक्तियाँ थीं—‘यदि सरकार दलितों पर अन्याय और अत्याचार रोकने में असफल होती है, तो हम कानून को अपने हाथों में ले लेंगे,’ उन्हें लगता था कि पुलिस यह पढ़कर पता लगा लेगी कि वक्तव्य लेखकों की ओर से आया है, और वह उनको पकड़ लेगी. उनके हस्ताक्षर न करने का यही एक कारण था.
इसी समय महाराष्ट्र में दलित उत्पीड़न की दो वारदातें और हुईं. एक, पुणे में बावदा गाँव में पूरी दलित आबादी का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया था. यह बहिष्कार तत्कालीन राज्यमंत्री शंकरराव पाटिल के भाई शाहजीराव पाटिल ने करवाया था. दूसरी घटना परभानी जिले के ब्राह्मणगाँव में हुई थी, जहाँ एक दलित महिला को नंगा करके उसे बबूल की टहनियों से मारते हुए घुमाया गया था. इन घटनाओं की अनेक संगठनों ने निंदा की थी. 28 मई को युवक ‘अघादी संगठन’ के नेताओं ने मुख्यमंत्री वसंतराव नाइक से मिलकर उनको ज्ञापन दिया, जिसमें उन्होंने मांग की कि इन घटनाओं की न्यायिक जांच कराई जाये और दोषियों को सजा दिलाई जाये. मुख्यमंत्री ने उलटे दलित नेताओं को ही सलाह दी कि वे स्वयं इन घटनाओं की जाँच करके सरकार को रिपोर्ट दें. किन्तु संगठन के नेताओं ने यह कहकर इस सुझाव को मानने से इनकार कर दिया कि यह उनका काम नहीं है, यह काम सरकार को करना चाहिए, क्योंकि उसके पास सारी मशीनरी और ख़ुफ़िया तन्त्र है. लेकिन सरकार ने कुछ नहीं किया.
नामदेव ढसाल और जेवी पवार एक ही इलाके में रहते थे. ढसाल ढोर चाल में और पवार सिद्धार्थ नगर के नगरपालिका के क्वाटरों में. इस तरह वे दोनों रोज ही मिला करते थे. एक दिन सिद्धार्थ विहार से लौटते हुए उन दोनों के मन में विचार आया कि क्यों न दलितों पर अत्याचार रोकने के लिए एक भूमिगत आन्दोलन चलाया जाये. उनकी योजना घटना स्थल पर जाकर तुरंत अपराधियों से निपटने की थी. लेकिन इसमें उनके सामने एक अड़चन थी. वह जानते थे कि उनका समाज ऐसे आन्दोलन को संरक्षण नहीं देगा, और यह उनके लिए उल्टा पड़ जायेगा. अत: काफी सोच-विचार करने के बाद उन्होंने यह विचार त्याग दिया. जेवी पवार लिखते हैं कि वे एम.ए. के छात्र थे, पर आंबेडकर आन्दोलन के लिए उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी थी.
29 मई 1972 को ढसाल और जेवी पवार विट्ठलभाई पटेल रोड पर अलंकार सिनेमा से होते हुए ओपेरा हाउस के निकट टहलते हुए दलित-उत्पीड़न के खिलाफ एक लड़ाकू संगठन बनाने पर चर्चा करते चल रहे थे. वे संगठन के लिए बहुत सारे नामों पर विचार कर रहे थे. पर बात नहीं बन रही थी. अंतत: उनका विचार ‘दलित पैंथर’ पर जाकर केन्द्रित हो गया. इस प्रकार मुम्बई की एक सड़क पर टहलते हुए क्रांतिकारी संगठन ‘दलित पैंथर’ का जन्म हुआ. पवार लिखते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में बहुत से लोगों ने यह दावा किया है कि वे दलित पैंथर के संस्थापक हैं. किन्तु सच यह है कि इस संगठन की स्थापना सिर्फ नामदेव ढसाल और जेवी पवार ने की थी.
अब अगला कदम ‘दलित पैंथर’ को सार्वजनिक करने का था. ढसाल चूँकि सोशलिस्ट आन्दोलन से जुड़े थे, इसलिए बहुत से लोगों को जानते थे. राजा राम मोहन राय रोड पर सोशलिस्ट कार्यकर्ताओं का दफ्तर था, जिसमें रमेश समर्थ नाम का एक कवि टाइपिंग का काम करता था. उन्होंने उससे प्रेस के लिए दलित पैंथर की घोषणा की विज्ञप्ति टाइप करवाई. इस विज्ञप्ति पर सबसे पहले हस्ताक्षर ढसाल ने किए, उसके बाद जेवी पवार ने. फिर अनेक लोगों ने हस्ताक्षर किये, जिनमें राजा ढाले, अरुण कांबले, दयानन्द म्हस्के, रामदास अठावले, अविनाश महातेकर मुख्य हैं. विज्ञप्ति में लिखा गया था—’महाराष्ट्र में जातिवादी हिन्दुओं को क़ानून का डर नहीं रह गया है. धनी किसान और सत्ता से जुड़े ये सवर्ण हिन्दू दलितों के साथ जघन्य अपराधों में लिप्त हैं. ऐसे अमानुष जातिवादियों को ठीक करने के लिए मुम्बई के विद्रोही युवाओं ने एक नये संगठन ‘दलित पैंथर’ का निर्माण कर लिया है. जेवी पवार, नामदेव ढसाल, अर्जुन डांगले, विजय गिरकर, प्रह्लाद चेंदवनकर, रामदास सोरते, मारुती सोरते, कोंदीराम थोरात, उत्तम खरात और अर्जुन कसबे ने पूरी मुम्बई में इसका गठन करने के लिए सभाएं की हैं, जिनमें हमें भारी समर्थन मिला है.’
इसके बाद दलित पैंथर की क्रांतिकारी गतिविधियों का वर्णन किताब में किया गया है, जिसे जिज्ञासु पाठकों को जरूर पढ़ना चाहिए.
(कल इस संगठन के पतन पर)—————–Kanwal Bharti
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समीक्षा की अंतिम टिप्पणी : दलित पैंथर का पतन
(कँवल भारती)
जेवी पवार लिखते हैं, दलित पैंथर संगठन पूरे महाराष्ट्र में एक मजबूत ताकत बन गया था. उससे जहाँ एक ओर सरकार परेशान थी, वहीँ दूसरी ओर आम आदमी को उससे सुरक्षा और राहत मिल रही थी. वह दलित पैंथर के कारण भय-मुक्त हो गया था. दलित पैंथर के नेताओं का उनके जिलों में कद बढ़ गया था, जिसकी वजह से जिला कलेक्टरों, पुलिस कप्तानों, मुख्य अधिकारियों और जन-प्रतिनिधियों के साथ उनकी नजदीकियां बढ़ गयीं थीं. इसके परिणामस्वरूप उनमें अधिकारियों के माध्यम से काम कराने की प्रवृत्ति शुरू हो गयी थी.
जेवी पवार लिखते हैं कि दलित पैंथर का जन्म अन्याय और अत्याचारों को रोकने के लिए हुआ था, परन्तु इस नई प्रवृत्ति के कारण दलित पैंथर के कुछ तालुका और जिला अध्यक्ष खुद भी दलितों के साथ अन्याय करने लगे थे. पहले दलित पैंथर जमीन हथियाने के मामलों में हस्तक्षेप करके जिसकी जमीन होती थी, उसे वापिस कराते थे. किन्तु अब वे उन जमीनों की सौदेबाजी में लिप्त होने लगे थे. पहले वे झुग्गियों में जाकर पीड़ित लोगों को सुरक्षा प्रदान करते थे, परन्तु अब कुछ दलित पैंथर झुग्गियों के ही मालिक हो गये थे, और नई झुग्गियों को बनाकर उन्हें बेचने का काम करने लगे थे. इन सब को देखकर पवार और उनके साथियों को लगने लगा था कि दलित पैंथर की जो छवि पीड़ितों के रक्षक की बनी थी, वह बदल रही थी. बात यहाँ बढ़ गई थी दलित पैंथर के कुछ सदस्यों ने शराब तस्करों से जबरन वसूली भी करनी शुरू कर दी थी और खुद ही ऐसे ही अवैध धंधों में लिप्त हो गये थे. इस तरह की गतिविधियों से आम आदमी ने दलित पैंथर के खिलाफ बोलना शुरू कर दिया था.
पवार लिखते हैं कि यद्यपि इस तरह की गतिविधियां बड़े पैमाने पर नहीं थीं, अपवाद-स्वरूप ही थीं, पर फिर भी ये इस बात के सुबूत थे कि संगठन में अवांछित कार्य होने लगे थे. हर जिले से ऐसे एक-दो मामलों की शिकायत आती थी. इसलिए पवार ने 10 जनवरी 1976 को एक जनसभा में इस विषय को उठाते हुए कहा कि वे संगठन की कीमत पर डा. आंबेडकर के दर्शन से समझौता नहीं कर सकते. यह कहकर उन्होंने दलित पैंथर के भविष्य को स्पष्ट कर दिया था.
लेकिन दलित पैंथर के पतन के लिए कुछ राजनीतिक परिस्थितियों का भी पवार ने जिक्र किया है. यह वह समय था, जब कांग्रेस के विरुद्ध सारी विपक्षी पार्टियों ने मिलकर ‘जनता पार्टी’ बनाई थी, और देश में आम चुनावों की घोषणा हो चुकी थी. पवार लिखते हैं कि जनता पार्टी का मुख्य घटक जनसंघ था. इसलिए कांग्रेस को हराने के लिए संघ परिवार [आरएसएस] ने इन चुनावों में अपनी सारी ताकत झोंक दी थी. इसी समय पवार को खबर मिली कि जनता पार्टी ने नांदेड़ से राजा ढाले को लोकसभा का टिकट दिया है. राजा ढाले ने जेल में बंद जनता पार्टी के नेताओं की तुलना आपातकाल के दौरान जेल में भगवान् कृष्ण के जन्म से की थी. पवार लिखते हैं कि कांग्रेस पार्टी हमारी शत्रु थी, पर हम उसके विरुद्ध लड़ाई में जनता पार्टी की मदद करना नहीं चाहते थे. इसी समय भैयासाहेब आंबेडकर लोकसभा के लिए बौद्धों के लिए आरक्षण दिलाने के वादे पर चुनाव लड़ रहे थे. किन्तु उनके सारे साथी उनको छोड़कर चले गये थे. वह अकेले ही बौद्धों के मुद्दे पर लड़ रहे थे, जबकि पूरा देश कांग्रेस को गद्दी से उतारने के लिए लड़ रहा था.
जब जेवी पवार भैयासाहेब आंबेडकर का समर्थन कर रहे थे, उस समय नामदेव ढसाल दलित पैंथर के बैनर तले कांग्रेस का प्रचार कर रहे थे, जबकि भाई संगारे और अविनाश महाटेकर जनता पार्टी का प्रचार कर रहे थे. इस तरह दलित पैंथर के तीन अलग-अलग गुट हो गए थे. पवार कहते हैं कि यही वे परिस्थितियां थीं, जो हमने अराजकता को खत्म करने के लिए और गलत कार्यों में लिप्त दो गुटों के पैरों के नीचे से कालीन खींचने के लिए दलित पैंथर को भंग करने का निश्चय किया. भैयासाहेब आंबेडकर ने उनके इस विचार का समर्थन किया. इसके बाद इसकी विधिवत घोषणा के लिए एक बुकलेट तैयार की गयी. यह बुकलेट रामदास अठावले के सिद्धार्थ विहार हॉस्टल, वडाला के कमरे में लिखी गई. कमरे को बाहर से लॉक करा दिया गया, ताकि कोई अंदर न आ सके. कमरे में सिर्फ तीन लोग थे—राजा ढाले, उमाकांत रंधीर और जेवी पवार. अठावले को फुटबाल खेलने भेज दिया गया था. वह और अरुण काम्बले जानते थे कि कमरे में क्या चल रहा है. ढाले बोलते गये और रंधीर लिखते गए. पवार ने जरूरत पड़ने पर शब्द बदलने या सुधारने का काम किया. इस बुकलेट को राजा ढाले की ओर से ‘बुद्ध एंड भूषण प्रिंटिंग प्रेस’, गोकुलदास पास्ता लेन, दादर में छपवाया गया.
7 मार्च 1977 को पत्रकारों को बुकलेट की प्रतियाँ जारी की गयीं, और विधिवत घोषणा कर दी गई कि दलित पैंथर को भंग कर दिया गया है. इस प्रेस वार्ता में औरंगाबाद से गंगाधर गडे भी उपस्थित थे और उन्होंने पत्रकारों के दो सवालों के जवाब भी दिए थे. बाद में कुछ लोगों ने ‘पैंथर’ शब्द को भुनाने के लिए एक नया संगठन ‘अपन मास पैंथर’ बनाया, पर वह चला नहीं.
[27 दिसम्बर 2017]
Sanjay Shraman Jothe
28 December 2015 ·
ओशो और रजनीश पर बार बार लौटना जरूरी है। इन दोनों के बीच का विरोध और असंगति न सिर्फ भारत के धार्मिक दार्शनिक अतीत को समझने के लिए एक सूत्र देती है बल्कि उस सामूहिक मनोविज्ञान का संकेत भी देती है जो भविष्य के धार्मिक दार्शनिक विकास को रचने वाला है।
रजनीश जैसे अन्य किसी भी पारम्परिक भारतीय गुरु को उठाकर देखिये। वे समाज की मौलिक सड़ांध का जो विश्लेषण रखते हैं वो खुद एक नई ही सड़ांध को जन्म देता जाता है। उनके विश्लेषण और विमर्श से न अतीत की गुत्थी सुलझती है न भविष्य का मार्ग ही निर्मित होता है। ऊपर से जिन मूर्खताओं में ये देश नष्ट हुआ है उसका महिमामण्डन करके एक ऐसी अपाहिज स्थिति बना ली जाती है जिसके बाहर निकलना ही असम्भव हो जाता है।
रजनीश इस अर्थ में भारत के भविष्य के सबसे बड़े दुश्मन साबित होते हैं। उनकी बौद्धिक मदारिगिरि और मीडिया सहित समाज को मेनिप्यूलेट करने की होशियारी से वे एक सफल ऑर्गेनाइजर और बाज़ीगर जरूर बन जाते हैं लेकिन इसका कोई क्रिएटिव लाभ समाज को नही मिलता।वे अरबों की सम्पत्ति जोड़कर कई हजार प्रतिभाशालिओं को तात्कालिक रूप से सम्मोहित जरूर कर लेते हैं लेकिन उसका कुल जमा मूल्य कुछ विशेष नही निकलता। उनके भारतीय शिष्यों को गौर से देखिये, उनमे रत्ती भर का भी गुणात्मक बदलाव नही है।
रजनीश के शिष्यों में बदलाव तो छोड़िये, दुर्भाग्य ये है कि वे ग्रामीण और धर्मभीरु अशिक्षित लोगों से भी ज्यादा अंधविश्वासी और भाग्यवादी हैं ऊपर से तुर्रा ये कि उनके पास अपने अंधविश्वासों के लिए वैज्ञानिक तर्क भी हैं, ये तर्क रजनीश ने मदारिगिरि से जुटाए और हर धर्म की मूर्खता का समर्थन किया।
इसलिए इस समाज के सम्यक जागरण के लिए लोगों को रजनीश और भगवान रजनीश से मुक्त होना जरूरी है। ऐसे आदमी की शिक्षाओं का क्या फायदा जो हर दूसरी किताब में अपना नजरिया बदलता हो? ये बौद्धिक पाखण्ड बहुत खतरनाक है। ये सदैव अनिर्णय में बनाये रखता है। रजनीश के पीछे चलने वाले उसी तरह बर्बाद होते हैं जिस तरह रजनीशपुरम बर्बाद हुआ था।
भक्त कुछ सीखें न सीखे, दुनिया सब देख रही है। इसीलिये रजनीश को खुद ओशो बनकर अपनी पुरानी मूर्खताओं से खुद को अलग करना पड़ा था।
इस ओशो में से बुद्ध को निकाल लें, तो क्या बचता है? सच कहेँ तो कुछ नही। ओशो सिर्फ बुद्ध की तरफ इशारा भर हैं। उनका अपना मौलिक दान कुछ भी नही है। कारण भी जाहिर है। जो आदमी जिंदगी में पांच बार अपने नाम बदलता है और पचास बार अपने वक्तव्य बदलता है उसकी बात का क्या मूल्य हो सकता है?
इसीलिये भारत के गरीबों दलीतों स्त्रियों और बहुजनों सीधे बुद्ध तक आना चाहिए। अगर कोई और बेहतर माध्यम चाहिए तो अंबेडकर कहीं अधिक उपयोगी और स्पष्ट हैं लेकिन अंबेडकर को समझने के लिए मेहनत चाहिए। उनकी बुद्ध के बारे में जो समझ है वह ओशो रजनीश से बहुत बेहतर है।
Bhanwar Meghwanshi
28 December at 20:09 ·
साथी किशन मेघवाल का एक विचारणीय लेख मिला ,अभी अभी पढ़ा ,अच्छा लगा ,सोचा कि आपसे साझा करूँ —-
आरएसएस जैसी फासीवादी-मनुवादी ताकतें भयभीत करती हैं तो कांग्रेस उसी डर को हथियार बना कर सत्ता पर कब्जा करने का सपना देखती है और बसपा इन दोनों की फैंकी हुई गंदगी को हाथी की सैर कराती हैं
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दलित राजनीति के नाम पर टुकड़ेल और दलाल किस्म का नेतृत्व हमें अंधी सुरंग में धकेल रहा है
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जन-मुद्दों पर सामुहिक नेतृत्व की अगुवाई वाले जन-आंदोलन के माध्यम से हासिये पर खड़े लोगों की मुक्ति संभव
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जातीय संगठन,महासभाऐं और सेनाऐं मनुवाद की असली वंशज
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धुर्त और तिकड़बाज दलित नेताओं की सामाजिक स्वीकार्यता चौकाने वाली और खतरनाक
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परजीवी नेताओं का खात्मा चाहते हो तो, उनके आप-पास मंडराना बंद कर उनके हाल पर छोड़ दीजिए, ये लोग स्वयं की समझदारी से जिंदा न हो कर हमारी मुर्खताओं के बल पर जिंदा हैं
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हिन्दुत्व के नाम पर थौपे हुए सामाजिक और धार्मिक ढाँचे की जड़ों को उखाड़ कर फैकते हुए वैकल्पिक सामाजिक और सांस्कृतिक ढाँचे का निर्माण करें
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वामपंथ में आंतरिक संघर्ष की मौजूदगी ने वामपंथ को निखारने का काम किया है अतः अब दलित राजनीति के आंतरिक संघर्ष को परिभाषित करने की जरूरत महसूस की जा रही है।
केवल लाल-सलाम ठोकने से कोई कम्युनिस्ट नहीं बन सकता है उसी प्रकार केवल जय-भीम का उदघोष करना ही सच्चे अम्बेडकरवादी होने का सबूत नहीं है; दोनों ही स्थानों पर दोहरेपन और पाखंड की गुंजाइश बनी रहती है।
कुछ दिन पूर्व मैंने एक आलेख लिखा था जिसमें अपील की गई थी कि वर्ण-संघर्ष और वर्ग-संघर्ष के दुश्मन को पहचान कर निर्णायक संघर्ष छेड़ा जाए , साथियों की उत्साही प्रतिक्रिया आई थी परंतु झिझक भी महसूस की गई थी।
आज कुछ पंक्तियाँ इस मकसद के लिए लिख रहा हूँ शायद आप सभी मेरा मार्गदर्शन कर सको तो हमारे जमीनी संघर्षों को बल मिल सके।
केंद्र और राज्य में RSS की राजनीतिक ब्रांच भारतीय जनता पार्टी सत्ता में हैं जिसने देश एवं राज्य में घिन्नौने षड्यंत्र के तहत बड़े पूंजीपतियों को सब कुछ लूटने का खुला लाइसेंस दे दिया है ये सभी लोग मनुवादी व्यवस्था के अंतर्गत ऊपरी वर्ण का प्रतिनिधित्व करते हैं इन में से शुद्र कोई भी नहीं है , इसका सीधा सा मतलब है कि भारतीय समाज और राजनीति के संदर्भ में विश्लेषण करें तो पूंजीवाद और मनुवाद का गठजोड़ है जो एक दूसरे को पोषित करते हैं, दूसरे शब्दों में भारत में पूंजीवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई को यहाँ का मनुवादी सामाजिक ढाँचा रोकता है अतः पूंजीवाद का हित इस बात में ही हैं कि भारत में यह विभाजनकारी और विनाशकारी सामाजिक ढाँचा बना रहें।
अब बात विपक्ष करें तो मैं विपक्ष की मौजूदगी को ही नकारता हूँ, यदि कांग्रेस जैसी पार्टी की बात करें तो यह इसी मनुवादी- पूंजीवादी गठजोड़ का “पार्टनर नम्बर-टू” हैं अतः इस पर कुछ भी लिखना समय की बर्बादी है यह बात काफी साथियों के लिए चुभने वाली हो सकती है परंतु क्या करें मुझे भी यह बात बहुत चुभती है कि पूरे देश के हर ताने-बाने को तहस-नहस किया जा रहा है परंतु ये कांग्रेस तमाशबीन बनी बैठी है, आंदोलन करना तो दूर मजबूती के साथ बयान भी जारी नहीं कर पा रही है , इसके दो कारण हो सकते हैं या तो कांग्रेस के पास इतनी हैसियत ही नहीं बची कि वह बोल सके या फिर कांग्रेस चाहती है कि दलितों और अल्पसंख्यकों को जितना भयभीत किया जाएगा उतना ही फायदा हैं अर्थात नीयत में खोट हैं कि नकारात्मक मतों की बदौलत सत्ता में वापसी में सफल हो जाएँ।
कौन है दलितों और अल्पसंख्यकों का भला चाहने वाला,?? एक डरा कर हिन्दुत्व के नाम से फासीवादी-मनुवादी ढांचे को थौपने में सफल हो रहा है और दूसरा …उसी का भय दिखाकर हमें भयभीत करते हुए वोटों की फसल काटने को आतुर है।
अब मजेदार बात पर आता हूँ जो शायद काफी उत्साही दलित युवाओं को मिर्ची सा लगेगा क्योंकि इन दोनों पार्टियों की नकारी हुई गंदगी को करीब 20-25 दिन के लिए सिर-आंखों पर बैठा कर उनको हाथी की सवारी कराना भी बहुत तकलीफदेह लगता है क्योंकि चुनावों का परिणाम कुछ भी रहे ये फिर से अपने मूल स्थान की तरफ भाग छूटते हैं और हम ठगे से हाथ मसलते रह जाते हैं।
यहाँ मेरी बात का मतलब राजनैतिक विकल्प देना नहीं है, केवल आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में हैं जमीन तैयार करना है वैचारिक मजबूती प्रदान करने हुए समझदारी से कदमताल करने की मंशा व्यक्त करते हुए अपील करना चाहता हूँ कि जन-मुद्दों पर आधारित सामुहिक नेतृत्व वाला जन-आंदोलन विकसित किया जाएँ ताकी हम किसी भी प्रकार के छलावे के शिकार होने से बच सकें। व्यक्ति भक्ति पर निर्भर आंदोलनों का हमेशा बुरा हस्र हुआ है, इतिहास के काले पन्नों की तरफ नजर डालने की हिम्मत भी जुटाना मुश्किल हो रहा है, न जाने कौन, कब,हम सभी को अंधी सुरंग में ले चला जाएँ अतः ब्लाॅक और गांव स्तर तक वैज्ञानिक चेतना से लैस समझदार और संवेदनशील कार्यकर्ताओं की कतारों का निर्माण किया जाएँ, एक ऐसी दीवार की कल्पना को साकार किया किया जाएँ जो अभैद्य हो।
Rss जैसी फासीवादी सोच की नई प्रयोगशाला के रूप में राजस्थान को विकसित किया जा रहा है, दलितों और अल्पसंख्यकों को भयभीत किया जा रहा है इनके गरीमा को चोट पंहुचाने वाली घटनाएँ बदस्तूर जारी है परंतु सत्ता में वापसी के लिए मुंह धो-कर तैयार बैठी कांग्रेस को कोई नैतिक हक नहीं है कि वह दलितों, अल्पसंख्यकों, किसानों, मजदूरों और आम मतदाता को कह सके कि उनके समर्थन में मतदान करें, एक विपक्षी दल के रूप में एक भी दिन सड़कों पर उतरने की ईमानदारी और हौसला नहीं जुटा पाई है।
केवल जय-भीम की तोता-रट्ट से बदलाव होने आशा कैसे की जा सकती है ? बाबासाहेब के सपनों के समाज का निर्माण करने के लिए वैज्ञानिक चेतना से लैस होकर सामाजिक क्रांति की जंग को सड़क से संसद तक लड़ने की आवश्यकता किसे है?? सीधा सा जबाब हैं कि मौजूदा सामाजिक ढाँचे के साथ जिनके हित जुड़े हुए हैं वह इसे बदलने की क्यों करेगा और जो इस सामाजिक ढाँचे से त्रस्त होकर भी लगातार अपने कंधे पर इसलिए ढो रहे हैं क्योंकि वह गुलामी की बेड़ियों की आदत को नियती बना चुके हैं।
दोस्तों, इतने विकट हालात है कि किसी संवेदनशील व्यक्ति की नींद तक गायब हो जाएँ । सब कुछ छीना जा रहा है, मुट्ठी भर लोगों की सल्तनत चल रही हैं बाकी सब खामौश हैं और ये खामौशियां आने वाली पीढ़ी के लिए बर्बादी का कारण बनेगी।
अतः मात्र एक ही विकल्प हैं हमारा सांझा संघर्ष, जिसके माध्यम से हम मानवीय मुल्यों, भाईचारे, लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के लिए अपने आपको हर वक्त लड़ने के लिए तैयार कर सकते हैं।
जब मैं बात की शुरुआत दलित मुद्दों से कर रहा हूँ तो मेरा सवाल इसी संदर्भ में आम दलितों एव बहुजनों से लाजमी तौर पर बनता है कि तुम्हारे नेता कौन हैं?? विगत तीन वर्षों में दलितों के ऊपर जुल्मो-सितम की घटनाओं की इम्तिहां हो गई, यदि गिनाने बैठे पूरी एक पुस्तक लिखी जा सकती है। क्या आपने भाजपा और कांग्रेस का कोई आंदोलन तो दूर की बात है परंतु कोई मीडिया में निंदा करने वाला स्टेटमेंट भी देखा? इनसे आंदोलन की आशा करना तो बेमानी हैं क्योंकि सड़कों पर तो बहुजनों के लिए जीने-मरने की कसमें खानी वाली बसपा भी नहीं उतरी।
इसके लिए दोषी कौन है? मेरे शब्दों में तो आम दलित, क्योंकि बगैर लड़े ही कोई हमारे नेता बने रह सकते हैं तो फिर उन्हें लड़ने की कहां जरूरत है? येनकेन-प्रकारेण आर्थिक रूप से समृद्ध हो कर इन्ही पार्टियों के लिए काम करने वाले दलित नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाऐं रहती है वह लोकतंत्र की विकृतियों का जमकर उपभोग करें उनके लिए संवेदनशीलता और नैतिकता कोई मायने नहीं रखती हैं, दुर्भाग्य से वह दलितों के नेता बने रहते हैं और वही लोग पंचायती राज से लगाकर विधानसभाओं और संसद में पंहुचते हैं। आम शोषित तबके को दोषी इसलिए ठहरा रहा हूँ क्योंकि ये आम लोग ही इन दोहरे चरित्र वाले नेताओं को सिर आँखों पर चढाऐं रखते हैं ।यदि इन परजीवियों की प्राणवायु को रोकना हो तो इन्हें बेनकाब करने के लिए एक काम करें इनको खुद के हाल पर छोड़ दीजिए, इनके आसपास मंडराना बंद कर दीजिए, ये परजीवी अपनी समझदारी से जिंदा नहीं है हमारी मुर्खताओं से जिंदा हैं अतः आपके अंदर के दुश्मनों का खात्मा किये बगैर आप बाहर के दुश्मनों की सोचते हो तो फिर असली आजादी के लिए सदियों लगेगी।
जय-भीम शब्द के अभिवादन से मैंने पहली बार क्रांतिकारी जय-भीम शब्द का उपयोग अपने आलेखों एवं सोशल मीडिया की पोस्ट में शुरू किया तो राजस्थान के दलित आंदोलन का नया रूप देखने को मिला एवं वैचारिक आक्रामकता का आभास होने लगा इसके परिणामस्वरूप सभी दलित नेता और जातीय संगठनों-पंचायतों के नेता हमें अलग-थलग करने की रणनीति पर आ गये क्योंकि सभी का गणित गड़बड़ा गया।
हम देख रहे हैं कि रात-दिन दलितों के जीवन से जुड़े मुद्दों पर लगातार सड़कों पर उतर कर लड़ने के बावजूद हम सामाजिक स्वीकार्यता हासिल नहीं कर पाए हैं, जातीय उत्पीड़न के खिलाफ होने वाले संघर्षों में नगण्य भागीदारी के बावजूद इन नेताओं की सामाजिक स्वीकार्यता चौकाने वाली हैं एवं सामाजिक क्रांति की दिशा में अपना जीवन दांव पर लगा देने वालों के लिए काफी निराशाजनक बात है, अब सवाल यह उठता है कि हमारे जैसे लोगों को चुपचाप अपना घर पकड़ लेना चाहिए या संघर्ष की मशाल को थामे रखना है। इस आलेख के माध्यम से यह सवाल हासिये खड़े उन लोगों के समक्ष पेश कर रहा हूँ कि आखिर कब तक अपने दिमाग पर जमी धूल को झटकने में कामयाबी हासिल कर लोगे ताकी हम भी आंदोलनों में जन-भागीदारी की आशा कर सकें,? उत्पीड़न, आरक्षण, लोकतंत्र और संविधान जैसे मुद्दों में ही समाहित शिक्षा, चिकित्सा, आवास, रोजगार, भ्रष्टाचार, नीजिकरण के मुद्दों पर आधारित जन-संघर्षों में हमारी भागीदारी सुनिश्चित करने की दिशा में बढने में ओर कितना अर्सा लगने की संभावना हैं?
