( इन दोनों लेखो http://desicnn.com/blog/ban-on -beef-the-other-side-of-coin http://khabarkikhabar.com/archives/3307 के जवाब में ”शुजूको ” जी ने ये कमेंट लिखे थे जिन्हे लेख के रूप में दिया जा रहा हे )
गौ-पालन महंगा है :इस हिस्से में सही लिखा है कि गौ पालन का खर्चा बहुत है | ऐसे में दूध न देने वाली गाय को लोग क्यों पाले ?
एकदम सही बात कही है कि लोग गाय को चारे के लिए खुला छोड़ देते हैं , और वे प्लास्टिक कचरा या कीटनाशक खाने को मज़बूर हो जाती हैं | लेकिन ऐसाक्रूर व्यव्हार , दूध देने वाली गायों के साथ भी होता है | उन्हें भी चारा नहीं दिया जाता |बैल या बछड़े को आर्थिक कारणों से पाला नहीं जा सकता | लेकिन इनके बिना गौवंश का आगे बढ़ना और गाय का दूध देना भी असंभव है | इसलिए इन्हेव्यावहारिक रूप से क़त्ल नहीं किया जाना चाहिए | वर्ना गाय एक विलुप्तप्राय जीव बन जायेगी |इंसानो की तरह, गायों में भी सेक्स रेश्यो का संतुलन रखना ज़रूरी है | आपने चिड़ियाघरों में देखा होगा कि सेक्स रेश्यो गड़बड़ाने से कैसे कईबार जानवर की प्रजाति खतरे में पड़ जाती है | ये सोच कर खुश मत होईये कि गायो और बैलो की संख्या बहुत है | कभी दूसरे जीव जंतुओं की भी रही होगी |
आप कह सकते हैं कि इंसान तो मुर्गा और मछली को भी मारता है | तो इकोसिस्टम क्यों नहीं गड़बड़ाता | मेरे ख्याल से गड़बड़ाता तो होगा | लेकिन मुर्गी और मछली का पालन (poultry farming) किया जाता है | उनकी ब्रीडिंग की जाती है |
आपका ‘एनिमल-हसबेंडरी’, ‘काऊ-फार्मिंग’ और ‘गौ-आधारित इंडस्ट्रियल विकास’ वाले सुझाव भी अच्छे लगे | बस मुकेश अम्बानी जैसे लोगो के इस बिज़नेस में आने की ज़रूरत है |आपकी व्यापारियों को मुनाफे वाली बात भी सही है कि जब तक उन्हें मुनाफा ना हो , वे निवेश नहीं करते | इसलिए आपकी ‘टेक्नोलॉजी में विस्तार की ज़रूरत’ वाली बात से भी मैं सहमत हूँ |
आपकी इस बात को भी मैंने स्वीकार किया कि सरकार को गौ आधारित इंडस्ट्री के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी | और सरकार को गाय को आस्था का विषय बनाने से बचना चाहिए | गाय पर हर पार्टी और पत्रकारों की तरफ से राजनीति बंद होनी चाहिए | और सबको मिलकर व्यावहारिक धरातल पर ऐसी कोशिशें करनी चाहिए , जिससे गायो को कत्लखानो में भेजने की ज़रूरत ना पड़े और गायो को प्लास्टिक खाने की ज़रूरत भी ना पड़े |
सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार के पॉइंट को भी स्वीकार करती हूँ | और इसके लिए मेरे पास कोई समाधान भी नहीं है | भ्रष्टाचार, इंसान की बढ़ती ज़रूरतों और दिखावे का नतीजा है | अब इंसान तो साधू बनने से रहा | तो भ्रष्टाचार किसी नियम-कानून-लोकपाल के सहारे ख़त्म नहीं किया जा सकता | हाँ , कम ज़रूर किया जा सकता है | बछड़ो के द्वारा फसल की बर्बादी :
सही मुद्दा उठाया है आपने | फसल किसान की मेहनत और हक़ है | गांव के मवेशी : गाय , बैल , बछड़ा , भैंस इत्यादि को उन्हें उजाड़ने नहीं दिया जा सकता | लेकिन क्या इस समस्या का हल यही है कि इन मवेशियों कि हत्या कर दी जाए ? कुछ समय पहले , इन्ही वजहों से नीलगाय को भी मारने की सरकार द्वारा अनुमति दी गयी है |बछड़ो को गौशाला में भी नहीं भेजा जा सकता क्यूंकि ऐसा करने पर गाय दूध देना बंद कर देगी | दूध दुहने के लिए बछड़े का गाय के सामने होना ज़रूरी है |लेकिन मवेशी की पहचान तो की जा सकती है कि उसका मालिक कौन है ? उनकी आधार नंबर टैगिंग की सरकार वैसे भी कोशिश कर रही है | ऐसे में सरकार को एक कानून बनाने की ज़रूरत पड़ेगी कि हर मवेशी कि पूरी ज़िम्मेदारी उसके मालिक की होगी | अगर उनका मवेशी किसी के खेत में कोई नुकसान करता है तो हर्जाना उनको भरना पड़ेगा |लेकिन बात सिर्फ गाय , भैंस की ही नहीं है , बल्कि नीलगाय और जंगली सूअरों की भी है | उनकी जान कैसे बचाये ? इन बेजुबान जानवरों को कहाँ पता है कि हद से ज्यादा मतलबी इंसान , इन्हे पेट भरने की ऐसी क्रूर सज़ा देगा ?
हल तो बाड़ लगाए जाने से ही निकलता दिख रहा है | लेकिन इतने लम्बे खेतो को कैसे कवर किया जाए ? इसके लिए खेतों की आउटर बॉउंड्री में बॉस या सीमेंट या फ्लाई ऐश (कोयले की राख) के दो खम्बे लगाने होंगे | उनके बीच में नारियल की रस्सी से बुनाई करनी होगी | जैसी सीमा पर की जाती है | चारो किनारो पर कुल चार खम्बे खड़े करने होंगे | कुछ कुछ चारपाई बुनने जैसा है ये | किसी जानवर में इतनी ताक़त तो नहीं होनी चाहिए कि वो मज़बूत रस्सियों और मज़बूत खम्बो की बाड़ को तोड़ सके | एक छोटे खेत पर शायद 4-8 चारपाई का खर्च आएगा | किसी जानवर की जान बचाने के लिए इससे अच्छा और सस्ता उपाए और क्या हो सकता है | कम से कम नीलगाय को मारने के लिए शूटर को नौकरी पर रखने से तो सस्ता पड़ेगा | हाँ , बीच में दरवाज़ा लगाना ना भूले | ऐसा दरवाज़ा , जिसे मुर्ख जानवर खोलना न सीख पाए |
इस बाड़ का एक और फायदा हो सकता है | जब बेमौसम बारिश में ओले पड़ने से फसल ख़राब होने का खतरा हो तो इस बाड़ पर तिरपाल/चादर ढककर फसल को बचाया जा सकता है | किसान अगर ट्रेक्टर , थ्रेशर आदि मशीने खरीद सकता है तो पुरानी चादरों को सिल कर तिरपाल क्यों नहीं बना सकता ? यदि फिर भी आर्थिक हालत ख़राब हो तो सरकार से क़र्ज़ लिया जा सकता है |
अब आप कहेंगे कि किसान को सपने आ रहे हैं कि कब बारिश होगी , ओले पड़ेंगे ? तो हर किसान को मौसम का एप अपने मोबाइल में डालना चाहिए | अक्सर सटीक भविष्यवाणी ही होती है | अगर मोबाइल नहीं है तो सरपंच के मोबाइल में डालना चाहिए , जो पूरे गांव को सतर्क कर दे |
हालाँकि मैं सुझाव देने से पहले सतर्क कर दूँ कि ओले जानलेवा भी हो सकते हैं | इसलिए ओले आने के बाद तिरपाल लगाने ना जाएं | हो सके तो एक दिन पहले ही यह कर लें | साथ ही चादर मज़बूत हो और मज़बूती से बांधी जाए | भूसे का गणितजिस कंबाइन हार्वेस्टर मशीन कि बात आप कर रहे हैं उसे हरियाणा के कुछ स्थानीय लोग ‘हडम्पा’ कहते हैं | सही है कि ये मशीन तूड़े को नीचे ही छोड़ देती है | लेकिन खेतों में आग लगाना तो वैसे भी गैर कानूनी है | आप क्यों किसानो की ऐसी हरकत का समर्थन कर रहे हैं जो गैर कानूनी है , प्रकृति के लिए नुकसानदेह है और आर्थिक दृष्टि से भी मूर्खता भरा कदम है |
आपने खुद बताया कि भूसा दस रूपए किलो के भाव से बिकता है | मेरी ख्याल में गेहूं बीस रूपए किलो के भाव बिकता होगा | तो जो चीज़ आधी कीमत पर बिक जाती है , किसान उसे जला कर अपना नुकसान क्यों करते हैं ? थोड़ी सी एक्स्ट्रा मेहनत करके अपने मुनाफे को डेढ़ गुना या दुगना क्यों नहीं कर लेते ? मेरे ख्याल . भूसा तो गेंहू से लगभग दुगना ही होता होगा न खेत में ?
आपने कहा कि भूसे की कटाई , प्रोसेसिंग पर अलग से छह से दस रूपए प्रतिकिलो खर्च आएगा | इसका मतलब गेंहू पर भी इतना ही खर्च आया होगा ? और गेंहू की बुवाई में अलग से खर्चा और मेहनत लगी होगी ? तो किसान की बचत भी ना के बराबर रही होगी ? फिर भी किसान गेंहू बोना नहीं छोड़ता | तो भूसे की कटाई भी करा ही ले | क्या पता प्रतिकिलो एक रूपए का फायदा ही हो जाये ?
साबुन की जो टिकिया बाजार में दस रूपए में बिकती है , उसपर कंपनी कितना कमा लेती होगी ? आधा या एक रुपया , ज्यादा से ज्यादा | फिर भी कंपनी लाखो – करोड़ो कमाती है | ज्यादा सेल की वजह से |तो सोचिये , अगर किसान के एक खेत में एक क्विंटल भूसा निकल आये तो वो एक रूपए के हिसाब से भी हज़ार रूपए कमा लेगा | और चार रूपए के हिसाब से चार हज़ार रूपए | अगर अच्छी उपज हो तो एक खेत में चार क्विंटल अनाज होता है और कम से कम उतना ही तूड़ा | तो इस हिसाब से किसान का मुनाफा बैठा सोलह हज़ार रूपए | अगर एक किसान के पास करीब पांच हेक्टेयर के खेत हो तो तूड़े से मुनाफा बैठा अस्सी हज़ार रूपए | तो बताइए , एक किसान अपने अस्सी हज़ार रुपयों को क्यों आग लगा देता है ?
गोबर गैस संयंत्र
आपने पुछा कि आप गोबर गैस संयंत्र लगा कर बुद्धिमानी का परिचय देंगे ?
आपका तो पता नहीं , लेकिन हर गांव में (संयुक्त रूप से) ऐसा एक संयंत्र ज़रूर होना चाहिए | आज नहीं तो कल , लगाना ही पड़ेगा | गोबर एक संसाधन है | उसको बर्बाद नहीं किया जाना चाहिए | मैं खुद, शहरी सीवर के निपटारे के लिए बायोगैस प्लांट के उपयोग के बारे में सोच रही थी | लेकिन शहरी सीवर के कचरे में डिटर्जेंट , फिनाइल , एसिड और हार्पिक जैसे केमिकल हो सकते हैं | सड़ चुके सीवर कचरे को सीधे खेतों में डालना उपयुक्त नहीं होगा | इससे ज़मीन बंजर हो सकती है | बस इसी वजह से शहरी सीवर पर गोबरगैस प्लांट के उपयोग में अड़चन दिखाई देती है |
आपकी समस्याओं के हल इस प्रकार हैं :-
1. गांव में एक संयुक्त गोबर गैस प्लांट लगाया जाए , जिसका सञ्चालन पंचायत कि देख रेख में हो | हर किसान से बराबर राशि ली जा सकती है | अगर एक गांव में हज़ार किसान हैं तो हर किसान को दो सौ रूपए देने होंगे |
2. अगर सरकारी खर्चे पर सरकारी प्लांट लग जाए , जिसका सञ्चालन सरकार करे तो इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता | किसान को उसके लाये गोबर की कीमत दे दी जाए , बस | जो मुनाफा हो , वो सरकार रखे |
3. सड़ चुके गोबर को निकलने के लिए बूस्टर पम्पिंग मशीन की सहायता ली जा सकती है | गोबर डालने के लिए तो बाकायदा गढ्ढा बनाया जाता है जिसमे पानी के सहारे गोबर को नीचे धकेला जाता है |
4. गोबर गैस का व्यावसायिक उपयोग अभी भले ही ना हो, पर आने वाले वक़्त में ज़रूर होगा | क्या पता मेरे जैसा कोई वैज्ञानिक गोबर गैस से गाड़ी चलाने के बारे में सोच रहा हो | आपसे गुज़ारिश है, कृपया मेरे आईडिया को कहीं बेच ना आईयेगा | ऊर्जा है , तो उपयोग की कमी नहीं |
5. आपने संयंत्र से निकलने वाली खाद की तो बात ही नहीं की | क्या उस खाद की वजह से हम केमिकल खाद के दुष्परिणामों से बच नहीं जायेंगे ? और केमिकल खाद के पैसे भी बचेंगे |
6. गौमूत्र को भी बायोगैस संयंत्र में ही डालना चाहिए | बल्कि अभी गांवों में सीवर नहीं हैं | तो एडवांस सीवर लगाए जा सकते हैं | घरो में शौचालय इस्तेमाल करने के बाद, लोग केवल पानी से ही फ्लश करें | इस प्रकार सारा सीवर का कचरा सीधा बायोगैस प्लांट तक पहुंचा दिया जाए | अब जिस दिन लोगो को शौचालय की हार्पिक आदि से सफाई करनी हो , उस दिन एक बटन दबा कर सीवर के वाल्व को बंद कर दिया जाए (जो बायोगैस प्लांट तक जाता है) और दूसरा वाल्व खोल दिया जाए (जो दूसरी नाली में जा रहा हो) | लेकिन इसमें समस्या ये है कि हमारे देश में लोग इतने जिम्मेदार कहाँ जो वे एक बटन दबा कर भी पर्यावरण को बचाने की सोचें | शहरो में सरकार कह कह कर थक गयी कि सूखे और गीले खचरे को अलग रखिये , पर किसी ने माना ? औरों की तो छोड़िये , लेकिन सो कॉल्ड जिम्मेदार नागरिकों ने भी माना ? मासांहार
मांसाहार पर प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तिगत राय हो सकती है | मैं आपकी बात से सहमत हूँ कि मांसाहार या शाकाहार का फैसला लोगो पर छोड़ देना चाहिए | सरकार जितना इस मुद्दे को उछालेगी, उतने ही ज्यादा हालात बिगड़ेंगे | लेकिन जिन लोगो में दया भावना है , वे लोग किसी भी पशु को कटते नहीं देख सकते | चाहे वो मुर्गी हो, बकरा हो, मछली हो या गाय या भैंस | इसलिए, वे मांसाहार का विरोध करते हैं | हाँ कुछ लोग राजनितिक/धार्मिक कारणों से भी ऐसा करते हैं |मांसाहार का वैज्ञानिक पहलु ये है कि अनाज के पौधों की हत्या की तुलना में जानवरो की हत्या ज्यादा कष्टप्रद है | जानवरो (इंसान समेत) के सेल पर सेल वाल नहीं होती | सिर्फ बाल और नाख़ून के सेल पर होती है | इसलिए बाल या नाखून काटते वक़्त दर्द नहीं होता | लेकिन दूसरे अंगों पर चोट लगने पर दर्द होता है | क्यूंकि जानवरो के शरीर में ब्लड सर्कुलेशन सिस्टम और नर्वस सिस्टम होता है | और दिमाग भी होता है | नर्वस सिस्टम का काम यही है कि शरीर के किसी संवेदनशील हिस्से (जैसे त्वचा) को यदि कुछ चोट पहुंचाने लायक वस्तु छूती है तो नर्वस सिस्टम दिमाग को सिग्नल भेज देता है | दिमाग तुरंत उसपर एक्शन लेता है कि अपना बचाव कैसे किया जाए | इसलिए जानवर तड़प तड़प कर मरता है |
पौधों के सेल पर सेल वाल रहती है | और उनमे खून , ब्लड सर्कुलेशन सिस्टम , नर्वस सिस्टम और दिमाग नहीं होता , इसलिए उन्हें काटने पर दर्द भी नहीं होता |मेरे जैसे शाकाहारियों का यही तर्क है कि अपने स्वाद के लिए मैं किसी जीव को तड़पा तड़पा कर क्यों मारुं ? अगर इंसानो की हत्या अपराध है तो जानवरो की हत्या क्यों नहीं? उन्हें भी तो उतना ही कष्ट होता है जितना इंसानो को | हालाँकि किसी दूसरे से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह शाकाहारी है या मांसाहारी | सबके अपने अपने कर्म हैं | सबकी अपनी अपनी चॉइस है |
‘मांसाहार के डिमांड और सप्लाई वाले’ और ‘गायों, बैलो और बछड़ो के दूध ना देने की वजह से क़त्ल वाले’ आपके तर्कों के बारे में मेरा यह सवाल है कि दूध तो कुत्ते, बिल्ली और चूहे भी नहीं देते (मतलब इतना नहीं देते कि इंसान पी सके, हालाँकि ये सब स्तनधारी जीव हैं), तो इनका मांस क्यों नहीं खाया जाता ? इंसान के शरीर में भरपूर गोश्त है , तो इंसान इंसान को क्यों नहीं खाता ? वैसे भी इंसानो की जनसँख्या से इकोसिस्टम गड़बड़ाया हुआ है | बंगाल और पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था
हमे अगर बंगाल और पाकिस्तान से प्रतिस्पर्धा करनी ही है तो देश के विकास में करनी चाहिए , नाकि बेजुबान पशुओं की हत्या में | आर्थिक फायदे के लिए क्या हम पशुहत्या का कोई विकल्प नहीं खोज सकते ? इंसानो को जीने का अधिकार है , पशुओं को नहीं ?
