यह सच है कि सन 1931 के बाद, जनगणना में गैर-अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति जाति समूहों के जाति के आकड़े जमा नहीं किये गये। इसी लिए मंडल आयोग ने 1931 की जनगणना के आधार पर ओबीसी आबादी 52% होने का अनुमान लगाया. लेकिन मंडल आयोग के इस आकलन पर बहुत से सवाल उठे इसमें सबसे महत्वपूर्ण यह था कि “अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति, मुसलमानों और अन्य की संख्या को कम करके फिर एक संख्या पर पहुंचने पर आधारित यह एक कल्पित रचना है।” चाहे जो हो पर यह मानना पड़ेगा की देश में पिछड़ों की आबादी सभी वर्गो से ज्यादा है ।राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के 1999-2000 (एनएसएस 99-00) चक्र के अनुसार देश की आबादी में पिछड़ा वर्ग की आबादी लगभग 36 प्रतिशत थी। मुसलमान ओबीसी को हटा देने से अनुपात 32 प्रतिशत पर ठहरता है।मैं यहाँ पिछड़ों की आबादी की बात इसलिए कर रहा हूँ कि ये बता सकूँ की भारतीय समाज में पिछड़े समाज की कितनी बड़ी हिस्सेदारी है। मैं अपने इस लेख में इसी पिछड़े समाज को लेकर जो खेल हुआ है उसपर चर्चा करना चाहूँगा। मैं इतिहास की एक घिनौनी राजनीतिक षड्यंत्र पर बात करने की कोशिश करूंगा जिसने भारत के सामाजिक इतिहास को बहुत ज्यादा रक्तरंजीत किया है।
इसी साजिस की तरफ इशारा करते हुए मण्डल कमीशन के रिपोर्ट यह कहती है कि ‘1952 का जमीदारी उन्मूलन ने उत्तर प्रदेश के राजनीतिक अर्थव्यवस्था को पूर्णतः अस्तव्यस्त नहीं किया। बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण और राजपूतों का गांवो के शक्ति के ढांचे और व्यवस्था पर अब भी काफी प्रभाव है। यहाँ महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडू की तरह शक्ति का कोई स्पष्ट विभाजन नहीं रहा। उत्तर प्रदेश में बिहार की तरह ऊंची जातियों में फूट या कर्नाटक और तमिलनाडु की तरह ऊंची जातियों और पिछड़ी जातियों में फूट क्यों नहीं रही इसका एक अन्य कारण है । संयुक्त प्रांत 1920 और 1930 के वर्षों के दौरान मुस्लिम लीग का गढ़ रहा। हिन्दू मुस्लिम या कांग्रेस लीग की फूट से यह सवर्ण अवर्ण की फूट कम महत्वपूर्ण रही।’ मतलब साफ है कि पिछड़ी और दलित जातियाँ अपने अधिकारों या अपने हक के लिए उच्च वर्णों के खिलाफ प्रतिरोध के लिए तैयार होतीं उससे पहले उनके सामने मुस्लिमों को खतरा के रूप में पेश किया जा चुका था। दलित, पिछड़े अपने हक और हुकुक की लड़ाई को याद भी न कर पाएँ इसके लिए उन्हे डराना जरूरी है, और यह डर पैदा की जा सकती है मुसलमानों को सामने रखकर। संसाधनों पर कब्जा जमाए मुट्ठी भर लोग अपने इस वर्चस्व को टूटने से बचाने के लिए बार बार मुसलमानों को सामने करके सवर्ण और अवर्ण के बीच संसाधनों की समुचित भागीदारी के संघर्ष को तथाकथित हिन्दुत्व के नाम पर दबाते रहे हैं।
उना प्रकरण और प्रतीकों की राजनीति का खतरनाक खेल- आज कट्टर हिन्दुत्व के तथाकथित ठेकेदार न सिर्फ सवर्ण जातियाँ हैं बल्कि ब्रामणवाद की ब्रेनवास की शिकार ओबीसी जातियों के लोग भी शामिल हैं। हिंदू धर्म का मूल चरित्र ही दलित विरोधी है, इसीलिए हिन्दुत्व के पैरोपकार पिछड़ी जाति के लोग भी दलित विरोधी हो गए। इसका मूल चरित्र उत्तर प्रदेश में साफ देखा जा सकता है। जबकि धर्मशास्त्र का इतिहास लिखते हुए से तोकारेव ने बहुत साफ कहा था कि ‘ऊपर के तीन ही वर्णों के देवता थे और पूजा