सुधीर चौधरियों और रवीश कुमारों की बातों पर भरोसा मत करिए. ये पेड लोग हैं. ये दोनों अपने-अपने मालिकों के धंधों को बचाने-बढ़ाने के लिए वैचारिक उछल कूद करते हुए आपको बरगलाएंगे, भरमाएंगे, डराएंगे, अपने पक्ष में खड़े होने के लिए उकसाएंगे और इसके लिए देर तक व दूर तक ब्रेन वाश करते चलते जाएंगे…
रवीश कुमार को हर पत्रकार डरपोक दिखने लगा है. उन्हें दिल्ली में डर लगने लगा है. हर किसी का फोन टेप होता दिखने लगा है…लोकतंत्र में सारा सत्यानाश हुआ दिख रहा है…ये दौर भाजपा राज का है सो एनडीटीवी को अंधेरा ही अंधेरा दिख रहा है और रवीश कुमार सुर ताल भिड़ाकर गाने में जुटे हैं- ”अंधेरे में जो बैठे हैं, नजर हम पर भी तुम डालो…. अरे ओ रोशनी वालों…”
कुछ ऐसा ही हाल तब जी ग्रुप का था, जब कांग्रेस राज में उगाही के मामले में सुधीर चौधरी उठाकर जेल भेज दिए गए थे और सुभाष चंद्रा प्राण बचाए भागते फिर रहे थे. तब जी न्यूज को सब कुछ खराब होता हुआ, हर ओर अराजकता की स्थिति, अभिव्यक्ति की आजादी का गला घुटा हुआ, आपातकाल सरीखा माहौल दिख रहा था… तबके जी न्यूज के एंकर सुर ताल भिड़ाकर कुछ वैसा ही गीत गाए बकबकाए जा रहे थे.
दोस्तों, भारत अदभुत देश है. यहां कोई मोदी आए या कोई मनमोहन, जनता को बहुत फरक नहीं पड़ता. भारत वाले बहुत संतोषी और मस्त जीव हैं. जब हम सब अंग्रेज को सौ साल तक झेल गए जो कि बाहरी और विदेशी थे, फिर ये मनमोहन, मोदी तो अपने ही देश के हैं. मनमोहन ने क्या बना-बिगाड़ दिया था और मोदी ने क्या रच-उखाड़ लिया है…तब भी अंबानी बिरला लूट रहे थे, सत्ता के प्रिय बने हुए थे… आज भी अंबानी अडानी बिरला सब लूट रहे हैं, सत्ता के प्रिय बने हुए हैं… तब भी जो ‘अप्रिय’ थे उन्हें ठीक करने के लिए ढेर सारे सरकारी कुकर्म किए जाते थे, आज भी जो ‘अप्रिय’ हैं, उनकी हंटिंग होती रहेगी…
कांग्रेस के जमाने में जो आर्थिक नीति थी, वही भाजपा के जमाने में है बल्कि भाजपा वाले कांग्रेस से कुछ ज्यादा स्पीड से उनकी सारी पालिसिज लागू कर रहे हैं.. जीएसटी से लेकर फारेन इनवेस्टमेंट और प्राइवेटाइजेशन को देख लीजिए… इसलिए उनके नाम पर डराकर इनके पाले में करने का खेल वही नहीं समझेगा जो वाकई दिमाग से पैदल होगा…
धर्म जाति की पालिटिक्स हर वक्त थी. 1857 की क्रांति से लेकर किसान विद्रोहों तक में धर्म जाति के आधार पर गोलबंदियां की गई थीं. आजादी के इतने सालों बाद भी गोलबंदियां इसी आधार पर होती रही हैं. कांग्रेस वाले धर्म-जाति-क्रांति आदि के समस्त पैकेज का इस्तेमाल रणनीतिक तौर पर समय व माहौल देखकर करते रहते हैं, बिलकुल ‘निर्दोष’ अंदाज में.. पर भाजपाई और अन्य पार्टियां वही काम खुलकर ‘भदेस’ तरीके से कर रही हैं..
जनता चेतनासंपन्न होती जाएगी तो उनके सोचने विचारने और वोट देने का पैर्टन बदलता जाएगा. इसमें कोई घबड़ाने वाली बात नहीं है. हम मनुष्य आज जहां तक पहुंचे हैं, वहां तक किसी पैराशूट से हमें नहीं लाया गया है बल्कि हम क्रमिक विकास और इवोल्यूशन की हजारों लाखों करोड़ों साल की यात्रा करके आए हैं… ये यात्रा जारी है और सब कुछ बेहतर होगा, ये उम्मीद करते रहना चाहिए…
जो लोग भाजपा से डराकर हमको आपको कांग्रेस के पक्ष में गोलबंद करना चाहते हैें उनको बताना चाहता हूं कि कांग्रेस ने सबसे ज्यादा कम्युनिस्ट नौजवान अपने राजकाज के दौरान मरवाए हैं. वो चाहे पश्चिम बंगाल में नक्सलबाड़ी आंदोलन को कुचलने का काम रहा हो या पूरे देश में कांग्रेसियों द्वारा चलाए गए नक्सल-कम्युनिस्ट विरोधी अभियान के जरिए बड़े पैमाने पर छात्रों, किसानों-मजदूरों का सफाया करवाना रहा हो.
इसी कांग्रेस ने लाखों सिखों का कत्लेआम पूरे देश में अपने नेताओं के नेतृत्व में कराए. सारे पाप इन कांग्रेसियों ने कराए और सिखाए हैं. इसलिए भाजपा का डर दिखाकर आपको जिनके पक्ष के सपने दिखाए जा रहे हैं, जिनके पक्ष में हमें गोलबंद करने को उत्तेजित-उत्प्रेरित किया जा रहा है, वे ज्यादा बड़े पापी हैं. भाजपा वाले तो बड़े पापियों से थोड़ा बहुत सबक सीखकर आए हैं और इसका समय समय पर नौसिखियों की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं, और इस प्रक्रिया में पकड़े भी जा रहे हैं. कांग्रेस के जमाने में भी सीबीआई का रोजाना गलत व मनमाफिक इस्तेमाल होता था, आज भाजपा के राज में भी हो रहा है. सत्ता में आपने पर सबका चरित्र एक-सा हो जाता है, इसे समझ लीजिए क्योंकि सत्ता खुद में एक संस्था होती है जो सबसे ज्यादा मजबूत और सबसे ज्यादा संगठित होती है. सत्ता में भाजपाई आएं या कांग्रेसी या कम्युनिस्ट या सपाई या बसपाई या कोई और… सबकी कार्यशैली अंतत: सत्ता परस्ती वाली यानि बड़े लोगों के पक्षधर वाली हो जाती है… जनता तो बेचारी जनता ही बनी रहती है, थोड़ी कम, थोड़ी ज्यादा… वो अपने मित्र जेपी त्रिपाठी एक जगह लिखते हैं न- ”बाबू हुए तुम, राजा हुए तुम, आदमी बेचारे के बेचारे हुए हम…”
भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा आदि इत्यादि ढेरों पार्टियां जो हैं.. .ये सब पावर की लालची हैं, सत्ता की लालची हैं, पैसे की लालची हैं, पूंजीपरस्त हैं, झूठे और मक्कार हैं. जनविरोधी हैं… ब्लैकमनी के केंद्र हैं… हरामीपने और उपद्रव की कुंजी हैं… इनके चक्कर में न फंसिए. इन पार्टियों ने अब अपने अपने टीवी चैनल गढ़ लिए हैं. जो सत्ता मेंं होता है, उसकी तरफ मीडिया परस्ती ज्यादा होती है, उसकी तरफ न्यूज चैनल ज्यादा झुके रहते हैं. जैसे सूरज की तरफ सारे फूल पौधे और वनस्पतियां झुकी होती हैं. रीयल जर्नलिज्म अगर कोई कर रहा है तो वह सोशल मीडिया मे थोडा बहुत हो रहा है, वेबसाइटों और ब्लागों के जरिए थोड़ा बहुत हो रहा है. ये बाजारू मीडिया वाले, ये एनडीटीवी और जी न्यूज वाले तो बस टर्नओवर जोड़ रहे हैं, फायदे देख रहे हैं…
चिदंबरम की गोद में बैठकर जब प्रणय राय टूजी स्कैम के पैसे के ब्लैक से ह्वाइट कर रहे थे तो रवीश कुमार को दिल्ली में घना अंधेरा नहीं दिख रहा था… जब एनडीटीवी और चिदंबरम के स्कैम को उजागर करने वाले ईमानदार आईआरएस अधिकारी एसके श्रीवास्तव को पागलखाने भिजवा गया था तो रवीश कुमार की संवेदना नहीं थरथराई और उनको मनुष्यता व लोकतंत्र के लिए एक भयावह दौर नहीं दिखा. अब जब उनके मालिक की चमड़ी उनके काले कारनामों के चलते उधेड़ी जा रही है तो उन्हें सारी नैतिकता और दुनिया भर के सारे आदर्श याद आने लगे हैं… उनका बस चैनल की स्क्रीन पर फूट फूट कर रोना ही बाकी रह गया है..
अरे भइये रवीश कुमार, तू अपनी सेलरी भर पूरा पैसा वसूल एक्टिंग कर ले रहा है… उसके बाद आराम से रह.. चिल्ल कर… एक्टर वैसे भी दिल पर नहीं लेते… रोल खत्म, पैसा हजम… उसके बाद घर परिवार और मस्ती…इस अदभुत देश को और यहां की फक्कड़ जनता को कुछ नहीं होने जा रहा… बहुत आए गए शक हूण कुषाण मुगल अंग्रेज और ढेरों आक्रांता… देश नहीं मरा न मरेगा… आप कृपा करके एनडीटीवी के शेयरों का भाव डबल दिखाकर बैंक को चूतिया बनाकर कर्ज लेने के फर्जीवाड़े की सच्चाई पर एक प्राइम टाइम डिबेट करिए जिसमें बैंक के प्रतिनिधि समेत सभी पक्षों को लाकर स्टूडियो में बैठाइए बुलाइए और दूध का दूध पानी पानी कर दीजिए… आप जरा एनडीटीवी-चिदंबरम के सौजन्य से पागलखाने भिजवाए गए आईआरएस अधिकारी एसके श्रीवास्तव को भी बुला लीजिएगा पैनल में जो सुना देंगे आपके एनडीटीवी चैनल और इसके मालिक प्रणय राय की चोरी की 100 कहानियां…
रवीश जी, युवाओं को भरमाना छोड़िए… सच्ची पत्रकारिता का नाटक बंद करिए… हां, पेट पालने के लिए आपको सेलरी की जरूरत पड़ती है और प्रणय राय को एक ऐसे एंकर की जरूरत पड़ती है जो उनको डिफेंड कर सके तो आप दोनों की जोड़ी ‘जेनुइन’ है, उसी तरह जैसे सुधीर चौधरी और सुभाष चंद्रा की है. कांग्रेस राज में जिस तरह संघिये सब डराते थे कि जल्द ही भारत में कांग्रेस के सहयोग से मुस्लिम राज आने वाला है, उसी तरह भाजपा के राज में एनडीटीवी वाले डरा रहे हैं कि बस सब कुछ खत्म होने वाला है क्योंकि मोदिया अब सबका गला ही घोंटने वाला है…
अरे यार बस करो… इतना भी हांका चांपा न करो… प्रणय राय की थोड़ी पोल क्या खुल गई, थोड़ी चड्ढी क्या सरका दी गई, आप तो अपने करियर का ‘द बेस्ट’ देने पर उतारू हो गए… पोलैंड से लेकर न्यूयार्क टाइम्स और ट्रंप से लेकर प्रेस कार्प की नैतिकता के पत्र के जरिए प्रणय राय को दूध से नहलाकर पवित्र कहने को मजबूर करने लगे….
हम लोगों को यकीन है कि जितनी चिरकुटई कांग्रेस शासन के राज मेंं हुई, उससे काम ही भाजपा के राज में होगी क्योकि भाजपाइयों को अभी संपूर्ण कांग्रेसी चिरकुटई सीखने में वक्त लगेगा… हां, ये पता है कि दोनों ही पूंजीपतियों को संरक्षण देकर और उनसे आश्वस्ति पाकर राज करते हैं इसलिए इनके शासनकालों में जनता का बहुत भला न होने वाला है.. और, जनता बहुत बुरे में भी या तो मस्त रहती है या फिर मारपीट करती है या फिर सुसाइड कर लेती है. उसे अपने रास्ते पता हैं… उसके लिए नए रास्ते न तो आपके प्राइम टाइम लेक्चर से खुल सकते हैं और न ही मोदी जी के ‘देश बदल रहा है’ के जुमलों से…
रवीश भाई और सुधीर चौधरी जी, लगे रहिए… आप दोनों को देखकर यकीन होने लगा है कि एक कांग्रेस और दूसरा भाजपा का प्रवक्ता कितना दम लगाकर और कितना क्रिएटिव होकर काम कर रहे हैं… बस इतना कहना चाहूंगा कि ये देश इस छोर या उस छोर पर नहीं जीता है और न जीता रहा है… इस देश का अदभुत मिजाज है… वह कोई नृप होए हमें का हानि की तर्ज पर अपने अंदाज में अपनी शैली में जीवित रहा है और जीवित रहेगा.. पहाड़ से लेकर मैदान तक और रेगिस्तान से लेकर समुद्र तटीय इलाकों तक में फैले इस देश में अंधेरा लाने की औकात न किसी मोदी में है और न किसी मनमोहन में हो सकी…
फेसबुक के साथियों से कहना चाहूंगा कि इस छोर या उस छोर की राजनीति-मीडियाबाजी से बचें.. दोनों छोर बुरे हैं… दोनों निहित स्वार्थी और जनविरोधी हैं.. सारा खेल बाजारू है और इसके उपभोक्ता हमकों आपको बनाया जा रहा है, जबरन… आप रिएक्ट न करें.. आप मस्त रहें… जीवन में राजनीति-मीडिया के अलावा ढेर सारा कुछ है लिखने करने पढ़ने देखने को… इस भयानक गर्मी में जाइए घूम आइए पहाड़… चढ़ जाइए हिमालय की उंचाई और अपनी आत्मा तक को पवित्र और मस्त कर आइए… देह के पार देख आइए और रुह संग बतिया आइए… ये रवीश कुमार और सुधीर चौधरी तो लाखों रुपये लेता है, जैसा मालिक कहता है, वैसा स्क्रिप्ट पढ़ता है… एक का मालिक कांग्रेस के गोद में बैठा रहता है, दूसरे का भाजपा की गोद में… इनके चक्कर में अपनी नींद, उर्जा और धैर्य बर्बाद न करिए… जाइए, हिमाचल उत्तराखंड आपको बुला रहा है… किसी जाती हुई सामान्य सी सरकारी बस पर बैठ जाइए और चार पांच सौ रुपये में पहाड़ की बर्फ से ढकी चादर को हिला आइए…
जाइए अपनी जिंदगी जी आइए और भटक मरने से बच जाइए…. ध्यान रखिएगा, सारा प्रपंच यह तंत्र आपको भटकाने और मुर्दा बनाने के लिए रचता है… ताकि आपका खून पीकर वह अपने को अमर रख सके…
वो कहते हैं न कबीर… साधो ये मुर्दों का गांंव… और ये भी कि… भटक मरे न कोई….
तो दोस्तों, मुर्दों से दिल लगाना बंद कर दीजिए और भटक मरने से बचने की तरकीब ढूंढने में लग जाइए… शायद जीवन का मतलब मकसद समझ में आ जाए…
जैजै
यशवंत
भड़ास के एडिटर यशवंत सिंह की एफबी वॉल से. संपर्क : yashwant@bhadas4media.com
YASHWANT SINGH SE SAHMAT , MAGAR EK BAAT TO HAI KE RAVISH KUMAR AAJ KAL HINDI PATRKAARITA KI IJJAT BACHAYE HUE HAI !
भारत की राजनितीमे हिंदुत्व हो या सेक्युलरीझम ये दोनो ही रेल की पटरी की तरह है. दिखते दो अलग पर जाते है एक ही जगह.
और ऱाजनेता रेलगाडी होते है, और जनता पँसेंजर.जो दाये बैठा हो उसे सिर्फ दाये ने आने वाले पेड,खेत, घर दिखाइ देते है और जो बाये बैठा है ऊसे बायी तरफ के. Left,Right ये बहोत सही शब्द है.
मुझे सिर्फ एक और बात इसमे जोडनी है. राजनिती बुरी नही है. लेखक ने राजनेताओ का चित्र नकारात्मक बनाया है. राज किसी का भी हो काँग्रेस, भाजपा, हम आगे बढते रहते है. हा कभी कभार कुछ दौर बुरे भी होते है. तो ऐसेमे हमे शांतीसे काम लेना होता है. राजनेता भ्रष्ट होते जरुर है पर वो काम भी करते रहते है. अब हमारा देश युरोप या अमेरीकी तरह नही बन सकता है क्युं की हमारी आबादी और कुल क्षेत्र के हिसाब से बहोत जादा है. यही बात हमे रोके रोकती है.
ये सब पुरा एक system है. हम इसके हिस्से है. युवाओको लगता है कि system ही खराब है. पर ये एक नकारात्मक सोच है. हमे एेसा कहना चाहीये system is in the phase of run time upgradation.
एक निष्पक्ष लेख
बहुत हि सर्थक लेख् एक्दम सहि कहा है यश्वन्त जि ने !
सुधीर एक अपराधी था, इसलिए घबराया हुआ था, उसके साथ इस अपराध मे उसका मालिक सुभाष चंद्रा भी शामिल था.
रवीश ने कोई अपराध नही किया है. जिस बात के लिए, CBI ने रेड डाली, वो भी अपराध नही है, उस मुद्दे पर, प्रणोय रॉय भी अपराधी नही है.
यशवंत सिंह, CBI की रेड, और सुधीर चौधरी के बहाने दोनो पत्रकारो को अपराधी या अपराधी मालिको के नौकर की तरह बतला कर, एक जैसा साबित करना चाह रहे हैं. जबकि पत्रकारिता के मूल्यों मे दोनो की कोई तुलना ही नही की जा सकती.
ndtv ने icici से जो लोन 9 साल पहले लिया था, उसे 6 महीने मे ही चुका दिया, और इस लोन मे 40 करोड़ का ब्याज, icici ने माफ़ कर दिया. और icici ने इसकी कोई शिकायत भी नही की. निधि राज़दान ने संबित पात्रा से जिस तरीके से बात की, उसको देख के लग ही रहा था कि बीजेपी चुप नही रहने वाली.
चलिए, अब अगर किसी को लगता है कि ndtv ने कुछ ग्लात नही किया है, तो CBI के रेड से क्या डरना? देखिए ये रेड NDTV को डराने के लिए नही है. रविश, श्रीनिवास, राजदीप, कमाल ख़ान अपने पेशे के प्रति ईमानदार लोग है, उन्हे इससे फ़र्क भी नही पड़ेगा. ये रेड बाकी चैनल्स और पत्रकारो को डराने के लिए है. जिनमे हिम्मत नही, बिकने की बड़ी कीमत लेके, आराम से जिंदगी बसर करो.
CBI को बेहद ज़रूरी मसलो मे सरकार के निर्देश पे शामिल किया जाता है. वैसे, हर केस के लिए, हमारे यहाँ न्यायपालिका है. सवाल यही है कि, अगर कोई अनियमितता थी भी, तो CBI को बीच मे लाने की क्या ज़रूरत थी? यहाँ तो लोन चुका दिया गया. icici ने अपनी तरफ से कोई शिकायत नही करी. लेकिन सरकारी बैंको का हज़ारो करोड़ रुपया डकारने वालो के उपर CBI जाँच बैठी? यशवंत जी, सरकार की इस घटिया हरकत के लिए, सुधीर चौधरी जैसे बिके हुए पत्रकार की बुराई कर के, आप निष्पक्ष दिखने की कोशिश कर रहे हो, जिसमे बेवकूफ़ लोग ही फँसेंगे.
आप के पास क्या सबुत है कि ndtv ने कुछ ग्लात नही किया है ? क्या आप ndtv के वहिखाते देखते है जो आप को सब पता है ?
यशवंत जी, ये कह रहे हैं कि देश का व्यक्ति ना इस सिरे पे है, ना दूसरे सिरे पे. तो ध्यान रखिए कि बीजेपी और कम्युनिस्ट पार्टियाँ ही विचारधारा के हिसाब से दो धुरो पे हैं, बाकी मध्यम मार्गी राजनीति के बहुत से विकल्प देश मे है, या ढूँढे जा सकते है.
लेकिन राजनीति या मुद्दो की समझ, एक आम मतदाता मीडिया के ज़रिए बनाता है. वरना बेहद शिक्षित व्यक्ति भी हर विषय के बारे मे तब तक सही राय नही बना सकता, जब तक उसके बाद सही तथ्य नही आते. अगर, सारे चैनल्स सिर्फ़ सैनिको की आड़ मे ज़ज्बात ही परोसेंगे, तो देश का आम नागरिक भी एक छोर को समर्थन करने लगेगा. बीजेपी की राजनैतिक सफलता मे इस रणनीति का प्रयोग हुआ है.
मैने इन 4-5 दिनो मे देखा है कि NDTV को पसंद करने वाले, कई लोग मिले कि यार ये भी भ्रष्ट निकला. CBI की रेड पड़ गयी. बिना ये जाने कि कौनसा मसला था, क्या मसला था. ये चरित्रा पे लांछन लगाने का बेहद पतित तरीका था.
उससे भी घटिया, जो बीते साल. पठानकोट हमले की कवरेज के हवाले से लगाया था.
मैं इस बात से सहमत हूँ कि ये हमला सिर्फ़ NDTV पे नही है, ये हमला दर्शक को ख़त्म करने के लिए है. उस तक सही सूचनाओ को पहुँचने से रोकने के लिए है.
इससे पहले भी रवीश के भाई, बृजेश को सेक्स रेकेट के झूठे केस मे फँसाया गया था. अगर उस केस की भी जानकारी ढुंढोगे तो पता लगेगा कि बृजेश का नाम मजिस्ट्रेट के सामने दिए बयान मे नही था, उसे बाद मे डाला गया. ये यूपी चुनाव से पहले किया गया था, जिससे रवीश द्वारा उठाए गये, मुख्य सवालो के जवाब मे उसके भाई का मुद्दा उठा सके.
ये सबसे ख़तरनाक मोड़ है, हाल के वर्षो मे इस देश मे आया.
I seen both programme DNA as well as Prime Time but there is a lot of difference.
आप कहा ये छोटी मोटी बातो की सत्यता और वैधता मे ऊलझे हुवे है. NDTV छोड दो, रविश कुमार छोडदो, मोदी, ममता छोडदो. आप जिस गाव मे रहते हो ऊस गाव के सौ दुकान दारो का वित्तीय अध्ययन करो. अगर दस लाख कि सालाना कमाइ हो तो IT Returns पाच लाख के ही भरते है. ऊसमे तरह तरह के Tax rebates लेकर जितना कम हो सके उतना कम Tax भरते है. भारत का ही नही पुरी दुनीया के हर कारोबारी ऐसा करते है. यही से सारा हेर फेर शुरु होता है.
सत्य को घटना की वैधता पर ढुंढना आधे सत्य को सत्य मानने कि तरह है.
सत्य की खोज तो निरंतर प्रक्रिया है. इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही पाया जा सकता है, भले ही धर्म हो या आध्यात्म. ये दृष्टिकोण कालजयी है.
वैज्ञानिक दृष्टिकोण सिर्फ़ सूचनाओ का संग्रह नही, सूचनाओ के विश्लेषण का सामर्थ्य है. सूचनाए और रेशनल थिंकिंग साथ साथ बढ़ती है. इसलिए पत्रकार के लिए ज़रूरी है, कि वो ज़्यादा से ज़्यादा सूचनाए, विशेषकर सरकार की नीतियों संबंधी हम तक पहुँचाए.
विभिन्न नज़रियों से सूचनाओ को देखने पर, नयी सूचनाओ और बेहतर समझ का निर्माण होता है. इस समझ के निर्माण मे मीडिया एक आवश्यक कड़ी है.
लोकतंत्र के लिए मजबूत मीडिया की आवश्यकता इसलिए भी है कि लोकतंत्र मे हर नागरिक को सरकार निर्माण मे योगदान का अवसर दिया जाता है. लेकिन जब हमारी समझ इन विषयो पर बनेगी ही नही तो हमारे निर्णय कितने सही होंगे, और हम सरकार का मूल्यांकन कैसे करेंगे?
डरा हुआ मीडिया, डरा हुआ लोकतंत्र बनाता है.
ढेरो TV channels कि भिड मे हर दर्शक की अपनी पसंंद होती है. movies, sports, daily soaps, music, journey हर तरह के TV Channels है. ईन सब मे दर्शक distribute हुवा है.
सिर्फ News Channels की बात करे तो ऊसमे भी sports news, filmi news, politics और ऐसी कई cataguories है. TRP Ratings कि बात करे. भारत कि ६०% आबादी TV देखती है. तो सभी चँनल के दर्शको मे न्युज चँनल देखने वालो का प्रमाण कुछ ९% है. और ईन मे Political News देखने वालोका कुछ २१% प्रमाण है.
मतलब एक करोड लोग ही Political News देखते है. ईसमे भी और कई विच्छेद हो सकते है.
News channel देखने वालो मे आधेसे जादा लोग. न्युज को entertainment के दृष्टीसे देखते है. धमाकेदार खबरे हो तो वो बडे चाव से देखते है.
मुझे तो लगता है के civil services exams को seriously pass करने की मनीषा रखने वाले छात्र ही न्युज चँनल को गंभीरता से देखते है.
लोग किसीभी न्युज चँनल्स को गंभीरतासे लेते नही है.
दुःख की बात हे की बुरे लोग तो एक हो जाते हे मगर अच्छे लोग एक नहीं हो पाते हे . यशवंत और रविश दोनों अच्छे आदमी हे मगर अफ़सोस दोनों ने एक दूसरे के साथ अच्छा नहीं किया यशवंत का लेख में रविश और सुधीर को एकपेज पर रखना बहुत ही दुखद हे रविश के पैर के नाख़ून के बराबर भी सुधीर का कद नहीं हे और आदमी तो खेर खराब हे ही , जिसका भविष्य जेल हे जबकि रविश का भविष्य मेग्सेसे अवार्ड हे यशवंत की रविश से असली शिकायत यहाँ हे कमेंट में http://khabarkikhabar.com/archives/3180 अब ये भी सच हे की रविश ने भी यशवंत के साथ ठीक नहीं किया जो भी हो यशवंत रविश के प्रोग्राम में जिक्र के लायक तो हे ही , वैसे भी ये ही तो चार लोग थे जिन्होंने हमें नेट पर हिंदी पढ़ना लिखना सिखाया में भी प्रिंट में व्यंगय आदि लिखता था हमें तो मालूम ही नहीं था की प्रिंट का टाइम खत्म हो रहा हे फिर इन्ही चार लोगो ने नेट पर लोगो को -पढ़ना लिखना सिखाया था आकर्षित किया था ये थे संजय तिवारी आलोकतोमर अविनाश और यशवंत इनमे से आलोक तोमर 2011 कैंसर का शिकार हो गए , तिवारी का विस्फोट बंद हो गया अविनाश मोहल्ला छोड़ कर फिल्मो में चले गए और आज अपनी मामूली या बस ठीक ठाक सी फिल्म की इन्ही हिंदी पाठक लेखक वर्ग की बदौलत दस गुना अधिक तारीफ पा रहे हे यानी यशवंत ही डटे हुए हे तो खेर रविश को भड़ास या यशवंत का जिक्र करना चाहिए था नहीं किया इस पर यशवंत भी गुस्से में अंधे हो गए और उन्होंने भी इस तरह से बदला लिया की रविश जैसे अधभुत पत्रकार का नाम सुधीर चौधरी जैसे घिनोने के साथ जोड़ दिया बहुत दुखद रविश के बारे में यही कहूंगा की वो महान हे ही मगर क्या करे की हालात ही ऐसे जटिल हो चुके हे की आज आप मेट्रो सिटी में किसी नार्मल बाल बच्चो वाले आदमी से शुद्ध विशुद्ध आदर्शवाद पर चलने की उम्मीद नहीं कर सकते हे और यशवंत का भी दक्षिणपंथ में हल्का झुकाव हुआ ही हे इसकी वजह उनका खास दोस्त संजय तिवारी हो सकता हे जो पूरी तरह इस्लाम और मुस्लिम विरोध में अँधा होकर दक्षिणपंथ भाजपा संघ मोदीतव में रंग ही चुका हे
बुरे लोग तो एक हो जाते हे मगर अच्छे लोग एक नहीं हो पाते हे जैसे रविश और यशवंत का बताया इसके आलावा एक और भी तकलीफ होती हे की जैसे जो भी कोई अच्छा लिबरल लेखन कर रहा हे वो कोई भी हो कोई भी हो अगर हमें जानकारी मिली तो , हमने यहाँ उसका अपनी तरफ प्रचार जरूर किया उनके नाम दो दो बार लिख कर आगे और पीछे इसके अलवा भी यहाँ हमेशा लिंक भी दिए गए , जबकि खबर की खबर के साथ लोगो का यानि की अच्छे ही लोगो का ही सलूक इतना खराब हे इतना खराब हे की पूछिए मत , लगभग सभी ” नाम ” खबर की खबर से परिचित हे पढ़ते भी हे मगर हराम हे जो कभी भी कुछ भी जिक्र करते हे नहीं जैसे ठान राखी हो की इन्हे प्रचार नहीं देना हे इनका नाम जबान पर नहीं लाना हे संजय तिवारी विस्फोट को देखिये इसके पेज पर जाकर आप इस पर दो लाइन का कमेंट लिख दो तो जवाब देगा हमने पूरा लेख और सेकड़ो सबूत कमेंट दिए मगर अनदेखा करेगा क्योकि दुसरो को जरा भी प्रचार देना नहीं हे वैसे बड़ी बड़ी दीन ईमान अध्यात्म शांति की बाते आप तिवारी से सुन सकते हे . मगर फितरत वही कीवही . सोशल मिडिया के एक बड़े सेकुलर बरेलवी लेखक ने तो लिबरल लेखन में एक यु ही बबली सी लेमनचूस बच्ची तक का जिक्र कर दिया मगर जाकिर हुसैन या खबर की खबर का कोई जिक्र नहीं किया जबकि काफी नाम लेखक आदि खबर की खबर पढ़ते हे परिचित हे . शायद इन्हे यह बर्दाश्त नहीं हे की बिना किसी भी पत्रकारिता लेखन यहाँ तक की सोशल मिडिया के भी किसी भी बड़े या मध्यम नाम को खबर की खबर से जोड़े बिना ही और हिंदी लेखन पत्रकारिता में बिना किसी भी तरह के बेकग्रॉउंड सकिर्यता या किसी के भी कैसे भी सपोर्ट के बिना ही अफ़ज़ल भाई के खबर की खबर ने थोड़ा बहुत नाम और पाठक जमा लिया हे बहुत कम ही सही पर सर्वाइव तो किया ही . शायद ये भि लोगो को पसंद नहीं हे दूसरी बात हम लोग सोशल मिडिया पर भी सक्रीय नहीं हे जो आपको लाइक आदि दे तो ये वजह हो सकती हेकि शायद नयी हिंदी साइट्स में सबसे अधिक कमेंट वाली खबर की खबर का नाम लेना भी किसी को गवारा नहीं हे यानि विचार पर भलाई पर फितरत भारी पड़ जाती हे , इंसान की फितरत बदलना नामुमकिन सा काम हे
यशवंत की बातो का जवाब शायद ये भी हे http://naisadak.org/crisis-of-journalism-and-silence-of-masses/
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सिकंदर हयात • 12 hours ago
रविश जी हमारी व्यथा पढोगे तो अपनी तकलीफे कम लगने लगेगी बहुत लोड हे आप पर सही भी हे आपकी इंसानियत और प्रतिभा की जितनी तारीफ की जाए कम होगी मगर हमारे पास तो सिर्फ इंसानियत और इरादा हे प्रतिभा नहीं हे दो भाई गल्फ में थे चाहता तो में भी थोड़ी सी अंग्रेजी थोड़ा कम्प्यूटर ये वो सीख कर उनके पास चला जाता छह फुट लम्बा हु कलर फेयर सर पर घने बाल और कास्ट का सुन्नी सय्यद जिनकी अहमियत हमारे यहाँ आपके ब्राहमणो से भी कुछ ज़्यादा ही हे यानि और नौकरी और शादी के लिए लड़की पैसा आराम की जिंदगी सब कुछ मिलने को मिल भी सकता था मगर हमने सोचा की लेखक बनेगे एक नयी सोच फेलायेंगे लेकिन सात पुश्तों में भी न कोई लेखक पत्रकार था न कोई अकदामिक ऊपर से प्रतिभा भी नहीं हे यानि न कोई सपोर्ट न कोई मार्गदर्शन कुछ भी नहीं , ऊपर से बड़ा परिवार सौ समस्याएं मुक़दमेबाज़ी घर के एक सदस्य की भयंकर बीमारी जीना मुहाल इनसे झुझते झुझते और साथ में जिन्दा भी रहना था और लेखन में भी हाथ पाँव मारने थे और कुछ नहीं तो इसलिए अभ्यास तो रहे और लेखन में आपको पता ही होगा की कोई पैसा नहीं ऊपर से जब हम लेखन में आये प्रिंट का पतन हो रहा था नेट का हमें पता नहीं था बहुत धक्के खाये मुफ्त में लिखा और जिन्दा रहने के लिए लेबर टाइप जिंदगी जीनी पड़ी ऊपर से किसी का भी समर्थन नहीं बड़े भाइयो का था भी तो में कोई उनका इकलौता सगा नहीं था और भी बड़ा परिवार बहनो की शादिया किसी की इंजीनियरिंग तो किसी की पि एच डी पर लाखो का खर्च फिर दिल्ली जैसे महानगगर में बाहर से आकर बसने घर बनाने में होना वाला भारी खर्च ऊपर से कोढ़ में खाज में की दोनों औरो की भी मदद करते थे ऊपर से 2008 – 10 महामंदी में और भारी नुकसान और सेकड़ो तनाव इन तनावों के बीच मेरा लिखना बेहद मुश्किल और प्रिंट में लिखना बंद हुआ और कोढ़ में खाज की आपके तो विरोधी भी हे तो सपोटर भी . और हम लेखन में शुद्ध सेकुलर लिबरल भारतीय मुस्लिम वो भी सुन्नी देवबंदी ( सारे लिबरल मुस्लिम शिया या बरेलवी क्योकि उन्हें वहाबिज्म आदि से लड़ने के नाम पर पीछे से किसी न किसी का सपोर्ट मिलता हो सकता हे ) हमारे लिए सपोर्ट का नाम नहीं विरोध और जूते पड़ने के डर से आजके ज़माने में सबसे जरुरी चीज़ प्रचार से भी दूर रहते हे मेरे यहाँ मेरे सोशल सर्किल एक से बढ़ कर एक काबिल लोग हे फ़र्ज़ कीजिये में कोई छुटभ्या जाकिर नायक होता तो नाम दाम आराम में खेलता मगर शुद्ध सेकुलर लिबरल वो भी सुन्नी वो भी देवबंदी होने के कारण बिलकुल दिवालिया हालत . लिखना छूटने ही वाला था की दुबई के अफ़ज़ल भाई से नवभारत पर मुलाकात हुई और फिर से लिखना चालू हुआ तीन साल मेहनत करके साइट कुछ जमाई ही थी http://khabarkikhabar.com/a… समर्थन के लिए कुछ मेल और ad देना वाले आये ही थे में जोश और उत्साह में था ही की 11 मई को मेरे बड़े भाई की डेथ हो गयी भाई के साथ ही मेरा सारा हौसला चला गया क्रांति के लिए इतनी कुर्बानिया दीं बहुत कुछ खोया एक ऐश्वर्या जैसी तो एक मदर टेरेसा जैसे दिल वाली लड़की मिलने को कौन जाने मिल भी सकती थी उनसे ध्यान हटाया . क्या क्या नहीं किया क्या क्या नहीं खोया अब जाकर हमारी विचारधारा थोड़ी फेल रही थी तो अब भाई की डेथ और इस ज़हरीली मोदी सरकार की हरकतों के कारण सब कुछ बड़ा बेमानी सा लग रहा हे जीने की चाह काम और विचारो का उत्साह मर सा रहा हे तो शुक्र मनाइये सर इरादा आपका भी नेक था हमारा भी – हमसे तो हज़ार गुना बेहतर हालत में हे आप
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Varsha सिकंदर हयात • 7 hours ago
जब लगे कि हौसला छूटने को है तो समझ लेना मंज़िल नज़दीक ही है और हौसला बनाए रखना,
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सिकंदर हयात Varsha • 3 hours ago
यही तो बात हे वर्षा जी में तो यही कहता हु की रविश जी हमारे जेसो की दुर्गत देखे और जो भी हे ईश्वर को धन्यवाद दे और खुश रहे रही बात हमारी कामयाबी या मंजिल की तो हमारे साथ तो इतनी बड़ी मनहूसियत जुडी हुई हे की फ़र्ज़ कीजिये कल को कोई कामयाबी कोई सफलता मिल भी गयी तो वो अच्छी बात होगी मगर आप तो हमारी विचारधारा जानती ही हे की ये दुनिया की सबसे अल्पसंख्यकविचार हे तो कामयाबी भी हमारे लिए तो शायद कोई न कोई बहुत बड़ी सरदर्दी और खतरा विरोध ही लेकर आएगी कोई आराम नहीं इसलिए मेने लिखा था की राइटिंग करते हुए में तो कल को अपने साथ किसी हादसे या मरने के लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार कर चूका था मेने सपने में भी नहीं सोचा था की मेरा हट्टा कट्टा बड़ा भाई जो यहाँ भी नहीं गल्फ में रहते हे वो अचानक चले जाएंगे
मुझे पता नही था, परिवार मे करीबी का आपका मतलब आपके सगे भाई से ही था. दुखों का बहुत बड़ा पहाड़ आप और आपके परिवार पर टूटा है. बहुत दुख हुआ ये सब जान कर.
जाकिर भाई में बीमार तो नहीं तीमारदार के रूप में एम्स लोहिया आदि हॉस्पिटल्स जाता रहा हु वहा लोगो को जानवरो की तरह पड़े देख कर एक बार तो में भी नंगे फर्श हॉस्पिटल में सोया तो वो सब देख कर मरीज तीमारदारों की परेशानिया देख कर में तरस खाता था और अब आज में सोचता हु की वो लोग कितने खुशकिस्मत हे की उनका अपना उनके हाथो में सामने तो हे भले ही मौत के मुँह हो तब भी , हमें तो पता ही नहीं चला की भाई को हुआ क्या था दिस्मबर में तो आये थे तब तो फिट थे अचानक हार्ट अटैक कैसे आ गया कुछ भी पता नहीं चला की हुआ क्या था एक दिन पहले तक ऑफिस में काम कर रहे थे कॅरियर की पीक पर थे में तो उनकी तरफ से बेफिक्र रहता था की चलो विदेश में हे भारत के भयानक तनाव सामाजिक पर्यवरणीयपोल्युश्न तनाव बदमिजाजी से बचे हुए हे में तो यहाँ मदर की सिस्टर की जीजा जी की किसी किसी की सेहत के लिए चिंता में रहता था उनकी तरफ से तो बेफिक्री महसूस करता था . फादर की भी ऐसे ही डेथ हुई थी घर से ठीक निकले थे तब भी नहीं पता चला था की आखिर लास्ट टाइम उन्हें हुआ क्या था उस हादसे के बाद घर का एक सदस्य ऐसा बीमार हुआ की पंद्रह साल हॉस्पिटल्स के चक्कर लगाकर ठीक हो पाया ही था की फिर वही खड़े हो गए जहा पंद्रह साल पहले थे इतनी मेहनत और तनाव् के बाद इसी साल मेरा बड़ा परिवार कुछ राहत सी महसूस कर रहा था मेरे पास भी कोई कामयाबी भले ही नहीं रही लेकिन जोश एनर्जी और पॉजिटिविटी तो मेरे पास थी सब बर्बाद सा हो गया ये इतना भयानक हादसा हुआ हे मेरे साथ की हो सकता हे की सब कुछ खत्म हो जाए भाई भी गया और ज़हरीली मोदी सरकार के कारण एक तरफ आर्थिक तनाव बढ़ते जा रहे हे मेरा काफी पैसा एक आदमी ने रोक लिया हे जो उन्ही कारोबार से जुड़ा था जिसकी यह ज़हरीली सरकार कमर तोड़ रही हे कांवड़ियों की भीड़ के कारण रोड बंद और बाग़ में भी नुक्सान हुआ दूसरी तरफ आप देख ही रहे होंगे की जो हलात मोदी ने बना दिए हे की इस सबके कारण हमारी सोच जो हमने पंद्रह साल की मेहनत और ज़हमत और कुर्बानिया देकर जिसकी हल्की सी नीव ही डाली थी की ये सब हो गया हे जिस कारण सब बड़ा बेमानी सा लग रहा हे उधर वो लोग जो मोदी सरकार से पहले भी फायदे में रहते थे भड़का भड़का कर बहुत कुछ पाते थे नाम और दाम अब इसी ज़हरीली मोदी सरकार के विरोध से भी वही लोग ही कुछ ना कुछ पा ही रहे हे दाम ना सही वो तो पहले ही कमा लिया अब नाम कमा रहे हे दूसरी तरफ हम लोग बर्बाद हो गए सब कुछ खत्म सा हो गया हो सकता हे की कुछ समय बाद लिखना भी छूट जाए ———————- ?
सिकंदरजी,
सब खैरीयत है? आप कैसे हो?
बस जोशी जी , आज चालीस दिन हो गए बड़े भाई को गए हुए , मेरी हालत अभी भी खराब हे बहुत एंग्जाइटी रहती हे मगर फिर भी इस बात की थोड़ी तसल्ली हुई हे की मेरी मदर ठीक हे शुरू में उनकी हालत बहुत खराब थी डॉक्टर ने तो इस हादसे से पहले ही इकोटेस्ट को बोल रखा था उसके बाद भाई की तबियत खराब हो गयी चार दिन हॉस्पिटल रहकर उनकी डेथ हो गयी उसके बाद लोगो ने बताया की सऊदी से तो बॉडी लाना बहुत मुश्किल होता हे तब खासकर जब सऊदी अरब की इंडियन एम्बेसी से फोन आया परमिशन के लिए की आपकी इज़ाज़त हे की आपके बेटे की अंतिम क्रिया यही की जाए तब उनकी ज़्यादा हालत खराब हो गयी थी ऐसा हादसा किसी दुश्मन के साथ भी न हो . भारत में निजाम और हालात और वयवस्था के आम आदमी पर होने वाले ढेरो अत्याचार के ही शिकार हो गए शायद मेरे बड़े भाई भी वो पढ़ना चाहते थे मगर बी कॉम के बाद ही जॉब करनी पड़ी क्योकि फादर की डेथ के बाद किसी का सहारा नहीं था थोड़े सेटल हुए तो लोगो के प्रेशर में शादी करनी पड़ी फिर शादी परिवार रिश्ते महामंदी फिर और भी बुरे हालात तनाव शायद इन्ही सब ने ————— ? लेकिन मेरी मदर अब धीरे धीरे वो बेहतर हो गयी वार्ना उनकी चिंता में मेरा और भी बुरा हाल था लेकिन वो अब कुछ ठीक हे इसकी वजह वही हे की ईश्वर पर इनका अटूट विशवास की जैसी अल्लाह की इच्छा जितनी जिंदगी जहा की मिटटी उसने लिख दी . इनकी अटूट और गहरी आस्था कुरान नमाज़ इन्हे उबार लेती हे इतने भयानक हादसों से भी ,और में क्योकि जीरो स्प्रिचुअल नीड का आदमी हु इसलिए मेरी एंग्जाइटी बहुत अधिक रही हमारे पास तो गहरी आस्था का मरहम भी नहीं हे हमारी मज़बूरी हे क्योकि हम लेखक हे विचारक हे हमें लॉजिक की दुनिया में रहना पड़ता हे क्योकि हमें आस्था का व्यक्तिगत फायदा उठाने वालो से लड़ना हे तो ये हे , खेर इसलिए हमने तो हमेशा लिखा की खुद जीरो स्प्रिचुअल नीड का आदमी होते हुए भी में किसी की भी आस्था के खिलाफ नहीं लिखूंगा क्योकि जीवन हे ही ऐसी ऐसी तोड़ देने वाली तकलीफो से भरा , इंसान ईश्वर और धर्म के सहारे के बिना जी नहीं सकता .
ऐसे मुष्किल वक्त मे सिर्फ अल्लाह का सहारा होता है सिकंदरजी. अब आप ही देखीये ना आपकी माताजी को कुरान पढकर कितना हौसला मिला होगा. जिवन जब कठीनाइयो के दौर मे होता है, जिवनकी तकलिफे दर्द अपनी मर्यादाए पार कर इन्सान कि पिडा सहन करने कि सिमासे परे चले जाते है तब यही धर्म का ग्यान हमे राहत और शांती देता है.