जहाँ तक , सीमा पर पशु तस्करी का सवाल है , तो फिलहाल , पशु तस्करी (एक्सपोर्ट) रोकने से ज्यादा आतंकवादियों की (इम्पोर्ट) तस्करी रोकना ज्यादा अहम् है |
ब बात आपके इस लेख के सन्दर्भ में कर ली जाए :-
http://khabarkikhabar.com/a…
आपकी सारी चिंता , देश में भ्र्ष्टाचार , आर्थिक हालात , संसाधनों की कमी को लेकर दिखती है | आपने मेरी किसी मांग को अनुचित नहीं ठहराया है | बस आपको मेरी मांगे आर्थिक दृष्टि से व्यावहारिक नहीं लगी | आपको गौसेवा को लेकर कोई उम्मीद भी नहीं दिखती | आपकी सारी बाते जायज़ हैं | उम्मीद मुझे भी कम ही है, और भ्रष्टाचार से मैं भी इंकार नहीं कर रही | देश की अर्थव्यवस्था भी पटरी पर नहीं है |
लेकिन ये सभी पक्ष केवल तभी क्यों विचारे जा रहे हैं जब गायों की चर्चा हो रही है ? जब हज़ारो किलोमीटर लम्बी सड़क, रेल पटरी बनती है तब भ्रष्टाचार और पर्यावरण के हवाले से ये क्यों नहीं कहा जाता कि यह feasible / व्यावहारिक नहीं है ? हमारे खेतों, जंगलों को सड़के, रेल पटरियां खा जाती है | सड़क बनाने में तारपीन का इस्तेमाल होता है, रेल पटरी में ना जाने कितना लोहा लगा है | फिर भी सड़के बनती हैं , रेल पटरियां बिछती हैं | कितने areas में mass स्तर पर सरकार काम कर रही है | सब कुछ achieve कर रही है | केवल गौरक्षा में ही फेल हो जाएगी ? क्यूंकि गौरक्षा उसके बस की नहीं | हैना गायों के प्रति मार्मिकता
यह आपका नहीं, बल्कि वामपंथियों का तर्क है कि आखिर हम गाय को माता क्यों माने ? वह महज़ एक जानवर है | व्यावहारिक लोग भी गाय को एक व्यावसायिक साधन मानते हैं |पहली और सबसे महत्वपूर्ण बात | हम इंसान लोग , गाय या भैंस या बकरी के बछड़े के हिस्से का दूध , इन जानवरो से छीन कर पी जाते हैं | हम मुर्गा आदि जानवरो का व्यावसायिक उपयोग करते हैं | हमे किसने यह हक़ दिया कि हम इन जानवरों को मारे ? इनके बच्चो के हिस्से का दूध छीन कर पी जाएँ ?
बेदर्दी से इनको मारना , दूध के लिए इंजेक्शन लगाना , आदि , इन जीवों के साथ जानवरो जैसा सलूक तो हम इंसान करते हैं | और जानवर इनको बुलाते हैं |
अगर हम बूढ़े जानवरों को पाल नहीं सकते , तो हमे इनका मांस भी नहीं खाना चाहिए , इनका दूध भी नहीं पीना चाहिए | क्या इंसानो को सिर्फ छीनना आता है ? बदले में कुछ देना नहीं ? वाह रे इंसान , तेरी इंसानियत |जब ये जीव , हमारी ज़िन्दगियों में दखल नहीं देते , तब हम भी इन्हे बख्श क्यों नहीं देते ?प्कर्ति का नियम है , इकोसिस्टम के लिए ज़रूरी है , तब भी , थोड़ा तो रहम रखिये |
लेख की लेखिका शुजूको नाम से लिखती हे !
शुजुका जी अच्छी चिंतक है, इस साइट पर अगर सक्रिय हुई तो बाकी पाठकों को भी अच्छी चर्चा का आनंद मिलेगा.
rakesh Gautam हे भोले बकरों।
तुम इन झूठे, लंपट पशुप्रेमियों की बातों में मत आना,
जीवन एक संग्राम है, मुक्ति ही समाधान है,
तुम्हारी इज़्ज़त ही इस वजह से है की तुम कटते हो,
जिस दिन इन झूठे पशु प्रेमियों की बातों में आकर तुमने कटना बन्द किया,
उसी दिन तुम आवारा हो जाओगे और चारे की जगह पॉलीथिन, कूड़ा करकट और यहां तक के लठ खाने पड़ेंगे।
ये सारे पशुप्रेमी शहरी पपलू हैं, ये फिर तुम्हे आवारा पशु कह कर अपने शहरों से दूर हमारे गांवो में धकेल देंगे,
अपने urban estate में ये तुम्हारी छांव तक नही पड़ने देंगे, फर
देखो भाई बकरों, हमारे गांवो में इनकी माता और पिता गाएं ने ही तबाही मचा रखी है, उस के साथ हर रोज़ हमारा संग्राम होता है, लठपुजारी होती है,
तुम बेचारे तो एक लठ भी सहन नही कर पाओगे, इनकी माताएं और पिता तो फिर भी 8-10 लठ सहन कर लेते है।
इन लंपट के माता पिता तक आवारा तो मेरे भाई बकरों हमारे गांवो से बहुत अच्छा है तुम्हारा बाड़ा,
हमारे गांवो में मत आना भाई लोगो,
तुम ईद पर यूँ ही कटते रहना, लोगो को यूं ही जन्नत का रास्ता दिखाते रहना,
मत आना भाई बकरों इन झूठो की बातों में। rakesh Gautam ———————————————————————-Sanjay Shraman Jothe30 August at 09:45 ·क्या देशप्रेम का ठेका आयुर्वेद और प्राणायाम ने ही ले रखा है? क्या सिर्फ शाकाहारी ही देशप्रेम के गीत गा सकते है? शिलाजीत, और कपालभाति में जितना देशप्रेम उभरता है उतना ही देसी चिकन करी और बिरयानी से क्यों नहीं उभर सकता?
दलितों आदिवासियों के अपने रोजगार हैं। चिकन, बकरा बकरी, सब्जी भाजी, दूध इत्यादि कई रोजगार हैं। इन सबसे देश की असली सेवा होती है।
भाई कुलदीप के पोल्ट्री फार्म से चिकन खरीदिये और उससे स्वदेशी पकवान बनाइये। पिज्जा बर्गर फ्रेंच फ्राइज जैसे विदेशी पकवानों का मोह छोडकर देसी पकवान बनाइये और अमूल्य भारतीय मुद्रा को विदेश जाने से बचाइये।
देशप्रेम दर्शाने का हर भारतीय का अपना तरीका और अधिकार है। हर जाति वर्ण और समुदाय अपने ढंग से देशप्रेम की घोषणा करें। किसी एक रंग के देशप्रेम का कोई परमानेंट ठेका नहीं है।
अपना अपना देशप्रेम अपनी भाषा मे व्यक्त कीजिये और धूर्तों की देशप्रेम की मोनोपाली को टक्कर दीजिये।Sanjay Shraman Jothe—————-kuldeep Pahad added 2 new photos — feeling जन्मदिन स्पेशल with Munesh Bhumarkar and 9 others.
30 August at 09:37 ·
#स्वदेशी_पकवान_खाइए, #विदेशी_लूट_से_छुटकारा_पाइए
मैकडोनाल्ड और KFC जैसीे विदेशी कम्पनियों के विदेशी पकवान जैसे बर्गर, पिज़्ज़ा, फ्रेंच फ्राई और चिकन खाकर आप देश की अमूल्य मुद्रा विदेशों में भेज रहे हैं।
आप हमारे अपने स्वदेशी चिकन और स्वदेशी चिकन करी, टिक्का, बिरयानी, तंदूरी चिकन जैसे लजीज भारतीय पकवान खाइये।
भारत की अर्थव्यवस्था एवं भारतवासियो को मजबूत कीजिये।
हमारे जय भारत पोल्ट्री पर स्वदेशी चिकन और बाबा फेमिली रेस्टोरेंट & ढाबे पर स्वदेशी पकवान ऑर्डर कीजिये और देशभक्ति – देशप्रेम का परिचय दीजिये।
देश को विदेशी लूट से बचाइए।
भारत माता की जय
जय भीम जय भारत
आपका अपना साथी
कुलदीप पहाड़
8982291148-more comments
Kuldeep Pahad
Kuldeep Pahad क्या सिर्फ शाकाहार ही देश प्रेम का प्रतिक है जबकि जिस समय यह भारत देश सोने की चिड़िया हुआ करता था उस समय चमड़े का व्यापार सबसे बड़ा काम था इस देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का।
और आज भी मांशाहार एक बड़ी इकाई है देश को मजबूत अर्थ नीति देने के लिएudhir Meshram कंहा है भाई ये ढाबा
See translation
Like · 2 · 31 August at 16:26
Manage
Kuldeep Pahad
Kuldeep Pahad मध्यप्रदेश के बैतूल जिले में भोपाल नागपुर हाइवे 47 पर ससुन्द्रा चेकपोस्ट के पास
https://www.youtube.com/watch?v=K7qQf9E-rkQ
Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
15 September at 09:55 · Dehra Dun ·
देहरादून से लखनऊ की फ्लाइट में सवारी सीट पर कुत्ता ले जाने की ज़िद पर अड़े यात्री को समझदार पायलट ने उतार दिया , तो कुत्ता पति ने तूफान खड़ा कर दिया । दर असल जहाज़ में कुत्ता ले जाने की छूट देने का नियम अंग्रेजों ने बनाया था , जिनकी मेमें काले भारतीयों से घृणा करती थीं , जबकि काले कुत्ते स——————– मैं बार बार कहता हूं कि कुत्ता रखने का अधिकार सिर्फ किसान , चरवाहे , बागवान , ग्रामीण , व्याध और घमन्तु मनुष्य को है , जिनके लिए कुत्ता उपयोगी है । इसके सिवा शहरों में स्टेटस और शौक़ के लिए कुत्ता रखने वाले अव्वल दर्जे के घामड़ हैं । जिसके घर मे कुत्ता होता है , में कभी दुबारा उसके घर नहीं जाता । उसका कुत्ता कभी मुझ पर भौंक कर मुझे अपमानित करता है , तो कभी नाश्ते के वक़्त अपनी थूथनी से मेरी देह सूंघने लगता है । कुत्ता स्वामी सुबह सुबह दूसरों के गेट पर कुत्ते से टट्टी करवाता है । नौकर को पूरी पगार नहीं देता , जबकि कुत्ता को मंहगे बिस्कुट खिलाता ।
शहरों में कुत्ता रखने पर पाबंदी लगे । तमाम शहरी कुत्तों को पकड़ उत्तराखण्ड के बनों में छोड़ दिया जाए , जहां शिकार के अभाव में बाघ बस्तियों में आ रहे हैं । शहर में कुत्ता रखने वालों का बायकाट कीजिये । उन्हें बताइये कि कुत्ता रहने से उनकी शान नहीं बढ़ रही , बल्कि वह असामाजिक सिद्ध हो रहे हैं । एक बार में एक परिचित के लॉन में बैठ चाय पी रहा था , कि छोटा खरगोश कुत्ता उछल कर मेरी गोद मे आ बैठा । मैंने उस पर गर्म चाय उंडेली तो किकिया कर भागा । मैने पूछा – क्यों रखा तूने यह बदतमीज़ कुत्ता ? तो उसकी बेटी मुझ पर गुस्सा हुई कि इसने हमारे हनी को कुत्ता बोला ।
में सम्बंधित पायलट को बधाई देता हूँ । चलते जहाज़ में कुत्ता अपनी पर आकर किसी को काट सकता था , अथवा उपद्रव कर सकता था ।Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
15 September at 21:04 · Dehra Dun ·
कुत्ता कलंक कथा -2
—————
मेरी शहरी कुत्ता विरोधी पिछली पोस्ट पर कई अजब तर्क आये हैं । पहले स्पष्ट कर दूं कि मैं नगर – पुरी में कुत्ता पाले जाने का विरोधी हूँ , ग्राम्य तथा वन प्रान्तर में नहीं ।
एक ने कहा है – कुत्ता से अधिक स्वामी भक्त तथा वफादार कोई नहीं । ” बराबर है , लेकिन कई मनुष्य भी अपने स्वामी के प्रति इतने वफादार तथा भक्ति से ओतप्रोत होते हैं , कि स्वामी के इंगित पर अन्य मनुष्यों को मार डालते हैं , अथवा मरवा देते हैं । यह कुत्ता नुमा स्वामी भक्ति अंततः मनुष्य विरोधी है ।
दूसरे ने जीव दया एवं पशु प्रेम का हवाला दिया है । अगर आप सचमुच पशु प्रेमी हैं , तो घर मे अपने बंगले या फ्लेट में बकरी पालिये । कुत्ते जितनी ही जगह घेरेगी । दूध देगी । बकरी की मेग्नी सर्व श्रेष्ठ जैविक खाद है । किसी को काटेगी नहीं । कुत्ते से कम खर्च में पलेगी । भौंक कर भय तथा आतंक नहीं फैलाएगी , तथा सोते वक्त मालकिन की रजाई में भी नहीं घुसेगी ।
किसान , चरवाहे , बागवान अथवा आखेटक का कुत्ता एक श्रम जीवी प्राणी है , जबकि शहरी कुत्ता टुकड़खोर है । इसी लिए दुम हिलाता है , तथा तलवे चाटता है । शहरों में जानवरों की डॉक्टरी पढ़ कर आये जन भी गाय , बकरी , भैंस आदि उपयोगी मवेशियों की बजाय कुत्ते के इलाज में रुचि लेते हैं , क्योंकि उसमें फीस भारी मिलती है ।एक का तर्क है कि गांधी भी पानी के जहाज में अपनी बकरी को विलायत ले गए थे । अवश्य ले गए थे । लेकिन गांधी अपनी बकरी का दूध पीते थे , तथा उनकी बकरी किसी को काटती नहीं थी । क्या आप भी अपने कुत्ते का दूध पीते हैं ?