दलित राजनीति में यह नोट किया जा सकता है कि मेरे जैसे लोगों की सक्रियता हमलावर जातियों की अपेक्षा दलित जातियों के स्वयंभू नेताओं की आंखों में कंक्कड़ की तरह क्यों खटकती प्रतीत होती हैं? जातियों की सभाऐं हमारे से खफा खफा सी क्यों हैं?? भाजपा और कांग्रेस के टुकड़ेल sc/st प्रकोष्ठों के टुकड़ेल चमचों का मुंह का स्वाद खराब क्यों हो गया है? रामविलास पासवान, उदितराज एवं अठावले जैसे दगाबाज दलित नेतृत्व के सबक लेकर राजस्थान में इस प्रकार के दलाल नेतृत्व की नसबंदी करने का साहस देखकर दलितों को सीढ़ी बना कर भाजपा और कांग्रेस में अपना राजनीतिक भविष्य तलाश कर रहे लोगों में काफी बेचैनी देखी जा रही है क्योंकि उनकी नीयत में भारी खोट देखी जा रही है उनकी मंछा हैं कि दलितों में राजनैतिक चेतना नहीं आऐ, दलित तबका कुछ थौबड़ों को अपना पंसदीदा चेहरा मान कर वोट कर दे ताकी मनुवाद और पूंजीवाद के खिलाफ कोई निर्णायक आंदोलन का रूप प्रदान नहीं किया जा सके क्योंकि यदि कारगर संघर्ष होता है तो मोहरे की तरह सेट गोटियों का वजूद खतरे में पड़ जाऐगा इसी डर से राजस्थान के लगभग सभी तथाकथित छुट-भैये दलित नेता एकजुट हो कर हमारे खिलाफ अभियान छेड़े हुए हैं, जातिगत संगठनों के बैनर तले प्रतिभा सम्मान-सम्मारोह, सामुहिक विवाह समारोह, बाबासाहेब की जंयती और परिनिर्वाण दिवस के मौके को भुना कर दलितों की लामबंदी अपने पक्ष में करने का जुगाड़ी सफलता से खुशी का इजहार करते देखे जा सकते हैं।
अतः हम आम दलित तबके से अनेक सवालों के साथ अपेक्षा करते हैं कि सभी लोग दोस्त और दुश्मन की पहचान को फिर से परिभाषित करें, दलित- बहुजन- मूलनिवासी-शुद्र आदि शब्दों के मायाजाल में नहीं फंसे क्योंकि लड़ाई शब्दावली की नहीं है, लड़ाई गैरबराबरी पर आधारित और विकृत शोषणकारी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था के खिलाफ हैं अतः किसी जाति विशेष में पैदा होने से दोस्त और दुश्मन मान बैठने की गलती नहीं करें,,,कुछ लोग पांच हजार साल पूर्व के DNA में ले जाना चाहते हैं परंतु एक ही मां की कोख से पैदा हुआ सगा भाई, दुश्मन के खेमे में बैठा दिखाई नहीं देता है… अंदर घुस बैठे दुश्मनों को चिन्हित कर मार भगाईये वरना आप में मौजूद क्षमताओं को अंदर का दुश्मन खा जाऐगा, गैर-दलित का भय दिखाकर तुम्हे ठगने का काम बहुत पुराना है अतः यदि गुलामी की जंजीरों को तोड़ना चाहते हो तो पहले उस चक्रव्युह को तोड़े जिसमें तुम फंसे होकर भी आंनद का अनुभव कर रहे हो।
इन सभी बातों के बाद आप सभी से मेरा अनुरोध रहेगा कि हिदुत्व के नाम पर थौपे गये सामाजिक और सांस्कृतिक ढाँचे की जड़ों को उखाड़ कर फेंक दे और उस स्थान पर इंसानों को केंद्र में रखकर चलने वाला वैकल्पिक सामाजिक और सांस्कृतिक ढाँचे को स्थापित किया जाएँ ताकी मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं से लैस समाज की परिकल्पना को साकार किया जा सके, इस काम के लिए कोई भी फरिश्ता नहीं आने वाला है यह कार्य हमें ही मिलकर पूरा करना है, हमें अपने आप पर पूरा भरोसा है कि हम इस मिशन को अंजाम तक पहुँचाऐंगे
– किशन मेघवाल
प्रदेश संयोजक
DSMM राजस्थान
&
एडवोकेट
राजस्थान हाईकोर्ट,जोधपुर
9460590286
Shamshad Elahee Shams
3 hrs · Brampton, ON, Canada ·
२०१७ में रोहिंग्या मुसलमानों के नरसंहार की तस्वीरे, दुनियाभर में आइसिस द्वारा गला रेत कर, जलाकर मारते हुए इंसानों की तस्वीरे देखी, लेकिन मैंने इतनी वीभत्स तस्वीर पहले नहीं देखी. डाक्टर अम्बेडकर की राजनीति या उनके विचारों को मैं भले ही सिरे से ख़ारिज करता हूँ लेकिन ये तस्वीर सिर्फ डाक्टर अम्बेडकर के प्रति ब्राहमणवादी नफ़रत को उजागर नहीं करती बल्कि इसके नेपथ्य में भारत की ३०० मिलियन (अमेरिका की आबादी के बराबर ही समझे) दलित आबादी के प्रति सदियों से चली आ रही सवर्ण नफ़रत मौजूद है.
हमारे समय की विडंबना देखिये, समाज के इसी दबे कुचले तबके को हिंदुत्व का रोड रोलर मुसलमानों के खिलाफ हिंसा में सबसे बड़ा ब्राह्मणवादी अस्त्र नहीं है? क्या संघ ने इसी वर्ग का इस्तेमाल दंगों में नहीं किया? लेकिन जब सत्ता के बटवारे का प्रश्न आएगा तब दलित वर्ग को उसकी औकात बताना आज़ाद भारत की राजनीति में साफ़ साफ़ समझा -पढ़ा जा सकता है.
यह तस्वीर डाक्टर अम्बेडकर के विचारों पर भी पूर्ण विराम लगाती है क्योकि किसी समाज के गले में जाति का पट्टा भले ही दलित के नाम का क्यों न हो- है तो वह जाति ही, तुम एक जाति को लामबंद करोगे तो उसकी प्रतिक्रिया में दूसरी जातियां भी लामबंद होंगी. क्या आज इस बात की जरुरत नहीं कि दलित समाज को एक इंसानी समाज समझ कर उसके हकूक के लिए कोई वैश्विक विचार अमल में लाया जाये. क्या दलित विचारक जाति से आगे बढ़कर वर्ग हितों के वृहत क्षेत्र में विचरण करेंगे ? जाति समस्या है लेकिन उसका समाधान समाजवादी समाज में ही संभव है तथाकथित अम्बेडकरी संवैधानिक गणतंत्र में उनका सिर्फ शोषण ही होगा.
७० बरस के बाद अगर अम्बेडकर की मूर्ति भी खुद को सुरक्षा ने दे पाई तो दलित आवाम को क्या देगी? जिसे शक हो वह अपने गाँव, कस्बे, शहर, खेत, खलिहानों से गुजर कर छत्तीसगढ़ का मुआयना खुले दिल से कर ले.
दुनिया के मजदूरों एक हो – मजदूर वर्ग की सत्ता जिंदाबाद. ब्राहमण वाद, पूंजीवाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद !!!——————————-Rahul VT
21 December at 15:06 ·
“हाँ, बाबासाहेब ने लेबर पार्टी बनाई थी लेक़िन उसे डिसॉल्व किया क्योंकि उससे ग़रीब मज़दूर का प्रॉब्लम तो सॉल्व हो जाता लेकिन जातिय विषमता से उभरा शोषण सॉल्व नही होता। इसलिये मार्क्सवाद को करीब से अनुभव कर वे लेबर पार्टी डिसॉल्व कर देते हैं और बुद्ध की ओर जाते हैं, बुद्ध को समझ कर वे पाते हैं कि मानवता की सबसे बेहतरीन विचारधारा बुद्ध की है जिसे धर्म के नाम पर सवर्ण कम्युनिस्ट सिर्फ इसलिए नकारते हैं क्योंकि उससे मार्क्स की लाली फ़िकि पड़ने लगती है। वरना बाबासाहेब ‘कार्ल मार्क्स अथवा बुद्ध’ लिखकर अनुभव स्पष्ट ना करते।
जिग्नेश को लगता है कि आंबेडकरवाद पुराना घसीटा फ़ॉर्मूला है तो मार्क्स ने क्या कल जन्म लिया है? हमारी जाती व्यवस्था की हज़ारों सालों की उम्र के आगे आंबेडकरवाद आज भी यंगेस्ट आइडियोलॉजी है, जो कॉमरेड तेलतुंबड़े (जिग्नेश जिनका उल्लेख वीडियो में करता है) को समझ नही आएगी। महाराष्ट्र के लोग जानते हैं कि नक्सलवाद की गटरगंगा किस कॉमरेड के दिमाग से फूटती है।
यदि एनहिलेशन ऑफ कास्ट के विचार बाबासाहेब से बेहतर किसी कॉमरेड को समझते थे तो इतने सालों में कोई क्रांति क्यों न की, अब यदि समझ आ गया हो तो आज किसने जाति के विरोध में आंदोलन करने से रोका है? यदि जाति जैसे बड़ी सामाजिक बीमारी इतने सालों तक कम्युनिस्टों ने नही उठाई तो उनसे सवाल क्यों न पूँछे? मासूम ट्राइब को नक्सलवादी बनवा कर मरवाने वालों को बेनिफिट ऑफ डाउट क्यों दें जिग्नेश?
कम्युनिज्म में क्रांति रक्तरंजित होने पर भी उन्हें कोई शुबा नही लेकिन बुद्ध और आंबेडकर की मानवता की परिभाषा में ध्येय ही नही, ध्येय प्राप्ति का मार्ग भी मानवतापूर्ण, नीतिसमत्त और मोरैलिटी पर खरा होना पहली शर्त है, जो मार्क्स के ‘वाद’ और ‘वादियों’ में नदारद है।”
― राहुल शेंडे.
Satyendra PS
20 hrs ·
हरियाणा की गुरुग्राम पुलिस ने बॉबी कटारिया नामक सोशल मीडिया के एक चर्चित शख्स को गिरफ्तार कर छह दिनों से रिमांड पर लिया हुआ है. बॉबी कटारिया युवा एकता जिंदाबाद फाउंडेशन चलाते हैं जिसके वे खुद अध्यक्ष हैं.
बॉबी फेसबुक पर लोकप्रिय हैं। सूचना मुताबिक ढाई लाख फालोवर हैं। वह जब फेसबुक पर किसी की मदद के बारे में लिखते और वीडियो डालते तो हजारों शेयर, लाइक्स आते।
भगत सिंह को अपना आदर्श बताने वाले बॉबी लोगों की मदद में थाने में, सरकारी विभागों में घुसकर हंगामा, गाली गलौज करते। उन्हें गफलत हो गई कि पूरा देश उनकी क्रांति के फेवर में आ गया। ऐसा उन्हें और उनके समर्थकों को लगता कि पूरा देश उन्हें जान गया। हकीकत यह है कि सोशल मीडिया पर ठीक ठाक रहने के बावजूद बॉबी का नाम आज मैंने पहली बार Yashwant Singh भाई से सुना।
हालांकि देश जानता है, देश समर्थन कर रहा है, देश आगे बढ़ रहा है, देश के लिए कुर्बान हो जाएंगे यह देश देश वाली बीमारी बड़ी भयावह है जो हाल कर वर्षो में चरम पर पहुंच गई है।
अब बॉबी को पुलिस रिमांड पर लेकर पीट रही है। कोर्ट में भी राहत नहीं। फेसबुकिया क्रांतिकारी समर्थक गायब हैं। हम नैतिक समर्थन करते हैं। आप भी समर्थन करने या न करने को स्वतंत्र हैं।
पूरी कहानी कमेंट बॉक्स के लिंक में पढ़ें और वीडियो भी देखें।https://www.bhadas4media.com/state/haryana/14412-पुलिस-को-निशाने-पर-रखने-वाला-बॉबी-कटारिया-गिरफ्तार,-रिमांड-पर-लेकर-सबक-सिखाया-जा-रहा
Kanwal Bharti
11 hrs ·
बताओ तुम नफरत क्यों करते हो?
(कँवल भारती)
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जब हम कहते हैं कि दलित हिन्दू नहीं हैं, तो हिन्दुओं को लगता है कि हम बगावत कर रहे हैं.
लेकिन कोई भी हिन्दू गुरु और नेता हमें यह समझाने में कामयाब नहीं हुआ है कि हमारा कथन गलत है.
कोई भी हिन्दू गुरु और नेता हमें यह समझाने में कामयाब नहीं हुआ है कि हम किस आधार पर हिन्दू हैं.
कोई भी हिन्दू गुरु और नेता हमें यह समझाने में कामयाब नहीं हुआ है कि अगर हम हिन्दू हैं तो सदियों से हिन्दू हम पर अत्याचार क्यों करते आ रहे हैं?
कोई भी हिन्दू गुरु और नेता हमें यह समझाने में कामयाब नहीं हुआ है कि उनके धर्मशास्त्रों में हमारे लिए घृणा क्यों प्रदर्शित की गई है?
कोई भी हिन्दू गुरु और नेता हमें यह समझाने में कामयाब नहीं हुआ है कि अगर हम हिन्दू हैं तो हिन्दुओं ने हमें अधिकारों से वंचित क्यों रखा?
कोई भी हिन्दू गुरु और नेता हमें यह समझाने में कामयाब नहीं हुआ है कि अगर हम हिन्दू हैं तो हमें मारा क्यों जाता है?
हमें महाद में मारा गया, जहाँ हमने सार्वजनिक तालाब से पानी लेने का प्रयास किया.
हमनें नासिक में मारा गया, जहाँ हमने मन्दिर में प्रवेश करना चाहा.
और तो और जब हमने राजनीतिक अधिकारों की मांग की, तो देशभर के हिन्दू हमारे दुश्मन बन गये. क्यों किया था तुमने ऐसा?
तुमने हमें पढ़ने नहीं दिया, पक्का घर नहीं बनाने दिया, साफ़ कपड़े नहीं पहिनने दिए, साइकिल पर नहीं चढ़ने दिया, और कहते हो हम हिन्दू हैं.
हम हिन्दू नहीं हैं.
आज़ादी से पहले के अत्याचारों को छोड़ भी दें, तो उसके बाद से लगातार हम पर हमले किये जा रहे हैं, काटा जा रहा है, मारा जा रहा है, जलाया जा रहा है. बर्बाद किया जा रहा है. क्या-क्या जुल्म नहीं किया जा रहा है?
अच्छा यह बताओ—
ब्राह्मणों ने ठाकुरों पर कितने जुल्म किये?
ठाकुरों ने ब्राह्मणों पर कितने जुल्म किये?
ठाकुरों ने बनियों पर कितने जुल्म किये?
और बनियों ने ठाकुरों या ब्राह्मणों पर कितने जुल्म किये?
यह भी बताओ कि दलितों पर अत्याचार में ब्राह्मण, ठाकुर और बनिया सब एक क्यों हो जाते हैं?
हिन्दुओं तुम यह भी बताओ कि तुम्हारी नफरत का कारण क्या है?
दलितों ने तुम्हारे साथ ऐसा कौन सा जुल्म किया है कि सदियों से तुम सब मिलकर उसका बदला ले रहे हो?
कोरेगाँव में दलितों के आयोजन में भगवा पलटन क्या करने गई थी?
यह कौन सी नफरत है जो तुम्हें बार-बार दलितों को मारने के लिए उकसाती है?
हम तुम्हारी इस नफरत का स्रोत जानना चाहते हैं?
बताओ मोहन भागवत?
बताओ शिवसेना प्रमुख?
बताओ भाजपाइयों?
बताओ शंकराचार्यों ?
कोई तो कुछ बताओ?
यह नफरत तुम्हें कहाँ से मिली?
तुम हमसे ही नहीं, अपने सिवा सबसे नफरत करते हो—
तुम मुसलमानों से नफरत करते हो, ईसाईयों से नफरत करते हो, आदिवासियों से नफरत करते हो?
क्यों करते हो? क्या इन लोगों से तुम्हारी नफरत का सिरा दलितों से जुड़ा हुआ है?
क्या नफरत के सिवा भी तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है?
नफरत के सौदागरों,
अब बहुत हो चुका.
क्या तुम्हारे आकाओं को नहीं दिख रहा है, कि तुम्हारी नफरत का जवाब अगर नफरत से देने का सिलसिला शुरू हो गया, तो क्या होगा?
कायरों सत्ता का सहारा लेते हो?
पुलिस को अपना हथियार बनाते हो?
इससे तुम नफरत को और हवा दे रहे हो.
अगर तुम पीढ़ी-दर-पीढ़ी नफरत पाल सकते हो, तो समझ लो, दलितों में भी तुम्हारे लिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी नफरत भरती जा रही है.
इस नफरत को लेकर कैसा भारत बनाना चाहते हो—
संघियों, भाजपाइयों, हिन्दुओं !————————————————shok Kumar Pandey
1 hr ·
आनंद तेलमटुडे ने वायर में लिखा है कि दो सौ साल पहले की वह लड़ाई महारों की पेशवाओं के ख़िलाफ़ लड़ाई नहीं थी बल्कि अंग्रेज़ों की पेशवाओं के ख़िलाफ़ लड़ाई थी जिसमें अंग्रेज़ी सेना की तरफ़ से महारों ने हिस्सा लिया। बाद में अम्बेडकर ने उसे एक प्रतीक की तरह इस्तेमाल किया।
1857 की लड़ाई में भी देखें तो झाँसी की रानी ने अपने राज्य को बचाने के लिए भरपूर कोशिश की। अजीमुल्लाह खान को वक़ील बना लंदन भी भेजा। कोई चारा न होने पर वह जिसे बचाने उतरीं वह कोई भारत नहीं उनकी जागीर झांसी थी। जिनकी बख्श दी अंग्रेज़ों ने वे नहीं लड़े। बिठूर से भी रिश्ते दोस्ताना ही थे, रह सकते आगे तो नहीं होती लड़ाई। देशभक्ति और देशद्रोह की लाइन इतनी साफ़ होती तो जम्मू और कश्मीर के हिन्दू डोगरा राजा मियाँ ग़ुलाब सिंह सत्ता छोड़ देने के बाद भी मृत्यु शैया से अपने बेटे मियाँ रणबीर सिंह को 1857 में अंग्रेज़ों का साथ देने को न कहते और रणबीर सिंह डोगराओं तथा गोरखों की मदद के बदले कुछ लेने से यह कहके इनकार न करते कि ‘यह तो हमारा फ़र्ज़ था।’ लेकिन आप देखिए 47 के बाद उसी डोगरा खानदान के चश्मोचिराग हमारी नई व्यवस्था में देशभक्त की तरह सहज स्थापित हो जाते हैं और उनके ख़िलाफ़ लड़ने वाले शेख़ अब्दुल्लाह को मुख्यधारा विलेन बना देती है।
मिथक तो ऐसी वीरताओं के भी गढ़े गए/गढ़े जा रहे हैं। क्योंकि वह सवर्ण जातियों के सत्ता विमर्श के क़रीब हैं। क्षत्रिय-ब्राह्मण हैं तो उनके मिथक महाकाव्ययुग के मिथकों का कांटीनिवेशन लगते हैं, दैवीय। लेकिन जब दलित/आदिवासी अपनी परम्पराओं को मिथकीय रूप देते हैं तो वह अनिवार्य रूप से इतिहास की इस धारा में व्यवधान की तरह आता है। सबको दिक्कत होती है।
समस्या यही है। इसीलिए इन मिथकों को जानना और जानकर फिर इतिहास की जटिलताओं और द्वंद्वों के साथ स्थापित करना एक प्रगतिशील काम बन जाता है। ब्राह्मणवादी मिथकों के समानान्तर जनमिथकों की स्थापना उनका विस्तार नहीं अनिवार्य प्रतिरोध है।
——————————————-ProfileSanjay Shraman Jothe
A
Sanjay Shraman Jothe
56 mins ·
विकास को सामान्यतया अर्थशास्त्र या गवर्नेन्स का मुद्दा बताया जाता है, ये एक षड्यंत्र है। असल मे विकास नैतिकता और सभ्यता का मुद्दा है। दुनिया भर में जो समाज जितने सभ्य और नैतिक हैं उतने विकसित हैं। भारत एक अंध्वविश्वासी, बर्बर और असभ्य समाज है इसलिए अविकसित और प्रदूषित है।
सभ्य और असभ्य देशों/समाजों के इतिहास की सीधी तुलना करके देखिए आपको साफ नजर आएगा कि पहले सभ्यता आती है फिर विकास आता है।
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Rahul Gupta
Rahul Gupta देशभगतों को मिर्ची लग सकती है।
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Dhiraj Kumar
Dhiraj Kumar विकास एक भ्रामक मुद्दा है
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Surendra Ambedkar
Surendra Ambedkar सही कहा सर
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Mahesh Mishra
Mahesh Mishra सही बात
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Sanjay Shraman Jothe
1 hr ·
एक जरुरी बात
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Ashok Kumar Pandey
1 hr ·
आनंद तेलमटुडे ने वायर में लिखा है कि दो सौ साल पहले की वह लड़ाई महारों की पेशवाओं के ख़िलाफ़ लड़ाई नहीं थी बल्कि अंग्रेज़ों की पेशवाओं के ख़िलाफ़ लड़ाई थी जिसमें अंग्रेज़ी सेना की तरफ़ से महारों ने हिस्सा लिया। बाद में अम्बेडकर ने उसे एक प्रतीक की तरह इस्तेमाल किया।
1857 की लड़ाई में भी देखें तो झाँसी की रानी ने अपने राज्य को बचाने के लिए भरपूर कोशिश की। अजीमुल्लाह खान को वक़ील बना लंदन भी भेजा। कोई चारा न होने पर वह जिसे बचाने उतरीं वह कोई भारत नहीं उनकी जागीर झांसी थी। जिनकी बख्श दी अंग्रेज़ों ने वे नहीं लड़े। बिठूर से भी रिश्ते दोस्ताना ही थे, रह सकते आगे तो नहीं होती लड़ाई। देशभक्ति और देशद्रोह की लाइन इतनी साफ़ होती तो जम्मू और कश्मीर के हिन्दू डोगरा राजा मियाँ ग़ुलाब सिंह सत्ता छोड़ देने के बाद भी मृत्यु शैया से अपने बेटे मियाँ रणबीर सिंह को 1857 में अंग्रेज़ों का साथ देने को न कहते और रणबीर सिंह डोगराओं तथा गोरखों की मदद के बदले कुछ लेने से यह कहके इनकार न करते कि ‘यह तो हमारा फ़र्ज़ था।’ लेकिन आप देखिए 47 के बाद उसी डोगरा खानदान के चश्मोचिराग हमारी नई व्यवस्था में देशभक्त की तरह सहज स्थापित हो जाते हैं और उनके ख़िलाफ़ लड़ने वाले शेख़ अब्दुल्लाह को मुख्यधारा विलेन बना देती है।
मिथक तो ऐसी वीरताओं के भी गढ़े गए/गढ़े जा रहे हैं। क्योंकि वह सवर्ण जातियों के सत्ता विमर्श के क़रीब हैं। क्षत्रिय-ब्राह्मण हैं तो उनके मिथक महाकाव्ययुग के मिथकों का कांटीनिवेशन लगते हैं, दैवीय। लेकिन जब दलित/आदिवासी अपनी परम्पराओं को मिथकीय रूप देते हैं तो वह अनिवार्य रूप से इतिहास की इस धारा में व्यवधान की तरह आता है। सबको दिक्कत होती है।
समस्या यही है। इसीलिए इन मिथकों को जानना और जानकर फिर इतिहास की जटिलताओं और द्वंद्वों के साथ स्थापित करना एक प्रगतिशील काम बन जाता है। ब्राह्मणवादी मिथकों के समानान्तर जनमिथकों की स्थापना उनका विस्तार नहीं अनिवार्य प्रतिरोध है।
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Sanjay Shraman Jothe shared Premkumar Mani’s post.
9 hrs ·
Premkumar Mani
13 hrs ·
भीमा -कोरेगांव को हमें जानना चाहिए
प्रेमकुमार मणि
पुणे में कोरगॉंव विजय को याद करने जा रहे दलितों के जत्थे पर बर्बर हमला किया गया , जिसमे अब तक प्राप्त जानकारी के अनुसार एक की मौत हो गई है , और अनेक घायल हुए हैं . इसकी प्रतिक्रिया में मुंबई समेत महाराष्ट्र के अनेक शहरों -कस्बों में विरोध प्रदर्शन हुए हैं और अब भी हो रहे हैं .भारतीय मीडिया और बुद्धिजीवियों का अधिकाँश कोरगॉंव -प्रकरण से ही अनजान हैं , इसलिए इन विरोध -प्रदर्शनों को भी नहीं समझ पा रहा . दरअसल यह हमारी उस उथली शिक्षा -व्यवस्था और उसकी नकेल संभाले संकीर्णमना या फिर शातिर मिज़ाज़ लोगों के कारण हुआ है , जिन्होंने हमें इतिहास को आधे -अधूरे और उच्चवर्गीय -वर्णीय नजरिये से पढ़ाया -बतलाया .