आपको भी अल्लाह मे आस्था रखनी चाहीये. आपको और आपके पुरे परिवार को अल्लाह इश्वर इस कठीनाइयो के दौर मे आत्मबल और शांती प्रदान करे यही मनो कामना कर सकते है हम.
किसी भी इन्सान कि हद से जादा तारिफ और किसिकी हद से जादा बुराई अगर करते रहे तो एक असंतुलन बनता है. जैसे झी न्युज हद से जादा मोदी को प्रमोट कर रहा है. और NDTV हाथ धोकर मोदी कि बुराइ करने मे जुट गया है. जनता को ये बात समझ मे आती है.
अगर कोई अच्छा इन्सान भी हदसे जादा किसी बुरे इन्सान कि बुराई करता रहा तो ऊसकी अच्छाइ पर संदेह होना जायज है.
सत्य को दुनीया के सामने रखने का भी एक प्यार भरा तरीका होता है. अन्यथा सत्य भी जहर का कडवा घोट बनता है.
Fake News पर रविश कुमारका prime time देखा मैने आज You Tube पर. और ऊसके बाद हमारा local news paper लोकमत पढा. १३ जुलै कि घटना हमारे यहा कि. दो मुस्लिम गुटो मे मारामारी हुवी, लाठी, हाँकी स्टिक्स, पत्थर और ईटे फेके एक दुसरे पर.सात आठ लोग बहोत बुरी तरह से घायल हुवे. अब यहा ना तो हिंदु थे, ना गाय थी, ना फेक न्युज थी. मुस्लिम गुटो का अंदरुनी मामला था. ये ऐसी गुट बाजीया और मारामारी हिंदु गुटो मे भी अक्सर होती है.
रविश कुमार या सेक्युलर लोग हिंदु मुसलमान विवाद को ईतना बडा मुद्दा क्युं बना रहे है. धार्मिक शांती बनी रहे और एक ही धर्म के लोगो मे मारामारी हुवी तो ऊसे कोई कव्हर नही करता है, ऊसका ईश्यु भी नही होता है.
फेक न्युज हर कोई देता है. ये राजनिती है, यहा कोई संत या पुन्यात्मा नही होता है. सोशल मिडीया what’s up, face book, you tube पर भगवान राम, मोहम्मद पैगंबर से लेकर हर महान शक्स के बारे मे अपमान जन्य और हिन बाते लिखी है. तो नेहरु पर लिखी बुरी बातो का क्या शोक मनाना. ईंटरनेट का मायाजाल बडा विचीत्र हुवा है. मैने खुद एक बात पढी थी ईन्टरनेट पर, सभी ब्राह्मणो को खडा कर के गोली से ऊडा देना चाहीये. अब क्या ये बाते पढ कर मुझे डरना चाहीये?
फेक न्युज के साथ फेक पॉर्न व्हिडीयोज और ईमेजेस भी होते है फिल्म स्टार के. फेक मँट्रीमोनी साईट्स, fake recruitment sites, fake companies, यहा तक fake financial investment कंपनी.
हमे धार्मिक विवाद ऊपर ऊठकर देखना ही होगा.
प्रसाद जी, रवीश पर तो ये इल्ज़ाम लगता है कि वो क्यूँ बंगाल के दंगो को हिंदू दमन के तौर पर नही दिखा रहा.
आप कह रहे हो, वो हिंदू-मुस्लिम करता है. वो तो खुद हिंदू है, वो भी ब्राह्मण.
राम मुहम्मद पर नज़रियों की भिन्नता का टकराव है. नेहरू के खिलाफ झूठ, राजनैतिक प्रोपेगेंडा, और इस झूठ को सच मानने वाले भी कम नही, इस वजह से लिखा गया.
रवीश से मुझे भी आपत्ति है, सिकंदर भाई ने अपने एक लेख मे उसे लिखा भी है, लेकिन इन आरोपो से सहमत नही.
बाकी फेक कोई भी ग़लत है.
झाकिरजी,
रवीश कुमार मे presentation skill है, काफी कलात्मक ढंगसे वो रिसर्च करके अपनी सोच दुनीया के सामने रखते है. पर ये अतीशयोक्ती होती है, मै सिर्फ एकही थेअरी मानता हु. अगर कोइ हिंदु कट्टरवादी संघटन मुझे मुसलमानो के खिलाफ कितना भी उकसाए, फेक news दिखाए, फिर भी मै हाथ मे तलवार लेकर किसी मुसलमान को काटने नही जाउंगा. ना मारुंगा, ना मुसलमानोको पिटुंगा. और मेरे जैसे नब्बे करोड हिंदु, इस देश मे है. तो कुछ पचास हजार दंगाइ हिंदुओ के कारण रविश कुमार सभी हिंदु नाझीवादी बनरहे है, चाय के टेबल पर बैठकर मुसलमानो को ये लोग ऐसेही होते है, ऐसा कहते है. और ये नाझीवादी हिंदु ऐसे शब्दोसे आपत्ती है.
असलमे रविश कुमार मुसलमानो के मन मे हिंदुओ का डर पैदा करने वाले लोगोमेसे एक है. नाझीवाद आतंकवाद से बत्तर है, पर काँग्रेस, वामपंथी लोग, रविश कुमार बहोत ही आसानीसे भारत अब नाझीवाद की तरफ बढ रहा है. ऐसा कह रहे है. ये सिर्फ फेक न्युज नही एक फेक प्रोपगेंडा है, और खुद रविश कुमार इसे चला रहे है.
और मै मानता हु कि फेक न्युज हर कोइ पैदा करता है, और दिखाता भी है.
चलो छोड दो,
मान लिया रविश कुमार महान पत्रकार है. बाकि सब बिके हुवे है. पर ये सारे पत्रकार मोदी सरकार के शासन काल मे ही क्युं बिके हुवे नजर आए रविश कुमार को. दस साल काँग्रेस का शासन रहा तो जो पत्रकार आज बिके हुवे है तो वो काँग्रेस के शासन काल मे भी बिके हुवे होगे ना. हा शायद उस वक्त वो सारे पत्रकार काँग्रेस सरकार के पक्ष मे बात कर रहे थे. और इसी कारण रवीश कुमार को वो उस वक्त बिके हुवे नही लगे.
छोड दो यार रविश कुमार से मेरी कोई जाती दुश्मनी तो नही है. और रविश कुमार माफ करना मुझे.
रविशजी आप महान पत्रकार हो…आपकी महानता पर मै कोई संदेह नही लुंगा. और मेरी औकात है ही क्या, मै कोइ नही हु आपके सामने. बस आप कि महानता के साथ साथ मै भारत के बाकी पत्रकारोको भी महान कहुंगा. वो भी काम करते है हमारे लिये दिन रात मेहेनत करते है. जैसे India is great और India के साथ साथ मै पाकिस्तान ईझ ग्रेट भी कहुंगा. क्युं किसीको झुठा या निचा दिखाना है.
Awesh Tiwari19 hrs · आज से तकरीबन एक दशक पहले की बात है एनडीटीवी पूरी तरह से अपने शबाब पर था। मुझे याद है वो पहला मीडिया हाउस था जहां सप्ताह के पांच दिन काम हुआ करता था।महिलाओं को डिलीवरी से पहले और बाद छह छह माह की मैटरनिटी लिव दी जाती थी।जो कर्मचारी छुट्टियां नही लेते थे साल के अंत मे उन्हें एके माह की फोर्स लिव जाती थी।मुझे याद है कि उस वक्त वो देश का सबसे ज्यादा तनख्वाह देने वाला चैनल था। 2007 के दौरान चैनल में डेढ़ लाख दो लाख माहवार तनख्वाह पाने वाले खबरनवीस हुआ करते थे आज जितने भी बड़े टीवी पत्रकार दिखते हैं ज्यादातर एनडीटीवी से कभी न कभी जुड़े रहे हैं। एक वक्त था प्रणव राय को टीवी जर्नलिज्म के क्षेत्र में सबसे उम्दा नियोक्ता माना जाता था। एक एनडीटीवी आज है इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट लगभग बन्द किया जा रहा है , कैमरामैन भी हटाये जा रहे है, ओबी भी अब नही रहेगी। अब मोबाइल से वीडियोग्राफी और स्काइप से लाइव होगा। अब सवाल यह है कि इस छंटनी के पीछे क्या है? क्या प्रणब राय बुरे नियोक्ता हो गए? सच्चाई यह है कि एनडीटीवी भारी घाटे से जूझ रहा है, सरकारी विज्ञापन बन्द है, निजी कंपनियां सरकार के दबाव में विज्ञापन नही दे रही है।उस पर से सीबीआई का छापा डाल पत्रकारों को ट्रोल करके पूरे चैनल के मैकेनिज्म को ध्वस्त करने की कोशिश की जा रही है। इस छंटनी का किसी भी कीमत पर समर्थन नही किया जा सकता। लेकिन लोगों के रोजगार सुरक्षित रहे चाहे वो निजी क्षेत्र हो या सार्वजनिक इसकी जिम्मेवारी सरकार की भी है।Awesh Tiwari———————Nitin Thakur : सब जानते हैं कि एनडीटीवी की छंटनी किसी पूंजीपति के मुनाफा बढ़ाने का नतीजा नहीं है. वो किसी नेटवर्क18 या ज़ी ग्रुप की तरह मुनाफे में होने के बावजूद लोगों को नहीं निकाल रहा. एनडीटीवी एक संस्थान के बिखरने की कहानी है. यही वजह है कि उनका कोई कर्मचारी मालिक को लेकर आक्रोशित नहीं है. वो जानते हैं कि उनसे ज़्यादा ये मुसीबत संस्थान के प्रबंधन की है. बावजूद इसके किसी को तीन महीने तो किसी को छह महीने कंपन्सेशन देकर विदा किया जा रहा है.एनडीटीवी को जाननेवालों को मालूम है कि यहां ऐसे बहुतेरे हैं जिन्होंने दशकों तक आराम से नौकरी की और कहीं जाने की ज़रूरत नहीं समझी. सैलरी फंसाना, जाते हुए कर्मचारी की सैलरी मार लेना, किश्तों में तन्ख्वाह देना या चार चार पैसे पर इंटर्न पाल कर उनका शोषण वहां उस तरह नहीं हुआ जिस तरह इंडस्ट्री के दर्जन भर कई चैनलों में होता है. सबसे ऊंची सैलरी पर करियर की शुरूआत इसी चैनल में होती रही है. ये जो छंटनी -छंटनी का राग अलाप कर एनडीटीवी को सूली पर चढ़ाने की भक्तिपूर्ण चालाकी भरी कोशिश है वो धूर्तता के सिवाय कुछ नहीं.
ये वही हैं जो एनडीटीवी को रोज़ बंद होने की बददुआ देते थे और आज जब सरकार के खिलाफ मोर्चा लेते हुए वो तिनका तिनका बिखर रहा है तो किसी की जाती हुई नौकरी पर तालियां बजाने की बेशर्मी भी खुलकर दिखा रहे हैं. बीच बीच में कुटिल मुस्कान के साथ “बड़ा बुरा हुआ” भी कह दे रहे हैं. इनकी चुनौती है कि एनडीटीवी वाले अपनी स्क्रीन पर अपने ही यहां हो रही छंटनी की खबर दिखाएं. भाई, आप यही साहस अपने चैनलों और अखबारों में क्यों नहीं दिखा लेते? मुझे तो नहीं याद कि उस चैनल ने कहीं और छंटनी की खबर भी दिखाई हो.. फिर आप ये मांग आखिर किस नीयत से कर रहे हैं?
आपने पी7, श्री न्यूज़, जिया न्यूज़, ज़ी, आईबीएन में रहते हुए खुद के निकाले जाने या सहयोगियों के निकाले जाने पर खबर बनाई या बनवाई थी?? दरअसल आपकी दिक्कत पत्रकार होने के बावजूद वही है जो किसी पार्टी के समर्पित कैडर की होती है. आप उस चैनल को गिरते देखने के इच्छुक हैं जो चीन विरोधी राष्ट्रवाद के शोर में भी CAG की रिपोर्ट पर विवेकवान चर्चा कराके लोगों का ध्यान सरकार की लापरवाही की तरफ खींच रहा है. आपकी आंतें तो डियर मोदी जी की आलोचना की वजह से सिकुड़ रही हैं, वरना किसी की नौकरी जाते देख खुश होना किसी नॉर्मल इंसान के वश से तो बाहर की बात है.मैंने यहां पहले भी लिखा है कि मैं चैनल दिखने की एक्टिंग करते संघ के अघोषित इलेक्ट्रॉनिक मुखपत्र चैनलों के बंद होने के भी खिलाफ हूं. वो चाहे जो हों मगर आम लोगों की रोज़ी रोटी वहां से चल रही है. विरोधी विचार होना एकदम अलग बात है.. मगर सिर्फ इसीलिए किसी की मौत की दुआ करना अपनी गैरत के बूते से बाहर का सवाल है. एनडीटीवी का मालिक दूध का धुला ना हो तो भी सरकार को सबसे ज़्यादा दिक्कत उसी से है. ये तो उसी दिन पता चल गया था जब पठानकोट हमले की एक जैसी रिपोर्टिंग के बावजूद ऑफ एयर का नोटिस बस एनडीटीवी इंडिया को मिला था. चैनल को लेकर सरकारी खुन्नस छिपी हुई बात नहीं है. इसे रॉय का वित्तीय गड़बड़झाला घोषित करके मूर्ख मत दिखो.
रूस में एनटीवी हो या तुर्की में आधा दर्जन सरकार विरोधी मीडिया संस्थान.. सबको ऐसे ही मामले बनाकर घेरा और मारा गया है. आज सरकार की बगल में खड़े पत्रकारनुमा कार्यकर्ताओं के लिए जश्न का दिन है. उसे खुलकर सेलिब्रेट करो. किसी की मौत की बददुआ करके.. अब जब वो मर गया तो उस पर शोक का तमाशा ना करो. थोड़ी गैरत बची हो तो सिर्फ जश्न मनाओ. जिस चैनल पर एक दिन के बैन को भी सरकार को टालना पड़ा था अंतत: वो सरकार के हाथों पूरी तरह “बैन” होने जा रहा है. अब आप कहां खड़े हैं तय कीजिए, वैसे भी इतिहास कमज़ोर राणा के साथ खड़े भामाशाह को नायक मानता है, मज़बूत अकबर के साथ खड़े मान सिंह को नहीं।-Nitin Thakur :
खबर की खबर को बार बार कम्युनल और राइटिस्ट ताकते हैक कर रही हे और जैसा की होना ही था की शायद ये हरकत हिन्दू मुस्लिम दोनों राइटिस्ट कर रहे हे क्या कर सकते हे हम लोगो के कुछ बस का नहीं हे जबकि उधर खुद देश का ————– इन लोगो के साथ हे और उधर हम लोग भारत के सबसे कमजोर लोग हे जिनके साथ कोई भी नहीं हे अफ़सोस ——————-Mohammed Afzal Khan added 2 new photos.
1 hr ·
मेरा न्यूज़ पोर्टल खबर की खबर को ४ दिन के अंदर २ बार हैकरों ने हैक कर लिया है जबकि 2014 से कुल पांच बार इसको हैक किया जा चूका है जुलाई 2016 में जब हैक किया गया था तो बहुत से मटेरियल भी डिलीट कर दिया गया था! समझ में नहीं आ रहा है के आखिर हैकर मेरे न्यूज़ पोर्टल के पीछे क्यों पड़ गए है जबकि हमरा काम सच लिखना है क्योके —–
न स्याही के है दुश्मन न सफेदी के दोस्त
हम को आइना देखना है देखा देते है !!!
उम्मीद हे की अगर यशवंत ने इधर पढ़ा होगा तो रविश कुमार के खिलाफ उनका गुस्सा कुछ तो ठंडा हुआ ही होगा रविश ने तो फिर भी जैसा की यशवंत का आरोप था की भाई अपने प्रोग्राम में उन्होंने अपनी नौकरी बचाने की खातिर उनके भड़ास मिडिया का जिक्र तक नहीं किया यशवंत जो बहादुरी से जेल हो आये ( पॉजिटिव कारणों से जेल न की तिहाड़ चौधरी की तरह दलाली में ) आये उनका जिक्र नहीं किया तो रविश ने तो मान भी ले की नौकरी की खातिर किया तो एक आम बाल बच्चे वाले ईमानदार आदमी के लिए दिल्ली जैसे भयंकर महंगे शहर में नौकरी तो फिर भी बहुत बड़ी बात हे वो भी ऐसी नौकरी जो फिर भी मन का काम करने दे रही हे तो वो तो फिर भी बहुत बड़ी बात हे जबकि देखे तो हाल तो ये हे की मेने पिछले दिनों कई कमेंट करके दर्शाया की किस तरह से लखनऊ के सोशल मिडिया के प्रसिद्ध सूफी संत आधुनिक सरमद ने तो सिर्फ अपने कुछ लाइक बचाने की खातिर ही विपुल सामग्री बहस ( शायद सबसे अधिक ) वाली और जाकिर हुसैन जैसे जीनियस की उपस्थिति वाली खबर की खबर का जिक्र तक नहीं किया उसकी जगह एक लेमनचूस बच्ची लेखिका का जिक्र किया की भाई ये ये ये हे लिबरल लेखन . तो समझिये इंसान किस कदर फितरती होता हे और घुमा फिराकर अपने हित सबसे ऊपर रखता हे भला ही वो हित कितने भी मामूली क्यों ना हो , एनिमी एट दा गेटस फिल्म में एक यहूदी कम्युनिस्ट अंत में कहता हे की -हमने कितने मेहनत की थी एक नया समाज बनाने को सब बेकार गया इंसान कभी नहीं सुधरने वाला -तो ये हे . इन बातो को समझ ले तो बेहतर होगा और गुस्सा निराशा भी कम होगी
https://www.youtube.com/watch?v=mioK3stxv3k राइटिस्टों के वर्चस्व और मोटा पैसा होने के कारण इंटरनेट पर अच्छी चीज़े कम ही देखी पढ़ी सुनी जाती हे मगर पहली बार ऐसा हुआ बवाली बाबा के कारण की आम लोगो ने कल तिहाड़ चौधरीयो को नहीं बल्कि रविश को सूना , कल का रविश का प्राइम टाइम 15 लाख से भी अधिक लोग ( टीवी से इतर ) देख चुके हे ———————————————–Vineet Kumar
25 mins ·
एक पत्रकार मरकर भी पत्रकारिता को जिंदा रखता हैः
कृषि विज्ञान केन्द्र, सिरसा का वो सभगार खचाखच भरा था. यदि कोई खड़े होकर मंच पर हो रही बातचीत सुनना चाहता तो उसे एक पैर पर खड़ा रहना होता. दोनों पैर पर खड़े होने तक की जगह नहीं थी. कुर्सियों की दो लाइन के बीच की जगह में लोग पहले ही बैठ चुके थे. मतलब एक बार आप इस हॉल में घुस गए तो निकलने की गुंजाईश नहीं थी.
ये नजारा था पूरा सच के उसी संपादक की याद में छत्रपति सम्मान समारोह का जिसकी जनहित में पत्रकारिता किए जाने पर हत्या कर दी गयी थी. शहीद संपादक राम चन्द्र छत्रपति का परिवार और उनके दोस्त, उनकी याद में हर साल देश के ऐसे पत्रकार/ मीडियाकर्मी को सम्मानित करते हैं जिन पर उनका यकीं होता है कि वो लगभग वैसी ही पत्रकारिता कर रहे हैं जैसा कि उनका दोस्त, पिता, संपादक छत्रपति ने किया और अपने मूल्यों को सहजते हुए बिना किसी समझौते के अपने बीच से चला गया.
जिस दोपहर मैं सिरसा के इस कार्यक्रम में पहुंचा था, एक रात पहले एनडीटीवी इंडिया के प्राइम टाइम कार्यक्रम में था. सभागार के सामने से गुजरते ही कई लोगों ने मुझे पहचान लिया- आप रात में बोल रहे थे न…उसके थोड़ी देर बाद मैंने देखा कि कुछ लोग मेरा अतिरिक्त ख्याल रखने लग जा रहे हैं. कई बार कहा कि आपलोग अपनी आवाज मत बंद कीजिएगा. बोलते-लिखते रहिए..मरना तो एक दिन सबको है..खैर
मैं सभागार के एक कौने में जाकर बैठ गया और वक्ताओं को सुनने लग गया. जेएनयू के प्रोफेसर चमनलाल उस दोपहर रौ में थे. छत्रपति की पत्रकारिता, एक संपादक के तौर पर उनकी दिलेरी पर बात करते-करते उन्होंने बाबा राम रहीम पर वो सबकुछ बोला जिसका एक हिस्सा अखबार और समाचार चैनलों में लूप होकर घूम रहे हैं. लोग एकटक चमनलाल को देख रहे थे, एक भी ऐसा शख्स नहीं था जो वहां से हिला हो. बहुमत की सरकार के माहौल में वो चमनलाल को उनके खिलाफ बोलते हुए सुन रहे थे.
कार्यक्रम के अंत में छत्रपति से जुड़े लोगों ने बोलना शुरू किया. उन पर कही गयी एक पंक्ति मेरे भीतर जाकर अटक गयी- वो हमारे बीच से तो चले गए लेकिन हम सबको भी पत्रकार की ही तरह जीना सिखा गए. इस पंक्ति में जाने क्या असर था कि मैं फफर पड़ा. थोड़ी मुश्किल हुई लेकिन किसी तरह बाहर निकल आया. अटकी हुई ये पंक्ति रूलाई में घुलती चली गयी. मन एकदम से उचट गया. थोड़ी देर बाद सामान्य होने की कोशिश की. छत्रपति को जिस तरह का साहित्य और रचनाएं पसंद थी, उनकी बुक स्टॉल लगी थी. उनमे कुछ किताबें खोजने लगा. गोरखपुर के इतिहासकार और प्रतिबद्ध शिक्षक श्रीवास्तव सर की किताब लाल कुर्ता दिख गयी. खरीदते ही फोन किया- सर मिल गयी आपकी किताब, अब आप मत भेजिएगा. निन्यानवे साल के उस बुजुर्ग की आवाज में अचानक से गर्माहट आ गयी थी. उन्हें शायद लगा हो कि इस लड़के ने चलताउ ढंग से नहीं कहा था कि मैं आपकी किताब खरीद लूंगा.
सभागार में वापस पहुंचने पर कार्यक्रम लगभग अंतिम चरण में था. मैंने कभी रामचन्द्र छत्रपति को देखा नहीं था. ठीक वैसे ही जैसे भारतेन्दु या गणेश शंकर विद्यार्थी को नहीं देखा था. लेकिन उनके बारे में जितना सुना, लगा वो भी इनकी ही तरह होंगे. मैं छत्रपति के दोस्तों, परिवार के लोगों के बारे में सोचने लगा- कितना मुश्किल होता होगा इस समारोह के बहाने हर बार उन्हें याद कर पाना. ऐसे दौर में उस पत्रकारिता और संपादकीय साहस को याद कर पाना जबकि संपादक अपनी रीढ लगभग गंवा चुके हैं. ये सब लिखते हुए मुझे राहुल कंवल से लेकर बाकी चैनलों के एक-एक करके वो सारे संपादक याद आ जा रहे हैं जो बाबा राम रहीम की फिल्म रिलीज होने के मौके पर सिरसा की तरफ दौड़ लगाने लग गए थे और टीवी स्क्रीन पर एक-एक करके एक्सक्लूसिव की पट्टी चलने लगी थी.
तब मैं लगातार इस सिरे से सोचने लग जा रहा हूं कि आखिर छत्रपति ने अपने परिवार और दोस्तों के बीच ऐसी कौन ट्रेनिंग या फीलिंग्स पैदा की होगी कि वो उन्हें गंवाकर भी अपने को खतरे में डालने के लिए तैयार रहे…और हमारा कारोबारी मीडिया ऐसा क्या करता आया है कि जलकर राख हो चुकी ओबी बैन के विजुअल्स पर संपादकों के कोजी इंटरव्यू हावी हो जा रहे हैं ?
कारोबारी मीडिया जिस तेजी से जनतंत्र को मॉब लिंचिंग टूल में तब्दील करने पर आमादा है, मेरे भीतर इस बात का यकीं अब भी गहरा है कि एक मीडियाकर्मी, एक पत्रकार अपने पेशे के प्रति न्यूनतम ही सही ईमानदारी बरतता है तो इसी मॉब के बीच से सिरसा के सभागार में मौजूद लोगों की तरह ही जनतंत्र बचा रह जाता है. जनतंत्र का एक संस्करण हमेशा मौजूद रहेगा जो मूल्यों और अधिकारों के साथ खड़ा होगा. आखिर सिरसा में भी तो लोग उसी रिस्क के साथ जुटे थे जो रिस्क लेकर पंचकूला में मीडियाकर्मी कवरेज के लिए मौजूद हैं.
छत्रपति सम्मान समारोह बहुत भव्य नहीं हुआ करता है. बहुत ही कम लागत में सादे ढंग का आयोजन होता है. लेकिन उस सादे आयोजन में भी इस बात का एहसास गहरा होता है कि पत्रकारिता यदि समझौता कर ले तो मौत के सौदे की जमीन तैयार हो जाती है और इस जमीन पर खुद मीडियाकर्मी का परास्त होना अस्वाभाविक नहीं है. ऐसे में यह बेहद जरूरी है कि मीडिय जिसे बिजनेस मॉडल और प्रोफेशनलिज्म का हिस्सा बताकर अपना रहा है, एक बार क्रॉस चेक कर ले कि कहीं अपनी ही मौत के साधन तो नहीं जुटा रहा ? स्टूडियो से सवाल दाग रहे एंकर-संपादक इसे भले ही शिद्दत से महसूस न करें लेकिन जो फील्ड में जूझ रहा है, जो कैमरे के साथ मोर्चे पर मौजूद है, उसे पता है कि वो जनंत्र से खिसककर कहां जा गिरा है और उसका क्या हश्र होने जा रहा है ? आज ओबी बैन राख कर दिए जाने पर आवाज में भले ही तल्खी हो लेकिन कल…? कल तो फिर अपने ही खिलाफ, जनतंत्र के खिलाफ खड़ा होना है क्योंकि इस पैटर्न से बाहर निकल पाना इतना आसान भी तो नहीं.. लेकिन इतना तो जरूर है कि न्याय की संभावना पैटर्न की पत्रकारिता से नहीं, छत्रपति जैसे संपादक के पैटर्न तोड़कर पत्रकारिता किए जाने पर बची रहती है.Vineet कुमार————————————Ujjwala TupsundreUjjwala Tupsundre
17 hrs · हट साला इस रेप ने तलाक़ खा लिया… वरना मुसलमान-मुसलामान खेलने में अधिक मजा आता है….है न् भक्तों… हरामखोरों अब तो सुधर जाओ..!!!Ujjwala Tupsundre
18 hrs · कितना ग़ज़हब हो रहा है न् एक औरत ने महाभारत किया ,रामायण भी किया फिर जासूसी काण्ड भी किया
इतना ही नहीं आसाराम का वियाग्रा ओपन किया ,अब रामरहीम भी जेल पहुँच गया….वह भी इस रमन-राघवों के राज में…..!!!
इसलिए साक्षी महाराज हो या स्वामी सुब्रह्मण्यम इन्हें औरतें खल रही है….इस से अच्छा होता इन्हें समलैंगिकता का मौलिक अधिकार प्रदान किया जाएँ…. इस से कम् से कम् औरतें तो सेफ रहेगी…और बलात्कर का केस भी नहीं लगेगा….???????
39 mins · मुझे यह नहीं समझता कि जब बाबाजी का हर लफ़्ज आशीर्वाद होता है तो उसका शरीर बहुत बड़ा आशीर्वाद होना चाहिए…..इसमें औरतों की भी गलती है न्….रसूखवालों की ओर वह जल्दी आकर्षित होती है तो इस में शोषण किस बात का….??Ujjwala टुपसुंदरे————?Abhishek Singh हाँ, अधिकतर लड़कियाँ रसूखदार की तरफ आकर्षित होती हैं, यहाँ तक कि बाबा तक लड़कियां पहुंचाने वाली भी लड़कियां ही होती है, इस से पहले के मामलों में भी नारी का ही योगदान रहा है बाबाओं के बिस्तर तक लड़कियों को लाने में, पर इस केस में जिस लड़की ने इतना बड़ा कदम उठाया वो बेशक उन लड़कियों में शामिल नहीं है, वो स्वाभिमानी निकली, बाबा के कृत्य का पर्दाफाश भी की, लड़ी भी और नतीजा सामने है।।।
शायद वो सच्चे भक्तिभाव से वहाँ रह रही थी और बाबा के इस सच ने उसके हृदय पे आघात कर दिया।।।———————————–Arvind Shesh
3 hrs ·
राम रहीम के लिए जिस भीड़ ने दंगा मचाया, उससे मुझे शिकायत नहीं है! वे लोग तो सिर्फ वही कर रहे थे, जितना करने लायक उन्हें छोड़ा गया है!
जिस सामाजिक व्यवस्था में रविशंकर, आसाराम या राम रहीम जैसे लोग भगवान बन कर पैदा होते हैं, उसमें ऐसी ही भीड़ की रचना की जाती है! आस्था के कुएं में डूबे लोग आरती या भजन गाएं तब, या आग लगाएं तब, अंतिम मकसद और हासिल वही होता है- ब्राह्मणवादी दिमागी गुलामी की व्यवस्था का मजबूत होना!
आरएसएस-भाजपा को अपनी इस व्यवस्था और राजनीति की फिक्र है, इसलिए वह पूरी ईमानदारी से अपने एजेंडे को लेकर जमीन पर काम करती है! कभी रविशंकर या मोरारी पैदा किया जाता है तो कभी आसाराम या राम रहीम!
जैसे ही इन बाबाओं की उपयोगिता कम होने लगती है या खतरे की वजह बनने लगती है, उसे नष्ट कर दिया जाता है! वरना जिन आरोपों में राम रहीम या आसाराम जेल में हैं, वैसे कुकर्म या बाकी अपराधों में लिप्त कौन बाबा नहीं मिलेगा! लेकिन मामला उपयोगिता और सुविधा का है! जो जब तक काम का है, उसे तब तक राहत और समर्थन देते और उससे लेते रहो, और बेकाम हो जाए तो उसे उसकी हैसियत बता दो! उसमें भी चुना जाएगा कि कौन ‘अपना’ है और कौन नहीं!
माफ कीजिएगा, मुझे या किसी भी उस व्यक्ति या समूह या विचारधारा आधारित पार्टी को उस भीड़ की प्रतिक्रिया आतंकी लग रही है, उन सबने उस भीड़ को इंसान बनाने के लिए कुछ नहीं किया है! हां, दूर से देख कर उससे घृणा जरूर करते रहे..! इस घृणा की वजह क्या रही है, यह साफ कहूंगा तो फिर मिर्ची लगेगी!————तो उस भीड़ को चूंकि इंसान बनाने वाले तमाम लोग, समूह, पार्टी अपनी आग्रहों की सुविधा का चुनाव करते रहे, इसलिए अब वह भीड़ ‘जॉम्बी’ या जिंदा ड्रैकुला बनी सड़कों पर दौड़ रही है..!See TranslationManageArvind Shesh
16 hrs · ये जो आपको इतने सारे बाबा और उनके पगलाए हुए उन्मादी भक्तों की फौज दिख रही है, इन सबको स्कूल-कॉलेज जाना था, पढ़-लिख कर कहीं नौकरी लेना था, नई जिंदगी शुरू करनी थी। ये सब ये करते भी। लेकिन आज हम सब देख रहे हैं कि इन बलात्कारी बाबाओं के भक्त कहीं सड़क पर आतंक मचा रहे हैं, तो कहीं सालों से जंतर-मंतर पर अपने कथित गुरु को छुड़ाने के लिए धरने पर बैठे हैं!
अब इन बाबाओं के कुकुरमुत्ते की तरह उगने के साल पर गौर कीजिए…! आज जितने बाबा आपको बाजार में अपना धंधा चमकाते हुए दिख रहे हैं, उनमें से लगभग सभी 1990 के दशक की पैदाइश हैं या फिर तभी अपना धंधा चमकाने के लिए नया चोला ओढ़ लिया। इन बाबाओं के नब्बे प्रतिशत से ज्यादा भक्त या शिष्य पिछड़ी-दलित जातियों के हैं! 1990 से ही मंडल आंदोलन के जरिए सामाजिक न्याय या अधिकारों की लड़ाई की शुरुआत हुई थी और बिहार या उत्तर प्रदेश जैसे इलाकों में इसने दलित-पिछड़ी जातियों में सामाजिक गुलामी के खिलाफ एक चेतना का विस्तार हुआ… ‘नीच’ कही जाने वाली जातियों के भीतर भी सम्मान टाइप की चीज पैदा हुई..!
तो सत्ता और तंत्र में हिस्सेदारी की मांग के साथ-साथ ब्राह्मणवाद के तंत्र को समझने और जाति की बुनियाद पर टिकी सामाजिक गुलामी की व्यवस्था के खिलाफ चेतना का विस्तार किसी राजनीति में तब्दील हो, यह मौजूदा सत्तातंत्र या ब्राह्मणवाद को कैसे बर्दाश्त हो सकता था!
इसलिए उत्तर भारत के इलाकों में ऐसे नए बाबाओं का एक समूचा संजाल खड़ा किया गया जो सामाजिक वंचना के सवालों को दफ्न करने और बराबरी की भागीदारी के अधिकारों की लड़ाई को आश्रमों में कैद करके मार डालने के काम में लगा दिए गए। और फिर समाज की तमाम बदलावकारी ताकत और ऊर्जा को धर्म के नाम पर खड़ा किए गए हड़बोंग की आग में झोंक दिया गया!
अपनी नजरों को एक सरसरी निगाह से पच्चीस साल पीछे लेते चले जाइए..! साफ दिख जाएगा कि आज जिन बाबाओं का एक बड़ा नेटवर्क खड़ा हो गया है, वे सब 1990 के दौर में ही उगाए गए थे यानी मंडल से बचने के लिए! इन सबने सामाजिक बदलाव की सारी ऊर्जा और ताकत को अपने डायनासोरी जबड़े में जकड़ कर सोख लिया… वह चाहे राम रहीम हो, आसाराम हो, रविशंकर, मोरारी हो या कोई भी बाबा..!
राम-रहीम के भक्तों की भीड़ की ऊर्जा, साहस और जिद देख रहे हैं आप..! यह सब समाज को बदलने के काम में लगना था..! लेकिन फिर वही…! इस भीड़ की ताकत का अंदाजा था इस पंडावादी सामाजिक और राजनीतिक तंत्र को.! इसलिए इन सबके भीतर मौजूद अंधविश्वासों का कारोबार बना डाला गया और आज वे सब सड़क पर अराजकता और आतंक की आग में झोंक दिए गए हैं..!———————–Mohammed Afzal Khan
5 hrs · बाबा रामदेव पे नज़र रखने की ज़रूरत है !देश इन बाबाओ से तंग आगया है आप इतिहास उठा कर देखले के भारत में बाबाओ ने समनांतर हुकमत बना रखा है और ये सब राजनितिक सहयोग और जाहिल,अन्धविश्वाश भक्तो के कारण ही होता है एक लम्बी लिस्ट है चंद्रास्वामी, नित्यानंद, रामपाल , आसा राम बापू , राम रहीम आदि! सरकार को चाहिए के ऐसे बाबाओ पे नजर रखे जो सरकार के सामानांतर शक्तिशाली बन रहे है खास तौर से बाबा रामदेव और श्री श्री रविशंकर और ऐसे सैकड़ो में बाबा है! बाबा रामदेव तो अब बिजनेस के साथ साथ सिक्योरिटी कंपनी के नाम पर पूरी फ़ौज बनाने की तयारी कर चुके है सोचिये इनके पास लाखो से अधिक एक ट्रैनेड बल होगा तो सरकार वक़्त पर उन्हें कैसे हैंडल करेगी!ऐसे भी बाबा रामदेव का इतिहास भी साफ़ नहीं है उनपर भी अपने गुरु और आस्था चैनल के मालिक की हत्या का आरोप है!Mohammed Afzal Khan
कल अफ़ज़ल भाई भी रविश आदि को लेकर चिंतित थे पूछ रहे थे की रविश को कोई खतरा तो नहीं हे मेने कहा बेफिक्र रहिये ये ( हमलावर ) बहुत हि कायर लोग होते हे रविश का कुछ नहीं बिगाड़ सकते हे रविश आदि को खरोंच भी आयी तो सरकार हिल जायेगी मेने अफ़ज़ल भाई को बताया की इतनी साइटस हे सबको छोड़ कर कुछ राइटिस्ट आपकी ही खबर की खबर के पीछे क्यों हाथ धोकर पड़ गए हे इतनी बार हैक किया की तीन साल की मेहनत से जमाई मामूली सी टी आर पि भी शुरुआत की तरह लगभग शून्य पर पहुंच गयी इन्होने हमें टॉर्चर किया फोन पर धमकिया दी इन्हे पता हे की हम लोग बहुत कमजोर और सुपर अल्पसंख्यक लोग हे इसलिए ये हमें टॉर्चर करते हे औरो का कुछ बिगाड़ना कोई हलवा नहीं हे Dilip C Mandal
7 hrs · सोशल मीडिया पर मेरे नाम की सुपारी लेने और देने वालों के प्रति।
बाबा राम रहीम का पर्दाफ़ाश करने वाले रामचंद्र क्षत्रपति हों, या अमेरिकी डिफ़ेंस स्टैबलिशमेंट को हिला देने वाले जूलियन असांज या संघ से वैचारिक लड़ाई लड़ने वाली गौरी लंकेश या लघु पत्रिकाओं और सोशल मीडिया में सक्रिय लाखों पत्रकार… ख़तरनाक सच बोलने और इसके लिए जान का जोखिम उठाने वालों में कॉरपोरेट अख़बारों, पत्रिकाओं और चैनलों वाला कोई नहीं।
यह ग्लोबल ट्रैंड है।दिल्ली के किसी पत्रकार या संपादक या एंकर का ख़बर लिखने या दिखाने के कारण पिछले 70 साल में कुछ नहीं बिगड़ा है। नहीं बिगड़ेगा। ज़्यादा टेंशन न लें। हद से हद नौकरी जाएगी। अगली सरकार में मिल जाएगी। बस।
हमारे जैसे लोग पचासों आईएएस, आईपीएस, वक़ील को जानते हैं, हर पार्टी में लोगों से पहचान है, हमारी क्रांतिकारिता बेहद नक़ली है। बेशक, हम डरने का नाटक करते हैं। ज़रूरत पड़ने पर हम सिक्योरिटी ले लेंगे। कई के पास है।
डर हमारे लिए एक कमोडिटी है। उसे बेचा जा सकता है।हम अपनी इस इमेज को बेच सकते हैं कि देखो कितना रिस्क लेकर ख़बर बता रहे हैं। दरअसल ऐसा कोई रिस्क होता नहीं है।हमें कोई गाली भी दे दे, तो सहानुभूति में सैकड़ों स्वर आ जाते हैं।
असली पत्रकारिता कॉरपोरेट जगत के बाहर हो रही है। या फिर जिलों में।
लगभग हर ब्रेकिंग न्यूज सबसे पहले किसी क़स्बे में किसी अखबार या पत्रिका में छप रही है। कोई लोकल रिपोर्टर छाप रहा है। किसी के फेसबुक वाल पर नज़र आ रही है।दिल्ली के बड़े पत्रकार बाद में नाम लूट लेते हैं।
कस्बाई पत्रकारों को तो यह भी नहीं मालूम कि भारत में पत्रकारिता के हर पुरस्कार के लिए अप्लिकेशन करना पड़ता है। फ़ॉर्म निकलता है। कई बार लॉबिंग चलती है। जाति तो हमेशा चलती है।
इसलिए हमें धमकी मत दो।हम तुम्हारी धमकी की पैकेजिंग करके इतना महँगा बेच देंगे कि तुम अफ़सोस से मर जाओगे। Dilip C Mandal
रविश की बढ़ती लोकप्रियता का सबूत अर्णव ( निगेटिव लोकप्रियता ) के बाद रविश ( पॉजिटिव लोकप्रियता ) दूसरे बड़े पत्रकार हे जिन पर अच्छा हास्य बना हे https://www.youtube.com/watch?v=7w6IevcN9tU&t=25s
Shambhunath Shukla
12 hrs ·
वरिष्ठ पत्रकार Yashwant Singh पर हुए हमले पर पत्रकार जगत चुप है. असहिष्णुता को लेकर हल्ला-गुल्ला करने वालों ने भी एक शब्द नहीं कहा. जबकि यशवंत पर हमला सही में एक ज़मीनी पत्रकार पर हमला है. पत्रकारों की अपनी रोज़ी-रोटी और उसकी अपनी अभिव्यक्ति के लिए सिर्फ यशवंत सिंह ही लड़ रहे हैं. उन्होंने मीडिया हाउसेज और सत्ता की साठगाँठ की परतें उजागर की हैं. लेकिन अब न तो वामपंथी न दक्षिणपंथी कोई भी संगठन उनके साथ खड़ा हो रहा है. बहरहाल कोई हो न हो लेकिन मैं इस साहसी और कर्मठ पत्रकार यशवंत सिंह पर हुए हमले की कड़ी भर्त्सना करता हूँ. मैं फेसबुक के अन्य साथियों से भी अपील करूँगा कि वे साथी यशवंत पर हुए हमले की निंदा करें और सरकार पर दबाव डालें कि वह हमलावरों के विरुद्ध तत्काल कार्रवाई करे.Shambhunath Shukla
Yesterday at 11:47 ·
मैं दक्षिणपंथी तो नहीं हूँ लेकिन वामपंथी भी कतई नहीं। मैने जेएनयू तो दूर कहीं से कोई डिग्री नहीं ली। मैं धर्म को पाखण्ड समझता हूँ और ईश्वर को अज्ञान का दूसरा नाम। मुझे पता है गणेश की मूर्ति दूध नहीं पी सकती और मरने के बाद कोई हूरें नहीं मिलतीं। मैं एक धर्मविशेष के अनुयायियों को खुश करने के लिए दूसरे समुदाय को बेवकूफ नहीं समझता। मैं यह मानता हूँ कि भले एबीवीपी आज हारी हो लेकिन उसने जड़ें पुख्ता कर ली हैं। आज नहीं तो कल वह भी जीतेगी। इसलिए जीतने वालो इतराओ नहीं। वरना आज जीते हो कल धड़ाम से गिरोगे क्योंकि मूर्खता भी जेएनयू में ही पढ़ाई जाती है।
और हां, मुझे पता है कि फिरोज़ गांधी पारसी थे। उन्होंने कमला नेहरू की मृत्युपर्यंत सेवा की थी फिर भी कमला ने जवाहर से कहा था कि इंदू की शादी फिरोज़ से न करना। नेहरू जी भी ऐसा ही चाहते थे मगर गांधी जी ने यह शादी करवाई वह भी वैदिक विधि-विधान से। मुझे यह भी पता है कि जहां क़ुतुब मीनार है वहां एक जैन मंदिर था और ताज महल एक मक़बरा ही है। इसके लिए जेएनयू जाने की जरूरत नहीं छद्म कामरेडों!——————————————Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
3 hrs · Dehra Dun ·
दिल्ली प्रेस क्लब ऑफ इंडिया परिसर में एक उद्दाम पत्रकार यशवंत सिंह को दो ” पत्रकारों ” द्वारा पीटा जाना कर्नाटक में पत्रकार मेध से कम चिंताजनक और भयावह नहीं है । दरअसल जब से पत्रकारिता में लिखने , पढ़ने और गुनने की अनिवार्यता समाप्त हुई है , तबसे तरह तरह के सुपारी किलर और शार्प शूटर इस पेशे में घुस आए हैं । वह न सिर्फ अपने कम्प्यूटर , मोबाइल और कैमरे से अपने शिकार को निशाना बनाते हैं , बल्कि हाथ , लात , चाकू और तमंचे का भी बेहिचक इस्तेमाल करते हैं । इस पेशे में इनकी उपस्थिति वास्तविक श्रम जीवी पत्रकारों के लिए राजनैतिक और आर्थिक धन पशुओं से अधिक भयावह है । इनकी रोक थाम न हुई , तो बारी बारी सबके हाथ , पाँव चश्मे तथा नाक तोड़ेंगे , जैसे यशवंत की तोड़ी है । इनका मुक़ाबला लिख कर , बोल कर तथा जुतिया कर करना अपरिहार्य है ।-Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
9 September at 22:47 · Dehra Dun ·
गुस्सा थूंको , और सुनो मेरी बात । आखिर jnu में हर बार लेफ्ट क्यों जीतते हैं ? क्योंकि वहां दाखिला परीक्षा के आधार पर होता है , और सुपठित – सुचिंतित लड़के एडमिशन पा जाते हैं । वे लड़के सुपठित इसलिए होते हैं , क्योंकि उन्होंने वास्तविक इतिहास पढा होता है । वे जानते हैं कि फ़िरोज़ गांधी मुस्लिम नहीं , अपितु पारसी था । वह गलत जवाब नहीं लिखते कि ताजमहल पहले तेजोमहालय नामक मन्दिर था । समुद्र के बीच की चट्टानों को वे एक भौगोलिक गतिविधि मानते हैं , न कि राम सेतु।। उन्हें विदित है कि बारिश इंद्र देव की कृपा से नहीं अपितु समुद्र के पानी के वाष्पीकरण से होती है ।
ऐ भतीजे , इतिहास , भूगोल , खगोल , भौतिकी को मिथकों के नहीं अपितु तर्क और तथ्य की कसौटी पर कसना सीख । खूब पढ़ , लिख और jnu में अपनी तादाद बढा , फिर वहां भगवा झंडा फहरा बिंदास । देख कन्हैया कुमार को अंतरराष्ट्रीय राजनीति की कैसी सांगो पांग जानकारी है ।और एक तू है , जो मक्का की मस्जिद को हनुमान मंदिर बताता । तू इतना बड़ा हो गया फिर भी बच्चों जितना आई क्यू रखता । सिर्फ तेरी नाक बहना बंद हुई , अन्यथा तेरा बौद्धिक स्तर अभी तक नर्सरी के बच्चे जितना है । क्योंकि धूर्त सत्ता पिपासु ने तेरी मत भरमा दी । आखिर क्या तू अपढ़ – उजड्ड रह कर देशद्रोही कन्हैया से लड़ेगा ? काबिल बन मेरे प्यारे बच्चे , और भविष्य की लहरों पर सवारी गांठ ।
Yashwant Singh
18 September at 16:11 ·
मृणाल पांडेय ने जो लिखा कहा, उस पर बहुत लोग लिख कह रहे हैं. कोई पक्ष में कोई विपक्ष में. आजकल का जो राजनीतिक विमर्श है, उसमें अतिवादी टाइप लोग ही पूरा तवज्जो पा रहे हैं, महफिल लूट रहे हैं. सो इस बार मृणाल पांडेय ही सही. मेरा निजी अनुभव मृणाल को लेकर ठीक नहीं. तब भड़ास4मीडिया की शुरुआत हुई थी. पहला पोर्टल या मंच या ठिकाना था जो मेनस्ट्रीम मीडिया के बड़े बड़े मठाधीश संपादकों को चैलेंज कर रहा था, उनकी हरकतों को उजागर कर रहा था, उनकी करनी को रिपोर्ट कर रहा था. मृणाल पांडेय ने हिंदुस्तान अखबार से मैनेजमेंट के निर्देश पर थोक के भाव पुराने मीडियाकर्मियों को एक झटके में बाहर का रास्ता दिखा दिया. करीब तीन दर्जन लोग निकाले गए थे. शैलबाला से लेकर राजीव रंजन नाग तक. इस बारे में विस्तार से खबर भड़ास पर छपी. मृणाल पांडेय ने अपने सेनापति प्रमोद जोशी के जरिए भड़ास पर मुकदमा ठोंकवा दिया, लाखों रुपये की मानहानि का, जिसके लिए कई लाख रुपये दिल्ली हाईकोर्ट में एचटी मीडिया लिमिटेड की तरफ से कोर्ट फीस के रूप में जमा किया गया.