करने का अधिकार सिर्फ ऊपर के तीन वर्णों को ही था शूद्रों को इससे बाहर रखा जाता था। हिंदू धर्म का पहला मुक़ाबला बौद्ध धर्म से हुआ जिसमें दमित और प्रताड़ित शूद्र बहुत तेजी से बुद्ध के पिछे होने लगे तब ब्राह्मण धर्म अर्थात हिंदू धर्म ने अवतारों की कल्पना करते हुए धर्मशस्त्र के नियमों में ढील देते हुए अछूत जातियों को कुछ धार्मिक अधिकार दिए’’ इसके बावजूद आज तक मंदिर प्रवेश या सामाजिक भेदभाव के तमाम मामलों में दलितों का भयानक अत्याचार जारी है। दलित का जीवन पशुओं से बदतर तब भी था और आज भी है । गाय का मामला पूरी तरह राजनीतिक है । वर्ण व्यवस्था के प्रकर्म में भयानक रूप से बंटे हिंदू समाज में दलित बहुत साजिस के साथ शामिल किए गए तो भी उन्हे हाशिये पर रख दिया गया। जब बार बार हिंदू समुदाय के शोषित जातियों को लगता कि हिंदू समाज में हमारा कोई आस्तित्व नहीं है तो वह अन्य धर्मों कि तरफ ताक झांक करने लगता । तो सभी को हिंदू समाज में बनाए रखने के लिए ब्राह्मणवादी ताकतों ने एक साजिस रची वह यह थी कि किसी तरह इस्लाम के प्रभुत्व का डर पैदा कर इन असन्तुष्ट शोषित जातियों को अपने साथ बनाए रखा जाय । इसके बाद शुरू हुआ मुसलमानों के खिलाफ नफरत और जहर का दौर जिसमें उन प्रतिकों को को चुना गया जिसके प्रयोग से मुस्लिम समाज में कुछ नाराजगी हो विरोध हो …बंदे मातरम,,, भारत माता की जय …गीता ….से होते हुए यह खतरनाक प्रतिकों की राजनीति गाय तक पहुंची। गाय वह सबसे खतरनाक राजनीतिक प्रतीक थी जिससे मुस्लिम समाज के खिलाफ हिंदुओं की गोलबंदी हो सकती थी। इस दौर में एकलाख इसी प्रतिकों की राजनीति का शिकार हुआ । ये हिन्दुत्व और गाय के ठेकदार कभी नहीं चाहते थे कि इस प्रतिकों की राजनीति में दलित शामिल हो जाय । उन्हे तो हिन्दुत्व के किसी भी प्रतीक के आधार पर मुस्लिमों का विरोध करना था जिससे नाराज और बिखरते हुए हिंदू समाज को एक साथ लाया जाय और अपना वर्चस्व कायम रहे। इसीलिए आप देखिए तत्काल रूप से हिन्दुत्व के ठेकेदार ऊना के मुद्दे पर चुप्पी साधे रहे और जब लगा कि पासा पलट गया है तो दलितों के हितैसी बनने कि होड़ सी लग गयी है। पर इस प्रसंग में मुस्लिमों को लेकर किसी का बयान नहीं आया । तो मामला साफ है ये तथाकथित हिन्दुत्व के ठेकेदार के लिए गाय एक राजनीतिक प्रतीक है न कि माँ …इधर तमाम गो शालाओं और गुजरात की सड़कों पर गायों के देखकर इसे पुष्ट कर सकते हैं । तो अपने वर्चस्व को बनाए रखने के इस खेल में सब उनके लिए हथियार हैं और सब शिकार भी ।
ब्राह्मणवादी वर्चस्व के खिसकने का भय और मुसलमानों का ढाल के रूप में उपयोग –
जब जब उन्हें ये लगने लगा है कि दलित पिछड़ा अपने हक़ हुकूक के लिए उनके वर्चस्व के खिलाफ खड़ा होने लगा है, तब तब वे मुस्लिमों को सामने लाकर हिंदुत्व के मोह जाल में दलित पिछड़ों को लपेटकर अपने तरफ की तोप का मुख मुसलमानों के खिलाफ मोड़ दिया है। इतिहास की एक एक तारीख इसकी गवाह है। इस संदर्भ में मंडल आंदोलन के बाद बाबरी विध्वंश को सही तरीके से समझा जाना चाहिए। आरक्षण का विरोध करते हुए धार्मिक गोलबंदी करके दलित पिछड़ों को दंगो में गाजर मूली की तरह कटवाने वाले इतिहास को पढ़ा जाना चाहिए। हिंदुस्तान के एक एक दंगे के इतिहास को बार बार पढ़ते हुए उन सवालों की खोज की जानी चाहिए कि उसमें मारे जाने वाले लोगों में दलित पिछड़ों की संख्या ही सबसे ज्यादा क्यों है??