निदान यह कि शहर में कुत्ता पालन अन्न और धन की निर्मम बर्बादी है , अतः शहरों में कुत्ता पालन पर सख्ती से रोक लगे । कुत्ता पति की काउंसलिंग की जाए । कुछ दिन सदमे से उबारने के लिए उन्हें प्लास्टिक अथवा रबर का कृत्रिम कुत्ता दिया जाए ।Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
Yesterday at 09:53 · Dehra Dun ·
उत्तराखण्ड में हज़ारों सरकारी स्कूलों को बंद कर , शिशु मंदिरों को बढ़ावा देने की योजना भारी अपशकुन है । राज्य के पहाड़ी इलाक़ों में कुछ समय से गुटखा और शिशु मंदिर दूरस्थ गांवों तक पँहुच चुके हैं । ये दोनों कैंसर की जड़ हैं । एक से मुंह का कैंसर होता है , तो दूसरे से साम्प्रदायिकता का । अबोध बच्चों को संघ जैसी भयावह विचारधारा की ज़हरीली घुट्टी पिलाना अमानवीय है । जिस तरह 18 साल से कम उम्र के बच्चों को नशीले पदार्थ अथवा तम्बाकू बेचने पर रोक होती है , उसी तरह वयस्क होने से पहले उन्हें संघ परिवार , जैशे मुहम्मद , आईएस , तालिबान अथवा बब्बर खालसा जैसे हिंसक आतंक वादी संगठनों में भेजे जाने पर उनके अभिभावकों के विरुद्ध कार्रवाई हो । संघ पोषित ज़हरीली शिक्षा की बजाय बच्चों का अपढ़ रहना अधिक श्रेयष्कर है । शांत पहाड़ों में इस तरह की गतिविधि राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से भी खतरनाक है ।Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
13 hrs · Dehra Dun ·
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मंदिर सम्बन्धी मेरी विगत पोस्ट पर संघ प्रिय मित्रों ने भारी क्रंदन और कोलाहल किया है । कृपया आप लोग दिल पर न लें । आपका दिल नहीं दुखाना चाहता । ….मैं बात को कुछ बढा चढ़ा कर कहने का आदी हूँ । लम्बे समय तक अखबार में क्राइम रिपोर्टर रहा , और कुछ वक्त चैनल का स्ट्रिंगर भी रहा , अतः मुझसे बात का बतंगड़ स्वतः ही बन जाता है । आपकी आश्वस्ति के लिए मैं श्री संघ प्रिय गौतम को श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ , जो संघी होते हुए भी सफेद नेहरू कैप पहनते थे , और दलित होकर भी जनरल सीट से चुनाव जीते थे । अन्यथा बाबा साहेब अंबेडकर या बाबू जगजीवन राम भी जनरल सीट से लड़ने का साहस न जुटा पाए ।
दूसरी बात यह कि गौतम बुद्ध के काल मे भी संघ का अस्तित्व प्रतीत होता है । सम्राट अशोक की पुत्री का संघ मित्रा नाम इसका सबूत है । साथ ही बुद्ध भगवान अपने युग्म को संघ ही कहते थे ।
लोकापवाद पर श्री कृष्ण ने भी मथुरा का युद्ध छोड़ दिया , और रणछोड़ कहलाये । लेकिन मेरे लिए यू टर्न लेना समीचीन नहीं है । अतः अपनी मिनिमम डिमांड पर आता हूँ । 1:- शिशु मंदिर आचार्यों को यथेष्ठ वेतन मिले , ताकि उन्हें रात्रि भोजन हेतु दर दर न भटकना पड़े । 2:- राजनैतिक अथवा धार्मिक संगठनों द्वारा संचालित स्कूल , मदरसा इत्यादि की नियमित एवं निष्पक्ष जांच हो कि कहीं वह शिक्षण से इतर अन्य एजेंडा तो बच्चों पर लागू नहीं कर रहे ? 3:- चुनाव के वक़्त आचार्यों से दर दर वोटों की भीख न मंगवाई जाए ।
साथ ही यह कि चाहे रामदेव कि दवा से अमृत सदृश फायदा होता हो , पर मैं कभी उसकी दवा नहीं ले सकता , क्योंकि उसका उद्देश्य कलुषित है । तथा यह भी कि हो सकता है संघ संचालित स्कूलों की शिक्षा सर्व श्रेष्ठ हो , लेकिन मैं अपने किसी पालित को उनमे पढ़ाने की सोच भी नहीं सकता , क्योंकि उनकी मूल अवधारणा में साम्प्रदायिकता निहित है ।
भारतीय मनीषा में सदियों पहले ही घोषित किया गया था – संघे शक्ति कलियुगे । यही उक्ति फलित होती प्रतीत हो रही है । अस्तु , बी कूल & कॉम ।Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
4 hrs · Dehra Dun ·
पूरा शहर बंधक बना लिया गया । रास्तों के रुख मोड़ दिए । भद्दे झंडों और बैनर पोस्टर से पुर का हुलिया बिगाड़ दिया । क्या यही है vip कल्चर की समाप्ति ?——————————-Vishnu Nagar
7 hrs ·
गुजरात से भाजपा के लिए बुरी खबर,जहाँ जल्दी ही विधानसभा चुनाव होनेवाले हैं।
गिरिराज किशोर की पोस्ट सेः
गुजरात में नहीं चली मोदी लहर, भाजपा की हुई ऐसी हार ..
By openkhabar – September 18, 2017
अहमदाबाद। लगभग 2 दशकों से गुजरात की सत्ता पर काबिज बीजेपी को ग्रामीण इलाकों में भारी नुक्सान उठाना पड़ा है। यहाँ पर पंचायती चुनावों में कांग्रेस ने बीजेपी को जबरदस्त झटका दिया है। कांग्रेस ने बीजेपी की 31 में से 21 जिला पंचायतों पर अपना कब्जा कर लिया है।
इसके साथ ही बीजेपी के पास अब सिर्फ 6 पंचायतों पर ही सत्ता रह गयी है। बात दें कि 2010 में सिर्फ 2 जिला पंचायत थीं। लेकिन कांग्रेस ने इस बार बड़ा छलांग लागते हुए 21 पंचायतों पर अपना कब्जा कर लिया है।जानकारी के मुताबिक गुजरात के तालुका पंचायतों में 4778 सीटें थीं, जिनमें कांग्रेस ने 2509 जीती है वहीँ बीजेपी ने 1981 जीती हैं।
वहीँ दूसरी तरफ बीजेपी ने शहरी इलाकों में अपना दम-ख़म दिखाया है यहाँ पर नगर निगम चुनावों में 6 नगर निगमों और 56 में से 40 नगर पालिकाओं पर कब्जा जरूर किया है, लेकिन इसमें भी कांग्रेस के लिए अच्छी खबर छिपी हुई है। कांग्रेस ने नगर निगमों में 2010 के चुनाव के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन किया है। 6 में से 5 नगर निगमों में बीजेपी की सीटों की संख्या घटी है।
इन चुनावों में बीजेपी की इस तरह से हार सरकार के लिए बेहद शर्मनाक बतायी जा रही है मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल के गांव खरोड़ और उनके तालुका पंचायत बहुचराजी में भी हार का सामना करना पड़ा है। बीजेपी के लिए राहत की बात बस शहरी इलाकों से आई है, जहां 56 नगर पालिकाओं में से उसने 40 पर कब्जा किया है, जबकि कांग्रेस को 9 सीटें मिलीं।
चुनावी नतीजों पर नज़र डालने पर कुछ और चौंकाने वाले तथ्य सामने आ रहे हैं। विधानसभा सीटों के लिहाज से इन नतीजों को देखा जाए तो 182 विधानसभा क्षेत्रों में से 90 पर कांग्रेस को बढ़त मिली है, जबकि बीजेपी 72 सीटों आगे रही है। फिलहाल बीजेपी के पास 116 सीटें हैं,
जबकि कांग्रेस के पास 60।गुजरात के स्थानीय निकाय चुनाव के नतीजे कांग्रेस के लिए खुशखबरी भले ले आए हों पर इसका श्रेय राज्य में हार्दिक पटेल की अगुआई में हुए पटेल आंदोलन को देना ज़्यादा उचित होगा। पटेल आंदोलन का ही असर है जिसके कारण ग्रामीण इलाकों के साथ ही बड़े शहरों में भी कांग्रेस ने पिछले बार के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन किया है।
See Vishnu Nagar
Yesterday at 09:33 ·
अगर आज की तारीख़ में कोई पूछे कि दुनिया की या चलिये सीमित करते हुए कहते हैं कि भारत की कौनसी युवती सबसे सुंदर है तो एक पिता की नज़र से मैं कहूँगा कि पी़ वी़ सिंधु।कई बार बता चुका हूँ मगर फिर दोहराता हूँ कि खेल में मेरी दिलचस्पी लगभग नहीं है और क्रिकेट तो मुझे क़तई पसंद नहीं लेकिन पी टी उषा को मैं आज तक नहीं भूल पाता और अब पी वी सिंधु को।सौंदर्य गोरे रंग में भी होता है मगर गोरा रंग ही जो देखते हैं ,मेरी नज़र में वे दुनिया के मूर्खतम लोगों में से हैं।सौंदर्य पूरे व्यक्तित्व में बसता है और वह किसी में भी हो सकता है।बच्चे चाहे कैसे हों, चाहे उनकी नाक बह रही हो ,चाहे कई दिनों से नहाये न हों, चाहे बच्ची के बाल अनसुलझे हो, फ़्रॉक यहाँ -वहाँ से फटी हो,कंधे पर मुश्किल से ठहर पा रही हो, वे अनिवार्य रूप से सुंदर लगते हैं,दुनिया का अनोखा तोहफ़ा हैं वे, जिनके बिना जीना शायद मुश्किल होता। यह अलग बात है कि जवानी बीतते -बीतते बल्कि उससे बहुत पहले भी उन्हीं में से अनेकानेक बच्चे (सभी नहीं वरना जीना व्यर्थ होता!)क्या से क्या बन जाते हैं, धूर्त ,चालाक, कमीने और अपना सौंदर्य खो देते हैं या शायद हमीं , हमारी दुनिया बहुतों को ऐसा बना देती है।जवान भी अपने स्वाभाविक यौवन के साथ ही दुनिया को अक्सर सुंदर बनाने का सपना लिये होते हैं तो सुंदर लगते हैं।उम्र धीरे धीरे बहुत बार हमें एक घटिया, पाखंडों , झूठा इन्सान बना देती है , इसलिए अपनी उम्र के मध्यवर्गीय और उससे ऊपर ते वर्ग के -ख़ासकर पुरुषों को देखकर-उनसे मिलकर कई बार बहुत निराशा होती है बल्कि स्त्रियाँ बूढ़ी होकर भी अपने स्वाभाविक-मानवीय सौंदर्य कई बार बचा ले जाती हैं।उनका सबसे बड़ी समस्या पुरुषों के साथ ही उनका पितृसत्तात्मक पालन पोषण ,जाति ,धर्म के कुसंसकार बन जाते हैं।
विषय से बहुत भटक गया मगर सिंधु का सौंदर्य उसके ग़ज़ब के धैर्य, उसके चेहरे की मुस्कान, घमंड से चूर न होकर जीत को सहज भाव से लेने में है।प्रतिद्व्दिता में सफल होने का दृढ़ संकल्प लेकर भी प्रतिद्वंदी के प्रति औदार्य है।उसका यह सौंदर्य हमेशा बना रहेगा , हालाँकि चूँकि सारे खेलों का ताल्लुक़ आपके शारीरिक क्षमता पर निर्भर करता है तो कोई भी जीवनभर खेलों के शिखर पर नहीं रह सकता।ख़तरा यही है कि विज्ञापन की दुनियावाले उसे ऐसा जकड़ सकते हैं कि सचिन की तरह पैसा ही उसका माईबाप बन सकता है।Vishnu Nagar
14 September at 07:42 ·
संघी अब हमें वामी कहते हैं,कहें ,हमें शर्म नहीं आती।संघियों को न जाने कब से तोते की तरह रटना सिखा दिया गया है कि वामियों को हिंदुओं की चिंता नहीं होती।हमें तो जो संघी हैं, उनकी भी चिंता होती है कि ज्ञान और संवेदना का इतना सुंदर इलाक़ा ख़ाली पड़ा है, वहाँ आकर खुली हवा नें साँस क्यों नहीं लेते,लें , तो ताज़ा हवा मिलेगी,जान में जान आएगी।संघ के लेखकों को पहले ध्यान से पढ लें,फिर विवेकानंद, महात्मा गाँधी,प्रेमचंद आदि आदि को भी पढ़ लें ,फिर जवाहर लाल नेहरू भी हिंदू ही थे, उन्हें भी पढ लें।भीष्म साहनी भी हिंदू ही थे, उन्हें भी पढ लें, वग़ैरह ।फिर कुछ और इच्छा भी अपनेआप होगी पढ़ने -देखने की, फिर किसी को बताना नहीं पड़ेगा।
संघियों की नज़र में कश्मीरी शरणार्थी ही हिंदू हैं तो भई घर किसी को भी स्वेच्छा से छोड़ना पड़े ,बुरा है।लेकिन अब सरकार आपकी है , आप रास्ता निकालिए कि वहाँ वे फिर जा सकें।हमें क्यों दोष देते हैं, अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कीजिये।और कश्मीर भारत का ही हिस्सा है, कुछ लोग उसे भारत का मुकुट भी कहते हैं तो वहाँ के जो छात्र पढ़ने या नौकरी करने यहाँ आते हैं,उनके साथ इनसानियत का व्यवहार कीजिए।फिर सरकारी अस्पतालों की दशा सुधारिये, वहाँ जो बच्चे ढेर के ढेर मर रहे हैं,उनमें ज्यादातर हिंदू ही हैं।अस्पतालों की दशा सुधारना भी एक तरह से हिंदुओं की दशा सुधारना है, जो आज प्राइवेट अस्पतालों की लूट के कारण बुरी तरह क़राह रहे हैं। हाँ उससे मुसलमानों का भी फ़ायदा हो जाएगा , जो कि भारतीय नागरिक ही हैं और किसी से भी कम अधिकार नहीं रखते। सरकारी स्कूलों की दशा सुधारना भी एक प्रकार से हिंदुओं की दशा सुधारना है।खेती -किसानी की बर्बादी रोकना भी इसी तरह हिंदुओं की दशा सुधारना है।जो भी काम सरकार देश की बहुसंख्यक आबादी के हित में करेगी, उससे सबसे ज़्यादा हिंदुओं का ही हित होगा।मनरेगा में न्यूनतम मजदूरी और सौ दिन काम मिलेगा तो यह भी हिंदू -सेवा होगी।अंबानी -अडानी सेवा हिंदू सेवा नहीं है। बहुत अयोध्या -अयोध्या करते हो, उसकी दशा सुधारना भी हिंदू -हित की बात करना होगा।अभी आसाराम और रामरहीम और भी बचे हैं,उन्हें भी बाहर करो।करोड़ों-अरबों की संपत्ति मंदिरों में सड़ रही है, उसे जनहित में लगाना भी हिंदुओं के हितों को साधना है।पाकिस्तान से जो हिंदू शरणार्थी आए हैं, जरा उनकी ख़बर ले लो।अपने हिंदुत्व को बाबरी मस्जिद-राम मंदिर से बाहर निकालो।और जो भारत हज़ारों सालों से तमाम जातियों -धर्मों के लोगों को पनाह देता रहा है,अपने को इस तरह सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक रूप से संपन्नतर बनाता रहा है, उस देश के लोगों के दिलों को इतना छोटा मत करो कि विष्णु नागर नामक एक मामूली कवि अगर बांग्लादेश में शरण लेने आए रोहिंग्या शरणार्थी बूढ़े -बच्चों की दशा पर सहज रूप से पिघल जाए तो हिंदू -मुसलमान कर दो,थोड़ी कृपा करो।करुणा के लिए न मेरे दरवाज़े बंद करो, न अपने
Mukesh Aseem
Yesterday at 16:26 ·
हमीरपुर, उप्र के दो गांवों – चिबौली और मगरौल – के किसानों में आवारा पशुओं (गायों?) को खदेड़ने के सवाल पर लट्ठबाजी-गोलीबारी हो गई, 12 अस्पताल पहुंच गए, 34 के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज हुई है, 8 गिरफ्तार हो चुके हैं|
इसमें कोई पक्ष मुसलमान होने की खबर नहीं है!