मुकदमा अब भी चल रहा है. प्रमोद जोशी एक बार भी हाजिर नहीं हुए. भड़ास पर यह पहला मुकदमा था. हम लोगों ने इसका स्वागत किया कि यह क्या बात है कि आप अपने यहां से बिना नोटिस तीन दर्जन लोगों को निकाल दो और हम खबर छाप दें तो मुकदमा ठोंक दो, सिर्फ इस अहंकार में कि हम तो इतने बड़े ग्रुप के इतने बड़े संपादक हैं, तुम्हारी औकात क्या? भड़ास4मीडिया न डरा न झुका, बल्कि कई निकाले गए लोगों की मदद करते हुए उन्हें लीगल सहायता भी उपलब्ध कराई. मृणाल पांडेय मुकदमें में खुद पार्टी नहीं बनीं. उन्होंने प्रमोद जोशी को आगे किया. एचटी मीडिया यानि शोभना भरतिया की कंपनी को आगे किया. आज भी एचटी मीडिया बनाम भड़ास4मीडिया का मुकदमा चल रहा है. हमारे बड़े भाई और वकील साब Umesh Sharma जी इस मुकदमें को देख रहे हैं, बिना कोई फीस लिए.
कहते हैं न कि कई बार चींटीं भी हाथी को धूल चटा देती है. इस मुकदमें में कुछ ऐसा ही होने वाला है. अब तो वहां न मृणाल पांडेय रहीं न प्रमोद जोशी रहे. एचटी मीडिया के ढेर सारे वकील भारी भरकम फीस कंपनी से वसूल रहे हैं और भड़ास4मीडिया से लड़ने हेतु कोर्ट से तारीख पर तारीख लेते जा रहे हैं. अपन लोग भी इंज्वाय करते हुए मुकदमा लड़ रहे हैं, कि इतनी भी जल्दी क्या है, मुकदमा चल रहा है तो क्या… मुकदमा खत्म भी हो जाए तो क्या…
लेकिन उस वाकये ने मृणाल पांडेय को मेरी नजरों से गिरा दिया. वह एक दंभी, स्वार्थी, चापलूस पसंद, अलोकतांत्रिक और आत्मकेंद्रित महिला मुझे लगी. उसे अब किसी भी प्रकार से चर्चा में रहना है… क्योंकि उसके पास अब न कोई पद है न कोई काम… ऐसे में सहारा बचा है सोशल मीडिया जिसके जरिए उसे चर्चा में रहने का एक जोरदार मौका मिला है. आजकल ब्रांडिंग इसी को कहते हैं. आप लगे रहिए मृणाल के विरोध या पक्ष में, लेकिन सच बात तो ये है कि मृणाल फिर से मशहूर हो गई… मृणाल फिर से मुख्यधारा में आ गई… ये है नए दौर की ब्रांडिंग की ताकत… कोई मारी गई महिला पत्रकार को कुतिया कह कर चर्चा में आ जाता है तो कोई पीएम को गधा बताकर ताली बटोर लेता है. साथ ही साथ उतना ही तगड़ा विरोध भी झेलता है. इस तरह चरम विरोध और समर्थन के बीच वह अपना कद काठी काफी बड़ा कर लेता है. Yashwant Singh
जैजै
See Translation
Vineet Kumar
23 hrs ·
मृणाल पांडे का बचाव जरूर कीजिए साहब लेकिन.. :
मृणाल पांडे के बारे में मैंऔर वो भी कई मौके पर मिले व्यक्तिगत अनुभव से जितना जानता हूं, जरूर कह सकता हूं कि वो खुद अपने लेखन और अभिव्यक्ति के लिए जितनी उदारता की उम्मीद रखती हैं, सामनेवालों के लिए उतनी ही अनुदार, श्रेष्ठताबोध और जकड़बंदी की शिकार होने के कारण अलोकतांत्रिक भी है. वो वक्त- बेवक्त अपनी प्रांजल हिन्दी और ठसकदार अंग्रेजी के बूते न केवल उनका उपहास उड़ाती रहीं हैं बल्कि आहत करने से लेकर सत्ता का इस्तेमाल करते हुए दंडित भी करती रहीं हैं. वो हर वक्त सामान्य मनुष्य के बजाय, संजीदा पत्रकार के बजाय एक ऑथिरिटी के रूप में हुआ करती हैं जिन्होंने मान लिया है कि उनका मूल धर्म है जमात को हांकना.
जो लोग उनकी भाषा दक्षता और सौम्य व्यक्तित्व के मुरीद हैं, उन्हें मुबारकबाद. उनकी आस्था आखिर-आखिर तक बची रहे लेकिन हमारी तरह बाकी ब्लॉगिंग के दौर के पुराने साथी पुरानी फाइलों की तरफ लौटकर एक नजर मारते हैं तो यह समझ पाना मुश्किल नहीं है कि वो नयी तकनीक के बीच लिखे जाने को लेकर कितनी आक्रांत और नए लोगों के प्रति कितनी हिकारत से भरी हुई हैं. वो संपादक का विवेक और जमीर जिंदा रखने के बजाय उसकी कुर्सी बचाए रखने की पक्षधर रहीं हैं. वो पत्रकारिता नहीं, उसके बहाने बनी क्लास और क्लब बचाने की हिमायती रही हैं.
मैंने सार्वजिनक तौर पर उन्हें संयम खोकर बोलते, लिखते देखा-सुना है. उस दौरान उनका ज्ञान नहीं, क्लास का अहं उच्चरित हो रहा होता है. लेकिन जिसकी जैसी छवि बन जाती या बना दी जाती है, उसे बरकरार रखनेवाले लोग भी आसपास होते ही हैं. उनकी ये छवि सलामत रहे लेकिन लिखनेवाले इस कोशिश में इतने ज्यादा लहालोट न हो जाएं कि उनके लिखे के प्रति विश्वास जाता रहे. भाषिक दरिद्रता के शिकार लोग ऐसी बातें करें, लिखें तो और बात है, जिनकी पूंजी ही भाषा रही है और बाकी पूंजी भी उसी से बनी हो, वो भी ऐसा ही करने लग जाएं तो लोगों का यकीं उनसे नहीं, भाषा की क्षमता से उठने लग जाता है.
बस ये उदारता और अभिव्यक्ति की आजादी की कामना एकतरफा न हो. एकतरफा कामना करनेवाले मसीहाओं की तो लंबी कतार है. उनकी सौम्य छवि जब उघडती है तो न केवल शक्ल बल्कि पूरा मंजर बेहद असह्य और घिनौना होता है.
हर असहमति पर ‘भक्त’ की लेबल चस्पाकर खुद बचाव की मुद्रा में आ जाना दरअसल भक्त 2.0 हो जाने की तरफ बढ़ना है. हम बार-बार यही दोहराते आए हैं- पक्ष-विपक्ष खोजते रहने से कहीं ज्यादा अपने भीतर के विपक्ष को जिंदा रखना और अभिव्यक्ति देते रहना भी उतना ही जरूरी है.Vineet Kumar
सरकार के जो चाटुकार पत्रकार हे हे नाम लेने की जरुरत नहीं हे वो सोचते होंगे की जनता उनसे प्रेम करती हे जबकि घंटा करती हे लोग आपसे नहीं आपकी ”नीचता ” से प्रेम करते हे जरा सोचिये की इन दलाल पत्रकारो को दलाली तो खूब मिलती हे मगर ऐसा प्रेम मिलता होगा ———— ? Ravish Kumar added 4 new photos.
15 hrs ·
ज़माने बाद कनॉट प्लेस अकेला भटकता रहा। लोगों में घुल-मिल जाने के इस सुख को किस जीवन के लिए छोड़ दूँ। रीगल के पीछे जीत बिरयानी वाले के पास गया, सात आठ साल पहले गया था, बगल वाले मे ऐसे ही कहा कि सरदार जी तो ऊपर चले गए। उनकी दुकान में मोबाइल शॉप खुल गया है। उसके बाद जनपथ गया। एक आवाज़ सुनाई दी, अरी ओ भारतीय नारी, मेरी सैंडिल सबसे प्यारी।फिर अजय सिंह मिले। कनाडा में रहने वाले अपने बेटे के लिए सामान ख़रीद रहे थे। बेटे ने मँगवाया था। अजय सिंह को मैं नहीं जानता था पर डीपॉल के यहाँ ले गए और कॉफी पिलाई। उनकी जीवनसाथी ने कहा कि जीवन का क्या ठिकाना। यहीं बम फट जाए इसलिए जान की चिंता के लिए सच का साथ नहीं छोड़ना चाहिए। किसी ने कहा कि आपके लिए चिंता होती है, आप ऐसे घूमते हैं। उसी के जवाब में वो बोल गईं। अजय जी ने अपने थैले से निकाल कर झुमका दे दिया। कहा जिसे आप पसंद करते हैं, हमारी तरफ़ से दे दीजिएगा। तो आपको पता है किसे मिलेगा। लोगों का प्यार एक जीवन में हज़ार जीवन का सुख दे देता है। कई किस्से हैं, धीरे धीरे लिखूँगा।———————————————–Ravish Kumar
22 hrs ·
बेरोज़गारों, तुम्हारे सपने कब पूरे होंगे? 2022 में ?
अक्सर रेलवे और सरकारी सेवाओं से नौकरी की उम्मीद लगाए नौजवान पूछते हैं कि हमलोगों के बारे में क्यों नहीं लिखते। मेरा जवाब यही होता है कि समग्र रूप से आँकड़े नहीं मिलते। naisadak डॉट org , कस्बा पर रेलवे को लेकर लिखा है जो कम पढ़ा गया। मगर बैंक सेवाओं से संबंधित आँकड़े मिले हैं जिसे देखकर अपने नौजवान दोस्तों के लिए बहुत दुख हुआ।
आम तौर पर इस साल तक बैंक भर्तियों के लिए IBPS को बता देती है,इंस्टीट्यूट आफ बैंकिंग पर्सनल सलेक्शन नाम की यह संस्था बैंक सेवाओं में भर्तियों के लिए परीक्षा आयोजित करती है. IBPS की वेबसाइट से जो डेटा मिला है, उसे देखते हैं.
2015 में 24, 604 क्लर्कों की भर्ती का विज्ञापन निकला था. 2016 में 19, 243 क्लर्कों की भर्ती का विज्ञापन निकला. एक साल में क्लर्कों की भर्ती में 5,361 की कमी आ गई. 2017 में 7,883 क्लर्कों की भर्ती की वेकैंसी आई है. 2016 से 17 के बीच 11,360 पद कम हो गए.
2015 की तुलना में सौलह हज़ार वैकेंसी कम हो गई है. नौजवान आज बेरोज़गारी के रेगिस्तान में खड़ा है और आपका नेता कब्रिस्तान की बात कर रहा है.
अब आते हैं प्रोबेशनर आफिसर पीओ की संख्या पर. यहां भी कहानी दुखद है.
2015 में 12,434 पोस्ट पीओ का निकला था. 2016 में सीधा 3612 कम हो कर 8,822 हो गया. 2017 में 3,562 पीओ की ही वैकेंसी निकली है. यानी 2015 की तुलना में 2017 में करीब 9000 कम वेकैंसी आई है.
छात्रों का एक बड़ा वर्ग बैंकिंग सेवाओं की तैयारी में लगा रहता है। वे भी कमेंट में अपना अनुभव या कोई और तथ्य जोड़ सकते हैं। मैं संशोधित कर सकता हूँ। पर उनसे सवाल है। क्या उन्हें भी नौकरी नहीं चाहिए? क्या उन्हें भी सिर्फ हिन्दू मुस्लिम टॉपिक चाहिए? आजकल मंत्री सुबह सुबह किसी महान नेता, किसी महान कवि की जयंती पुण्यतिथि पर ट्वीट करते हैं, क्या आप उनसे नहीं पूछेंगे कि भाई अपने मंत्रालय की वैकेंसी का डेटा कब ट्वीट करोगे?
गुरुवार के इंडियन एक्सप्रेस प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना पर एक रिपोर्ट छपी है. आंचल मैगज़ीन और अनिल ससी की रिपोर्ट आप भी पढ़ियेगा. स्किल डेवलपमेंट मंत्रालय ज़िला स्तर पर मांग और आपूर्ति की समीक्षा कर रहा है, डेटा जमा कर रहा है. जुलाई 2017 के पहले हफ्ते तक के डेटा को देखने के बाद जो तस्वीर सामने आ रही है वो भयावह है.
अभी तक कौशल विकास योजना के तहत 30 लाख 67 हज़ार लोगों को प्रशिक्षण दिया गया है या दिया जा रहा था. इनमें से मात्र 2 लाख 90 हज़ार को ही काम मिला है. 12,000 करोड़ की इस योजना के तहत चार साल में एक करोड़ युवाओं को ट्रेनिंग देने का लक्ष्य है.
इसका मतलब स्किल इंडिया भी फ़ेल हो गया है। विज्ञापन में ही सफल है। सारा पैसा प्रोपैगैंडा में ही उड़ाना है तो एक विज्ञापन में यह भी बता दें कि तीस लाख को ट्रेनिंग दी, मगर तीन लाख को ही नौकरी दी। विपक्ष में रहते तो यही करते, अब जब विपक्ष को आयकर विभाग सीबीआई से डरा कर ख़त्म कर दिया है तो ये काम भी आप ही कर दीजिए हुज़ूर ।
मेरा यक़ीन कहता है कि इन बेचैनियों पर पर्दा डालने के लिए जल्दी ही कोई बड़ा ईंवेंट, स्लोगन और भाषण आने वाला है।
सवाल करते रहिए। एक दूसरे का साथ देते रहिए। नौकरी माँगिए नौकरी।Ravish Kumar
22 September at 07:13 ·
30 लाख से भी कम लोगों ने अगस्त महीने की जीएसटी जमा कराई है। जुलाई में 46 लाख लोगों ने जीएसटी भरा था।
जबकि जुलाई तक 60 लाख रजिस्ट्रेशन ही हुआ था। अगस्त तक करीब 90 लाख रजिस्ट्रेशन हुआ था। एक महीने में तीस लाख पंजीकरण भरा लेकिन इसके बाद भी जीएसटी भरने वालों की संख्या में सोलह लाख की कमी हो गई ।
क्या व्यापारियों ने जीएसटी को लेकर हाथ खड़े कर दिए ? इसका मेरे पास कोई जवाब नहीं।
जीएसटी भरने में देरी होने पर दो सौ रुपये प्रति दिन दंड देने होते हैं। इसके अलावा 18 प्रतिशत का ब्याज़ भी लग सकता है। इसके बाद भी सोलह लाख जीएसटी कम भरी गई है।
हर व्यापारी जीएसटी के पोर्टल और जटिलता को लेकर शिकायत कर रहा है। बिजनेस स्टैंडर्ड में जीएसटी प्रमुख अजय भूषण पांडे के बयान से लगता नहीं कि कोई बड़ी दिक्क्त है।
वित्त मंत्री ने कहा था कि आख़िरी दिन 75 फीसदी लोग जीएसटी भरते हैं। उन्हें पहले भरना चाहिए लेकिन आँकड़े बताते हैं कि सिर्फ 46 प्रतिशत लोगों ने अंतिम दिन भरा। अब इतने लोग आख़िर में तो आएँगे ही। इस सुधार के बाद भी सोलह लाख कम जीएसटी भरी गई है। जबकि इसे बढ़ना चाहिए था।
सरकार अब मान रही है कि अर्थव्यवस्था को revive करने की ज़रूरत है। इसके लिए वो चालीस हज़ार करोड़ ख़र्च करे या पचास हज़ार करोड़ इस पर विचार हो रहा है। इससे वित्तीय घाटा काफी बढ़ेगा। बिजनेस स्टैंडर्ड की यह पहली ख़बर है।
लगातार छह तिमाही से अर्थव्यवस्था में मंदी आ रही थी। अब जाकर सरकार मानी है। उस वक्त मानती तो हंगामा होता और नोटबंदी को मूर्खतापूर्ण स्वीकार करना होता। नोटबंदी के दूरगामी परिणाम आ गए हैं और बेलग्रामी मिठाई खाइये। तब जब सवाल उठे तो जवाब देने के बजाए स्तरहीन मगर प्रभावशाली भाषण दिए गए। स्तरहीन इसलिए कहा क्योंकि एक भी भाषण में सवालों के जवाब नहीं दिए गए, प्रभावशाली इसलिए कहा क्योंकि लोगों ने कुछ सुना नहीं समझा नहीं मगर उसके टोन और शोर पर भरोसा किया। रोया गया और माँ तक को लाइन में लगा दिया गया। जो मर गए और जिनकी मेहनत की कमाई बर्बाद हो गई उनके लिए एक बूँद आँसू नहीं।
वैसे तमाम तरह के ईंवेंट से यह तो हो गया है कि हम नोटबंदी से हुई बर्बादी की स्मृतियों से दूर आ गए हैं । फिर भी आप किसी ज़ोरदार परंतु तथ्यहीन भाषण के लिए तैयार रहिए जिस पर कई दिनों तक चर्चा होने वाली है। क्योंकि भाषण हमेशा अच्छा होता है।
नोट: कहीं ऐसा तो नहीं कि अर्थव्यवस्था को लेकर मेरे तमाम पोस्ट सही साबित हुए और सरकार को भी समझ आया कि सही कह रहा हूँ ! मुग़ालता नहीं पालना चाहिए लेकिन सरकार को भी दिख रहा था कि कदम लड़खड़ा रहे हैं। बस उसे यक़ीन था कि भाषण, विज्ञापन से मनोवैज्ञानिक हालात बदल जाएँगे और लोग नौकरी सैलरी की चिंता छोड़ हिन्दू मुस्लिम टॉपिक में रम जाएँगे ।
Vikram Singh Chauhan
7 mins ·
एनडीटीवी को भक्त लोग रोज बेच रहे हैं! रवीश कुमार रोज बेरोजगार हो रहे हैं! लेकिन फिर उसी दिन रात नौ बजे रवीश कुमार फिर से प्राइम टाइम कर देते हैं भक्त लोग रातभर कोमा में चले जाते हैं। सुबह होश आते ही फिर एनडीटीवी को बेचने निकल पड़ते हैं। एनडीटीवी को बेचने के लिए भक्त लोगों को कुछ खास ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं पड़ती है। एक रवीश का फोटो लगता है। एक कोई दैनिक भारत ,अखंड भारत ,सुदर्शन टाइप न्यूज़ वेबसाइट का लिंक लगता है बाकी काम बीजेपी का आईटी सेल करता है! अब सवाल यह है कि रोज -रोज एनडीटीवी को खरीदता कौन है? और बिकने के बाद फिर उसी तेवर में रवीश कुमार कैसे आ जाते हैं? अबकी बार कोई भक्त एनडीटीवी को बेचते नज़र आये तो इसे जरूर पूछना!Vikram Singh Chauhan
1 hr ·
बीएचयू के वाइस चांसलर जीसी त्रिपाठी का रवीश कुमार के साथ इंटरव्यू देखकर यकीन हो गया कि देश में विश्वविद्यालयों को भी मोदी सरकार ने हिंदुत्व का प्रयोगशाला बना लिया है। और वीसी के पद पर उन संघियों को बिठाया गया है जिन्हें सिद्धहस्त है दमन करने में। यह घटिया आदमी जिसके यूनिवर्सिटी में एक पीड़िता ने मुंडन कर लिया ,कई लड़कियों को लाठी पड़ी ,किसी के हाथ में किसी के पैर में चोट है ,किसी के सर पर पट्टी बंधी हुई है यह आदमी पूरे इंटरव्यू में मुस्कुराता रहा। मैं सोचा था भले यह संघी होगा पर तर्कपूर्ण बातें करेगा। पर यह आदमी रवीश के ऊपर ही आरोप लगा रहा है कि पीड़िता अपने रूचि के हिसाब से आपके पास पहले गई फिर मेरे पास आई। उन्होंने रवीश कुमार के सवाल देने से बचने के लिए पूरे इंटरव्यू में बोलते रहा कि आप मुझे बोलने नहीं दे रहे ,भले पूरे इंटरव्यू में उन्होंने ही बोला। अंत में रवीश कुमार ने इस वीसी से हाथ जोड़ लिया क्योंकि रवीश उस वीसी के स्तर तक गिरकर पत्रकारिता नहीं कर सकते थे।
See TranslationVikram Singh Chauhan
21 September at 23:21 ·
एक मुस्लिम लड़के और एक हिन्दू लड़की ने साथ में चाय पी। एक हिंदूवादी भाजपाई महिला नेत्री को ये बात हजम नहीं हुई उन्होंने लड़की को सार्वजनिक मंच पर कई चांटे जड़ दिए। और उस लड़की को बोल रही है तुम्हे पता नहीं है कौन हिन्दू है और कौन मुसलमान। अब पुलिस ने उस मुस्लिम लड़के को गिरफ्तार किया है? उस मुस्लिम लड़के का क्या जुर्म है? साथ में चाय पीना क्या जुर्म है? या दूसरे धर्म वाले के साथ देखा जाना जुर्म है। कल को यही पुलिस क्या करेगी आपको पता है। उस लड़की को दबाव डलवाकर बुलवा लेंगे कि लड़का जबरदस्ती ले गया चाय पिलाने । सरकार बोलेगी ये लव जिहाद का मामला है। लड़के का किसी आतंकी संगठन से भी रिश्ता निकाल सकते हैं। महिला नेत्री कौन होती है एक युवती को थप्पड़ मारने वाली। क्या माँ -बाप के अधिकार अब भाजपाइयों के पास चले गए हैं। कल को अगर कोई हिन्दू लड़की अपने पड़ोस के ही रहने वाले किसी दाढ़ीवाले मुस्लिम भाई से लिफ्ट मांगती है तो उसके ऊपर भी हमला हो सकता है।—————————————–Nitin Thakur
1 hr ·
वीसी त्रिपाठी जी चाहे जितनी बेशर्मी से खुद को डिफेंड करते हुए कह रहे हों कि प्रधानमंत्री के प्रोग्राम से एक दिन पहले जानबूझकर ऐसी घटना हुई है… फिर भी मैं त्रिपाठी जी की तारीफ करता हूं। वो कम से कम देश के प्रधानमंत्री से बेहतर हैं जो सवाल का सामना करने के लिए रवीश के प्राइम टाइम में चले आए।
See Translation————————————– भाज्प विध्यक जोशि ने किय द्लित के घर भोजन Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
Yesterday at 09:43 · Dehra Dun ·
जिसका भी उल्लू टेढ़ा हो जाता है वह उसे सीधा करने के लिए मुंह उठा कर दलित के घर का रुख करता है । वहां हलवा , पूरी भकोस कर मीडिया वालों को लन्च , डिनर देता है । फिर अखबार tv में आ जाता है , छा जाता है । यह शुरुआत महात्मा गांधी ने की थी । लेकिन वह भंगी बस्ती में रुक कर उनका मैला भी साफ करते थे । फिर राहुल गांधी को उसके किसी ट्रेनर ने यह जुगत बताई । वह कभी रात को भी दलित की झोपड़ी में सो जाता है , और उसके सुरक्षा कर्मियों की चहल कदमी और सीटियों से पूरा मोहल्ला रात भर हलकान रहता है । और अब हर ऐरा गैरा यह करने लगा । निदान :-
1:- जिस दलित के घर ये जाते हैं , वह इन्हें फल , मेवा , खीर , हलवा की बजाए वह चीज़ ( अर्थात सुअर का मांस ) खिलाये , जिसे वे गरीब धनाभाव और मज़बूरी में खाते हैं ।
2:- भोजन से पहले इनसे टट्टी सफवाई जाए , जैसा गांधी करते थे ।
3:- इनके घर भी दलित किसी दिन सपरिवार भोजन पर अपने जानवरों के साथ जा धमके ।
फिर देखते हैं इनका दलित प्रेम ।
http://www.hindi.indiasamvad.co.in/viewpoint/what-is-the-relation-between-ravish-and-mohamma-anas-31469
Nitin Thakur
11 hrs ·
रवीश की इस पोस्ट का बहुतों को इंतज़ार था.. लीजिए..
इन दिनों कमेंट में एक नया ट्रोल मेसेज शुरू हुआ है कि आपके ‘भक्त’ भी तो गाली देते हैं। ये दो बातें अब आलोचना की आड़ में हर गाली देने वालों के मेसेज में होती है । इसीलिए इसे ट्रोल मेसेज कहा। मज़ेदार बात ये है कि उसी कमेंट में
लिखने के बाद ट्रोल भी गाली देता हैं।
मैंने कई कमेंट पढ़े। ऐसी प्रवृत्ति नहीं दिखी। मेरी नज़र से बेहद कम मेसेज ऐसे गुज़रे जिसमें गालियाँ हो। मगर एक में भी है तो यह ठीक बात नहीं है। मुझे शर्मिंदा होना पड़ा है। आप गालियों का इस्तमाल न करें। गुस्सा सबको आता है। बोलचाल की ज़ुबान में गालियाँ आम होती हैं पर वहाँ भी इसे ठीक कीजिए। कोशिश करेंगे तो बोलने लिखने में ये बीमारी समाप्त हो सकती है या कम हो सकती है।
दूसरा मेरा फैन न बनें। भक्त न बनें। मैं पहले भी कस्बा पर इस बारे में लिख चुका हूँ। फिर भी लोग कहते हैं कि हम आपके फैन हैं। यह हमारे समय का कहने का तरीका भी हो गया है। आप किसी को पसंद करते हैं तो कह देते हैं कि फैन हैं। गाँव देहात में भी लोग बोलने लगे हैं। यह कोई बड़ी बात नहीं है।
मगर इससे आगे न जाएँ। फिर आप भक्त बन जाते हैं। यह एक बीमारी है। ट्रोल ख़ुद भक्त हो चुके हैं मगर अब वे आपको बीमार साबित करना चाहते हैं। यह भी एक रणनीति है। ट्रोल आई टी सेल से संचालित एक राजनीतिक गतिविधि है जिसका मकसद है जनता में बोलने को लेकर दहशत पैदा करना। अब वे मेरे पोस्ट से सहमति रखने वाले हर किसी को भक्त ठहराना चाहते हैं । जबकि आप हैं नहीं और होंगे भी नहीं। मेरी कोई ट्रोल सेना नहीं है। मेरा कोई आई टी सेल नहीं है ।
आप मेरे साथ हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि आप भक्त हैं। मैं ऐसा बिल्कुल नहीं मानता। उन्हें पता है कि सोशल मीडिया की राजनीतिक शब्दावली में भक्त अब सम्मानित शब्द नहीं रहा इसलिए ये कीचड़ आप पर भी फेंक रहे हैं। कई नाम से टाइप किए गए मेसेज में जब यह बात बार बार आई तो लगा कि ट्रोल सेना के चीफ़ ने कोई नई रणनीति बनाई है। मेरी बात से सहमत हर किसी को भक्त बोलो और लिखों कि वे गाली देते हैं। अब वे ऐसा भी कर सकते हैं कि फेक आई डी से लिखें कि मैं आपका फैन हूँ, फिर गाली दें ताकि आपको बदनाम किया जा सके।
आप सतर्क जनता हैं। सत्ता को सजगता से देखने के क्रम में मेरी लड़ाई में साथ देते हैं। आप भक्त नहीं हैं पर वे आपको भक्त बताएँगे। घबराना नहीं है। आई टी सेल भारत के युवाओं को बर्बाद करने का अड्डा है। इनकी करतूत का नमूना आप देखते ही रहते हैं।
फिर भी अगर किसी ने कमेंट गाली दी है तो उन्हें नहीं देनी चाहिए। ऐसा कोई करेगा तो ब्लाक किया जाएगा। सारे कमेंट तो नहीं पढ़ पाता मगर गाली दिखी तो दोनों तरफ के लोगों का कमेंट ब्लाक होगा और डिलिट भी। कभी निकल जाए तो ख़ुद से भी अपना कमेंट डिलिट कर दीजिए। प्रायश्चित से बेहतर कोई रास्ता नहीं ।
कई बार पोस्ट कुछ और होता है और कमेंट में लंबा लंबा टाइप किया हुआ किसी और बात का मेसेज होता है। ये ट्रोल कंटेंट होता है। ऐसे मेसेज को ब्लाक और डिलिट किया जाना ज़रूरी है।क्रिकेट के मैच में फ़ुटबॉल नहीं चलेगा।
मेरे एकाध मित्र फेसबुक स्टेटस में लिखते समय गंदी गालियाँ देते हैं। वो मेरी भक्ति में नहीं बल्कि अन्य संदर्भों में लिखते समय देते रहे हैं। पिछले दो तीन दिनों में कई दोस्तों ने अनस के पुराने पोस्ट के बारे में याद दिलाया है, जिसकी जानकारी मुझे नहीं थी। मैं सही में शर्मिंदा हूँ । अब अगर मैंने दोबारा अनस के पोस्ट में गालियाँ देखी तो उसे ब्लाक कर दूंगा और नाता तोड़ लूँगा। एक ग़लती बार बार नहीं करता। मुझे सही में बहुत दुख हुआ है। अनस का पेज ब्लाक हुआ तो मैंने पोस्ट लिखा था कि सरकार की आलोचना वाले पोस्ट के कारण क्यों बंद किया गया है। मैं उस पोस्ट को डिलिट कर सकता हूँ पर ये सबूत मिटाने जैसा हो जाएगा। आप कभी गाली न दें और कभी ट्रोल न बनें ।——————————————-Vikram Singh Chauhan
22 hrs ·
मोहम्मद अनस गालीबाज है ऐसा बोलने वाले अपने इनबॉक्स चैट को सार्वजनिक करें। जब से मैं अनस को जानता हूँ वे किसी से पहले नहीं उलझते। किसी को अगर गाली भी दिया है तो उसने अनस को पहले छेड़ा है। किसी इंसान को आप बेवजह परेशान करेंगे तो उसकी भी बर्दाश्त करने की एक सीमा होती है। कुछ लोगों की चिढ इसलिए भी है कि रवीश कुमार ने अनस के लिए पोस्ट लिखा है ,उनकी रवीश कुमार की दोस्ती है और दोस्त मुसीबत में ही काम आते हैं। उन्होंने एक पत्रकार धर्म भी निभाया। अनस के साथ जो फेसबुक ने किया वह किसी भी दृष्टि से उचित नहीं था ,विश्व मीडिया ने भी इस मुद्दे को उठाया। पर तुम जलनखोरों से ये देखा नहीं गया। आ गए अपनी औकात पर। किसी ने मुस्लिम पत्रकार बताया ,किसी ने उसकी पुरानी स्क्रीनशॉट लगाकर न्यूज़ बनाया और अब यहाँ फेसबुक में घुमा रहे हैं। काम धंधा तो है नहीं तुम लोगों के पास ,बस दूसरों की जिंदगी पर नज़र रखते हो। अपने बीच का कोई आदमी चार दिन सोशल मीडिया में ट्रेंड किया तो आ गए मीन मेख निकालने। देश में मुद्दों की कमी है क्या? मुंबई में कल हादसा हुआ उस पर लिखो ,तुम लोगों का बाप भागवत नागपुर में प्रवचन दे रहा है उस पर लिखो। पर नहीं! लिखेंगे अनस पर ही।—————–Mohammad Anas
Yesterday at 09:43 · New Delhi ·
मैंने अतीत में अपशब्दों का इस्तमाल किया है। गालियाँ दी हैं। मैं अब नहीं करूँगा। इनका किसी भी तर्क से बचाव नहीं किया जा सकता। जो लोग मेरी गालियों को लेकर नाराज़ हैं वो अब देखेंगे कि मैं बदल गया हूँ। बिना शर्त उनसे माफी भी माँगता हूँ।
गालियाँ हमारी भाषा का सहज हिस्सा रही हैं। बनारस इलाहाबाद या कहीं और भी गालियों का ख़ूब इस्तमाल होता है। ज़्यादातर गालियाँ तो मित्रतापूर्ण माहौल में ही दी जाती हैं। दोस्तों से बातचीत में दी जाती है।बनारस में होली के मौके पर गालियों का जो मुक़ाबला होता है वो दर्शनीय है।
गालियों का यही संस्कार मेरे साथ फेसबुक पर चला आया। मेरी गाली और सत्ता के दम पर किसी को गाली देने में अंतर कीजिए। जो सत्ता के दम पर गाली दे रहे हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री तक फोलो करते हैं और जो गालियों के साथ सांप्रदायिकता फैलाते हैं, पत्रकारों की ज़ुबान बंद करते हैं उनकी तुलना मेरी गालियों से करने की चालाकी मत कीजिए।
मैंने हमेशा सांप्रदायिकता और राज्य की दादागीरी के खिलाफ लिखा है। बुलंद और आज़ाद आवाज़ के हक में लिखा है। इसलिए संदर्भ सही रखिए।
यह लिखने का मतलब यह नहीं कि मैं बहाना खोज रहा हूँ । आपकी आलोचनाओं का असर हुआ है और अब मैं गाली नहीं दूँगा। अब आप प्रधानमंत्री से पूछ सकते हैं कि जब दुनिया ने कई हफ़्तों से आलोचना की कि आप ऐसे लोगों को फोलो करते हैं जो गालियाँ देते हैं, धमकी देते हैं और सांप्रदायिक बातें करते हैं तो उन्होंने क्या किया ? क्या ब्लाक किया ? क्या प्रायश्चित की ?
मैं करूँगा । कर रहा हूँ । ठीक से नोट कीजिए लिखित रूप से गाली नहीं दूँगा। चिंता मत कीजिए ज़ुबान भी सही कर लूँगा। पुरानी आदत है वो भी जाएगी।
आज की तारीख में एक हमारी ” मनहूस विचारधारा ” को छोड़कर हर कोई हर किस्म के विरोध विवाद प्रचार से आख़िरकार बहुत कुछ नहीं तो कुछ न कुछ फायदे में ही रहता हे फेसबुक और रविश ने मिलकर एक ”मेनस्ट्रीम सोच ” के ही पत्रकार को ज़बर्दस्त टी आर पी दिलवा दी हे और क्या चाहिए . शिखा अपराजिता
29 September at 14:29 ·
सुना है एक लुच्चे मुसंघी पत्रकार की पोस्ट को फेसबुक ने डिलीट कर दिया । उस पोस्ट में ऐसा कुछ नहीं था कि फेसबुक द्वारा उसे डिलीट करने की ज़रूरत थी । वह लुच्चा पत्रकार काफी समय से लुच्चई लम्प्टई वाले स्त्री विरोधी पोस्ट्स, घिनौने मर्दवादी और सामंती सड़ांध भरे पोस्ट लिखता आया है, लेकिन फेसबुक को उन लम्प्टई भरी पोस्ट्स से आज तक कभी परेशानी नहीं हुई । लेकिन अचानक एक harmless पोस्ट को डिलीट करके उस लुच्चे को फज़ूल की trp दे दिया । शिखा अपराजिता
Jyoti Yadav
19 hrs ·
प्रधानमंत्री तो गालीबाजों को ट्विटर पर फॉलो करके उनकी हिम्मत ना बढ़ाएं लेकिन Ravish Kumar मोहम्मद अनस जैसे वाहियात और गालीबाज को प्रोमोट करके बहुत अच्छा संदेश दे रहे हैं।Jyoti Yadav
7 hrs ·
Ravish Kumar
गौरी लकेंश को कुतिया बोलने वाले दधीचि को भी पीएम एक और मौका देंगे तो आपको कैसा लगेगा? शायद एक और ओपन लैटर लिखेंगे। ऐसे में जब आप लिख रहें हैं कि अनस जैसे गालीबाज से नाता तोडूंगा जब वो अब दुबारा गाली लिखेगा। फिर तो आपको भी ओपन लैटर लिखे जाने चाहिए। आखिर आपसे भई पूछा जाना चाहिए कि आपका नाता गालीबाजों से है ही क्यूं? मोहम्मद अनस का लॉजिक है कि इलाहाबाद में प्रेम में भी गालियां देते हैं। इसलिए मैं गाली देता हूं। साथ ही बीजेपी के लोग गाली देते हैं उनको गरियाता हूं।
मतलब हमारे देश में औरतों को कुतिया समझा जाता होगा तभी बीजेपी के संस्कारी लोग किसी को भी बिच बोलकर निकल लेतै हैं और उन्हें कोई सफाई भी नहीं देनी पड़ती।
आपने पोस्ट एडिट करके लिखा है कि एक बार और गाली दी तो नाता तोड़ लूंगा। मतलब रवीश कुमार को एक गुंडे से नाता जोड़ने की जरूरत ही कैसे पड़ गई? प्रधानमंत्री और बीजेपी को तो राजनीति चलानी है। गुंडे रख लेंगे। पत्रकारों को कौन सी राजनीति चलानी है? अगर फेसबुक पर ये सब लिखना आपकी राजनीति का ही हिस्सा है, तो वो भी क्लियर रखें। हमारे जैसे नए बच्चे आपकी हर अच्छे तरीके से लिखी गई पोस्ट को सच मान लेते हैं। जो आदमी तीन चार साल से यही काम कर रहा है, कमाल है आपकी उस पर नजर नहीं पड़ी। और नहीं पड़ी थी तो अब तो लोगों ने आपके पास स्क्रीनशॉट्स भेज दिए हैं। अभी भी आपको कहने की जरूरत पड़ी कि दुबारा करने पर ही नाता तोड़ेंगे। गालीबाजों से रवीश कुमार का नाता है ही क्यूं? और है तो किस मुंह से गौरी लंकेश को गालियां देने वालों के लिए पोस्ट लिख रहे थे? मोहम्मद अनस को ब्लॉक करने के लिए एक बार बेशक आवाज उठाई जानी चाहिए, लेकिन उसे दस बार गालियां देने के लिए लताड़ा भी जाना चाहिए। आप यहां उससे रिश्ते नाते नहीं तोड़ पा रहे हैं. मेरे लिए फिर आपमें और बीजेपी के उन लोगों में कोई फर्क नहीं है जो अपने मकसद के लिए गालीबाजों और ट्रोल्स की फौज लिए बैठे हैं।
~ आपके हल्के से स्टैंड से disappoint हुई एक लड़कीJyoti Yadav—————-
प्रीति कुसुम
प्रीति कुसुम सबसे हैरानी वाली बात यही है की अब तक कैसे उन्हें नहीं पता था की अनस किस तरह का व्यक्ति है? लगभग हर पोस्ट ओछा होता है उसका, इतना बड़ा गालिबाज, बुरखा और हिजाब को glamourise करने वाला। धर्मांध। रविश जी का अच्छा दोस्त है!