कोरेगांव में 1818 में बाजीराव पेशवा की सेना और ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना के बीच युद्ध हुआ था . इस में पेशवा सेना की पराजय हुई . कम्पनी सेना जीत गई . यह ऐतिहासिक और दिलचस्प लड़ाई थी . पेशवा सेना में 28000 सैनिक थे . बीस हज़ार घुड़सवार और आठ हज़ार पैदल . कम्पनी सेना में कुल जमा 834 लोग थे . पेशवा सेना में अरब ,गोसाईं और मराठा जाति के लोग थे ,जबकि कम्पनी सेना में मुख्य रूप से बॉम्बे इन्फैंट्री रेजिमेंट के सैनिक शामिल थे ,जो जाति से महार थे . 834 सैनिकों में कम से कम 500 सैनिक महार बतलाये गए हैं . पेशवा सेना का नेतृत्व बापू गोखले , अप्पा देसाई और त्रिम्बकजी कर रहे थे ,जबकि कम्पनी सेना का नेतृत्व फ्रांसिस स्टैंटन के जिम्मे था . 31 दिसम्बर 1817 को लड़ाई आरम्भ हुई थी ,जो अगले रोज तक चलती रही . कोरेगावं , भीमा नदी के उत्तरपूर्व में अवस्थित है . कम्पनी सैनिकों ने पेशवा सैनिकों के छक्के छुड़ा दिए . पेशवा सेना के पांव उखड गए और अंततः बाजीराव पेशवा को जून 1818 में आत्मसमर्पण करना पड़ा . यह अंग्रेजों की बड़ी जीत थी . इसकी याद में अंग्रेजों ने कोरेगांव में एक विजय स्मारक बनवाया ,जिसपर , कम्पनी सेना के हत कुल 275 सैनिकों में से , चुने हुए 49 सैनिकों के नाम उत्कीर्ण हैं . इनमे 22 महार सैनिकों के नाम हैं . निश्चित ही अंग्रेज सैनिकों को तरजीह दी गई होगी ,लेकिन यह सबको पता था कि यह जीत महार सैनिकों की जीत थी .
हमारे स्वतंत्रता आंदोलन में इस स्मारक को हमने राष्ट्रीय हार के स्मारक के रूप में देखा . हमने राष्ट्रीय आंदोलन का ऐसा ही स्वरूप निर्धारित किया था . लेकिन आंबेडकर ने कोरेगांव की घटना को दलितों ,खास कर महारों के शौर्य -प्रदर्शन के रूप में देखा . यह इतिहास की अभिनव व्याख्या थी ,वैज्ञानिक भी . तब से कोरेगांव के विजय को दलित -विजय दिवस के रूप में बहुत से लोग याद करते हैं . और इन्हें याद करने का अधिकार होना चाहिए . कोरेगांव के बहाने हम अपने देश के इतिहास का पुनरावलोकन कर सकते हैं . क्या कारण रहा कि हम ने अपनी पराजयों के कारणों की खोज में दिलचस्पी नहीं दिखाई . हम तुर्कों , अफगानों , मुगलों , अंग्रेजों और चीनियों से लगातार क्यों हारते रहे . हमने अपनी बहादुरी और मेधा केलिए अपनी पीठ खुद थपथपाई और मग्न रहे . हम ने तो अपने बुद्ध को बाहर कर दिया और वेद सहित समग्र संस्कृत साहित्य को कूड़ेदान में डाल दिया . हाँ ,मनुस्मृति को नहीं भूले . हमने एडविन अर्नाल्ड के द्वारा बुद्ध को जाना ;और मैक्स मुलर के जरिये वेदों को . लगभग समग्र संस्कृत साहित्य की खोज -ढूँढ यूरोपियनों ने की . हमने तो केवल नफरत करना सीखा और सिखलाया . यही हमारा जातीय संस्कार हो गया . इसे ही आप हिंदुत्व भी कह सकते हैं .
क्या आपको पता है कि भारत में अंग्रेजों की पहली जीत भी दलितों के कारण ही हुई थी? 1756 में सिराजुदौला और क्लाइव के बीच हुए पलासी युद्ध में कम्पनी की सेना के नेटिव सैनिक ज्यादातर दुसाध जाति के थे . इन दुसाध बहुल नेटिव सैनिकों ने ही बहादुर कहे जाने वाले पठान -मुसलमान सैनिकों के छक्के छुड़ा दिए थे . हम तो इतिहास के नाम पर मीरजाफरों और जयचंदों की करतूतें तलाशते रहे .
विश्वविद्यालयों में आज भी भारतीय इतिहास को एकांगी नजरिये से पढ़ाया जा रहा है . यह दुर्भाग्यपूर्ण है . हमने इस के द्वारा अपनी एक संकीर्ण समझ विकसित की है . कोरेगांव की घटना को हम इसी कारण नहीं समझ पाते .इसी कारण हम फुले , आंबेडकर ,पेरियार आदि को नहीं समझ पाते . मिहनतक़श सामाजिक समूहों के महत्व को नहीं समझ पाते . हमें समझने की कोशिश करनी चाहिए .————————–Satyendra PS
10 hrs · Ghaziabad ·
इतिहास की कुछ गलतफहमियां ऐसी फैलाई गई जो भयावह हैं। बालाजी विश्वनाथ के शासन आते आते मराठों के हाथ से सत्ता निकल गई।
उसके बाद इन चितपावनो ने भयानक उत्पात किया। स्थानीय मराठी ब्राह्मण चितपावनो को दोगला, विदेशी ब्राह्मण मानते थे। सत्ता हाथ मे आते ही इन्होंने जनता पर कहर ढा दिया। इन्ही चितपावनो के काल में नियम बना कि अन्त्यज जातियां गले मे मटकी और कमर में झाड़ू बांधकर चलें, मटकी में थूकें और जिधर से गुजरें, सड़कें अपवित्र होने से बची रहें।
इसी तरह से इन चितपावनो ने महाराष्ट्र से लेकर मध्य प्रदेश और दिल्ली तक किसानों को लूटा, उनकी फसलें जलाईं, असह्य कर लादे। वर्ण व्यवस्था में खुद को पक्का ब्राह्मण साबित करने के लिए जनता पर कहर ढा दिया।
दुखद यह है कि तमाम पढ़े लिखे लोगों के मुंह से यह कहते हुए सुना कि मराठे बहुत लुटेरे, अत्याचारी थे।
हकीकत यह है कि चाहे शिवाजी का शासन हो या अंग्रेजो के काल मे ताकतवर बनकर उभरे शाहूजी महाराज हों, ग्वालियर के सिंधिया हों या बड़ौदा के गायकवाड़। इनके शासन में गरीब गुरबे, किसान खूब फले फूले। शिवाजी के शासन में तो किसानों की फसल नष्ट करने और उन्हें लूटने को लेकर सख्त कानून बने थे।
चितपावनो ने अपना सारा पाप मराठा शासन पर डाल दिया। यहां तक कि भीमा कोरेगांव की पिटाई भी मराठों के सर लाद दिया।
यहां तक कि 1857 की लड़ाई जिसे स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है, उसमें भी सिंधिया को गद्दार दिखाया गया।
1857 की हकीकत यह है कि उस समय हाल फिलहाल में जितने अंग्रेजों के पिटे मोहरे थे, उन्होंने मारकाट मचाई और उम्मीद लगाई कि अंग्रेजों से जीत लेंगे।
उस कथित स्वतंत्रता संग्राम में सिर्फ और सिर्फ बहादुर शाह जफर थे, जो 1957 के आसपास न तो अंग्रेजों से कूटे गए थे, न उनके बचे खुचे राजपाठ के लिए अंग्रेज कोई खतरा थे।
उसके बावजूद वह अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चे में शामिल हुए। हार होने पर आई टी ओ के पास खूनी दरवाजा पर उनके 4 बेटों की अंग्रेजों ने हत्या कर दी। ज़फ़र को रंगून में निर्वासित किया गया जहां वह 1872 के आसपास मर गए।
लेकिन कम भारतीय जानते हैं कि 1857 के विद्रोह या कथित स्वतंत्रता संग्राम में ज़फ़र की कोई भूमिका थी।
फिलहाल निर्वासित जीवन में ज़फ़र के लिखे गीत के दर्द का एहसास करें। भीमा कोरेगांव की हाल फिलहाल की घटना याद करें। चितपावन विचारधारा देश के लिए कितनी घातक है, उस पर विचार करें।—————Vikram Singh Chauhan
13 hrs ·
रुबिका लियाकत एक प्रोग्राम लेकर आई थी अभी नाम था ‘देशहित’ .मैडम बोल रही है महाराष्ट्र को जातीय हिंसा में जलाने वाले तीन चार लोग हैं पहला है जिग्नेश मेवाणी दूसरा है जेएनयू में देशद्रोही नारे लगाने वाला उमर खालिद और तीसरा है सोनी सोढ़ी। क्योंकि ये लोग कुछ दिन पहले वहां इकठ्ठा हुए थे। महज एक नौकरी को सेफ रखने के लिए ये महिला सुपारी पत्रकारिता कर रही है। इनको ज़रा भी अंदाजा नहीं है कि वे क्या कर रही है और इसकी भरपाई देश को कैसे चुकाना होगा। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ हत्यारे शंभूलाल का आदर्श रुबिका जैसी ही एंकर रही होगी। न घटना की पृष्ठभूमि पता और न उनका इतिहास और न संवाददाताओं से अपडेट। आये और टीवी के सामने बड़बड़ा कर लोगों को भड़काकर चली गई। एक दूसरा चैनल इतने महत्वपूर्ण मुद्दे के बावजूद क्रिकेट आधा घंटा दिखा रहा है। एक ट्रम्प और किम जोंग पर ही अटका हुआ है। इनको लाइसेंस न्यूज़ चैनल का मिला है और ये काम गुर्गों का कर रहे हैं।———————-H L Dusadh Dusadh
18 mins ·
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वैसे उमर के प्रति खासा सहानुभूति रखने के बावजूद मेरा मानना है कि जेएनयू के दोनों जोशीले बच्चे- कन्हैया और उमर- भले ही लोगों में थोडा जोश भर दें, किन्तु इनका भाषण अंततः हिन्दू ध्रुवीकरण में ही सहायक होता है. ऐसे में वर्ण -व्यवस्था के विशेषाधिकारयुक्त तबकों(सवर्णों ) का शक्ति के स्रोतों पर ८०-८५ % कब्जे को बनाये रखने में मुस्तैद संघ व उसका राजनीतिक संगठन जिग्नेस के लिए कोई समस्या है, तो वह व्यक्तिगत जीवन में भले इन दोनों जेनुआइट लड़कों से मित्रता बनाये रखें, किन्तु सार्वजानिक जीवन में इनसे दूरी बनाये रखेने पर विचार करें . क्योंकि ये दोने अनजाने में, हिन्दू ध्रुवीकरण में भारी योगदान किये जा रहे हैं.
Ashutosh Kumar
11 hrs ·
अतीत की घटनाओं को जब वर्तमान की राजनीति के हिसाब से तोड़ मरोड़ दिया जाता है तब कोरेगांव-आतंक 2018 जैसे दुस्स्वप्न पैदा होते हैं.
आप भीमा-कोरेगांव विजय 1818 की घटना को किस तरह देखते हैं?
क्या आप इसे ‘आज़ादी की लड़ाई’ की एक कड़ी के रूप में देखते हैं? क्या आप पेशवा बाजीराव 2 के दो हज़ार सैनिकों के कम्पनी के आठ सौ सिपाहियों की चुनौती के सामने पीछे लौटने पर मजबूर होने को भारतीय राष्ट्रीयता पर अंग्रेज़ी राज की जीत के रूप में देखते हैं और शर्मिंदा होते हैं?
अथवा आप इसे कट्टर ब्राह्मणवादी पेशवाशाही के खिलाफ़ महार चुनौती की जीत के रूप में देखते हैं? और गौरवान्वित होते हैं?
यह कुछ वैसा ही सवाल है जैसे यह कि एक भारतीय के रूप में आज आप अकबर और राणा प्रताप में से किसकी उपलब्धियों पर गर्व करते हैं, और किस पर अफ़सोस!
अकबर के खिलाफ़ राणा प्रताप का संघर्ष किसी विदेशी आक्रान्ता के खिलाफ़ भारतीय राष्ट्रीयता की लड़ाई नहीं थी. क्योंकि दोनों के ही दिमाग में दूर दूर तक भारतीय राष्ट्रीयता का कोई ख़याल नहीं था. क्योंकि दोनों को ऐसी किसी चीज के वजूद की जानकारी नहीं थी.
अकबर और राणा प्रताप के युद्ध को भारतीय राष्ट्रवाद से जोड़ने वाले असल में आज के आधुनिक भारतीय राष्ट्र को धर्म के नाम पर विभाजित करने का खेल खेलते हैं, उसे कमजोर करते हैं. वे अपनी आज की राजनीति के लिए इतिहास की तोड़मरोड़ करते हैं.
आज हमारे दिमाग में भारतीय राष्ट्रीयता का जो भी नक्शा है वह 1857 और उसके बाद लड़ी गई भारत की आज़ादी की लड़ाई से निर्मित हुआ है .
आज हम भारतीय राष्ट्रीयता की विरासत से न तो अकबर की उपलब्धियों को निकाल सकते हैं, न राणा प्रताप की, तुलनात्मक रूप से वे चाहे जितनी छोटी-बड़ी हों. एक भारतीय के रूप में हम दोनों पर गर्व करते हैं.
पेशवा बाजीराव भी भारतीय राष्ट्रीयता के लिए नहीं लड़ रहे थे. बाजीराव का झगड़ा तो बुनियादी रूप से लगान के बंटवारे के विषय में दूसरे मराठा सरदार बडौदा के गायकवाड से चल रहा था. कम्पनी ने इस झगड़े में हस्तक्षेप किया और पेशवा को गायकवाड के लगान पर अपना दावा छोड़ना पड़ा. पेशवा लगान के लिए लड़ रहे थे, राष्ट्र के लिए नहीं.
उनकी सेना का सबसे मजबूत और बड़ा धडा अरबों का था. अरबों के अलावा उनकी सेना में गोंसाई और मराठे थे. हारने के बाद उन्होंने पेंशन और घर के लिए कम्पनी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया .इसमें कौन-सी गौरव की बात है? इसका भारतीय राष्ट्रवाद से क्या लेना देना है?
कम्पनी की टुकड़ी में महारों के अलावा कुछ मराठे, राजपूत, मुसलमान और यहूदी भी थे. अपने से तिगुनी बड़ी फ़ौज से लड़ते हुए इस टुकड़ी ने जो वीरता दिखाई, वह दुनिया भर की लड़ाइयों के इतिहास में याद किया जाता है. इस युद्ध में महारों की भूमिका सर्वाधिक प्रभावशाली थी. लेकिन यह वीरता उन्होंने भावी अंग्रेज़ी राज के लिए नहीं दिखाई थी. उनके दिलों में पेशवाशाही के दौरान हुई दलितों की भीषण अवमानना की आग जल रही थी. वे अपने आत्मसम्मान की पुनर्स्थापना के लिए लड़ रहे थे.
महारों की यह वीरता आज की हमारी भारतीय राष्ट्रीयता का गौरवशाली हिस्सा क्या सिर्फ़ इसलिए न बने कि यह पेशवाशाही के मुरीदों को पसंद नहीं? बिलाशक उनका संघर्ष हमारी आज की भारतीय राष्ट्रीयता की महान विरासत है, भले ही वे उस वक़्त कम्पनी की फ़ौज के हिस्से रहे हों.
हम पेशवाई प्रतिक्रियावाद को अपनी प्रगतिशील विरासत का हिस्सा नहीं मान सकते. हरगिज नहीं .
विजय दिवस पर हमला बोलने वालों ने सिर्फ़ दलितों पर नहीं समूची आधुनिक भारतीय राष्ट्रीयता पर , सम्विधान पर और लोकतंत्र पर हमला किया है . उनका असली मकसद भारत में पेशवाशाही को पुनरुज्जीवित करना है. हम सब को मिलकर उनके इस नापाक मिशन को नाकाम करना है . हमारी यह लड़ाई पेशवाशाही के खिलाफ़ भारतीय लोकतंत्र की लड़ाई है.
#पेशवाशाहीबनामलोकतंत्र
#आशुतोषकुमार.Dilip C Mandal
27 mins ·
मंगल पांडे किसकी फौज में था और चर्बी वाले कारतूस के कारण उसका धर्म खतरे में न पड़ता, तो उसकी बंदूक की गोलियां किनका सीना छलनी कर रही होती? चर्बी कांड से पहले तक मंगल पांडे ने किनका वध किया था?
क्रांतिकारी मातादीन ने विद्रोह की चेतना न पैदा की होती तो मंगल पांडे की बंदूक 1857 में किस ओर से चल रही होती?
वैसे भी अंग्रेजों के शासन के कुछेक साल को छोड़ दें तो अछूतों की ब्रिटिश फौज में एंट्री नहीं थी. बाकी फौजी उनके साथ खाने, उन्हें छूने और उनके साथ मिलकर लड़ने को तैयार नहीं थे. बाबा साहेब ने बाकायदा इसके खिलाफ पिटिशन दाखिल किया था.
भारत को गुलाम बनाने में अंग्रेजों का साथ किन जाति के सिपाहियों ने ज्यादा दिया?
इसलिए बेहतर होगा कि इतिहास को ज्यादा मत कुरेदिए.
नीचे आग है. हाथ जल जाएंगे.Dilip C Mandal
17 mins ·
भीमा कोरेगांव में सरकार खुद मान रही है कि 1 जनवरी को दस लाख लोग थे. लेकिन ब्राह्मणी मीडिया ने उस भीड़ के किसी कोने में उमर खालिद को खोज निकाला और कहा कि वही भड़का रहा था. उस उमर खालिद को जिसे 99.9% लोग वहां पहचानते भी नहीं होंगे.
आप समझ रहे हैं न कि मैं क्या कहना चाहता हूं?
मुसलमानों से डराकर ही जाति व्यवस्था को टिकाए रखा जा सकता है. यही आधुनिक पेशवाई का मूल श्लोक है.Vikram Singh Chauhan
1 hr ·
मीडिया यह खबर नहीं बताएगी कभी कि दलितों पर हमला हुआ है। जब भी दलितों पर हमला जैसी कोई घटना होगी तो ये सियासी साजिश बताएंगे। लेकिन मीडिया आपको ताल ठोक के ये खबर जरूर बताएगी कि किसी मंदिर में इस बार एक दलित पुजारी बन गया है। आप उनकी मंदिर का घंटा बजायेंगे तब भी उन्हें कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि आप गले में लाल गमछा डालकर और भगवा कपडा पहनकर ही पूजा करेंगे। जब आपकी मौत होगी तब आप खबर नहीं है जब आप पुजारी बन जायेंगे तो ये खबर ही नहीं महाख़बर है। ऐसा इसलिए क्योंकि आप उनका ही यशगान कर रहे हैं। रोहित वेमुला मामले को भी मीडिया ने अपने हिसाब से हैंडल किया और अंत में उनकी जाति भी खोज ली,अगर पहले जाति का पता चल जाता तो मोदी जी को एक दिन का रोने का नाटक भी नहीं करना पड़ता । चंद्रशेखर मामले की रिपोर्टिंग ऐसे की गई कि उसे विलेन ही बनाकर छोड़ा गया। अब उसे जेल में इतना मारा पीटा गया है कि अपने पैरों पर चलने के लायक ही नहीं है ,न जाने कब बेचारा मर जाये! जब कोई मुद्दा बड़ा बन रहा होता है तो सरकार के लिए मीडिया मोर्चा सम्हाल लेता है। बताना मुश्किल है कि ये सरकार बड़ा बदमाश है कि मीडिया।
See TranslationNazeer Malik
5 hrs ·
पेशवाई भारत की सबसे धूर्त और कलंकित व्यवस्था थी। इस व्यवस्था ने दलितों को कभी इंसान का दर्जा नहीं दिया। पिछड़ों को समाज का हिस्सा नही माना। इस लुटेरी व्यवस्था ने ज़रूरत पड़ने पर अपने इष्टों के मंदिरों तक को तोड़ डाला। इतिहास में इसके साक्ष्य भरे पड़े हैं। मैसूर से बंगाल तक इन्होंने क्या किया सब इतिहास में दर्ज है। कोरेगांव में वही व्यवस्था अब मॉनसिक्ता के रूप में काम कर रही है। पेशवा के वंशज अब नए नाम से पुरानी व्यवस्था चलाने की पुरजोर कोशिश में लगे हैं।
ज़रा इनकीं शातिर चालें देखिये पेशवाई मॉनसिक्ता वाली इनकीं मीडिया कोरेगांव में दलितों पर हुए हमले को हिन्दू बनाम दलित की हिंसा बता रही है। ये वही मीडिया है जो दलित बनाम मुस्लिम के विवाद में दलितों को हिन्दू कह कर प्रचारित करती है।
अब इस मॉनसिक्ता को लोग खास कर दलित, पिछड़े और सेकुलर हिन्दू काफी हद तक पहचानने लगे हैं। हर फासीवादी विचारधारा को पहचानने में वक़्त ज़रूर लगता हैं, मगर पहचान लिए जाने के बाद उसे शिकस्त देने में वक्त नही लगता। हिटलर मुसोलिनी का उदाहरण हमारे सामने है। तुम भी बच नहीं पाओगे पेशवा की औलादों।
Haider Rizvi
1 hr ·
हज़ारों महिलाईं और बुज़ुर्ग निहत्थे जारहे हैं…. पूरा गाँव जलाया हुआ है, ATM लूटे पड़े हैं, पथराव चल रहा है, ढाबे फूँक दिए गए हैं, छतों पर से बोम्ब और गोलियाँ चल रही हैं, पुलिस कोने में खादी तमाशा देख रही है और समता सैनिक बिना रीऐक्शन दिए आगे बाढ़ रहे हैं,……
क़रीब एक घंटे से ज़्यादा का विडीओ अवेलबल है…. मेने ख़ुद कई मीडिया वालों के पास यह भेजा…. लेकिन सन्नाटा, किसी को कवर नहीं करना था यह दृश्य… ५०० लोग पद्मावती का विरोध करने निकलते हैं तो यह नेशनल न्यूज़ बन जाती है लेकिन ५००० का जुलूस किसी को नेशनल नहीं नज़र आया…..
जब पुणे में पहला रीऐक्शन होता है तब अचानक सभ्रांत वर्ग नींद से जागता है…. देखो देखो जाहिल क्या कर रहे हैं….
बुर्जुआ संभ्रांत मिडल क्लास….
ऐसे ऐसे लानती लोग पड़े हे ये नवभारत का नीरज बधवार व्यंगय के नाम कलंक , सारी दुनिया को पता हे की भारत तेरे टुकड़े होंगे नारे एडिट करके वीडियो में जोड़े गए थे तब भी ये ये नारे जे एन यु के नाम लगा रहा हे Neeraj Badhwar shared Surya Prakash’s post.Surya Prakash
7 hrs · Ghaziabad · ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह-इंशा अल्लाह’ वाली गैंग महाराष्ट्र के पुणे पहुंची और वहां भी वही हुआ, जिसके लिए ये कुख्यात हैं। 200 साल पहले बाजीराव द्वितीय की सेना की अंग्रेंजों से हार का जश्न मना। यह कहकर यह जश्न मन रहा था कि इसमें दलित जीते थे और ब्राह्मणों की पेशवाई हारी थी। असल में उस युद्ध में देश हारा था। किसकी सेना में कौन सी जाति थी, यह महत्वपूर्ण नहीं है। सवाल यह है कि देश के लिए लड़ रही सेना को हारना क्यों पड़ा? उस दिन शर्म दिवस मनाना चाहिए था कि हमारे अपराधों के चलते देश हार गया था। क्या आज चीन या पाक से युद्ध में सेना का नेतृत्व किसी ब्राह्मण के हाथ में होगा तो उसके खिलाफ भी यूं ही लड़ोगे? लेकिन, उन्हें तो भारतीय राष्ट्र के विचार से ही आपत्ति है। पीएफआई जैसे आतंकी संगठन से चंदा लेने वाले क्या करेंगे? खैर, दलित समाज बाबा साहेब के आदर्शों पर चल रहा है और एक जागृत समाज ऐसे देश तोड़ने वाले लोगों के साथ कभी नहीं जाएगा।————————————————————————Prashant Tandon
9 hrs ·
भीमा कोरेगांव – क्या सवर्णवादी हिंदू से आखिरी बस भी छूट गई है?
2014 में मोदी को अभूतपूर्व समर्थन दरअसल हिंदू सवर्ण की अपनी असुरक्षा की भावना अभिव्यक्ति थी. वोट दूसरों ने भी दिया था पर भक्ति में शामिल यही हुये.
इनके सामने एक सुनहरा मौका था कि अपनी पिछली करनी पर पश्चाताप करते और सत्ता हासिल करने के बाद समाज में समनव्य का रास्ता निकालते. लेकिन हुआ इसका उलटा ही.
एक के बाद एक घटनाओं से इस सवर्णवादी हिंदू ने दलित, ओबीसी, मुसलमान, ईसाई, आदीवासी, महिला, बुद्धिजीवी और लोकतांत्रिक शक्तियों सभी को अपना दुश्मन बना लिया है.
सिर्फ पुलिस, उद्द्योगपतियों और मीडिया के बल पर बहुत लंबे समय तक वर्चस्व कायम रख पाना तो दूर सभ्य समाज में गिनती ही मुश्किल हो जायेगी.Prashant Tandon
10 hrs ·
पेशवा लगान के लिए लड़ रहे थे, राष्ट्र के लिए नहीं…हारने के बाद उन्होंने पेंशन और घर के लिए कम्पनी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया .इसमें कौन-सी गौरव की बात है? इसका भारतीय राष्ट्रवाद से क्या लेना देना है? – अशुतोष कुमार जी की बेहतरीन समीक्षा.