फूट डालो और राज करो कि नीति अंग्रेजों की नहीं बल्कि शुद्ध भारतीय सिद्धांत है –
फूट डालो और राज करो की नीति अंग्रेजों की नहीं थी बल्कि वे यहाँ शासन करने के तरीके के खोज के क्रम में ब्राह्मणवादी व्यवस्था से उसे सीखे थे।अंग्रेजों ने देखा होगा कि कैसे मुट्ठी भर लोग भारतीय समाज को वर्ण और जातियों में बाँट कर ‘फूट डालो और राज करो की नीति’ के तहत यहाँ के संसाधनों पर कब्जा जमाकर अपने वर्चस्व को कायम कायम किए हुए हैं। तो इस सिद्धांत का प्रयोग अंग्रेजों ने हिंदू और मुसलमानों में फूट डालकर अपनी सत्ता को भारत में मजबूत करने के लिए किया।
पिछड़ी जातियों के राजनीतिकरण का सामंती मॉडल – पिछड़ी जातियों का राजनीतिकरण सामंती तरीके से ही हुआ है। फुले, पेरियार, अंबेडकर, ललई सिंह यादव और जगदेव कुशवाहा के विचारों को जानबुझकर ब्लॉक किया गया, क्योंकि अगर ये विचार दलित पिछड़ों के बीच फैल गए होते तो उत्तर प्रदेश का दलित पिछड़ा अपने आस्तित्व और अस्मिता की पहचान करते हुए हिन्दुत्व के खूंखार इरादों को खारिज कर देता । लेकिन ऐसा हुआ नहीं यही कारण है कि आर्थिक रूप से मजबूत होने वाली पिछड़ी जातियाँ सवर्ण जातियों के सामंतों की तरह सामंती प्रवृत्ति की होती गईं और पिछड़ी जातियाँ के अधिकांश लोग आर्थिक रूप मजबूत होकर गांवों में नवसामंत की भूमिका निभाने लगे। क्योंकि आर्थिक परिवर्तन होने के बावजूद उनका विकास ब्राह्मणवादी मॉडल पर ही हुआ। फुले, पेरियार, अंबेडकर और ललई सिंह यादव के सांस्कृतिक मॉडल इन लोगों तक पहुंचा ही नहीं। इसका कारण यह है कि उत्तर प्रदेश में फुले, पेरियार, अंबेडकर और ललई के सांस्कृतिक आंदोलन के विरुद्ध कई ऐसे तत्व रहे जिन्होने इस सांस्कृतिक आंदोलन को पनपने ही नहीं दिया । ऐतिहासिक मंडल कमीशन रिपोर्ट में इस बात को महत्वपूर्ण ढंग से रेखांकित किया गया है –‘उत्तर प्रदेश के पिछड़े वर्ग हिंदू संस्कृति प्रधान मध्यस्थल में रहने के कारण और चारों ओर प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों और मंदिरों के होने के कारण ब्राह्मणवाद को अस्वीकार करने के लिए तैयार नहीं किए जा सके’।
सांस्कृतिक आंदोलन को कमजोर करने में पिछड़े वर्ग के बाबाओं की भूमिका – आजादी के बाद पिछड़े वर्ग से संत कहे जाने वाले बहुत से बाबाओं का आविर्भाव हुआ । दरअसल ये बाबा पुरोहितवाद का नया मसीहाई रूप में पिछड़ी जनता के सामने आए । पिछड़े वर्ग से डिक्लास हो चुके इन बाबाओं ने धर्म में गहरे रूप धँसी जनता को और अधिक धार्मिक बनाया, जिसका फायदा हिन्दुत्व की राजनीति करने वाली पार्टियों और संगठनो ने भरपूर उठाया। इन बाबाओं ने फुले, पेरियार, अंबेडकर , ललई और जगदेव कुशवाहा के क्रांतिकारी विचारों का गला घोटते हुए, पूरे प्रदेश में सांस्कृतिक आंदोलन को लगभग खत्म कर