See Translation–
ike · 4 · 15 hrs
Manage
Ayush
Ayush जितना मैंने समझा है इन्हें ये खातरनाक किस्म के कट्टर हैं. ऐसे लोगों का बहुत बड़ा हाथ है जो आज बीजेपी के पीछे इतना हिन्दू घूम रहा है।
See translation
Like · 14 hrs
Manage
Jyoti Yadav
Jyoti Yadav रवीश सर इसको एक और मौका देंगे। तभी नाता तोडेंगे। मतलब लोग यहां स्क्रीनशॉट लेने के लिए ही बैठे हैं। कि कब वो गाली दे और कब वो रवीश सर तक पहुंचे।
सुशांत सिन्हा ————-प्रिय रवीश जी,
बहुत दिनों से आपको चिट्ठी लिखने की सोच रहा था लेकिन हर बार कुछ न कुछ सोचकर रुक जाता था। सबसे बड़ी वजह तो ये थी कि मेरा इन ‘खुले खत’ में विश्वास ही नहीं रहा कभी। खासकर तब से जब सोशल मीडिया पर आपकी लिखी वो चिट्ठी पढ़ ली थी जिसमें आपने अपने स्वर्गीय पिता को अपने शोहरत हासिल करने के किस्से बताए थे औऱ बताया था कि कैसे एयरपोर्ट से निकलते लोग आपको घेरकर फोटो खिंचवाने लग जाते हैं। बतौर युवा, जिसने 9 वर्ष की उम्र में अपने पिता को खो दिया था, मैं कभी उस खत का मकसद समझ ही नहीं पाया। मैं समझ ही नहीं पाया कि वो चिट्ठी किसके लिए थी, उस पिता के लिए जो शायद ऊपर से आपको देख भी रहा था और आपकी तरक्की में अपने आशीर्वाद का योगदान भी दे रहा था या फिर उन लोगों के लिए जिन्हें ये बताने की कोशिश थी कि आई एम अ सिलेब्रिटी। क्योंकि मेरे लिए तो मेरे औऱ मेरे स्वर्गीय पिता का रिश्ता इतना निजी है कि मैं हमारी ख्याली बातचीत को सोशल मीडिया पर रखने का साहस कभी जुटा नहीं सकता।
खैर, वजह आप बेहतर जानते होंगे लेकिन उस दिन से ऐसा कुछ हुआ कि मैंने चिट्ठी न लिखने का फैसला कर लिया। लेकिन कल आपकी वो चिठ्ठी पढ़ी जो आपने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लिखी थी। आपके बीते कुछ दिनों के बयानों औऱ इस चिठ्ठी से मेरे मन में कुछ सवाल आए और साथ ही बतौर पूर्व सहकर्मी, मुझे लगा कि मुझे आपको बताना चाहिए कि आप ‘बीमार’ हैं औऱ आपको इलाज की ज़रुरत है। कृपा कर इसे अन्यथा मत लीजिएगा क्योंकि मुझे आपकी चिंता है इसलिए तहे दिल से ये खत लिख रहा हूं।
पहली बीमारी- बिना वजह अनदेखे डर से भयग्रस्त रहना
आपकी चिट्ठी पढ़कर जो पहला सवाल मन में आया था वो ये कि आपको बेरोज़गार होकर सड़क पर आ जाने की चिंता सता भी कैसे सकती है? आपकी तनख्वाह लाखों में हैं। अगर गलत नहीं हूं तो करीब 8 लाख रुपए प्रति महीने के आसपास। यानि साल का करीब करीब करीब 1 करोड़ रुपया कमा लेते हैं आप। सुना है आपकी पत्नी भी नौकरी करती हैं। यानि आपके घर बैठने की नौबत भी आई तो वो घर चला ही लेंगीं। और दोनों घर बैठे तो भी साल के करोड़ रुपए की कमाई से आपने इतना तो बचा ही लिया होगा कि आप सड़क पर न आ जाएं। इतने पैसे की सेविंग को फिक्स भी कर दिया होगा तो भी इतना पैसा हर महीने आ जाएगा जितना मीडिया में कइयों की सैलरी नहीं होती। पैसा घर चलाने भर नहीं बल्कि सामान्य से ऊपर की श्रेणी का जीवन जीने के लिए आएगा। अब अगर आपकी जीवन शैली किसी अरबपति जैसी हो गई है कि लाख-दो लाख रुपए प्रति महीने की कमाई से काम नहीं चलेगा तो कह नहीं सकता। लेकिन घबराने की तो कतई ज़रुरत नहीं है। आप खुद भी चाहें तो भी आप और आपके बच्चे सड़क पर नहीं आ सकते और कुछ नहीं तो मेरे जैसे कई पूर्व सहकर्मी हैं हीं आपकी मदद के लिए।
हिम्मत लीजिए उनसे और सोचिए ज़रा अपने ही दफ्तर के उन चपरासियों और कर्मचारियों के बारे में जिनकी तनख्वाह 20-30 हज़ार रुपए महीने की थी और जिन्हें संस्थान ने हाल ही में नौकरी से निकाल दिया। आप करोड़ रुपए कमा कर सड़क पर आ जाने के ख़ौफ से घिर रहे हैं, उनकी और उनके बच्चों की हालत तो सच में सड़क पर आ जाने की हो गई होगी। और आप उनके लिए संस्थान से लड़े तक नहीं? आपको तो उनका डर सबसे पहले समझ लेना चाहिए था लेकिन आप आजकल पीएम को चुनौती देने में इतना व्यस्त रहते हैं कि अपने संस्थान के ही फैसले को चुनौती नहीं दे पाए? खैर, कोई नहीं… टीवी पर गरीबों का मसीहा दिखने औऱ सच में होने में फर्क होता ही है। पीएम को चुनौती देकर आप हीरो दिखते हैं, मैनेजमेंट को चुनौती देकर नौकरी जाने का खतरा रहता है और कोई ये खतरा क्यों ले। और नौकरी जाने का डर कितना भरा है आपके मन में ये तो आपके साथ काम करने वाले कई लोग अच्छे से जानते हैं। कुछ लोग तो वो किस्सा भी बताते हैं कि आउटपुट के एक साथी को नोटिस मिला औऱ वो पार्किंग लॉट में आपसे मिलकर मदद की गुहार लगाने आया तो आपने गाड़ी की खिड़की का शीशा तक नीचे नहीं किया और अंदर से ही हाथ जोड़कर निकल लिए। जबकि आप भी जानते थे कि उसका दोष मामूली सा था। आप उसके साथ खड़े हो जाते तो उसकी नौकरी बच जाती। लेकिन आपने उसके परिवार के सड़क पर आ जाने का वो दर्द महसूस नहीं किया जो आजकल आप महसूस कर रहे हैं अपने बच्चों के लिए।
खैर, जाने दीजिए। आपके डर को बेवजह इसलिए भी बता रहा हूं कि आप खुद सोचिए कि जिस नरेन्द्र मोदी को आप महाशक्तिशाली बताते हैं वो 2002 के बाद से 15 साल इंतज़ार करते रहेंगे आपकी नौकरी खाने के लिए? इतना ही नहीं, पिछले तीन साल से तर्क और कुतर्क के साथ आपने सरकार पर सवाल उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ी तब भी बीजेपी का ग्राफ़ ऊपर से भी ऊपर ही गया, वो चुनाव पर चुनाव जीतते गए तो वो आपकी नौकरी क्यों खाना चाहेंगे? आपके तार्किक और गैर तार्किक विरोध से या तो उनको फर्क नहीं पड़ रहा या फिर उनका फायदा ही हो रहा है, ऐसे में आपकी नौकरी खाने में उनकी क्या दिलचस्पी होगी? ये डर आपके अंदर कोई भर रहा है, जानबूझकर औऱ वो आपके आसपास ही रहता है। कौन है खुद सोचिएगा।
बस कहना मैं ये चाह रहा हू कि आप अपने मन से सड़क पर आने का खौफ निकाल दीजिए क्योंकि ये बेवजह का डर है। नौकरी गई भी तो इतने काबिल हैं आप, कोई न कोई और नौकरी मिल ही जाएगी आपको भी। कुछ नहीं तो बच्चों को पढ़ाकर घर चल ही जाएगा। आपकी लेखनी का कायल तो मैं हमेशा से रहा हूं, आपको पता ही है… कुछ नहीं तो हिन्दी फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखकर भी आपका घऱ चल जाएगा। पीएम के नाम चिठ्ठी में बच्चों के सड़क पर आ जाने का जो इमोशन आपने डाला था वैसा ही इमोशन और एक दिन शो में जैसे आप पीएम को ललकार रहे थे, वैसा ही अग्रेशन.. दोनों को मिलाकर स्क्रिप्ट लिख देंगे तो पक्का फिल्म चलेगी। मेरी गारंटी है।
दूसरी बीमारी- स्पलिट पर्सनालिटी या दोहरे व्यक्तित्व का शिकार हो जाना
इस बीमारी में इंसान खुद ही समझ नहीं पाता कि उसके अंदर दो दो इंसान पल रहे होते हैं। आप खुद लिखते हैं अपने बारे में औऱ बताते भी हैं कि आप बिना सवाल पूछे नहीं रह पाते, सच के लिए लड़ने से और सवाल उठाने से खुद को रोक नहीं पाते लेकिन आपके अंदर ही एक दूसरा रवीश कुमार रहता है जो इतना डर सहमा होता है कि नौकरी के मोह में अपने खुद के संस्थान या बॉस से कोई सवाल ही नहीं पूछता। आपको याद है न कि कैसे एक दिन अचानक एनडीटीवी के मैनेजिंग एडिटर ने फरमान सुना दिया था कि देश के लिए जान देने वाले और शहीद होनेवाले सैनिक को हम ‘शहीद’ नहीं कहेंगे और न हीं लिखेंगे बल्कि उसे ‘मर गया’ बताएंगे। ऊपर से लेकर नीचे तक हड़कंप मच गया था कि देश के लिए जान कुर्बान करनेवाले सैनिक के प्रति इतना असम्मान क्यों? लेकिन आप तब भी चुप रह गए थे। कुछ नही बोले, न कोई सवाल उठाया।
और वो किस्सा भी याद होगा आपको जब एक फेसबुक पोस्ट लिखने पर मुझे नौकरी तक से निकाल देने की धमकी दे दी गई थी। पोस्ट में मैंने सिर्फ इतना लिख दिया था कि हम देश की अदालत और उसके फैसले का सम्मान करते हैं तो फिर इस तथ्य का सम्मान क्यों नहीं करते कि देश की किसी भी अदालत ने नरेन्द्र मोदी को गुजरात दंगों का दोषी करार नहीं दिया है औऱ क्यों मीडिया की अदालत आज भी उन्हें दोषी करार देकर सज़ा देने पर आमादा है अपने अपने स्टूडियो में?बोलने की आज़ादी के सबसे बड़े पैरोकार बनने वाले चैनल ने क्यों मेरी आज़ादी पर पाबंदी लगा दी औऱ आप चुप रह गए? आप मेरे साथ क्यों खड़े नहीं हुए? क्यों मेरी तरफ से मैनेजिंग एडिटर को खुली चिठ्ठी नहीं लिखी कि ये तो सीधा सीधा मेरे बोलने और विचारों की आजादी की हत्या है औऱ इसे रोका जाना चाहिए? ऐसे ही कितनी बार कितनों के साथ उनकी बोलने की आज़ादी का हनन हुआ पर आप किसी के लिए नहीं लड़े,क्यों? मैं सोचता रह गया था लेकिन अब पता चला कि दरअसल, दो दो रवीश हैं। एक वो रवीश, जो टीवी पर खुद को मसीहा पत्रकार दिखाता है औऱ दूसरा वो रवीश जो डर सहमा नौकरी बजाता है। एक रवीश जो प्रधानमंत्री को चैलेंज करता है औऱ दूसरा वो जो चुपचाप सिर झुकाकर संस्थान के मालिक/बॉस की हर बात सुन लेता है।
तीसरी बीमारी- खुद को हद से ज्यादा अहमियत देना और महानता के भ्रमजाल में फंस जाना
मुझे आज भी याद है कि कैसे आपने अहंकार के साथ न्यूज़ रुम में कहा था कि आप अमिताभ बच्चन के साथ एक शो करके आए हैं औऱ एडिटर को बोल दिया जाए कि जब शो एडिट हो तो बच्चन साहब से ज्यादा आपको दिखाए स्क्रीन पर क्योंकि लोग बच्चन साहब से ज्यादा आपको देखना चाहते हैं। मुझे अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ था लेकिन जो सामने था उसे कैसे नकारता। आपकी टीम के लोग भी आपसे दुखी रहते हैं क्योंकि आप अपने आगे किसी को कुछ समझते नहीं और सबको तुच्छ प्राणी सा एहसास कराते हैं। उस दिन आप गौरी लंकेश की हत्या पर हुए कार्यक्रम में बोलने गए तो वहां भी बोलने लग गए कि सब आपको कह रहे हैं कि आप ही बचे हैं बस, थोड़ा संभलकर रहिएगा। आप खुद को इतनी अहमियत क्यों देते हैं? आपके पहले भी पत्रकारिता थी, आपके बाद भी होगी, नरेन्द्र मोदी के पहले भी राजनीति थी औऱ उनके बाद भी होगी। आप क्यों इसे सिर्फ और सिर्फ रवीश Vs मोदी दिखाकर खुद का कद बढ़ाने की जद्दोजहद में वक्त गंवा रहे हैं। इसी बीमारी का नतीजा है कि आप हर बात में अपनी मार्केटिंग का मौका ढूंढने में लगे रहते हैं। आपके आसपास ही इतने सारे प्रतिभावान पत्रकार एनडीटीवी में ही हैं जो बिना खुद की मार्केटिंग किए शानदार काम कर रहे हैं। आप उनसे सीख भी सकते हैं और प्रेरणा भी ले सकते हैं। दिन रात खुद को अहमियत देना बंद कर दीजिएगा तो चीज़ें सामान्य लगने लगेंगी।
मेरी मानिए, रवीश की रिपोर्ट वाले रवीश बन जाइए। आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़नेवाला। मैं डॉक्टर तो नहीं लेकिन मुझे लगता है कि इन सारी बीमारियों का इलाज होना ज़रुर चाहिए। किसी डॉक्टर से मिलकर देखिए एक बार। आप जैसे प्रतिभावान पत्रकार की ज़रुरत है देश को। और कभी पत्रकारिता छोड़िएगा तो नेता बनने से पहले एक बार अभिनेता बनने पर विचार ज़रुर कीजिएगा, मुझे उसका कौशल भी दिखता है आपमें।
हो सके तो इस चिट्ठी का जवाब भी मत दीजिएगा क्योंकि अभी आप बीमार हैं, आप इस चिठ्ठी को भी अपनी मार्केटिंग का जरीया बनाने लग जाइएगा बिना सोचे समझे। इसलिए इसका प्रिंटआउट तकिये के नीचे रखकर सो जाइएगा औऱ गाहे बगाहे पढ़ लीजिएगा।
आपके जल्द सकुशल होने की कामना के साथ
सुशांत सिन्हा
साथी पत्रकार——————————————————————————————————————————————————–Vineet Kumar
आप उस रात मुझे जरूर मनोरोगी लगे थे सुशांतजी
लेकिन उसके बाद कभी नहीं, आप हैंं भी नहीं..
आदरणीय सुशांतजी
नमस्ते
देखिए कैसे-कैसे संदर्भ और मौके बनते हैं कि अचानक से दो अलग दुनिया आपस में एकदम सटी हुई, छोटी लगने लग जाती है. आज रात जब लिखने बैठा हूं तो सात-आठ साल पहलेवाली रात एकदम से याद आने लग जा रही है. ऐसे कि जैसे ये कल की ही बात हो.
यूनिवर्सिटी से बुरी तरह थककर मैं वापस अपने घर की तरफ लौटा था. सोसायटी की बैक गेट से गार्ड ने जाने से रोक लिया. मैं पूछता कि मामला क्या कि इसके पहले ही भीतर का मंजर दिखाई दिया. अंदर पैदल आने-जाने तक की जगह नहीं थी. घूमकर दूसरी गेट पर पहुंचा तो चारों तरफ चैनलों के ओबी वैन लगे थे. पुलिस भरी हुई थी. अफरा-तफरी का माहौल था. मैंने एक-दो से पूछा तो पता चला एनडीटीवी के पत्रकार हैं सुशांत सिन्हा के घर अज्ञात लोग घुसे थे, उन्हें बांध दिया और लूटपाट किया. मेरे मुंह से एकदम से निकला- सुशांत सर जो पहले लाइव इंडिया में थे ? लोग हमारी शक्ल देखने लग गए और पलटकर कहा- नहीं, एनडीटीवी इंडिया.
मैं आपको लेकर बेचैन हो गया. इस घटना से कुछ ही दिन पहले मयूर विहार में बीबीसी की एक पत्रकार की हत्या की खबर आयी थी. उस दिन आपसे मिलना संभव नहीं था. दिन की कोशिश भी नाकाम रही. अंत में आज की ही तरह पौने नौ-नौ बजे के आसपास मैंने आपके घर का दरवाजा खटखटाया. मेरे साथ मेरा एक दोस्त भी था. आपने लंगडाते हुए दरवाजा खोला. मैंने अपना परिचय देते हुए कहा- मेरा नाम विनीत है, आपके घर के ठीक सामने के कोनेवाले घर में रहता हूं. डीयू से पीएचडी कर रहा हूं. सुनकर बहुत बुरा लगा ये सब तो मिलने चला आया. आपने कहा विनीत, हां-हां आपको तो जानता हूं. आपने मीडिया आधारित कुछ वेबसाइट के नाम लिए और कहा- आप तो सोशल मीडिया पर बहुत एक्टिव हो, पढ़ता रहता हूं आपको. आइए-आइए.
मैं आपके घर की ड्राइंग रूम में बैठ गया. आप बताने लगे कि आपके साथ क्या हुआ ? मैं बार-बार अपनी जेब में हाथ डालकर रूक जा रहा था. उसमे तीन टीबैग, कागज की पुडिया में थोड़ी सी चीनी और एवरिडे मिल्क पाउडर थे. मैंने घर से चलते वक्त ये सारी चीजें रख ली थी और सोचा था कि आप बहुत बुरा फील कर रहे होंगे. आपकी किचन में तीन कप चाय बनाउंगा. आप जो खाना चाहेंगे, वो भी उसके बाद बना दूंगा. वैसे भी रात का खाना तो घर पर बनाना ही होता. लेकिन ऐसा हो नहीं पाया. आप बोलते रहे और हमदोनों सुनते रहे.
तीन-चार मिनट ही हुए होंगे कि मुझे आपको लेकर बेहद अफसोस होने लगा और खुद पर भी. मुझे लगने लगा कि हम जैसे लोगों की आपको बिल्कुल भी जरूरत नहीं है. आपकी पूरी बातचीत में बार-बार दो ही चीजें शामिल थी. एक मंहगे मोबाईल की कीमत जिसे उन्होंने ले लिया था या फिर देने के लिए दवाब बना रहे थे, ठीक से याद नहीं और दूसरा कि डॉ. राय ने आपको डायरेक्ट फोन किया जो कि आपके हिसाब से बड़ी बात थी. फिर एक-एक करके उन मंत्रियों, राजनेताओं, पुलिस-प्रशासन के बारे में बताने लग गए थे जो लगातार आपका हाल-चाल जानने के लिए फोन कर रहे थे.
ये सब कहने का अंदाज आपका ऐसा था कि सामनेवाले को लगे कि इस पत्रकार को कितना लोग जानते हैं और वो भी पर्सनली. आप बार-बार जताने की कोशिश कर रहे थे कि आप दिल्ली जैसे शहर में रसूकदार लोगों से बेहतर संपर्क में हैं. कायदे से ये सब सुनकर किसी को भी बहुत प्रभावित हो जाना चाहिए था लेकिन मैं एकदम से उदासीन हो गया. पछताने लग गया कि मुझ अदने को क्या जरूरत थी हाल पूछने, आने की. लेकिन हमें इतना तो इल्म है ही कि संपर्क कमाना और लोग कमाना, दो अलग-अलग चीजें हैं.
सुशांतजी, हमारी पूरी अपब्रिंगिंग उन्हीं रसूकदार लोगों के बीच हुई जिनकी चर्चा आप संवेदना के स्तर पर नहीं स्टेटस क्यो के लिए ले रहे थे. कल तक हम जिसके साथ ग्वायर हॉल कैंटीन में मीठे समोसे खा रहे होते वो एसपी, डीएम बनकर देश का काम कर रहे हैं. हॉस्टल की पूरी-पूरी विंग यूपीएससी में सेलेक्ट हो जाती. इसी तरह संत जेवियर्स की पूरी की पूरी लॉट एमबीए, फैशन डिजायनिंग के बेहतरीन संस्थानों में. ऐसा सिर्फ मेरे साथ नहीं है. डीयू -जेएनयू में पढ़ रहे आप किसी भी स्टूडेंट से बात करें तो उन्हें दो-चार दस ऐसे लोग जाननेवाले होंगे हीं. और फिर देश के एक बड़े नेटवर्क में कोई मीडियाकर्मी काम कर रहा है और उसे उनके सुपर बॉस, मंत्री, पुलिस कमिश्नर फोन कर रहे हैं तो इसमे कौन सी बड़ी बात है. बावजूद इसके आप जब उनके बारे में बता रहे थे तो आपके चेहरे पर आपके साथ जो कुछ हुआ है, उसे लेकर शिकन नहीं, एक खास किस्म का दर्प था और उस दर्प पर नजर पड़ते ही मैं उस रात आपकी तकलीफ से उस स्तर पर जुड़ नहीं पाया जैसा घर से चलते वक्त तरल हुआ जा रहा था.
मैं उस उदास ड्राइंगरूम में बैठे-बैठे जितना अनुमान लगा सकता था, लगा लिया था. आपके साथ कोई नहीं था. आप इतने बड़े हादसे के बीच एकदम से अकेले थे. लोगबाग आ-जा जरूर रहे होंगे और ये कहते हुए विदा ले रहे होंगे कि सुशांत, किसी भी चीज की जरूरत हो तो बेहिचक बताना. मैंने इशारे में जानना भी चाहा लेकिन आपने फिर से एक नया संदर्भ शामिल किया कि दिल्ली में आपके कौन-कौन रिश्तेदार किन-किन पॉश इलाके में रहते हैं. एक बार फिर स्टेटस क्यो की गिरफ्त में.
सुशांतजी, मीडिया बिरादरी में आप ऐसे पहले शख्स थे, ऐसा नहीं है. मैंने इस दुनिया को बहुत करीब से देखा है. क्रोमा-मोंटाज के आगे जिन चमकीले चेहरे के जरिए दुनिया अपनी राय कायम करती है, वो कई बार अपने निजी जीवन में एकदम अकेला और यथार्थ की जमीन से कटे होते हैं. उन्हें रिक्शे-ठेलेवाले से तो लेना-देना होता नहीं, कायदे से पावर क्लब का भी सदस्य नहीं हो पाते. वो एक अजीब सी दुविधा और अपरिचय की दुनिया में जीते हुए अकेले पड़ जाते हैं. लेकिन
उस रात मैं दूसरे सिरे से सोच रहा था. मैं सोच रहा था कि मीडिया मंडी की ये कैसी दुनिया है कि इंसान किसी औऱ के प्रति तो न सही, खुद के प्रति भी संवेदनशील नहीं हो पाता. वो महसूस नहीं कर पाता कि उसे किस वक्त किस मानवीय पक्ष के साथ खड़े होकर जीना है ? जब सभा-सेमिनारों में लोग कहते हैं कि मीडिया कार्पोरेट के हाथ बिका हुआ है, किसान-मजदूर, मेहनतकश वर्ग की खबरें नहीं दिखाता तो मैं उबने लग जाता हूं. मैं दूसरे सिरे से सवाल करता हूं- क्या इस मीडिया में खुद पत्रकारों की तकलीफ के लिए स्पेस बचा है, उसकी जिंदगी शामिल हो पाती है ? वो चाहता है कि उसका संवेदनशील पक्ष उभरकर सामने आए ?
आप उस रात जैसा व्यवहार कर रहे थे, हर्बट मार्कूजे ने इसे फॉल्स कन्शसनेस के तहत विश्लेषित किया है जिसमे हमें लगता है कि हम बहुत चौकस और जागरूक हो रहे हैं लेकिन उस स्तर की जागरूकता से कोसों दूर होते हैं जिसका संबंध हमारी बुनियादी जरूरतों से है.
मैं आपसे बात करके लौट आया. चलते-चलते इतना जरूर कहा- सर, किसी भी चीज की जरूरत हो तो बताइएगा, मैं एकदम सामने हूं आपके. आगे मैं जोड़ना चाह रहा था कि आपको दिक्कत न हो तो आपके यहां ही रूक जाउं लेकिन ऐसा कह नहीं पाया. घर आया तो टी बैग बुरी तरह मुड-तुड़ चुके थे. थोड़ी सी चीनी पुड़िया से निकलकर जेब में गिर गयी थी और पाउडर दूध से जेब चिपचिपी हो गयी थी लेकिन इन सबके बीच मैं खुद बहुत ज्यादा चिपचिपा हो गया था.
सुशांतजी, पूरी बातचीत में मैंने आपको सर ही कह रहा था. अभी भी सुशांतजी लिखते हुए अजीब लग रहा है. आपने मुझे न तो पढ़ाया है, न कोई ट्रेनिंग दी है. बस जनमत न्यूज की सीढ़ियों से गुजरते हुए, स्टूडियो में आपको खबरें पढ़ते हुए देखा करता और एक ट्रेनी एंकर को सर ही तो बोलेगा तो बस वो सब याद आता रहा. एनडीटीवी पर आपकी एंकरिंग मुझे कभी पसंद नहीं आयी, दो-चार बार से ज्यादा देखा ही नहीं. इंडिया न्यूज देखना बहुत कम होता है सो आपको क्या, किसी को भी नहीं देख पाता. बावजूद इसके कोई उस रात की घटना की याद दिलाकर कहे कि आप मनोरोगी हैं तो मैं किसी हालत में ये शब्द आपके लिए इस्तेमाल नहीं कर सकता. अभी जो चिठ्ठी आपने अपने पूर्व सहकर्मियों के नाम लिखी है, वो पढ़कर भी नहीं. आपसे असहमत होने और आपकी आलोचना करने के लिए मेरी डिक्शनरी में दर्जनों शब्द हैं लेकिन अंतिम शब्द के तौर पर भी मनोरोगी तो बिल्कुल भी नहीं. मीडिया और अकादमिक दुनिया का कोई शख्स, मेरे आसपास की दुनिया का कोई व्यक्ति यदि सच में मनोरोगी हो जाता है तो मैं अपनी क्षमता से उसके ठीक होने में मदद करूंगा, चिंता व्यक्त करूंगा, इंसानियत की जमीन पर खड़े होकर उसके लिए दुआएं करूंगा लेकिन सार्वजनिक मंच से इस बीमारी का कभी उपहास नहीं उडाउंगा. मैंने देखा है कि मनोरोगी होना क्या होता है ?
सुशांतजी, उस रात आपसे मिलकर आने के बाद मैं पूरी रात सो नहीं पाया. मैं बार-बार इन्डस्ट्री के बारे में सोचने लगा जो मुझे सचमुच फॉल्स कन्शसनेस की शिकार लगती है. दर्शकों को लगता है कि उसका एंकर-रिपोर्टर जनमत तैयार कर रहा है लेकिन वो खुद अपने मोर्चे पर कितना संकटग्रस्त है, इस बिंडबना से परिचित नहीं है. ऐसे मौके पर मैं साहित्य के अपने शिक्षकों का शुक्रिया अदा करता हूं कि उन्होंने चीजों को तात्कालिक असर में देखने के साथ-साथ उसके गहरे संदर्भों में जाकर देखने की सलाहियत दी. उस रात भी मैंने ऐसा ही सोचना शुरू किया और आपको लेकर मनोरोगी होने का जो ख्याल थोड़े वक्त के लिए आया था वो दूर हो गया.
मैं दिल्ली में लेखक-पत्रकारों की मौत पर अंतिम दर्शन करने जरूर जाता हूं. ज्यादातर लोगों से लिखे के स्तर के रिश्ते होते हैं, व्यक्तिगत रूप से नहीं. मैंने कई बार देखा है कि उस अंतिम क्षण में उनके साथ बहुत कम लोग होते हैं. उनके पीछे भले ही शोहरत, नाम, प्रकाशन और पुरस्कार का जखीरा रह गया हो. मुझे अंतिम दर्शन में जाना जरूरी लगता है. मैं इससे दिल्ली में रहते हुए डिटॉक्स हो पाता हूं. महसूस कर पाता हूं कि हम किस हद जंजालों के बीच फंसे और किस हद तक कुछ रचते हुए जी पा रहे हैं ? आपकी घटना के बाद मैं यही सब सोचने लग गया.
मैं सोचने लगा कि जब हमारा वर्तमान एकदम कमजोर, विकट और संकटग्रस्त होता है तो हम उसके भीतर जीने के लिए या तो अपने अतीत से या फिर आसपास के मजबूत रेशे का सहारा लेते हैं. कोई जब भारत के गौरवशाली अतीत की याद करता है तो उसके पीछे का भाव यही होता है कि वो कमजोर वर्तमान के बीच जीने की ताकत अतीत से लेना चाह रहा है. हिन्दी साहित्य का छायावाद इसकी एक मजबूत प्रस्तावना है. जब देश की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्थिति पर गर्व करने के लिए कुछ था ही नहीं तो प्रसाद हिमाद्रि तुंग शृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती..नहीं लिखते तो देशवासियों में शक्ति का संचार कैसे हो पाता ? आपने अपनी तकलीफ के बीच जब अपने संपर्क और स्टेटस को मेरे सामने दोहराना चाहा तो उस वक्त तो बुरा जरूर लगा लेकिन इस सिरे से सोचने पर लगा कि संभव हो कि ये आपको मौजूदा हालात से उबरने में मदद करे. बाद में पता नहीं कि आप किस हद तक उबर पाए. इसके लिए आपने थोड़े दिनों बाद वो घर भी छोड़ दिया. खैर,
मैं आपके उस कदम को भी पलायन नहीं कहूंगा और न ही एक पत्रकार की जिम्मेदारी से बच निकलना. उस वक्त आपकी बुनियादी जरूरत उस भरोसे को समेटना था जिसमे सबसे पहले आप खुद को नागरिक की तरह महसूस करें. इन सबके बावजूद आपके घर की तरफ दोबारा कभी पैर बढ़े ही नहीं.
सुशांतजी, आपने अपनी चिठ्ठी में अपने जिन सहकर्मियों को वितृष्णा के भाव से याद किया है, ये वही लोग हैं जिन्हें जब ये मालूम हुआ कि मैं आपके घर के सामने रहता हूं तो कई बार दोहराया- विनीत, प्लीज उसका ख्याल रखना. अभी-अभी तो चैनल ज्वायन किया है और ये सब हो गया उसके साथ. पैर जमने से पहले ही परेशान हो गया. उसे फील मत होने देना कि वो अकेला है.
सुशांतजी, मैं ये चिठ्ठी आपको कभी नहीं लिखता क्योंकि ये बेहद ही निजी प्रसंग है. मेरा आपके घर जाना, इमोशन में आकर साथ में टीबैग रखना, सब बहुत पर्सनल है. लेकिन आपके साथ उस वक्त जो कुछ भी हुआ, वो सार्वजनिक घटना थी और उसका असर भी सार्वजनिक था. मुझे नहीं पता कि आप इस चिठ्ठी को किस तरह लेंगे लेकिन सच कहूं तो जब भी किसी मीडियाकर्मी-लेखक-साहित्यकार के साथ कुछ गलत होता है तो अपने भीतर बहुत कुछ मरता है. मैं अपने भीतर के पत्रकार-लेखक को जिंदा रखने के लिए कई बार ऐसी हरकतें कर जाता हूं जो व्यावहारिक दुनिया के हिसाब से फैंटेसी है. एफबी पर किसी की टाइमलाइन से गुजरते हुए पता चलता है कि वो बीमार है, अकेला है तो मैं फोन करके बात करने लग जाता हूं, पूछ लेता हूं- आकर खाना बना जाउं ? कोई ब्रेकअप के विछोह से उबर नहीं पाता तो ऑफर कर देता हूं- मेरे पास आ जाओ कुछ दिनों के लिए.
ये सब करते हुए रिस्क है. पता नहीं कौन इसे किस तरह से देखे-समझे. लेकिन करता हूं क्योंकि मुझे हर बार यही लगता है कि देश का एक बेहतरीन माइंड गडबड़ होने से बच जाए, हमारे भीतर कोई चीज मरने से रह जाए.
एक सभ्य समाज में कोई मनोरोगी हो भी जाता है ( हालांकि आपने जिस रविश कुमार की बात की है, वो आपलोगों की दुआ से एकदम फिट हैं ) तो वो हमारे लिए उतनी ही चिंता की बात है जितनी कि उसकी खुद की. हम उसे ऐसे-कैसे छोड़ दे सकते हैं ? उसका कैसे उपहास उड़ा सकते हैं ? उसके पीछे कैसे ऐसी सामग्री छोड़ दें कि वो ट्रोल कंटेंट का काम करने लगे ? उस शख्स ने हमें हजारों ऐसे शब्द दिए हैं जिससे हमारे सोचने की ताकत को मजबूती मिली है. उसने लिखकर-बोलकर दूरदराज के हजारों लोगों के बीच ये भरोसा पैदा करने का काम किया है कि पढ़ने-लिखने से किसी और कि नहीं, अपनी दुनिया बेहतर होती है. हम अपने जानते किसी भी लेखक-पत्रकार-साहित्यकार को ऐसा नहीं होने देंगे.
सुशांतजी. सत्ता और सरकार आती-जाती रहेंगी. उनसे असहमति और उनके प्रति प्रतिरोध भी जारी रहेंगे. बचा रहेगा तो सिर्फ असहमति का विवेक और हमारे भीतर का वो मानवीय पक्ष जो बुरे से बुरे वक्त में भी हमें आदमी की तरह सोचने, व्यवहार करने और इस दुनिया को सुंदर बनाने के लिए प्रोत्साहित करता रहे. कई बार हम अपने निजी, कटु अनुभवों को इस हद तक जूम इन करने की कोशिश करने लग जाते हैं कि बाकी चीजें अपना मूल आकार खोने लग जाती हैं. लेकिन यही वो नाजुक वक्त होता है जहां हमें ठहरकर सोचना होता है कि क्या ऐसा करते हुए हम शब्द के भीतर की ताकत को कही हुई बात की तासीर की सांकेतिक हत्या तो नहीं कर दे रहे ? हम सर्जना के पेशे से जुड़े लोग हैं सुशांतजी. ध्वस्त करने के रास्ते कहीं और ले जाते हैं, वो कहीं और चले जाएं लेकिन वो हमें कम से कम वहां तक तो नहीं ही ले जाते जहां पहुंचने के लिए हम सब यहां, इस पेशे में आए हैं. ऐसे वक्त में मैं पीजी डिप्लोमा इन मास कॉम की पहली क्लास याद करता हूं. क्यों आए थे ?.. .यकीं मानिए, जवाब में पैसा नहीं होता है. आप खुद से सवाल करेंगे तो भी शायद यही जवाब मिले.
कहने को तो बहुत कुछ है लेकिन इस यकीं के साथ यहीं छोड़ रहा हूं कि हम असहमति के लिए जिन शब्दों का, जिन वादों का और आगे बढ़कर जिन आरोपों का इस्तेमाल करते हैं, वो अपने असर में कैसा होता है, उससे कैसी दुनिया बनती है, वो लोगों के बीच कैसा मनोविज्ञान रचते हैं, इन सब पर हमें सोचने की जरूरत है. चैनल, अखबार, रेडियो तो फिर भी कोई फन्डर खरीद ले जाएगा, बैनर-लोगो बचा ले जाएगा लेकिन उसके भीतर आदमी के आदमी बने रहने की, पत्रकार को पत्रकार की तरह सोचने का जो विवेक है, वो हम-आप ही बचा पाएंगे. बदहवास होकर हम जिस तरह शब्दों का प्रयोग करते आए हैं, एक दिन ये शब्द वक्त के गवाह बनना बंद कर देंगे तो हमारे पास भला कौन सी पूंजी बचेगी ? सुविधा-असुविधा का सवाल वक्त के साथ घुलते-मिलते रहते हैं. ज्यादा जरूरी है, बीमार होती इस मीडिया इन्डस्ट्री को संभाल पाना.Vineet Kumar————————————————
Ravish Kumar
10 hrs ·
मानहानि- मानहानि: घोघो रानी, कितना पानी
आस्ट्रेलिया के जिन शहरों का नाम हम लोग क्रिकेट मैच के कारण जानते थे, वहां पर एक भारतीय कंपनी के ख़िलाफ़ लोग प्रदर्शन कर रहे हैं। शनिवार को एडिलेड, कैनबरा, सिडनी, ब्रिसबेन, मेलबर्न, गोल्ड कोस्ट, पोर्ट डगलस में प्रदर्शन हुए हैं। शनिवार को आस्ट्रेलिया भर में 45 प्रदर्शन हुए हैं। अदानी वापस जाओ और अदानी को रोको टाइप के नारे लग रहे हैं। वहां के करदाता नहीं चाहते हैं कि इस प्रोजेक्ट की सब्सिडी उनके पैसे से दी जाए।
अदानी ग्रुप के सीईओ का बयान छपा है कि प्रदर्शन सही तस्वीर नहीं है। स्तानीय लोग महारा समर्थन कर रहे हैं। जेयाकुरा जनकराज का कहना है कि जल्दी ही काम शुरू होगा और नौकरियां मिलने लगेंगी। यहां का कोयला भारत जाकर वहां के गांवों को बिजली से रौशन करेगा।
पिछले हफ्ते आस्ट्रेलिया के चैनल एबीसी ने अदानी ग्रुप पर एक लंबी डाक्यूमेंट्री बना कर दिखाई। इसका लिंक आपको शेयर किया था। युवा पत्रकार उस लिंक को ज़रूर देखें, भारत में अब ऐसी रिपोर्टिंग बंद ही हो चुकी है। इसलिए देख कर आहें भर सकते हैं। अच्छी बात है कि उस डाक्यूमेंट्री में प्रशांत भूषण हैं, प्रांजॉय गुहा ठाकुरता हैं।
प्रांजॉय गुहा ठाकुरता ने जब EPW में अदानी ग्रुप के बारे में ख़बर छापी तो उन पर कंपनी ने मानहानि कर दिया और नौकरी भी चली गई। अभी तक ऐसी कोई ख़बर निगाह से नहीं गुज़री है कि अदानी ग्रुप ने एबीसी चैनल पर मानहानि का दावा किया हो।
स्वदेशी पत्रकारों पर मानहानि। विदेशी पत्रकारों पर मानहानि नहीं। अगर वायर की ख़बर एबीसी चैनल दिखाता तो शायद अमित शाह के बेटे जय शाह मानहानि भी नहीं करते। क्या हमारे वकील, कंपनी वाले विदेशी संपादकों या चैनलों पर मानहानि करने से डरते हैं?
एक सवाल मेरा भी है। क्या अंग्रेज़ी अख़बारों में छपी ख़बरों का हिन्दी में अनुवाद करने पर भी मानहानि हो जाती है? अनुवाद की ख़बरों या पोस्ट से मानहानि का रेट कैसे तय होता है, शेयर करने वालों या शेयर किए गए पोस्ट पर लाइक करने वालों पर मानहानि का रेट कैसे तय होता है? चार आना, पांच आना के हिसाब से या एक एक रुपया प्रति लाइक के हिसाब से?
पीयूष गोयल को प्रेस कांफ्रेंस कर इसका भी रेट बता देना चाहिए कि ताकि हम लोग न तो अनुवाद करें, न शेयर करें न लाइक करें। सरकार जिसके साथ रहे, उसका मान ही मान करें। सम्मान ही सम्मान करें। न सवाल करें न सर उठाएं। हम बच्चे भी खेलते हुए गाएं- मानहानि मानहानि, घोघो रानी कितना पानी। पांच लाख, दस लाख, एक करोड़, सौ करोड़।
यह सब इसलिए किया जा रहा है कि भीतरखाने की ख़बरों को छापने का जोखिम कोई नहीं उठा सके। इससे सभी को संकेत चला जाता है कि दंडवत हो, दंडवत ही रहो। विज्ञापन रूकवा कर धनहानि करवा देंगे और दूसरा कोर्ट में लेकर मानहानि करवा देंगे। अब यह सब होगा तो पत्रकार तो किसी बड़े शख्स पर हाथ ही नहीं डालेगा। ये नेता लोग जो दिन भर झूठ बोलते रहते हैं,
क्या इनके ख़िलाफ़ मानहानि होती रहे?
अमित शाह एक राजनीतिक शख्स हैं। तमाम आरोप लगते रहे हैं। वे उसका सामना भी करते हैं, जवाब भी देते हैं और नज़रअंदाज़ भी करते हैं। वायर की ख़बर में आरोप तो हैं नहीं। जो कंपनी ने रिकार्ड जमा किए हैं उसी का विश्लेषण है। फिर कंपनी रजिस्ट्रार को दस्तावेज़ जमा कराने और उस आधार पर लिखने या बोलने से समस्या है तो ये भी बंद करवा दीजिए।
अमित शाह के बेटे के बारे में ख़बर छपी। पिता पर तो फेक एनकाउंटर मामलों में आरोप लगे और बरी भी हुए। उन पर करप्शन के आरोप नहीं लगे हैं। इसके बाद भी अमित शाह आए दिन राजनीतिक आरोपों का सामना करते रहते हैं. जवाब भी देते हैं और नज़रअंदाज़ भी करते हैं। कायदे से उन्हें ही आकर बोलना चाहिए था कि पुत्र ने मेरी हैसियत का कोई लाभ नहीं लिया है। मगर रेल मंत्री बोलने आ गए। मानहानि का फैसला अगर पुत्र का था तो रेल मंत्री क्यों एलान कर रहे थे?
इस ख़बर से ऐसी क्या मानहानि हो गई? किसी टीवी चैनल ने इस पर चर्चा कर दी? नहीं न। सब तो चुप ही थे। चुप रहते भी। रहेंगे भी। कई बार ख़बरें समझ नहीं आती, दूसरे के दस्तावेज़ पर कोई तीसरा जिम्मा नहीं उछाता, कई बार चैनल या अखबार रूक कर देखना चाहते हैं कि यह ख़बर कैसे आकार ले रही है? राजनीति में किस तरह से और तथ्यात्मक रूप से किस तरह से। यह ज़रूरी नहीं कि टीवी दूसरे संस्थान की ख़बर को करे ही। वैसे टीवी कई बार करता है। कई बार नहीं करता है। हमीं एक हफ्ते से उच्च शिक्षा की हालत पर प्राइम टाइम कर रहे हैं, किसी ने नोटिस नहीं लिया।
लेकिन, जब चैनलों ने कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल की प्रेस कांफ्रेंस का बहिष्कार किया तो उन्हें पीयूष गोयल की प्रेस कांफ्रेंस का भी बहिष्कार करना चाहिए था। जब सिब्बल का नहीं दिखाए तो गोयल का क्यों दिखा रहे थे? अव्वल तो दोनों को ही दिखाना चाहिए था। लाइव या बाद में उसका कुछ हिस्सा दिखा सकते थे। यह मामला तो सीधे सीधे विपक्ष को जनता तक पहुंचने से रोकने देने का है। सिब्बल वकील हैं। उन्हें भी अदालत में विपक्ष के स्पेस के लिए जाना चाहिए। बहस छेड़नी चाहिए।
इस तरह से दो काम हो रहे हैं। मीडिया में विपक्ष को दिखाया नहीं जा रहा है और फिर पूछा जा रहा है कि विपक्ष है कहां। वो तो दिखाई ही नहीं देता है। दूसरा, प्रेस को डराया जा रहा है कि ऐसी ख़बरों पर हाथ मत डालो, ताकि हम कह सके कि हमारे ख़िलाफ़ एक भी करप्शन का आरोप नहीं है। ये सब होने के बाद भी चुनाव में पैसा उसी तरह बह रहा है। उससे ज़्यादा बहने वाला है। देख लीजिएगा और हो सके तो गिन लीजिए।
एक सवाल और है। क्या वायर की ख़बर पढ़ने के बाद सीबीआई अमित शाह के बेटे के घर पहुंच गई, आयकर अधिकारी पहुंच गए? जब ऐसा हुआ नहीं और जब ऐसा होगा भी नहीं तो फिर क्या डरना। फिर मानहानि कैसे हो गई? फर्ज़ी मुकदमा होने का भी चांस नहीं है। असली तो दूर की बात है। एबीसी चैनल ने अदानी ग्रुप की ख़बर दिखाई तो ENFORCEMENT DEPARTMENT यानी ED अदानी के यहां छापे मारने लगा क्या? नहीं न। तो फिर मानहानि क्या हुई?
अदालत को भी आदेश देना चाहिए कि ख़बर सही है या ग़लत, इसकी जांच सीबीआई करे, ईडी करे, आयकर विभाग करे फिर सबूत लेकर आए, उन सबूतों पर फैसला हो। ख़बर सही थी या नहीं। ख़बर ग़लत इरादे से छापी गई या यह एक विशुद्ध पत्रकारीय कर्म था।
एक तरीका यह भी हो सकता था। इस ख़बर का बदला लेने के लिए किसी विपक्ष के नेता के यहां लाइव रेड करवा दिया जाता। जैसा कि हो रहा है और जैसा कि होता रहेगा। सीबीआई, आयकर विभाग, ईडी इनके अधिकारी तो पान खाने के नाम पर भी विपक्ष के नेता के यहां रेड मार आते हैं। किसी विपक्ष के नेता की सीडी तो बनी ही होगी, गुजरात में चुनाव होने वाले हैं, किसी न किसी को बन ही गई होगी। बिहार चुनाव में भी सीडी बनी थी। जिनकी बनी थी पता नहीं क्या हुआ उन मामलों में। ये सब आज से ही शुरू कर दिया जाए और आई टी सेल लगाकर काउंटर कर दिया जाए।Ravish Kumar———————Divakar Singh : रवीश जी, आपने सही लिखा हमारी मीडिया रीढविहीन है. साथ ही नेता भी चाहते हैं मीडिया उनकी चाटुकारिता करती रहे. आप बधाई के पात्र हैं यह मुद्दे उठाने के लिए. पर क्या बस इतना बोलने से डबल स्टैंडर्ड्स को स्वीकार कर लिया जाए? आप कहते हैं कि ED या CBI की जांच नहीं हुई तो कोई मानहानि नहीं हुई. आप स्वयं जानते होंगे कितनी हलकी बात कह दी है आपने. दूसरा लॉजिक ये कि अमित शाह स्वयं क्यों नहीं आये बोलने. अगर वो आते तो आप कहते वो पिता हैं मुजरिम के, इसलिए उनकी बात का कोई महत्त्व नहीं. तीसरी बात आप इतने उत्तेजित रोबर्ट वाड्रा वगैरह के मामले में नहीं हुए. यहाँ आप तुरंत अत्यधिक सक्रिय हो गए और अतार्किक बातें करने लगे. ठीक है नेता भ्रष्ट होते हैं, मानते हैं, पर कम से कम तार्किक तो रहिये, अगर निष्पक्ष नहीं रह सकते.
हालांकि हम जैसे लोग जो आपका शो पसंद करते हैं, चाहते हैं कि आप निष्पक्ष भी रहें. किसी ईमानदार पत्रकार का एक गुट के विरोध में और दूसरे के समर्थन में हर समय बोलते रहना एक गंभीर समस्या है, जिसमें आप जैसे आदरणीय (मेरी निगाह में) पत्रकार हठधर्मिता के साथ शामिल हैं. मोदी सरकार के कट्टर समर्थक मीडिया को आप बुरा मानते हैं, तो कट्टर विरोधी जोकि तर्कहीन होकर आलोचना करने लग जाते हैं, उतने ही बुरे हैं. एक और बात भी आपसे कहना चाह रहा था. आप को शायद बुरा लगा कि भारत की मीडिया कुछ कर नहीं पा रही है और ऑस्ट्रेलिया की मीडिया बहुत बढ़िया है.