ये रविश कुमार का पडोसी ”भोकाल चतुर्वेदी ” हे जैसे गोडसे को काफी समय तक लड़की बनाकर पाला गया था वैसे ही ये या इसका गेंग ही – सोशल मिडिया पर सौलह साल की हिंदुत्ववादी ज़ोया बनकर लिखता हे ताकि लोंडे अट्रेक्ट हो खेर हुआ ये की इसी की वैचारिकजात का भाजपा की एक रद्दी का संपादक —— झा जिसकी बीवी बेचारी मेहनत करके इसका घर चलाती हे और ये घर बैठकर ये सब करते हे की एक दिन इस के साथ फ़्लर्ट कर रहा था खेर भोकाल चतुर्वेदी उर्फ़ ज़ोया लिखता हे अगर ऐसा होता हे जैसा ये भोकाल हिज़ाब करके लड़की बनके लिखता हे तो ये हम जैसे शुद्ध सेकुलर मुस्लिम सोच के लिए सुनहरा मौका होगा हम तो हमेशा से कहते हे की मुसलमान मुसलमान मुद्दों से दुरी बना ले और असली मुद्दों पर मैदान में आये नो हिन्दू मुस्लिम तो कुछ ही समय बाद पुरे उपमहाद्वीप में क्रांति हो जायेगी सबका भला होगा आमीन ———————————————————————————————————— ” भोकाल उर्फ़ Zoya
15 hrs ·
पिछले 3 सालों में ‘राजनैतिक भारत’ हैरतअंगेज़ रूप से बदल गया है… सत्ता के केंद्र बदल गए और एक मुश्त वोट के दम से मनचाहे दल को सत्ता पर काबिज कराने वाली कौम केंद्र से बाहर हो गई…
इसी राजनैतिक भारत मे अखलाक की नृशंस हत्या के वक्त सेकुलर नेताओ का जमघट दादरी में जमा हुआ था… लाखों करोड़ो रुपए और फ्लैट न्योछावर करने की होड़ लग गई थी… सोशल मीडिया से लेकर जंतर मंतर तक लहू न केवल बोल रहा था बल्कि ज़ोर ज़ोर से इंकलाब जिंदाबाद चिल्ला रहा था … यूएन को चिट्ठी लिखकर मौजूदा सरकार को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कटघरे में खड़ा किया गए… अवार्ड वापसी का मेला लगा दिया गया था… तगड़ी सुरक्षा में रहने वाली फिल्मी हस्तियों को भारत मे रहने में डर लगने लगा था…
इसी राजनैतिक भारत मे ठीक 3 साल बाद उससे भी भयानक तरह एक और हत्या हुई… वीडियो बना कर सोशल मीडिया पर शेयर किया गया… कोई एवार्ड वापस नही हुआ… कोई फिल्मी कलाकर बिल से बाहर नही निकला… जंतर मंतर पर सिर्फ एक दिन के लिए सेल्फ़ीबाज़ों की दिखावटी भीड़ हुई… ‘लहू बुलवाने’ वाले मुसलमानों के स्वघोषित ठेकेदार इसे दलित आतंकवाद तो छोड़िए हिन्दू आतंकवाद तक कहने में संकोच करते रहे… धर्म के नाम पर हुई इस हत्या को हिन्दू आतंकवाद के बजाय संघी या भगवा आतंकवाद कहते रहे ताकि इनकी वाह वाही करने वाले सेकुलर हिन्दू मित्र और हिन्दू दलित समुदाय नाराज़ न हो जाए…
हत्यारा दलित समुदाय से था इसलिए भीम मीम एकता के परम पैरोकार बण्डल साहब को सदमे से उबरने में 12 घण्टे से ज्यादा लगे… बेहद दबाव और तानों के बीच 12 घण्टे बाद बण्डल साहब की एक सधी हुई टिप्पणी आई कि शम्भू को ब्राह्मणों ने बहलाकर हत्या करवा ली… फिर एक गुमनाम से ‘रैगर महासभा संगठन’ के शम्भू को बिरादरी से बाहर करने का रिफरेंस देते हुए बण्डल साहब ने अपने तरकश से वही पुराने भगवा आतंक , ब्राह्मण आतंक, हिन्दू आतंक के तीर चलाने शुरू कर दिए, दलित आतंकवाद इसलिये नही कहा ताकि मुसलमान जे बीम जे मीम का झुनझुना बजाते रहे…
पिछले कुछ समय के राजनीतिक घटनाक्रम पर नज़र दौड़ाइये… उत्तर प्रदेश में योगी सरकार द्वारा कुम्भ का नाम बदलने के बाद नेता प्रतिपक्ष ने विधानसभा के अंदर कहा कि कुम्भ का नाम बदलना हिंदुओ की धार्मिक आस्था का अपमान है, सत्ता पक्ष नकली हिन्दू है असली हिन्दू हम है… इससे पहले कभी समाजवादी पार्टी को हिंदुओं की धार्मिक भावना का ख्याल करते देखा आपने…?
दिल्ली में केजरीवाल सरकार ने कब्रिस्तान मुद्दे पर न केवल मुसलमानों को दुत्कारा बल्कि मुस्लिम युवकों की पुलिस से पिटाई भी कराई… ये वही केजरीवाल है जो चुनाव में टोपी पहनकर कब्रिस्तान के लिए अनुदान की घोषणा किए थे…
नीतीश कुमार पहले ही हिंदुत्व की गोद मे जा बैठे है, लालू यादव जेल में है,सत्ता से बाहर तो पहले ही हो चुके थे … ममता बनर्जी भी आने वाले वक्त में हिन्दू राजनीति करने के संकेत दे चुकी है… लगभग सभी राजनीतिक दलों ने अंदरखाने संगठित हिन्दू वोट बैंक की ताकत को अच्छी तरह से समझ लिया है लेकिन मुसलमान ये बात न समझ पाए इसलिए उसे एवीएम हैकिंग का झुनझुना पकड़ा दिया गया है…
पूरे गुजरात चुनाव में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी खुद को हिन्दू साबित करने के लिए मेहनत करते रहे… मन्दिर मन्दिर मत्था टेका… 2002 से लगभग सारे चुनाव में मुसलमानो से गुजरात दंगों के नाम पर वोट मांगने वाली कांग्रेस ने हिन्दू पिछड़ो से सौदेबाज़ी की, हिन्दू पटेलो से सौदेबाज़ी की, हिन्दू दलितों से सौदेबाज़ी की मगर मुसलमानों का नाम भी नही लिया… अगर इस चुनाव में गुजरात के दलितों ने कांग्रेस को वोट किया तो इसी लिए कि उसने मुसलमानों की बात करके हिन्दुओ का ध्रुवीकरण नही होने दिया… गौर करने वाली बात ये है कि कांग्रेस की ये सारी मशक्कत ख़ुद को हिन्दू विरोधी छवि से निकालने के लिए थी जिसमें वो काफी हद तक सफल रही, हिन्दू समर्थक छवि अगला और मुस्लिम विरोधी छवि कांग्रेस का अंतिम पायदान होंगा…
फिलहाल कांग्रेस को ये तो समझ आ गया है कि वर्तमान में सत्ता सिर्फ हिन्दू वोट बैंक ही दिलवा सकता है लेकिन समस्या ये है कि आज का जागरूक हिन्दू समुदाय हमेशा से हिंदुत्व की राजनीति करती आ रही भाजपा से जुड़ा है… तो एक रास्ता केवल इस वोट बैंक को तोड़ने का है… एक साल पहले तक C बण्डल ज्यादातर दलित हित की पोस्ट करते थे, दलितों को जगाते थे, उन्हें ताकत का एहसास कराते थे, ब्राह्मणों को कोसते थे… इधर कुछ वक्त से अचानक बण्डल साहब 10 में से 9 पोस्ट में ब्राह्मणों के लिए अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते हुए मज़ाक उड़ाते है, कमेंट्स में हिन्दू देवी देवताओं के बारे में अभद्र टिपणियां की जाती है, सवर्णो की बहन बेटियों के लिए अपशब्द इस्तेमाल किए जाते है… ऐसा लगता है जैसे जान बूझ कर सवर्णों को उकसाया जा रहा हो… यकीनन बण्डल जैसे लोग जमीन पर भी काम कर रहे होंगे ताकि सवर्ण जमीन पर दलितों के खिलाफ उग्र होकर हमला करें… कोरे गाँव शौर्य दिवस में भी शौर्य गाथा कम पेशवाओं की हार का मज़ाक ज्यादा उडाया गया…
पिछले काफी वक्त से सवर्णो के खिलाफ चलाया जा रहा दलितों का संघर्ष अब परवान चढ़ने लगा है… दलित लड़ना सीख गए है… वो न केवल अपने सांसद विधायक चुन रहे है बल्कि सत्ता में भागीदारी भी कर रहे है… ये दलितों की ताकत है जिसने ब्राह्मण वर्चस्व वाली भाजपा को दलित राष्ट्रपति बनाने के लिए “मजबूर” किया… राजनीतिक दलों के बीच जो मारा मारी कभी मुस्लिम वोटों के लिए होती थी अब वो मारा मारी दलित वोटों के लिए है… दलितों ने मुसलमानो को पूरी तरह रिप्लेस कर लिया है… दलितों ने सत्ता की चाबी मुस्लिमों से छीन कर अपने हाथ मे लेली है… कांग्रेस को पता है दलितों पर कोरे गांव जैसा हर हमला भाजपा को सत्ता से दस कदम दूर और कांग्रेस को सत्ता के करीब कर देगा… कभी जाति के नाम पर किनारे कर दिए गए दलित आज ताकत मिलने से दलित उत्साहित है, और उत्तेजित भी… लम्बे समय तक सत्ता में रहना है तो सब्र करने की बारी अब सवर्णों की है… आने वाला वक्त हिन्दू दलितों का है… जो ‘दलित’ हित की बात करेगा वही देश पर राज रहेगा… किसी भी राजनैतिक दल को अब मुसलमानों की आवाज़ उठाने की कोई जरूरत नही… उन्हें पता है मुसलमान हमेशा की तरह झक मरा कर बिना माँगे हर उस पार्टी को वोट करेगा जो दलितों के सहयोग से भाजपा को हराती नज़र आएगी…आने वाले वक्त में मुसलमान राजनीतिक ताकत के रूप में सिर्फ गोबर भरी कचौड़ी रह जाएगा जो फेका तो नही जाएगा पर खाया भी नही जाएगा…
एकतरफ ये हिन्दू मुस्लिम राइटिस्ट हे पैसा ही पैसा हे सपोर्ट ही सपोर्ट हे थर्ड क्लास शायर कवि हे भोकाल चतुर्वेदी जैसे लोग हे जिन्हे अपनी ”कम्युनलहिज़डो ” की फौज के लिए बात की बात में बीस बीस लाख इक्क्ठा हो जाता हे ( फिर भी एक कम्युनल को सही समय पर इलाज नहीं मिलता मर जाता हे ) जिससे ये किसी लड़की को पैसा देकर नकाब लगाकर ज़ोया भी बना देते हे की देखो ये हे तुम्हारे सपनो की रानी हिंदुत्ववादी हिज़ाब वाली सौलह साल की ज़ोया , ये देश तो हे ही यौन कुण्ठितो का देश अक्षय कुमार का डायलॉग की लकड़ी को भी दुप्पटा उड़ा दो तो साले सूंघते हुए आ जाएंगे तो बात की बात में बीस बीस हज़ार फॉलोअर , और हमारे लिए——– ? इतना बुरा हाल हे इतना बुरा टाइम हे की लगभग हमारी ही सोच का आदमी लखनऊ का सूफी संत जहा एकतरफ कोशिश करता हे की उसके पाठको को खबर की खबर या जाकिर हुसैन के लेखन के बारे में जानकारी ना हो , ताकि एक दो लाइक इधर उधर ना हो जाए खुदा न ख़ास्ता , तो दूसरी तरफ ये सूफी संत भी इस भोकाल चतुर्वेदी उर्फ़ ज़ोया की लिस्ट में बत्तीसी चमकाता बैठा हुआ हे इतनी बड़ी गद्दारी —— ? तो हालात इस कदर दिल तोड़ने वाले हे खेर फिर भी कोशिशे जारी रहेगी
zakir hussain – सिकंदर हयात • a minute ago
मुस्लिमों के इस तरह से भारत की राजनीति से बाहर होने के पीछे वो खुद ज़िम्मेदार है. आज तो देश का मुस्लिम कुछ हद तक हिंदूवादी ताकतें सत्ता मे और आगे ना बढ़ पाए, इसलिए अनेकों मॉब लिन्चिंग के बाद भी कुछ हद तक धैर्य बनाए हुए है.
जबकि अतीत मे बाबरी मस्जिद से लेकर, बर्मा और फिलिस्तानी मुसलमानों के लिए वो तांडव मचाने मे पीछे नही रहा. अगर भाजपा हिंदुओं को भड़का रही थी, तो इसका यह काम अपनी हिंसक प्रतिक्रिया से मुस्लिम धर्मगुरू भी आसान कर रहे थे.
सेकुलर पार्टियाँ भी मुस्लिम समाज के इस नकारात्मक चेहरे की खुलकर मुख़ालफ़त करने की जहमत नही उठा रही थी, और भाजपा की सांप्रदायिकता को मुस्लिमों के लिए ही ख़तरा बता रही थी. भाजपा की सांप्रदायिकता को मुस्लिमों की बजाय हिंदुओं के लिए ख़तरा बताते तो आज राहुल को मंदिरों मे जाके घंटे नही बजाने पड़ते.
मैं मानता हूँ कि आज भी संघ के भगवा आतंक के मुद्दे पर हिंदू समाज से वोट माँगे जा सकते हैं, बशर्ते आप इस्लामी कट्टरपंथ से भी वैचारिक संघर्ष करो.
आप सेक़ूलेरिज़्म का सही अर्थ समझो. सेक़ूलेरिज़्म यह नही है कि हिंदुओं को खुश करने के लिए राम मंदिर के ताले खुलवा दो, और मुस्लिमों को खुश करने के लिए शाहबानो केस के लिए संविधान संशोधन कर दो.
सेक़ूलेरिज़्म का अर्थ सवर्णों को गलिया कर, दलित, पिछड़ों और मुसलमानों को गठजोड़ बनाना भी नही है.
सेक़ूलेरिज़्म सिर्फ़ वैज्ञानिक दृष्टिकोण है.
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zakir hussain • 2 hours ago
रवीश जी,
कॉरेगांव के हाल के प्रकरण के बहाने जो बहस उठी है, उससे हिंदू समाज के जातिवाद की उस सांस्कृतिक और ऐतिहासिक जड़ें उजागर होगी, जिस पर संघ परिवार ना सिर्फ़ लीपापोती करता है, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से सिंचित भी करता है.
लेकिन मुझे सामाजिक न्याय के इस आंदोलन की सफलता पर संदेह है, क्यूंकी सामाजिक और राजनैतिक आंदोलनों मे इसकी अगुआई करने वाले लोगों की छवि महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है.
जिग्नेश के विचार क्रांतिकारी हैं, लेकिन अपने राजनैतिक केरियर की शुरुआत मे वो जिस उमर खालिद के साथ स्टेज शेयर कर रहे हैं, वो लोगों को उनसे दूर करेगा.
आप क्रोनी केपिटलिज़्म, ग़रीबी, आदिवासियों के शोषण, मनुवाद के खिलाफ आवाज़ उठाओगे तो जनता के एक बड़े वर्ग से आपको समर्थन मिलेगा, लेकिन जब आप अफ़ज़ल गुरु को हीरो बताते हुए, देश की बर्बादी और टुकड़े करने के नारे लगाओगे तो लोग आपका विरोध करेंगे.
इसी तरह कन्हैया भी नक्सली या कश्मीर की जनता के मुद्दे को उठाता है तो कहीं भी वो वहाँ के अलगाववादी नेताओ या सोच की पैरवी नही करता, लेकिन ऐसा उमर खालिद के साथ नही है.
उमर खालिद अपने आपको नास्तिक बताता है लेकिन उस अलगाववाद के प्रति सहानुभूति जताता है, जिसकी कमान धर्मान्धन्ता मे डूबे और शरीयत क़ानून को लागू करने वाले वहाबी लोगो के हाथ मे है.
ये आदमी, इनके लिए मणिशंकर अय्यर साबित होगा, आपके द्वारा खड़े किए गये आंदोलन की मोदी जी उमर खालिद द्वारा दिए गये नारों के ज़िक्र से एक भाषण मे हवा निकाल देंगे तो आप से बचाव करते नही बनेगा.
इसलिए सुझाव है कि कन्हैया और जिग्नेश, इन लोगो से दूर रहे. इसके अतिरिक्त एल्गार द्वारा आयोजित कार्यक्रम मे वक्ताओं मे एक मौलाना भी थे. ये लाल सलाम वाले, और धर्म को अफ़ीम बताने वाले कम्युनिस्टों का ये अंतर्विरोध है, जो आपको समाज से दूर लेके जा रहा है.
Pankaj K. Choudhary
3 January at 11:33 ·
एक फ़िल्म आई थी, नाम था लगान…लगान फ़िल्म में एक चरित्र था कचरा..लाचार टाइप का कचरा…कचरा खेलना चाहता था मगर लोग कचरा को खेलने नहीं देते थे…फिर कचरा की जिंदगी में एक मसीहा आता है और कचरा की तरफ से संघर्ष करता है और कचरा भुवन की टीम में शामिल हो जाता है..
कचरा लाचार है, शोषित है…कचरा खुद संघर्ष नहीं कर सकता है…कचरा के लिए संघर्ष भुवन करेगा…
कचरा की ये कहानी उन लोगों को बहुत पसंद आई जिन्होंने महान निर्देशकों की फिल्मों में रामू काका का चरित्र देखा था…मालिक की खुशी में खुश रामू काका, मालिक के दुख में दुखी रामू काका…मालिक के बच्चों की खुशी में खुश रामू काका, मालिक के बच्चों के दुख में दुखी रामू काका..
कचरा और रामू काका की कहानी देख कर बड़े हुए बच्चे, धूर्त वामपंथी लोगों की बकवास वर्ग संघर्ष की कहानी पढ़ कर बड़े हुए बच्चे मान ही नहीं सकते कि कभी किसी ‘कचरा’ ने पेशवा के अन्याय और अत्याचार का विरोध भी किया होगा…
एक तरफ वो सवर्ण हैं जो इसाई मिशनरी की साजिश देख रहे हैं और दूसरी तरफ वो सवर्ण हैं जो जातीय अस्मिता, जातीय चेतना के खिलाफ वर्ग संघर्ष का बिगुल बजा रहे हैं…
कचरा ने अब नाम भी बदल लिया है और उसे न ही लाल भुवन चाहिए और न ही भगवा भुवन…
गुड मॉर्निंग माय फ्रेंड्सPankaj K. Choudhary
13 hrs ·
बात उस समय की है जब मैंने शंकर विडियो हॉल में ‘तूफ़ान’ फिल्म देखी थी ..इसमें एक गाना था: लंका में डंका बजाने आया बजरंगा” …इस फिल्म का ये गाना देखने के बाद मेरे मन में भी डंका बजाने का आईडिया आया …और मैंने सोचा कि कुछ करूँ ..जब तक तय कर पाता किसी ने मुझे राष्ट्रवादी रोड पर ठेल दिया ..
दौड़ता रहा ..दौड़ता रहा ..उस राष्ट्रवादी रोड पर …जहाँ तक नज़र जाती थी …वहां वहां झाजी, तिवारी जी, पांडे जी, चौबे जी, सिशौदिया जी, सिंह जी, सिन्हा जी, श्रीवास्तव जी नज़र आते थे …सब जय श्री राम, वंदे मातरम, पकिस्तान तेरे टुकड़े होंगे का नारा लगाते थे ..मेरा मन भर गया ये सब देख कर ..सोचा कि देश नहीं राज्य के लिए कुछ किया जाय ..
फिर? फिर क्या? मैंने दिल्ली से संचालित लगभग दो हज़ार मैथिल संगठन में एडमिशन के लिए अप्लाई किया …और लगभग सभी का एंट्रेंस एग्जाम पास कर लिया …मेरे पास पांच सौ संगठन की सदस्यता स्वीकार करने का विकल्प था और मैंने लिया भी …मगर ये क्या ..सभी संगठन में झाजी ही विद्यमान थे और 100 में सत्तर झाजी मधुबनी जिला के और पच्चीस दरभंगा के थे ..और चार, पांच मेरे जैसे भटके हुए लोग थे …
फिर मैंने तय किया कि यदि मिथिला राज्य बनने की नौबत आई तो सबसे पहले मैं विरोध करूँगा …और मिथिला राज्य मेरी लाश पर ही बनेगा ..फिर?
फिर मैंने वामपंथ की राह पकड़ी ..और मजदूरों के हितों की बात करने लगा …एक जगह मैं अपने साथिओं के साथ घास पर उग आया था ..और डाउन डाउन कैपिटलिज्म का नारा लगाने लगा …नारा लगाते वक़्त मेरी नज़र फ्रंट लाइन में खड़े एक कामरेड पर टिक जाती थी …उसने कहा क्या हुआ भाई? मैंने पूछा आप कहाँ से हैं? उसने जवाब दिया: बेगुसराय से? मैंने पूछा: कौन जात? उसने कहा: भूमिहार …
ये सुनते ही मुझे दिल का दौरा पड़ा ..होश में आया तो खुद को हॉस्पिटल में पाया …डॉक्टर मुझे घेरे हुए खड़े थे ..और पूछ रहे थे बहुत गहरा सदमा लगा है आपको? आप बार बार मेटल, कामरेड, मेटल कामरेड क्यों चिल्ला रहे थे?
खैर, उसके बाद मैंने तय किया बहुत हुआ ये सब …अब सामजिक न्याय में ही भविष्य देखूंगा ..सब कुछ ठीक चल रहा था …मगर ये क्या समाजिक न्याय वाले यदि मेरा स्टेटस कॉपी कर लेंगे और credit नहीं देंगे तो मैं कहाँ जाऊँगा? आप ही बताइये मैं कहाँ जाऊँगा?
इस एकादशी को निर्जला ब्रत रखूँगा …उसके बाद ही सोशल मीडिया पर आऊंगा …थैंक्स Pankaj K. Choudhary
Sanjay Shraman Jothe
3 hrs ·
ब्राह्मणवादी मिथकों पर जिनका बचपन पला हो उनकी सोच कितनी घटिया हो सकती है यह पूरे देश ने कल देख लिया।
भारत में मिथकशास्त्र जिस ढंग से बुने गए हैं वो ढंग दुनिया के अन्य देशों से बिल्कुल अलग है। यहां का मिथकशास्त्र मानव सभ्यता के क्रमविकास का या सामूहिक चेतना के संचित ज्ञान का ईमानदार प्रतिनिधि नहीं है। बल्कि यह वर्ण माफिया द्वारा वर्ण हितों की पूर्ति का धर्म-दार्शनिक षड्यंत्र मात्र है।
देवदत्त पटनायक जैसे धूर्त बिल्कुल ओशो रजनीश और जाकिर नाइक की तरह इन मिथकों की व्याख्या करते हैं। पट्टनाइक असल मे एक आम हिन्दू भारतीय के अंधविश्वासों को अजब गजब तर्कों और व्याख्याओं से समर्थन देते हैं। यही ओशोरामजी बापू “आध्यात्मिकता” के साथ करते है और जाकिर नाइक मुसलमानो के साथ करते हैं।
मिथकों को हल्के में मत लीजिये, ब्राह्मणी मिथकों की सडांध अब सड़कों और गलियों तक सीमित नही रही, वह संसद तक पहुंच चुकी है।Sanjay Shraman Jothe
1 hr ·
मिथकशास्त्र और मिथकीय कथाओं की जब भी बात आती है तो भारतीय जन बड़े भावुक हो जाते हैं। न केवल आमजन बल्कि बुद्धिजीवी भी इस मामले में मोहित नजर आते हैं। यही बात मिथकों को इतना महत्वपूर्ण और खतरनाक बनाती है।
भारत के लिए मिथकों का यह महत्व और खतरा कहीं अधिक है क्योंकि प्रचलित भारतीय हिन्दू मिथक असल में ब्राह्मण पुरुषों के द्वारा ब्राह्मण पुरुषों के हितों को सुरक्षित रखने के लिए लिखे गए हैं। यह विशेषता भारत को बहुत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में धकेल देती है। दुनिया का अन्य कोई देश अपने मिथकों से इतना पीड़ित नही रहा है इतना असुरक्षित और लाचार नही रहा है।
अन्य देशों के मिथकशास्त्र और भारतीय मिथकशास्त्र में एक बुनियादी अंतर है। अन्य देशों के मिथक उनकी सामूहिक चेतना में संचित ज्ञान का प्रतिबिंब हैं लेकिन भारत मे यह मिथक ब्रह्मण वर्ण माफिया द्वारा बुरी तरह से विकृत किये गए हैं। अन्य देशों ने जहां इन मिथकों का उपयोग अपनी विकास यात्रा को आगे बढ़ाने के लिए किया है वहीं भारत के अधिकांश प्रचलित हिन्दू मिथक असल मे तर्कबोध, न्यायबोध, इतिहासबोध और समयबोध को नष्ट करने के लिए इस्तेमाल किये गए हैं।
भारतीय हिन्दू मिथक असल मे इस देश समाज को पिछड़ा, अंधविश्वासी और कायर बनाये रखने के लिए बनाए गए हैं। वास्तव में ये मिथक जब मौलिक रूप से बुने गए थे तब ब्राह्मणों से पूर्ववर्ती समाजों ने ईमानदारी से और मानव विकास हेतु लाभदायक मिथक रचे थे। लेकिन ब्राह्मणी सँस्कृति ने जैसे जैसे भारत की मूल श्रमण और अनार्य सँस्कृति पर विजय हासिल की वैसे वैसे मूल भारतीय मिथकों में ब्रामणी मिलावट आरंभ हो गयी।
जनजातियों के पास जो मिथक हैं वे आर्य ब्राह्मणी मिथकों से एकदम भिन्न हैं। उन जनजातीय या श्रमिक जातियों (शूद्रों, दलीतों) में परम्पराओं से चले आ रहे मिथक ब्राह्मणी मिथकों से अधिक समृध्द हैं, इन मिथकों में ब्राह्मणी मिथकों के विपरीत स्त्रियों, श्रमिकों, ग्रहस्थ जीवन, प्रेम, सेक्स और सहज मानवीय जीवन को बहुत अधिक सम्मान दिया गया है। वहीं ब्राह्मणी मिथकों ने इन्ही पुराने मिथकों में बाद में मिलावट करके स्त्री, सेक्स, परिवार, प्रेम, मानवीय संबंधो की गरिमा को नष्ट किया है।
उदाहरण के लिए भारत की एक प्रमुख जनजाति, गोंड (कोयतूर) में सृष्टि और जीवन के जन्म के बारे में जो मिथक हैं उनमें मूल ऊना और पूना तत्व (नर और मादा) मिलकर प्रेमपूर्ण संबन्ध से सृष्टि और जीवन की रचना करते हैं। वहीं ब्राह्मणी मिथक में ब्रह्मा द्वारा सृष्टि की रचना का मिथक प्रेम की गरिमा से नहीं बल्कि बलात्कार की सडांध से भरा हुआ है। ब्रह्मा अपनी ही पुत्री का बलात्कार करते हैं और भयभीत पुत्री भागते छिपते हुए अनेकानेक जीवों का रूप धरती है, ब्रह्मा भी उस रूप में नर के रूप में प्रगट होकर उस मादा को बलपूर्वक भोगते हैं, इस प्रकार सभी जीवों की मादा और नर पैदा होते हैं और उनके बीच प्रेम का नहीं बल्कि बलात्कार का संबन्ध निर्मित होता है।
गोंडों, असुरों, दलितों शूद्रों की मिथकीय कथाओं में स्त्री या मादा से ऐसा दुर्व्यवहार नहीं किया गया है। अनार्य मिथकों में अधिकांश मौकों पर स्त्री या मादा तत्व को पुरुष या नर तत्व से महत्वपूर्ण और बलशाली बताया गया है। गोंडों की मिथकीय कथाओं में नर मादा मिलकर “नर्मदा” बनाते हैं, वह नदी जो गोंडी सँस्कृति में सृष्टि और जीवन के उद्गम की कहानी अपने गर्भ में समेटे हुए है।
क्या ब्राह्मणों के मिथक गोंडों के मिथकों की तरह स्त्री को गरिमा, सम्मान और बराबरी का दर्जा दे सकते हैं? बिल्कुल नहीं क्योंकि गोंडों के मिथक उनके अपने बनाये हुए हैं वे किसी अन्य पराजित या नष्ट की गई जनजाति या सँस्कृति के मिथकों को तोड़ मरोड़कर नही बनाये गए हैं। उनमें एक मौलिकता है, गोंडी और अनार्य मिथक उनके सामूहिक चेतना में संचित ज्ञान का सहज प्रतिबिंब हैं, उनमे कोई राजनीति और षड्यंत्र नहीं है।
Sanjay Shraman Jothe added 2 new photos.