सोचोगे कि फासीवादियों की अंधता भरी गुंडागर्दी का शिकार सिर्फ मुसलमान या दलित ही होंगे, तो फिर से सोच लो!
तुम्हारे खेत ही नहीं कल तुम्हारे घर भी ये आवारा पशु रोंदेंगे; तुम्हें, तुम्हारे बच्चों-बुजुर्गों को भी कुचलेंगे! फिर खूब इनकी पूजा करना!
नहीं तो अभी पहले ही इन फासीवादी गिरोहों को दौड़ा लो!
——– और ———- के मांस की तरह लोगो को रामदेव के हर प्रोडक्ट से लोगो को दूर रहना चाहिए सेहत और सेकुलरिज्म दोनों के लिए ये आदमी खतरा हे Shambhunath Shukla
1 hr ·
बाबा रामदेव के कुछ प्रोडक्ट जैसे दन्तकान्ति, मधुनाशिनी बटी और शहद फेकना चाहता हूँ, क्योंकि इनसे कोई फायदा नहीं हुआ उलटे नुकसान हुआ है. जिस किसी को भी बाबा रामदेव और उनके प्रोडक्ट पर भक्ति हो और उन्हें यदि ये दवाएं चाहिए, तो वे इनबॉक्स में मेसेज कर दें. मैं उन्हें भिजवा दूंगा. मैं अब बैद्यनाथ का शहद और मृगांकशेखर बटी लाया हूँ. इसके अलावा लक्ष्मीविलास और त्रिभुवनकीर्ति रस भी. मुझे प्रतीत हुआ है कि ये दवाएं मेरे लिए कारगर हैं और बेहतर भी हैं. मुझे महसूस हुआ है कि जाड़े से निपटना है तो स्वर्ण और मोती भस्म से भरपूर मृगांकशेखर रस अवश्य लें.
Abhijeet
5 February at 22:31 ·
ज्यादा पीछे न भी जायें तो भी इस बात के प्रमाण मौजूद हैं कि भारत के स्वाधीनता आन्दोलन के समय से आज तक अलग-अलग वक्तों में और अलग-अलग मौकों पर मुस्लिम धर्मगुरुओं, शायरों, राजनेताओं और बादशाहों ने गौहत्या बंदी के खिलाफ आवाजें उठाई हैं और पूर्ण गौ-हत्या बंदी की बात कही है. बहादुर शाह जफ़र द्वारा गोहत्यारे के लिये मृत्युदंड का प्रावधान किया था ये बात तो सबको पता है पर इसके अलावे भी सर सैयद, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसे मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने गोहत्या बंदी की मांग का समर्थन किया था. जब देश में खिलाफत आन्दोलन का जहर फैला था तब अब्दुल बारी जैसे मुस्लिम विद्वान् ने कहा था कि मैं एक मौलवी होने की हैसियत से ये बात कह रहा हूँ कि इस्लाम में कहीं भी गौ-वध अनिवार्य नहीं है. उसी दौर में प्रख्यात शायर अकबर इलाहाबादी ने भी मुस्लिमों से गौ-हत्या की जिद छोड़ने को कहा.
अभी करीब एक दशक पूर्व दारूल-उलूम देवबंद ने तो बाकायदा ये फतवा दिया था कि इस्लाम में यूं तो बकरीद पे गोकशी मुबाह (ऑप्शनल) है पर चूँकि इससे हमारे हिन्दू भाइयों का दिल दुखता है लिहाजा हमें इससे परहेज करना चाहिये. आश्चर्य की बात ये है कि उनके इस फतवे का इस्लाम के लगभग सभी बड़े फिरकों ने समर्थन किया. जब देश में अखलाक का प्रकरण चल रहा था उस समय आज़म खान और बुखारी जैसे कट्टरपंथी नेताओं ने भी ये बात कही थी कि सरकार गोवध के विरुद्ध क़ानून बनाये तो हमें कोई आपत्ति नहीं है. जमीयत-उलेमा-ए-हिन्द के मौलाना असद मदनी तथा ऑल इंडिया जमीयतुल कुरैश के अध्यक्ष ने गोहत्या बंदी संबंधी एक प्रस्ताव भी केंद्र सरकार को भेजा था जिसे तत्कालीन सरकार ने ठंडे बस्ते में डाल दिया था. इसी दौरान मुस्लिम राष्ट्रीय मंच ने गोवध के विरोध में मुस्लिम समाज के बीच अभियान चला कर साढ़े दस लाख हस्ताक्षर जमा किये और उसे केंद्र-सरकार और राष्ट्रपति को सौंपा. लखनऊ से निकलने वाले एक साप्ताहिक अखबार दास्ताने-अवध के संपादक अब्दुल वहीद भी अपने अखबार से माध्यम से गोवध के खिलाफ अपने समाज को लगातार जगा रहें हैं.
बाबा हाशमी मियां और उत्तराखंड के पूर्व राज्यपाल अज़ीज़ कुरैशी की भी गो-संरक्षण में बेहद दिलचस्पी है, ये दोनों वो लोग हैं जो गौ-रक्षा के लिये हर मंच से अपनी आवाज़ बुलंद करतें रहतें हैं.
अभी जब देश में अखलाक़ का मामला उठा था तब भी बुखारी से लेकर ओवैसी और आज़म खान तक ने कहा था कि ये लोग (भाजपा) गोरक्षा पर कानून लायें हमें उससे कोई दिक्कत नहीं है. Faiz Khan नाम के एक युवा तो गौरक्षा के लिये जनजागरण करते हुये लद्दाख से कन्याकुमारी तक पदयात्रा कर रहें हैं और उन्हें मुस्लिम समाज से भी समर्थन मिल रहा है.
यानि कुल मिलाकर मामला ये है कि देश का लगभग सारा मुस्लिम समाज गौ-वध के खिलाफ बनने वाले किसी भी कठोर कानून के खिलाफ़ नहीं है और ये बात आज पावरफुल हो चुके कथित गो-पुत्रों को भी पता है.
जब ये बात उन्हें पता है इसके बाबजूद गोहत्या के खिलाफ कोई कठोर कानून नहीं बनाना क्या ये साबित नहीं करता कि गौ-संरक्षण में इनकी कोई दिलचस्पी ही नहीं है? इनको गौ-माता के कटने से कोई पीड़ा ही नहीं होती? इनके लिये गौ-रक्षा का विषय भी राम-मंदिर और 370 की तरह कभी न खत्म होने वाले चुनावी चोंचलें हैं? या फिर बिषय ये है कि इनका कथित “विकासोन्मुखी अर्थव्यवस्था” गऊ-माता के मांस निर्यात पर अवलंबित है ? या फिर इनका कोई अपना कहीं अल-कबीर गौ-वधशाला वगैरह में लाभार्थी है? कल जब डॉक्टर स्वामी राज्यसभा में इस मसले पर बिल लेकर आये तो सबके सब अपने बिल में दुबक गये और इनका कोई भी प्रवक्ता इस पर कुछ नहीं बोला मानो राममंदिर की तरह गाय के मसले पर भी इनको सांप सूंघ जाता है.
सवाल कई हैं, जबाब एक भी नहीं. गोहत्या बंदी कानून नहीं ला सकते तो माफी मांग लीजिये देश से पर भगवान के लिये कानूनी बाध्यता या राज्यसभा में बहुमत के बहाने न बनाइये क्योंकि हमें पता है जब राज्यसभा में भी आप बहुमत में आ जाओगे तब आप लोकसभा में दो-तिहाई बहुमत पाने के बाद कानून बनाने की बात करोगे या फिर आपके पास कुछ और बहाने होंगें जिसके लिये आप मशहूर हैं.
आपके आने के बाद आपके’ ही कुछ लोग कहा करते थे कि “गाय तो चौदह सौ साल से कट रही है तो दो-तीन साल और सही. ठीक है, हमने पिछले चार साल अपनी गऊ माता का क्रंदन सुना पर अब नहीं सुन सकते.
और हाँ, जो लोग गौ-रक्षा के लिये कुछ कर रहें हैं उनके लिये कम से कम “गुंडा” और फर्ज़ी जैसे शब्द प्रयोग न करें क्योंकि “फर्जी गो-रक्षक” तो अब आप भी हैं देश की नजर में.
आपके ट्विटर सेनापतियों मसलन “गौरव प्रधानों” की चिंता बाजिब है. उसके भीख मांगते और रावणराज आने की धमकी देती ट्वीटे हो सकती है आपको दुबारा सत्ता में तो ले आये पर गौ माता का आह आपको कहीं का नहीं छोड़ेगा ..याद रखिये.
नोट- पोस्ट शेयर या कॉपी-पेस्ट करने की आवश्यकता नहीं है, ये केवल ये बताने के लिये लिखा है आपके अपराध कितने हैं.——————नरुका जितेन्द्र
5 February at 10:27 ·
कल दादी के नुस्खों, अप्रमाणित इलाजों पर लोगों के बेवकूफ बनने नुकसान उठाने पर पोस्ट लिखा कि आज टाइम्स ऑफ इंडिया के फ्रंट पेज पर बड़ी सी न्यूज पढ़ कर सिर धून लिया।
योगी सरकार ने गौ मूत्र से 8 लीवर की दवाएं बनाई और बड़े स्तर पर UP आयुर्वेद विभाग इसपर लगा है !!
इस खबर को पढ़ कर लाखों लोगों का सड़क पर गन्दगी खाती गाय के प्रति सिर आदर से झुक गया होगा।
बस इससे कम न ज्यादा!! अगर आप सोच रहे हैं कि गाय की जिंदगी बदल जानेवाली है तो सुनलें गाय की दुर्दशा निरन्तर बढ़ेगी। उद्देश्य सिर्फ गाय के प्रति आदर जगाना भर है जिससे गाय के नाम पर हत्याएं गौ रक्षक गुंडई जारी रहे और गाय वोट देती रहे।
अगर आप लेख पूरा गौर से पढलें तो सरकारी संरक्षण मे ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडी एक्ट का खुल्ला उलंघन हो रहा है!!
हजारों मरीज रोज आते हैं उनमे से सिर्फ लीवर, जॉइंट पेन और इम्युनिटी बढाने दवा दी जा रही है।
खुद निदेशक आगे कहते हैं कि दवाओं की वैज्ञानिक क्लिनिकल पुष्टि की जा सके इसके प्रयास हैं!!
यानी सबकुछ हवा मे है और दवा खाने वाले गिनी पिग!!
निदेशक का कहना है गाय के मूत्र, गोबर, दूध, घी के औषधीय गुणों को प्रमाणित करने युद्ध स्तर पर काम चल रहा है।
आगे सुनिए एक कमेटी बनी है इसके लिए जिसमे RSS, VHP के वैज्ञानिक हैं!!
हद मने हद!!
और लोग इनसे विकास की उम्मीद करते हैं।
हो सकता है गौ मूत्र मे कुछ मिल भी जाये करोड़ों बर्बाद करके… क्योंकि कई बार सीवरेज के कचरा खंगालने से कीमती सोने की बाली मिल जाती जो कभी गटर मे गिर गयी होती है तो ये तो पवित्र गौ माता का मूत्र है।
लगे रहो वैदिक वैज्ञानिकों…. न.रुकानरुका जितेन्द्र
4 February at 12:44 ·
स्वाइन फ्लू का इलाज कपूर से डेंगू का गधी के दूध से ये तो नई मान्यताएं जिनका क्लिनिकल कोई प्रमाण नहीं। ढेरों दादी के नुस्खे प्रचलित हैं। तुलसी तो जुखाम से लेकर केंसर का इलाज!! और पढ़े लिखे भी ये कहते आजमा लेते हैं कि नुकसान तो कुछ है ही नही क्या हर्ज है!! किसी हद तक बात सही भी है।
पर एक मामला सुनिए।
मेरे बहुत करीबी परिचित एक महिला ने आधी से ज्यादा उम्र क्रोनिक एलर्जिक छींके, अस्थमा की तकलीफ मे गुजार दी।
एलर्जिक टेस्ट और अनुभव से पता चला जिसे दवा समझ लेतीं रही वो ही बीमारी है।
अदरक से भयंकर एलर्जी!!