क्या आप जानते हैं कि आप जिस इंडस्ट्री में है, उसके लिए भारत में सबसे धाकड़ मीडिया स्तम्भ कौन सा है? कुछ महीने पहले आपने हिंदी मीडिया के कुछ पोर्टल गिनाये थे, कल फिर कुछ गिनाये थे. Yashwant Singh से कुछ पर्सनल खुन्नस है तो कम से कम उनके काम की तो तारीफ कर दीजिये, जो वो तमाम पत्रकारों के हित में करते हैं. उनको भी थोडा महत्त्व दें जब आप हिंदी मीडिया की बात करते हैं. नहीं तो आप भी मोदी और शाह के लीक में शामिल नहीं हैं जो अपने आलोचक को तवज्जो नहीं देते? तो सर मुख्य समस्या डबल स्टैंडर्ड्स की है. सोचियेगा जरूर. न सोचेंगे तो भी ठीक. जो है सो हईये है.
एक आईटी कंपनी के मालिक दिवाकर सिंह ने उपरोक्त कमेंट एनडीटीवी के एंकर रवीश कुमार के जिस एफबी पोस्ट पर किया है
Nitin Thakur
Yesterday at 18:37 ·
सिद्धार्थ वरदराजन Siddharth Varadarajan नए- नवेले पत्रकार नहीं हैं। उनको बखूबी पता है कि वो क्या कर रहे हैं। अमित शाह के बेटे की एकाएक तरक्की पर लेख प्रकाशित करने से पहले उन्हें खूब मालूम रहा होगा कि वो मानहानि का दावा ठोकेगा। ऐसे दावे वरदराजन के लिए नए नहीं हैं। वो उस परंपरा के पत्रकार रहे हैं जहां अक्सर पूंजीपति और नेता ऐसे हथकंडे अपनाते रहते हैं। इन भारी जेबों वाले कब्ज़ाखोरों को पता है कि कमज़ोर आर्थिक स्थिति वाले पत्रकारिता संस्थानों या सामाजिक कार्यकर्ताओं को कैसे अदालती कबड्डी में फंसाकर बेबस किया जाता है। पहले भी इन लोगों ने आवाज़ उठानेवालों को आउट ऑफ कोर्ट सैटेलमेंट के लिए मजबूर किया ही है। लड़ते रहने वाले खत्म हो गए और सैटेलमेंट करनेवाले साख खत्म होने से खुद मर गए। जिस समय में कोई भी शाहों और शहंशाहों पर बोलने तक में खौफ महसूस कर रहा हो तब वरदराजन की वेबसाइट ने सवाल उछाल कर बड़े-बड़े पत्रकारिता संस्थानों को ललकार लगाई है। विपक्ष भी सरकार के खिलाफ मुद्दों के लिए पत्रकारिता जगत का मुंह ताक रहा था। ये वही पत्रकार हैं जिन्होंने मनमोहन को शर्म अल शेख पर घुटने टिकवा दिए थे और गांधी परिवार को वाड्रा-डीएलएफ की डील के मामले पर मुंह छिपाने को मजबूर किया था। कोई शाह जम्हूरियत में किसी सवाल से ऊपर नहीं हो सकता। लेख में किसी घोटाले या गड़बड़ी की बात सीधे सीधे लिखी भी नहीं है। पैरवी ठीक से की गई तो वेबसाइट ये सिद्ध भी कर देगी। हां जिस दुरभिसंधि का इशारा वेबसाइट करती है उससे कोई इनकार नहीं कर सकता। ऐसे असहज सवाल वाड्रा के मामले में भी हुए थे। वहां भी डीएलएफ का पैसा आराम से उनके खाते में आ और जा रहा था। कुछ भी पूछो तो बस आपसी संबंधों का हवाला देकर हाथ झाड़ लेते थे। अगर राष्ट्रीय दामाद पर सवाल हो सकते थे तो राष्ट्रीय शाहज़ादा भी अपवाद नहीं हो सकता।Nitin Thakur———————————–Yashwant Singh
18 hrs ·
भाजपा ने सबको सेट कर रखा है। अब कांग्रेस वाले कुछेक पोर्टलों से काम चला रहे हैं तो इतनी बेचैनी क्यों। मुकदमा ठोंक के भाजपा ने रणनीतिक गलती की है। मुद्दे को देशव्यापी और जन-जन तक पहुंचा दिया। एक वेबसाइट को करोङों की ब्रांडिंग दे दी। तहलका वालों ने कांग्रेस परस्ती में बहुत-सी भाजपा विरोधी ‘महान’ पत्रकारिता की। मौका मिलते ही भाजपा शासित गोआ में तरुण तेजपाल ठांस दिए गए। उनके साथ हवालात में क्या क्या हुआ था, उन दिनों गोआ में तैनात रहे बड़े पुलिस अधिकारी ऑफ दी रिकार्ड बता सकते हैं। तहलका अब लगभग नष्ट हो चुका है। केंद्र में सरकार भी बदल गयी तो सारे बनिया मानसिकता वाले मीडिया मालिक भाजपाई हो गए। ऐसे में मीडिया फील्ड में एक एन्टी बीजेपी मोर्चा, जो कांग्रेस परस्त भी हो, तैयार करना बड़ा मुश्किल टास्क था। पर धीरे धीरे सिद्धार्थ वरदराजन एंड कंपनी के माध्यम से कर दिया गया। एन गुजरात चुनाव के पहले जय शाह की स्टोरी का आना, कपिल सिब्बल का इसको लपक कर प्रेस कांफ्रेंस करना, हड़बड़ाई भाजपा का बैकफुट पर आकर अपने एक केंद्रीय मंत्री के जरिए प्रेस कांफ्रेंस करवा के सफाई दिलवाना, सौ करोड़ का मुकदमा जय शाह द्वारा ठोंका जाना… मैदान में राहुल गांधी का आ जाना और सीधा हमला मोदी पर कर देना… यह सब कुछ बहुत कुछ इशारा करता है। बड़ा मुश्किल होता है निष्पक्ष पत्रकारिता करना। बहुत आसान होता है पार्टी परस्ती में ब्रांड को ‘हीरो’ बना देना। भड़ास4मीडिया डॉट कॉम चलाते मुझे दस साल हो गए, आज तक मुझे कोई निष्पक्ष फंडर नहीं मिला। जो आए, उनके अपने निहित स्वार्थ थे, सो मना कर दिया। न भाजपाई बना न कांग्रेसी न वामी। एक डेमोक्रेटिक और जनपक्षधर पत्रकार की तरह काम किया। जेल, मुकदमे, हमले सब झेले। पर आर्थिक मोर्चे पर सड़कछाप ही रहे। जैसे एक बड़े नेता का बेटा फटाफट तरक्की कर काफी ‘विकास’ कर जाता है, वैसे ही कई बड़े नामधारी पत्रकारों से सजा एक छोटा-मोटा पोर्टल एक बड़ी पार्टी के संरक्षण में न सिर्फ दौड़ने लगता है बल्कि ‘सही वक्त’ पर ‘सही पत्रकारिता’ कर खून का कर्ज चुका देता है। इसे मेरी निजी भड़ास कह कर खारिज कर सकते हैं लेकिन मीडिया को दशक भर से बेहद करीब से देखने के बाद मैं सचमुच सन्यासी भाव से भर गया हूं। यानि वैसा ज्ञान प्राप्त कर लिया हूं जिसके बाद शायद कुछ जानना बाकी नही रह जाता। आज के दौर में मीडिया में नायक पैदा नहीं होते, गढ़े जाते हैं। कारपोरेट और पॉलिटिशियन्स ही मीडिया के नायक गढ़ते हैं। दी वायर और सिद्धार्थ वरदराजन की राजनीति पर शक करिएगा, नज़र रखिएगा। ये जन सरोकार से नहीं फल फूल रहे, ये बड़े ‘हाथों’ के संरक्षण में आबाद हो रहे। चार्टर्ड फ्लाइट से वकील कपिल सिब्बल / प्रशांत भूषण और संपादक सिद्धार्थ वरदराजन ये वाला ‘क्रांतिकारी’ मुकदमा लड़ने अहमदाबाद जाएंगे, बाइट देंगे, फोटो खिचाएँगे, केस गुजरात से बाहर दिल्ली में लाने पर जिरह कराएंगे। इस सबके बीच इनकी उनकी ऑनलाइन जनता हुँआ हुँआ करके सोशल मीडिया पर ट्रेंडिंग वाली तगड़ी खेमेबंदी करा देगी। इस दौरान हर दल के आईटी सेल वाले सच को अपनी-अपनी वाली वैचारिक कड़ाही में तल-रंग, दनादन अपलोड ट्रांसफर सेंड शेयर ब्रॉडकास्ट पब्लिश करने-कराने में भिड़े-लड़े रहेंगे, ताकि पब्लिक परसेप्शन उनके हिसाब से बने। आज के दौर में चीजें बहुत काम्प्लेक्स हैं, मल्टी लेयर लिए हुए हैं। अगर आपको पार्टियों से अघोषित या घोषित रोजगार मिला हुआ है तो आप अपने एजेंडे को अपने तरीके का सच बताकर परोसेंगे, वैसा ही कंटेंट शेयर-पब्लिश करेंगे। जो सच को जान समझ लेता है वो बोलने बकबकाने हुहियाने में थोड़ा संकोची हो जाता है। ऐसे समय जब दी वायर हीरो है, कांग्रेसी आक्रामक हैं, भक्त डिफेंसिव हैं, भाजपाई रणनीतिक चूक कर गए हैं, शेष जनता जात धर्म के नाम पर जल कट मर रही है और इन्हीं आधार पर पोजिशन लिए ‘युद्ध’ मे इस या उस ओर बंटी-डटी है, मुझे फिलहाल समझ नहीं आ रहा कि अपने स्टैंड / अपनी पोजीशन में क्या कहूँ, क्या लिखूं। इस कांव कांव में जाने क्यूं मुझे सब बेगाना-वीराना लग रहा है।Yashwant Singh
Ravish Kumar
14 hrs ·
जिस यूनिवर्सिटी ने हम जैसे लाखों नौजवानों को अगले तीस चालीस पचास साल के लिए दरबदर कर दिया, उस पटना यूनिवर्सिटी का शताब्दी जश्न है। जिसे आज दोयम दर्जे के पायदान पर पहुँचा दिया गया है। फालतू के कार्यक्रम पर पैसा फूँका गया है। अनावश्यक प्रवचन होगा। नैतिक शिक्षा होगी कि युवाओं का देश है। युवाओं को आगे ले जाना है। युवा शक्ति ही राष्ट्र शक्ति है। यूनिवर्सिटी ज्ञान का केंद्र है। ठीक से सोचेंगे तो मेरी बात समझ आएगी। कोई नोटिस नहीं कर रहा है। नोटिस करने के लिए ही प्रधानमंत्री को बुलाया गया है। पचास लाख शामियाना कुर्सी पर ही उड़ गया होगा।
पटना यूनिवर्सिटी ने इस मौके पर जो दीवार घड़ी बनाई है, वो किसी भी नज़र से देखने में ख़राब है। उसका सौंदर्य बोध बता रहा है कि अगले पचास साल में भी यह यूनिवर्सिटी नहीं सुधरेगी। लगता है किसी स्टोर से पुरस्कारों में दिए जाने वाले सस्ती ट्रॉफ़ी की नक़ल मार ली गई है। ठेकेदारों ने दिमाग़ लगाया होगाRavish Kumar
12 October at 23:08 ·
गूगल बताता है कि 3 अक्तूबर 2012 को चुनाव आयोग ने हिमाचल प्रदेश और गुजरात में चुनाव का एलान एक साथ किया था और दोनों राज्यों में आचार संहिता लागू हुई थी । हिमाचल में 4 नवंबर को मतदान की तारीख़ थी और गुजरात में 13 और 17 दिसंबर ।
आज 12 अक्तूबर को चुनाव आयोग ने सिर्फ हिमाचल प्रदेश का एलान किया है। पिछली बार भी हिमाचल में एक ही चरण में मतदान हुआ था।
इस बार हिमाचल के साथ गुजरात चुनाव का एलान क्यों नहीं हुआ ? जब गुजरात का चुनाव भी 9 नवंबर से 18 दिसंबर के बीच होना है तो गुजरात का एलान क्यों नहीं किया गया? चुनाव आयोग को थोड़ा ख़्याल रखना चाहिए वरना लोग मोदी आयोग बोलने लग जाएंगे।
क्या प्रधानमंत्री को आचार संहिता से छूट दी जा रही है? क्या चुनाव आयोग नेताओं की रैलियों के हिसाब से तारीख़ तय करने लगा है? सिस्टम की विश्वसनीयता दाँव पर लगाई जा रही है।
नया इंडिया में पुराना इंडिया वाला दाँव चला जा रहा है। इतनी बहस, इतनी मारा मारी के बाद अगर संस्थाएँ आज़ाद होकर काम करती नहीं दिखेंगी तो क्या फायदा । अलग क्या हुआ?
ऐसा कभी हुआ है क्या ? यह पूछेंगे तो साठ और सत्तर का कोई किस्सा ले आएँगे। आप लोग भी चुप रहिए। वरना आईटी सेल वाले दीवाली मना देंगे।
क्या वाक़ई 16 तारीख़ को बड़ा एलान होने वाला है? उसी के होने देने के लिए आज गुजरात की तारीख़ों का एलान नहीं हुआ? व्हाट्स अप में कई दिनों से ऐसी सूचनाएँ आ रही थीं कि यही होगा। गुजरात के चुनाव का एलान 18 या उसके बाद होगा। मैंने ध्यान नहीं दिया। ये तो राजनीति का पुराना पैटर्न है। चुनाव के वक्त रेवड़ियों की घोषणा करना। फिर प्रधानमंत्री यह भी कह देते हैं कि वे चुनाव के लिए राजनीति नहीं करते। राजनेता यह सब कहते-करते रहे हैं। लेकिन क्या अब इस खेल में चुनाव आयोग भी पार्टनर है?
क्या सच है, वो तो झूठ बोलने वाले ही जानते होंगे। आयोग की विश्वसनीयता बची रहे, हम यही दुआ करेंगे।
पुरानी रिपोर्ट का लिंक दे रहा हूँ ।Ravish Kumar
Yesterday at 11:13 ·
पटना यूनिवर्सिटी सौ साल में इतना छोटा हो गया कि अपने पूर्व छात्रों को बुलाने का साहस ही नहीं जुटा सका। शत्रुध्न सिन्हा और यशवंत सिन्हा को सौ साला जश्न में नहीं बुलाया गया है। जबकि ये दोनों अभी तक बीजेपी में ही हैं। यशवंत सिन्हा ने आवाज़ उठाकर बीजेपी का समय रहते भला ही किया है। तभी तो सरकार हरकत में आई है। जिस वीसी को वहाँ के छात्र भी नहीं जानते होंगे, उन्हें यह बात कैसे समझ आ गई कि इन्हें नहीं बुलाना चाहिए। शर्मनाक हरकत है। हमारी राजनीति ओछी होती जा रही है।
सीना फुलाने से अच्छा है अपना दामन बड़ा कीजिए। बाहों को फैला कर सबका स्वागत कीजिए। टिकट बाँटने में धाँधली का आरोप तो बिहार चुनाव के समय आर के सिंह ने भी लगाया था, वो अब मंत्री हैं। भगवा आतंक का इशारा करने वाले आर के सिंह ही थे।
शत्रुध्न सिन्हा बीजेपी के पहले स्टार प्रचारक हैं। जब लोग बीजेपी से दूर भागते थे तब शत्रुध्न सिन्हा बीजेपी के लिए प्रचार करते थे। पुरानी बात नहीं भूलनी चाहिए। लोग कह रहे हैं कि वे सांसद कैसे रहे हैं, पता कर लीजिए। सांसद कैसे रहे हैं, इस पर अलग से बहस हो सकती है मगर इस पैमाने से तो पटना यूनिवर्सिटी के वीसी को ही प्रधानमंत्री के सामने नहीं होना चाहिए। क्या सांसदों का काम देखकर उनके क्षेत्र में बुलाने का कोई नया नियम शुरू हुआ है?
पटना यूनिवर्सिटी की हालत दयनीय हो चुकी है। क्लास में पढ़ाने के लिए टीचर नहीं है। दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि यह देश के घटिया यूनिवर्सिटी में टॉप टेन में आती होगी। इसने अपने छात्रों को न बुलाकर घटिया ही काम किया है। पटना शहर को यह बात नोटिस करनी चाहिए और ख़ासकर बीजेपी के कार्यकर्ताओं को। क्या यही उनके परिवार का संस्कार है? जब शत्रुध्न सिन्हा जैसे साधन संपन्न के साथ ऐसा हो सकता है तब सोचिए आपके साथ क्या क्या होगा ?
शत्रुध्न सिन्हा पटना यूनिवर्सिटी और मुंबई में बिहार के ब्रांड अंबेसडर रहे हैं। नीतीश कुमार की भी खुलकर तारीफ करते रहे हैं। मुख्यमंत्री को भी छोटे दिल की राजनीति नहीं करनी चाहिए। भारत की राजनीति की यह शर्मनाक हरकत है।
पटना यूनिवर्सिटी पर प्राइम टाइम की यह सीरीज़ देखिए। किस तरह से देश के विश्वविद्यालयों को गोदाम में बदला जा रहा है। जहाँ छात्रों को आलू के बोरे की तरह तीन चार साल तक रखा जाता है। उसके बाद जब वे बेकार हो जाते हैं तो बेरोज़गार बने रहने के लिए छोड़ दिया जाता है। जिस भी पार्टी की सरकार हो, अब हर दल को राज्यों में पंद्रह साल तक हुकूमत करने का मौका मिल चुका है, सबका रिकार्ड रद्दी है।——————————————————————————————Awesh Tiwari
2 hrs ·
गुजरात मे मीडिया जैसी चीज नही है,पहले भी नही थी,आज भी नही है। आम गुजराती खबरें भी कम देखता-पड़ता है। लेकिन गुजरातियों में आपसी संवाद जबरदस्त है यही संवाद चुनावों में माहौल बनाता है यही संवाद जिताता हराता है। पीएम मोदी और शाह की भाजपा चुनाव हारेगी कि जीतेगी यह विश्लेषण फिर कभी लेकिन एक बात तय है कि आम गुजराती भाजपा की नीतियों को लेकर बेहद गुस्से में है। उसे इस बात से भले मतलब न हो कि किसान पेस्टीसाइड से मर रहे हैं लेकिन उसे इस बात से सरोकार है कि उसका अपना धंधा चौपट हो रहा है एक दूसरी बात यह है कि यूपी बिहार से भी उग्र रूप में वहां जातियां उपजातियां सत्ता में हिस्सेदारी चाहती हैं। यह हिस्सेदारी देना बीजेपी के लिए इसलिए संभव नही है क्योंकि जैसे अभी केंद्र में 2.5 मैन शो है ,वैसे गुजरात मे भी लगभग दो दशकों से 2 मैन शो हो रहा है, जिसमे बड़ी चतुराई से तमाम बिरादरियों को अनदेखी की गई है। सीजर को डर है कि चारों तरफ ब्रूटस है अब यही डर भारी पड़ने वाला है।Awesh Tiwari
10 October at 20:15 ·
भाजपा के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि पार्टी और संघ का हर नेता यह सोचता है कि बनियौटी,पोंगा पण्डितई और हल्ला मचाकर हर जंग जीती जा सकती है। जबकि ऐसा होता नही है। पार्टी की सबसे बड़ी कमी यह है कि राम बहादुर राय को छोड़कर किसी भी भगवारंग में रंगे खबरनवीस, साहित्यकार, लेखक को कभी तवज्जो नही दी गई जबकि खबरनवीसों, साहित्यकारों का एक बड़ा तबका इस घोर अपमानजनक परिस्थितियों के बावजूद भक्ति में कोई कोर कसर नही छोड़ रहा है। अगर कोई अमित शाह से पूछे कि साहित्य क्या है तो वो कहेंगे दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की आत्मकथा, खबर क्या है? तो कहेंगे सुधीर चौधरी का नोट में चिप। द वायर की खबर एक शुरुआत है मुझे नही लगता बीजेपी कम से कम जर्नलिज्म और लिक्ट्रेचर के मैदान में कोई भी जंग जीतने जा रही है।
Ravish Kumar
14 October at 23:42 ·
सात समंदर पार मैं तेरे पीछे पीछे आ गई…तू मेरी गर्लफ्रैंड..मैं तेरा ब्वाय फ्रैंड…कजरारे…कजरारे…तेरे कारे कारे नैना…अरे ओ जुम्मा, मेरी जानेमन, बाहर निकल…
कानों पर गानों का हमला है। आज की रात मोहल्ले की कई हाउसिंग सोसायटी में दिवाली पार्टी का जलवा है। साठ, सत्तर, अस्सी, नब्बे के गाने दौड़े चले आ रहे हैं। लगता है इस साल का अपना कोई सुपर हिट गाना नहीं आया है। चिट्टियां कलाइयाँ वे…पुराना हो चुका है।
हर सोसायटी के कोने में डाँस फ़्लोर बना है। थोड़ी सी जगह में ज़्यादा लोगों की गुज़ाइश बन आई है। टकराना अच्छा लग रहा है। बहाना नहीं लगा ! क्या पता ! थोड़ा सा हाथ उठा कर कंधे को उचकाना जम रहा है। गुलाबी और सफेद रंग की मिक्स ज़री के काम वाली साड़ियों में लगे सलमा-सितारे चमक रहे हैं। काले रंग की साड़ियाँ भी हैं। पर रंगों की वेरायटी है।
पाँव के नीचे की हिल्स ऊंचाई का भरोसा पैदा कर रहे हैं। महिलाओं के स्टेप्स सधे हुए हैं। कान के झुमकों के ‘स्विंग’ से पता चलता है। ज़्यादातर औरतों की नाचने की ट्रेनिंग उम्दा है। अदा है और शालीनता भी। पता चलता है कि यहाँ तक आने के लिए किसी ने कितनी मेहनत की है।
मर्दों को नाचते देखा नहीं जाता है। झट से कोई मुँह में रूमाल दबा लेता है तो कोई रूमाल के नीचे आ जाता है। पाँच मिनट भी ‘ग्रेस’ शालीनता के साथ नहीं नाच सकते। भारत के मर्द डाँस फ़्लोर पर आते ही मूर्ति भसान के अपने संस्कार नहीं भूलते हैं। जैसे ही वे किसी महिला के करीब पहुँचते हैं, लगता है अब पाँच सौ का नोट निकाल कर घुमाने लगेंगे। डाँस देखने का सारा सौंदर्य बोध बिगड़ जाता है। तुरंत घुटने पर बैठ कर हाथ ऊपर कर दुनाली बंदूक की तरह चलाने लगते हैं।
काश कोई पुरुषों को कपड़ा पहनने का सलीक़ा सीखा देता। यही बता देता कि त्योहार का मतलब नीले और काले रंग का कुर्ता पहनना नहीं होता। कुछ और रंग भी होते होंगे। शायद पुरुषों को व्हिस्की के बग़ैर जश्न मनाना नहीं आता। पीते इसलिए हैं कि अपनी चिरकुटई ख़ुद न देख सकें। लानत है।
डाँस फ़्लोर का मजमा देखकर लगता है कि सिनेमा ने औरतों और मर्दों को अलग-अलग प्रभावित किया है। औरतों की कल्पना में कोई न कोई हिरोइन है। वो आज की रात नाचते हुए किसी और की तरह हो जाना चाहती हैं। अपनी ख़ूबसूरती के ऊपर किसी और हिरोइन को ओढ़ लेना चाहती हैं। मर्द कंफ्यूज़ हैं। वे जो भी होना चाहते हों मगर बार-बार उनका असल ही बाहर आ जाता है। क्या कोई हीरो अच्छा डांसर नहीं हुआ जिससे ये मर्द थोड़ा नाचना सीख लेते।मैं किनारे खड़ा सब देख रहा हूँ। मुझे नाचना नहीं आता है। काश ! ग़र अंदाज़ हो तो आप देखते हुए भी थिरक सकते हैं। आप वहाँ नहीं होते हुए भी हो सकते हैं। आप ख़बरों को लेकर नाहक परेशान हैं। ज़माना दिवाली की तैयारी में जुटा है। जश्न का जुनून छाया हुआ है। आप सभी को दिवाली मुबारक।Ravish Kumar
12 October at 18:18 ·
राजनीति के ज़हरख़ुरानी गिरोह से सावधान
महाराष्ट्र के यवतमाल में कीटनाशक के ज़हर से बीस किसानों की जान चली गई है। आठ सौ किसान अस्पताल में हैं। अठारह सौ किसान ज़हर से प्रभावित हुए हैं। जिसने ज़हर पी उसकी कोई बात नहीं। उन्हें यह भी कहने का मौका नहीं मिला कि वे शिव के उपासक थे।
प्रधानमंत्री ने अपने गाँव वडनगर के दौरे पर कहा कि “भोले बाबा के आशीर्वाद ने मुझे ज़हर पीने और उसे पचाने की शक्ति दी. इसी क्षमता के कारण मैं 2001 से अपने खिलाफ विष वमन करने वाले सभी लोगों से निपट सका. इस क्षमता ने मुझे इन वर्षों में समर्पण के साथ मातृभूमि की सेवा करने की शक्ति दी।”
हमारे नेता ख़ुद को विक्टिम यानी पीड़ित की तरह पेश करते रहते हैं। जैसे संसार के सबसे पीड़ित शख़्स वही हों। विपक्ष में रहते हुए ‘पीड़ितवाद’ तो थोड़ा बहुत चल जाता है मगर सोलह सत्रह साल तक सत्ता में रहने के बाद भी इसकी ज़रूरत पड़े, वो भी किसी शक्तिशाली नेता को, ठीक नहीं है।
पिछले चार साल की भारतीय राजनीति में ज़हर का ज़िक्र सबसे पहले राहुल गांधी ने किया था। जयपुर में। उसके बाद लालू यादव ने किया बिहार विधान सभा चुनाव में।
जनवरी 2013 में जयपुर में उपाध्यक्ष बनाए जाने के बाद राहुल गांधी ने कहा था “पिछली रात मेरी मां मेरे पास आई और रो पड़ी क्योंकि वो जानती हैं कि सत्ता ज़हर की तरह होती है. सत्ता क्या करती है. हमें शक्ति का इस्तेमाल लोगों को सबल बनाने के लिए करना है.”
जून 2015 में नीतीश कुमार के साथ गठबंधन करते हुए लालू यादव ने कहा था कि ” मैं धर्मनिरपेक्ष ताक़तों और भारत की जनता को भरोसा दिलाता हूँ कि बिहार की लड़ाई में मैं हर तरह का घूँट पीने को तैयार हूँ। हम हर तरह का घूँट पीने को तैयार हैं। हम हर तरह का ज़हर पीने को तैयार हैं। मैं सांप्रदायिकता के इस कोबरा को कुचलने के लिए प्रतिबद्ध हूँ । ”
भारत की राजनीति में लगता है कि हर दो साल बाद कोई नेता ज़हर का ज़िक्र ज़रूर करता है। कोई कोबरा को कुचलने के लिए ज़हर पी रहा है तो कोई ख़ुद को शिव की छाया में रखने के लिए ज़हर पी रहा है। मेरे प्रिय आराध्य शिव तो सबका ही ज़हर पी रहे हैं। ज़हर पीने वाले का भी ज़हर पी रहे हैं और पीलाने वाले का भी। भोले तो बस भोले बने रहते हैं । वे जान गए हैं कि उन्हें भारत की राजनीति में प्रतीक बनाया जा रहा है। धीरे धीरे यह प्रतीक बड़ा होगा और नेता की छवि में भोले की छवि गढ़ी जाएगी। मेरे नीलकंठ जानते हैं , संसार में हर पक्षी नीलकंठ नहीं होता है। सत्ता के अमृत को शिव का ज़हर बताना ठीक नहीं ।
भारतीय राजनीति में कोई ज़हरख़ुरानी गिरोह तो नहीं है जो सबको ज़हर पीला रहा है! पहले इस गिरोह को पकड़ो। तब तक स्कूल, कॉलेज और अस्पताल की बात कीजिए जिसके न होने पर जनता रोज़ ज़हर पीती है। आप नेता हैं, आप ज़हर पी कर भी बच सकते हैं। यवतमाल के किसान तो मर गए। उन्होंने तो नेताओं की झूठ का ज़हर पीया।
आप नेता लोग मलाई खाने के लिए, मलाई खाकर और मलाई खाते रहने के लिए थोड़ा सा ज़हर पी रहे हैं। जनता तो जीने से बचने के लिए ज़हर पी रही है।———————————————————-Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
23 hrs · Dehra Dun ·
दिगम्बर जैन मुनि का रेप मामले में पकड़ा जाना हल्का सा शॉकिंग है , पर अप्रत्याशित नहीं है । अन्य भोगी – विलासी बाबाओं के मुकाबले जैन मुनि अध्ययन शील और सु चिंतित होते हैं । वह माइक लगा कर गलाफाड़ कीर्तन नहीं करते , तथा अंध विश्वास भी नहीं फैलाते । वह मार तमाम कर चोर , घोटालेबाज़ , मिलावट खोर और घट तौली करने वाले जैन सेठों के घर ठहरते हैं , लेकिन स्वयं उनकी जीवन चर्या संयमित होती है । वह सेठों के घर माल और मेवा नहीं भकोसते , इस लिए आप किसी जैन मुनि को तोंदू नहीं पाएंगे ।उनके प्रवचन भी तार्किक होते हैं । यद्यपि सभी बाबाओं की तरह वे भी समाज पर बोझ हैं , और अनावश्यक हैं । फिर भी मेरी दृष्टि में वे अन्य पादरी , पंडित , बाबा अथवा मौलवी से सर्वाधिक कम घातक हैं ।
ताज़ा घटना से मेरा मत दृढ़ हुआ है कि उन्हें ( और अन्य को भी ) स्वाभाविक शारीरिक सम्बन्ध बनाने की छूट समाज द्वारा दी जाए । आखिर वे भी वही अन्न खाते हैं , की जिसे खाकर आदम और हव्वा से ” अपराध ” हो गया था । फिर जो बलात्कार करे , उसके अंडकोष मूसल से थेच दिए जाएं ।
और क्षेपक :- मुंह पर पट्टी बांधे , जैन मुनि ने रात को बगल में सोते चेले के ऊपर टांग धर दी । चेले ने हतप्रभ हो धर्म की दुहाई दी , तो मुनिवर बोले , वत्स , पट्टी केवल मुंह पर बंधी है , अन्यत्र नहीं ।Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
Yesterday at 09:04 · Dehra Dun ·
विजया दशमी और दीपावली आते ही मुख्यतः उत्तर भारत में वातावरण भक्ति मय हो जाता है । इन दोनों पर्वों को श्री राम चंद्र जी से सम्बद्ध किया गया है । भारत मे कई तरह की राम कथाएं प्रचलित हैं , लेकिन सर्व श्रेष्ठ बाल्मीक और तुलसी दास की लिखी काव्य कथाएं हैं । बाल्मीक की कथा संस्कृत में होने से वह तुलसी कृत रामायण से कम प्रचलित हैं । तुलसी न होते , तो श्री राम की हैसियत भारत मे उतनी ही होती , जितनी गांधी की 1917 से पहले थी । तुलसी ने उन्हें लोक सुलभ बनाया । मर्यादा पुरुषोत्तम भी वह तुलसी के फलस्वरूप ही बने । राम कथा एक बेजोड़ फिक्शन है । एक साहित्यिक कृति के लिहाज से भी बाल्मीक और तुलसी की राम कथाएं विश्व साहित्य में सर्व श्रेष्ठ हैं । लेकिन ध्यान देना चाहिए कि राम कथा कोई इतिहास नहीं , अपितु गल्प है । उसे प्रतीकात्मक रूप से ग्रहण करने की आवश्यकता है , यथावत नहीं ।
राम जी और उनके भाईयों के जन्म मुनि द्वारा रानियों को प्रदत्त फल खाने से हुआ बताया गया है । यह सिरे की बकवास है ।रावण के पास विमान बताया गया है , जबकि विमान का अविष्कार अभी सौ साल पहले हुआ है । श्री राम पर श्रद्धा रखना कोई बुरी बात नहीं , लेकिन सामान्य विवेक का साथ न छोड़ें ।
जब मैं कहता हूं कि श्री कृष्ण जी कभी भी हरिप्रसाद चौरसिया से अच्छी फ्ल्यूट नहीं बजा सकते , क्योंकि उनके समय मे 4 से अधिक सुरों की खोज ही नहीं हुई थी । इसी लिए हमारी प्राचीन ऋचाओं का पारायण 3 से 4 सुरों में किया जाता है । इस पर लोग मुझे मारने दौड़ते हैं । चौरसिया जी भी गुस्सा करते है। मेरी दृढ़ मान्यता है कि श्री राम चन्द्र भगवान किसी भी तरह हमारे वर्तमान सेनाध्यक्ष जनरल रावत से बड़े योद्धा नहीं हो सकते , क्योंकि तब तकनीक विकसित न थी । यदि उस वक़्त गल्प के अनुसार , आग्नेयास्त्र थे , तो श्री हनुमान जी मुगदर लेकर क्यों लड़ रहे थे ? श्री राम की सेना का एक प्रमुख जनरल होने के बावजूद क्यों वह मुगदर से लड़ते थे , जिसका प्रयोग आज धोबी कपड़े पीटने के लिए करता है ? श्रद्धालु बनिये , पर कुतर्की और विवेक हीन नहीं ।
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मेने भी यही कहा था जो आज अरुण माहेश्वरी जी ने कहा – रविश का ये भाषण मुग्द कर देने वाला हे बार बार सुनने को जी चाहता हे Arun Maheshwari6 hrs · YouTube
· रविश कुमार के इस भाषण को बार-बार सुना और सुनाया जाना चाहिए । सत्य की यह आवाज कभी दबने न पाए, इस प्रण को दोहराने के लिये ही :https://www.youtube.com/watch?v=tMBxlEzs43U&feature=share
https://www.youtube.com/watch?v=d9LD-OlGnhg&t=690s
Ravish Kumar
8 hrs ·
क्या मैं हर किसी की उम्मीद बन सकता हूं
हर बातचीत इसी बात से शुरू होती है कि मैं ही उम्मीद हूं। हर बातचीत इसी बात पर ख़त्म होती है कि आपसे ही उम्मीद है। ऐसा कोई दिन नहीं होता है जब बीस से पचीस फोन अलग अलग समस्याओं को लेकर न आते हों। बातचीत से ही कॉलर की लाचारी और पीड़ा झलकने लगती है, बात करते करते मैं अपनी पीड़ा बताने लगता हूं। क्या यह संभव है कि कोई एक रिपोर्टर इतनी उम्मीदों का बोझ उठा सकता है? पूरी कर सकता है? इम्तहान में प्रश्न पत्र लीक होने से लेकर बार बार भर्तियां लटकाने के मामले हैं, कहीं सरपंच ने कब्ज़ा कर लिया है तो कहीं किसी की हत्या हो गई है, कहीं कोई वीसी गबन कर गया है तो कोई सांसद ज़मीन कब्ज़ा कर रहा है। भर्ती बोर्ड के घपलों और लापरवाही को लेकर तो न जाने कितने फोन आते रहते हैं।
शनिवार और रविवार का दिन भी बाकी दिनों की तरफ फोन सुनते सुनते गुज़र जाता है। कितना सुन सकता है। हर बातचीत लंबी होने लगती है। कई बार मैं ही झुंझला जाता हूं। आज लगातार आठ कॉल आ गए। चार में एक ही समस्या थी और बाकी अलग अलग। सबमें कहा गया कि मुझसे उम्मीद है। सोने की कोशिश करता रहा, जागता रहा, मुझसे होता नहीं कि फोन बंद कर दें। हर दिन का यही आलम है। फोन करने वाले आम लोग ही नहीं कई बार ऐसे भी होते हैं कि आपके पास उनकी पूरी बातचीत सुनने के अलावा कोई रास्ता नहीं होता। आप उनका सम्मान भी करते हैं। क्या लोग बाकी एंकरों को भी इसी तरह फोन करते हैं? क्या वे फोन उठाते होंगे?
मैं कितनों की दास्तान सुन सकता हूं। लोगों को मना करना इतना आसान नहीं होता है। धीरे-धीरे लगता है कि कॉलर के साथ हो रही नाइंसाफ़ी का एक अपराधी मैं भी हूं। एक अपराध बोध से हल्का होते हैं कि दूसरा चढ़ जाता है। हर ख़बर में अर्जेंसी होती है। मेरे लिए सामान्य जीवन जीना मुश्किल हो गया है। मेरे पास न तो संसाधन है न उतनी क्षमता कि हर स्टोरी कर दूं। अकेले या दो तीन लोगों के सहारे जो बन पड़ता है, वो कर लेता हूं। लेकिन मुझे भी कभी कोई ख़ाली वक्त मिलेगा या नहीं। क्या लोगों ने मुझे सांसद विधायक चुन लिया है, जो सांसद विधायक चुने गए हैं वो क्या कर रहे हैं? मना जैसा किया नहीं कि जो आदमी यह बोल रहा होता है कि आप से ही उम्मीद है वो तुरंत बोलने लगता है कि समझ गए आपको। आपने दिल ही तोड़ दिया।
मना करने का मतलब है अपराध बोध। क्या आप रोज़ ऐसे बीसों अपराध बोध उठा सकते हैं? फर्क पड़ता है। दिन भर दिमाग़ उसी में उलझा रहता है। कॉलर की आवाज़ शून्य में तब्दील हो चुकी है। वो अब सिर्फ एक ज़िदा लाश भर है जिसके ऊपर अर्ज़ियों और पर्चियों के कफ़न रखे हुए हैं। मैं भी तो जो करता हूं, उस पर कुछ सुनवाई नहीं होती है। सरकारें चुप्पा मार जाती हैं। मुझसे पहले कई बार ख़बरें अख़बारों में छप चुकी होती हैं। परेशान व्यक्ति के पास कतरन की फ़ाइल बन चुकी होती है मगर उस पर कोई एक्शन नहीं।
आख़िर सिस्टम में इतना घमंड आया कहां से है। सिस्टम ने आम आदमी को खिचड़ी जैसी तीन नंबर की बहस में उलझा कर उसे निहत्था कर दिया है। वो मारा मारा फिर रहा है। इस अख़बार से उस अख़बार तक। इस पत्रकार से उस पत्रकार तक। इस उम्मीद को ख़ुद जनता ने ख़त्म किया है। जब तक आप समूह में हैं, करते रहिए ये पार्टी वो पार्टी, हिन्दू मुस्लिम सब करते रहिए, जैसे ही किसी समस्या से सामना होगा, वो भीड़ आपको छोड़ देगी। आपको अकेला और निहत्था कर देगी। आप धरना प्रदर्शन की उन तमाम ख़बरों को समेटे लोकतंत्र में पोलिथिन का बैग बन कर इधर से उधर उड़ते रहेंगे। इक्का दुक्का लोग लड़ रहे हैं, बाकी उन्हें लड़ता हुआ छोड़ कुछ और कर रहे हैं। हम सब एक दूसरे की हताशा के कारण हैं।
लोग पूछने लगते हैं कि बताइये क्या करें? ज़ाहिर है वो सब कर चुके होते हैं। मैं क्या और क्यों बताऊं कि किस किस को क्या करना है। धरना और प्रदर्शन, चिट्ठी लिखना ही तो कह सकता हूं, मगर वो भी तो बेअसर हो गया है। चैनलों पर दिन पर नेताओं के फ़र्ज़ी बयान भरे रहते हैं, जब देखो तब किसी चिरकुट का थोबड़ा बक बक करता नज़र आता है। हर जगह से जनता की आवाज़ ग़ायब होती जा रही है। मीडिया ने भी जनता को निहत्था कर दिया है। उसकी परेशानियों में पानी मिलाकर पेश करता है ताकि धार कम हो जाए।
यह वही जनता है जिसके प्रदर्शन करने की जगह हर शहर से ग़ायब कर दी गई है। उसे कोई फर्क नहीं पड़ा। तब वो बेख़बर रही। जैसे ही सिस्टम ने उसे भर्ती के नाम पर छल किया, पत्रकारों को खोजने लगती है। आपने पत्रकारों की हालत ये कर दी है कि सवाल पूछने पर कहने लगे कि हैं फलां जी का विरोध क्यों करते हैं। सीधा कहिए न कि थाली में दीप सजाकर आरती क्यों नहीं करते हैं।
एक ही रास्ता बचा है। हर दूसरे की लड़ाई को अपना बना लीजिए। सबकी लड़ाई में शामिल हो जाइये और सबमें अपनी लड़ाई मिला दीजिए। किसी को किसी की अकेले की लड़ाई से कोई फायदा नहीं हो रहा है। जनता थोक शब्द नहीं रही। नेताओं ने उसका खुदरा खुदरा कर दिया है। चवन्नी अठन्नी की रेज़गारी की कीमत दो हज़ार के नोट के ज़माने में क्या रहेगी। क्या इसके बाद कुछ हो जाएगा? मैं नहीं जानता। मैंने इस पर सोचा नहीं है। लेकिन एक बात जानता हूं। मैं सबकी उम्मीद नहीं बन सकता। मीडिया से कवर करवा लेना अगर आपकी उम्मीद का पैमाना है तो आप भी किसी उम्मीद के लायक़ नहीं हैंRavish Kumar
8 hrs ·
भारत की राजनीति में फ़तवा का विरोध तीन दशक तक इतना सघन रूप से किया गया कि अब उस पर बात भी नहीं होती। इस पर बात होती है कि मुस्लिम वोट बैंक मिथक से ज़्यादा कुछ नहीं। मुसलमान किसी एक दल को वोट नहीं करता है। बीजेपी को भी करता है। फ़तवा देने वाले चेहरे राजनीति से ग़ायब हो गए। यह अच्छा ही हुआ मगर अब फ़तवा दूसरे खेमे में उभर रहा है। इंडियन एक्सप्रेस की यह ख़बर बताती है कि खेड़ा ज़िले में एक प्रभावशाली और प्रतिष्ठित संप्रदाय के महंत ने मुख्यमंत्री की मौजूदगी में अपने भक्तों से कहा कि बीजेपी को वोट दें। इसमें अगर किसी को ग़लत नहीं लगता तो वो भी ठीक है मगर फिर कोई लेक्चर न दे कि जाति और धर्म से ऊपर उठ कर राजनीति कर रहे हैं। मंदिरों मठों के पुजारियों का पाँव छूकर वोट मांगना बता रहा है कि सब कुछ दैवी कृपा से ही हो रहा है। इसमें किसी मॉडल या विकास का योगदान कम ही है। यह ख़तरनाक प्रवृत्ति है। आप गाली देकर सही ठहरा सकते है लेकिन धार्मिक गोलबंदी आपको कट्टर बनाती रहेगी। कट्टरता हमेशा ग़रीब और पिछड़ा बनाए रखती है। ठीक से सोचिए। प्रधानमंत्री तो हिमाचल में कहते हैं कि हिमाचल के नौजवानों को कश्मीर में पत्थर से मारते हैं। कल वे चुनाव जीतने के लिए बिहार के जवान बोलेंगे फिर धर्म का नाम लेने लगेंगे।
गाली देन वालों के चक्कर में मत पड़िए। उनका दुर्भाग्य देखिए। माँ बाप ने कितनी उम्मीदों से पाला होगा कि बड़ा होकर कुछ अच्छा काम करेगा, मगर लड़का एक नेता के चक्कर में गाली देने वाला बन गया। इस लिंक को चटकाइये और पढ़िए। ये सब क्यों हो रहा है? क्या कुछ काम नहीं हुआ है? क्या विकास से चुनाव नहीं जीता जा सकता ? गुजरात का चुनाव पहले से फिक्स बताकर दिन रात फिक्स किया जा रहा है।
http://indianexpress.com/…/swaminarayan-temple-in-vadtal-o…/
Swaminarayan temple in Vadtal openly backs BJP, appeals to devotees to vote for ‘Modi’
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8 hrs ·
pando.com के बिना अधूरा है एक्सप्रेस में छपे पैराडाइस पेपर्स और द वायर की रिपोर्ट
हिन्दी के पाठकों को आज का अंग्रेज़ी वाला इंडियन एक्सप्रेस ख़रीद कर रख लेना चाहिए। एक पाठक के रूप में आप बेहतर होंगे। हिन्दी में तो यह सब मिलेगा नहीं क्योंकि ज्यादातर हिन्दी अख़बार के संपादक अपने दौर की सरकार के किरानी होते हैं।
कारपोरेट के दस्तावेज़ों को समझना और उसमें कमियां पकड़ना ये बहुत ही कौशल का काम है। इसके भीतर के राज़ को समझने की योग्यता हर किसी में नहीं होती है। मैं तो कई बार इस कारण से भी हाथ खड़े कर देता हूं। न्यूज़ रूम में ऐसी दक्षता के लोग भी नहीं होते हैं जिनसे आप पूछकर आगे बढ़ सकें वर्ना कोई आसानी से आपको मैनुपुलेट कर सकता है।
इसका हल निकाला है INTERNATIONAL CONSORTIUM OF INVESTIGATIVE JOURNALISTS ने। दुनिया भर के 96 समाचार संगठनों को मिलाकर एक समूह बना दिया है। इसमें कारपोरेट खातों को समझने वाले वकील चार्टर्ड अकाउंटेंट भी हैं। एक्सप्रेस इसका हिस्सा है। आपको कोई हिन्दी का अख़बार इसका हिस्सेदार नहीं मिलेगा। बिना पत्रकारों के ग्लोबल नेटवर्क के आप अब कोरपोरेट की रिपोर्टिंग ही नहीं कर सकते हैं।
1 करोड़ 30 लाख कारपोरेट दस्तावेज़ों को पढ़ने समझने के बाद दुनिया भर के अख़बारों में छपना शुरू हुआ है। इंडियन एक्सप्रेस में आज इसे कई पन्नों पर छापा है। आगे भी छापेगा। पनामा पेपर्स और पैराडाइस पेपर्स को मिलाकर देखेंगे तो पांच सौ हज़ार लोगों का पैसे के तंत्र पर कब्ज़ा है। आप खुद ही अपनी नैतिकता का कुर्ता फाड़ते रह जाएंगे मगर ये क्रूर कुलीन तंत्र सत्ता का दामन थामे रहेगा। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता है। उसके यहां कोई नैतिकता नहीं है। वो नैतिकता का फ्रंट भर है।
राज्य सभा में सबसे अमीर और बीजेपी के सांसद आर के सिन्हा का भी नाम है। जयंत सिन्हा का भी नाम है। दोनों ने जवाब भी दिया है। नोटबंदी की बरसी पर काला धन मिटने का जश्न मनाया जाने वाला है। ऐसे मौके पर पैराडाइस पेपर्स का यह ख़ुलासा हमें भावुकता में बहने से रोकेगा। अमिताभ बच्चन, अशोक गहलोत, डॉ अशोक सेठ, कोचिंग कंपनी फिट्जी, नीरा राडिया का भी नाम है। आने वाले दिनों में पता नहीं किस किस का नाम आएगा, मीडिया कंपनी से लेकर दवा कंपनी तक मालूम नहीं।
एक्सप्रेस की रिपोर्ट में जयंत सिन्हा की सफाई पढ़ेंगे तो लगेगा कि कोई ख़ास मामला नहीं है। जब आप इसी ख़बर को PANDO.COM पर 26 मई 2014 को MARKS AMES के विश्लेषण को पढ़ेंगे तो लगेगा कि आपके साथ तो खेल हो चुका है। अब न ताली पीटने लायक बचे हैं न गाली देने लायक। जो आज छपा है उसे तो MARK AMES ने 26 मई 2014 को ही लिख दिया था कि ओमेदियार नेटवर्क मोदी की जीत के लिए काम कर रहा था। यही कि 2009 में ओमेदियार नेटवर्क ने भारत में सबसे अधिक निवेश किया, इस निवेश में इसके निदेशक जयंत सिन्हा की बड़ी भूमिका थी।
2013 में जयंत सिन्हा ने इस्तीफा देकर मोदी के विजय अभियान में शामिल होने का एलान कर दिया। उसी साल नरेंद्र मोदी ने व्यापारियों की एक सभा मे भाषण दिया कि ई-कामर्स को खोलने की ज़रूरत है। यह भाजपा की नीति से ठीक उलट था। उस वक्त भाजपा संसद में रिटेल सेक्टर में विदेश निवेश का ज़ोरदार विरोध कर रही थी। भाजपा समर्थक व्यापारी वर्ग पार्टी के साथ दमदार तरीके से खड़ा था कि उसके हितों की रक्षा भाजपा ही कर रही है मगर उसे भी नहीं पता था कि इस पार्टी में एक ऐसे नेटवर्क का प्रभाव हो चुका है जिसका मकसद सिर्फ एख ही है। ई कामर्स में विदेश निवेश के मौके को बढ़ाना।
मुझे PANDO.COM के बारे में आज ही पता चला। मैं नहीं जानता हूं क्या है लेकिन आप भी सोचिए कि 26 मई 2014 को ही पर्दे के पीछे हो रहे इस खेल को समझ रहा था। हम और आप इस तरह के खेल को कभी समझ ही नहीं पाएंगे और न समझने योग्य हैं। तभी नेता हमारे सामने हिन्दू मुस्लिम की बासी रोटी फेंकर हमारा तमाशा देखता है।
जब मोदी जीते थे तब ओमेदियार नेटवर्क ने ट्वीट कर बधाई दी थी। टेलिग्राफ में हज़ारीबाग में हे एक प्रेस कांफ्रेंस की रिपोर्ट का हवाला दिया गया है। जिसमें स्थानीय बीजेपी नेता शिव शंकर प्रसाद गुप्त कहते हैं कि जयंत सिन्हा 2012-13 में दो साल मोदी की टीम के साथ काम कर चुके हैं। इस दौरान जयंत सिन्हा ओमिदियार नेटवर्क में भी काम कर रहे थे। उन्होंने अपने जवाब में कहा है कि 2013 में इस्तीफा दिया।
इसमें मार्क ने लिखा है कि जयंत सिन्हा ओमेदियार नेटवर्क के अधिकारी होते हुए भी बीजेपी से जुड़े थिंक टैंक इंडिया फाउंडेशन में निदेशक हैं। इसी फाउंडेशन के बारे में इन दिनों वायर में ख़बर छपी है। शौर्य डोवल जो राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवल के बेटे हैं, वो इस फाउंडेशन के सर्वेसर्वा हैं। जयंत सिन्हा ई कामर्स में विदेशी निवेश की छूट की वकालत करते रहते थे जबकि उनकी पार्टी रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश को लेकर ज़ोरदार विरोध करने का नाटक करती थी। जनता इस खेल को कैसे देखे। क्या समझे। बहुत मुश्किल है। एक्सप्रेस की रिपोर्ट को the wire.in और PANDO.COM के साथ पढ़ा जाना चाहिए।
क्या सही में आप इस तरह के खेल को समझने योग्य हैं? मेरा तो दिल बैठ गया है। जब हम वायर की रिपोर्ट पढ़ रहे थे तब हमारे सामने PANDO.COM की तीन साल पुरानी रिपोर्ट नहीं थी। तब हमारे सामने पैराडाइस पेपर्स नहीं थे। क्या हम वाकई जानते हैं कि ये जो नेता दिन रात हमारे सामने दिखते हैं वे किसी कंपनी या नेटवर्क के फ्रंट नहीं हैं? क्या हम जानते हैं कि 2014 की जीत के पीछे लगे इस प्रकार के नेटवर्क के क्या हित रहे होंगे? वो इतिहास का सबसे महंगा चुनाव था। क्या कोई इन नेटवर्कों को एजेंट बनकर हमारे सामने दावे कर रहा था? जिसे हम अपना बना रहे थे क्या वो पहले ही किसी और का हो चुका था?
