फ़िराक़ गोरखपुरी बीसवीं सदी के वह शायर हैं, जो जंगे-आज़ादी से लेकर प्रगतिशील आंदोलन तक से जुडे रहे. उनकी ज़ाती ज़िंदगी बेहद कड़वाहटों से भरी हुई थी, इसके बावजूद उन्होंने अपने कलाम को इश्क़ के रंगों से सजाया. वह कहते हैं-
तू एक था मेरे अशआर में हज़ार हुआ
इस एक चिराग़ से कितने चिराग़ जल उठे फ़िराक़ गोरखपुरी का जन्म 28 अगस्त, 1896 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में एक कायस्थ परिवार में हुआ था. उनका असली नाम रघुपति सहाय था, लेकिन उन्होंने फ़िराक़ गोरखपुरी नाम से लेखन किया. उन्होंने एमए किया और आईसीएस में चुने गए. 1920 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी स्वराज आंदोलन में शामिल हो गए. वह डेढ़ साल तक जेल में भी रहे और यहां से छूटने के बाद जवाहरलाल नेहरू के कहने पर अखिल भारतीय कांग्रेस के दफ़्तर में अवर सचिव बना दिए गए. नेहरू के यूरोप चले जाने के बाद उन्होंने पद से इस्तीफ़ा दे दिया और 1930 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक बन गए. उन्होंने 1959 तक यहां अध्यापन कार्य किया.
फ़िराक़ गोरखपुरी को 1968 में पद्म भूषण और सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड से नवाज़ा गया. अगले साल 1969 में उन्हें साहित्य का ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया. फिर 1970 में उन्हें साहित्य अकादमी का मनोनीत सदस्य नियुक्त किया गया. 1981 में उन्हें ग़ालिब अकादमी अवॉर्ड दिया गया. उनकी प्रमुख कृतियों में गुले-नग़मा, गुले-राना, मशाल, रूहे-कायनात, रूप, शबिस्तां, सरगम, बज़्मे-ज़िंदगी रंगे-शायरी, धरती की करवट, गुलबाग़, रम्ज़ कायनात, चिराग़ां, शोला व साज़, हज़ार दास्तान, और उर्दू की इश्क़िया शायरी शामिल हैं. उन्होंने एक उपन्यास साधु और कुटिया और कई कहानियां भी लिखीं. उनकी उर्दू, हिंदी और अंग्रेज़ी में दस गद्य कृतियां भी प्रकाशित हुईं.आम तौर पर ख़्याल किया जाता है कि फ़नकार को ऐसी बुनियाद और कमज़ोर हालात से बेनियाज़ होना चाहिए. ग़ालिब ज़िंदगी भर परेशान रहे, अपनी बीवी की शिकायत करते रहे. अपनी तमाम मुस्कराहटों के साथ जीवन पद्धति निभाते रहे. इसलिए मुश्किलें आसान लगने लगीं. मंटों ने तो हंस-हंस कर जीना सीखा था. ज़िंदगी की सारी तल्ख़ियां अपनी हंसी में पी गया और भी अच्छे फ़नकारों ने कुछ ऐसे ही जिया होगा.
29 जून, 1914 को उनका विवाह ज़मींदार विन्देश्वरी प्रसाद की बेटी किशोरी देवी हुआ, लेकिन वह पत्नी को पसंद नहीं करते थे. इसका उनकी ज़िंदगी पर गहरा असर पड़ा. बक़ौल फ़िराक़ गोरखपुरी, एक साहब ने मेरी शादी एक ऐसे ख़ानदान और एक ऐसी लड़की से कर दी कि मेरी ज़िंदगी एक नाक़ाबिले-बर्दाश्त अज़ाब बन गई. पूरे एक साल तक मुझे नींद न आई. उम्र भर मैं इस मुसीबत को भूल नहीं सका. आज तक मैं इस बात के लिए तरस गया कि मैं किसी को अपना कहूं ओर कोई मुझे अपना समझे.फ़िराक़ के इश्क़ और मोहब्बत के चर्चे आम रहे. वह इस क़िस्म की शौहरत चाहते भी थे. कभी-कभी ख़ुद भी क़िस्सा बना लिया करते थे, ताकि ज़माना उन्हें एक आदर्श आशिक़ समझे. वह ख़ुद लिखते हैं-इन तकली़फ़देह और दुख भरे हालात में मैंने शायरी की ओर आहिस्ता-आहिस्ता अपनी आवाज़ को पाने लगा. अब जब शायरी शुरू की तो मेरी कोशिश यह हुई कि अपनी नाकामियों और आने ज़ख्मी ख़ुलूस के लिए अशआर के मरहम तैयार करूं. मेरी ज़िंदगी जितनी तल्ख़ हो चुकी थी, उतने ही पुरसुकून और हयात अफ़ज़ा अशआर कहना चाहता था. फ़िराक़ का ख़्याल है कि इस उलझन, द्वंद्व और टकराव से बाहर निकलने में सिर्फ़ एक भावना काम करती है और वह है इश्क़.