4 hrs ·
आज सावित्री बाई फुले का स्मृति दिवस है। आइये इस महान विभूति को नमन करें।
यह दिन भारत की महिलाओं और विशेष रूप से दलितों, ओबीसी, और आदिवासी, मुसलमान महिलाओं के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
भारत के इतिहास में पहली बार किसी स्त्री ने शुद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए स्कूल खोले और उन्हें पढ़ाने के लिए संघर्ष किया। सावित्री बाई जब अपने स्कूल में पढ़ाने जातीं थी तब उस दौर के संस्कारी हिन्दू ब्राह्मण उन पर गोबर, कीचड़, पत्थर और गन्दगी फेकते थे। सड़कों पर और चौराहों पर रोककर उन्हें धमकाते थे।
वे कई बार रोते हुए घर लौटतीं थीं लेकिन उनके पति और महान क्रांतिकारी ज्योतिबा फुले उन्हें हिम्मत बंधाते थे। ये ज्योतिबा ही थे जिन्होंने ये स्कूल खोले थे और एक शुद्र और अछूत तबके से आते हुए भी संघर्ष करके लड़कियों को पढ़ाने का संकल्प लिया।
इस दौरान फूले दंपत्ति छोटे छोटे काम करके घर खर्च चलाते थे। एक ब्राह्मणवादी हिन्दू समाज में इन्हें कोई अच्छा रोजगार मिल भी नहीं सकता था। ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई ने सब्जियां बेचीं, फूल गुलदस्ते बेचे, कपड़े सिले, रजाइयां सिलकर बेचीं, और ऐसे ही छोटे छोटे अन्य काम किये लेकिन भयानक गरीबी से गुजरते हुए भी उन्होंने भारत का पहला शुद्र बालिका विद्यालय खोला और विधवाओं के निशुल्क प्रसव और बच्चा पालन हेतु आश्रम भी चलाया।
उस दौर के अंध्वविश्वासी बर्बर हिन्दू समाज में विधवाओं और परित्यक्ताओं को पुनर्विवाह की आजादी नहीं थी। ऐसे में विधवाओं को एक गाय बकरी की तरह घर के एक कोने में पटक दिया जाता था और ब्राह्मण परिवारों में तो उन्हें देखना छूना उनके साथ बात करना भी पाप माना जाता था।
अक्सर ऐसी युवा विधवाओं का बलात्कार उनके रिश्तेदार या समाज के लोग ही करते थे, या उन्हें किसी तरह फुसला लेते थे। ऐसे में गर्भवती होने वाली विधवाओं को ब्राह्मण परिवारों सहित अन्य धार्मिक सवर्ण द्विज परिवारों द्वारा घर से बाहर निकाल दिया जाता था।
ऐसी कई विधवाएं आत्महत्या कर लेती थीं। असल में ये बंगाल की सती प्रथा का एक लघु संस्करण था जिसमे स्त्री को पति के मर जाने के बाद खुद भी लाश बन जाने की सलाह दी जाती है। ऐसी आत्महत्याओं और शिशुओं की हत्याओं ने ज्योतिबा और सावित्री बाई को परेशान कर डाला था।
आज ये बातें इतिहास से गायब कर दी गईं हैं। तब इन दोनों ने भयानक गरीबी में जीते हुए भी ऐसी विधवाओं के लिए आश्रम खोला और कहा कि अपना बच्चा यहां पैदा करो और न पाल सको तो हमें दे जाओ, हम पालन करेंगे।
फुले दम्पत्ति ने ऐसे ही एक ब्राह्मण विधवा के पुत्र यशवंत को अपने बेटे की तरह पाला था।
इन बातों से अंदाज़ा लगाइये असली राष्ट्रनिर्माता, शिक्षा की देवी और राष्ट्रपिता कौन हैं? उस दौर के धर्म के ठेकेदार और राजे महाराजे, रायबहादुर और धन्नासेठ इस समाज को धर्म, साम्प्रदायिकता और अंधविश्वास में धकेल रहे थे और फुले दम्पत्ति अपनी विपन्नता के बावजूद समाज में आधुनिकता और सभ्यता के बीज बो रहे थे।
सावित्रीबाई को डराने धमकाने और अपमानित करने वाले लोग आज राष्ट्रवाद, देशभक्ति और धर्म सिखा रहे हैं। देश की स्त्रियों के रूप में उपलब्ध 50% मानव संसाधन की, और शूद्रों दलितों के रूप में 80% मानव संसाधन की हजारों साल तक हत्या करने वाले लोग आज वसुधैव कुटुंब और जननी जन्मभूमि स्वर्गादपि गरीयसी का पाठ पढ़ा रहे हैं।
इन पाखण्डियों का इतिहास उठाकर देखिये आपको भारत के असली नायकों और दुश्मनों का पता चलेगा।
जब जब भी गैर ब्राह्मणवादी नायकों ने ब्राह्मणवाद और हिन्दू ढकोसलों के खिलाफ जाकर कोई नई पहल की है, समाज को नई दिशा देने की किशिश है तब तब इन नायकों को सताया गया है। बुद्ध, कबीर, फुले, पेरियार, अंबेडकर इत्यादि को खूब सताया गया है। खैर इतना तो हर समाज में होता है लेकिन भारतीय सनातनी इस मामले में एक कदम आगे हैं।
भारतीय पोंगा पंडित समाज में बदलाव आ चुकने के बाद एक सनातन खेल दोहराते हैं। वे सामाजिक बदलाव और सुधार के बाद असली नायकों को इतिहास, लोकस्मृति, शास्त्रों पुराणों से गायब कर देते हैं और किसी ब्राह्मण नायक को तरकीब से इन बदलावों का श्रेय दे देते हैं। हजारों पंडितों की फ़ौज हर दौर में नए पुराण और कथा बांचती हुई गांव गांव में घुस जाती है और इतिहास और तथ्यों की हत्या कर डालती है।
ये भारत की सबसे जहरीली विशेषता है। इसी ने भारत के असली नायकों और राष्ट्रनिर्माताओं को अदृश्य बना दिया है।
आज सावित्रीबाई फुले के स्मृति दिवस पर उस बात पर विचार कीजिये और देश के असली नायकों और बुद्ध, कबीर, फुले, अंबेडकर जैसे असली क्रांतिकारियों के बारे में खुद पढिये और समाज को मित्रों को रिश्तेदारों को जागरूक करिये।
ये सन्देश हर घर तक पहुंचाइये।
-संजय जोठेSanjay Shraman Jothe
5 hrs ·
पेरियार से हम क्या सीखें?
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इस देश में भेदभाव और शोषण से भरी परम्पराओं का विरोध करने वाले अनेक विचारक और क्रांतिकारी हुए हैं जिनके बारे में हमें बार-बार पढ़ना और समझना चाहिए. दुर्भाग्य से इस देश के शोषक वर्गों के षड्यंत्र के कारण इन क्रांतिकारियों का जीवन परिचय और समग्र कर्तृत्व छुपाकर रखा जाता है. हमारी अनेकों पीढियां इसी षड्यंत्र में जीती आयीं हैं. किसी देश के उद्भट विचारकों और क्रान्तिकारियों को इस भाँती छुपाकर रखने, या अनुपलब्ध बनाए रखने में ना तो देश का हित है और ना समाज का हित है. हाँ घटिया राजनीति का कोई तात्कालिक हित अवश्य हो सकता है.
ऐसे ही हिंदी पट्टी में अदृशय बना दिए गए एक विचारक और क्रांतिकारी हैं रामास्वामी पेरियार, जो द्रविड़ और दलित आन्दोलनों के सन्दर्भ में याद किये जाते हैं. दलित और द्रविड़ शब्द की युति में बांधकर उनके मौलिक दान को नकारने का या कम करके आंकने का काम आज तक होता आया है. ये एक बहुत पुराना षड्यंत्र है, जो लीक से “ज्यादा हटकर” चलने वाले क्रांतिकारियों के साथ इस देश में सत्ता और समाज के ठेकेदारों ने हमेशा किया है. यूं तो भगत सिंह और आजाद भी क्रांतिकारी हैं और लीक से “थोडा हटकर” चलते हैं, वे अपनी क्रान्ति की प्रस्तावनाओं में इस देश की समाज व्यवस्था की पूरी सडांध को बेनकाब नहीं करते हुए क्रान्ति का मार्ग बनाते हैं, इसलिए थोड़े सुरक्षित मालूम पड़ते हैं. इसीलिए वे सबको स्वीकृत हैं, और सबके आदर्श बन जाते हैं. उनकी क्रान्ति, और दान निस्संदेह अतुलनीय है, और वे परम सम्मान के अधिकारी भी हैं, लेकिन सम्मान और लोकप्रियता की दौड़ में पिछड़ जाने वाले या जबरदस्ती किसी परदे के पीछे छिपा दिए गये अन्य क्रान्तिकारियों पर भी व्यापक विचार होना चाहिए.
ऐसे लीक से “बहुत ज्यादा हटकर” चलने वाले रामास्वामी पेरियार जैसे क्रांतिकारियों की सभी बातों से हम सहमत हों ये कतई आवश्यक नहीं है, लेकिन उनके विचार की प्रक्रिया और एक नए समाज के बारे में उनकी मौलिक मान्यताओं को हमें नि:संकोच सबसे साझा करना चाहिए, और उस पर खुली चर्चा के अवसर निर्मित करने चाहिए. जहां तक समत्व और सम्मान से जीने का प्रश्न है, वहां तक उनके विचारों को बहुत आसानी से अपनाया जा सकता है. हालाँकि भाषाई या प्रजातीय अलगाव और एक अलग राष्ट्र की मांग के अतिवाद के बारे में उनके प्रस्ताव के सम्बन्ध में हमेशा ही सहमत नहीं हुआ जा सकता. इसके बावजूद उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से कुछ बहुत महत्वपूर्ण शिक्षाएं ली जा सकती हैं.
रामास्वामी का जन्म १७ सितम्बर १८७९ को मद्रास प्रेसिड़ेंसी के इरोड नामक कसबे में एक धनी व्यापारी नायकर परिवार में हुआ. बहुत शुरुआती जिन्दगी में ही उन्होंने जाति, धर्म और प्रजाति (रेस) के आधार पर होने वाले भेदभाव और शोषण को करीब से देखा. वे खुद भी इन कुरीतियों के शिकार हुए और इन्ही के कारण भेदभाव के खिलाफ उनके मन में क्रांतिकारी विचार जन्मे. उनकी औपचारिक शिक्षा १८८४ में छः वर्ष की अवस्था में आरम्भ हुई, और पांचवी कक्षा तक की पढ़ाई के बाद अध्ययन छोड़कर उन्हें अपने पिता के व्यवसाय में शामिल होना पडा. तब उनकी अवस्था १२ वर्ष की थी. उनका विवाह १८९८ में उन्नीस वर्ष की अवस्था में १३ वर्ष की नागम्माल से हुआ, अपनी पत्नी को भी उन्होंने अपने विचारों में दीक्षित किया और पुरानी रूढ़ियों से आजाद कराया. उनकी एक पुत्री जो इस विवाह से जन्मी थी वो मात्र पांच माह की अवस्था में गुजर गयी. उसके बाद उनकी कोई संतान नहीं हुई. दुर्भाग्य से उनका दाम्पत्य भी अधिक लंबा न रहा, और जल्द ही नागम्माल की मृत्यु हो गई. बहुत बाद के वर्षों में १९४८ में पेरियार ने दूसरा विवाह किया, जब वे ७४ वर्ष के थे और मनिम्माल २६ वर्ष की थीं. उनकी दूसरी पत्नी का उनके काम को आगे बढाने में खासा योगदान रहा है.
पेरियार की मात्रभाषा कन्नड़ थी, लेकिन तमिल और तेलुगु पर भी उन्हें खासा अधिकार था. बचपन से ही वे अपने परिवार में वैष्णव संतों के उपदेश और प्रवचन सुनते आये थे, और धर्म के आधार पर होने वाले शोषण और भेदभाव के मूल कारणों को उन धार्मिक सिद्धांतों में उन्होंने बहुत पहले ही ढूंढ निकाला था. बहुत आरम्भ से ही वे उन ढकोसलों का उपहास उड़ाया करते थे और स्वयं के लिए एक तर्कशील (रेशनल) पद्धति का आविष्कार उन्होंने कर लिया था. ये तर्कशीलता आजीवन उनके साथ रही.
यह तर्कशीलता और बेबाकी उनके लिए मुसीबत भी बनी, १९०४ में अपने पिता से अनबन के चलते उन्होंने घर त्याग दिया और १९०४ में वे विजयवाड़ा, हैदराबाद, कोल्काता और काशी के अपने प्रसिद्ध प्रवास पर निकल पड़े. इसी क्रम में काशी में उनके साथ एक भयानक अपमानजनक वाकया हुआ जिसके कारण उनकी सोच पूरी तरह बदल गयी, और हम जिस क्रांतिकारी पेरियार को जानते हैं उसका जन्म हुआ.
अपने काशी प्रवास के दौरान, प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर में उन्होंने बहुत सारे पाखण्ड और भेदभाव देखे. उस समय न उनके पास पैसे थे ना कोई ठिकाना ही था, भ्रमण के दौरान उन्होंने मुफ्त भोजन पाने के लिए एक ब्राह्मण धर्मशाला का रुख किया. लेकिन वे खुद ब्राह्मण न थे सो एक जनेऊ धारण करके उन्होंने भोजन पाने का प्रयास किया. किन्तु द्वारपाल ने उन्हें अपमानित करके सड़क की ओर धकेल दिया. इस अपमान और भूख से परेशान युवा पेरियार को बहुत दुःख हुआ और अंततः उन्हें सड़क किनारे पडी जूठी पत्तलों से भोजन चुनना पडा.
इस भांति भोजन करते हुए उनकी नजर धर्मशाला की दीवार पर पडी जहां लिखा था कि एक दक्षिणी गैर ब्राह्मण धनिक ने इस धर्मशाला का निर्माण करवाया है, तब उनका खून खौल उठा और वे सोचने लगे कि उस द्रविड़ सज्जन के दान से बनी धर्मशाला में भी अगर उनका अपमान होता है, तो ऐसा धर्म और ऐसा समाज किसी भी सम्मान का अधिकारी नहीं हो सकता. ये ठीक वैसी ही घटना है जैसी ज्योतिबा फूले और आंबेडकर के साथ उनके जीवन में होती है. वर्ण या जाति के आधार पर इस भेदभाव ने उन्हें अंदर तक हिलाकर रख दिया था. तभी वे एक निर्णय लेते हैं कि इस धर्म को त्यागकर एक नास्तिक की भांति आजीवन संघर्ष करेंगे और धर्म, जाति, लिंग, भाषा और प्रजाति के आधार पर चल रहे भेदभाव को उखाड़ फेकेंगे.
इस घटना के बाद उन्होंने एक धनिक व्यापारी होते हुए भी पूरा जीवन गरीबों और मजलूमों की सेवा में लगाया. उनकी सेवाभावना इतनी प्रगाढ़ थी कि अपने गाँव में फैले प्लेग के दौर में बीमारों की सहायता के लिए उन्होंने अपने जीवन की भी चिंता न की. और अन्य धनिकों को प्रेरित कर प्लेग पीड़ितों के लिए धन जुटाया और उनकी मदद की. उनकी इन विशेषताओं को बड़ा सम्मान मिला और उनकी मानवता के प्रति निष्ठा और समर्पण देखते हुए उन्हें ब्रिटिश सरकार ने मानद मजिस्ट्रेट भी बनाया. इसी तरह वे कई अन्य महत्वपूर्ण पदों पर भी रहे और एक व्यापक ढंग से समाज और समाज की समस्याओं को बहुत नजदीक से देख पाए. इस यात्रा में उनके कई विद्वान् और क्रांतिकारी मित्र बने और कई मार्गों से उन्होंने देश में जमे हुए भेदभाव को उखाड़ने का प्रयास किया.
एक उल्लेखनीय प्रसंग जो उनकी एक और विशेषता जाहिर करता है वो ये है कि सामाजिक ढकोसलों को नकारते हुए उन्होंने अपनी बाल-विधवा बहन का पुनर्विवाह कराया, जो उस समाज में उस समय के लिए एक बड़ी बात थी.
आगे उन्होंने जो आन्दोलन खड़े किये और एक भेदभाव रहित समाज की रचना के प्रयास किये उनमे वाईकोम सत्याग्रह (१९२४-२५), आत्मसम्मान आन्दोलन (१९२५) प्रमुख रहे. वर्ष १९२९-३२ के दौरान उन्हें यूरोप और रशिया भ्रमण के अवसर मिले और एक नयी राजनीति और समाज निर्माण की उनकी समझ में व्यापकता आई. जस्टिस पार्टी और आगे चलकर द्रविड़ कषगम पार्टी की स्थापना (१९४४) इसी का नतीजा थी. दक्षिण भारत की राजनीति में एक नयी इबारत लिखते हुए उन्होंने भाषा, धर्म, वर्ण, जाति और लिंग के आधार पर हो रहे भेदभाव को उखाड़ फेंकने के लिए जन-संगठन और व्यापक जन-जागरण किया, भारत के इतिहास में इस काम की मिसाल ढूंढना मुश्किल है.
अंतिम रूप से हम उनसे क्या सीख सकते हैं? ये एक बड़ा सवाल है. निश्चित ही उनकी सारी प्रस्तावनाओं को जस का तस नहीं लिया जा सकता, लेकिन जिन मूल्यों के आधार पर उन्होंने संघर्ष किया वे मूल्य ग्रहण करने योग्य हैं. बहुत स्पष्ट शब्दों में कहें तो इस देश में ब्राह्मणवाद से जन्मे भेदभाव का विरोध ही उनके कर्तृत्व की चालिका शक्ति थी. ब्राह्मण और अ-ब्राह्मण में जैसा भेद और शोषण है, वो उन्हें मंजूर न था. ठीक इसी तरह दलित और महिलाओं का शोषण भी उन्हें स्वीकार नहीं था. इसीलिये वे एक सशक्त दलित राजनीति के पर्याय बन गए.
तमिल भाषा और द्रविड़ प्रजाति के सम्मान पर अतिआग्रह से जन्मे उनके स्वर विशेष रूप से अलगाववादी कहे जा सकते हैं. इनसे सहमत या असहमत हुआ जा सकता है. किन्तु अगर किसी भी आधार पर शोषण और दमन बना रहे और शोषक समाज इससे बाहर जाने का रास्ता न देता हो, तो अलगाव एक सहज चुनाव बन ही जाता है. हालाँकि आज के समय में भाषा, जाति या प्रजाति के आधार पर अलग देश या अलग धर्म मांगना – दोनों ही किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकते. फिर भी अलगाव की संभावना शोषक और शोषित दोनों को एक नए और परस्पर सम्मानजनक विकल्प पर सहमति बनाने का अवसर देती है.
-संजय जोठे
*चित्र गूगल से साभार
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Sanjay Shramanjothe
14 hrs ·
बुद्ध पूर्णिमा पर बुद्ध के दुश्मनों को पहचानिए
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बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर बुद्ध के सबसे पुराने और सबसे शातिर दुश्मनों को आप आसानी से पहचान सकते हैं। यह दिन बहुत ख़ास है इस दिन आँखें खोलकर चारों तरफ देखिये। बुद्ध की मूल शिक्षाओं को नष्ट करके उसमे आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म की बकवास भरने वाले बाबाओं को आप काम करता हुआ आसानी से देख सकेंगे।
भारत में तो ऐसे त्यागियों, योगियों, रजिस्टर्ड भगवानों और स्वयं को बुद्ध का अवतार कहने वालों की कमी नहीं है। जैसे इन्होंने बुद्ध को उनके जीते जी बर्बाद करना चाहा था वैसे ही ढंग से आज तक ये पाखंडी बाबा लोग बुद्ध के पीछे लगे हुए हैं।
बुद्ध पूर्णिमा के दिन भारत के वेदांती बाबाओं सहित दलाई लामा जैसे स्वघोषित बुद्ध अवतारों को देखिये। ये विशुद्ध राजनेता हैं जो अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए बुद्ध की शिक्षाओं को उल्टा सीधा तोड़ मरोड़कर उसमें आत्मा परमात्मा घुसेड देते हैं।
भारत के एक फाइव स्टार रजिस्टर्ड भगवान्– भगवान् रजनीश ने तो दावा कर ही दिया था कि बुद्ध उनके शरीर में आकर रहे, इस दौरान उनके भक्तों ने प्रवचनों के दौरान उन्हें बुद्ध के नाम से ही संबोधित किया लेकिन ये “परीक्षण” काम नहीं किया और भगवान रजनीश ने खुद को बुद्ध से भी बड़ा बुद्ध घोषित करते हुए सब देख भालकर घोषणा की कि “बुद्ध मेरे शरीर में भी आकर एक ही करवट सोना चाहते हैं, आते ही अपना भिक्षा पात्र मांग रहे हैं, दिन में एक ही बार नहाने की जिद करते हैं” ओशो ने आगे कहा कि बुद्ध की इन सब बातों के कारण मेरे सर में दर्द हो गया और मैंने बुद्ध को कहा कि आप अब मेरे शरीर से निकल जाइए।
जरा गौर कीजिये। ये भगवान् रजनीश जैसे महागुरुओं का ढंग है बुद्ध से बात करने का। और कहीं नहीं तो कम से कम कल्पना और गप्प में ही वे बुद्ध का सम्मान कर लेते लेकिन वो भी इन धूर्त बाबाजी से न हो सका। आजकल ये बाबाजी और उनके फाइव स्टार शिष्य बुद्ध के अधिकृत व्याख्याता बने हुए हैं और बहुत ही चतुराई से बुद्ध की शिक्षाओं और भारत में बुद्ध के साकार होने की संभावनाओं को खत्म करने में लगे हैं।
इसमें सबसे बड़ा दुर्भाग्य ये है कि दलित बहुजन समाज के और अंबेडकरवादी आन्दोलन के लोग भी इन जैसे बाबाओं से प्रभावित होकर अपने और इस देश के भविष्य से खिलवाड़ कर रहे हैं।
इस बात को गौर से समझना होगा कि भारतीय वेदांती बाबा किस तरह बुद्ध को और उनकी शिक्षाओं को नष्ट करते आये हैं। इसे ठीक से समझिये। बुद्ध की मूल शिक्षा अनात्मा की है। अर्थात कोई ‘आत्मा नहीं होती’। जैसे अन्य धर्मों में इश्वर, आत्मा और पुनर्जन्म होता है वैसे बुद्ध के धर्म में ईश्वर आत्मा और पुनर्जन्म का कोई स्थान नहीं है।
बुद्ध के अनुसार हर व्यक्ति का शरीर और उसका मन मिलकर एक आभासी स्व का निर्माण करता है जो अनेकों अनेक गुजर चुके शरीरों और मन के अवशेषों से और सामाजिक सांस्कृतिक शैक्षणिक आदि आदि कारकों के प्रभाव से बनता है, ये शुद्धतम भौतिकवादी निष्पत्ति है।
किसी व्यक्ति में या जीव में कोई सनातन या अजर अमर आत्मा जैसी कोई चीज नहीं होती। और इसी कारण एक व्यक्ति का पुनर्जन्म होना एकदम असंभव है।
जो लोग पुनर्जन्म के दावे करते हैं वे बुद्ध से धोखा करते हैं। इस विषय में दलाई लामा का उदाहरण लिया जा सकता है। ये सज्जन कहते हैं कि वे पहले दलाई लामा के तेरहवें या चौदहवें अवतार हैं और हर बार खोज लिए जाते हैं।
अगर इनकी बात मानें तो इसका मतलब हुआ कि इनके पहले के दलाई लामाओं का सारा संचित ज्ञान, अनुभव और बोध बिना रुकावट के इनके पास आ रहा है। सनातन और अजर-अमर आत्मा के पुनर्जन्म का तकनीकी मतलब यही होता है कि अखंडित आत्मा अपने समस्त संस्कारों और प्रवृत्तियों के साथ अगले जन्म में जा रही है।
अब इस दावे की मूर्खता को ठीक से देखिये। ऐसे लामा और ऐसे दावेदार खुद को किसी अन्य का पुनर्जन्म बताते हैं लेकिन ये गजब की बात है कि इन्हें हर जन्म में शिक्षा दीक्षा और जिन्दगी की हर जेरुरी बात को ए बी सी डी से शुरू करना पड़ता है।
भाषा, गणित, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि ही नहीं बल्कि इनका अपना पालतू विषय– अध्यात्म और ध्यान भी किसी नए शिक्षक से सीखना होता है। अगर इनका पुनर्जन्म का दावा सही है तो अपने ध्यान से ही इन चीजों को पिछले जन्म से ‘री-कॉल’ क्यों नहीं कर लेते? आपको भी स्पेशल ट्यूटर रखने होते हैं तो एक सामान्य आदमी में और इन अवतारों में क्या अंतर है?