इसलिए जानते रहिए। किसी हिन्दी अख़बार में ये सब नहीं मिलने वाला है। इसलिए गाली देने से पहले पढ़िए। अब मैं इस पर नहीं लिखूंगा। यह बहुत डरावना है। हमें हमारी व्यक्तिगत नैतिकता से ही कुचल कर मार दिया जाएगा मगर इन कुलीनों और नेटवर्कों का कुछ नहीं होगा। इनका मुलुक एक ही है। पैसा। मौन रहकर तमाशा देखिए।
दो सुपर सुपर संघी आज ऐसी बाते कर रहे हे ये असल में रविश कुमार का ही असर हे
13 hrs ·
“जब विपक्ष ना हो, तो जनता लावारिस हो जाती है”… इस वाक्य को दो मिनट में समझाता हूँ… ”
साँची”, मध्यप्रदेश में सहकारी दूध उत्पादों का एक बड़ा ब्राण्ड है. लाखों लोगों का इस पर विश्वास है (बल्कि “था”). रोज़ाना लाखों लीटर दूध प्रदेश में और प्रदेश से बाहर दिल्ली तक जाता है. पाँच-छह दिन पहले एक बहुत बड़ा घोटाला पकड़ा गया है, जिसके अनुसार दूध के टैंकर रास्ते में ही मार्ग बदलकर गोदामों में पहुँचते थे, जहाँ एक गिरोह तीन से पाँच हजार लीटर दूध (अनुमानतः) “रोज़ाना” चोरी कर लेता था…
फिर इस दूध की मात्रा को बराबर करने के लिए पानी, केमिकल और खाने का सोडा मिलाकर वापस इस टैंकर को साँची केन्द्र पहुँचा दिया जाता और ग्राहकों को यही मिलावटी दूध 48/- रूपए के भाव से बेचा जाता… यह गोरखधंधा लगभग दो वर्ष से अधिक समय से चल रहा था.
अब अपने “कॉमन सेंस” से पूछिए, जिन दूध के टैंकरों में GPS सिस्टम लगा हो, उनमें से कम से कम पाँच हजार लीटर दूध चुराना… वो भी रोज़ाना… वो भी दो साल तक… उसमें भी सफाई से Exactly उतना ही पानी और केमिकल मिलाना और वापस बिना किसी जाँच के ग्राहकों तक पहुँचा देना… इस महाभ्रष्ट खेल में नीचे से लेकर ऊपर तक कितनी कड़ियाँ होंगी? उच्च स्तरीय मिलीभगत के बिना क्या यह संभव है??
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लेकिन जैसा कि पहली पंक्ति में कहा… “जब विपक्ष कमज़ोर हो, या विपक्ष बिका हुआ हो… या विपक्ष को भाजपा में ही मिला लिया जाए, तो जनता लावारिस हो जाती है..”. बच्चों के दूध, प्रदेश के एक ब्राण्ड और जनहित से जुड़े इतने गंभीर मुद्दे पर मप्र काँग्रेस ने कोई बड़ा प्रदर्शन तक नहीं किया… जनता “अभिशप्त” है, क्योंकि सभी को पता है कि मामाजी फिर से चुनाव जीत ही जाएँगे… सब ऐसे ही चलता रहेगा… किसी को कोई परवाह नहीं है… पिछले पाँच-छह दिनों में किसी बड़े खाद्य अधिकारी, जाँच अधिकारी या साँची के अधिकारी की बर्खास्तगी की कोई खबर नहीं है…
और हाँ!!! एक बात और, इस दूध टैंकर घोटाले में जो बन्दा पकड़ा गया है, वह पहले भी ऐसे ही मामले में पकड़ा जा चुका है, फिर भी दूध ढोने के टैंकरों का ठेका उसी को मिला हुआ है… MP अजब है… MP गजब है…2007 से लेकर 2014 तक मैंने सोशल मीडिया पर काँग्रेस के इतने घोटालों पर लिखा… सोनिया के खिलाफ लिखा… सेकुलरिज़्म को जमकर गरियाया… वामियों के बखिए उधेड़े… तब कांग्रेसियों को मुझसे रत्ती भर की भी तकलीफ न होती थी… किसी ने मेरी वाल पर आकर या पीठ पीछे अपनी वाल पर मेरे खिलाफ कोसोवाद नहीं चलाया… इक्का-दुक्का छोड़कर किसी वामिये ने नहीं कहा कि “तुम भाजपा के हाथों बिके हुए आदमी हो…”.
लेकिन 2014 के बाद सोशल मीडिया पर एक “नई संस्कारी प्रजाति” पैदा हुई है, जिसे भाजपा की 15-15 साल पुरानी राज्य सरकारों की कमी दिखाने या भ्रष्टाचार की बात करने पर भी गरियाने/कोसने की गंदी आदत है…… और ये हालत तब है, जबकि मप्र में मामाजी की या दिल्ली में मोदीजी की कुर्सी को कतई कोई खतरा नहीं है… पता नहीं “इस खास प्रजाति” के लोगों में किस बात का इतना डर है?? या शायद असहमति सहन करने के संस्कार ही नहीं हैं?? क्या इसी को Intolerance कहते हैं??
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और जब इनके पास कोई जवाब नहीं होता, तब इस प्रजाति के पास एक ही (कु)तर्क बचता है… “…जाओ काँग्रेस को वोट दे दो… जाओ राहुल गाँधी को सत्ता में ले आओ…”, “देशद्रोही कहीं के…”. 😀 😀 :डी——————————————————————ई बार ऐसा लगता है कि फेसबुक पर या तो मैं गलत बात बोल रहा हूं या फिर गलत लोगों के बीच बोल रहा हूं। अगर मैं गलत बोल रहा हूं तो भी मुझे चुप हो जाना चाहिए। अगर गलत लोगों के बीच बोल रहा हूं तो भी मुझे चुप ही हो जाना चाहिए। दोनों ही स्थितियों में बोलना व्यर्थ है।
जो संघी ऊपर विपक्ष के ना होने पर जनता लावारिस हो जाती हे जैसी बाते कर रहा हे ये रवीश कुमार की हि महान उपलब्धि हुई रवीश ने ही ” वैचारिक मेनका ” बनकर इन ”संघी विश्वमित्रो की तपस्या ” भग कर डाली हे जिस संघी के ये विचार हे वो डायनासोर के ज़माने का संघी हे . इस महान उपलब्धि की कीमत यु समझिये दस करोड़ के करीब समझ लीजिये यानी रवीश चाहते तो आज उनके अकाउंट में मिनिमम मिनिमम बिलकुल सफ़ेद दस करोड़ एक्स्ट्रा हो सकते थे मगर उन्होंने दस करोड़ छोड़कर ये वैचारिक उपलब्धि हासिल की हे हलाकि रवीश किस्मत वाले भी थे की उन्हें सिर्फ पैसा ही खोना पड़ा और कुछ नहीं . हम जैसे छुटभय्यो को इसकी कीमत बहुत ज़्यादा चुकानी पड़ रही हे बहुत ज़्यादा .
Ravish Kumar
18 hrs ·
ख़राब हवा मगर बिजनेस चोखा- तीन सौ से लेकर सवा लाख तक के हैं एयर प्यूरिफ़ायर
हवा एक ही है। इसके ख़राब होने को लेकर नागरिक आंदोलन कर रहे हैं, चर्चा कर रहे हैं। रोष प्रकट कर रहे हैं। लोगों के मन में हवा को लेकर एक चेतना बन रही है। सरकार ऐसी चेतनाओं की परवाह नहीं करती। वो एक बार हिन्दू मुस्लिम ठेल देगी सारी चेतनाएं हवा हो जाएंगी। मगर बाज़ार इसका लाभ उठाना चाहता है। वो जान गया है कि दिल्ली के लोग तथाकथित रूप से जागरूक हो चुके हैं इसलिए उसे विकल्प दो। ग़रीब के लिए कुछ विकल्प बना दो मगर मध्यम से लेकर अमीर की जेब से विकल्प के नाम पर जितना हो सकते उतना निकाल लो।
नतीजा बाज़ार में भांति-भांति के एयर प्यूरिफ़ायर आ गए हैं। ख़राब हवा ने इन कंपनियों की हालत अच्छी कर दी है। लोग मजबूर एयर प्यूरिफ़ायर ख़रीद ले रहे हैं। दरअसल लोकतंत्र में उपभोक्ता एक मूर्ख प्रजाति होता है। उसे पता ही नहीं चला कि हवा साफ रखने की ज़िम्मेदारी भी सरकार ने बाज़ार के ज़रिए उसके सर रख दी है। कई परिवारों ने एयर प्यूरिफ़ायर पर लाख लाख रुपये तक ख़र्च किए हैं। नागरिक एक उपभोक्ता है। उसकी आदत ख़राब हो गई है। वह समाधान की तरफ से नहीं सामान की तरफ भागता है।
उपभोक्ता ख़ुद को बड़ा समझदार समझता है। जैसे टेक्नालजी तो मां के गर्भ से सीख कर आया है लेकिन असल में वो कई विकल्पों के बीच विकल्पहीन प्राणी होता है। मूर्ख भी होता है। मैं फ्लिपकार्ट की साइट पर गया। ख़रीदने के लिए नहीं, अध्ययन के लिए। दाम और ब्रांड देखकर चकरा गया कि इनमें से कौन सही है और किसके लिए सही है यही तय करने में ज़िंदगी बीत जाए।
फ्लिपकार्ट की साइट पर एयर फ्यूरिफ़ायर के आठ पेज हैं। हर पेज पर चालीस ब्रांड हैं, यानी कुल 320 मॉडल हुए। इनमें से कुछ डुप्लिकेट भी हो सकते हैं। मतलब मुमकिन है कि एक ही दाम वाला मॉडल दूसरे पेज पर भी दिख जाए फिर भी आप दामों की वेराइटी देखेंगे तो सर चकरा जाएगा। तय करना मुश्किल हो जाएगा कि 100 से 200 के अंतर पर किसी मशीन की गुणवत्ता में क्या फर्क आ जाता होगा? कहीं कहीं तो एक एक रुपये का फर्क है। 20,999 और 21000 में क्या अंतर आ सकता है? लिहाज़ा मैंने आपके लिए सुबह को दो तीन घंटा बर्बाद कर एक अध्ययन किया। कीमतों का एक बैंड बनाया और देखने की कोशिश की कि एक बैंड में कीमतों के कितने प्रकार हैं। आप देख लीजिए।
40 हज़ार से दो लाख तक के प्यूरिफायर के बैंड में 6 प्रकार की कीमतें हैं।
1,15,000, 94,990, 82,500, 43,500, 42,999, 42, 165,
30 से 40 हज़ार के बीच के बैंड में 6 प्रकार की क़ीमतें हैं।
38,900, 38,500, 36,995, 33,245, 32,999, 30,800
20 से 30 हज़ार के बीच के बैंड में 11 प्रकार की क़ीमतें हैं।
29,935, 29000, 28495, 27,800, 27,322 26,999, 25,249, 25,135, 22,950, 21,000, 20,999,
18 से 20 हज़ार के बैंड में 10 प्रकार की क़ीमतें हैं।
19,900, 19,500, 18,999, 18,990, 18,900, 18,450, 17,999, 17,799, 17,800, 17000
13 से 17 हज़ार के बीच 10 प्रकार की क़ीमतें हैं।
16,690, 16,145, 15,299, 15,199, 15,195, 14,699, 14,499, 14, 440, 13,990, 13,500
10 से 13 हज़ार के बीच 8 प्रकार की क़ीमतें हैं।
12,999, 12, 345, 11,960, 11,490, 11,295, 10,999, 10,900 ,10,399
6 से 10 हज़ार के बीच 14 प्रकार की क़ीमतें हैं।
9999, ,9,950, 9869, 9,700, 9500, 9,400, 9,299, 9,049 8,999, 8799, 7,919, 7,499, 6,499, 6000,
300 से 6000 के बीच 9 प्रकार के मॉडल हैं
5499, 4599, 3850, 3060, 2,999, 2100,1,899,879, 369
तो हवा को लेकर आप देख रहे हैं कि असल में कौन बीमार हैं। सिस्टम और आप मिलकर पहले हवा को ख़राब कर चुके हैं। अब सिस्टम ने आपको अकेला छोड़ दिया है। बहुत लोग इस उम्मीद में संघर्ष कर रहे हैं कि मीडिया दिखा दे। दिखा देने से क्या हो जाता है?
हमने 20 एपिसोड यूनिवर्सिटी पर किए क्या हो गया? किसी को कहता हूं तो जवाब आता है कि आप हार मान गए ? निराश होने से कैसे काम चलेगा? जबकि मैं तथ्य बता रहा होता हूं, उसे निराशा और आशा दिखाई पड़ रही होती है। हम और आप सभी को एक फ्रेम में बंद कर दिया गया है। उसी फ्रेम में फंसे कुछ शब्द के सहारे हम दुनिया को समझने लगे हैं और व्यक्त करने लगे हैं। लोग इससे आगे नहीं समझ पाएंगे। जो सही है वही तो कह रहा हूं कि कुछ असर नहीं हुआ। इसमें हारने वाली बात कहां से आ गई।
कोई मंत्री क्या कर लेगा। ज़्यादा से ज़्यादा पीला कुर्ता पहनकर आएगा और दांत चियार कर कुछ बोल देगा कि हम देखेंगे, कुछ कर रहे हैं, क्या हम और आप नहीं जानते कि ऐसे बयानों का कोई मतलब नहीं होता है। जो लोग संघर्ष कर रहे होते हैं उन्हें किसी कमेटी में घुसाकर उसका गेट बंद कर देगा।
दिल्ली में प्रदूषण के प्रति उपभोक्ता किस्म की जागरूकता वाला समूह बन गया है। इनकी नीयत तो अच्छी है। इसी बहाने वे अपनी मर्सिडिज़ से उतर कर सिस्टम के सामने चिल्ला तो रहे हैं। समझ तो आ रहा है कि उनके लिए भी सिस्टम वैसा ही है जैसा बस्ती वालों के लिए है। अब कोई नहीं सुन रहा होता तो मर्सिडिज़ ग्रुप के लोग बस्ती से लोगों को पकड़ लाते हैं। उनकी बात करने लगते हैं। क्या कभी आपने किसी बस्ती वालों को देखा है अपनी लड़ाई के लिए ग्रेटर कैलाश या वसंत विहार जैसी जगहों से अमीरों को बुला कर लाते हों? बुलाने जायें तो कोई आएगा? हम सब अपनी अपनी लड़ाई में अकेले और खोखले हो चुके हैं।
प्रदूषण के प्रति जागरुकता के नाम पर ये लड़ाई टीवी पर शाम बिताने का मौका खोजने में ही समाप्त हो जाती है। टीवी पर आकर उसे लगता है कि अभी तक ‘गिव अप’ नहीं किया है। जबकि उसे अच्छी तरह पता है कि वोट वो हिन्दू मुस्लिम और जात धरम पर ही देगा। ताज महल और बिरयानी से ही प्रभावित होकर देगा। हकीकत यह है कि दिल्ली के अख़बार कई दिनों से फुल पेज कवरेज़ दे रहे हैं। ख़ासकर अंग्रेज़ी वाले। टीवी पर भी डिबेट हो चुका है। डिबेट हो जाना भी आजकल जागरूकता का एक नया बेंचमार्क है। मूर्खता का ऐसा गौरवगान हमने कभी नहीं देखा। इसीलिए कोई असर नहीं। अंत में आपको एयर प्यूरिफ़ायर तो ख़रीदना ही होगा या फिर डाक्टर के यहां चले जाइये।
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वेस्ट का तो पता नहीं फिर वहाँ नौकरी चली भी जाए तो रोटी कपडा मकान का तो जुगाड़ हे ही जबकि यहाँ रोटी कपडा मकान की ही समस्या का दूर दूर तक हल नहीं हुआ हे दूसरी बात उपमहाद्वीप की अरबो की आबादी में भी अभी भी हिन्दू मुस्लिम कठमुल्लाओ का और बहुत से लोगो का लोगो पर बहुत दबाव रहता हे की जल्द से जल्द शादी करो और बच्चे दिखाओ वरना लानत हे तो टोटल जो हालात हे ऐसे में तो जो होने की चर्चा हे उसके बारे में सोच कर भि पसीना आता हे Ravish Kumar is with Anshuman Sengupta.
Yesterday at 12:15 ·
रोबोट करेंगे काम, आदमी करेगा आराम ही आराम
“हमें लोगों को काम देने का तरीका खोजना होगा या लोगों को टाइम पास करने का तरीका खोज लेना होगा।”
ड्यूश बैंक के सीईओ क्रेन के इस बयान पर हंसी आ सकती है। उनका अपना ही बैंक 2 साल में 4000 नौकरियां कम कर चुका है और आने वाले समय में बैंक के 97000 कर्मचारियों में से आधे समाप्त हो जाएंगे। उनकी जगह रोबोट आ जाएगा।
सर पर डेढ़ लाख बालों के पीस होते हैं। इन्हें काटना, सजाना और तराशना रोबोट के बस की बात नहीं है। उसी तरह ब्यूटिशियन, नर्स की नौकरी अभी रोबोट नहीं खा सकेगा मगर रिटेल सेक्टर से लेकर फूड सेक्टर तक में रोबोट तेज़ी से नौकरियां खा रहा है। ऑटोमेशन के ज़रिए 800 प्रकार के काम होने लगे हैं। हाई स्कूल की डिग्री वाले काम समाप्त हो जाएंगे। मॉल में कैश काउंटर पर, एयरपोर्ट पर टिकट काउंटर और टोल प्लाज़ा जैसी जगहों पर काम रोबोट करेगा। एक रोबोट 3 से 6 लोगों की नौकरी खा जाता है।
15 सिंतबर के सीएनएन टेक पर एक रिपोर्ट है। 75 लाख नौकरियां रोबोट के कारण जाने वाली हैं। 2024 तक फास्ट फूड सेक्टर ने 80,000 नौकरियां चली जाएंगी। मैकडॉनल्ड में कर्मचारियों की संख्या आधी रह जाएगी।
रिसर्च के दौरान पता चला कि अमरीका में राष्ट्रीय स्तर पर न्यूनतम मज़दूरी की दर दस साल से नहीं बढ़ी है। राज्यों में बढ़ी है जिससे तंग आकर कंपनियां रोबोट लगा रही हैं।
बिल गेट्स ने कहा है कि इससे सरकार के राजस्व पर फर्क पड़ेगा। रोबोट पर टैक्स लगाना चाहिए। इंटरनेशनल फेडरेशन आफ रोबोट के अनुसार अमरीका में 15 लाख रोबोट हैं। 2025 तक 30 लाख हो जाएंगे।
आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की एक प्राइवेट कंपनी pearson है उसकी रिपोर्ट के अनुसार अगले 2030 साल में अमरीका में 47 फीसदी नौकरियां चली जाएंगी।
लोगों का कहना है कि पहले भी इस तरह के तकनीकि बदलाव के समय नौकरियों के ख़त्म होने की आशंका की बात होती रही है, मगर इस बार का हाल पहले जैसा नहीं है। कुलमिलाकर अभी किसी को पता नहीं है कि क्या होगा।
इस बीच भारत में टेलिकॉम सेक्टर में एक साल में 75,000 लोगों की नौकरी चली गई है। इन 75,000 लोगों को किन नए क्षेत्रों में काम मिला है, यह जानने का हमारे पास कोई ज़रिया नहीं है। नवभारत टाइम्स में रिपोर्ट छपी है। टेलिकाम सेक्टर ही चरमरा गया है। इसलिए उम्मीद कम है कि इन्हें इस सेक्टर में काम भी मिलेगा।
आज के बिजनेस स्टैंडर्ड में ख़बर है कि प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेज में आई टी सेक्टर की कंपनियां कम जा रही हैं। शुरूआती लेवल पर पहले इंजीनियर को तीन से सवा चार लाख सालाना मिल रहा था। आज कल डेढ़ से दो लाख मिल रहा है।
AICTE ने तय किया है कि अगले सत्र में 800 इंजनीयरिंग कालेजों को बंद कर देगी क्योंकि इस साल 27 लाख सीटें ख़ाली रह गईं हैं। 2017-18 के सत्र से 65 इंजीनियरिंग कालेजों को बंद करने की मंज़ूरी दे दी गई है। कालेज एक बार में बंद नहीं किये जाते हैं। इन्हें प्रोगेसिव क्लोज़र कहते हैं। 2014-15 में 77, 2015-16 में 125, 2016-17 में 149 कालेज बंद होने लगे। भारत में 10,361 इंजीनियरिंग कालेज है। 10 लाख सीटें ही बर पाती हैं। 37 लाख सीट हैं। मुमकिन है इंजीनियरिंग कालेज की दुनिया तेज़ी से बदल रही होगी। बदलना तो होगा ही।
4 नवंबर के हिन्दुस्तान टाइम्स मे नीलम पांडे ने लिखा है कि एम बी ए की पढ़ाई पूरी कर निकलने वाले छात्रों को नौकरी नहीं मिल रही है। उनके नौकरी मिलने की दर पांच साल में निम्नतर स्तर पर है। कारण अर्थव्यवस्था में धीमापन। निर्यात का घटना।
2016-17 में मात्र 47 फीसदी एम बी ए को नौकरी मिली है। 2015-17 की तुलना में 4 प्रतिशत की कमी आई है। इसके अलावा बाकी सब पोज़िटिव है।
Vineet Kumar
16 hrs ·
सुधीर चौधरी साहब, जिस बात पर आपको तकलीफ हुई, वो काम आप और आपका चैनल हर दूसरे दिन करता है :
देश के प्रथम सेल्फी टीवी संपादक का दर्द उफान पर है. ये दर्द एक ट्वीट की शक्ल में इस तरह उभरा है कि पढ़नेवाला सामान्य पाठक भी समझ जाएगा कि प्रथम सेल्फी संपादक होने का जो दर्जा उन्हें अब तक हासिल था, उस पर रजत शर्मा और अर्णव गोस्वामी ने मिट्टी मलने का काम किया है. उन दोनों को संजय लीला भंसाली ने पद्मावती पहिले दिखा दी और अब दोनों वैलिडिटी पीरियड राष्ट्रभक्त की भूमिका में मामले को सेटल करने में जी-जान से जुटे हैं. सुधीर चौधरी सेल्फी सर्टिफिकेट के बावजूद राष्ट्रभक्त होते-होते रह गए. भंसाली ने साबित कर दिया कि भई यदि हमें राष्ट्रभक्त संपादक ही चुनना होगा और भी सरकारी अनुवाद फार्म यानी अंग्रेजी-हिन्दी दोनों में तो आपको क्यों, रजत-अर्णव को क्यों नहीं ?
अब देखिए कि सुधीर चौधरी की व्यक्तिगत पीड़ा और खुंदक कैसे महान सिद्धांत की शक्ल में हमारे सामने आयी है. दर्शन ये प्रस्तावित कर रहे हैं कि आप सेंसर बोर्ड से पहले संपादक को फिल्म कैसे दिखा सकते हैं ? शुद्ध रूप से नीतिपरक बातें. अच्छा लगता है ये जानकार कि उनके भीतर नैतिकता के पाठ बचे हुए हैं. लेकिन
कोई पलटकर उनसे पूछे कि साहब, आप कोर्ट का फैसला आने से पहले किसी को देशद्रोही, किसी संस्थान को राष्ट्रविरोधियों का अड्डा बताते हो, उस वक्त नैतिकता कहां चली जाती है, आपका संपादकीय विवेक कहां चला जाता है ? यहां आपकी इगो हर्ट हुई और आपको एहसास कराया गया कि आपका कद छोटा है तो आपने ट्वीट कर दिया लेकिन यही काम जब आप करते हो और जिससे कईयों की जिंदगी तबाह हो जाती है, उस वक्त जमीर कभी सवाल नहीं करता कि खबर के नाम पर किसी की जिंदगी से खेलने का हक आपको किसने दे दिया ?
सुधीर चौधरी साहब…आज जो सवाल उठा रहे हैं, मैं उसे सौ फीसदी सही मानता हूं. इस तरह से सांस्थानिक ढांचे को लांघकर किसी को भी लूप लाइन नहीं बनानी चाहिए. लेकिन सच तो ये है कि आज आप अपने ही सवालों के बीच एक गुनाहगार की शक्ल में खड़े नजर आ रहे हो.Vineet Kumar——————————————–Ravish Kumar
Yesterday at 08:13 ·
मैं एक फ़िल्म बनाने जा रहा हूं। इस फ़िल्म में केवल विलेन होंगे। वही लोग विलेन होंगे जो अभी तक किसी न किसी प्रदेश में किसी फिल्म का प्रदर्शन टलवा सके हैं। पोस्टर जलवा सके हैं। डायरेक्टर को कोर्ट में टहलवा सके हैं। इन संगठनों और व्यक्तियों से अनुरोध हैं कि फिल्म बनने से पहले ही आकर मेरी फिल्म का विरोध कर दें। मैं उसका भी वीडियो बनाकर अपनी फिल्म में डालूंगा। कहानी इसी शॉट से शुरू होगी कि मेरी फ़िल्म का विरोध हो रहा है।
मेरी फिल्म का पोस्टर अभी नहीं बना है, इसलिए रास्ते से कोई भी पोस्टर उखाड़ लाएं और मेरे सामने फाड़ डालें। तोड़फोड़ के लिए दफ़्तर के बाहर गमले रखवा दिया हूं। बेझिझक तोड़ डालें। आप अच्छा काम कर रहे हैं। मैं ध्यान भटकाने वालों की रक्षा में हर वक्त आगे रहूंगा बस आप मेरी सुरक्षा का ध्यान रख लेना। मेरी नाक न काटें। चाहें तो प्लास्टिक सर्जन लेकर आएं, थोड़ी सर्जरी कराकर ठीक कर दें।
सेंसर बोर्ड का विस्तार होना चाहिए। इसका नाम समाज बोर्ड होना चाहिए। इसमें हर जाति समाज के संगठन के मुखिया होने चाहिए। राजपूत समाज, ब्राह्मण समाज, अंबेडकर समाज, सुन्नी समाज, शिया समाज, गोंड समाज, कश्यप समाज, कायस्थ समाज। सेंसर बोर्ड के मुखिया यही सारे समाज मिलकर तय करेंगे। समाज बोर्ड में फ़ैसला बहुमत से होगा।—————————Mukesh Aseem
23 hrs ·
अनिल अम्बानी दिल्ली एयरपोर्ट मेट्रो नहीं चला पाया
मोबाइल कंपनी 45 हजार करोड़ के कर्ज दबाकर बंद होने के कगार पर है
डीटीएच का कारोबार भी ठप्प हो गया
जहां उसकी कंपनी बिजली सप्लाई करती है, लोग परेशान हैं
उसकी परेशानी देखकर मोदी जी ने तीन गुना कीमत पर राफेल ख़रीद का सौदा दिलवा दिया
बेचारे गरीब की मदद तो बनती थी, उसमें कैसा भ्रष्टाचार!Mukesh Aseem
17 November at 21:01 ·
प्यू और मूडीज की असलियत बताने वाली पोस्टों के बाद भी कई बार कही इस बात को दोहराना जरुरी है कि अर्थव्यवस्था की स्थिति शासक पूंजीपति वर्ग और शासित मेहनतकशों के लिए कतई विपरीत है| जहां मेहनतकश लोग बेकारी, मजदूरी-आमदनी में कमी, बढ़ते टैक्स, महंगाई, कुपोषण, शिक्षा-चिकित्सा का अभाव, आदि बदहाली झेल रहे हैं वहीं बड़े देशी-विदेशी पूंजीपति मोदी सरकार की नीतियों – श्रमिक अधिकारों में कटौती, सार्वजनिक संपत्ति औने-पौने दामों या मुफ़्त ही सरमायेदारों के हवाले करने, कर्ज माफ़ी, सस्ते ब्याज, प्रत्यक्ष करों में कमी, तरह-तरह के सरकारी बेलआउट पैकेज, नोटबंदी, जीएसटी, आदि से लाभान्वित हो रहे हैं|
अब मूडीज या एस एंड पी किसके लिए रेटिंग करते हैं? मेहनतकशों के लिए या दुनिया भर के सरमायेदार निवेशकों के लिए?
फिर वे रेटिंग में सुधार क्यों न करें? दुनियाभर में अधिकांश दौलत हथियाये इन निवेशकों के लिए तो मोदी सरकार पलक-पांवड़े बिछाकर बैठी ही है, उनके मुनाफे के लिए मेहनतकशों पर नग्न, क्रूर लूट का हर कदम उठा रही है, उसके खिलाफ उठने वाली हर आवाज को कुचलने में लगी है| फिर इन सरमायेदारों की एजेंसी उसे अच्छी रेटिंग क्यों न दे?
मेहनतकशों को अपने हित की बात चाहिए तो अपनी एजेंसी, अपने वर्ग की मजबूत पार्टी बनानी होगी|—————————Pankaj K. Choudhary
Yesterday at 09:59 ·
सुलू के साथ सबसे अच्छी बात ये है कि सुलू किसी कवि की कल्पना जैसी नहीं दिखती, किसी डिज़ाइनर फेमिनिस्ट की सोच जैसी नहीं दिखती, मैंने फिल्म नहीं देखी है मगर शायद सुलू के कैन डू का ये मतलब भी नहीं है कि मैं भी घटिया कविता लिख सकती हूँ…सुलू वेस्ट का डस्टबिन जैसी भी नहीं लगती और न ही दीपिका पादुकोण की तरह किसी घटिया डायरेक्टर द्वारा तराशी गई प्रतिमा की तरह दिखती है, हमारी सुलू रियल दिखती है….
अब सवाल ये है कि मैं सिनेमा हॉल में जाकर फिल्म क्यों नहीं देख लेता हूँ, डाउनलोड क्यों करना चाहता हूँ अपनी सुलू को?
जवाब ये है कि सिनेमा हॉल अब रह कहाँ गया है…मल्टीप्लेक्स है और मल्टीप्लेक्स ने असली सिनेमा प्रेमियों को अपने से बहुत दूर कर दिया है….सवाल सिर्फ टिकट की कीमत का नहीं है, सवाल माहौल का भी है…जैसे ट्वेंटी20 और वन डे देखने वाली भीड़ क्रिकेट प्रेमी नहीं होती, वैसे ही मल्टीप्लेक्स जाने वाले लोग सिनेमा के प्रेमी भी नहीं होते….किताब खरीदकर सोशल मीडिया पर पोस्ट करने वाले, किताब के साथ सेल्फी लेने वाले लोग भी असली किताब प्रेमी नहीं होते….असली किताब प्रेमी तो नई सड़क जाकर सेकंड हैंड और पायरेटेड किताब खरीदा करते थे…
सवाल सिर्फ टिकट की कीमत का भी नहीं है….यदि फाइव स्टार होटल में कॉफी की कीमत 500 रुपये से कम करके 50 रुपये कर दिया जाय तो कितने आम आदमी, मजदूर, किसान, मेहनतकश लोग, फाइव स्टार होटल जाकर कॉफ़ी पीने का शौक पूरा कर पाएंगे…..इंडिया इंटरनेशनल सेण्टर और इंडिया हैबिटेट सेण्टर में किसानों, मजदूरों, गांव की समस्याओं पर होने वाले सेमीनार में कितने किसान और मजदूर शामिल होने का साहस कर पाएंग्गे, जबकि वहां जाना फ्री है….मल्टीप्लेक्स का भी वही चरित्र है, इसलिए मैं मल्टीप्लेक्स नहीं जाता…
दूसरी बात ये है कि जैसे मोदी जी का एक बैकग्राउंड है, गुजरात दंगा का, अमित शाह का एक बैकग्राउंड है, तरीपार का, मेनका गांधी का एक बैकग्राउंड है, इमरजेंसी का, वैसे ही मेरा भी एक बैकग्राउंड है, गांव और कस्बाई बैकग्राउंड…आदत है ऐसे सिनेमा हॉल में सिनेमा देखने की जहाँ खटमल काटता हो, बिजली चली जाने और जेनेरेटर ऑन होने के बीच की अवधि में लोग शोर मचाते हों, हो वो आदमी मल्टीप्लेक्स में कैसे सिनेमा देख सकता है?