और वो जरा सी जुकाम महसूस होते ही अदरक की चाय ले लेती थीं और समस्या विकराल, अस्थमा अटैक!!
पढेलिखे होना और साइंटिफिक अप्रोच/वैज्ञानिक द्रष्टिकोण दो अलग अलग चीज हैं।
जीवन मे हर बात पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण ढेरों परेशानियों से बचा एक बेहतर समाज बनाने मे मदद करता है… न.रुका———-Arvind Shesh
19 hrs ·
पकौड़ा और TOP विमर्श के योद्धाओं, लड़ सकिए तो लड़ लीजिए-
5 फरवरी को हिंदुस्तान पटना में छपी छह खबरें-
1- रीगा, रामनगरा गोकुल मठ टोला में आयोजित दस दिवसीय सीताराम नाम महायज्ञ का समापन, संचालक- विजय कुमार सिंह, जिला महामंत्री, भाजपा प्रचार मंच, सीतामढ़ी.
2- पुपरी, बलहा मधुसूदन में दस दिवसीय श्री श्री सीताराम नाम धनुष महायज्ञ की तैयारी अंतिम चरण में.
3- तरियानी, नरवारा में श्री सीताराम नाम जप यज्ञ की तैयारी अंतिम चरण में, लाखों लोग आएंगे, डीएम-एसपी के साथ जदयू (भाजपा!) नेता राणा रणधीर सिंह चौहान ने यज्ञ-स्थल का निरीक्षण किया, चौहान ने विधायक मद से पांच लाख रुपए देने की घोषणा की.
4- तरियानी, पचरा गोट में हनुमान मंदिर में प्राण प्रतिष्ठान सह नौ दिवसीय परायण यज्ञ वैदिक मंत्रोच्चार के साथ शुरू.
5- बाजपट्टी, बनगांव गोट, महाशिवरात्रि की भव्य झांकी की तैयारी में जुटे लोग.
6- बाजपट्टी, बजरंग दल ने रामनवमी उत्सव को ऐतिहासिक धूमधाम से मनाने की तैयारी की.
ये छह खबरें एक दिन के सीतामढ़ी संस्करण से हैं! यानी एक जिले के अलग-अलग इलाकों से एक दिन की खबरें! कितने आयोजन बेखबर होंगे! पिछले चार दिन से मेरे गांव में लगातार ऐसे आयोजन लाउडस्पीकरों पर चीख-चिल्ला रहे हैं! कम से कम मेरे सोचने की हत्या!
जमीन पर राजनीति ऐसे हो रही है वीर-बहादुरों..! आभासी दुनिया में खिल्ली उड़ाने के लिए ललचाने वाले शिकारी की फांस में फंसना या मुद्दों की शास्त्रीय व्याख्याओं के बरक्स हकीकत यह है जमीन की राजनीति की!
यानी जो लोग समझ सकते हैं उनको पकौड़ा-विमर्श में फंसाओ और बाकी को यज्ञ के अंधेरे में बर्बाद कर डालो! सवाल है सीता-राम-हनुमान या शिव के यज्ञ में डूबे लोगों को कौन-सी राजनीति संचालित कर रही है? इस चुनौती के सामने किस पार्टी या राजनीति का क्या कार्यक्रम है?
See Translation
हितेन्द्र अनंत1 July at 08:37 · इसे जैन आतंकवाद कहा जाना चाहिए।
धनगर समाज का जातिगत पेशा है पशुपालन। इस समाज के अतिरिक्त अनेक ग़रीब-किसान भेड़-बकरियाँ पालकर अपनी आजीविका चलाते हैं। भारत से पशुओं का निर्यात भी होता आया है। महाराष्ट्र सरकार ने इन गरीबों को शायद बेहतर मूल्य दिलाने के लिए पशु निर्यात के लिए विमान की व्यवस्था की। नागपुर से ऐसे पहले विमान को उड़ना था। नागपुर से इसलिए क्योंकि नागपुर को उड़ान का बंदरगाह बनाने की योजना दशकों पुरानी है। इससे विदर्भ के ग़रीब पशुपालकों को विशेष लाभ होता।
लेकिन जैन समाज (में से कुछ?) को यह मंजूर न था। किसी “अखिल जैन समाज” ने इस विमान का विरोध किया। पैसों से रसूखदार इस समाज के दबाव में आकर एक महती योजना जिसका उद्घाटन गडकरी-फडणवीस करने वाले थे, को रद्द कर दिया गया।
जैन समाज अपनी इस आतंकी हरकत के लिए तमाम कुतर्क दे रहा है। इसके पहले इस समाज के लोगों ने मध्य प्रदेश के कुपोषित बच्चों को सरकारी स्कूलों में मध्याह्न भोजन में अंडा दिए जाने पर रोक लगवा दी थी। तब भी जब यह बताने की ज़रूरत नहीं कि इस रईसों से भरे समाज के प्रायः सभी बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ते।
राजस्थान के किसी शहर में मांस कारोबार पर रोक लगवाने का असंवैधानिक काम भी यह समाज करवा चुका है। मुम्बई-गुजरात में मकान किराए पर देने से लेकर बेचने तक, यहाँ तक कि इनके पड़ोस में कोउ खुद के घर में मांस पकाए उस पर भी इनकी दादागिरी के किस्से आम हैं।
जैनियों को मांस नहीं खाना न खाएं। लेकिन पूरी दुनिया को अपनी तरह से चलाने की ज़िद करेंगे तो उन्हें सोचना पड़ेगा। अगर बाकी दुनिया के लोग भी ऐसी जी जिद कर लें तो?
शाकाहारी आतंकवाद मुर्दाबाद !
https://indianexpress.com/…/jain-body-goat-export-to-sharj…/
Himanshu Kumar
7 July at 21:02 ·
अभी कुछ दिन पहले एक वीडिओ देखा जो उत्तर प्रदेश का है
इस वीडिओ में दो तीन किसानों ने एक बैल को एक पेड़ से बाँधा हुआ है
और फिर दो किसान उस बैल की टांग में लाठी बरसा रहे हैं
वीडिओ में उस बैल को काफी देर तक पीटते हुए दिखाया गया है
बैल काफी तकलीफ में दिखाई दे रहा था
वीडिओ के विवरण के अनुसार ये वो किसान हैं जो आवारा गाय बैलों के फसल खा जाने से बहुत क्रोधित हैं
इसलिए वे अपना गुस्सा आवारा बैल पर निकाल रहे हैं
इस मामले में ना बैल की गलती है ना किसानों की
गलती है तो गाय के नाम पर करी जाने वाली राजनीति की
गाय की राजनीति ने सबसे बुरा हाल अगर किसी का किया है तो वह हैं गाय और किसान
गाय के नाम पर मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैला कर चुनाव जीतने वाले भाजपा के नेताओं को गाय और किसानों से कोई लेना देना नहीं है
पहली बात तो यह झूठ है कि मुसलमान गाय खाते हैं
भारत में मुसलमानों से ज्यादा गाय हिन्दू खाते हैं
केरल तामिलनाडू बंगाल पूर्वोत्तर के सातों राज्य गोवा छत्तीसगढ़ झरखंड आन्ध्र के आदिवासी गाय का गोश्त खाते हैं
भाजपा इन राज्यों में गाय की बात नहीं करती
भाजपा गाय की राजनीति का ढोंग सिर्फ हिन्दी पट्टी के इलाकों में ही करती है
गाय के नाम पर कुछ मुसलमानों की हत्या करके आतंक मचा कर भाजपाई गुंडों ने अब ऐसी हालत पैदा कर दी है कि किसान अपनी बीमार गाय को अस्पताल तक ले जाने में डरता है कि रास्ते में गुंडे उसे मार ना डालें
भाजपा सरकारें और वहाँ की पुलिस गाय के नाम पर हत्या करने वाले गुंडों को समर्थन दे रहे हैं
अभी कल ही भाजपा के मंत्री ने मुसलमानों की माब लिंचिंग करने वाले गुंडों को हार पहना कर मंच पर सम्मानित किया है
इससे साफ़ है कि गाय के नाम पर आतंक मचने का काम बाकायदा एक नीति के तहत किया जा रहा है
अब किसान अपने बेकार और बूढ़े पशु बेच तो पा नहीं रहा है
क्योंकि डर कर अब कोई खरीदने वाला ही नहीं बचा
तो मजबूरन लोगों ने हजारों पशु आवारा छोड़ दिए हैं
इन आवारा पशुओं के कारण अब किसानों का खेती करना असम्भव हो गया है
इससे पशु पालन करना भी मुश्किल हो गया है
अगर पशु पालक अपने बेकार हो चुके पशुओं को बेचेगा नहीं तो नए पशु कैसे खरीदेगा
तो इस गाय की राजनीति के कारन पशु पालन भी बर्बाद हो गया है
इसके अलावा अब भाजपा के गुंडे लोगों के पशुओं को छीन कर अपने गोशालाओं में जबरदस्ती रख रहे हैं
छत्तीसगढ़ में तो आदिवासी जब मेले से खेती के लिए पशु खरीद कर ले जाते हैं तो भाजपा और बजरंग दल के गुंडे पुलिस के साथ मिल कर आदिवासियों के पशु छीन लेते हैं
मैंने खुद ऐसे कि मामलों में पुलिस से बहस करी है
लेकिन अब तो पुलिस खुद ही बदमाश हो चुकी है इसलिए उससे किसी कानून के पालन की तो उम्मीद रही नहीं है
इसके साथ साथ भाजपा सरकारें अपनी पार्टी के गुंडों द्वारा चलाई जाने वाली इन फर्जी गोशालाओं के नाम पर करोड़ों रूपये की सरकारी ग्रांट का गबन कर रहे हैं
कई सारी गोशालाएं तो भाजपाइयों द्वारा सिर्फ गाय की हड्डियों और खाल का धंधा करने के लिए खोली गई हैं
भाजपाइयों की कई सारी गोशालाओं में गायों को बाकायदा डंडों से मार मार कर हत्या करी जाती है उससे खाल की अच्छी कीमत मिलती है
भारत की जनता मूर्ख बन रही है तो भाजपा वाले उन्हें मूर्ख बना रहे हैं और हिंदुत्व और गाय के नाम पर मूर्ख बना कर हिन्दुओं का ही सत्यानाश कर रहे हैं
इंदौर का ज़बरे बालो वाला संपादक शुद्ध शाकाहारी राक्षस खून पीने के शौकीन – तक गाय का गुणगान कर रहा हे मकसद भजपा के लिए वोट बटोरना इसके ज़बरे बालो की चुटिया बनाकर इनके यहाँ किसानो को ये गाय ले जाकर इनके चुटिया से बाँध देनी चाहिए ज़हरीले संघी सोशल मिडिया पर गाय का गुणगान कर रहे हे उधर उत्तर भारत में डरावना मंजर हे सड़को पर इतनी गाय और खेतो में लोहे के मोठे मोटे तारो की बाड़बंदी https://www.youtube.com/watch?v=_GjUXOVZsZU
https://www.youtube.com/watch?v=rjMbE9flUhQ&feature=youtu.be
” अनीता संजीव21 hrs ·
धर्म के ‘ठेकेदार’ कहते हैं कि बकरे मत काटें …
और हम किसान कहते हैं कि जरूर काटें….!….देश इन दिनों बड़ी क्रांति में है, “ठेकेदारों” की डरावनी क्रांति में। और उनकी इसी क्रांति के बूते पर देश का किसान संकट से और संकट में आ रहा है। धर्म के कुछ ठेकेदार आज ईद—उल—अजहा (बकरीद) पर हेला कर रहे हैं कि बकरे काटकर आप कौनसी कुर्बानी की बात करते हो, और यह हिंसा छोड़ें और बकरे न काटें।
मेरा सीधा सवाल उन “ठेकेेदारों” से है कि आप बकरे के बहाने धर्म—त्योंहार पर हमला करने का जो षडयंत्र रच रहे हैं, वह हमारे देश के किसानों के लिए भी घातक है। हमारे हिंदू धर्म के लिए भी घातक है, हिंदू धर्म के बहुसंख्यक किसान के लिए कमरतोड़ने वाली हद तक घातक है।
धर्म के ठेकेदारों ने गाय पर हल्ला कर गाय की हालत ऐसी कर दी है कि वह आज रात—दिन खेत की रखवाली करते किसानों के लिए समस्या बनी हुई है।
किसान गाय रखता था, गाय के बछड़ा होता था तो किसान खुश होता था कि इसे बेचकर दो पैसे मिलेंगे और वह पैसे घर—जरूरत के काम आएगा। परंतु उन ठेकेदारों ने हालात यह कर दी की उन बछड़ों का कोई खरीददार ही नहीं रहा और मजबूरन किसान उसे खुला छोड़ रहा है। वे रोजाना गांव—गली—सड़क पर लट्ठ खा रहे हैं और दुर्गति के शिकार हो रहे हैं। यही हालत बूढी हो चुकी गाय या फिर गर्भधारण की क्षमता खो चुकी गाय की है। उसे किसान सदैव कटवां में बेचकर दो पैसे कमाता था और उन दो पैसे में कुछ और जोड़कर नई गाय घर लाता था। परंतु उन ठेकेदारों ने हालत यह कर दी है कि दूध—उत्पादन से दूर गाय आज दर—दर ठोकर खा रही है।
–
यही हालत बकरी—पालन की है। किसान बकरी इसलिए पालता है कि वह उनको बेचकर हारी—बीमारी, घर—परिवार की जरूरतों, बच्चों की पढाई के लिए दो पैसे जुटा ले। और वह भी ऐसे समय में जब खेती वर्षा—आधारित है और वर्षा कभी—कभार होती है। तब किसान का एक मात्र सहारा पशुपालन होता है और वह अकाल जैसी विभीषिका में जिंदा रह जाता है। परंतु उसका जिंदा रहना इन धर्म के ठेकेदारों को कैसे सुहाए? तभी तो वे आए दिन हल्ला करते हैं कि बकरों को काटकर कैसी कुर्बानी?
-मिलेंगे और घर में दो पैसे की आमदनी होगी। मेरे बड़े भाई साहब खुद खेत में बकरी रखते हैं, इस साल ईद से पहले उन्होंने पांच—छह बकरे बेचे हैं, चोखे दाम मिले हैं और उनसे उन्होंने अपने बेटे—बेटी की बकाया फीस चुकता की है। —यह कड़वा सच है। बकरी—भेड़ किसान का ATM Card है, जब हारी—बीमारी, भात—छुछुक, बेटी तीवळ—जंवाई जुंहारी की यकायक जरूरत आती है तब किसान अपने उस ATM Card का इस्तेमाल करता है और तुरंत नगद ले आता है।
–
मेरे मुस्लिम भाईयो!