इस बात को ठीक से देखिये। इससे साफ़ जाहिर होता है कि अवतार की घोषणा असल में एक राष्ट्राध्यक्ष के राजनीतिक पद को वैधता देने के लिए की जाती है। जैसे ही नया नेता खोजा जाता है उसे पहले वाले का अवतार बता दिया जाता है इससे असल में जनता में उस नेता या राजा के प्रति पैदा हो सकने वाले अविश्वास को खत्म कर दिया जाता है या उस नेता या राजा की क्षमता पर उठने वाले प्रश्न को भी खत्म कर दिया जाता है।
जनता इस नये नेता को पुराने का पुनर्जन्म मानकर नतमस्तक होती रहती है और शिक्षा, रोजगार, विकास, न्याय आदि का प्रश्न नहीं उठाती, इसी मनोविज्ञान के सहारे ये गुरु सदियों सदियों तक गरीब जनता का खून चूसते हैं।
यही भयानक राजनीति भारत में अवतारवाद के नाम पर हजारों साल से खेली जाती रही है। इसी कारण तिब्बत जैसा खुबसूरत मुल्क अन्धविश्वासी और परलोकवादी बाबाओं के चंगुल में फंसकर लगभग बर्बाद हो चुका है। वहां न शिक्षा है न रोजगार है न लोकतंत्र या आधुनिक समाज की कोई चेतना बच सकी है।
अब ये लामा महाशय तिब्बत को बर्बाद करके धूमकेतु की तरह भारत में घूम रहे हैं और अपनी बुद्ध विरोधी शिक्षाओं से भारत के बौद्ध आन्दोलन को पलीता लगाने का काम कर रहे हैं। भारत के बुद्ध प्रेमियों को ओशो रजनीश जैसे धूर्त वेदान्तियों और दलाई लामा जैसे अवसरवादी राजनेताओं से बचकर रहना होगा।
डॉ. अंबेडकर ने हमें जिस ढंग से बुद्ध और बौद्ध धर्म को देखना सिखाया है उसी नजरिये से हमे बुद्ध को देखना होगा। और ठीक से समझा जाए तो अंबेडकर जिस बुद्ध की खोज करके लाये हैं वही असली बुद्ध हैं। ये बुद्ध आत्मा और पुनर्जन्म को सिरे से नकारते हैं।
लेकिन भारतीय बाबा और फाइव स्टार भगवान लोग एकदम अलग ही खिचडी पकाते हैं। ये कहते हैं कि सब संतों की शिक्षा एक जैसी है, सबै सयाने एकमत और फिर उन सब सयानों के मुंह में वेदान्त ठूंस देते हैं। कहते हैं बुद्ध ने आत्मा और परमात्मा को जानते हुए भी इन्हें नकार दिया क्योंकि वे देख रहे थे कि आत्मा परमात्मा के नाम पर लोग अंधविश्वास में गिर सकते थे।
यहाँ दो सवाल उठते हैं, पहला ये कि क्या बुद्ध ने स्वयं कहीं कहा है कि उन्होंने आत्मा परमात्मा को जानने के बाद भी उसे नकार दिया? दुसरा प्रश्न ये है कि बुद्ध अंधविश्वास को हटाने के लिए ऐसा कर रहे थे तो अन्धविश्वास का भय क्या उस समय की तुलना में आज एकदम खत्म हो गया है? दोनों सवालों का एक ही उत्तर है– “नहीं”।
गौतम बुद्ध कुटिल राजनेता या वेदांती मदारी नहीं हैं। वे एक इमानदार क्रांतिचेता और मनोवैज्ञानिक की तरह तथ्यों को उनके मूल रूप में रख रहे हैं। उनका अनात्मा का अपना विशिष्ठ दर्शन और विश्लेषण है। उसमे वेदांती ढंग की सनातन आत्मा का प्रक्षेपण करने वाले गुरु असल में बुद्ध के मित्र या हितैषी नहीं बल्कि उनके सनातन दुश्मन हैं।
आजकल आप किसी भी बाबाजी के पंडाल या ध्यान केंद्र में चले जाइए। या यहीं फेसबुक पर ध्यान की बकवास पिलाने वालों को देख लीजिये। वे कृष्ण और बुद्ध को एक ही सांस में पढ़ाते हैं, ये गजब का अनुलोम विलोम है। जबकि इनमे थोड़ी भी बुद्धि हो तो समझ आ जाएगा कि बुद्ध आत्मा को नकारते हैं और कृष्ण आत्मा को सनातन बताते हैं, कृष्ण और बुद्ध दो विपरीत छोर हैं।
लेकिन इतनी जाहिर सी बात को भी दबाकर ये बाबा लोग अपनी दूकान कैसे चला लेते हैं? लोग इनके झांसे में कैसे आ जाते हैं? यह बात गहराई से समझना चाहिए।
असल में ये धूर्त लोग भारतीय भीड़ की गरीबी, कमजोरी, संवादहीनता, कुंठा, अमानवीय शोषण, जातिवाद आदि से पीड़ित लोगों की सब तरह की मनोवैज्ञानिक असुरक्षाओं और मजबूरियों का फायदा उठाते हैं और तथाकथित ध्यान या समाधि या चमत्कारों के नाम पर मूर्ख बनाते हैं। इन बाबाओं की किताबें देखिये, आलौकिक शक्तियों के आश्वासन और अगले जन्म में इस जन्म के अमानवीय कष्ट से मुक्ति के आश्वासन भरे होते हैं।
इनका मोक्ष असल में इस जमीन पर बनाये गये अमानवीय और नारकीय जीवन से मुक्त होने की वासना का साकार रूप है। इस काल्पनिक मोक्ष में हर गरीब शोषित इंसान ही नहीं बल्कि हराम का खा खाकर अजीर्ण, नपुंसकता और कब्ज से पीड़ित हो रहे राजा और सामंत भी घुस जाना चाहते हैं।
आत्मा को सनातन बताकर गरीब को उसके आगामी जन्म की विभीषिका से डराते हैं और अमीर को ऐसे ही जन्म की दुबारा लालच देकर उसे फंसाते हैं, इस तरह इस मुल्क में एक शोषण का सनातन साम्राज्य बना रहता है। और शोषण का ये अमानवीय ढांचा एक ही बिंदु पर खड़ा है वह है – सनातन आत्मा का सिद्धांत।
इसके विपरीत बुद्ध ने जिस निर्वाण की बात कही है या बुद्ध ने जिस तरह की अनत्ता की टेक्नोलोजी दी है और उसका जो ऑपरेशनल रोडमेप दिया है उसके आधार पर यह स्थापित होता है कि आत्मा यानी व्यक्तित्व और स्व जैसी किसी चीज की कोई आत्यंतिक सत्ता नहीं है।
यह एक कामचलाऊ स्व या व्यक्तित्व है जो आपने अपने जन्म के बाद के वातावरण में बहुत सारी कंडीशनिंग के प्रभाव में पैदा किया है, ये आपने अपने हाथ से बनाया है और इसे आप रोज बदलते हैं।
आप बचपन में स्कूल में जैसे थे आज यूनिवर्सिटी में या कालेज में या नौकरी करते हुए वैसे ही नहीं हैं, आपका स्व या आत्म या तथाकथित आत्मा रोज बदलती रही है। शरीर दो पांच दस साल में बदलता है लेकिन आत्मा या स्व तो हर पांच मिनट में बदलता है। इसी प्रतीति और अनुभव के आधार पर ध्यान की विधि खोजी गयी।
बुद्ध ने कहा कि इतना तेजी से बदलता हुआ स्व – जिसे हम अपना होना या आत्मा कहते हैं – इसी में सारी समस्या भरी हुयी है। इसीलिये वे इस स्व या आत्मा को ही निशाने पर लेते हैं। बुद्ध के अनुसार यह स्व या आत्मा एक कामचलाऊ धारणा है, ये आत्म सिर्फ इस जीवन में लोगों से संबंधित होने और उनके साथ समाज में जीने का उपकरण भर है।
इस स्व या आत्म की रचना करने वाले शरीर, कपड़े, भोजन, शिक्षा और सामाजिक धार्मिक प्रभावों को अगर अलग कर दिया जाए तो इसमें अपना आत्यंतिक कुछ भी नहीं है। यही अनात्मा का सिद्धांत है। यही आत्मज्ञान है। बुद्ध के अनुसार एक झूठे स्व या आत्म के झूठेपन को देख लेना ही आत्मज्ञान है।
लेकिन वेदांती बाबाओं ने बड़ी होशियारी से बुद्ध के मुंह में वेदान्त ठूंस दिया है और इस झूठे अस्थाई स्व, आत्म या आत्मा को सनातन बताकर बुद्ध के आत्मज्ञान को ‘सनातन आत्मा के ज्ञान’ के रूप में प्रचारित कर रखा है। अगर आप इस गहराई में उतरकर इन बाबाओं और उनके अंधभक्तों से बात करें तो वे कहते हैं कि ये सब अनुभव का विषय है इसमें शब्दजाल मत रचिए।
ये बड़ी गजब की बात है। बुद्ध की सीधी सीधी शिक्षा को इन्होने न जाने कैसे कैसे श्ब्द्जालों और ब्रह्म्जालों से पाट दिया है और आदमी कन्फ्यूज होकर जब दिशाहीन हो जाता है तो ये उसे तन्त्र मन्त्र सिखाकर और भयानक कंडीशनिंग में धकेल देते हैं। इसकी पड़ताल करने के लिए इनकी गर्दन पकड़ने निकलें तो ये कहते हैं कि ये अनुभव का विषय है। इनसे फिर खोद खोद कर पूछिए कि आपको क्या अनुभव हुआ ? तब ये जलेबियाँ बनाने लगते हैं। ये इनकी सनातन तकनीक है।
असल में सनातन आत्मा सिखाने वाला कोई भी अनुशासन एक धर्म नहीं है बल्कि ये एक बल्कि राजनीती है। इसी हथकंडे से ये सदियों से समाज में सृजनात्मक बातों को उलझाकर नष्ट करते आये हैं। भक्ति भाव और सामन्ती गुलामी के रूप में उन्होंने जो भक्तिप्रधान धर्म रचा है वो असल में भगवान और उसके प्रतिनिधि राजा को सुरक्षा देता आया है।
यही बात है कि हस्ती मिटती नहीं इनकी, इस भक्ति में ही सारा जहर छुपा हुआ है। इसी से भारत में सब तरह के बदलाव रोके जाते हैं। और इतना ही नहीं व्यक्तिगत जीवन में अनात्मा के अभ्यास या ज्ञान से जो स्पष्टता और समाधि (बौद्ध समाधी)फलित हो सकती है वह भी असंभव बन जाती है।
ये पाखंडी गुरु एक तरफ कहते हैं कि मैं और मेरे से मुक्त हो जाना ही ध्यान, समाधि और मोक्ष है और दूसरी तरफ इस मैं और मेरे के स्त्रोत– इस सनातन आत्मा– की घुट्टी भी पिलाए जायेंगे। एक हाथ से जहर बेचेंगे दुसरे हाथ से दवाई। एक तरफ मोह माया को गाली देंगे और अगले पिछले जन्म के मोह को भी मजबूत करेंगे।
एक तरह शरीर, मन और संस्कारों सहित आत्मा के अनंत जन्मों के कर्मों की बात सिखायेंगे और दुसरी तरफ अष्टावक्र की स्टाइल में ये भी कहेंगे कि तू मन नहीं शरीर नहीं आत्मा नहीं, तू खुद भी नहीं ये जान ले और अभी सुखी हो जा।
ये खेल देखते हैं आप? ले देकर आत्मभाव से मुक्ति को लक्ष्य बतायेंगे और साथ में ये भी ढपली बजाते रहेंगे कि आत्मा अजर अमर है हर जन्म के कर्मों का बोझ लिए घूमती है।
अब ऐसे घनचक्कर में इन बाबाओं के सौ प्रतिशत लोग उलझे रहते हैं, ये भक्त अपने बुढापे में भयानक अवसाद और कुंठा के शिकार हो जाते हैं। ऐसे कई बूढों को आप गली मुहल्लों में देख सकते हैं। इनके जीवन को नष्ट कर दिया गया है। ये इतना बड़ा अपराध है जिसकी कोई तुलना नहीं की जा सकती। दुर्भाग्य से अपना जीवन बर्बाद कर चुके ये धार्मिक बूढ़े अब चाहकर भी मुंह नहीं खोल सकते।
लेकिन बुद्ध इस घनचक्कर को शुरू होने से पहले ही रोक देते हैं। बुद्ध कहते हैं कि ऐसी कोई आत्मा होती ही नहीं इसलिए इस अस्थाई स्व में जो विचार संस्कार और प्रवृत्तियाँ हैं उन्हें दूर से देखा जा सकता है और जितनी मात्रा में उनसे दूरी बनती जाती है उतनी मात्रा में निर्वाण फलित होता जाता है।
निर्वाण का एक अर्थ है जमा अर्थ ‘नि+वाण’ है अर्थात चित्त की प्रवृत्तियों और मन की तृष्णा का मिट जाना, उनकी खोज और तड़प का मिट जाना। अगर आप किसी विचार या योजना या अतीत या भविष्य का बोध लेकर घूम रहे हैं तो आप ‘वाण’ की अवस्था में हैं अगर आप अनंत पिछले जन्मों और अनंत अगले जन्मों द्वारा दी गयी दिशा और उससे जुडी मूर्खता को त्याग दें तो आप अभी ही ‘निर्वाण’ में आ जायेंगे।
लेकिन ये धूर्त फाइव स्टार भगवान् और इनके जैसे वेदांती बाबा इतनी सहजता से किसी को मुक्त नहीं होने देते। वे बुद्ध और निर्वाण के दर्शन को भी धार्मिक पाखंड की राजनीति का हथियार बना देते हैं और अपने भोग विलास का इन्तेजाम करते हुए करोड़ों लोगों का जीवन बर्बाद करते रहते हैं।
बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर इन बातों को गहराई से समझिये और दूसरों तक फैलाइये। एक बात ठीक से नोट कर लीजिये कि भारत में गरीबॉन, दलितों, मजदूरों, स्त्रीयों और आदिवासियों के लिए बुद्ध का अनात्मा का और निरीश्वरवाद का दर्शन बहुत काम का साबित होने वाला है।
बुद्ध का निरीश्वरवाद और अनात्मवाद असल में भारत के मौलिक और ऐतिहासिक भौतिकवाद से जन्मा है। ऐसे भौतिकवाद पर आज का पूरा विज्ञान खड़ा है और भविष्य में एक स्वस्थ, नैतिक और लोकतांत्रिक समाज का निर्माण भी इसी भौतिकवाद की नींव पर होगा। आत्मा इश्वर और पुनर्जन्म जैसी भाववादी या अध्यात्मवादी बकवास को जितनी जल्दी दफन किया जाएगा उतना ही इस देश का और इंसानियत का फायदा होगा।
अब शेष समाज इसे समझे या न समझे, कम से कम भारत के दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों और शूद्रों (ओबीसी) सहित सभी मुक्तिकामियों को इसे समझ लेना चाहिए। इसे समझिये और बुद्ध के मुंह से वेदान्त बुलवाने वाले बाबाओं और उनके शीशों के षड्यंत्रों को हर चौराहे पर नंगा कीजिये। इन बाबाओं के षड्यंत्रकारी सम्मोहन को कम करके मत आंकिये।
ये बाबा ही असल में भारत में समाज और सरकार को बनाते बिगाड़ते आये हैं। अगर आप ये बात अब भी नहीं समझते हैं तो आपके लिए और इस समाज के लिए कोई उम्मीद नहीं है। इसलिए आपसे निवेदन है कि बुद्ध को ठीक से समझिये और दूसरों को समझाइये।
– संजय श्रमण
Sanjay Shramanjothe
Yesterday at 17:45 ·
दलित का झोपड़ा
तुम्हें बार बार बुलाता है
आवाजें देता है चीखता चिल्लाता है
टपकती छत से दरकती दीवार से
उखडे हुए फर्श की फैलती दरार से
खैरलांजी के खून से, सहारनपुरी संहार से
ऊना के अपमान से, दो अप्रेल की हुंकार से
कहाँ कहाँ से नहीं पुकारता तुम्हें
कितने कितने शब्दों में नहीं बोलता तुमसे
लेकिन तुम नहीं सुनते ये सब
तुम्हे सुनाई देती है
सिर्फ उसकी थाली
न जाने कब से ख़ाली
मजबूर और लाचार
जितनी खाली थाली उतनी बड़ी झनकार
जितनी झनकार उतना बड़ा प्रचार
जितना प्रचार उतना बड़ा चमत्कार
जितना चमत्कार उतना बड़ा नमस्कार
जितना नमस्कार उतना सफल त्यौहार
त्यौहार – तुम्हारे पाँचसाला लूटतंत्र का
जहरीले जुमलों और सम्मोहक मन्त्र का
शोषण की चालों से सिद्ध किये यन्त्र का
और तुम्हारे ये तन्त्र – मन्त्र – यन्त्र
एकसाथ सजते हैं दलित की उसी थाली में
हर पांचवे साल चुनावी अनुष्ठान में
जब हारे हुए लोक की देवी की
सनातन तन्त्र की वेदी पर
कोटि कोटि दलितों सहित
सरे आम बलि चढ़ती है …
– संजय श्रमण
Siddharth Ramu
30 April at 11:18 ·
डॉ. आंबेडकर ने बुद्ध धम्म ही क्यों अपनाया? इसका पहला कारण उन्होंने यह बताया कि बुद्ध धम्म में ईश्वर या किसी पारलौकि सत्ता के लिए कोई कोई स्थान नहीं है। दूसरा कारण यह कि बुद्ध धम्म में वेद, बाईबिल या कुरान जैसी किसी ईश्वरी किताब के लिए कोई जगह नहीं है, जो यह दावा करती हो कि सारा सत्य इसी किताब में है। तीसरी बात यह कि बुद्ध धम्म के बौद्ध विहारों में पूरी तरह लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन होता था। हर बौद्ध भिक्षु के मत का समान महत्व था। किसी को भी कोई विशेषाधिकार प्राप्त नहीं था। चौथी बात बुद्ध धर्म समता पर आधारित था। यह जातीय उच्चता-नीचता की किसी धारणा में विश्वास नही करता था, न ही स्त्री-पुरूष के बीच कोई विभेद करता था। यहां महिलाओं और पुरूषों को समान अधिकार प्राप्त था। बुद्ध धम्म तर्क, विवेक, विज्ञान और लोककल्याण की कसौटी पर कस कर ही किसी चीज को स्वीकार करता है।
आंबेडकर ने बुद्ध धम्म क्यों स्वीकार किया इसे जानने के लिए आंबेडकर एक छोटे से लेख, “बुद्ध और उनके धम्म का भविष्य’ जरूर पढ़ना चाहिए। इसमें उन्होंने साफ-साफ शब्दों में कहा कि हिंदू, इ्स्लाम और क्रिश्चियन तीनों धर्म ईश्वर में विश्वास करते हैं, हिंदू धर्म तो ईश्वर सीधे अवतार लेते है, जबकि इस्लाम और क्रिश्चियन धर्म में उनके पैगंबर। इसके अलावा इन ईश्वरों या इनके पैंगंबरों द्वारा इन धर्मों मे रचित ऐसी किताबे हैं, जो ईश्वरी वाणी होने का दावा करती हैं। आंबेडकर किसी ईश्वर या ईश्वरी वाणी को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे।
आंबेडकर का कहना था कि बुद्ध धर्म का बु्द्ध के बाद धीरे-धीरे ब्राह्मणीकरण कर दिया गया। उन्होेंने बुद्ध धर्म को ब्राह्मणीकरण से मुक्त करके उसे नया नाम नवयान दिया। बुद्ध धर्म के ब्राह्मणीकरण के बारे में उन्होंने अपनी किताब ‘ हिंदू नारी उत्थान और पतन’ में विस्तार से लिखा है। इसी किताब में उन्होंने यह भी प्रमाणित किया है कि बुद्ध धम्म में स्त्री और पुरूष को समान स्थान प्राप्त था।
आज बुद्ध पूर्णिमा है। आप सभी को बधाई और शुभकामनाएं। आज के दिन हमें डॉ. आंबेडकर की उन 22 प्रतिज्ञाओं को याद करना चाहिए। जिसमें पहली प्रतिज्ञा यह है कि मैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश को कभी ईश्वर नहीं मानूंगा और न उनकी पूजा करूगां। दूसरी मैं राम और कृष्ण को ईश्वर नहीं मानूंगा और न कभी उनकी पूजा करूंगा। तीसरा और मैं गोरी-गणपति इत्यादि हिंदू धर्म के किसी भी देवी-देवताओं को नहीं मानूंगा और न ही उनकी पूजा करूंगा।….
Sanjay Shramanjothe
4 mins ·
भक्त: ऋषिवर आज का पूरा आर्यावर्त ही कब्ज और नपुंसकता से पीड़ित लगता है, आयुर्वेद के समस्त ग्रन्थ और टेलीविजन के विज्ञापन इन व्याधियों से भरे पड़े हैं। क्या प्राचीन काल मे भी यही स्थिति थी।
ऋषिवर: नहीं वत्स, ऋषियों के नियोग और पुत्रदान का रिकॉर्ड देखकर तो नही लगता कि उन्हें नपुंसकता की कोई समस्या थी
भक्त: और कब्ज ??
ऋषिवर: उस काल मे समस्त ऋषिगण सघन वनों में निवास करते थे और इन वनों में सिंह, बाघ, चीते आदि पशु हुआ करते वे रात दिन ऊंची ऊंची आवाज में दहाड़ा करते थे सो ऋषियों को कब्ज होने का कोई प्रश्न ही नही उठता वत्स!
भक्त: अहो ऋषिवर, अद्भुत !
Sanjay Shramanjothe
2 hrs ·
हिंदी के नामचीन लेखक और साहित्यकार आश्चर्यचकित करते हैं। अक्सर ये सवर्ण द्विज पृष्ठभूमि से आते हैं और धर्म, अध्यात्म इत्यादि के अंधविश्वासों को करीब से जानते हुए भी उसके खिलाफ कुछ नहीं लिखते।
उनके साहित्यिक विमर्श उनके विश्लेषण उनकी प्रस्तावनाओं का आम आदमी के भयों और उम्मीदों से कोई संबन्ध मुश्किल से ही बनता है।
स्त्री मुक्ति की बात हो या मजदूरों किसानों की बात हो, वे धार्मिक पाखण्ड की धुरी के प्रति जागरूक होते हुए भी उसपर प्रहार नही करते।
ये लोग हर दौर में रामायण महाभारत और मिथक कथाओं में नए ज्ञान का प्रक्षेपण कर उन्हें जिंदा करते जाते हैं और लोगों को पाषाण काल मे उलझाये रखते हैं।
आश्चर्य नहीं कि इन साहित्यकारों के बावजूद, या कहें कि इन्हीं के कारण शोषण की यांत्रिकी अमरबेल की तरह सदा जवान रहती है और भारत का समाज एक रिसता हुआ घाव बना रहता है।Follow
Sanjay Shramanjothe
4 hrs ·
बुध्द का ब्राह्मणीकरण और ओशो रजनीश
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बुद्ध का ब्राह्मणीकरण भारतीय बाबाओं योगियों गुरुओं का सबसे बड़ा और सबसे प्राचीन षड्यंत्र रहा है. इस संदर्भ में आधुनिक भारत में ओशो के द्वारा चलाये गये सबसे बड़े षड्यंत्र को गहराई से देखना समझना जरुरी है. एक सनातनी बुद्धि से संचालित ओशो का पूरा जीवनवृत्त बहुत विरोधाभासों और बहुत अस्पष्टताओं से भरा हुआ गुजरा है. कोई नहीं कह सकता कि उनकी मूल देशना क्या थी या उनके प्रवचनों में या उनके कर्तृत्व में उनका अपना क्या था.
खुद उन्ही के अनुसार उन्होंने लाखों किताबों का अध्ययन किया था फिर भी वे “आंखन देखि” ही कहते थे. जो लोग थोड़ा पढ़ते लिखते हैं वे एकदम पकड सकते हैं कि न सिर्फ चुटकुले और दृष्टांत बल्कि दार्शनिक मान्यताएं और तार्किक वक्तव्य भी सीधे सीधे दूसरों की किताबों से निकालकर इस्तेमाल करते थे. लाखों किताबें पढने का इतना फायदा तो उन्हें लेना ही चाहिए. इसमें किसी को कोई समस्या भी नहीं होनी चाहिए.
सनातनी मायाजाल के महारथी होने के नाते वे अपनी तार्किक, दार्शनिक, आधुनिक या शाश्वत स्थापनाओं के कैसे भी खेल रच लें, लेकिन तीन जहरीले सिद्धांतों को ओशो ने कभी नहीं नकारा है. भारत के दुर्भाग्य की त्रिमूर्ति – ‘आत्मा, परमात्मा और पुनर्जन्म’ को ओशो ने कभी नहीं नकारा है. इतना ही नहीं उन्होंने जिस भी महापुरुष या ग्रन्थ को उठाया उसी में इस जहर का पलीता लगा दिया. यहाँ तक कि बुद्ध जैसे वेद-विरोधी, आत्मा परमात्मा विरोधी और पुनर्जन्म विरोधी को भी ओशो ने पुनर्जन्म के पक्ष में खड़ा करके दिखाने का षड्यंत्र रचा है.
इस अर्थ में हम आदि शंकराचार्य और ओशो में एक गजब की समानता देखते हैं. अगर गौर से देखा जाए तो ओशो आधुनिक भारत के आदि शंकराचार्य हैं जो दूसरी बार बुद्ध का ब्राह्मणीकरण कर रहे हैं. इस बात को गहराई से समझना होगा ताकि भारत में दलितों और बहुजनों के लिए उभर रहे श्रमण बुद्ध को “ब्राह्मण बुद्ध” न बना लिया जाए. अभी तक बुद्ध की जितनी व्याख्याएं विपस्सना आचार्यों से या ध्यान योग सिखाने वालों के तरफ से आ रही है वह सब की सब बुद्ध को ब्राह्मणी सनातनी रहस्यवाद और अध्यात्म में रखकर दिखाती हैं.
जबकि हकीकत ये है कि बुद्ध इस पूरे खेल से बाहर हैं. बुद्ध तब हुए थे जबकि न तो गीता थी न ही कृष्ण या ज्ञात महाभारत या रामायण ही थी. ब्राह्मण शब्द उनके समय में था लेकिन ज्ञात ब्राह्मणवाद के उस समय प्रभावी होने का पक्का प्रमाण नहीं मिलता. अशोक के समय तक श्रमण और ब्राह्मण शब्द समान आदर के साथ प्रयुक्त होते हैं.
लेकिन बाद की सदियों में बहुत कुछ हो रहा है जिसने वर्णाश्रम जैसी काल्पनिक और अव्यवहारिक व्यवस्था को भारतीय जनमानस में गहरे बैठा दिया और संस्कार, शुचिता अनुशासन और धार्मिकता सहित नैतिकता की परिभाषा को सनातनी रंग में रंगकर ऐसा कलुषित किया है कि आज तक वह रंग नहीं छूटा है. वह रंग छूटने की संभावना या भय निर्मित होते ही ओशो जैसे बाजीगर प्रगट होते हैं और आधुनिकता के देशज या पाश्चात्य संस्करणों में सनातनी जहर का इंजेक्शन लगाकर चले जाते हैं.
कई विद्वानों ने स्थापित किया है कि श्रमणों, नाथों, सिद्धों, लोकायतों आदि की परंपराओं में एक ख़ास तरह की आधुनिकता हमेशा से ज़िंदा रही है. यही आधुनिकता कबीर जैसे क्रांतिकारियों में परवान चढ़ती रही है और वे निर्गुण की या वर्णाश्रम विरोध की चमक में लिपटी एक ख़ास किस्म की आधुनिकता का बीज बोते रहे हैं.
इसी दौर में गुलाम भारत बहुत तरह के राजनीतिक, सामरिक और दार्शनिक अखाड़ों का केंद्र बनता है और हमारी अपनी पिछड़ी जातियों, दलितों, बनियों से या रहीम, खुसरो आदि मुसलमानों की तरफ से आने वाली नयी प्रस्तावनाओं से जितना प्रभाव होना चाहिए थी उतना हो नहीं पाता है. फिर उपनिवेशी शासन ने जिस तरह के षड्यंत्रों को रचा है उसमे भी भारतीय समाज के क्रमविकास की कई कड़ियाँ लुप्त हो गयी हैं.
इन लुप्त कड़ियों को खोजने की बहुत कोशिश डॉ. अंबेडकर ने की है अंबेडकर ने धार्मिक, दार्शनिक और पौराणिक ग्रंथों के विश्लेष्ण पर बहुत पर जोर दिया है. उन शास्त्रों से निकलने वाले संदेशों और आज्ञाओं के आधार पर वर्ण और जाति व्यवस्था किस तरह आकार ले रही है इसका उन्होंने गहरा विश्लेषण दिया है. आजकल के मार्क्सवादी उन पर आरोप लगाते हैं कि अंबेडकर ने जाति की उत्पति के भौतिक या आर्थिक कारणों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है.
यह आरोप ऊपर से कुछ सही लगता है लेकिन वास्तव में निराधार है. अंबेडकर अपनी अकादमिक ट्रेनिंग से सर्वप्रथम अर्थशास्त्री ही हैं और जब मार्क्स के विचारों से रशिया और यूरोप में क्रान्ति हो चुकी थी तब समकालीन जगत में मार्क्स को उन्होंने ना जाना हो ऐसा हो ही नहीं सकता. उन्होंने मार्क्स या मार्क्सवाद को कई सारे स्त्रोतों से पढ़ा होगा और उसकी निस्सारता को जानते हुए और भारत में जाति के प्रश्न पर उसकी अव्यावहारिकता को देखते हुए खुद अपना अलग मार्ग निर्मित करने का निर्णय लिया.
डॉ. अंबेडकर जाति और वर्ण के प्रश्न को जिस तरह समझते समझाते हैं वह भारत में धार्मिक, दार्शनिक प्रस्तावनाओं के षड्यंत्रों के विश्लेषण से होकर गुजरता है. यह माना जा सकता है कि जाति के या वर्णों के उद्गम में भौतिक और आर्थिक कारण रहे हैं, व्यापार राजनीति और उत्पादन की प्रणालियों ने जातियों की रचना की है.
इसे अवश्य स्वीकार करना चाहिए, लेकिन इसी तक सीमित रहना घातक है. इस तथ्य तक सीमित रहकर हम ओशो जैसे लोगों के षड्यंत्रों को बेनकाब नहीं कर सकते. अगर हम मार्क्स की भौतिकवादी या आर्थिक प्रस्तावनाओं को मानकर चलेंगे और अंबेडकर के धर्म दार्शनिक विमर्श में प्रवेश नहीं करेंगे तो हम भारत को बार बार गुलाम बनाने वाले ओशो जैसे सनातनी षड्यंत्रकारों से नही बचा पायेंगे.