दिया। धर्म भावना की चीज है तर्क की नहीं जैसे जुमले उछालकर जनता को लगातार अंधविश्वास में धकेला गया। तर्क और सोचने की शक्ति क्षीण हुई इसी कारण मानसिक गुलामी के खिलाफ चलने वाला सांस्कृतिक आंदोलन बुरी तरह फेल हो गया। पेरियार ललई और फुले के सांस्कृतिक नवजागरण को खत्म करने में तथा ब्राह्मणवाद की गुलामी की जंजीरों को मजबूत बनाने इन बाबाओं की बहुत बड़ी भूमिका है।
‘राजनीति में जातिवाद’ सवर्णवादी कुंठा से निकला एक मुहावरा है – यह जातियों के राजनीतिकरण का ही परिणाम है कि किसी प्रदेश में होने वाले चुनाव से पहले वहाँ के जातीय समीकरण के अनुसार केंद्र में मंत्रीयों का चयन हो जाता है । रजनी कोठारी ने कहा था कि ”जिसे राजनीति में जातिवाद कहा जाता है वह मूलतः जातियों का राजनीतिकरण है ।” सबसे ज्यादा ‘जातिवादी राजनीति’ का रोना रोने वाले लोग यह कभी नहीं चाहते थे कि जातियों का राजनीतिकरण हो ….क्योंकि जब जातियों का राजनीतिकरण नहीं हुआ था उस दौर में पिछड़े और दलितों के 300 घरों वाले गाँव में सिर्फ एक घर सवर्ण कितनी बार मुखिया बनता रहा । यही स्थिति कमोवेश एमपी और एमएलए के चुनावों में भी रहती थी।.यह ध्यान रहे जातियों के राजनीतिकरण ने ही मुट्ठी भर वर्चस्वशाली जातियों के एकाधिकार को तोड़ा और इस लोकतन्त्र में आम जनता की सक्रिय भागीदारी हुई .। भारत में 80 से 90 प्रतिशत सवर्ण अपनी दोनों सवर्णवादी पार्टियों कांग्रेस और भाजपा से जुड़े रहे/जुड़े हैं । राजनीति में जातिवाद तब तक नहीं था जब तक दलित पिछड़ो की राजनीतिक हिस्सेदारी नहीं थी। पर जैसे ही दलित पिछड़ो में राजनीतिक समझदारी आयी उन्होने इस देश की लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में अपनी उपस्थिती दर्ज कराई वैसे ही एक नया मुहावारा वर्चस्वशाली समूहों ने उछाला ‘जातिवादी राजनीति’॥ यह मुहावरा मीडिया में बैठे उन तमाम सवर्ण जनों का है जिन्हे जातिवार जनगणना से जातिवाद बढ़ने का सातिराना खतरा नजर आता है। यह मुहावरा उन्ही सवर्ण जन मीडिया वालों का है जिन्हे 90 प्रतिशत सवर्ण वोट लेकर लोकसभा चुनाव जीतने वाली भाजपा जातिवादी पार्टी नजर नहीं आती।
समस्या से ग्रस्त दलित पिछड़ा नेतृत्व- दरअसल जातियों के राजनीतिकरण के बाद जो पिछड़ा और दलित नेतृत्व उभरा उसमें से अधिकांश की समझदारी मानसिक गुलामी वाली थी। कुछ को छोड़ दें तो अधिकांश ने जिस वैचारिक एजेंडे पर अपनी राजनीति शुरू की थी उसी का गला घोटते नजर आए। जैसा की वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश कहते हैं कि ‘इन दलित, पिछड़े नेतृत्व ने कभी अपने समाज के पढे लिखे लोगों को महत्व नहीं दिया।’ यह कोई मामूली बात नहीं है यह एक भयानक किस्म का सच है जो अपने इतिहास को दोहरा रहा है। वह इतिहास जिसमें संत साहित्य के क्रांतिकारी सामाजिक विचारों और न्याय की लड़ाई को तुलसीदास जैसे ब्राह्मणवादी कवियों ने पूरी तरह खत्म कर देने की कोशिश की। आज यही हो रहा है सामाजिक न्याय की मसीहाई का दावा करने वाली अधिकांश पार्टियों ने अपने करीब एक सवर्ण अल्पजन की इस तरह की जमात खड़ी कर ली है जो अपने सुझाओ से इन पार्टियों को खत्म करने पर तुले हुए हैं। ये सवर्ण अल्पजन ही इन पिछड़े दलित नेताओं को सबसे बड़े वैचारिक साझेदार हैं। उर्मिलेश जी इसी बात को इस ढंग से कहते हैं कि ‘जब कभी पढ़े-लिखों से वे कभी किसी वजह से ‘निकटता या सहजता’ महसूस करते हैं तो वे सिफ॓ उच्चवणी॓य पृष्ठभूमि वाले होते हैं. पिछडो़-दलितों में वे सिफ॓ अपने लिये कुछ बाहुबली, धनबली अफसरान-इंजीनियर-ठेकेदार, अदना पुलिस वाला, प्रापटी॓ डीलर, तमाम चेले-चपाटी, चापलूस, फरेबी बाबा या जाहिल खोजते हैं. मजबूरी में कभी रणनीतिकार, विचारक, धन-प्रबंधक, मीडिया मैनेजर या सम्मान देने के लिये किसी को खोजना होता है तो ऐसे लोगों को वे सिफ॓ सवण॓ समुदायों से ही चुनते हैं. थोड़ा भी संदेह हो तो लिस्ट उठाकर देख लें. जहां तक पढ़ने-लिखने वालों से निकटता बनाने में रूचि रखने वाले दलित-पिछड़े समुदाय के नेताओं का सवाल है, ऐसे नेताओं में जो कुछ प्रमुख नाम मुझे याद आ रहे हैं वे हैं: भूपेंद्र नारायण मंडल, अन्नादुराई, कपू॓री ठाकुर, चंद्रजीत यादव, देवराज अस॓, कांशीराम, वी एस अच्युतानंदन. नीतीश कुमार और शरद यादव भी औरों के मुकाबले बेहतर हैं. वे पढ़ने लिखने वालों से नजदीकी बनाये रखने की कोशिश करते हैं.
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हिन्दुओ की एकता हजम नही हो रही ब्राह्मण बाद के खिलाफ हो सही है पर एक बात लिखना भूल गए की जिसके पास ताकत होती चाहे धार्मिक या राजनितिक किसी जाती या धर्म को मिल जाये तो बो अत्याचार करने में कोताही नही बरतता बिहार में यादवो ने कितना जुल्म किया राजनितिक ताकत थी यूपी में यादवो ने कुछ काम उपद्रब नही किया जातिगत राजनीती ने समाज को सिर्फ तोडा है हरियाणा में जाट कहने का तात्पर्य ये है ब्राह्मणों के पास धार्मिक ताकत थी उन्होंने भी अत्याचार किये इस लिए किसी एक जाती को बुरा भला कहने से क्या फायदा मायाबती और मुलायम अपने स्वार्थ के लिए यादव और जाटव में दुश्मनी करदी उग्र हिंदुत्व क्यों हुआ जब १५ मिनट के लिए पुलिस हटा के हिन्दू ख़तम करने की बात होगी तो डरना स्वाभाविक है जब हर धर्म के अपने देश है हिन्दू क्यों नही हिन्दू राष्ट्र की बात करे ईरान के पारसियों की तरह हमको तो ख़तम नही होना टोपी पहनाना है तो तिलक लगाने में एतराज नही होना चाइये हिन्दू की आस्था का सम्मान करना चाहिए हर बात पे संबिधान की बात करने बाले गाय खाना तो संबिधान में नही लिखा बामपंथियों ने देश को बहुत छति प्हुचाई ?