Vikram Singh Chauhan
Yesterday at 22:11 ·
रवीश कुमार अब डिबेट में चार लोगों को बिठाकर अपना माथा खराब करने की जगह बड़े मुद्दों पर एक बड़ी बहस या सीरीज चला रहे हैं। देश में पहली बार कोई व्यवसायिक चैनल देश के मूलभूत समस्याओं और मुद्दों को लेकर ये जोखिम लिया है। यूनिवर्सिटी सीरीज के 20 से ऊपर एपिसोड बने ,अगर कोई सजग सरकार रहती तो इस रपट के आधार पर उच्च शिक्षा का कायाकल्प कर देती,लेकिन यहां तो सिर्फ विवेकानंद फाउंडेशन के लोगों की राय ही सुनी जा रही है।दो दिन से रवीश कुमार किसानों के मुद्दे को लेकर फिर आ गए हैं।न्यूज़ चैनलों के लिए किसान सबसे बोरिंग टॉपिक है,जब तक थोक में आत्महत्या न करे ये किसान, इनको न्यूज़ चैनलों के नीचे की पट्टी भी नहीं मिलती।पर ये आदमी रवीश कुमार एक अलग ही मिट्टी का बना है।इनको बगदादी, हनीप्रीत और पद्मावती जैसे टीआरपी बढ़ाऊ न्यूज़ चलाना नहीं आता। जब देखों तब किसान आत्महत्या, प्रदर्शन जैसे मुद्दे पर एक घंटा जाया करते हैं।ये भी कोई न्यूज़ है सरकार!Vikram Singh Chauhan
2 hrs ·
मोदी बचपने में चाय बेचते थे ये बात दुनिया को खुद मोदी ने बताया। उन्होंने चुनावों में खुद को गरीब परिवार का बताया और चाय बेचने को कभी मजबूरी तो कभी गर्व बताया। विश्व के अखबारों ने भी उनकी जीत के बाद लिखा कि भारत का लोकतंत्र इतना महान है कि एक चायवाला भी प्रधानमंत्री बन सकता है। मोदी ने खुद कई बार कहा कि चाय बेचने वाले खुद पर शर्म महसूस न करे।फिर आज अचानक क्या हो गया है कि चायवाले कहलाने से उनको शर्म महसूस हो रही है। क्या प्रधानमंत्री पद मिलने के बाद उनको शर्म महसूस हो रही है कि वे कभी चाय बेचते थे। मोदी ने तो चुनावी भाषण में माँ के दूसरे के घरों में बर्तन मांजने की बात भी कही है। इस आदमी ने सबका इस्तेमाल किया है सिर्फ चुनाव जीतने के लिए।आज उससे मुँह चुरा रहा है। इसलिए क्योंकि ये झूठ है। इसने न कभी चाय बेचा है और न इनकी माँ ने किसी के घर में बर्तन मांजी है। इसने झूठ बोलकर देश के लोगों को छला है। और अगर नहीं छला है तो खुद को अब चायवाला कहने पर एतराज क्यों।Vikram Singh Chauhan
1 hr ·
तीन तलाक़ का जिन्न फिर से बाहर आ गया है। मोदी मुस्लिम बहनों की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं। इतनी चिंता कि जब तक मुस्लिम बहनों को उनका हक़ नहीं दिलाएंगे अन्न पानी ग्रहण नहीं करेंगे। हम भी चाहते हैं पीड़ित बहनों को हक़ मिले।पर हम ये भी चाहते हैं उन मुस्लिम बहनों की भी चिंता की जाए जिनके पति,पिता गाय के नाम पर मारे गए हैं।उन मुस्लिम बहनों की भी चिंता की जाए जिनके पति ,भाई आतंक के फर्जी आरोप में जेलों में बंद है। उन बहनों की भी चिंता की जाए जिनके परिवार को डराया धमकाया जा रहा है।पर नहीं ।साहब बस तीन तलाक़ को पकड़ लिया है। साहब किसी मुस्लिम महिला को कोई न्याय व्याय दिलवाने वाले नहीं है,वे तो बस इसलिए इस मुद्दे को उठा रहे हैं क्योंकि उन्हें फिर से मुस्लिमों को नीचा दिखाना है।अरे जो खुद की बीवी को न्याय नहीं दिलवा पाया वो दुसरो की बीवी को क्या न्याय दिलवाएगा ?मुस्लिम बहनों को अपनी लड़ाई खुद लड़ना होगा। मुस्लिम बहनें अपने कंधों पर बंदूक चलाने वालों को मुंहतोड़ जवाब दे। पता नहीं कौन मुस्लिम पुरुष अपनी बीवी को तीन तलाक देता है।मुझे तो बस टीवी में एक या दो चेहरे दिखते हैं। इसके बावजूद मैं चाहता हूं इन एक या दो बहनों को न्याय मिले और जो व्हाटसअप आदि से तलाक देता है उसकी मुस्लिम लोग ही जमकर मरम्मत करे। देश में आज भी मुस्लिम परिवारों के लिए रोजी रोटी बड़ा मुद्दा है बजाय तीन तलाक़ के। उन्हें खाना दीजिये, उन्हें जीने दीजिये।Vikram Singh Chauhan
Yesterday at 19:55 ·
एक फ़िल्म देखी थी ‘गब्बर इज़ बैक’। फ़िल्म में एक हॉस्पिटल मुर्दे को भी एडमिट कर लेता है और उसका इलाज कर लास्ट में उसको फिर से मृत बताकर उसके परिवार को लाखों का बिल थमा देता है। ये फ़िल्म था लेकिन आप एक दिन 24 घंटे किसी बड़े निजी हॉस्पिटल में बैठ जाएंगे तो इलाज के पैसे के लिए रोते, दौड़ते भागते आपको कई परिवार मिल जाएंगे।सब चाहते है उनका घर का सदस्य हॉस्पिटल से जीवित घर जाये।कई डॉक्टर वाकई ईमानदार प्रयास करते हैं।पर आज गुड़गांव के फोर्टिस हॉस्पिटल से डेंगू की सात साल की बच्ची के पिता को थमाया गया 18 लाख के बिल की खबर सुन दिल पसीज गया। एक तो बच्ची की मौत हो गई फिर भी हॉस्पिटल वालों का दिल नहीं पिघला।बिल में बताया गया है कि 2700 दस्ताने और 660 सिरिंज का भी प्रयोग किया गया है। क्या यह संभव है? बच्ची के पिता को शक है कि उनकी बच्ची शायद आईसीयू में ही मर चुकी थी लेकिन उनसे छिपाया गया। और बड़ा बिल बनाने के लिए ये खेल खेला गया । यह हमारे देश के हॉस्पिटलों का एक घिनौना चेहरा है और में दावे के साथ कह सकता हूँ हर शहर में ऐसे एक या दो हॉस्पिटल है। इस हॉस्पिटल के खिलाफ बड़ी जांच बैठनी चाहिये और सरकार को एक नियामक या स्वतंत्र एजेंसी बिठानी चाहिये जो निजी अस्पतालों पर नज़र रखे और केंद्र को रिपोर्ट दे। इस परिवार के प्रति मेरी गहरी संवेदना।
https://www.youtube.com/watch?v=lVq0s2JUbU8&feature=youtu.be
Ravish Kumar
17 hrs ·
प्रेस क्लब के चुनाव से प्रधानमंत्री दूर क्यों हैं…
मुझे तो हैरानी हो रही है कि शनिवार को दिल्ली प्रेस क्लब के चुनाव के लिए अभी तक बीजेपी का कोई मंत्री या मुख्यमंत्री प्रचार करने क्यों नहीं पहुंचा है? कम से कम प्रधानमंत्री को तो एक रोड शो करना ही चाहिए। जब तक पीएम का रोड शो न हो तब तक प्रेस क्लब का चुनाव ही न हो। मन की बात भी करें, जिसे हर न्यूज़ चैनल के दफ्तर के बाहर बजाया जाए और वहां केंद्र के मंत्री खड़े होकर पत्रकारों को सुनवाएं। प्रेस क्लब वाले भी गुजरात गए पत्रकारों को फोन कर रहे हैं कि लौट आओ और हमें वोट दो।
चुनाव लड़ना कोई बीजेपी से सीखे। जल्दी ही बीजेपी के मुख्यमंत्री, मंत्री और केंद्रीय मंत्री अधिवक्ता और शिक्षक संघों के चुनाव में भी प्रचार करने पहुंच जाएंगे। डर के मारे कोई नहीं बताएगा कि उसके यहां चुनाव है, क्या पता बीजेपी का कोई मंत्री आ जाए। बीजेपी को अपने इन मंत्रियों को एक चुनाव किट देना चाहिए जिसमें कैमरा हो, माइक हो, लाउड स स्पीकर हो, फेसबुक लाइव के लिए जीओ का सिम हो। अगर बीजेपी के नेताओं और मंत्रियों को भारत में रखना है तो ज़रूरी है कि भारत में चुनाव होते रहें, वर्ना ये लोग अगली फ्लाईट से रूस और बेला रूस के चुनावों में रैली करने पहुंच जाएंगे।
हंसी तो ख़ूब आती है मगर बीजेपी के चुनाव लड़ने के जज़्बे की दाद देनी होगी। बीजेपी में चुनाव के वक्त कोई ख़ाली नहीं रहता बल्कि जो ख़ाली रहता है वो भी चुनाव में रहता है। लोग हैरत में हैं कि गुजरात में केंद्र के 40-50 मंत्री प्रचार के लिए जा रहे हैं। भाई, जब प्रधानमंत्री ही दिल्ली में नहीं रहेंगे तो उनके मंत्री दिल्ली में रहकर क्या करेंगे। जब प्रिंसिपल ही स्कूल में नहीं हैं तो उस दिन टीचर छुट्टी तो कर ही लेंगे। प्रधानमंत्री भी अपने स्मार्ट हैं। उन्हें पता है कि विभाग तो मैनेज होता नहीं, बूथ तो मैनेज करें।
सुनने में आ रहा है कि प्रधानमंत्री 30-35 रैलियां करने वाले हैं। उनकी क्षमता से यह कम है। देश के काम में व्यस्त न होते तो अकेले सभी विधानसभा में 182 रैलियां कर देतें। वैसे वे पिछले कई महीने से गुजरात जा रहे हैं। मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री की रैलियों का डिटेल मिल रहा है मगर अमित शाह कितनी रैलियां करेंगे, इसका डिटेल नहीं मिल रहा है। क्या वे भी पचास साठ रैलियां करेंगे या ज़्यादातर अहमदाबाद में ही रहेंगे ? अगर किसी को अपने राज्य के मंत्री से कोई काम है तो वह तुरंत गुजरात चला जाए, पता करे कि किस गली में उसके स्वास्थ्य मंत्री की घरयात्रा हो रही है, आप दरवाज़ा खोलिए और आवेदन पकड़ा दें। सर आप पटना में मिल नहीं रहे थे सोचे कि पाटन में तो पकड़ाइये जाएंगे।
बीजेपी चुनाव गंभीरता से लड़ती है इसके लिए उसके तमाम मंत्री गंभीर कामों को छोड़ चुनाव में व्यस्त हो जाते हैं। राज्यों के शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे विभागों के मंत्री भी हफ्तों से चुनाव वाले राज्य में प्रभारी बना कर भेज दिए जाते हैं। केंद्र के राज्य मंत्री चुनाव वाले राज्य में ज़िला- ज़िला, कस्बा-कस्बा घूम रहे होते हैं। इसके अलावा पार्टी के तमाम संगठनों के प्रभारी, संघ के कार्यकर्ता ये सब तो खुदरा-खुदरी टाइप से घूमते नज़र आते हैं।
गुजरात में भाजपा चार बार से सरकार में है। वहां बीजेपी के स्थानीय कार्यकर्ता और नेताओं का अपना जाल तो होगा ही। इन लोगों के पास क्या काम बचता होगा? ये लोग गुजरात से बाहर के नेताओं और मंत्रियों की कार के आगे अपनी कार लेकर चलते होंगे ताकि सही जगह पहुंचाया जा सके। ऐसा न हो जाए कि गुजरात बीजेपी के कार्यकर्ता दूसरे राज्य में घूमने चले जाएं।
बूथ स्तर से लेकर मकान स्तर पर बीजेपी के नेताओं, मंत्रियों को आते जाते देखकर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के मनोबल पर क्या असर पड़ता होगा? वे भी बीजेपी का ही प्रचार करने लग जाते होंगे । दाद देनी होगी कि इस भीड़ में कांग्रेस का कोई कार्यकर्ता जीत के प्रति आश्वस्त न होते हुए भी गलियों में घूमता होगा। यही दिन कभी भाजपा ने देखा होगा जब कांग्रेस का ऐसा ही दबदबा होता होगा।
गुजरात में बीजेपी की जीत पर कोई भी शक नहीं करता है। जो करता भी है तो बोलता नहीं। वो एक ऐसा राज्य है जहां सूरज भले उगे न उगे, बीजेपी ज़रूर जीतती रहेगी। वहाँ प्रधानमंत्री को मन की बात करनी पड़ रही है। उसे हर बूथ पर सुनाने के लिए पार्टी के कार्यकर्ता, नेता,उम्मीदवार, केंद्रीय मंत्री, दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्री, सांसद और विधायकों को उतारा जा रहा है ताकि वे देखें कि लोग मन की बात सुन रहे हैं। मन की बात को एक ग़ैर राजनीतिक स्पेस के रूप में स्थापित किया जा रहा था अब उसका इस्तमाल वोट दो टाइप कार्यक्रम में होने लगा है।
मीडिया रिपोर्ट पढ़कर एक ख़्याल मन में गुदगुदाता है। प्रति मतदाता प्रति नेता की पहुंच के मामले में बीजेपी अव्वल है। वोटर भी बीजेपी के नेता को देखते ही कहने लगता होगा कि ठीक है , ठीक है, आने की ज़रूरत नहीं, हम वोट दे देंगे। चुनाव बाद किसी को रिसर्च करना चाहिए कि किस मतदाता ने इन नेताओं या मंत्रियों से मुलाकात के बाद भी बीजेपी को वोट नहीं किया, क्यों नहीं किया और किसने दिया, क्या कोई ऐसा वोटर भी था जो मंत्री को अपनी गली में देखकर वोट दे आया।
सीबीआई जज की मौत पर आई टी सेल चुप हो गया था। कम से कम इस लेख ने उन्हें बाहर आने का मौका दिया। आप उनके पेज पर जाकर देख सकते हैं कि सीबीआई के जज की मौत पर वे क्या सवाल उठा रहे हैं Ravish Kumar
23 November at 14:30 ·
आप जानते तो हैं जज को किसने मारा !
जीवन में डर को जगह मत दीजिए। वरना एक दिन डर आपको जीने की जगह नहीं देगा। हैरान हूँ कि मामूली बयानों को लेकर लिखने न बोलने के लिए ललकारने वाले भी नहीं आए। एक रिपोर्टर ने इस स्टोरी के लिए नौकरी छोड़ दी । हर तरफ भटकता रहा कि कोई इसे छाप दे। कई महीने इसी में गुज़र गए। वरना ये स्टोरी बहुत पहले सामने हो सकती थी। अभी क्यों टाइप के सवाल पूछने वाले कुछ मूर्खों को यही सवाल नज़र आता है कि अभी क्यों। अभी क्यों नेहरू,अभी क्यों पटेल। इसका क्या जवाब दिया जाए। निरंजन टाकले को इस स्टोरी ने कितना डराया होगा मगर वे अपने डर को जीत गए। आप भी अपने डर को जीत लीजिए। सबके सामने डर लगता है तो बाथरूम का दरवाज़ा बंद कीजिए और एक घंटे तक चीख़ते रहिए। आप डर से निकल आएँगे। फ्लश कर दीजिएगा।
इस स्टोरी की डिटेल ने सिहरन पैदा की है। पाठकों में से आप कौन हैं मालूम नहीं पर आप जिस भी तरफ हैं, इस स्टोरी से बाहर नहीं हैं। आप या आपका भी कोई सीबीआई के स्पेशल जज की नियति प्राप्त कर सकता है। मार दिया जा सकता है। आज भले लगता होगा कि आप बहुत समर्थकों से घिरे हैं और सुरक्षित हैं। याद रखिएगा। असहमति या साहस का एक कदम आपको जज की तरह अकेला कर देगा। वही समर्थक जो डरना सीख गए हैं, चुप रहना सीख गए हैं, आपको लेकर चुप हो जाएँगे। आप तभी तक उस झुंड के लायक हैं जब तक आप उस झुंड के सरगना से डरते हैं। डरा हुआ आदमी मरा हुआ आदमी होता है। अपने भीतर किसके लिए इस लाश को ढो रहे हैं। सोचिए एक बार। कहाँ तक चुप रहेंगे और कब तक। जज वकील सब डर रहे हैं।
जो लोग मुझे ललकारना भूल गए, उनके लिए अपने शो का लिंक दे रहा हूं ताकि वे इसे लाखों तक पहुँचा कर डर से मुक्ति की इस यात्रा में शामिल हो सकें।
कारवाँ ने हिन्दी में भी अपनी स्टोरी छाप दी है। मीडिया विजील, जनचौक और वायर ने भी हिन्दी में छापा है।
See Translation
Ravish Kumar
19 hrs ·
मिलिए भारत के पहले हॉर्न भाषा विशेषज्ञ से-
न्यूयार्क गया था। जब तक पुलिस की कार सायरन बजाते हुए दिख जाती थी। होटल के कमरे की खिड़की से देख रहा था कि कभी इस रास्ते से तो कभी उस रास्ते कोई पुलिस कार सायरन बजाते हुए चली आ रही है। लगता था कि पुलिस वाले दिन दोपहर सुबह शाम वीडियो गेम खेलने लगते हैं। पूरा शहर उस सायरन की आवाज़ के संदर्भ में वीडियो गेम लगता था। समझ नहीं आया कि पुलिस की कार इतना सायरन क्यों बजाती है। कई बार लगा कि सड़क के किनारे कार पार्क कर बैठे बैठे बोर हो जाते होंगे, इसलिए पुलिस वाले बीच सायरन सायरन खेलने लगते होंगे। पकड़म-पकड़ाई का खेल शुरू।
अक्सरहां सायरन की बारंबारता अर्थात फ्रीक्वेंसी तेज़ होती थी, हाउं हाउं, हाउं, हाउं जैसी ध्वनि पैदा की जाती थी मगर बीच में अचानक लंबी तान सुनाई देती थी। जैसे सियार ने हुंकार भरी हो। आरोह पर जाकर सायरन की आवाज़ ठहर जाती थी। अनूप जलोटा की तरह। जब तक ताली नहीं बजाएंगे तब तक हीरे-मोती के ई पर ही अटके रहते थे। ताली बजते ही जलोटा जी उतर आते थे। सायरनों के बीच पुलिस की जो मनोवृत्ति दिखती है उससे गुदगुदी होती है। यही बीमारी मेरे ग़ाज़ियाबाद आ गई है। पुलिस को नई जीप मिली हैं। उसके ऊपर फ्लैश ख़ूब है। थाने में सिपाही नहीं है मगर फ्लैश और सायरन से पुलिसिंग हो रही है। जनता को भी लगता है कि बड़ा काम हो रहा है।
पहले पुलिस वैन कहा गया फिर पीसीआर कहा गया अब पीआरवी पुलिस रिस्पांस व्हीकल कहा जाता है। नाम बदलते रहना चाहिए भले काम वही रहे। जब तब सायरन की आवाज़ आती रहती है। मुझे तो लगता है कि मेरी खिड़की पर ही पुलिस रहती है। कभी किसी को पुलिस के लिए रास्ता छोड़ते नहीं देखता, जैसे सबको पता है, इन्हें पहुंचना तो कहीं है नहीं, रास्ता देकर क्या होगा। पुलिस भी शायद इसी इत्मिनान से सायरन बजाती है कि देर हो जाए तो ही ठीक है। हथियारों से लैस अपराधी चले ही जाएं वरना कौन घड़ी-घड़ी ठांय-ठुई करेगा।
सोमवार रात देखा कि एक सुनसान सड़क पर सायरन बजने लगा। कई बार अकेले में जब डर लगता है तो लोग हनुमान चालीसा पढ़ने लगते हैं। वैसे ही कुछ लगा। हम भी ज़िम्मेदार हैं। पुलिस ड्यूटी पर रहती है तो नोटिस भी नहीं करते। हम मान कर चलते हैं कि पुलिस तो कहीं है नहीं। तो पुलिस भी क्या करे। जब तब सायरन बजाती रहे ताकि पता तो चले कि पुलिस है। हमारे
ग़ाज़ियाबाद में सायरन संगीत का नवोदय काल चल रहा है। उम्मीद है इसमें आगे चलकर निखार आएगा और संगीत कला के नए-नए रूप नज़र आएंगे।
भारत में हॉर्न भाषा की हमेशा उपेक्षा हुई है। यहां की सड़कों पर लोगों ने हॉर्न के अलग-अलग शब्द विकसित किए हैं। मैं ख़ुद को भारत का प्रथम हॉर्न भाषा विशेषज्ञ घोषित करता हूं। हॉर्न एक भाषा है। ग़ाज़ियाबाद के लोग हॉर्न ख़ूब बजाते हैं। यहां हर वक्त हॉर्न प्रतियोगिता चलती रहती है। सुबह-सुबह ख़ाली सड़क पर कुछ वाहन चालकों को कई मीटर तक हॉर्न बजाते सुना है, मानो एलान कर रहे हों कि हम आ रहे हैं, अभी कोई और न आए। तभी कोई ऑटो वाला झरझराते हुए गुज़र जाता है। ऑटो का शरीर ही अपने आप में हॉर्न है। जैसे नहाने के बाद कुत्ता बाल झाड़ता है वैसा ही ध्वनि बोध ऑटो की झरझराहट से होता है। ऑटो रिक्शॉ की कंपनी शैली अपने आप में एक हॉर्न है मगर ऐसा नहीं है कि ऑटो में हॉर्न नहीं होता है। ऑटो की झरझराहट के बीच उसका हॉर्न सुनकर ऐसे लगता है कि जैसे ऑटो से कोई स्कूटर निकल रहा हो।
कुछ हॉर्न की भाषा बेहद संक्षिप्त होती है। लगता है ट्रैफिक क्लियर करने के लिए नहीं बल्कि चेक करने के लिए बजाया गया है कि बज रहा है या नहीं। कई बार लोग बार-बार चेक करते हैं। एक बार तो बज गया, क्या दोबारा बजेगा, बस बजा दिया। हॉर्न की आवाज़ दूसरे हॉर्न की आवाज़ को चीरती है, फिर उस चीरे में कोई और हॉर्न की आवाज़ चीरा लगाती है। इसतरह से सरदर्द का जो सार्वजनिक माहौल बनता है। एक स्कूटर वाला इस तरह से हॉर्न बजाते जा रहा है जैसे उसका एक्सलेटर हॉर्न में ही लगा हुआ है। ट्रैफिक जाम में लोग अपना पांव एक्सलेटर से हटाकर हॉर्न पर रख देते हैं।
हॉर्न की भाषा के शोधार्थी सुन सकेंगे कि यहां की सड़कों पर हॉर्न सुनकर एकदम से सड़क के किनारे नहीं हो जाते। उन्हें याद आता है कि उनके आगे भी तो कोई कार चल रही है। पहले उसे हटाते हैं। बस पीछे वाला आगे के लिए हार्न बजा रहा है और उसके पीछ वाला उसके लिए। इस क्रम में हॉर्न चेन बनता है। कोई हटता नहीं है मगर हटाने के लिए सब हॉर्न बजाते हैं। स्कूल बसों के ब्रेक ने अपना अलग हॉर्न संस्कृति विकसित कर लिया है। स्टॉप पर इस तरह बसें ब्रेक लगाती हैं कि आप दूर खड़े होकर भी महसूस कर सकते हैं कि टायर के नीचे चले गए हैं और फिर नीचे-नीचे ग़ाज़ियाबाद से ही निकल लिए हैं।
कुछ हॉर्न मुझे मुक्ति बोध की लंबी कविताओं की मानिंद सुनाई देते हैं। कुछ हॉर्न को सुनकर लगता है कि कोई सड़क पर क्षणिकाएं लिख रहा है। हाइकू लिख रहा है। कुछ हॉर्न ऐसे होते हैं जैसे किसी ने नज़र बचाकर पच से थूक दिया हो। एकबार पीं बोलकर चुप हो जाते हैं। बहुत से हॉर्न में गुस्सा है तो मनुहार भी है। पां पां वाले हॉर्न तो मुझे वाह-वाह जैसे लगते हैं। कीं कीं वाले हॉर्न सुनकर लगता है कि बंदा पिनका हुआ है। मैं हॉर्न सुनकर बता सकता हूं कि कौन ओवरटेक करने के लिए बजा रहा है और कौन किनारे किनारे मस्ती में चलता हुआ बजा रहा है।
लाउडस्पीकर भारत के शहरों का स्थायी दर्द है। लगता है कि सभी धर्मों के ईश्वर ने आम भक्तों तक संदेश भिजवाया है कि मुझ तक पहुंचना है तो लाउडस्पीकर बजाओ। बस सब अपनी सुनाने लग जाते हैं। कई बार लाउडस्पीकर इस तरह से बजाए जाते हैं जैसे ईश्वर को चुनौती दी जा रही हो। पहले हमारी आवाज़ सुनो बलिहारी वरना हम पड़ोसी के कान का चदरा देइब फाड़ी। कई लाउडस्पीकर बोलते बोलते मिमियाने लगते हैं, फिर अचानक तेज़ हो जाते हैं। जैसे इन्हें पता है पड़ोसी जैसे ही झपकी लेगा, उसे ज़ोर से जगा देना है। न भगवान को सोने देना है न पड़ोसी को। आज कल त्योहार के मौके पर शोभा यात्रा निकलती है। यह यात्रा आपके मोहल्ले की सड़क पर लंबे वक्त तक ठहरी रहती है। भर भर रिक्शा लाद कर लाउडस्पीकर लिए चलते हैं। भक्तगण इस आवाज़ से अपने लिए एकांत का स्पेस क्रिएट करते होंगे।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड। यह पहला ऐसा बोर्ड है जो सूचना देने का काम करता है मगर नाम नियंत्रण का रखता है। इसी के अनुसार ग़ाज़ियाबाद की हवा देश में सबसे ज़हरीली है। अख़बारों ने ऐसे इतरा कर लिखा है कि अगले साल ज़हरीली की जगह छैल-छबीली लिख देंगे।
ज़हर अब जानलेवा नहीं रहा। ज़हर एक मिठास है। खांस है। फांस है। ये वो ज़हर नहीं कि पीते ही मार दिया। ये वो ज़हर हैं जो हमारे भीतर घर बसाते हैं। क्यूट प्वाइज़न। वायु प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण का पर्यटन करना हो तो प्लीज़ ग़ाज़ियाबाद आएं। नाक और कान एक साथ फोड़वाएं। आंखों में जलन होगी, इसकी गारंटी है, भूपेंद्र का गाना सुनते हुए निकल जाएं कि इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यों है।मिलिए भारत के पहले हॉर्न भाषा विशेषज्ञ से-
न्यूयार्क गया था। जब तक पुलिस की कार सायरन बजाते हुए दिख जाती थी। होटल के कमरे की खिड़की से देख रहा था कि कभी इस रास्ते से तो कभी उस रास्ते कोई पुलिस कार सायरन बजाते हुए चली आ रही है। लगता था कि पुलिस वाले दिन दोपहर सुबह शाम वीडियो गेम खेलने लगते हैं। पूरा शहर उस सायरन की आवाज़ के संदर्भ में वीडियो गेम लगता था। समझ नहीं आया कि पुलिस की कार इतना सायरन क्यों बजाती है। कई बार लगा कि सड़क के किनारे कार पार्क कर बैठे बैठे बोर हो जाते होंगे, इसलिए पुलिस वाले बीच सायरन सायरन खेलने लगते होंगे। पकड़म-पकड़ाई का खेल शुरू।
अक्सरहां सायरन की बारंबारता अर्थात फ्रीक्वेंसी तेज़ होती थी, हाउं हाउं, हाउं, हाउं जैसी ध्वनि पैदा की जाती थी मगर बीच में अचानक लंबी तान सुनाई देती थी। जैसे सियार ने हुंकार भरी हो। आरोह पर जाकर सायरन की आवाज़ ठहर जाती थी। अनूप जलोटा की तरह। जब तक ताली नहीं बजाएंगे तब तक हीरे-मोती के ई पर ही अटके रहते थे। ताली बजते ही जलोटा जी उतर आते थे। सायरनों के बीच पुलिस की जो मनोवृत्ति दिखती है उससे गुदगुदी होती है। यही बीमारी मेरे ग़ाज़ियाबाद आ गई है। पुलिस को नई जीप मिली हैं। उसके ऊपर फ्लैश ख़ूब है। थाने में सिपाही नहीं है मगर फ्लैश और सायरन से पुलिसिंग हो रही है। जनता को भी लगता है कि बड़ा काम हो रहा है।
पहले पुलिस वैन कहा गया फिर पीसीआर कहा गया अब पीआरवी पुलिस रिस्पांस व्हीकल कहा जाता है। नाम बदलते रहना चाहिए भले काम वही रहे। जब तब सायरन की आवाज़ आती रहती है। मुझे तो लगता है कि मेरी खिड़की पर ही पुलिस रहती है। कभी किसी को पुलिस के लिए रास्ता छोड़ते नहीं देखता, जैसे सबको पता है, इन्हें पहुंचना तो कहीं है नहीं, रास्ता देकर क्या होगा। पुलिस भी शायद इसी इत्मिनान से सायरन बजाती है कि देर हो जाए तो ही ठीक है। हथियारों से लैस अपराधी चले ही जाएं वरना कौन घड़ी-घड़ी ठांय-ठुई करेगा।
सोमवार रात देखा कि एक सुनसान सड़क पर सायरन बजने लगा। कई बार अकेले में जब डर लगता है तो लोग हनुमान चालीसा पढ़ने लगते हैं। वैसे ही कुछ लगा। हम भी ज़िम्मेदार हैं। पुलिस ड्यूटी पर रहती है तो नोटिस भी नहीं करते। हम मान कर चलते हैं कि पुलिस तो कहीं है नहीं। तो पुलिस भी क्या करे। जब तब सायरन बजाती रहे ताकि पता तो चले कि पुलिस है। हमारे
ग़ाज़ियाबाद में सायरन संगीत का नवोदय काल चल रहा है। उम्मीद है इसमें आगे चलकर निखार आएगा और संगीत कला के नए-नए रूप नज़र आएंगे।
भारत में हॉर्न भाषा की हमेशा उपेक्षा हुई है। यहां की सड़कों पर लोगों ने हॉर्न के अलग-अलग शब्द विकसित किए हैं। मैं ख़ुद को भारत का प्रथम हॉर्न भाषा विशेषज्ञ घोषित करता हूं। हॉर्न एक भाषा है। ग़ाज़ियाबाद के लोग हॉर्न ख़ूब बजाते हैं। यहां हर वक्त हॉर्न प्रतियोगिता चलती रहती है। सुबह-सुबह ख़ाली सड़क पर कुछ वाहन चालकों को कई मीटर तक हॉर्न बजाते सुना है, मानो एलान कर रहे हों कि हम आ रहे हैं, अभी कोई और न आए। तभी कोई ऑटो वाला झरझराते हुए गुज़र जाता है। ऑटो का शरीर ही अपने आप में हॉर्न है। जैसे नहाने के बाद कुत्ता बाल झाड़ता है वैसा ही ध्वनि बोध ऑटो की झरझराहट से होता है। ऑटो रिक्शॉ की कंपनी शैली अपने आप में एक हॉर्न है मगर ऐसा नहीं है कि ऑटो में हॉर्न नहीं होता है। ऑटो की झरझराहट के बीच उसका हॉर्न सुनकर ऐसे लगता है कि जैसे ऑटो से कोई स्कूटर निकल रहा हो।
कुछ हॉर्न की भाषा बेहद संक्षिप्त होती है। लगता है ट्रैफिक क्लियर करने के लिए नहीं बल्कि चेक करने के लिए बजाया गया है कि बज रहा है या नहीं। कई बार लोग बार-बार चेक करते हैं। एक बार तो बज गया, क्या दोबारा बजेगा, बस बजा दिया। हॉर्न की आवाज़ दूसरे हॉर्न की आवाज़ को चीरती है, फिर उस चीरे में कोई और हॉर्न की आवाज़ चीरा लगाती है। इसतरह से सरदर्द का जो सार्वजनिक माहौल बनता है। एक स्कूटर वाला इस तरह से हॉर्न बजाते जा रहा है जैसे उसका एक्सलेटर हॉर्न में ही लगा हुआ है। ट्रैफिक जाम में लोग अपना पांव एक्सलेटर से हटाकर हॉर्न पर रख देते हैं।
हॉर्न की भाषा के शोधार्थी सुन सकेंगे कि यहां की सड़कों पर हॉर्न सुनकर एकदम से सड़क के किनारे नहीं हो जाते। उन्हें याद आता है कि उनके आगे भी तो कोई कार चल रही है। पहले उसे हटाते हैं। बस पीछे वाला आगे के लिए हार्न बजा रहा है और उसके पीछ वाला उसके लिए। इस क्रम में हॉर्न चेन बनता है। कोई हटता नहीं है मगर हटाने के लिए सब हॉर्न बजाते हैं। स्कूल बसों के ब्रेक ने अपना अलग हॉर्न संस्कृति विकसित कर लिया है। स्टॉप पर इस तरह बसें ब्रेक लगाती हैं कि आप दूर खड़े होकर भी महसूस कर सकते हैं कि टायर के नीचे चले गए हैं और फिर नीचे-नीचे ग़ाज़ियाबाद से ही निकल लिए हैं।
कुछ हॉर्न मुझे मुक्ति बोध की लंबी कविताओं की मानिंद सुनाई देते हैं। कुछ हॉर्न को सुनकर लगता है कि कोई सड़क पर क्षणिकाएं लिख रहा है। हाइकू लिख रहा है। कुछ हॉर्न ऐसे होते हैं जैसे किसी ने नज़र बचाकर पच से थूक दिया हो। एकबार पीं बोलकर चुप हो जाते हैं। बहुत से हॉर्न में गुस्सा है तो मनुहार भी है। पां पां वाले हॉर्न तो मुझे वाह-वाह जैसे लगते हैं। कीं कीं वाले हॉर्न सुनकर लगता है कि बंदा पिनका हुआ है। मैं हॉर्न सुनकर बता सकता हूं कि कौन ओवरटेक करने के लिए बजा रहा है और कौन किनारे किनारे मस्ती में चलता हुआ बजा रहा है।
लाउडस्पीकर भारत के शहरों का स्थायी दर्द है। लगता है कि सभी धर्मों के ईश्वर ने आम भक्तों तक संदेश भिजवाया है कि मुझ तक पहुंचना है तो लाउडस्पीकर बजाओ। बस सब अपनी सुनाने लग जाते हैं। कई बार लाउडस्पीकर इस तरह से बजाए जाते हैं जैसे ईश्वर को चुनौती दी जा रही हो। पहले हमारी आवाज़ सुनो बलिहारी वरना हम पड़ोसी के कान का चदरा देइब फाड़ी। कई लाउडस्पीकर बोलते बोलते मिमियाने लगते हैं, फिर अचानक तेज़ हो जाते हैं। जैसे इन्हें पता है पड़ोसी जैसे ही झपकी लेगा, उसे ज़ोर से जगा देना है। न भगवान को सोने देना है न पड़ोसी को। आज कल त्योहार के मौके पर शोभा यात्रा निकलती है। यह यात्रा आपके मोहल्ले की सड़क पर लंबे वक्त तक ठहरी रहती है। भर भर रिक्शा लाद कर लाउडस्पीकर लिए चलते हैं। भक्तगण इस आवाज़ से अपने लिए एकांत का स्पेस क्रिएट करते होंगे।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड। यह पहला ऐसा बोर्ड है जो सूचना देने का काम करता है मगर नाम नियंत्रण का रखता है। इसी के अनुसार ग़ाज़ियाबाद की हवा देश में सबसे ज़हरीली है। अख़बारों ने ऐसे इतरा कर लिखा है कि अगले साल ज़हरीली की जगह छैल-छबीली लिख देंगे।
ज़हर अब जानलेवा नहीं रहा। ज़हर एक मिठास है। खांस है। फांस है। ये वो ज़हर नहीं कि पीते ही मार दिया। ये वो ज़हर हैं जो हमारे भीतर घर बसाते हैं। क्यूट प्वाइज़न। वायु प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण का पर्यटन करना हो तो प्लीज़ ग़ाज़ियाबाद आएं। नाक और कान एक साथ फोड़वाएं। आंखों में जलन होगी, इसकी गारंटी है, भूपेंद्र का गाना सुनते हुए निकल जाएं कि इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यों है।Ravish Kumar
20 hrs ·
आप जिस रास्ते से भागेंगे, लगेगा सारी दुनिया उसी रास्ते दौड़ी आ रही है। इस साल कई शादियों में गया। सोमवार को प्राइम टाइम के बाद एक शादी में गया। सैंकड़ों लोगों का जमावड़ा घबराहट पैदा करता है। बड़े और ओहदेदार लोग अपना हल्का सा अहंकार लिए स्थायी रूप से खड़े रहते हैं। ऐसे लोगों को कभी किसी शादी में ख़ुद से जाकर लोगों से मिलते नहीं देखा है। किसी को अपने पास आता देख दो कदम आगे भी नहीं आते। कम ओहदे वाले सबसे मिलते हैं। अपने बच्चों को भी मिलवाते हैं।
शादी सेट में बदल चुका होता है। एक शाम के लिए लोग कितनी शिद्दत से किसी और रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। सब कोई एक वीडियो फिल्म जी रहा होता है। लड़कियाँ कभी प्रियंका चोपड़ा लगती हैं तो कभी दीपिका। अब सबके पास लहंगा आ गया है। कई बार लगता है कि एक ही लहंगा है जो हर शादी में घूम रहा है। शादी शुदा औरतों पर सिल्क साड़ी सांस्कृतिक भार लगती है। रौशनी में कुछ ज़्यादा ही रिफ्लेक्ट करती है।
लड़के भी अच्छे लगते हैं। सज धज के आते हैं। मेरी तरह जिनके पेट निकले होते हैं उनके लिए सॉरी। आप वो लगते नहीं जो पहनकर सोच रहे होते हैं। समझ गए ! और ये फुल स्वेटर पर कोट पहनने वाले लड़के..ओ गॉड । बॉस पूछ लो न किसी से । बहुत लोगों को कपड़े का कांप्लेक्स होता है। कोने में खड़े रह जाते हैं। हलवाई के पास, हाथ में पापड़ी चाट लिए। कुछ लोगों को किसी चीज़ का कांप्लेक्स नहीं होता है। कुछ लोग जमकर सब आइटम खाते हैं तो कुछ लोग लजाकर छोड़ देते हैं। लोग अच्छे ही होते हैं। प्यार से मिलते हैं। ख़ूब सत्कार करते हैं मगर ये घबराहट क्यों होती है।
धीरे धीरे सबसे से मिल भी लेता हूँ मगर किसी शादी में कोई घोटाला या स्टोरी बताने लगता है तब लगता है कि अब बस हो गया। छोटी जलेबी खाओ और निकलो। हम भी शादी का लुत्फ़ उठाने आए हैं तो उठाने दीजिए। राहत फ़तेह अली की धुन तेज़ हुई जा रही है, और इधर ये कुछ लोग कान पर चढ़े आ रहे हैं।भाई लोग पकड़ कर वहीं से अखबार ही निकलवाने लगते हैं। हर बार लौट कर लगता है चलो हो गया । हो आया।
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अफ़ज़ल भाई ईमानदार आदमी हे वो तो कभी कोई क़स्बा का लेख नहीं लेते हे या तो बजट होगा या इज़ाज़त दी होगी या फिर किसी को ऐतराज़ न हो तब ही अफ़ज़ल भाई किसी का लेख लेते हे और लेख के साथ हमेशा लिंक दिया जाता हे Ravish Kumar added 2 new photos.
15 hrs · फोन के बिना पत्रकारिता और संसार
हवाई अड्डे पर फोन परिवार के परदादा जी दिखे। जिन्हें घरों से निकाल कर नई पीढ़ी के फोन स्मार्ट फोन बने। इनमें से दो फोन एक जैसे हैं। 5000 के हैं।एक काँसे का बना 8000 का है। घर की किसी पुरानी चीज़ को मत फेंकिए। दस साल के लिए छिपा दीजिये फिर निकाल कर सजा दीजिएगा। स्मार्ट फोन की मस्ती चलेगी मगर परदादा जी भी ख़बर लेते रहेंगे।
मुंबई में टाइम्स ऑफ़ इंडिया का लिट-फेस्ट है। वहाँ लप्रेक पढ़ने जा रहा हूँ। वहाँ कलयुग पर कुछ बोलना भी है। उसके बाद तुरंत दिल्ली। छुट्टियाँ बुला रही हैं। लंबे समय के लिए जाने वाला हूँ ।
इस बार एक प्रयोग करूँगा। अपना फोन बंद कर दूँगा। संभव हुआ तो जीवन में फोन की भूमिका नगण्य कर दूँगा। वैसे पत्रकारिता में फोन की कोई भूमिका नहीं बची है। गोदी मीडिया के दौर में लोगों की समस्याओं को दिखाने की मूर्खता से परेशानी हो जाती है। लोगों की तकलीफ सुनकर ही नींद नहीं आती है। मन उदास रहता है। रोज़ दस लोग फाइलें लेकर आ जाते हैं। मिनट मिनट चिट्ठियाँ आती रहती हैं । पचासों फोन आते हैं ।
मेरे पास उन्हें पढ़ने और कुछ करने का कोई सपोर्ट सिस्टम नहीं है। लेडी हार्डिंग अस्पताल के लोग आ गए थे। सुनने का वक्त ही नहीं था,मना करना पड़ा । उन्हें लौटता देख ख़ुद मायूस हो गया। वे लोग तो मुझी से नाराज़ होकर गए होंगे । इतना आसान नहीं होता है किसी को बिना सुने मना कर देना। एक माँ ने दो साल तक मेरा नंबर खोजा, उसके इकलौते बेटे को किसी ने मार दिया है। वो भटक रही है। हम नहीं सुनेंगे, सरकार नहीं सुनेगी तो कौन सुनेगा। उन्हें कहने के बाद कि मेरे पास कुछ नहीं है, मैं नहीं कर सकता,फोन पर उनकी छूटती हुई आवाज़
के बाद मैं ही रोने लगा। मुझे पत्थर होना ही होगा।
इसकी वजह यह भी है कि लोगों की कहानी की पड़ताल और उसे प्रसारण लायक बनाने के लिए रिपोर्टर नहीं है। पत्रकारिता का ढाँचा ध्वस्त हो चुका है। लोगों को ना कहने में मन बहुत दुखता है। हमारे जैसे मूर्ख लोग रो भी देते हैं और झुंझला कर मना भी कर देते हैं। भाई लोग तो केरल की घटना के लिए गाली देने लगते हैं। कहाँ कहाँ का लोड लेंगे। मेरे पास इस समस्या का हल नहीं है।
मैंने देखा है जो पत्रकार चोर नेताओं के बयान और हैंडआउट ढोते हैं, वो काफी खुश रहते हैं। नौकरी में भी लंबे समय तक बने रहते हैं। हमारे जैसे लोग आसानी से बाहर कर दिए जाते हैं और बाहर होने से पहले कई मोर्चे पर अपमानित भी किए जाते हैं।
हिन्दी के अखबार मेरा लेख छापने से मना कर देते हैं। 2014 तक इतना पूछते थे कि तंग आ जाता था। एक ही सज्जन बचे हैं जो पूछ लेते हैं। कन्नड और मराठी में छप जाता हूँ हिन्दी में नहीं। वैसे इस राय पर कायम हूँ कि अपवाद को छोड़ हिन्दी के अखबार कूड़ा हैं । ये तब भी कहता था जब छपता था। उर्दू और हिन्दी के अखबारों के कुछ वेबसाइट कस्बा से मेरा लेख लेकर छाप लेते हैं , हिट्स बढ़ाने के लिए । चिरकुट लोग पैसा भी नहीं देते। तो हम जैसे लोग गुज़ारा कैसे चलायेंगे।सभा सम्मेलन में फोकट में बुलाने वालों के लिए भी कह रहा हूँ । मुझे न बुलाएँ । कितना अपनी जेब से लगाकर जाता रहूँगा। दिल्ली विवि वाले मार्च तक बुला बुला कर मार देते हैं। टॉपिक तक पता नहीं होता मगर बुलाते जरूर हैं । रोज़ देश भर से दस फोन आते हैं कि यहाँ बोलने आ जाइये। मना करने पर वही मायूसी।
इसलिए फोन बंद करूंगा। शायद 25 दिसंबर से। ईमेल वैसे भी नहीं देखता।
मुमकिन है इस प्रयास में फ़ेल हो जाऊँ मगर कोशिश तो करूँगा ही। तो मुझसे मोहब्बत करने वालों और गाली देने वालों आप दोनों आपस में बात कर लेना। प्यार बढ़ा लो।
रविश की क़स्बा के लेखो का पैसा न मिलने की शिकायत जायज़ हे में अपनी तरफ से बता दू की अफ़ज़ल भाई ईमानदार आदमी हे वो तो कभी कोई क़स्बा का लेख नहीं लेते हे या तो बजट होगा या इज़ाज़त दी होगी या फिर किसी को ऐतराज़ न हो तब ही अफ़ज़ल भाई किसी का लेख लेते हे और लेख के साथ हमेशा लिंक दिया जाता हे बाकी पेसो की समस्या बेहद गंभीर हे बिना पेसो के ना तो कोई बुरा ना कोई अच्छा काम हो सकता हे अब आज हिंदी पब्लिक इंटरनेट पर खूब पढ़ लिख रही हे अच्छा हे मगर सोशल मिडिया के सामने नयी साइट्स की टी आर पि बेहद कम ही हे फेसबुक कोई रेवेन्यू शेयर नहीं करता हे ऐसे में लेखकों को साइट्स से उम्मीद रहती हे में फिर कह दू की अफ़ज़ल भाई और खबर की खबर से जुड़िये लिखिए अफ़ज़ल भाई से बेहतर आदमी नहीं मिलेगा . हम लोग सौ % ईमानदार हे और रहेंगे . बाकियो का मुश्किल हे क्योकि हर एक किसी को आज सबसे पहले अपने लिए बहुत कुछ चाहिए होता ही हे ऐसे में हल्कीभारी -लूटपाट हेराफेरी , कम ज़्यादा , खुली छुपी , तो हर जगह होनी ही होनी हे हम लोग ही इसके अपवाद हो सकते हे और कोई , नहीं अफ़ज़ल भाई बिज़नेस मेन आदमी हे उन्हें पत्रकारिता लेखन से अपने लिए कुछ नहीं चाहिए और मुझे भी किसी ऐशो आराम का न कोई शोक हे मिल भी रहा हो तो मेरा मन नहीं लगता हे हम जैसे शुद्ध ईमानदार लोग नहीं मिलेंगे तो लेखकों पत्रकारों से अपील हे की अफ़ज़ल भाई और खबर की खबर से जुड़े कल अफ़ज़ल भाई के वहा एक ठीक ठाक बड़े पत्रकारसाहब की उपस्थिति देख कर अच्छा लगा इन साहब को अगर सही मौके मिले तो ये भी एक अपने टाइप के रविश होंगे उम्मीद हे की लोग आएंगे और अगर कामयाबी मिली एड और पैसा आया तो सब ईमानदारी से आप ही लोगो का होगा फिर किसी रविश को पैसा ना मिलने की शिकायत नहीं होगी . Vikram Singh Chauhan
Yesterday at 11:37 ·
मैं पुरे होशोहवास से कह रहा हूँ फेसबुक कट्टर हिंदूवादियों के हाथों का खिलौना बन गया है। फेसबुक उन आईडी को सस्पेंड नहीं कर रहा है जो राजसमंद मामले को सही ठहरा रहे हैं और फेसबुक के माध्यम से खुलेआम हिंसा फ़ैलाने की बात कह रहे हैं। गौरी लंकेश की हत्या के बाद यह दूसरा अवसर हैं जब यहाँ अफराजुल की हत्या करने वाले शम्भू लाल के पक्ष में हजारों लोग लिख रहे हैं। दीपक शर्मा और दीपक सारस्वत जैसे आईडी से लगातार मुस्लिमों के खिलाफ ज़हर उगला जा रहा है। मैंने खुद कई बार इसकी रिपोर्ट किया लेकिन फेसबुक का दो दिन बाद जवाब आता है हमने देखा लेकिन उस आईडी पर ऐसा कुछ नहीं मिला। आखिर इसे कैसे चेक किया जाता है कि खुलेआम मारने की बात भी फेसबुक इंडिया के लोग सुन नहीं पाते। इस देश को पिछले तीन -चार सालों से क्या हो गया है? लोग पीड़ित की जगह गुनाहगारों के पक्ष में त्रिशूल और डंडे लेकर आ रहे हैं ,उन्हें आर्थिक मदद कर रहे हैं ,उनके लिए सड़क जाम कर रहे हैं ,आगजनी कर रहे हैं ,वकील उनके पक्ष में मुफ्त में केस लड़ने को तैयार हैं। कोई उस गरीब अफ़राज़ुल के परिवार के लिए नहीं आया। कोई ये नहीं बोला उस गरीब मज़दूर की बेटी के हाथ अब कैसे पीले होंगे। कोई ये नहीं बोला कि अब उसके घर में चूल्हा कैसे जलेगा। हे राम!Vikram Singh Chauhan
18 hrs ·
अगर कांग्रेस गुजरात जीत गया तो ज़ी न्यूज़ वाले उस पुरे दिन क्या प्रोग्राम करेंगे। कैसे मोदी को हारा हुआ बताएंगे। कैसे राहुल गाँधी के ऊपर ताल ठोक के करेंगे। ऐसे ही ये लोग केजरीवाल के लिए भी कर रहे थे। चुनाव से पहले उसे हारा हुआ बता रहे थे ,केजरीवाल को बेइज्जत कर रहे थे ,सुधीर चौधरी ने एक दिन इंटरव्यू भी लिया था केजरीवाल का और इस इंटरव्यू में केजरीवाल ने इनको औकात दिखा दी थी ,बाद में जनता ने भी मोदी और ज़ी न्यूज़ को औकात दिखा दिया था। फिर रात को लटका हुआ चेहरा लेकर सुधीर चौधरी आया था। ऐसे लग रहा था कोई भाजपा का कार्यकर्ता जो पुरे चुनाव भर घूम घूमकर प्रचार किया हो वो चुनाव हारने के बाद रो रहा हो। ऐसा ही इसका लटका हुआ चेहरा एक बार और देखना चाहता हूँ। उम्मीद हैं गुजरात की जनता ये अवसर भी देगी। मोदी भक्ति में सुधीर चौधरी ये भूल जाता है कि उसे लाइसेंस एक न्यूज़ चैनल का मिला हुआ है जिसका काम हैं सूचनाएं देना चाहे कोई हारे और कोई जीते।Vikram Singh Chauhan
16 hrs ·
अगर आज आप अदालत के ऊपर भगवा झंडा देखकर क्रोधित है तो शांत हो जाइये आगे आपको और बहुत कुछ देखना हैं। संघ के एजेंडे में तिरंगा जैसा कुछ नहीं हैं वे तो इसे भगवा से रिप्लेस करने की बात कह चुके हैं। सब कुछ सोचसमझकर किया जा रहा है। संघ का एजेंडा लगभग आधा देश में लागु हो चूका है और आधा बाकी दो साल में हो जायेगा। आज ही राजस्थान सरकार ने सरकारी लेटर पैड पर दीनदयाल उपाध्याय का लोगो लगाने का आदेश भी दिया है। इसी राज्य में भ्रष्ट अधिकारियों को बचाने का कानून भी लागु हो गया है जिसका सिर्फ पत्रिका समूह विरोध कर रहा है। राजस्थान ही क्यों देश के सभी राज्यों में राज्यपाल के रूप में संघ के एजेंट काम कर रहे हैं। इन्हें टास्क दिया गया है ऐसे कार्यों को करने की ,शिलान्यास करवाने की जिसमें दीनदयाल ,श्यामाप्रसाद का नाम प्रमुख तौर पर आये। भाजपाई राज्यों के इतर भी दूसरे राज्यों में इसे आगे बढ़ाया जा रहा है। इस कार्य में प्रिंट मीडिया महती भूमिका अदा कर रही है। लगभग सभी हिंदी के प्रमुख अख़बारों के संपादक अब संघ के पसंद के हैं। इनके जैकेट देखिये आप कैसे हिन्दू राष्ट्र की संकल्पना को साकार करने में लगे हैं। भास्कर में कल्पेश याग्निक को ही पढ़ लीजिये या जागरण में संजय गुप्त को। हाईकोर्ट के जज भी इनके आदमी है ,हाईकोर्ट से विदाई के बाद आयोग में एक अच्छा पद मिल रहा है। सुप्रीम कोर्ट बस अछूता था वहां संघ का एक अनुशासित सिपाही सीजेआई बन गया है। सब प्लान के अनुसार हो रहा है। कहीं कोई दिक्कत नहीं है!