हम किसान—पशुपालकों का आग्रह है कि आप खूब गोश्त खाएं। धर्म के ठेकेदार हल्ला करते रहेंगे। आप आनंद से बकरीद मनाएं।
हिंदू भाई भी जो मांसाहारी हैं वे भी खूब गोश्त खाएं। क्योंकि प्रकृति के संतुलन का सिद्धांत है कि पशु जन्मा है वह मरेगा नहीं तो संतुलन कैसे रहेगा। स्वाभाविक मौत आने तक पशु नाकारा हो जाता है और अधिकतर दुर्गति को प्राप्त भी करता है, अतएवं उसे कटवां को देना जरूरी हो जाता है। और वहीं बकरे आदि तो पाले ही इसलिए जाते हैं कि वे मांस बन सकें और बिक्री कर लाभ का सौदा हो सकें।
–
आप सब मांसाहारी मांस नहीं खाएंगे तो हम पशुपालक पशु पालेंगे क्यों? इसलिए जमकर मांस खाएं। भारत जहां दुनिया का सबसे ज्यादा मांस निर्यातक देश है वहीं हमें मांस की आंतरिक खपत भी संतुलन में करनी है। खूब खाएं, सलीके से खाएं, विनम्र रहें।
–
पशु दुर्दशा के शिकार न हों, पशुपालक अपना कारबार न छोड़ें, इसी संदर्भ में मेरा यह आग्रह है और निवेदन है।
–
ईद मुबारक! ?
हां, बकरीद हो भले, मुझ जैसे लोगों को खीर—मिठाई भी खिलाएं, उत्सव का भागीदार बनाएं…..
दुलाराम सहारण ” —————————————————————————————————————————————————————मोदी सरकार का टॉर्चर झेल रहे गरीब किसानो पशुपालको ग्रामीणों ( अधिकतर गैर मुस्लिम ) के लिए इस साल तो बकरीद में वाकई उनकी ईद हो गयी होगी इस साल तो कमाल ही हो गया बकरे के दम कम से कम तीन चार हजार पर बकरा बढ़ा रखे थे और याद रहे बकरीद पर बकरा वैसे ही सामान्य दिनों से डेढ़ दो गुना दाम पर पहले ही होता उसके बाद मुझ जैसे जीरो स्प्रिचुअल की दुर्गत की भारत में यही हाल हे की जरा अच्छा बनो और परेशानियों मुसीबतो को दावत दो भाई तो जर्मनी गया हुआ था उसने दस बारह हज़ार का बजट दिया कुर्बानी का ( साफ़ सफाई सहित ) मेने सोचा चलो इस साल दस बारह किलो नहीं पंद्रह किलो मटन वाला बकरा देखता हु घर पर इतने गरीब लोग आते हे पचास साठ में से बीस तीस ( आधे से अधिक गरीब गैर मुस्लिम ) को ही मटन दे पाते हे बाकी को बेरंग लौटाते हुए उनकी आँखों में निराशा देख कर दुःख होता हे तो उनके भले के लिए भयंकर गर्मी और उमस में इतने धक्के खाये इतने धक्के खाये मगर नहीं मिला पंद्रह 16किलो वाले के रेट बीस हज़ार मांग रहे थे धक्के खाते खाते पेरो में छाले पड़ गया लेकिन नहीं मिला बजट भी नहीं बढ़ा सकते एक एक पैसा शुद्ध पसीने का हे ना विरासत ना किसी का शोषण ना कोई बेईमानी , तो हालत खराब कर ली और आखिर में रात को डेढ़ बजे दस बारह किलो वाला ही लेना पड़ा भारत में हालात इतने खराब हो चुके हे की नेकी की बात ही दिल में आते ही टॉर्चर सामने खड़ा मिलता हे
गि – लाल गोयल
22 August at 15:44 ·
खान पान की शुचिता और पवित्रता रसोई से शुरू होती है ……
आजकल टीवी पर आने वाले कुकिंग शोज में खाने को चख चख कर देखते हैं…… लेकिन बृज के अधिकाँश हिन्दू घरों विशेषकर उन बनिए बामनों के यहाँ जहाँ पर कि बहुयें पहली पीढ़ी का सम्मान और लिहाज कर रही हैं वहाँ तो एसा होना कतई असंभव है , भोजन का सबसे पहले ठाकुर जी का भोग लगता है सो झूठे भोजन का भोग कैसे लगाया जा सकता है….. यहाँ तो वहां रसोई में गृहणी बिना स्नान के नहीं घुस सकती हैं
इसके अलावा घर में रसोई बनाने वाली गृहणी के लिए अपना झूठा भोजन अपने श्वसुर सास जेठ पति आदि को परोसना एक तरह से पाप ही माना जाता है ……..
लेकिन संयुक्त परिवारों की टूटन से बने ,एकल परिवार बच्चों के स्कूल…. पती के दूकान या ऑफिस जाने पर नाश्ते या लंच का टिफिन तईयार करने की जल्दी के चलते अधिकाँश जगह ये परम्पराएं टूट रहीं हैं…..
चलिए कोई बात नहीं……
तमाम परिवारों में प्याज लहसुन नहीं चलता….. लेकिन बाहर के नाश्ते और भोजन में दक्षिण भारतीय और पंजाबी भोजन के चलन के कारण नई पीढ़ी लहसुन प्याज को पूरी तरह अपना चुकी है….
लेकिन तमाम घरों में रसोई का अदब अभी चल रहा है….. बच्चों की ख़ुशी के लिए प्याज लहसन का तडका रसोई में ना लगा कर रसोई से बाहर इन्डक्शन चूले आदि पर लगा दिया जाता है…..
अब इतना परिवर्तन आया है की प्याज लहसुन ‘पा’प की जगह मात्र पूजा पाठ व्रत उपवास वालों के लिए मात्र ‘तामसी भोजन’ की श्रेणी में आ गये हैं……
घृणा वाली बात खत्म सी हो गयी है….. भोजन के मामले में मैं घोर रुढ़िवादी हूँ लेकिन जब मालकिन और बच्चों के साथ भोजन करने बैठता हूँ तब बच्चे प्याज अलग से रख लेते हैं लेकिन बच्चों का मन नहीं बिगड़े सो मैं और मालकिन अपना प्याज रहित भोजन बिना नाक मुंह सिकोड़े करते रहते हैं…..
—————————————————————————–
अब जरा इधर की बात करें……
हमारे गांव में मुस्लिमों की आबादी 45% तक है अभी कुछ तीन दशक पाहिले तक ये आबादी 55% थी तब बकरीद पर अधिकाँश मुस्लिम परिवार अपनी कुर्बानी को हम रुढ़िवादी हिन्दुओं से छुपाते थे…… गाँव में कम से कम एक दर्जन लोग गोश्त बेचते थे…. लेकिन बड़े अदब से घरों के अन्दर…….
जो भी ग्राहक गोश्त खरीद कर हिन्दू आबादी के रस्ते से गुजरता वो गोश्त को कतई ढंक कर लेकर जाता था……
मोहर्रम पर खिचड़ा बनता तो वोटी डालते समय देख लिया जाता की कोई हिन्दू तो नहीं देख रहा…..
हम लोग जब मुस्लिम वस्ती में स्थित चामड़(चामुंडा) के चबूतरे पर जल चड़ाने जाते थे तब गोश्त बेचने वाले सकपका कर वहां टाट के परदे को फटाफट गिरा कर गोश्त ढंक देते थे….. और यह सब डर के कारण नहीं वल्कि हम लोगों के आपसी व्यवहार और लिहाज के कारण ये अदब दिखाया जाता था
कहने का मतलब है की अदब लिहाज का अलिखित समझौता हम लोगों के बीच कायम था
लेकिन इधर राम जन्मभूमि आन्दोलन के साथ ही तनाव के हालत बनने लगे थे…… भाजपा के शासन में इनका डरना शुरू हुया…. आपसी सम्बन्धों में तनाव के मुसलमान लोग अपनी वस्तियों की और सिमटते गए ….
लेकिन ये दौर अधिक समय नहीं चल पाया
फिर आया 1993 का मुलायम शासन….. आपसी लिहाज की जगह तनाव ने पहले लेली थी धीरे धीरे बचा खुचा अदब लिहाज गायब होता गया…… गोश्त की दुकाने वस्ती से निकल मुख्य रास्ते के सहारे आ गयीं….. टाट के परदे हट गए ….. सुबह ही पूरी की पूरी भैंस काट कर टांगी जाने लगी……
गोश्त और हड्डियों से भरी मेटाडोर हिन्दू आबादी वाले रास्ते से होकर गुजरने लगी…..
बकरीद पर कुर्बानी वाले घरों की संख्या बढती गयी ….. अडौस पडौस के घरों में कुर्बानी के तबर्रुख बनते जाने वाले थाल के ऊपर ढंका हुया कपड़ा भी हटने लगा….
और तो और कुछ लड़के तो हमारा मजाक उड़ाने की स्टाईल में हमको प्लेट का ऑफर भी देने लगे……
भयंकर गुस्सा आता था…… लेकिन गुस्सा दब कर रह जाता…. मुसलमानों में किन्ही बोहरे जी चौधरी साहबों का ब्याज पर धन उठा हुया था….. गोश्त धोने वाली मेटाडोर भी हिन्दुओं की थी…. बकरीद पर प्लेट में मुंह मारने के लिए हिन्दू ही पहुँच जाते थे…..
सो ये लोग इनकी हिमायत में हर समय हाजिर रहते थे
ऊपर से मुसलामानों के ही व्यंग्य भरी बातें ‘अबे द्सिगले के सिगले कादुं ताऊ सूंढ़ गए तू आया बड़ा भारी पंडत का चोदा’
अब क्या कर सकते थे….. मन ही मन भगवान के ऊपर छोड़ने का बहाना बना लेते
बकरीद तो वैसे भी एकादशी के दिन पड़ती है…. सनातनी हिन्दुओं का सबसे बड़ा सात्विक व्रत होता है….. सहज कल्पना नहीं कर सकते कि लहसुन प्याज तक ना छूने वाले एकादसी व्रत धारी हिन्दू को एकादशी व्रत पर थाल में गोश्त या नाली के बहते खून को देख कितनी मानसिक पीड़ा होती होगी….
खैर अब आया चिर प्रतीक्षित 2014…. लगा मानो सारे सपने पूरे हो जायेंगे….
इनमें योगी जी का शासन आने से पूर्व ही उपर्वर्णित गोश्त की दूकान आदि के सारे दृश्य गायब हो गये …. कदाचित कुछ बदतमीजियों को छोड़ कुर्बानी आदि की अदब भी कायम होने लगी है….. भैंस भी कटती है तो वो घर के अन्दर…..
लेकिन मुलायम मायवती के शासन वाले बेधड़क मुसलमान मानो हिन्दू शेर बन कर फेसबुक में घुस गये हैं….. यहाँ खुले आम मांसाहार का महिमा मंडन होता है….. भारत की लम्बी गुलामी का ठीकरा शाकाहारियों के सर फोड़ा जाता है….. सोमनाथ की पराजय के लिए हमारी धर्म भीरुता और गौ के प्रति श्रद्धा को उत्तरदायी ठहराने की कथाएँ पड़ने को मिलतीं हैं…..
राष्ट्रवादियों की एक विशेष लॉबी मानो हिन्दूओं की हर एक समस्या का हल क्रूरता और मांसाहार मैं ही निहित बताने लगी है…..
मुझे नहीं लगता की इन सो कॉल्ड राष्ट्रवादियों और मेरे गाँव के गोश्त विक्रेता और कुर्बानी करने उसका तबररुख बाँटने वालों और उनकी तरफदारी लेते हुए ब्याज वाले मेटाडोर मालिक और प्लेट भकोसने वाले हिन्दुओं में कोई भी रत्ती भर भी अंतर हो……
इन बहादुर राष्ट्रवादियों को ध्यान रहे…. ये मांस खाएं खूब खाएं ….. भोजन उनकी निजता है……. झटके खाएं या हलाली का खाएं….. बकरे का खाएं…. सूअर का खाएं भेंसे का खाएं…..
कोई आपत्ति कभी भी नहीं है…. नाही हमको कोई आपत्ति करने का तनिक भी अधिकार है…….
खाएं सामने वाले का अदब लिहाज कर के….. अपनी खुराक का प्रदर्शन दुसरे के सामने ना करते हुए खूब खाएं ………
लेकिन मांसाहार के पक्ष में यहाँ पर पोस्ट डालोगे …. कोमेंट्स करोगे…. हंडिया रोगन जोश की रेसिपी छ्पोगे….. झटका मीट की खूबी बयान करोगे ….. देवी जी के नाम की मीट की दुकान का प्रचार करोगे
तो हमारे लिए तुम्हारे प्रति सम्मान का आधार क्या है….. हमारे लिए तुम्हारे प्रति कोई भी धारणा JNU केरल बंगाल या महारष्ट्र में मीट काउंटर सजाने वाले वामी या राज ठाकरे के गुंडों से पृथक कैसे हो सकती है है….
तुम्हारा दर्जा किसी कल्लू कसाई से रत्ती भर भी ज्यादा होने का कोई औचित्य बनता है क्या ?…… हमारे लिए तुम्हारे झटके और दूसरे की हलाली की कोई भी कीमत अलग अलग नहीं है…..
ndor ke zabre baalo vaale rakshs ke liye —————————————-
Ashok Kumar Pandey
22 August at 21:16 ·
हमने लिखा – शाकाहार सवर्ण नौटंकी का हिस्सा है. कुंठित आलोचक ने पढ़ा – शाकाहार सवर्ण नौटंकी है.
मैं चाहता हूँ वह यह भी पढ़े –
यक्षरक्षः पिशाचान्नं मद्यं मांस सुरा ऽऽ सवम्। सद् ब्राह्मणेन नात्तव्यं देवानामश्नता हविः।” ‘‘मद्य, मांस, सुरा और आसव ये चारों यक्ष, राक्षसों तथा पिशाचों के अन्न (भक्ष्य पदार्थ) हैं, अतएव देवताओं के हविष्य खाने वाले ब्राह्मणों को उनका भोजन (पान) नहीं करना चाहिये।” (मनुस्मृति – 11/95 )
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी। संस्कर्त्ता चोपहत्र्ता च खादकश्येति घातकः।। अनुमति देने वाला, शस्त्र से मरे हुए जीव के अंगों के टुकड़े–टुकड़े करने वाला, मारने वाला, खरीदने वाला, बेचने वाला, पकाने वाला, परोसने या लाने वाला और खाने वाला यह सभी जीव वध में घातक–हिसक होते हैं।” (मनुस्मृति – 5/51)
_____________________
थोड़ा कोशिश करके अनेक धार्मिक ग्रंथों से ऐसे उदाहरण दिए जा सकते हैं. देने को मांसाहार के उदाहरण भी दिए जा सकते हैं. लेकिन यह समझना मुश्किल है क्या कि भोजन की भी अपनी राजनीति होती है? क्या यह एक खुला तथ्य नहीं है कि कथित ऊंची जाति के लोगों ने शाकाहार को शुद्धता का प्रतीक बनाकर मांस खाने वाले दलित और विधर्मियों के अशुद्ध अदर क्रियेट किये? “म्लेच्छ” की उत्पति तलाश कीजिए जरा. आज भी जरा हिन्दू कट्टरपंथी अकाउंट्स देख लीजिये, मांसाहार को लेकर पोस्ट पढ़िए. करने वालों की जाति देखिये. अपनी भी देख लीजिये. समझ आ जाएगा.