” विजय जी सहमति असहमति की ही बात नहीं होती हे आपके विचार रोचक हे मेरी रिक्वेस्ट हे की जब समय हो आप अपने विचारो को लेखो का रूप देकर भी अफ़ज़ल भाई को मेल कर दे अच्छा होगा की खबर की खबर से कोई दक्षिणपंथी और कोई महिला भी जुड़े . सभी के विचार सामने आने चाहिए शुक्रिया ” बजरंग मुनि ने जो कहा सभी उग्रवादी संघटन कभी हिंसा में प्रत्यक्ष सकिर्य नहीं होते बल्कि दुसरो को हिंसा के लिए प्रेरित करते हे Like · Reply · 3 April at12:33बजरंग मुनिबजरंग मुनि जितनी भी आतंकवादी घटनाएं होती है उनमे कभी कोई इस्लामिक हिन्दूवादी या साम्यवादी संगठन का कोई पदाधिकारी या प्रमुख सदस्य शामिल नही मिलेगा। किन्तु ऐसे आतंकवादी कभी न कभी मदरसा शिक्षा, संघ परिवार या जे एन यू संस्कृति की विचारधारा से प्रभावित अवश्य होते है। बचपन से ही उनका ऐसी विचारधारा द्वारा ब्रेनवाश हो जाता है। कोई मुस्लिम संगठन कभी आई एस आई एस का समर्थन नही करता। गांधी हत्या का कभी संघ समर्थन नही करता और नक्सलवादी हिंसा का भी साम्यवाद समर्थन नही करता। किन्तु ऐसी विचारधारा का जन्म कहा से होता है यह सब जानते है। बजरंग मुनि ” Arun Maheshwari
Yesterday at 11:50 ·
परमानंद की भाव-दशा में खुला तरुण विजय के अंतर का सच (‘We live with blacks (south Indians), can’t be racist’)
-अरुण माहेश्वरीआल्फ्रेड हिचकौक की डरावनी और रोमांचक फिल्मों का एक प्रमुख सिद्धांत है कि खलनायक जितना जबर्दस्त होगा, फिल्म से मिलने वाला आनंद उतना ही प्रबल होगा।आज के मोदी-शाह के डरावने और रोमांचक गोगुंडों, रोमियो स्कैव्यैड और तलवारे चमकाते हुजूमों के गुंडा राज के आनंदपूर्ण कथानक को भाजपा के पूर्व सांसद और आरएसएस के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ के पूर्व संपादक तरुण विजय ने सचमुच एक नई और चरम ऊंचाई प्रदान कर दी है। कल तक संघ वाले सिर्फ मुसलमानों और दलितों को खलनायक बताते थे। अब उसमें उन्होंने पूरे दक्षिण भारत के लगभग 25 करोड़ लोगों को और जोड़ दिया है। खास तौर पर तमिलनाडु के सात करोड़ द्रविड़ों को सीधे तौर पर।उन्होंने इन सब तबकों को दुनिया के उन अश्वेत (काले) लोगों की श्रेणी में रख दिया है, जिनके प्रति गोरे लोगों में रंगभेद और नस्लभेद की भावनाएं पाई जाती है। उन्होंने कहा है कि ‘भारत में भी काले लोग हैं, लेकिन हम तो उनसे नफरत नहीं करते, हममें रंगभेद नहीं है !’
भारत का प्राचीन इतिहास द्रविड़ों को ही इस भूमि का मूल निवासी मानता हैं और हिटलर के आदर्शों से प्रेरित आरएसएस के तरुण विजय जिस हिंदू पादशाही की स्थापना के नाम पर ‘आर्यामी’ का झंडा गाड़ने की घुट्टी लेकर पले-बढ़े हैं, वे तो इस देश में बाहर से आए ‘आक्रमणकारी’ हैं। हांलाकि इन दिनों इतिहास को तोड़-मरोड़ कर वे भारत को आर्यों की मूल भूमि भी बताने लगे हैं !
बहरहाल, अब सचमुच तरुण विजय ने भारत को लेकर अपनी हिचकौक वाली डर और रोमांच से भरी कल्पना के आनंद को उसके चरम पर पहुंचा दिया है। इस कथा के खलनायक ने सचमुच विशालकाय रूप ग्रहण कर लिया है। 25 करोड़ दक्षिण भारतवासी, 17 करोड़ मुसलमान और अनुसूचित जातियों जनजातियों के लगभग 30 करोड़ और पिछड़ी जातियों के 50 करोड़ लोग (इनमें दक्षिण भारत के लोगों को पहले ही गिन लिया गया है)। बाकी रह जाते हैं बचे-खुचे पांच-सात करोड़ ब्राह्मण, पादशाही की राजगद्दी पर बैठने के अधिकारी, उनकी पटकथा के नायक ! इतने भारी-भरकम खलनायक पर एक क्षीणकाय नायक की विजय की कहानी – तभी तो कहानी का आनंद अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचेगा !
तरुण विजय ने परमानंद की अपनी इसी आत्म-मुग्ध अवस्था में अपने और पूरे संघ परिवार के अंतर को खोल कर रख दिया है। इसके लिये वे अशेष धन्यवाद के पात्र है।Arun Maheshwari कोलकाताArun Maheshwari
7 April at 19:46 ·
योगी और कैकयी का मनोरथ
-अरुण माहेश्वरी
सत्ता पाते ही योगी आदित्यनाथ ने जनतंत्र के राजा जनता जनार्दन को अपना कैकयी रूप दिखाना शुरू कर दिया है। उन्हें उत्तरप्रदेश नहीं, ‘हिंदू राष्ट्र’ चाहिए !