मार्क्स जिस मुक्ति कि इबारत लिख रहे हैं वह भारत में ओशो जैसे पंडितों के हाथों बर्बाद की जाती रही है. इसीलिये एक सनातनी दुर्भाग्य में पलते भारत को वैश्विक क्रान्ति या वैश्विक समता के आदर्श की तरफ जाने के मार्ग में अंबेडकर एक अनिवार्य चरण बन जाते हैं. न सिर्फ भारत के विश्व तक जाने के लिए बल्कि विश्व के भारत में आने के लिए भी अंबेडकर ही अनिवार्य प्रवेशद्वार हैं.
इस अर्थ में अंबेडकर के धर्म दार्शनिक विमर्श की नजर से हमें ओशो जैसे ब्राह्मणवादियों से बचना होगा. अंबेडकर की प्रस्तावनाओं में धर्म दर्शन और कर्मकांड की पोल खोलने पर जो जोर है उसका एक विशेष करण है. जाति भले ही आर्थिक कारणों से अस्तित्व में आयी हो लेकिन जाति को एक संस्था के रूप में हजारों साल चलाये रखने का जो उपाय भारतीय ब्राह्मणों ने किया था वह एक ऐसी भयानक सच्चाई है जिसे आर्थिक तर्क से नहीं तोड़ा जा सकता.
जाति को स्थायित्व देने के लिए विवाह को नियंत्रित किया गया है. जाति के बाहर विवाह जको वर्जित करने से जाति अमर हो गयी है और यह अमरत्व आर्थिक आधार पर नहीं बल्कि धार्मिक, तात्विक, आध्यात्मिक और दार्शनिक आधारों पर वैध ठहराया गया है.
इस बात को मार्क्सवादियों को ध्यान से समझना चाहिए. एक दलित या शुद्र अगर आर्थिक आधार पर निर्मित जाति से लड़ने जाता है तो उसका सामना सीधे उत्पादन या वितरण की बारीकियों से नहीं होता, उसका सामना विवाह और गोत्र से होता है. इसीलिये अंबेडकर की इस अंतर्दृष्टि में बहुत सच्चाई मालुम होती है कि विवाह नामक संस्था को जिन आधारों पर मजबूत बनाया गया है उन आधारों को ही धवस्त करना होगा. वे आधार धार्मिक हैं, दार्शनिक हैं.
इसीलिये एक अर्थशास्त्री होने के बावजूद अंबेडकर भारत में जाति के प्रश्न को सुलझाते हुए समाजशास्त्री, मानवशास्त्री और धर्म दर्शन के विशेषज्ञ की मुद्रा में आ जाते हैं. इस तथ्य के बहुत बड़े निहितार्थ हैं जो हमें भारत में जाति और विवाह नियंत्रण के षड्यंत्रों को निरंतरता देने वाले उस धार्मिक दार्शनिक दुर्ग को तोड़कर उखाड़ फेंकने की सलाह देता है.
अंबेडकर की इस सलाह के साथ अब ओशो जैसे सनातनी षड्यंत्रकारियों को रखकर देखना ही होगा. स्वयं अंबेडकर ने अपने अंतिम वर्षों में जिस बुद्ध को खोजा था उस बुद्ध की सबसे आकर्षक और सबसे खतरनाक व्याख्या लेकर ओशो और उनके परलोकवादी, ब्राह्मणवादी सन्यासी समाज में घूम रहे हैं और बुद्ध के मुंह में शंकाराचार्य की वाणी को प्रक्षेपित कर रहे हैं. यही ओशो का जीवन भर का काम था.
आधुनिक भारत में राहुल सांकृत्यायन, थियोसोफी, आनन्द कौसल्यायन, अंबेडकर और जिद्दू कृष्णमूर्ति ने जिस तरह के बौद्ध दर्शन और अनुशासन की नींव रखी उससे बड़ा भय पैदा हो गया था कि भारत में बुद्ध अपने मूल “श्रमण” दर्शन के साथ लौट रहे हैं।
पश्चिम में भी इसी दौर में यूरोप अमेरिका में बुद्ध की धूम मची हुई थी। दो विश्वयुद्धों और शीतयुध्द की अनिश्चितता के भय के बीच पूरा पश्चिम एक नास्तिक लेकिन तर्कप्रधान नैतिक धर्म की खोज कर रहा था। इस दौर में हिप्पी और बीटल्स और कई अन्य तरह के युवकों के समूह पूर्वी धर्मों का स्वाद चखते हुए सूफी, झेन, तंत्र, भांग, नशे और सेक्स के दीवाने होकर दुनिया भर में कुछ खोज रहे थे।
इसी समय झेन को डी टी सुजुकी और एलेन वाट्स ने पश्चिम में पहुंचा दिया था, थियोसोफी और जर्मन एंथ्रोपोसोफी सहित रुडोल्फ स्टीनर आदि ने जिस तरह से यूरोप में एक नई धार्मिकता की बात रखी उसमे “श्रमण बुद्ध” अधिकाधिक निखरकर सामने आते गये। इसी दौर में तिब्बत से निष्कासित कई लामाओं ने पश्चिम में शरण लेते हुए बुद्ध के सन्देश को एक अलग ढंग से रखना शुरू किया था.
ऐसे दौर में भारतीय पोंगा पंडित, योगी, ज्योतिषी, कथाकार आदि जब भी यूरोप अमेरिका जाते थे तब तब उनका सामना पश्चिम से उभर रहे बुद्ध से होता था। और जब वे भारत में होते थे तब उन्हें अंबेडकर और कृष्णमूर्ति द्वारा विकसित बुद्ध से टकराना पड़ता था। इस तरह ये पोंगा पंडित दोनों तरफ से भयाक्रांत होकर बुद्ध को फिर से आदि शंकर की शैली में ठिकाने लगाने का षड्यंत्र रचने लगे।
इस सबके ठीक पहले जिद्दू कृष्णमूर्ति को बुद्ध का अवतार घोषित किया जाता है लेकिन जिद्दू कृष्णमूर्ति ईमानदार और साफ़ दिल के इंसान थे। वे इस षड्यंत्र से अलग हो जाते हैं। लेकिन ओशो इस खेल में अकेले कूदते हुए षड्यंत्र की अपनी नई इबारत लिखते हैं और भारत में वेदांत और पश्चिम में क्रान्ति सिखाते हुए पश्चिम और पूर्व दोनों से उभर रहे बुद्ध में आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म का प्रक्षेपण करते हैं। अंत में ओशो ने यह भी कहा है कि बुद्ध की आत्मा ओशो के शरीर में आई और अंतिम सन्देश देना चाहा।
ओशो ने अपने शरीर में बुद्ध के प्रवेश करने की घटना का बड़ा नाटकीय वर्णन किया है और अपनी वाक चातुरी कि बेमिसाल प्रस्तुति देते हुए बुद्ध कि महिमा को स्वीकार करते हुए भी खुद को बुद्ध से सुपीरियर और समकालीन विश्व का एकमात्र तारणहार सिद्ध किया है. अपने वर्णन में ओशो बार बार बताते हैं कि बुद्ध स्वयं ओशो के शरीर में आना चाहते हैं लेकिन ओशो कह रहे हैं कि आप पुराने हो गये हैं, नए जगत का आपको अंदाजा नहीं है.
ओशो कहते हैं कि उन्होंने बुद्ध की आत्मा को अपने शरीर में इस शर्त पर स्थान दिया है कि अगर ओशो और बुद्ध में कोई विवाद हुआ तो बुद्ध को अपना बोरिया बिस्तर बांधकर निकल जाना होगा, इस बात को गौतम बुद्ध तुरंत समझ गए और ओशो की शर्तों के अधीन उनके शरीर से सन्देश देने को तैयार हो गये. इस बात को कहते ही ओशो अपनी चतुराई का दुसरा तीर छोड़ते हैं, कहते हैं कि बुद्ध ओशो की इस सलाह को इसलिए समझ सके क्योंकि बुद्ध की प्रज्ञा अभी भी खरी की खरी बनी हुई है.
अब यहाँ ओशो की बाजीगरी का खेल देखिये, दो पंक्तियों पहले कह रहे हैं कि बुद्ध पुराने और आउट डेटेड हो गये हैं और उसके तुरंत बाद अपना ‘सहयोगी’ सिद्ध करने के बाद उनकी प्रज्ञा को जस का तस बता रहे हैं. ये भारतीय वेदान्तिक ब्राह्मणवाद के षड्यंत्र का अद्भुत नमूना है. ये वर्णन ओशो ने 28 जनवरी 1988 को किया है और अपना नाम भगवान् से बदलकर “मैत्रेय बुद्ध” रख लिया.
इसके बाद के कुछ प्रवचनों में ओशो के शिष्य ओशो को बुद्ध के नाम से संबोधित कर रहे हैं. इसके बाद बहुत चालाकी से दो दिन बाद 30 जनवरी को ओशो ने घोषणा की कि गौतम बुद्ध अपने पुराने तौर तरीकों से चलना चाहते हैं और इसलिए उन्होंने बुद्ध का बोरिया बिस्तर बांधकर विदा कर दिया है.
ओशो ने इतने बचकाने ढंग से बुद्ध को अपमानित किया है कि आश्चर्य होता है. ओशो कहते हैं कि मेरे शरीर में आने के बाद बुद्ध एक ही करवट सोने का आग्रह करते हैं, तकिया नहीं लेना चाहते, आते ही पूछते हैं मेरा भिक्षापात्र कहाँ है? बुद्ध खुद दिन में एक बार खाते थे या नहाते थे इसलिए ओशो से यही करवाना चाहते थे लेकिन ओशो ने मना कर दिया.
ओशो कहते हैं कि इस तरह चार दिनों में ही बुद्ध ने ओशो के सर में दर्द पैदा कर दिया और ओशो को बुद्ध से ये कहना पड़ा कि आप अब जाइए. बुद्ध ने आश्चर्य व्यक्ति किया तो ओशो ने एक मास्टर स्ट्रोक मारा और कहा “आपका दिया हुआ वचन पूरा हुआ, ढाई हजार साल बाद मैत्रेय की तरह लौटने का आपका वचन पूरा हुआ, चार दिन क्या कम होते हैं?”
ये ओशो का ढंग है बुद्ध से बात करने का. इस काल्पनिक घटनाक्रम में भी ओशो बुद्ध को जिस गंदे और बचकाने ढंग से पेश कर रहे हैं वह बहुत कुछ बतलाता है. इस बात का आज तक ठीक से विश्लेषण नहीं हुआ है.
लेकिन भारत के दलितों, स्त्रीयों, गरीबों और मुक्तिकामियों को इस षड्यंत्र का पता होना ही चाहिए वरना अंबेडकर और कृष्णमूर्ति की मेहनत से जो बुद्ध और बौद्ध अनुशासन दलितों बहुजनों के पक्ष में उभर रहा है वह बुद्ध ओशो द्वारा प्रचारित ब्राह्मणवादी बुद्ध के आवरण में छिपकर बर्बाद हो सकते हैं और फिर से आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म की जहरीली दलदल में भारत का बहुजन कैद हो सकता है.
ओशो की चालबाजी को इस घटनाकृम में समझिये. आदिशंकर के बाद वे बुद्ध को सनातनी पंडित बनाने की दूसरी सबसे बड़ी कोशिश कर रहे हैं. लेकिन वे इतिहास को जानते हैं और पश्चिमी तर्कबुद्धि से उठने वाले प्रश्नों को भी समझते हैं इसलिए वे बुद्ध को विष्णु का अवतार नहीं कहते बल्कि खुद को ही बुद्ध का अवतार बना रहे हैं. ये आदि शंकर की चाल से बड़ी चाल है.
आज के जमाने में विष्णु के मिथक को फिर से खड़ा करना कठिन है. लेकिन पुनर्जन्म के सिद्धांत से एक पगडण्डी निकलती है जिसके सहारे ऐसा प्रचारित किया जा सकता है कि बुद्ध ही ओशो के शरीर से ज्ञान बाँट रहे हैं.
इससे दोहरा काम हो जाता है, एक तो ये कि ओशो ने जो भी ऊल जलूल जिन्दगी भर बोला है उसे वैधता मिल जाती है और दुसरा ये कि बुद्ध का प्रमाणिक व्याख्याकार बने रहते हुए वे बुद्ध और बौद्ध परम्परा की दिशा तय करने का अधिकार अपने हाथ में ले लेते हैं. हालाँकि वे एक गुलाटी और लगाते हैं और चार दिन के सरदर्द के बाद बुद्ध को बाहर कारस्ता दिखाने का दावा करते हैं.
इस तरह वे गौतम बुद्ध को पुरातनपंथी सिद्ध करके अपने आपको बुद्ध से भी बड़ा और “अपडेटेड बुद्ध” घोषित करते हैं और अपना नाम मैत्रेय बुद्ध से बदलकर अंत में ओशो रख लेते हैं. इसके ठीक बाद झेन पर बोलते हुए ओशो जिद्दु कृष्णमूर्ति का मजाक उड़ाते हैं और अपनी इस अंतिम किताब “द झेन मेनिफेस्टो” में आत्मा परमात्मा पुनर्जन्म को अंतिम सत्य बताते हुए दुनिया से विदा होते हैं.
ये नाम बदलकर या किसी को किसी का अवतार घोषित करके षड्यंत्र खेलना भारतीय पंडितों की सबसे कारगर तरकीब रही है. अब यही तरकीब ओशो के शिष्य खेल रहे हैं. हरियाणा में सोनीपत में एक ओशो आश्रम है जिसमे मुख्य गुरु ने यह दावा किया है कि ओशो मरते ही सूक्ष्म शरीर से उनके पास उपस्थित हुए और उन्हें उत्तराधिकारी बनाकर चले गये.
अब ओशो के ये उत्तराधिकारी चौरासी दिन में चौरासी लाख योनियों से शर्तिया मुक्ति दिलवाते हैं. ओशो ने जहर का जो पेड़ लगाया था उसमे शाखाएं और धाराएं निकल रही हैं. देखते जाइए ये सनातनी लीला हमारे सामने चल रही है.
इसलिए अब यह बहुत जरुरी होता जा रहा है कि मार्क्स को पढने समझने वाले लोग अंबेडकर को भी गहराई से पढ़ें समझें और अंबेडकरवादी लोग भी मार्क्स को गहराई से पढ़ें समझें. तभी हम भारत में सनातनी षड्यंत्रों से बच सकते हैं.
अंबेडकर भारत से शेष विश्व में जाने का और शेष विश्व के भारत में आने का अनिवार्य पडाव हैं. उन्हें इसी रूप में देखना होगा, तभी हम वैश्विक क्रांतियों की प्रस्तावनाओं से भारतीय बहुजनों दलितों आदिवासियों और स्त्रीयों के हित का कुछ ‘करणीय’ खोज पायेंगे.
अगर हम अंबेडकर को नहीं समझते हैं तो या तो हम वैश्विक क्रान्ति की प्रस्तावनाओं में एक पुर्जे की तरह इस्तेमाल हो जायेंगे या फिर सनातनी अवतारवाद और पुनर्जन्म के कोल्हू में इसी तरह घूमते रहेंगे.
– संजय श्रमण
Satyendra PS shared a video.8 hrs · गोरखपुर के गगहा थानाक्षेत्र के अथौला गाँव में 2 दिन पहले एक क्षत्रिय जाति के व्यक्ति द्वारा ग्रामसमाज के खलिहान की ज़मीन अवैध निर्माण किया जा रहां था! जिस पर दलितों ने आपत्ति की! पुलिस ने दोनों पार्टियों को अगले दिन थाने पर बुलाया. थाने पर क्षत्रिय दबंग पहले से ही मौजूद थे. और फिर बातचीत के दौरान ठाकुर बिरेन्द्र चंद ने पुलिस का डंडा ले कर ख़ुद ही दलितों को पीटना शुरू कर दिया और विरोध करने पर थानाध्यक्ष सुनील सिंह (जो कि मुख्यमंत्री योगी के नजदीकी माने जाते हैं) ने भी दलितों पर ही डंडे बरसाने शुरू कर दिए. इस बीच किसी तरह एक दलित भाग कर गाँव में चला गया और बहुत सारे दलित थाने पर पहुँच गये. जब उन्होंने इस बर्बरता का विरोध किया तो पुलिस वालों ने पहले उन पर डंडे बरसाए और फिर गोली चलाई जिससे तीन दलित बुरी तरह से घायल हो गये और मेडिकल कालेज में भर्ती हैं.
इसके बाद उच्च अधिकारियों के आने पर पुलिस भारी संख्या में दलित बस्ती पर टूट पड़ी और बच्चा-बूढ़ा जवान जो भी मिला सबको बुरी तरह मारा पीटा और घरों में तोड़फोड़ की. जो भी हाथ लगा उसको गाड़ी में भर कर थाने पर ले आये! अब तक 29 दलित जेल में भरे जा चुके हैं! इस समय अथौला गाँव के सभी दलित गाँव छोड़ कर भगे हुए हैं और पुलिस घरों पर दबिश दे रही है.
ये जानकारी पूर्व आई.जी. ऑफ़ पुलिस एस.आर.दारापुरी ने दी है!Dilip C Mandal
12 hrs · हिंदू जाट और मूला जाट यानी मुस्लिम जाट- ये दो किसान बिरादरी जब तक साथ में वोट डालती थी, तब देश में प्रधानमंत्री, उप प्रधानमंत्री, गृह मंत्री तथा यूपी जैसे बड़े राज्य में मुख्यमंत्री और जाने क्या क्या बनाती थी. दिल्ली में जाट राजनीति का जलवा होता था. टिकैत आकर दिल्ली को रुला जाते थे. किसानों का हक ले जाते थे.
फिर इनकी एकता को RSS की गंदी नजर लग गई.
आज केंद्रीय राजनीति में कोई कद्दावर जाट नेता नहीं है. बालियान टाइप के कुछ बौने नेता हैं, जिन्हें उनकी पार्टी भी नहीं पूछती.
RSS ने जाट राजनीति को खत्म कर दिया, हरियाणा तक में जाट राजनीति नहीं बची.
एक हो जाओ जाटों. वरना कब तक चरण सिंह और देवीलाल के किस्से याद करते रहोगे.
Girish Malviya
16 hrs ·
जब पाकिस्तान से चीनी आयात की जा रही है तो केंद्रीय मंत्री मेनका गाँधी उत्तर प्रदेश के किसानों को क्यो नही हड़काए ? …..जब उन्हें गन्ना किसान अपनी समस्या सुनाने गए थे तब उन्होंने अपने श्रीमुख से यह आशीर्वचन निकाले………
‘यहां आकर मेरी जान खाते हो, ना देश को चीनी की जरूरत है, ना गन्ना बढ़ने वाला है. हज़ार दफा बोल चुकी हूं कि गन्ना मत लगाओ’…
दरअसल चीनी मिलें यूपी में दस हजार करोड़ पार के बकाए के साथ बंद हो रही हैं खेतों में 17 लाख क्विंटल गन्ना, खड़ा हुआ है फिर भी बंदी का नोटिस दिया जा रहा है,और केंद्रीय मंत्री किसानों को ही दोषी ठहरा रही हैं मंत्रियों को जिन्ना पर अनाप शनाप बयान देने की फुर्सत है लेकिन गन्ना किसानों की समस्याओं पर कान नही देना है
इस बार भी चीनी मिलों को भारी नुकसान हो रहा है 100 kg चीनी बनाने में चीनी मिलों को करीब 3300 से 3500 रुपये का खर्च होता है लेकिन फिलहाल भाव 2400 रुपये मिल रहा है. मतलब सीधा 1000 रुपये का नुकसान हो रहा है
भारत में कई जगहों पर चीनी 25 रुपये किलो में बिक रही है जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में चीनी का भाव 19 रुपये से 20 रुपये के बीच ही है इसलिए पाकिस्तान से चीनी आयात करना सस्ता पड़ रहा है
पिछली बार चीनी का उत्पादन ज्यादा होने के बावजूद केंद्र सरकार ने चीनी के निर्यात खोलने में काफी देरी कर दी जिसकी वजह से चीनी के दाम देश में गिर गए. ओर इसका नतीजा इस बार किसानों को भुगतना पड़ रहा है
Sanjay Shramanjothe13 hrs · क्या बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म के बाद जन्मा है?
========================संस्कृत व्याकरण के विद्वान् पतंजली 150 BCE में अपने ग्रन्थ महाभाष्य में लिखते हैं: “आर्यों की भूमि कौनसी है? यह सरस्वती नदी से पूर्व में है.
कालक वन के पश्चिम हिमालय के दक्षिण और परियत्र पर्वत के उत्तर में” इसका सीधा अर्थ है कि पतंजली के समय में आर्यावर्त (आर्यभूमि) की एक पूर्वी सीमा थी जिसके परे कोई अन्य सभ्यता या धर्म था.
पतंजली के चार शताब्दी बाद मानव धर्म शास्त्र में मनु लिखते हैं “हिमालय और विन्ध्य के बीच प्रयाग पूर्वी समुद्र से पश्चिमी समुद्र के बीच आर्यावर्त भूमि है”
इसका अर्थ हुआ कि चार शताब्दी बादें पतंजली के लिए जो प्रदेश पूर्व में था वह मनु के लिए मध्यदेश बन जाता है. अर्थात यह क्षेत्र आर्यों द्वारा जीत लिया जाता है.
आर्यभूमि के प्रसार के लिए रास्ता अग्नि और यग्य द्वारा बनाया गया इसका अर्थ हुआ ये लोग जंगल जलाते हुए और युद्ध करते हुए आगे बढ़े.
मतलब साफ़ है, मनु तक आते आते वह पूर्वी प्रदेश जो आर्यों का नहीं बल्कि असुरों का था वह आर्यों द्वारा जीत लिया जाता है. पतंजली वर्णित कालक वन मनु द्वारा वर्णित प्रयाग या वर्तमान इलाहाबाद के निकट है.
पतंजली महाभाष्य के ही समान बाद के बौधायन धर्म सूत्र (१.२.९) और वशिष्ठ धर्म सूत्र (१.८-१२) कहते हैं कि गंगा और यमुना के बीच का क्षेत्र आर्यावर्त है.
अन्य स्त्रोत से शतपथ ब्राह्मण (१३.८.१.५) कहता है कि पूर्व (बिहार की ओर) असुर जन रहते हैं (असुरायः प्राच्यः), ये लोग बड़े बड़े गोल आकार के धर्मस्थल बनाते हैं.
बाद में महाभारत में उल्लेख है कि इश्वर और वेद को न मानने वाले और गोल गुंबद बनाने वाले असुर अभी भी बने हुए हैं. आगे महाभारत ने खराब समय के बारे में लिखा है ऐसे समय में शूद्र लोग द्विजों की सेवा करना छोड़ देंगे.
इसका अर्थ हुआ कि ब्राह्मणों या आर्यों का और उनके धर्म का प्रसार पश्चिम से पूर्व की तरफ हुआ है. शतपथ ब्राह्मण की मानें तो पूर्व की तरफ असुर रहते थे जो सर घुटाये घूमते हैं और गोल गुंबद की तरह धर्मस्थल बनाते थे.
ये गुम्बद असल में बौद्ध स्तूप हैं. ऐसी ही रचनाएं जैनों और आजीवकों की भी होती थीं. ये बौद्ध और जैन अहिंसक थे, युद्ध की भाषा में दक्ष नहीं थे.
बाद में महाभारत काल तक असुर शूद्र बन चुके थें अर्थात आर्यों के गुलाम हो चुके थे और उनका बौद्ध धर्म क्षीण हो चुका था.
अब गहराई से सोचिये, बौद्ध धर्म ब्राह्मण या आर्य आगमन से पहले भी अपने पूर्ण विक्सित रूप में था. इसका मतलब हुआ कि बौद्ध धर्म ब्राह्मण धर्म से न केवल पुराना है बल्कि पूरा ब्राह्मण धर्म बौद्ध धर्म के खिलाफ एक प्रतिक्रान्ति की तरह बुना गया है.
यहाँ अंबेडकर एकदम सही साबित होते हैं.
इससे यह भी सिद्ध होता है कि गौतम बुद्ध अकेले नहीं हैं, जिस तरह वर्धमान महावीर के पहले तेईस तीर्थंकरों की एक लंबी श्रंखला रही है उसी तरह गौतम बुद्ध के पहले भी अन्य बुद्धों की एक लंबी श्रंखला है.
जैनों ने हिन्दू ब्राह्मणों का अधिपत्य स्वीकार कर लिया. जैन मंदिरों और कर्मकांडों में ब्राह्मणों को मुख्य पुजारी की भूमिका बनाकर उनकी सत्ता स्वीकार कर ली इसलिए महावीर सहित अन्य तीर्थंकरों का इतिहास कुछ हद तक बचा रहा.
लेकिन बौद्धों ने ब्राह्मण आधिपत्य स्वीकार न किया इसलिए वे समाप्त कर दिए गये, उनका इतिहास मिटा दिया गया.
लेकिन अब बुद्ध और बौद्ध इतिहास फिर से प्रकट होकर रहेगा, इस भारत को दुबारा सभ्य बनाने के लिए बुद्ध लौट रहे हैं.
– संजय जोठे
महात्मा बुद्ध ने यज्ञो में पशु बलि का विरोध किया था तत्कालीन ब्राह्मणों का भी विरोध किया था इससे सिद्ध हुआ की ब्राह्मण बुद्द्ध जी के पहले थे
Sanjay Shramanjothe
3 August at 17:40 ·
डॉ. आंबेडकर को बौद्ध धर्म का एक अधिकृत विद्वान् या सुधारक न मानने के पीछे कुछ महत्वपूर्ण कारण रहे हैं जिनमे से दो का उल्लेख किया जा सकता है.
सबसे पहला और बड़ा कारण तो यह कि हिन्दू दक्षिणपंथ ही नहीं बल्कि प्रगतिशील हिन्दू खेमा भी इस विचार से ही भयाक्रांत था कि बौद्ध धर्म को नयी जीवन शक्ति मिले और आजादी के तुरंत बाद भारत एक नए और सबसे निर्णायक संघर्ष में प्रवेश न कर जाए.
इस संघर्ष को उन्होंने करोडो बहुजनों की अस्मिता की कीमत पर बलात रोके रखा. दुसरा कारण है स्वयं बौद्धों द्वारा डॉ. अंबेडकर की प्रस्तावनाओं का तिरस्कार. यह आज भी देखा जा सकता है.
वेदांती और परलोकवादी महायान से प्रभावित बौद्ध जन आज भी अंबेडकर की क्रान्ति दृष्टी को नहीं अपनाना चाहते हैं. विपस्सना को व्यक्तिगत मुक्ति का साधन बनाये रखने वाले गुरुओं से प्रभावित ये बौद्ध असल में अंबेडकर के नए प्रोपोजल को न तो विस्तार दे रहे हैं न उसे उसकी स्वाभाविक गहराई या उंचाई तक ले जा रहे हैं.
इस तरह हिन्दुओं और महायानियों की सम्मिलित शक्ति ने डॉ. अम्बेडकर की सबसे बड़ी और निर्णायक क्रांति को रोका हुआ है. इसमें दलाई लामा जैसे लोगों ने अंबेडकर के सपनों के खिलाफ बहुत बड़ा काम किया है और वे आज भी अपना काम कर रहे हैं. तिब्बत जैसी पूरी संस्कृति को पुनर्जन्म और परलोक के ढकोसलों में उलझाकर खत्म करने के बाद आजकल ये “अवतार” भारत में घूम रहा है.