___________________
तो मिस्टर कुंठित प्रसाद जी, पहले तो मिस्कोट से बचिए, फिर जरा अपने भीतर झांकिए. क्लियर हो जाएगा, है न?
बाक़ी शाकाहार एक च्वायस है और इसमें कोई समस्या नहीं. लेकिन जब इसे आप शुद्धि-अशुद्धि का मामला बनाने लगते हैं तो यह राजनीति का हिस्सा है.Like · See translation · 2d
Shabista Brijesh
Shabista Brijesh मांस तो मैं भी नही खाती इसके पीछे कोई धार्मिक मंशा भी नही बस मन नही करता लेकिन किसी खाने वाले को हेय दृष्टि से भी नही देखती मेरे सारे हिन्दू दोस्त खाते है मैं मुस्लिम हो कर भी नही खाती कल मैं कई जगह मिलने Shalinee Tripathi Subhash रोक जंगली जानवरों के शिकार पर लगे और सख्ती से।बकरा,मुर्गा,गाय,भैंस कोई खाए तो हम क्यों नाक मुँह बिचकाएँ?मैं कट्टर शाकाहारी हूँ पर आज तक किसी को नहीं रोका या criticize किया इसके लिए।गई उन लोगो ने मुझे शाकाहारी भोजन दिया लौटते समय अपने हिन्दू पड़ोसी के कहने पर उन लोगो से उसके लिए मांसाहार पैक करा के ले आयी
2
Manage
Like · See translation · 2d
Karmendu Shishir
Karmendu Shishir मेरे पिताजी कहते थे।जीवन का सौभाग्य है।मांस नहीं खावोगे आत्मा कलपती रहेगी।मांस खावोगे तो बार बार धरती पर आने का मौका मिलेगा।बस बढ़िया बना रहना चाहिए।हम तो यूट्यूब पर लाहौर, पेशावर या काबुल या तेहरान के बनते हुए डिस का वीडियो देखता रहता हूँ।खाना खाने की संस्कृति तो भारतीय उपमहाद्वीप में ही है।Prakhar Tripathi
Prakhar Tripathi Sir, एक किलो मांस पैदा करने में कितना पानी और energyलगता है? कितना GHG उत्सर्जन होता है?
उससे कितने पोषक तत्व मिलते हैं वो भी किस तरह के ?
वहीं एक किलो veg जैसे गेंहू को पैदा करने में कितना पानी, एनर्जी लगती है?
एक process है bio magnification जिससे मांस में हानिकारक तत्व फ़ूड चैन में आकर ज्यादा इकट्ठा हो जाते हैं। मुर्गे और बकरे कोई फैक्ट्री मेड तो हैं नहीं , उसके उत्पादन के लिए खाद्य फसलों का ही इस्तेमाल होता है, इसलिए ये कहना गलत है कि दुनिया में इतना शाकाहार है ही नहीं। अगर पूरी दुनिया शाकाहार हो जाये तो जलवायु परिवर्तन से लड़ने में सहायता मिलेगी।
बाकी जलवायु परिवर्तन से गरीब गुरबा ज्यादा प्रभावित होगा, जिनकी हम बात करते हैं।
बाकी शाकाहारी होना अच्छे चाल, चरित्र या दयालु होना नहीं होता।
7itish Ojha मांसाहार के विरोध की आड़ में मुसलमान विरोध का एजेंडा पूरा हो जाता है।
नही तो विवेकानंद से लेकर अरविंदो तक और अटल बिहारी से लेकर रविन्द्र नाथ टैगोर तक सब मांसाहारी थे। पर तब मुह में दही जम जाती हैअरुण अवध अगर मांसाहार बन्द हो जाये तो उत्पादित खाद्यान्न की सीमित आपूर्ति के कारण अकाल जैसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है।Shalinee Tripathi Subhash रोक जंगली जानवरों के शिकार पर लगे और सख्ती से।बकरा,मुर्गा,गाय,भैंस कोई खाए तो हम क्यों नाक मुँह बिचकाएँ?मैं कट्टर शाकाहारी हूँ पर आज तक किसी को नहीं रोका या criticize किया इसके लिए।
Manage
Like · See translation · 3d
Ashok Kumar Pandey
Ashok Kumar Pandey मेरे भाई घास खाद्य फसल है या पत्ते? बकरे यही खाते हैं अमूमन। बाक़ी जो करता है बाज़ार करता है।।प्रकृति जानवरों को वह खाना सिखाती है जो मनुष्य नहीं खाते। मछली को भी जोड़ लीजिये। वह जल में पलती है। शैवाल व जलकीट खाती है। झींगा भी। देशी मुर्गे भी ऐसे ही। फॉर्म में चिकन उगाना बाज़ार ने शुरू किया और उसे मांसल बनाने के लिए पैक्ड फ़ूड खिलाना। पूरी दुनिया शाकाहारी हो जाये तो ये जानवर यों ही मार दिए जाएंगे जगह के लिए और अनुपयोगी हो जाने के लिए, इकोलॉजिकल इम्बैलेंस हो जाएगा । नदियाँ पॉल्यूटेड हो जाएंगी।Deepak Pandey मानव जात का यह स्वभाव है कि वह स्वयं को विशिष्ट बनाना चाहता है। उसके लिए वह स्वयं का, स्वयं की भावनाओं का, इच्छाओं का, कार्यों का आदि सब का महिमामंडन करता है और स्वयं को अन्य की तुलना में विशिष्ट महसूस करता है।
श्रेष्ठता का प्रतीक बना लेना कत्तई गलत नहीं उसे औरों पर थोपना गलत है।
शाकाहार का सेवन नौटंकी नहीं, शाकाहार करने के लिए दूसरों को बाध्य करना नौटंकी है।
Ashok Kumar Pandey
22 August at 11:02 ·
ठीक है। बलि-क़ुर्बानी मुझे ग़लत लगती है। लेकिन जो आप बहुत दयालु हो रहे/रही हैं पशुओं के प्रति उनसे बहुत विनम्र निवेदन है कि मुर्गे तो ख़ैर अब मांस के लिए ही पैदा किये जाते हैं फॉर्म में और बकरों का गोश्त खाना बंद हो जाये तो उनकी हालत गली के कुत्तों से भी बदतर होगी। न कोई पालेगा न कोई ध्यान देगा। बेहद सहज है मांसाहार और लगभग पूरी दुनिया में किया जाता है। वैसे तो जो दूध घी खाते हैं आप वह भी बछड़े के हिस्से का है। और भी बहुत कुछ। आदिवासियों के यहां मांसाहार सहज है और पशुओं को लेकर वे आपसे बहुत अधिक सेंसिटिव हैं। दोनों के बीच ऐसा कोई द्वंद्व भी नहीं। असल मे शाकाहार सवर्ण नौटंकी का एक हिस्सा है।
कितना अच्छा हो कि इंसानों की बलि पर आप सेंसिटिव हो जाएं इतने, कोई अफलू कोई रकबर आपके दिल में दर्द पैदा करे, कोई औरत कोई ग़रीब कोई मज़दूर कोई आदिवासी…
See Translation
Ashok Kumar Pandey
23 August at 13:40 ·
ख़ालिद बशीर अहमद ने अपनी किताब में मीडिया को लेकर एक मज़ेदार बात कही है –
ज्योंही दिल्ली का कोई पत्रकार श्रीनगर में उतरता है वह पत्रकारिता के उसूल भूलकर ख़ुद को भारतीय राज्य का प्रतिनिधि समझने लगता है और कश्मीर को उपनिवेश। सच पर राष्ट्रवाद भारी पड़ जाता है और वह एक सर्वज्ञानी की तरह अपना सच कश्मीर का सच बनाने लगता है। वह तथ्य वगैरह की चिंता किये बिना राष्ट्रहित में रिपोर्ट्स लिखता है।Ashok Kumar Pandey
22 August at 23:44 ·
पिछली कश्मीर यात्रा में श्रीनगर में वहां के एक प्रतिष्ठित पंडित ने कहा- जो पंडित अलग प्रदेश मांग रहे हैं वे उसमें रहेंगे कैसे? न उनको खेती आती है, न सब्ज़ी उगा सकते हैं, न लुहारी कर सकते हैं, न लकड़ियों का काम आता है उन्हें, न दर्ज़ी का काम आता है. यह सब तो कश्मीरी मुसलमान ही करते रहे हैं हमेशा.
मुझे तुरन्त सवर्ण याद आये अपने यहाँ के. कश्मीर पर काम करते हुए मुझे हमेशा ही कश्मीरी पंडितों और मुसलमानों का रिश्ता उत्तर के सवर्ण और दलितों के रिश्तों सा लगता रहा है…बाक़ी विस्तार में फिर कभी.
H L Dusadh Dusadh shared a post.
23 August at 14:26 ·
अद्भुत!बेहतरीन !इस्लामिक पर्वों का जवाब नहीं, खास कर रोजा का.
See Translation
Firoz Mansuri
23 August at 12:19
कुर्बानी का अर्थशास्त्र
कुर्बानी पर एक अंदाजे के मुताबिक 25 ख़रब रुपए से ज्यादा का जानवर पालने और बेचने का कारोबार हुआ,तकरीबन 23 अरब रुपए कसाईयों ने मजदूरी के तौर पर कमाये, 3अरब रुपए से ज्यादा चारे का कारोबार हुआ
नतीजा:-
:-गरीबों को मजदूरी मिली,
:-किसानों का चारा फरोख्त हुआ,
:-देहातियों को मवेशी की अच्छी कीमत मिली,
:-गाड़ियों में जानवर लाने ले जाने वालों ने अरबो का काम किया,
:-और सबसे अहम गरीबों को खाने के लिए महँगा गोश्त मुफ्त में मिला।
खालें कई सौ अरब रुपए में खरीदी गयीं है,चमड़े की फैक्टरियों में काम करने वाले मजदूरों को काम मिला,
वहीं इन की हड्डी से दुनिया भर के सामान और दवाईयां बनाई जा रही है
तथा इनके खून से बेहतरीन किस्म की खाद तैयार की जाती है तथा इनकी आँतोंसे खास किस्म के एनर्जी बिस्कुट बनाने की फैक्ट्री चल रही है जो पालतू कुत्ते व चिड़िया घरों में पल रहे जंगली जानवरों के लिए काम आते हैं
ये सब पैसा जिस जिस ने कमाया है वो अपनी जरूरियात पर जब खर्च करेगा तो ना जाने कितने खरब का कारोबार दोबारा होगा।
ये कुर्बानी गरीब को सिर्फ गोश्त नही खिलाती बल्कि आगे सारा साल गरीबों के रोजगार और मजदूरी का भी बंदोबस्त होता है।
दुनिया का कोई भी मुल्क करोड़ो अरबो रुपए अमीरों पर टैक्स लगा कर पैसा गरीबों में बाटना शुरू कर दे तब भी गरीबो और मुल्क को इतना फ़ायदा नही होगा जितना अल्लाह के इस एक एहकाम को मानने से पूरे मुल्क को फ़ायदा होता है वही बकरे भेड़ दुम्बे भैंस और अन्य जानवरों के पन्द्रह सौ साल से बराबर हर साल अरबों की तादाद में कुर्बानी होने के बावजूद और प्रती दिन करोड़ों की तादाद में कटने के बावजूद इन जानवरों की प्रजातियां आज तक विलुप्त नहीं हुईं है वहीं कुत्ते शैर चीता तेंदुआ भालू और इन जेसे हजारों जानवर जो कि खाए नहीं जाते इन सब जानवरों की प्रजातियां विलुप्त हो रही है यही है अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त की कुदरत का करिश्मा कमाल आम के आम गुठलियों के दाम
इकनॉमिक्स की ज़बान में “सर्कुलेशन ऑफ़ वेल्थ” का एक ऐसा चक्र शुरू होता है कि जिस का हिसाब लगाने पर अक्ल दंग रह जाती है।
_______✍?यह लेखक के अपने विचार हैं सहमती या विरोध के लिए में स्वतंत्र हूं ।
इसलिए कहता हु हिन्दूकटटरता हिन्दू साम्पर्दयिकता दुनिया की सबसे भ्र्ष्ट दुष्ट कमीनी और कायर विचारधारा हे ——————————————————————– ” Kabir Sanjay29 October at 19:54क्या कोई ऐसा सोच भी सकता है कि गुजरात के गीर में 23 एशियाई शेरों की मौत के पीछे दो साल पहले ऊना में चार दलित युवकों की बेरहम तरीके से की गई पिटाई कारण है। जी हां, सामाजिक घटनाक्रम एक दूसरे से जुड़े होते हैं और एक घटना अपने साथ तमाम घटनाओं को जन्म देती है। शुरुआती जांच पड़ताल इसी सच्चाई की तरफ इशारा कर रहे हैं।
गोरक्षा के नाम पर गुंडागर्दी का नेटवर्क चला रहे कुछ लोगों ने गुजरात के ऊना शहर में 2016 में चार दलितों की बुरी तरह पिटाई की थी। इन युवकों का अपराध सिर्फ इतना था कि वे मरी हुई गाय की खाल उतार रहे थे। इनके साथ हुई मारपीट की घटना की फोटो पूरे देश भर में वायरल हो गई और इस घटना के खिलाफ देश भर में इंसाफ पसंद लोगों का आक्रोश फूट पड़ा। ऊना व गुजरात के अन्य जिलों में मरे हुए पशुओं को ठिकाने लगाने का काम करने वाली जातियों ने अपना काम बंद कर दिया और मरे हुए पशुओं के शव कलेक्ट्रेट में जमा कर दिए। इससे पूरी व्यवस्था में ही सड़ांध फैल गई।
इस घटना के बाद से बहुत सारे लोगों ने गाय की खाल उतारने का काम पूरी तरह से बंद कर दिया है। इसके बाद अब गाय की मौत होने के बाद गांव वाले उसे गांव की सीमा के बाहर फेंक देते हैं। जबकि, वन विभाग से गुजारिश की जाती है कि उसे जंगल में डाल दिया जाए। मरे हुए पशुओं का यह मांस आवारा कुत्ते खाते हैं। ऐसा संभव है कि जंगल में शव फेंके जाने के बाद ऐसा ही मांस शेरों ने भी खाया हो।
12 सितंबर से एक अक्तूबर के बीच गीर में 23 शेरों की मौत हुई। इसमें से 21 शेरों में सीडीवी यानी कैनाइन डिस्टेंपर वायरस के संक्रमण की पुष्टि हुई है। यह वही बीमारी है जिसने एक समय सेरेंजेटी के शेरों में महामारी की तरह फैल गई थी और इससे वहां के शेरों की एक-तिहाई आबादी साफ हो गई। माना जाता है कि यह बीमारी कुत्तों के जरिए फैलती है। कुत्तों से यह अन्य जीवों तक, फिर जलाशयों तक और फिर शेरों तक फैल जाती है। सीडीवी के चलते गीर के शेरों के सामने भी अस्तित्व का संकट गहरा रहा है। जबकि, सरकारी तौर पर इससे जुड़े तथ्य छिपाने की कोशिश की जा रही है।
जबकि, एक घटना के कई सारे पश्च परिणाम हो सकते हैं। इससे भी शायद यही नतीजे निकलते हैं। इस मुद्दे पर पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली पत्रिका डाउन टू अर्थ ने एक अच्छी-खोजपरक स्टोरी की है। जिसका लिंक नीचे कमेंट बाक्स में है। बाकी एशियाई शेरों की फोटो इंटरनेट से साभार।
Kabir Sanjay
10 October at 19:59 ·
आशंका सही साबित हुई। गीर के शेर बेहद खतरनाक कैनाइन डिस्टेंपर वाइरस (सीडीवी) के संक्रमण का शिकार हो रहे हैं। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने 21 शेरों में इस संक्रण की पुष्टि की है। जान लें कि पिछले तीन सप्ताह के भीतर गुजरात के गीर में 23 शेरों की मौत हो चुकी है।
यह वायरस कितना खतरनाक है, यह इससे समझा जा सकता है कि इसके संक्रमण के चलते 1994 में पूर्वी अफ्राकी के शेरों की 30 फीसदी आबादी मारी गई थी। भारत के वन्यजीव विशेषज्ञ लंबे समय से इस तरह की महामारी की आशंका जता रहे थे। इससे बचने के लिए वे शेरों की आबादी के एक हिस्से को गीर से बाहर मध्य प्रदेश के कूनो राष्ट्रीय पार्क में बसाने का अनुरोध कर रहे थे। सुप्रीम कोर्ट भी 2013 में इस पर मुहर लगा चुका है। लेकिन, हमारे यहां राजनीति इंसानों की जान पर जब भारी है तो जानवरों की कौन कहे।
गुजरात सरकार इसे अपनी निजी संपदा की तरह समझती रही है। इसके चलते इसे अन्यत्र स्थानांतरित नहीं किया गया और आज इनकी मौत तेजी से हो रही है।
इन मौतों के बाद एक बार फिर से शेरों की आबादी के एक हिस्से को गुजरात से बाहर बसाने की मांग तेज हो गई है। पर देखिए, राजनीति कितनी इजाजत देती है।
Anand R
57 mins ·
कई लोगों के लिए गाय वो उपयुक्त पशु है जिसके नाम पर वे जनता का दोहन कर सकते हैं उससे अधिक कुछ नहीं । बड़ी दुखद स्थिति है ।
दो दिन पहले भारत की कई गौ प्रजाति के फोटो मैंने लगाए थे यह कहकर कि गौभक्त कहलानेवाले ज़रा इनकी पहचान करें । देखें तो सही कितने पहचानते हैं ? हर फोटो को नंबर दिया था ताकि नंबर के साथ पहचान लिखी जाये । ये भी लिख दिया था कि कई प्रजाति के फोटो मिले नहीं और कुछ का मैंने भी समावेश नहीं किया । देख रहा था कितने फेसबुकिया गौभक्त पहचान जाते हैं और कुछ कहते हैं ।
पोस्ट लाइक पाने के लिए नहीं लिखी थी।
एक भी काम का कमेन्ट नहीं था । एक ने तो कमाल कर दी । जब पोस्ट के शुरुआत में ही फोटो क्यों लगाए हैं यह प्रयोजन साफ लिखा है और नाम नहीं दिये, फिर भी लिख दिया कि आप को नाम देने चाहिए थे, हमारी जानकारी बढ़ जाती । इन्हें साष्टांग दंडवत प्रणिपात !