https://www.youtube.com/watch?v=Di8BAYmqJ_Q
रविश ने उपर जो बात कि ————————————————————————————————————————————– मुरली मनोहर जोशी बाजार से हारता समाज पहली बार जब में अमेरिका गया तो वहाँ अखबार में एक वाक्य पढ़ा ‘ सिंगल पेरेंट फ़ेमलीज़ ‘ हमने कहा हमारी अंग्रेजी में तो पेरेंट में माता पिता दोनों शामिल हुआ करते थे ये सिंगल पेरेंट क्या चीज़ हे हमने अपने एक मित्र से पूछा ? वह कहने लगा तुम हिंदुस्तान से आये हो , तुम लोग अभी बैकवर्ड हो हम लोग फॉरवर्ड हे . हमारे यहाँ स्त्री पुरुष साथ रहते हे और शादी नहीं होती और कभी संतान हो जाती हे तो ज़्यादा चालाक हो जाता हे वह पहले छुट्टी पा जाता हे . पिता चालाक हे तो वह भाग गया , माँ और बच्चा रह गया अगर माँ चालाक हे तो बाप और बच्चा रह गया यह सिंगल पेरेंट फेमली हे . जब हम वहा गए थे तो सिंगल पेरेंट फेमली दस प्रतिशत के करीब थी आज चालीस प्रतिशत हे क्यों ? ये कहा से आई ? अमेरिका का इतिहास पढता हु तो वहा पहले बड़ा आग्र्रह था की फेमली रहनी चाहिए .अब तो पिछले चुनाव में फेमली हो या न हो ये चुनाव का मुद्दा था परिवार संस्था समाप्त हो रही हे जिसका वहा के समाज पर जबरदस्त प्रभाव पड़ा हे . यूरोप में भी पड़ा जितने नॉर्डिक देश हे वहाँ परिवार संस्था नाम की चीज़ ही नहीं हे क्यों नहीं हे क्योकि इस टेक्नोलॉजी ने लोगो को बहुत अधिक आवाजाही की सुविधा दे दी हे हर चीज़ खटक से बदलती हे . अमेरिका में जो लोग अपना घर बदलते हे अपना शहर बदलते हे अपनी नौकरी बदलते हे उनकी संख्या 70 % से अधिक हे . आवागमन की सुविधा बहुत हे इसलिए एक तरलता आ गयी हे . अब देखिये आगे क्या होता हे अब चीज़े बदलती रहती हे इस बदलाव को जरा गहराई से देखे . टूथपेस्ट और टूथ ब्रश के मॉडल बदलते रहते हे अपनी दातुम् का मॉडल तो वाही स्थायी हे उसमे बदलने की कोई गुजाइंश नहीं थी हज़ारो सालो से दातुन चली आ रही थी एक स्थायित्व था अब आपकी शर्त का डिज़ाइन हर साल बदल जाता हे यूरोपियन गारमेंट डीलर ने जो शर्त एक बार बना दी दोबारा नहीं बनाते हे हर साल दो साल में रेफ्रिजरेटर बदल जाते हे हर तीसरे साल कार बदल जाती हे हर तीसरे साल आपके पिता जी नौकरी करने दूसरे कंपनी में चले जाते हे वह कंपनी बदल जाती हे फिर दूसरे शहर में चले जाते हे तो शर भी बदलता हे मकान भी बदलता हे और अमेरिका में तो जन्म से जवानी तक कितनी बार माँ बाप बदल जाएंगे इसका कुछ पता नहीं हे क्योकि सिंगल पेरेंट फेमली आज एक बाप हे कल दूसरा परसो तीसरा वह कहता हे पूरी दुनिया में कोई चीज़ स्थायी तो नहीं हे ना न माँ स्थायी ना बाप ना मोटर स्थायी न मकान न शहर स्थायी . तो जीवन के शाश्वत मूल्य के लिए टिका क्यों रहू , में एक उखड़ा हुआ मनुष्य बन गया हु और जब में स्वय रूटलेस हो गया हु उखड गया तब में जिस साहित्य की रचना करूँगा उसमे शाश्वतता कहा रहेगी . वह भी उखड़ा हुआ रहेगा बिखरा हुआ रहेगा वह भी विकृत होगा अब में उसे विकृत कहता हु वे उसे संस्कृत कहेंगे . चिठ्ठी पर जो पता लिखा जाता था वह होता था बमुक़ाम भोपाल . पहले शहर का नाम आता था फिर व्यक्ति का नाम . अब क्या बदला नाम पहले आया . अब आया की पिनकोड जरूर लिखो अब इलाहबाद लिखने की जरुरत नहीं हे 211002 लिखा हो गया शहर का नाम नंबर से सारे पते खोज लिए जाएंगे यूरोप में बहुत काम ऐसे स्थान मिलेंगे , जिनमे किसी स्ट्रीट का नाम किसी व्यक्ति के साथ न जुड़ा हो . पहले बड़े अचे नाम हुआ करते थे अब भी देश में अच्छे नाम रखते हे , कुछ साल बाद आपसे कहा जाएगा नाम की जरुरत ही क्या हे ? इसको कोई जानेगा ही नहीं . आपका नंबर क्या हे यह बताइये . माकन नंबर क्या हे गली नंबर क्या हे आपका परमानेंट अकॉउंट नंबर क्या हे आप एक जीवित जाग्रत विचारवान प्राणी के स्थान पर एक एक नंबर बन गए हे . अगर ये नंबर कंप्यूटर में हे तो आप हे और अगर कंप्यूटर में नहीं हे तो आप नहीं हे . वह मनुष्य जो परमात्मा का अंश था कहा गया वज जो ईश्वर का पुत्र था पैगम्बर बना था कहा गया ? सब नंबर हो गए हे . अहं बर्ह्मास्मि मत कहिये . अहं नंबरास्मि कहिये तारो के भी नंबर हो गए हे हमने नक्षत्रो को बड़े अच्छे नाम रखे ग्रहो को नाम दिए . अब तो कहना हे स्टार नंबर सो एंड सो गिनती और नंबर ये सारे असर मानव जीवन समाज और सामाजिकता और सामाजिक रिश्तो पर बराबर पड़ रहे हे संस्थाय भी इसी तरह प्रभावित हो रही हे अत्यधिक उत्पादन के लिए बाजार चाहिए अपना देश छोटा हे . हमारा उत्पादन 50 करोड़ आदमियो के लिए हे अगर नहीं करे इतना उत्पादन तो हमारी इकनॉमी मर जायेगी इसलिए बड़ा बाजार चाहिए बड़ा बाजार चाहिए तो दुनिया को ही एक बाजार बना लो . जब हम एकबाज़ार बन गए तो , तो फिर बाजार के नियमलागु होंगे , में सावधान कर रहा हु यह जनतंत्र इस मार्किट इकोनॉमी के सामने टिकेगा नहीं . जनतंत्र में कैसे चुनाव लड़ेंगे चार चार पांच पांच करोड़ रूपये चुनाव में कर्च करते हे कौन देगा ? फिर मुझे किसी धन्ना सेठ का पुछल्ला बनना पड़ेगा किसी माफिया से सम्बन्ध रखना पड़ेगा क्योकि जो ईमानदारी से पैसा कम रहा हे वो तो पार्टियो को चंदा दे नहीं सकेगा पार्टिया माफिया ग्रुप के साथ उनका बिलकुल पिछलग्गू बन कर रह जायेगी . यह मार्किट इकोनॉमी हे जनतंत्र बचेगगा कैसे बिलकुल असंभव हे उसका बचना . जब हर चीज़ का दाम हे , पैसे से सारी चीज़े खरीदी जाती हे तो फिर यह बाजार का अर्थशास्त्र आपके जनतंत्र को रहने नहीं देगा . संस्कर्ति को रहने नहीं देगा , क्योकि जब आप बाजार के अंग बनते हे तो इस बाजार की संस्कर्ति के ही अंग बनते हे . टीवी पर जो विज्ञापन आ रहे हे उनके माध्यम से संस्कृति या अपसंस्कृति या विकृति जो भी कुछ कहिये समाज में प्रसारित हो रही हे अब तो खबर बेचने के लिए निवर्सत्र होकर न्यूज़ रीडर खबर पढ़ रहे हे अभी हिन्दुस्तान में देर हे थोड़ा ही कपडा उतरा हे यूरोप[ में उत्तर गया हे खबर सुननी हे क्योकि खबर व्यूवरशिप नहीं होगी तो अड्वर्टाइज़मेंट के पैसे नहीं मिलेंगे . खबर बेचने के लिए स्त्री का शरीर बेचना हे हमारे देश में यह समस्या नहीं हे लेकिन वहा से आ रही हे हमारे देश की महिला का अधिकार संस्कार और स्थान अक्षुण्ण था जो कुछ कमीबेशी थी उसे ठीक कर सकते थे में नहीं कहता की हर चीज़ बिलकुल ठीक हो रही थी लेकिन हम उसे दुरुस्त कर सकते थे अब नहीं कर सकेंगे . ये गहरे सवाल हे जो विज्ञान समाज और संस्कर्ति और अर्थनीति के साथ जुड़े हुए हे इसके अंदर टेक्नोलॉजी का बहुत सारी दुनिया के सर पर सवार हे . प्रोडक्शन बढ़ाओ कम्पीटीशन बढ़ाओ और इसके लिए जो रस्ते अपनाते हे वे रास्ते अपनाओ . शाश्वत मूल्यों का तो कोई सवाल ही नहीं हे उन पर तो टिकना ही नहीं हे . बाजार इकोनॉमी में नैतिकता का क्या सवाल हे ? क्यों रहे आदमी नैतिक ? जब उसे पैसा कमाना हे और पैसा ही उसके अस्तित्व के लिए मुख्य आधार बना हे तो नैतिकता से क्या मतलब ? क्या चीज़ हे जो उसे रोकेगी ? अगर आप आज की धारा के हिसाब से चलेंगे तो व्यक्तित्व नष्ट हे संस्कर्ति नष्ट हे नैतिकता नष्ट हे आपकी सनस्थाय सिसक रही हे आप किधर जा रहे हे ? इसकी तरफ गहराई से विचार करने की आवशयकता हे इसका बुरा नतीजा पर्यवरण को झेलना पड़ेगा नए खतरे मानव के सामने आ रहे हे ये बहुत बड़े खतरे हे इस भयानक होड़ में कुदरत का लगातार शोषण हो रह हे कुदरत पर अत्याचार हुआ हे उसका खून किया गया हे पर वह अपने आप में एक अलग कहानी हे उस पर सारते समाज का ध्यान आकृष्ट होना चाहिए अब फैसला करने का समय हे की सारी दुनिया को हम खंडित नज़र से देखेंगे या समग्रता से ? हम विश्व को बाजार बनाएंगे या परिवार ? वे कहते हे की विश्व एक बाजार हे जिसके पास पैसे हे उसे ही जीने का हक़ हे . बाजार में जो पैसा लाएगा वाही सब कुछ पायेगा . लेकिन परिवार में जो आएगा वह पैसा या लए या नहीं खाना जरूर पायेगा परिवार ही मानव समाज का मुख्य अधिष्ठान हे परिवार नष्ट होने और बाजार से उसे विस्थापित करने का मतलब एक भयावह दर्शय हमारे सामने उपस्तित करना होगा जिसमे इंसान का इंसान से कोई रिश्ता नहीं हे , कोई सवेंदनशीलता नहीं हे जिसमे सब चीज़ो का आधार ये हे की आपके पास कितने पैसे हे . आप इस प्रवृत्ति से सावधान नहीं हे क्योकि टेक्नोलॉजी ने अब नए नए औज़ार दे दिए हे . अभी तो इस वैश्विक झंझावात को समझने की जरुरत हे इसे कैसे रोके यह सोचने की जरुरत हे में समझता हु इस तरफ सभी बुद्धिजीवियों को ध्यान देना चाहिए ( मुरली मनोहर जोशी जी दुआरा मार्च 2005 हिंदी भवन भोपाल में दिए गए व्याख्यान के कुछ अंश )
Ravish Kumar1 hr · 40 पार वाले कहां जाएंगे
propublica मेरी पसंदीदा समाचार साइट में से एक है। पत्रकारिता के छात्रों को इस साइट पर जाना चाहिए। प्रो पब्लिका ने फेसबुक पर कई अमरीकीकंपिनयों के नौकरी वाले विज्ञापनों का अध्ययन किया है। फेसबुक को आपकी उम्र पता है। इस आधार पर नौकरियों के विज्ञापन को इस तरह से डिज़ाइन किया जाता है कि सिर्फ 26 से 34 साल के ही नौजवानों तक पहुंचे। 40 वाले को पता ही नहीं चलेगा कि उनके लिए नौकरी है। बल्कि उन्हें नौकरी नहीं देनी है इसलिए भी तो अवसरों को उम्र के हिसाब से डिज़ाइन किया जाता है। भारत में भी ऐसा होता है। हर जगह होता है। 40 के बाद वालों की नौकरी की योग्यता कम हो जाती है। दुखद है। प्रो पब्लिका ने कुछ कंपनियों से पूछा तो कहने लगीं कि हमसे ग़लती हो गई। हम सुधार करेंगे। कुछ ने जवाब ही नहीं दिया।
दुनिया को जानते रहिए। जो लिख रहा हूं, उसे ठीक से पढ़िए। मैं यहां कोई फैनबाज़ी करने नहीं आता बल्कि अपनी समझ से कुछ ख़बरों को क्यूरेट करता हूं। उनका संकलन और सार पेश करता हूं ताकि हिन्दी के पाठकों को कुछ अलग तरीके से देखने का मौक़ा मिले। इसका मतलब यह नहीं कि दुनिया में बाक़ी ख़बरें नहीं हैं। बिल्कुल हैं। आप उन्हें तरह तरह के माध्यमों से जान ही लेते होंगे।
इसलिए मेरा फोकस इस बात पर रहता है कि वैसी आर्थिक ख़बरों का संकलन पेश करूं जो हिन्दी में प्रमुखता से कम मिलती है। मैं यह नहीं कहता कि बैंक संकट में हैं तो पूरा भारत ही संकट में है। मैं सिर्फ यह कह रहा होता हूं कि बैंक संकट में है। आप कमेंट करने लगते हैं कि मैं निगेटिव बात करता हूं। मैंने तो बैंक डुबाए नहीं। ये बैंकों के आंकड़े हैं जो आपको दे रहा हूं। भारतीय रिज़र्व बैंक की रिपोर्ट में है। क्या ये सब निगेटिव बातें कर रहे हैं?
भारत की ख़राब शिक्षा प्रणाली ने ज्यादातर को ख़राब किया है। हम सभी को ख़राब किया है। बहुत से लोग तो नौकरी में आने के बाद एक किताब तक नहीं पढ़ते हैं। उन्हें लगता है कि कोर्स ख़त्म। टीवी देख लिया और अखबार पढ़ लिया तो पढ़ना हो गया। हम सभी को यह स्वीकार करना ही होगा कि पढ़कर पास करने का मतलब यह नहीं होता कि सभी को पढ़ना आ गया है। जो लिखा जा रहा है और जिस तरह से पढ़ा जा रहा है उसके बीच में बहुत कुछ हो जाता है।
मुझे भी कई बार पढ़ना नहीं आता है। बार बार पढ़ना पड़ता है। हर कोई अख़बार ख़रीदता है मगर हर किसी को अख़बार पढ़ना नहीं आता है। हर किसी को किताब पढ़नी नहीं आती है। बेशक आप पूरी किताब पढ़ जाते हैं मगर उसे समझना, उससे जानना एक अलग अभ्यास है।
हज़ारों कमेंट पढ़ चुका हूं। इनका एक सार यह भी है कि बहुत से लोग जो किसी भी तरफ से टिप्पणी करते हैं, जो सामने लिखा होता है, उसे देखने समझने में चूक कर जाते हैं। दरअसल उनके दिमाग़ में जो छवि बनी हुई है, उसी की छाया वे लिखे हुए में पढ़ने लगते हैं। हालत यह हो जाती है कि ज से लिखा हुआ कोई भी शब्द जयपुर नज़र आने लगता है। हम सबको समय समय पर पढ़ने के लिए ख़ुद को प्रशिक्षित करते रहने की ज़रूरत है। इसमें किसी को बुरा मानने की ज़रूरत नहीं है। आपको न हमको। वाक़ई हर
साक्षर को पढ़ना नहीं आता है।Ravish Kumar
2 hrs ·
बैंकिंग परीक्षाओं की तैयारी में जुटे युवाओं के लिए ज़रूरी ख़बर, भजन करें।
30 corporates and 100 medium corporates loot the govt Banks and now banks are being pressurized to cut costs to recover losses and survive somehow!
30 बड़े कारपोरेट और 100 मझोले कारपोरेट ने सरकारी बैंकों को इतना लूटा है कि अब बैंकों को ख़ुद को बचाये रखने के लिए कटौती करनी पड़ रही है।
7 banks will not hire a single new employee in 2018 to cut costs!
2018 में 7 बैंक एक भी नया कर्मचारी बहाल नहीं करेंगे। युवा हिन्दू मुस्लिम और नेता भजन करते रहें।
SBi has shut down 7,000 branches in last 2 years
एसबीआई ने दो साल में सात हज़ार ब्रांच बंद किए हैं। नौकरियाँ गईं होंगी ?
Bank of india wil shut down 700 ATms.
बैंक आफ इंडिया 700 ATM बंद करेगा।
Indian overseas bank has shut down 10 regional offices
इंडियन ओवरसीज़ बैंक ने दस क्षेत्रीय कार्यालयों को बंद कर दिया है।
Punjab bank wil shut down 300 branches
पंजाब नेशनल बैंक 300 ब्रांच बंद करेगा।
हमारे मित्र जितेंद्र मकवाना ने इंडियन एक्सप्रेस से संकलित किया था। हमने हिन्दी अनुवाद किया है।Ravish Kumar
12 hrs ·
पाकिस्तान में एक टीवी एंकर आमिर लियाक़त हुसैन की एंकरिंग को लेकर बहस हो रही है। आमिर हुसैन जीयो टीवी पर अमान रमज़ान नाम से धार्मिक शो करते हैं। पूर्व राजनेता, धार्मिक मामलों के राज्य मंत्री रह चुके हुसैन ख़ुद को इस्लामिक विद्वान बताते हैं।
इस्लामाबाद हाईकोर्ट 10 जनवरी को हुसैन की एंकरिग, अखबारों या सोशल मीडिया में बोलने लिखने पर आजीवन रोक लगाने पर विचार करेगा। तब तक हुसैन पर अस्थाई रोक लगा दी गई है।
आमिर लियाक़त हुसैन को पाकिस्तान में टीआरपी किंग कहा जाता है। अदालत ने कहा है कि हुसैन मुल्क में नफ़रत फैलाने और लोगों को हिंसा के लिए उकसाने में लगे रहे हैं। याचिकाकर्ता का कहना है कि हुसैन अपनी लोकप्रियता का लाभ उठाकर लोगों को हिंसा और अतिवाद के लिए भड़काते हैं।
हुसैन पर आरोप है कि उन्होंने लाइव शो में अहमदिया मुसलमानों के खिलाफ हिंसक बाते कहीं। उनके पैनल में एक वक्ता ने कहा कि अहमदिया को मार देना चाहिए। उसके बाद दो लोग मार भी दिए गए।
इस साल जनवरी में पांच सेकुलर ब्लागर गुमशुदा हो गए। हुसैन ने उनके ब्लाग और फेसबुक पोस्ट निकालकर बताया कि काफिर हैं। ख़ुदा की निंदा की है। पाकिस्तान में यह आरोप साबित हो गया तो सज़ाए मौत मिल जाती है। इस मामले में पाकिस्तान की नियामक संस्था PEMRA (Pakistan Electronic Regulatory Authority) ने हुसैन की एंकरिंग पर रोक लगा दी थी।
पाकिस्तान में मीडिया आलोचक मेहदी हसन ने कहा है कि मैं अदालतों द्वारा मीडिया के नियंत्रण की वकालत नहीं करता मगर यह दुखद है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया संपादकीय निर्णयों का इस्तमाल नहीं करते हैं। टीवी एंकर रेटिंग और लोकप्रियता हासिल करने के लिए कुछ भी कर गुज़रते हैं।
मुझे आमिर हुसैन के बारे में कोई जानकारी नहीं है। उनकी एंकरिंग से कोई वास्ता नहीं रहा है। पाकिस्तान है तो एक सवाल मन में बना ही रहता है कि कहीं सेना इस एंकर को तो सेट नहीं कर रही है फिर भी आमिर हुसैन के कटेंट को ग़ौर से देखा जाना चाहिए कि वे किस हद तक अपनी एंकरिंग से समाज में नफ़रत फैला रहे हैं।
समाज को बांटने, नफ़रत फैलाने का काम तो भारत के भी एंकर कर रहे हैं। अंग्रेज़ी के एक लोकप्रिय चैनल पर एक वक्त ने तो गाली तक दे डाली। वो गाली जिसे आप अपने बच्चों को नहीं सुनने देना चाहेंगे। टीवी हर तरफ बर्बाद माध्यम होता जा रहा है। इसकी नियति ही है कि सत्ताधारी नेता का पांव पोंछने वाला कपड़ा बनकर रहे।
टीआरपी के नाम पर इस माध्यम को पंगु को बनाना सबसे आसान है। खासकर जो नेता टीवी के ज़रिए सत्ता में आए हैं, वो ज़्यादा ही टीवी पर अंकुश लगाते हैं क्योंकि उन्हें डर रहता है कि कोई दूसरा टीवी के ज़रिए सत्ता में न आ जाए। भारत में भी न्यूज़ चैनल और एंकर धार्मिक उन्माद फैलाते रहते हैं।
(स्टोरी वॉयस ऑफ अमरीका की है जिसे मदीहा अनवर ने लिखा है। इनके परिचय से पता चलता है कि वाशिंगटन में वॉयस ऑफ अमरीका में धार्मिक अतिवाद पर नज़र रखने के लिए अलग से डेस्क है। काश भारत में भी संस्थाएं इस तरह नज़र रखतीं। )Ravish Kumar
13 hrs ·
अजीब लम्हें गुज़र रहे हैं। जिनकी सोहबत में साल के साल बिता दिए, उन्हें जुदा होते देखना बर्दाश्त के बाहर होता जा रहा है। सब कुछ बिखरता हुआ लग रहा है। जिन चेहरों के देख लेने से कुछ कर पा लेने का जुनून पैदा हो जाता था, उन्हें मु्ट्ठी से रेत की तरह फ़िसलता देख ख़ुद के क्षणभंगुर होने का अहसास हो रहा है। किसी करवट न नींद है, न किसी ख़्याल में कोई सुकून। कई बार लगता है कि उनके छूटते हाथों को थाम लूं। सब बेकार है। मन तार तार हो गया है। जिन्हें इस पर ख़ुशी मिल सकती है, उनका कलेजा वाक़ई पत्थर का होता होगा, वो शायद अमर भी होते होंगे। टीवी में आप अकेले कुछ नहीं होते हैं। बहुत लोग मिलकर बनाते हैं। उनके चले जाने भर से आप वैसे ही मिट जाते हैं जैसे कभी कुछ थे ही नहीं। काश कुछ कर पाता किसी के लिए। लिखो मत लिखो, बोलो मत बोलो, उसका क्या करें जो भीतर भीतर गूंज रहा है। उस शोर से कहां भागे। किधर जाएं। क्या मनुष्य होकर रह पाना, इतना असंभव है।Ravish Kumar
13 hrs ·
जीवन्त मे शत्रुगणा: सदैव, येषाम प्रसादात सुविचक्षणोsम्
यदा यदा मे विकृतिं लभन्ते, तदा तदा माम प्रतिबोधयन्ति
जिन नेताओं को आलोचना बर्दाश्त नहीं होती है, उनके लिए संस्कृत का यह सुभाषित पेश कर रहा हूं। सत्ता में आकर उदारता का लक्षण जिसने हासिल नहीं किया, उसके पास सिर्फ काठ की कुर्सी ही रह जाती है। संस्कृत का पुराना सुभाषित है। टंकण त्रुटि की माफी के साथ इसका अर्थ वही है जो
निंदक नियरे राखिए का है।
हमारे शत्रुगण सदा जीते रहे, जिनकी कृपा हमारी आंखें खुली रहती हैं। जब जब मुझमें कोई कमी आती है, तब तब हमको हमारे आलोचक जगा देते हैं।Ravish Kumar
24 December at 15:33 ·
जीडीपी के आंकड़ों पर यकीं मत करो, बोगस हैं- स्वामी
सुब्रमण्यिन स्वामी भाजपा नेता हैं और राज्यसभा सदस्य हैं। अहमदाबाद में चार्टर्ड अकाउंटेंट की सभा में जो कहा है, उसे इंडियन एक्सप्रेस ने पेज नंबर 9 के किसी कोने में छापा है। मैं उनके बयान का हिन्दी अनुवाद पेश कर रहा हूं।
“ कृपया जीडीपी के तिमाही आंकड़ों पर भरोसा न करें। सब के सब बोगस हैं। मैं बता रहा हूं क्योंकि मेरे पिता ने सेंट्रल स्टेस्टिकिल आर्गेनाइज़ेशन(CSO) की स्थापना की थी। हाल ही में मंत्री सदानंद गौड़ा के साथ मैं वहां गया था। मैंने सीएसओ के अधिकारी को बुलाया क्योंकि उन पर दबाव था कि नोटबंदी पर डेटा छापे। इसलिए उन्होंने जीडीपी का डेटा छापा कि नोटबंदी का कोई असर नहीं हुआ है। मैं बहुत नवर्स हो रहा हूं क्योंकि असर तो हुआ है। इसलिए मैंने सीएसओ के निदेशक से पूछा कि आपने इस तिमाही की जीडीपी का अनुमान कैसे लगाया, नोटबंदी तो नवंबर में हुई थी और आपने एक फरवरी 2017 को छपा हुआ आर्थिक सर्वे दे दिया। इसका मतलब है कि कम से कम तीन हफ्ता पहले छपने के लिए गया होगा। यानी आपने जनवरी के पहले सप्ताह में रिपोर्ट जमा कर दी होगी और आपने जीडीपी की गिनती भी कर ली कि नोटबंदी का कोई असर नहीं हुआ है। आपने कैसे गिनती कर ली?”
तब उस अधिकारी ने मुझे बताया कि मैं क्या कर सकता था। मुझ पर डेटा देने का दबाव था। इसलिए मैंने आंकड़ें दे दिए। किसी भी तिमाही आंकड़े पर भरोसा मत कीजिए। स्वामी ने यह भी कहा कि मूडी और फिचेस की रेटिंग पर यकीन मत कीजिए। आप उन्हें पैसा देकर कोई भी रिपोर्ट प्रकाशित करवा सकते हैं।स्वामी के बयान को कब हल्का समझना है और कब गंभीर वही जाने और बीजेपी के लोग जाने मगर उनका ही सांसद अगर ये बात कहे कि दबाव डालकर जीडीपी के आंकड़े प्रकाशित किए जा रहे हैं तो उसका जवाब तो आना ही चाहिए।
रविश जी अक्सर अपने तकलीफो और बोझो की बात करते हे सही भी हे मगर में भी शोले के इमाम साहब की तरह गिरते पड़ते यही कहूंगा की कौन ये बोझ नहीं उठा सकता हे भाई , इस दुनिया में एक सेकुलर भारतीय मुस्लिम वो भी सुन्नी वो भी देवबंदी इससे बड़ा बोझ और सर का दर्द दुनिया में और कोई नहीं हे जो हम पर हे हमने खुद लिया हे रविश के लिए तो फिर भी बहुत खुशिया हे हमारे लिए तो आज घना अन्धकार ही हे जिसमे हाथ को हाथ नहीं सूझता हे अब देखिये जब से छोटे इकबाल का नाम आप की राजयसभा सीट के लिए आया हे बहुत से लोग तो खुश हे मगर तनाव से हम तो छाती पकड़ कर बैठ गए हे कल की ही तो बात हे की हम भी आप की राजयसभा सीट के लिए कुमार विश्वास आधे आपि आधे भाजपाई का विरोध कर रहे थे हमें क्या पता था की हमें उससे भी अधिक तकलीफ का सामना करना पड़ सकता हे आप और केजरीवाल से फिर मोदी को रोकने के लिए राजयसभा से उसकी सीट्स से बड़ी उमीदे हे मगर ऐसा कदम ——– ? गलती केजरीवाल की भी तो नहीं हे वो किसी मुस्लिम को भेजना चाह रहे होंगे मगर मुसलमानो में शुद्ध सेकुलर लिबरल विचारक प्रचारक नाम हे ही कहा, हे इसलिए नहीं की ये काम हे ही इतना मुश्किल कौन करे —– ? फिर अजीब नंग से लेकर एम् जे अकबरो की अवसरवादिता हम देख ही चुके हे तो मुसलमानो में ऐसे नाम ही नहीं जो आप के लिए राजसभा में जाए और सेकुलरिज्म को मज़बूत करे नतीजा इस विक्टिमहुड सेलर की लाटरी लग जायेगी और जो भी हो आख़िरकार तो ये लोग भाजपा को ही मज़बूत करेंगे हमने तो मुसलमानो को भाजपा के उदय और आज के अंधकार की भविष्वाणी 2002 2003 में ही कर दी थी तब मुस्लिम महफ़िलो में हम पागलखाने से छूटे समझा जाता था
Ravish Kumar
9 hrs ·
क्या जीएसटी ने नए नए चोर पैदा किए हैं?
फाइनेंशियल एक्सप्रेस के सुमित झा ने लिखा है कि जुलाई से सितंबर के बीच कंपोज़िशन स्कीम के तहत रजिस्टर्ड कंपनियों का टैक्स रिटर्न बताता है कि छोटी कंपनियों ने बड़े पैमाने पर कर चोरी की है।
कंपोज़िशन स्कीम क्या है, इसे ठीक से समझना होगा। अखबार लिखता है कि छोटी कंपनियों के लिए रिटर्न भरना आसान हो इसलिए यह व्यवस्था बनाई गई है। उनकी प्रक्रिया भी सरल है और तीन महीने में एक बार भरना होता है।
आज की तारीख़ में कंपोज़िशन स्कीम के तहत दर्ज छोटी कंपनियों की संख्या करीब 15 लाख है। जबकि सितंबर में इनकी संख्या 10 से 11 लाख थी। इनमें से भी मात्र 6 लाख कंपनियों ने ही जुलाई से सितंबर का जीएसटी रिटर्न भरा है।
क्या आप जानते हैं कि 6 लाख छोटी कंपनियों से कितना टैक्स आया है? मात्र 250 करोड़। सुमित झा ने इन कंपनियों के चेन से जुड़े और कंपनियों के टर्नओवर से एक अनुमान निकाला है। इसका मतलब यह हुआ कि इन कंपनियों का औसत टर्नओवर 2 लाख है। अगर आप पूरे साल का इनका डेटा देखें तो मात्र 8 लाख है।
समस्या यह है कि जिन कंपनियों का या फर्म का सालाना 20 लाख से कम का टर्नओवर हो उन्हें जीएसटी रिटर्न भरने की ज़रूरत भी नहीं है। इसका मतलब है कि छोटी कंपनियां अपना टर्नओवर कम बता रही हैं।
आप जानते ही हैं कि दस लाख कंपनियों का आडिट करने में ज़माना गुज़र जाएगा। इस रिपोर्ट के आधार पर कहा जा सकता है कि बड़े पैमाने पर कर चोरी की छूट दी जा रही है। बस हो यह रहा है कि कोई आंख बंद कर ले रहा है क्योंकि उसका काम स्लोगन से तो चल ही जा रहा है।
आखिर जीएसटी के आने से कर चोरी कहां बंद हुई है? क्या 20 लाख से कम के टर्नओवर पर रिटर्न नहीं भरने की छूट इसलिए दी गई ताकि कंपनियां इसका लाभ उठाकर चोरी कर सकें और उधर नेता जनता के बीच ढोल पीटते रहें कि हमने जीएसटी लाकर चोरी रोक दी है।
क्या आपने किसी हिन्दी अखबार में ऐसी ख़बर पढ़ी? नहीं क्योंकि आपका हिन्दी अख़बार आपको मूर्ख बना रहा है। वह सरकारों का पांव पोछना बन चुका है। आप सतर्क रहें। बहुत जोखिम उठाकर यह बात कह रहा हूं।
सुमित झा ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि जीएसटी फाइल करने को आसान बनाने के नाम पर राजनेता से लेकर जानकार तक यह सुझाव दे रहे हैं कि कंपोज़िशन स्कीम के तहत कंपोज़िशन स्कीम के तहत डेढ़ करोड़ के टर्नओवर वाली कंपनियों को भी शामिल किया जाए।
यह ज़रूर कुछ ऐसा खेल है जिसे हम आम पाठक नहीं समझते हैं मगर ध्यान से देखेंगे तो इस खेल को समझना इतना भी मुश्किल नहीं है।
सुमित के अनुसार डेटा के विश्लेषण से साफ होता है कि कंपोज़िशन स्कीम के तहत 20 लाख टर्नओवर की सीमा को बढ़ा कर डेढ़ करोड़ करने की कोई ज़रूरत नहीं है बल्कि टैक्स चोरी रोकने के लिए ज़रूरी है कि 20 लाख से भी कम कर दिया जाए।
बिजनेस स्टैंडर्ड में श्रीमि चौधरी की रिपोर्ट पर ग़ौर कीजिए। CBDT ( central board of direct taxex) को दिसंबर की तिमाही का अग्रिम कर वसूली का के आंकड़ो को जुटाने में काफी मुश्किलें आ रही हैं। दिसंबर 15 तक करदाताओं को अग्रिम कर देना होता है। सूत्रों के हवाले से श्रीमि ने लिखा है कि चोटी की 100 कंपनियों ने जो अग्रिम कर जमा किया है और जो टैक्स विभाग ने अनुमान लगाया था, उसमें काफी अंतर है। मिलान करने में देरी के कारण अभी तक यह आंकड़ा सामने नहीं आया है।
राम जाने यह भी कोई बहाना न हो। इस वक्त नवंबर की जीएसटी वसूली काफी घटी है। वित्तीय घाटा बढ़ गया है। सरकार ने 50,000 करोड़ का कर्ज़ लिया है। ऐसे में अग्रिम कर वसूली का आंकड़ा भी कम आएगा तो विज्ञापनबाज़ी का मज़ा ख़राब हो जाएगा।
बिजनेस स्टैंडर्ड से बात करते हुए कर अधिकारियों ने कहा है कि हर तिमाही में हमारे आंकलन और वास्तविक अग्रिम कर जमा में 5 से 7 फीसदी का अंतर आ ही जाता है मगर इस बार यह अंतर 15 और 20 फीसदी तक दिख रहा है। इसका कारण क्या है और इस ख़बर का मतलब क्या निकलता है, इसकी बात ख़बर में नहीं थी। कई बार ख़बरें इसी तरह हमें अधर में छोड़ देताी हैं।
स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के तहत सरकार ने 60 शहरों के लिए 9,860 करोड़ रुपये जारी किए थे। इसका मात्र 7 प्रतिशत ख़र्च हुआ है। करीब 645 करोड़ ही। रांची ने तो मात्र 35 लाख ही ख़र्च किए हैं। झारखंड के मुख्यमंत्री अखबारों में तो ऐसे विज्ञापन दे रहे हैं जैसे हकीकत किसी को मालूम ही न हो।
स्मार्ट सिटी के तहत 90 शहरों का चयन किया गया है। हर शहर को स्मार्ट होने के लिए 500 करोड़ दिए गए हैं। आप थोड़ा सा दिमाग़ लगाएंगे तो समझ सकते हैं कि इस पैसे से क्या हो सकता है। फर्ज़ी दिखावे के लिए दो चार काम हो जाएंगे, कहीं दस पांच डस्टबिन और फ्री वाई फाई लगा दिया जाएगा बस हो गया स्मार्ट सिटी। इसके नाम पर शहरों में रैलियां निकलती हैं, लोग रोते हैं कि हमारे शहर का नाम स्मार्ट सिटी में नहीं आया, नाम आ जाता है, मिठाई बंट जाती है और काम उसी रफ्तार से जिस रफ्तार से होता रहा है।
स्मार्ट सिटी के एलान वाली ख़बर तो पहले पन्ने पर छपती है क्योंकि इससे आपको सपना दिखाया जाता है। सात प्रतिशत ख़र्च का मतलब है कि स्मार्ट सिटी फेल है। इसकी ख़बर पहले पन्ने पर क्यों नहीं छपती है, आखिरी पन्ने पर क्यों छपती है। आप अपने अपने अखबारों में चेक कीजिए कि स्मार्ट सिटी वाली ये ख़बर किस पन्ने पर छपी है। पीटीआई की है तो सबको मिली ही होगी।
बाकी सारा काम नारों में हो रहा है। आई टी सेल की धमकियों से हो रहा है और झूठ तंत्र के सहारे हो रहा है। जय हिन्द। यही सबकी बात है। यही मन की बात है।
नोट: अख़बार ख़रीदना अख़बार पढ़ना नहीं होता है। पढ़ने के लिए अख़बार में ख़बर खोजनी पड़ती है। किसी भी सरकार का मूल्यांकन सबसे पहले इस बात से कीजिए कि उसके राज में मीडिया कितना स्वतंत्र था। सूचना ही सही नहीं है तो आपकी समझ कैसे सही हो सकती हैRavish Kumar
Yashwant Singh
16 hrs ·
‘ना’ कहने का सुख….
रोजाना अलग अलग किस्म के मेल आते हैं… धंधा-पानी से लेकर क्रांति तक के… आंसू से लेकर एवार्ड तक के… आज बात धंधे की करते हैं… एक पीआर कंपनी ने अंग्रेजी में लंबा चौड़ा मेल किया जिसका दो लाइन में अर्थ ये था कि वे एजुकेशन से जुड़े आठ आर्टकिल भड़ास पर छपवाएंगे और प्रति आर्टकिल हजार रुपया देंगे.
मैंने उन्हें हिंदी में जवाब लिखा कि रेट दो हजार प्रति आर्टकिल लगेगा…और हर आर्टकिल के लास्ट में प्रमोशनल कंटेंट या स्पांसर्ड टाइप कुछ न कुछ लिखा जाएगा…
कहने का आशय ये कि जो चीज उनके लिए आर्टकिल है, वह मेरे लिए पेड हो जाने की वजह से प्रमोशनल कंटेंट या एडवरटिजमेंट हो गया… जब आप पैसा देंगे तो वो आर्टकिल नहीं रह गया. वह प्रमोशनल कंटेंट हो गया. उसे रुटीन के आर्टकिल से अलग करने के लिए उसके लास्ट में कुछ न कुछ मेंशन करना पड़ेगा…
भड़ास का कोई रेट नहीं है… जैसा बंदा दिखे, वैसा रेट पेश कर दो… यही मार्केटिंग का सिद्धांत भी है… उसने हजार रुपये कहा तो मैंने डबल करके दो हजार कह दिया… असल बात अब शुरू होती है…
अबकी उस बंदे का जवाब अंग्रेजी की बजाय हिंदी में आया… इससे एक बात तो तय है कि आपको हमको हिंदी में संवाद व लेखन को लेकर हीन भावना से ग्रस्त होने की जरूरत नहीं है… अंग्रेजी वाले मजबूर होकर हिंदी सीखेंगे, अगर उन्हें हिंदी मार्केट में धंधा करना है तो… और, हिंदी मार्केट, हिंदी देस इतना बड़ा है कि उन्हें कदमों तले आना ही होगा….
उसने हिंदी में लिखा कि दो हजार दे देंगे प्रति आर्टकिल लेकिन आर्टकिल के लास्ट में कुछ भी नहीं जाएगा…
तब मैंने उनसे कहा- नो प्लीज. तब न हो पाएगा. कुछ न कुछ लास्ट में जरूर जाएगा ताकि इस पेड कंटेंट को बाकी कंटेंट से अलग कर सकें.
मेलबाजी का स्क्रीनशाट लेकर उसे थोड़ा एडिट कर यहां पोस्ट किया हूं. इसमें पहली वाली अंग्रेजी में आई मेल नहीं दिया हूं. जिसने मेल भेजा, उनका नाम पहचान गायब किया हूं. क्योंकि निजता का सम्मान करना चाहिए.
यहां इसे शेखी बघारने के लिए पोस्ट नहीं कर रहा बल्कि यह बताने के लिए कर रहा कि ‘ना’ कहने में बहुत सुख मिलता है. लबलबाह बनकर नहीं जीना चाहिए.. दाल रोटी खाने भर सबके पास कुछ न कुछ है. बाकी जो तामझाम पाने की इच्छा है, वह बाजार और समाज ने हमारे दिमाग में जबरन ठूंस रखा है….
मुझे याद है वो रातें जब फोन पर एक-एक करोड़ की डील करने का आफर मिलता था, किसी खास कंटेंट को हटाने और आगे से दोस्ती रखने का वास्ता देकर… तब उनको गाली देते हुए एक ही बात कहता था कि भो…ड़ी के, इतना पैसा तुम अपनी गां… में डाल लो… मेरा खर्चा जितने से चल जाता है, उससे डबल खुद ब खुद कमा लेता हूं…
मतलब, स्टिंग वे मेरा क्या करते, मुझे क्या फांसते, गरिया कर और कर्रा वाला जवाब देकर मैं ही उनका स्टिंग कर लेता… उन्हें डिमोरलाइज कर देता… ऐसे दर्जनों मामले हैं जिसमें मीडिया हाउसेज से लेकर ब्रोकर्स तक ने अजीब अजीब आफर भेजकर ट्रैप करने की कोशिश की लेकिन जो शाम को दो पैग माकर ”न सोना साथ जाएगा न चांदी जाएगी, सजधज के जिस दिन मौत की शहजादी आएगी” गाते हुए आनंदित होता हो… उसे कोई क्या फांस सकेगा….
भड़ास के एक दशक यूं ही नहीं पूरे हो गए. अगर प्रतिबद्धता, सरोकार, धैर्य, कंटेंट और विजन मजबूत न हों तो साल दो साल में एक से एक वेंचर टें बोल जाते हैं…
भड़ास कभी कोई वेंचर नहीं रहा.. इसे अनगढ़ देसी टाइप रखने में ज्यादा खुशी महसूस करता हूं… हमारा मूल हमारी बुनियाद असल में अनगढ़ आदिम और देसी ही होती है जिसे झूठ का नकली पोलिश मार मार कर चमकाते हुए एलीट बना देते हैं जिसके बाद दांत चियार लाइफ जीते हुए ताउम्र धंधा-पानी के मकड़जाल में फंसे रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता…
भड़ास के एक दशक का उत्सव जल्द…. दिल्ली में… दिन तारीख समय सब बतााया जाएगा… बताए जाएंगे उनके नाम और काम भी जिन्हें भड़ास सम्मानित करेगा…
जै जै