मानस में कैकयी दशरथ से कितने प्रेम से कहती है –
सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का । देहु एक बार भरतहि टीका ।।
मानउ दूसर बर कर जोरी । पुरवहु नाथ मनोरथ मोरी ।।
तापस बेस बिसेषि उदासी । चौदह बरिस राम बनबासी ।।
इसपर तुलसी लिखते हैं –
सुनि मृदु बचन भूप हियँ सोकू । ससि कर छुअत बिकल जिस कोकू ।।
और फिर दशरथ कहते हैं –
अवध उजारि कीन्हीं कैकेईं । दिन्हिस अचल बिपति कै नेईं ।।
(हे प्राणप्रिय मन चाहता है कि भरत का राजतिलक हो। और दूसरा मनोरथ है कि राम को साधू के वेष में वन में भेज दो। तुलसी कहते हैं कि कैकयी के इन कोमल वचनों को सुन कर राजा का मन इतना दुखी हुआ जैसे चांद की किरणों के स्पर्श से चकवा विकल हो जाता है। दशरथ कहते हैं – ‘‘कैकयी ने अयोध्या को उजाड़ दिया और विपत्ति की सुदृढ़ नींव रख दी। )कैकयी के मृदु वचनों से ठगे रह गये दशरथ ने जब अपनी दुविधा व्यक्त करनी शुरू की तो कैकयी किस कर्कशा और रौद्र रूप में सामने आती है, इसका चित्रण भी तुलसी ने किया है।योगी अभी तो प्रेम से बातें कर रहे हैं। दूसरी ओर देश के कोने-कोने में तलवारें चमकाती उनकी हिंदू युवा वाहिनी के प्रदर्शन उनके परवर्ती रौद्र रूप के सारे संकेत दे रहे हैं।आज भाजपा के लोगों में क्रमशः जाग रहा शस्त्र-प्रेम यह बताने के लिये काफी है कि ये इस भारत देश को बनवास की सजा सुना कर, अर्थात जंगली बना कर ही मानेंगे। मीडिया के अंजनाओमकश्यप की तरह के एंकर इसी जंगल राज के भोपूं की भूमिका में उतरे हुए हैं।Arun Maheshwari
7 April at 16:21 · आज एक वीडियो देखा : मोटर साइकिल पर बैठे डरे हुए लड़के-लड़की को पकड़ कर एंटी रोमिओ स्क्वायड के लोग रुपये वसूल रहे थे।एंटी रोमिओ स्क्वायड मुर्दाबाद !
हयात भाई जरूर कोसिस करूँगा लेख लिख ने की अभी परिपक्वता की कमी है उत्साह बर्धन के लिए सुक्रिया ?
अब इस बात से इन्कार नहि किया जा सक्ता के हिन्दुतव के रास्ते पे भारत चल चुका है, भाज्पा और सन्घ कि राज्निति काम्याब हो गयि है — देखिये आगे क्या होता है ! अब भारत राम भरोसे हि है !