गोवंश से किस तरह अर्थार्जन किया जा सकता है इसपर भारत में दो लोग (मेरी जानकारी में) ठोस मार्गदर्शन कर रहे हैं । सुभाष पालेकर जी और गजानन्द अग्रवाल जी । हालांकि गजानन्द जी पालेकर जी से सहमत नहीं होते, लेकिन दोनों को फॉलो करनेवाले लोगों की अलग अलग सक्सेस स्टोरीज़ दिखती हैं ।
गजानन्द जी का अपना यू ट्यूब चैनल है जहां 1200 घंटे से अधिक का कंटेन्ट है, अधिकतर सफल किसानों से ऑन साइट साक्षात्कार हैं और वे अपने मेथड्स बताते हैं ।
पालेकर जी को फॉलो करनेवाले दो लोगों को प्रत्यक्ष जानता हूँ । आगरा वाले आनंद शर्मा जी और दूसरे हैं महाराष्ट्र से सुभाष सिंह वर्मा जी । आनंद शर्मा जी से कई बार मिला हूँ, उनके घर पर अतिथि रहा हूँ । वर्मा जी से फोन पर बात होती रहती है, दोनों भी महज आभासी लोग नहीं हैं।
दुधारू नहीं ऐसे खिलार गोवंश के सहारे भी मेहनत कर के गरीब से अमीर बने महाराष्ट्र के सातारा के अकालप्रवण इलाके के अशोक इंगावले से भेंट कर के आया था 2016 में, उनके बारे में भी लिखा था। खेती से कमाए हैं वे, दुघ उत्पाद से नहीं ।
जानकारी के लिए वाहवाही मिली लेकिन किसी को आगे जानना नहीं था।
गायों के फोटो वाली पोस्ट में यह भी लिखा था कि इनमें से कई प्रजातियाँ विलुप्त होने की कगार पर है । लेकिन किसी को कारण नहीं जानने थे । बताता हूँ – वे प्रजातियाँ दुधारू नहीं हैं और अब लोगों को श्रम के लिए बैल की आवश्यकता नहीं लगती। ट्रैक्टर की खुदाई से जमीन का खास लाभ नहीं होता और रासायनिक खाद से नुकसान सर्वविदित हैं । फिर भी बैल से जुताई कोई नहीं करना चाहता। उन्हें गाय चाहिए तो भरपूर दूध देने वाली ही, इसलिए विदेशी ही पालते हैं जो थन में मशीन का चिमटा लगाकर दूध देती हैं, देसी गाय अक्सर नहीं देती। अक्सर इसलिए लिखा है कि कुछ वीडियो ऐसे भी देखने में आए, जहां गोपालकों का कहना है कि बछड़ा – बछिया सामने न हो उसे चाटती न हो तो देसी गाय दूध नहीं निकालने देती ।
याने मानवी स्वार्थ ही गाय को खाये जा रहा है । केरल में तो कुछ वर्ष पहले वहाँ की बौनी गाय “वेचूर” को पालना और वंश संवर्धन करना केरल सरकार ने ही गैर कानूनी घोषित कर दिया था। शुद्ध देशी गोवंश का संवर्धन, भारत के किसानों को भी अप्रासंगिक लगने लगा है, विशुद्ध साहिवाल नंदी की कोई प्रचुरता नहीं है । बाकी दो चार गिने चुने छोड़कर अन्य नस्लों में शुद्धता की किसी को कोई पड़ी नहीं है ।
और हाँ, अप्रमाणित दावों और नारों की भरमार है । जो सवाल करे उसको ट्रोलिंग करो, हो गया काम ।
वैसे ये निजी अनुभव के आधार पर कहनेवाले लोग भी मिले कि गिर जैसी दुधारू नस्लें भी जगह बदलने पर बहुत कम दूध देती हैं । अब ये तो साधारण व्यक्ति थे, वैसे आप उन्हें सम्पन्न कह सकते हैं, लेकिन उन्नत नस्ल बनाने के लिए जो साधन आदि लगते हैं वे उनके बस की बात नहीं थी और पूर्णकालिक गोपालन भी उनका व्यवसाय नहीं था। शौक से गाँव में गायें पाली थी, दिल्ली में उनका बिज़नस है । लेकिन अशोक इंगावले जी का भी कहना यही था कि देसी गायें जहां की होती हैं वहीं सर्वाधिक दूध देती हैं, कहीं और जगह जानेपर वह और कम होता है ।
अस्तु, देसी गाय से आर्थिक लाभ होता है उसके गोबर गोमूत्र से, लेकिन उनका उपयोग कृषि में और वह भी प्लानिंग से करें तो होगा। ऐसे ही अगरबत्ती धूप बत्ती फ़िनाइल कितना बेचेंगे ? और उसमें पसीना बहाने का कोई पर्याय नहीं होता।
A 2 दूध की महिमा अपरंपार सुनने मिलेगी लेकिन यह डाटा उपलब्ध नहीं कि अलग अलग नस्ल की गायों के दूध के कोई अलग अलग गुणधर्म होते हैं या नहीं ? होने तो चाहिए, लेकिन डाटा नहीं मिलता । A 2 के झण्डाबरदारों से पूछें तो “नहीं देसी गाय का दूध A 2 ही होता है” कह कर बात गोल कर जाते हैं हालांकि दूध के रंग से लेकर घी के रंग, स्वाद और गंध आँखों को दिखाई देते हैं, नाक और जीभ को महसूस होते हैं । आज भी अलग अलग जगहों के घी में बनी मिठाइयों की अलग अलग कीमत वसूली और खुशी से दी जाती है। तो फिर लैब टेस्टिंग क्यों नहीं ?
करने को तो ढेर सारी बातें हैं, लोग गोपालन करेंगे तो गोरक्षा भी अपने आप होगी और अच्छा कमाएंगे भी लेकिन चूंकि उसमें मेहनत लगती है, मोदी जी को गोहत्या को लेकर गालियां देना आसान है, सहमत होनेवालों की कमी नहीं, अच्छा भी लगता है चने के पेड़ पर चढ़कर । इसीलिए कहा कि कई लोगों के लिए गाय वो उपयुक्त पशु है जिसके नाम पर वे जनता का भावनिक और आर्थिक दोहन कर सकते हैं उससे अधिक उन्हें कुछ करना है नहीं ।
dr ML Parihar
20 May at 09:32
गांव में बिजनेस की तरह बकरियां पालो, किसी को शहर जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी..
मैं …और बकरियां पालू ? कतई नहीं. हायर सैकंडरी इसके लिए थोड़े ही पास की थी. पिताजी ने यह काम कर लिया.. मैं तो अब शहर जाकर कोई बढ़िया नौकरी करूंगा .
बस, यही सोच ग्रामीण युवाओं का शहर की ओर पलायन की एक बड़ी वजह है. पशुपालन में रोजगार की अपार संभावनाएं है. यदि वैज्ञानिक ढंग से बिजनेस की तरह किया जाए तो आर्थिक कायापलट हो सकती हैं.
बकरी पालन गरीब ग्रामीणों द्वारा किया गया जाने वाला बिजनेस माना जाता है. इसके प्रोडक्ट्स यानी मांस, दूध, चमड़ा, मिगनी खाद की कीमतें हमेशा बढ़ती रहती है और मांग कभी खत्म तो छोड़ो, कम भी नहीं होती है.
आरक्षण खत्म तो सरकारी नौकरियां भी एक ही पीढी में खत्म हो गई है. ऐसे में ग्रामीण युवा आठ दस हजार रुपये की प्राइवेट नौकरी के चक्कर में शहर में जीवन भर संघर्ष करता है. दड़बेनुमा किराए के मकान में रहना, सेठ की दुकान या फैक्ट्री में ही नौकरी करना, वही सोना और दमघोंटू माहौल में जीवन गुजारना. यही हर जगह की दास्तान है.
बकरी पालन बहुत कम पूंजी में, कम समय में अधिक लाभ कमाया जाने वाला बिजनेस है लेकिन हमारे युवाओं ने इसको हीन समझ कर छोड़ दिया. लेकिन याद रखो कपड़ा, जूता, लघु कुटीर उद्योग, पशुपालन जैसे लाभकारी पुश्तैनी धंधे को आप छोड़ते जाएंगे दूसरे लोग इसे अच्छा व ऊंचा बता कर अपनाते जाएंगे.
आने वाले समय में उनकी कंपनियां गांव में ही ‘गोट फार्म’ खोलेंगी और आप वहां मिगनी साफ करने की मजदूरी करेंगे. दरअसल हमने लाभकारी पुश्तैनी धंधों को वैज्ञानिक और बिजनेस की तरह नहीं किया.
देश में बकरी की सिरोही, जखराना, बरबरी, बीटल, मारवाड़ी, जमुनापारी, तोतापरी जैसी एक से बढ़कर एक नस्लें मौजूद हैं जिनसे बहुत अच्छी इनकम कर सकते हैं. बड़ी बात यह है कि इसके प्रॉडक्ट्स की बिक्री के लिए मंडी, बिचौलियों या सरकार की नीतियों पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है बल्कि खरीददार खुद पशुपालक की चौखट पर हाथ जोड़े खड़े रहता है और मुंह मांगे दाम देता है .फिर जीएसटी का कोई झंझट नहीं.
ग्रामीण, बहुजन युवाओं ने तो सरकारी नौकरी की मृगतृष्णा में इस बिजनेस को छोड़ दिया लेकिन दूसरी कई जातियों के युवा उद्यमी इसे बड़े बिजनेस की तरह करते हुए धन कमा रहे हैं और विशेष अवसरों पर तो मुंह मांगे दाम मिलते हैं.
अरब देश जितना कच्चे तेल से धन कमाते हैं उतना ही धन भारत के ग्रामीण युवा बकरी पालन से कमा सकते हैं और ऑर्गनिक खाद का भंडार ले सकते है लेकिन विडंबना यह है की समाज व सरकारें इस पर कोई ध्यान नहीं देती हैं क्योंकि बकरी के नाम पर न वोट मिलता है और न दान.
गौर करें कि कुछ लोग दिखावे के लिए मांस, मछली, अंडे का विरोध कर ढोंग करते है लेकिन इन्हीं प्रोडक्ट्स का बड़ा बिजनेस कर अमीर बनते है.
बकरीपालकों को विशेष आर्थिक सहायता या प्रोत्साहन नहीं मिलने के कारण युवा इसकी ओर आकर्षित नहीं होते हैं जबकि उत्पादन नहीं करने वाली गायों के लिए हर राज्य करोड़ों रुपयों का अनुदान दे देता है.
अब खेती बाड़ी में खतरे बहुत है. बेमौसम की वर्षा,ओलें, सिंचाई की कमी और कीमतों में भारी उतार चढ़ाव से किसान बहुत मुश्किल में है लेकिन पशुपालक के परिवार में हमेशा कुछ न कुछ आय होती रहती हैं. बकरी पालन से गरीब परिवार आर्थिक व सामाजिक रुप से समृद्ध होंगे साथ ही शुद्ध दूध से परिवार का स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा.
आर्थिक समृद्धि के बिना हमारा उद्धार नहीं, धन की कमी से सारे मिशन धराशायी हो जाते हैं.
सबका कल्याण हो …..सभी निरोगी हो
आलेख: डॉ.एम एल परिहार, जयपुर