इधर खुद भारत की अपनी भूमि पर वेदांती बाबाओं ने बुद्ध की व्याख्या करने का अभियान छेड़ रखा है जिसमे ओशो रजनीश जैसे पाखंडियों ने बड़ा भारी उद्यम किया है और बुद्ध के मुंह में वेदान्त ठूंसने का सबसे सफल प्रयोग अंजाम दिया है. इन धूर्तों से आजकल के बहुजन और कई अंबेडकरवादी भी प्रभावित हैं जो बुद्ध दलाई लामा और ओशो रजनीश जैसों को एक ही प्रवाह में देखते हैं.
ऐसा करते हुए वे किसी को नहीं देख पाते तो वो हैं डॉ. अंबेडकर.
ये एक अर्थ में उचित भी हैं. अंबेडकर को ओशो रजनीश या दलाई लामा जैसे धूर्तों की श्रेणी में रखना भी अशोभन होगा. मानव अस्मिता और बहुजन गरिमा के सबसे बड़े सिपाही की तरह डॉ.अंबेडकर को दलाई और रजनीश जैसे धूर्तों के साथ नहीं बल्कि स्वयं बुद्ध के बाद रखना ही उचित है.
– संजय श्रमणFollow
Sanjay Shramanjothe
2 August at 23:25 ·
बौद्ध धर्म के आधुनिक विमर्श सहित भारत की पूरी सांस्कृतिक धार्मिक यात्रा से गुजरते हुए एक बात साफ़ नजर आती है. वो यह कि बाबा साहेब अंबेडकर को बौद्ध धर्म की आधुनिक बहसों में एक गंभीर अध्येता की तरह नहीं गिना जाता.
यह एक भयानक सच्चाई है जिसके बारे में सवाल उठाने जरुरी हैं.
इसके बारे में सवाल उठाने से भी ज्यादा जरुरी बात जो मुझे लगती है वो ये कि हम ही इसका जवाब भी दें. आखिर हमारे लिए इन सवालों जवाब देने कौन और क्यों आयेगा? और हम क्यों उसका कोई जवाब स्वीकार करंगे? हमें अपना भविष्य खुद बुनना है. तो इस सवाल का जवाब भी हम ही देंगे.
वह जवाब क्या है?
वह जवाब यह है कि डॉ. अंबेडकर बौद्ध धर्म के अध्येता नहीं हैं. वे बौद्ध धर्म के सुधारक हैं.
बाबा साहेब बहुजन हित-चिंतन की दृष्टी से न सिर्फ बौद्ध धर्म के बल्कि भारत में धर्म मात्र की विधा को आधुनिक लोकतंत्र और विज्ञान चेतना के नजदीक लाने में सबसे सुचिंतित और सबसे तार्किक सुधारक रहे हैं. और इस सुधार को उन्होंने सैद्धांतिक और व्यवहारिक दोनों आयामों में खुद लागू भी किया है.
अब डॉ. अंबेडकर को बौद्ध धर्म के महान सुधारक की तरह देखने दिखाने का समय आ चुका है. अभी तक समय परिपक्व हो रहा था. अब इस नयी सदी में इस बात की स्पष्ट घोषणा की जा सकती है डॉ. अंबेडकर भारत के लिए प्राचीन क्लासिकल बौद्ध धर्म को एक नए कलेवर और सुधार के साथ प्रासंगिक बनाकर हमारे लिए छोड़ गये हैं.
यह उनका सबसे बड़ा दान है.
संविधान की रचना के समय उनकी कल्पनाशीलता को रोकने वाले कई कारक थे जिन्होंने उनके हाथ बांधे रखे थे. लेकिन बौद्ध धर्म की नवीन व्याख्या करते समय उनके हाथ अपेक्षाकृत स्वतंत्र थे. हालाँकि पूरी तरह स्वतंत्र तब भी नहीं थे. ढलती सेहत और गृह-क्लेश ने उनका जीना दूभर कर दिया था ऐसे में भी उन्होंने अपने लहू का एक एक कतरा अपनी कौम के लिए कुर्बान करते हुए संविधान के बाद हमें दुसरा सबसे बड़ा आश्वासन और आधार-स्तंभ दिया.
वह दूसरा और कहीं महत्वपूर्ण आधार-स्तंभ बौद्ध धर्म है यह नवीन बौद्ध धर्म न सिर्फ बहुजनों को बल्कि पूरे भारत को मार्ग दिखाएगा.
संविधान की सीमा बताते हुए खुद उन्होंने कहा था कि संविधान अगर अच्छे हाथों में रहा तो अच्छा काम करेगा, बुरे हाथों में यह बुरा बन जाएगा. अब सवाल ये है कि वे अच्छे हाथ कहाँ से आयेंगे? क्या आसमान से टपकेंगे?
बाबा साहेब को पता था ये अच्छे हाथ बौद्ध धर्म से ही आयेंगे. इसीलिये संविधान निर्माण की महत परियोजना को समाप्त कर वे दुसरी कहीं अधिक बड़ी परियोजना में जुट गये थे. वह परियोजना थी बौद्ध धर्म के सुधार और नवयान के निर्माण की परियोजना.
इस परियोजना का एक बड़ा हिस्सा अभी भी बाकी है. इसके परिणाम में बहुजन पहले बुद्ध के निकट आएगा फिर शेष भारत जल्द ही बुद्ध की शरण आएगा.
जब भी मैं बौद्ध धर्म पर बाबा साहेब के विचार पढता हूँ तब बार बार सोचता हूँ कि अपने समय में बाबा साहेब किन चीजों से गुजर रहे होंगे. अक्सर यही ख्याल आता है कि वे बौद्ध धर्म के अध्येता या स्कालर की तरह नहीं देखे जा सकते. जिन लोगों ने उन्हें बुद्धिज्म की स्कालरली डिबेट से दूर रखा एक अर्थ में उन्होंने उचित ही किया है.
हालाँकि उन्होंने ये सब षडयंत्रपूर्वक किया है लेकिन उन्होंने जो किया वो ठीक ही किया.
ऐसा मैं क्यों कह रहा हूँ?
ऐसा इसलिए कि बौद्ध धर्म के स्कालर/ अध्येता और बौद्ध धर्म के सुधारक में कुछ अंतर होना भी चाहिए. क्या आप मार्टिन लूथर को इसाई धर्म का अध्येता कहेंगे? या पुरानी इसाइयत का सुधारक और नयी इसाइयत का संस्थापक कहेंगे? क्या आप जीसस को यहूदी धर्म का अध्येता कहेंगे या नए इसाई धर्म का संस्थापक कहेंगे?
इसी तरह बाबा साहेब के बारे में भी सोचिये.
अकादमिक जगत में बाबा साहेब बौद्ध धर्म की आधुनिक चर्चाओं में स्कालर की तरह अनुपस्थित हैं. एसा होना भी चाहिए, अब यह अकादमिक काम उनका है भी नहीं.अकादमिक जगत में नवयान को स्थापित करने वाले दुसरे और नयी पीढी के स्कालर आने जरुरी हैं. ये नयी पीढ़ी के लोग नवयान को एक मुकम्मल रचना बनाने का काम करेंगे.
नवयान को परलोकवादी और अन्धविश्वासी महायान का उत्तर बनना होगा.
– संजय श्रमण
इसमें तो कोई शक ही नहीं हे की स्वर्ण आर्य लोग बाहर से आये होंगे शक की कोई गुंजाईश ही नहीं हे इसलिए इस कदर भेद भाव और छुआ छूत रहा होगा वार्ना इसकी भला क्या जरुरत होगी———– ? आज भी संघी चाहे जितना उछल कूद मचा ले छुआछूत जिन्दा हे ही इसका साफ़ मतलब हे की स्वर्ण आर्य बाहर से आये होंगेhttps://www.bbc.com/hindi/india-46709161
Laxman Singh Dev
13 hrs ·
कुंठा एवं हीन भावना बड़े समुदायों को भी ग्रष्त कर सकती है। मानव सभ्यता के विकास में इजिप्ट एवं सिंधु घाटी की सभ्यताएं सबसे पहली बड़ी नगरीय सभ्यताएं थी। कालांतर में भारत वर्ष में मौर्य ,उत्तर मौर्य काल पराकाष्ठा का था। गुप्त काल में यह चरम पर पहुँच गया। मध्य पूर्व में अरबो द्वारा स्पेन में झंडे गाड़ना एवं खगोल विद्या एवं जयामिति का विकास अभिभूत कर देता है। पश्चिम में रोम एवं यूनान के राज्य भी चरम पर पहुंचे। पिछले १०० साल में ज्ञान ,विज्ञान एवं तकनीक भारत ,मिडल ईस्ट से गायब ही हो गयी हैं।पश्चिमि देशो के साम्रज्यवाद एवं तकनिकी विकास ने शेष जगत को अभिभूत कर दिया। हीन भावना से ग्रस्त होकर हिन्दू , वेदो एवं संस्कृत ग्रंथो में कम्प्यूटर ,पेन ड्राइव आधुनिक खगोल विज्ञानं ढूंढने का प्रयास करते हैं।हम तो जगत गुरु हैं जी। वैज्ञानिक विकास में फिसड्डी। वर्तमान की असफलता को अतीत की चमक से चौंधियाने का असफल प्रयत्न। कहीं यह कुंठा उन दलितों में भी इस रूप में दिख जाती है जो अपने को मूल निवासी कहते हैं और भूमध्यसागरीय नस्ल के लोगो द्वारा बसाई गयी सिंधु घाटी सभ्यता को अपना मान लेते हैं। दक्षिण एशिया के मुस्लिमो में यह ऑटोमन एम्पायर को अपना समझने के छलावा के रूप में प्रकट होती है। यू पी , बिहार का किसी पिछड़ी जाति का मुसलमान जो ओ बी सी का प्रमाणपत्र बनवा कर सरकारी नौकरी लेने की कोशिश भी करता है ,एक तरफ ऑटोमन एम्पायर के तुर्को को अपना भाई एवम स्पेन में झंडा लहराने वाले अरबो से अपनी रिश्तेदारी भी निकालता है। यह दक्षिण एशियाई वंचना बोध , हीनता एवं ज्ञान के अभाव का चरम है। मधुर सत्य तो यह है कि विकास में पिछड़ जाने पर लोग मुंह चुराते हैं। आने वाला समय मोंगोलाईड जातियों{चीन ,जापान ,कोरिया ,वियतनाम } का है। आप भजन ,जागरण ,नात ,कव्वाली आदि माध्यमो से सच्चे ईश्वर को खुश करो।
Suresh Chiplunkar
23 hrs ·
#Sabrimala
ख़बरों के अनुसार कनकदुर्गा (42) और बिंदु (44) नामक दो महिलाओं ने धोखेबाजी और केरल पुलिस/सरकार की मदद से तडके तीन बजे भगवान अयप्पा के पवित्र मंदिर में प्रवेश का दावा किया है… बिंदु एक कॉलेज में लेक्चरर हैं और कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य है…
हालाँकि अभी इस दावे की पुष्टि नहीं हो सकी है… CCTV फुटेज की जाँच की जा रही है, और अभी पक्का नहीं है कि ये “ताड़का और पूतना” गर्भगृह में पहुँच सकीं या नहीं… इसलिए अभी धैर्य रखिये… अधिकाँश संभावना तो इसी बात की है कि मंदिर अपवित्र करने की यह खबर झूठी होगी… वामी खबरंडी की अफवाह होगी…
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यदि मान लीजिए कि धर्म के क्षरण एवं हिंदुओं के दुर्भाग्य से ऐसा हो भी गया हो, तो गंगाजल एवं गौमूत्र से मंदिर का शुद्धिकरण अवश्य किया जाएगा…
सनातन के लिए काला और दुर्भाग्यशाली दिवस है..
Ashok Kumar Pandey
3 hrs
किसान आये तो समस्या थी कि जींस क्यों पहने हैं, बिसलेरी क्यों पी रहे। औरतें उतरीं तो बुर्का मिल गया। छात्र आंदोलन करें तो ये आठ साल यूनिवर्सिटी में क्या कर रहे थे। मज़दूर उतरें तो कामचोर हैं। साथ मे इन सब पर राजनीति से प्रेरित होने का आरोप।
बस जब मन्दिर वहीं बनाएंगे चिल्लाते गुंडे सड़क पर आएं तो मन हर्षाता है फूल बरसाता है राजनीति से परे हो जाता है!
पंडित वी. एस. पेरियार
1 hr ·
सबरीमाला से याद आया कि जब हम इलाहाबाद में थे तो ईश्वरशरण छात्रावास मे एक बहुजन वार्डन थे. उनका ट्रांसफर हुआ तो एक पंडित आये. उन्होंने वार्डन रुम का गंगाजल और गोमूत्र से शुद्धिकरण कराया. बहुजन छात्रों को पता चला तो सबने अपमानित महसूस किया, फिर उसकी खूब खातिर की, अपने मानव मूत्र से उसका शुद्धिकरण भी किया.
आपको वीभत्स लगेगा पर और विकल्प भी क्या है? वो वैसे भी इंसान नहीं था.
पंडित वी. एस. पेरियार
1 hr ·
शुद्धिकरण कोई सफाई क्रिया नहीं है. पशुमूत्र वैसे भी साफ नहीं गंदा करता है. जाहिर है गोमूत्र छिड़कना सफाई की मंशा से नहीं है.
शुद्धिकरण बेसिकली एक ब्राह्मण द्वारा बहुजनों के प्रति असीमित घृणा की घोषणा है. इसके द्वारा पुजारी बना ब्राह्मण दिखाता है कि हम तुमसे इतनी घृणा करते हैं कि एक पशु का गूमूत्र खा-पी लेंगे पर तुम्हारा छुआ नहीं. शुद्धिकरण के नाम पर ब्राह्मण बताता है कि बहुजनों तुम्हारा दर्जा हमारी नजर मे एक पशुमूत्र से भी बदतर है. ये ना धर्म है ना शुद्ध करना, ये सिर्फ और सिर्फ घृणा की घोषणा है.
सवाल है कि जब कोई आपको खुलेआम ऐसे अपमानित कर रहा हो तो बहुजनों को क्या करना चाहिए? मेरे खयाल से जहां ऐसे “बहुजन सार्वजनिक अपमान आयोजन” यानी शुद्धिकरण हो वहां बहुजनों और अन्य सभ्य समाज को उसपर तीव्र विरोध और प्रतिक्रिया देनी चाहिए, और अपराधियों को भी सार्वजनिक अपमान की पीड़ा महसूस करानी चाहिए. चाहे तो इसके लिए एक संगठन बने.
“बहुजन सार्वजनिक अपमान आयोजन” हर कीमत पर बंद हो
Sanjay Shraman
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बाबा साहेब अंबेडकर द्वारा बौद्ध धर्म के स्वीकार की निंदा बहुत तरीकों से की जाती है। एक तरफ भारत के बहुजनों से नफरत करने वाले लोग हैं, ये लोग बाबा साहेब अंबेडकर द्वारा बौद्ध धर्म के स्वीकार को कोरी राजनीति बताते हैं।
दूसरी तरफ वे लोग हैं जो यह मानते हैं कि बाबा साहेब अंबेडकर को स्वयं ही बौद्ध धर्म का कोई विशेष ज्ञान नहीं था और उन्होंने बुद्ध और उनका धर्म मे जो कुछ लिखा है उसमे बहुत सारा बदलाव कर दिया है।
ऐसे लोग यह भी कहते हैं कि आजकल के नव-बौद्धों को मूल बौद्ध धर्म का ज्ञान नहीं है या कि उन्होंने धम्म पद और विनय पिटकों आदि का अध्ययन नहीं किया है।
दुर्भाग्य से खुद बहुजन समाज के कई लोग जो कि वेद वेदान्त सिखाने वाले बाबाओं के मुंह से बुद्ध की प्रशंसा सुनते हुए बड़े हुए हैं वे भी यही मानते हैं कि वेदांती बाबाओं द्वारा बताए गए बुद्ध बाबा साहेब अंबेडकर द्वारा बताए गए बुद्ध से बड़े हैं। ये लोग बाबा साहेब अंबेडकर द्वारा बताए गए बुद्ध को एक नकली और अधूरी रचना मानते हैं। ये लोग यह भी मानते हैं कि बाबा साहेब अंबेडकर ने इस नए और अधूरे बुद्ध को बड़ी जल्दबाजी मे केवल राजनीतिक कारणों से खड़ा कर दिया है।
अब जरा गौर से देखिए कि सच्चाई क्या है।
हकीकत यह है कि जिसे बौद्ध धर्म कहा जाता है वह कोई एकाश्म या मोनोलिथ नहीं है। उसमे बहुत सारे प्रकार और शाखाएं हैं जैसे कि हर धर्म या संप्रदाय मे स्वाभाविक रूप से होती हैं। इतना ही नहीं बौद्ध धर्म के साथ एक बड़ी समस्या उसमे मिलावट को लेकर है। इस मिलावट के प्रति बाबा साहेब अंबेडकर बहुत चिंतित और सावधान थे। बाबा साहेब जानते थे कि वेदांती पंडितों ने किस-किस तरह से प्राचीन भारतीय साहित्यिक धार्मिक और आध्यात्मिक परंपराओं मे जहर घोलकर उनमे मिलावट की है।
संस्कृत और पालि प्राकृत मे लिखे गए प्राचीन भारतीय धर्मग्रंथों को मूल रूप मे और उनके अंग्रेजी अनुवाद के साथ पढ़ने के बाद बाबा साहेब ने बहुत गहराई से महसूस किया था कि न केवल बौद्ध धर्म मे बल्कि भारत की शेष सभी परंपराओं मे वेदांती पंडितों ने बहुत सारा घालमेल किया है।
विशेष रूप से वे धर्मग्रंथ जो संस्कृत मे प्राप्त होते हैं उनके बारे मे बाबा साहब के चिंतन मे ही नहीं बल्कि आज के इंडोलोजी के विशेषज्ञों मे भी एक सावधानी का आग्रह पाया जाता है। बाब साहब शुरू से मानते थे कि जिन ग्रंथों का संस्कृत अनुवाद हुआ है या जो मूल रूप से संस्कृत मे लिखे गए हैं वे ग्रंथ भरोसे के योग्य नहीं हैं।
इसीलिए वे अश्वघोष द्वारा संस्कृत मे लिखे गए बुद्ध चरित से भी पूरी तरह सहमत नहीं होते हैं। वे नहीं मानते कि गौतम बुद्ध ने वृद्ध, रोगी, मृत या सन्यासी को देखकर गृहत्याग किया और किसी पारलौकिक मोक्ष के लिए घर परिवार और राज्य का त्याग किया।
बाबा साहेब जिस विश्लेषण को उजागर करते हैं वह प्राचीन ताईवानी रिकार्ड्स मे मिलता है। वह रिकार्ड्स कहते हैं कि गौतम बुद्ध ने कोलियों और शाक्यों के बीच जल बंटवारे को लेकर हुए विवाद के परिणाम मे गृहत्याग किया था। बाद मे गौतम बुद्ध के इस राजनीतिक निर्णय को आध्यात्मिक और पलायनवादी निर्णय की तरह बताया गया।
इस तरह बुद्ध को एक पलायनवादी परिव्राजक बनाकर पेश किया गया ताकि बुद्ध के साथ एक राजनीतिक निर्णय की चेतना को जुडने से रोका जा सके। भारत के सभी वेदान्ती बाबा और धर्म गुरु बुद्ध के गृहत्याग को इस तरह पेश करते हैं कि उन्होंने मोक्ष की कामना मे पत्नी पुत्र और राज्य का त्याग कर दिया।
वहीं ये वेदांती बाबा अपने वेदांती भगवानों और अवतारों के गृहत्याग या वनवास को इस तरह पेश करते हैं कि इनके अवतार ने दुनिया से दुष्टों का नाश करने के लिए और सद-धर्म की स्थापना के लिए गृहत्याग किया, और भीषण युद्ध किया।
इस बिन्दु को ध्यान से समझिए। वेदांती बाबा और इनके भक्त ये कहते हैं कि उनके वेदांती अवतार या भगवान एक राजनीतिक प्रोजेक्ट लेकर घर से निकल रहे हैं ताकि अनार्यों और राक्षसों की सत्ता, राजपाठ और शक्ति को नष्ट करके एक धर्म विशेष की स्थापना की जा सके। वहीं ये वेदांती बाबा बुद्ध के बारे मे यह समझाते हैं कि बुद्ध ने अपने व्यक्तिगत जीवन के मोक्ष और दुख निरोध के लिए गृहत्याग किया।
अब इस विचित्र दावे की राजनीति को ध्यान से समझिए। ये वेदांती बाबा लोग छाती ठोककर कह रहे हैं कि उनके अवतारों का मूल प्रोजेक्ट पॉलिटिकल है, राजनीतिक है वहीं बुद्ध के गृहत्याग को आध्यात्मिक और प्लायनवादी प्रोजेक्ट प्रोजेक्ट बता रहे हैं।
थोड़ा सोचिए कि वेदांती परंपरा एसा क्यों कहना चाहती है?
जिन लोगों ने भारत के बौद्ध स्तूपों, विहारों, विश्व-विद्यालयों और बौद्ध भिक्षुओ को नष्ट कर दिया, उन्होंने करोड़ों बौद्ध अनुयायियों के बीच यह भ्रम फैलाने का काम किया कि तुम्हारा पवित्र पुरुष असल मे आध्यात्मिक मुक्ति के लिए घर से निकला था।
इस तरह बुद्ध के साथ शाक्य और कोली संघ के बीच चल रही राजनीति और तत्कालीन गणतंत्र की राजनीति के पूरे उल्लेख को बुद्ध के गृहत्याग की चर्चा से गायब कर दिया। एसा करते हुए वेदांतियों ने बुद्ध के साथ गणतंत्र, राजनीतिक संघ और राजनीतिक विमर्श की सारी संभावनाओं को खत्म कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि बुद्ध से जुड़े लोगों मे राजनीतिक चेतना क्षीण हो गयी।
इसके विपरीत गैर बौद्धों यानि वर्णाश्रमवादियों मे क्या हो रहा है?
वे लोग जो ऐसे अवतारों और भगवानों को मानते हैं जिनका जन्म या गृहत्याग या भीषण युद्ध धर्म की स्थापना के लिए हुआ है उन लोगों मे एक खास किस्म की राजनीतिक चेतना का सातत्य बना रहता है।
वे जब धर्म की स्थापना का दावा करने वाले या इस दावे के लिए भीषण युद्ध और हत्याएं करने वाले नायकों को पूजते हैं तो उनके भीतर उस कल्पित राज्य को फिर से स्थापित करने और बचाने की चेतना पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती जाती है।
इसके विपरीत जो लोग बुद्ध को व्यक्तिगत मोक्ष की तलाश मे गृहत्याग करने वाला परिव्राजक मानकर उनकी पूजा करते हैं उनमे राज्य, धर्म, स्थापना, रक्षा आदि से जुड़ी चेतना कमजोर हो जाती है और आँख बंद करके मोक्ष की तलाश की आदत बढ़ती जाती है।
इस विस्तार मे जाने के बाद क्या डॉ अंबेडकर के निर्णय को अब आप ठीक से समझ सकते हैं?
क्या अब आप बाबा साहेब के निर्णय का सम्मान कर सकते हैं?
डॉ अंबेडकर जब अपनी कमजोर होती देह और सिकुड़ते जा रहे जीवन के अंतिम दौर मे अपने लिए नए बौद्ध धर्म की रचना करते हैं तब उनके मन मे चल रहे तूफान को इस उदाहरण से समझने की कोशिश कीजिए।
वे चाहते थे कि इस नव-यान को मानने वाले लोग खुली आँखों वाले बुद्ध को मानें, बैठे हुए नहीं बल्कि चलते हुए गतिमान बुद्ध को माने, ऐसे बुद्ध को माने जिसने व्यक्तिगत मोक्ष हेतु नहीं बल्कि समाज के बेहतर राजनीतिक भविष्य के लिए अपनी प्रियतमा और दुधमुँहे बच्चे का त्याग किया था।
इस विश्लेषण के बाद उस आरोप पर वापस आइए जिसमे डॉ अंबेडकर पर यह आरोप लगता है कि उनका बौद्ध धर्म मे प्रवेश राजनीति है।
इस आरोप को समझिए। ये आरोप लगाने वाले लोग कह रहे हैं कि धर्म असल मे मृत्यु के बाद या अगले जन्म मे मिलने वाले मोक्ष या स्वर्ग हेतु होता है। वे यह भी कह रहे हैं कि धर्म कोइ कपड़ा नहीं है जिसे आप बदल सकते हैं। वे लोग यह भी कह रहे हैं कि धर्म अधर्म की परिभाषा और उसमे प्रवेश या निर्गम की परिभाषा का अधिकार उनके हाथ मे है। वे सीधे सीधे यह भी कह रहे हैं कि धर्म की स्थापना या परिवर्तन करने वाले डॉ अंबेडकर कौन होते हैं?
इस आरोप या प्रश्न का दूसरा पहलू भी समझिए।
वेदांती या वर्णाश्रमवादी लोग यह कह रहे हैं कि उनके अपने अवतार या भगवान ने जो व्यवस्था दी है उसी व्यवस्था मे आपको जीना है। इस तरह वे बहुत साफ शब्दों मे कह रहे हैं कि उनका धर्म असल मे एक राजनीति है जिसके अपने विशेष जीवन निर्वहन के नियम हैं। जाति और जाति आधारित व्यवसाय एवं विवाह उस धर्म का सर्वप्रमुख राजनीतिक नियम है।
इस तरह वर्णाश्रमवादी लोग अपनी राजनीति को दूसरों पर थोपने का प्रयास पूरी ठसक से कर रहे हैं लेकिन दूसरों के द्वारा अपना नया धर्म चुनने के अधिकार को राजनीति कहकर उसकी निंदा कर रहे हैं।
इन वेदांती बाबाओं ने वर्णाश्रमवादियों मे ही नहीं बल्कि बुद्ध से प्रेम करने वाले लोगों मे भी यह अंधविश्वास फैला दिया है कि बुद्ध का गृहत्याग और उनका धर्म असल मे पलायन और मोक्ष के लिए रचा गया था। आजकल के दाढ़ी वाले बाबा और उनके चेले इस अंधविश्वास को और बढ़ा रहे हैं ताकि इस षड्यन्त्र मे भारत की बहुजन चेतना दुबारा फँसकर दिशाहीन हो जाए।
डॉ अंबेडकर ने जिस तरह का बौद्ध धर्म और जिस तरह का बुद्ध स्वयं के लिए निर्मित किया है उसका प्राचीन परंपराओं से बहुत अधिक संबंध नहीं है।
डॉ अंबेडकर का बौद्ध धर्म आज के समय के अनुकूल एक नवीन प्रस्तावना है।
अगर कोई यह आरोप लगाता है कि बौद्ध धर्म मे प्रवेश राजनीति है तो उनसे पूछिए कि पुराने धर्म मे रोके रखकर शोषण करना क्या राजनीति नहीं है?
एक गंदी राजनीति के खिलाफ आपको अच्छी राजनीति खड़ी करनी पड़ेगी। एक गंदे और शोषक धर्म के विरुद्ध आपको नया मानुष्यतावादी और समतावादी धर्म खड़ा करना होगा।
याद रखिए आप राजनीति की लड़ाई धर्म के द्वारा और धर्म की लड़ाई राजनीति के द्वारा नहीं लड़ सकते। आप पानी से भूख नहीं मिटा सकते और रोटी से प्यास नहीं बुझा सकते। रोटी और पानी की अपनी अपनी महत्ता है उनका घालमेल नहीं किया जा सकता। राजनीति और धर्म दो सबसे महत्वपूर्ण आयाम हैं सामाजिक जीवन के।
आपको अपना धर्म और अपनी राजनीति खुद निर्मित करनी होगी।
– संजय श्रमण