रमेश कुमार जी चिंता मत करिये देश सुरक्षित हाथो में है सबका बिकास होगा सबका कल्याण होगा
रमेश कुमार जी राजू श्रीवास्तव के शादी वाले एक्ट में सास दामाद का एक डायलॉग हे ” हमारी तो कट गयी तुम्हारी अब तुम्हारी कटेगी ” मुस्लिम कटटरपंथी छोटा हो या बड़ा आम मुस्लिम को कैसे टॉर्चर करता हे ————- ? कैसे दुखी करते हे गुंडागर्दी शोषण मेने खूब देखा हे झेला भी हे अब आम हिन्दू को भी तैयार रहना होगा मोदी योगी संघ बजरंग की हौसला अफ़ज़ाई पीठ थपथपाई से जो हिन्दू गुंडों की भीड़ तैयार हो रही हे उसके हाथ कोई पहलु कोई अखलाख तो साल में दो चार बार ही आना हे पुरे साल ये क्या करेंगे ————— ? बाकी पुरे साल ये आम गरीब शरीफ हिन्दू को टॉर्चर देंगे तैयार रहिये
संघ को बामपंथियों और कॉंग्रेसियो ने जी भर के बदनाम किया कभी नही सुना संघ किसी आतंकी गतिविधियों में सामने आया हो मोदी के खिलाफ कोई मुद्दा ही नही मिला बिरोधियो को ले दे के गुजरात दंगा सिर्फ मुसलमान ही नही मरे पुलिश की गोली से मरने बालो में हिन्दू ही ज्यादा थे सोचने बाली बात है हिंन्दू से ज्यादा उदार कोई नही पूरे विश्व में हिदू अनेक देसो में रहता है कही सुना नही की उसकी अन्य धर्म के लोगो से कोई विवाद की स्थिति बनी हो अगर संघ आतंकी सोच रखता या भाजपा तो कश्मीरी पंडितो पे जुल्मो का बदला लेने को हिन्दू गुंडों को आतंकी बना के कश्मीर भेज के बदला भी ले सकती संघ धर्म परिवर्तन का बिरोध करता हिदू के हित की बात करता इस लिए बुरा है हिंदुत्व में कहा जाता है विस्व का कल्याण हो सिर्फ हिन्दुओ के कल्याण की बात नहीं करता ?
भारत मे
१४% मुसलमान, १६% दलित,५% ब्राह्मण, ५% वैश्य,२५% क्षत्रीय, ४०% हिंदु OBC और ४% other है. १९४७ से १९९९ पचास साल तक भारत मे वोट विभाजीत नही होते थे. पिछले १८ सालोमे वोटनिती शुरु हुवी. अब वोट का बटवारा मुस्लिम, दलित वोट एक खेमेमे है और ब्राह्मण,वैश्य दुसरे खेमेमे है. क्षत्रिय वोट दोनो खेमोमे बट चुके है. भारत मे किसकी सरकार होगी ये तै करता है भारत का सबसे बडा वर्ग जो कि हिंदु OBC ४०% है. दोनो खेमोमे जो राजनिती हो रही है वो हिंदु OBC के वोट अपनी तरफ खिचने की रेस है. हिंदु OBC वोट या तो Anti Muslim यानी कि हिंदुत्व के झंडे के निचे ईकठ्ठा करो या फिर Anti Hindu सवर्ण यानिकी सेक्युलर झंडे के निचे इकठ्ठा करो.
Anti Muslim पार्टी ये दिखाते है कि कैसे एक हजार सालो मे मुसलमानो ने हिंदुओपर राज किया, जुल्म ढाये और Anti Hindu सवर्ण पार्टी ये दिखाते है कि कैसे वर्ण व्यवस्था ने दलितो और पिछडो पर जुल्म ढाये.
यानि की दोनो खेमे एकतरफ से बटवारे कि राजनिती कर रहे है. या तो हिंदु मुसलमान बटवारा या तो हिंदु हिंदु बटवारा.
पर एक सच्चाइ यह भि है कि जनता स्थिरता को अहमियत देती है. इस देश कि जनता जो कि धर्म से हिंदु होते हुवे भि मुगल बादशाहो को मुसलमानो को अपना राजा स्विकार कर लिया था.
ऊस दौर मे जनता ने हिंदु राजाओ को ठुकराकर मुसलमान शासको को चुना था. क्युं की जनता सुकुन चाहती है. जनता शांती से अपने कारोबार व्यापार करना चाहती है.
मोदी काल के पहले दस साल भारत मे हिंदु हिंदुओ मे फुट डालने की राजनिती अपने चरम सिमा पर पोहोच गयी थी. जिसका नतीजा आपके सामने है. हिंदु मुसलमान शांती जनता को चाहीये लेकिन हिंदुओ मे फुट डालकर हासील होने वाली हिंदु मुसलमान शांती को जनता कभी स्विकार नही करेगी.
दलित,मुस्लिम वोट बनाम सवर्ण हिंदु वोट देश कि राजनिती की दिशा कभिभी तै नही कर सकते है. और इसी कारण ४०% हिंदु OBC वोट बहोत मायने रखते है. अगर कोई बहोत जादा मुसलमानो के खिलाफ बोलेगा तो भी जनता समझ जायेगी कि ये anti Muslim राजनिती होरही है. और अगर कोइ बहोत जादा सवर्ण हिंदुओ के खिलाफ बोलेगा तो भी जनता समझ जायेगी कि ये anti Hindu सवर्ण राजनिती हो रही है.