इश्क़ अपनी राह ले तो दिल क्या पूरी दुनिया जीत सकता है, बस इन दर्जों और हालात के ज्ञान की ज़रूरत हुआ करती है. फ़िराक़ का इश्क़, इस दर्जे का इश्क़ न सही जहां ख़ुदा और बंदे का फ़र्क़ उठ जाया करता है. फ़िराक़ का वह रास्ता न था. वह भक्ति और ईश्वर प्रेम की दुनिया के आदमी न थे. वह शमा में जलकर भस्म हो जाने पर यक़ीन भी नहीं रखते थे, बल्कि वह उस दुनिया के आशिक़ थे, जहां इंसान बसते हैं और उनका ख़्याल है कि इंसान का इंसान से इश्क़ ज़िंदगी और दुनिया से इश्क़ की बुनियाद जिंस (शारीरिक संबंध) है. किसी से जुनून की हद तक प्यार, ऐसा प्यार जो हड्डी तक को पिघला दे, जो दिलो-दिमाग़ में सितारों की चमक, जलन और पिघलन भर दे. फिर कोई भी फ़लसफ़ा हो, फ़लसफ़ा-ए-इश्क़ से आगे उसकी चमक हल्की रहती है. हर फ़लसफ़ा इसी परिपेक्ष्य, इसी पृष्ठभूमि को तलाश करता रहता है. फ़िराक़ ने जब होश व हवास की आंखें खोलीं दाग़ और अमीर मीनाई का चिराग़ गुल हो रहा था. स़िर्फ उर्दू शायरी में ही नहीं, पूरी दुनिया में एक नई बिसात बिछ रही थी. क़ौमी ज़िंदगी एक नए रंग रूप से दो चार थी. समाजवाद का बोलबाला था. वह समाजवाद से प्रभावित हुए. प्रगतिशील आंदोलन से जु़डे. वह स्वीकार करते हैं इश्तेराकी फ़लसफ़े ने मेरे इश्क़िया शायरी और मेरी इश्क़िया शायरी को नई वुस्अतें (विस्तार) और नई मानवियत (अर्थ) अता की.
अब उनकी शायरी में बदलाव देखने को मिला. बानगी देखिए-
तेरा फ़िराक़ तो उस दम तेरा फ़िराक़ हुआ
जब उनको प्यार किया मैंने जिनसे प्यार नहीं
फ़िराक़ एक हुए जाते हैं ज़मानों मकां
तलाशे दोस्त में मैं भी कहां निकल आया
तुझी से रौनक़े-बज़्मे-हयात है ऐ दोस्त
तुझी से अंजुमने-महर व माह है रौशन
ज़िदगी को भी मुंह दिखाना है
रो चुके तेरे बेक़रार बहुत
हासिले हुस्नो-इश्क़ बस है यही
आदमी आदमी को पहचाने
इस दश्त को नग़मों से गुलज़ार बना जाएं
जिस राह से हम गुज़रें कुछ फूल खिला जाएं
अजब क्या कुछ दिनों के बाद ये दुनिया भी दुनिया हो
ये क्या कम है मुहब्बत को मुहब्बत कर दिया मैंने
क्या है सैर गहे ज़िंदगी में रुख़ जिस सिम्त
तेरे ख़्याल टकरा के रह गया हूं मैं
फ़िराक़ गोरखपुरी कहा करते थे- शायरी उस हैजान (अशांति) का नाम है, जिसमें सुकून के सिफ़ात (विशेषता) पाए जाएं. सुकून से उनका मतलब रक़्स की हरकतों में संगीत के उतार-च़ढाव से है.उनके कुछ अशआर देखिए-
रफ़्ता-रफ़्ता इश्क़ मानूसे-जहां होता गया
ख़ुद को तेरे हिज्र में तन्हा समझ बैठे थे हम
मेहरबानी को मुहब्बत नहीं कहते ऐ दोस्त
आह अब मुझसे तेरी रंजिशें बेजा भी नहीं
बहुत दिनों में मुहब्बत को यह हुआ मालूम
जो तेरे हिज्र में गुज़री वह रात, रात हुई
इश्क़ की आग है वह आतिशे-सोज़ फ़िराक़
कि जला भी न सकूं और बुझा भी न सकूं
मुहब्बत ही नहीं जिसमें वह क्या दरसे-अमल देगा
मुहब्बत तर्क कर देना भी आशिक़ ही को आता है
एक मुद्दत से तेरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं
तेरी निगाहों से बचने में उम्र गुज़री है
उतर गया है रगे जां में नश्तर फिर भी
फ़िराक़ गोरखपुरी का देहांत 3 मार्च, 1982 को नई दिल्ली में हुआ. बेशक वह इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उन्होंने जनमानस को अपनी शायरी के ज़रिये ज़िंदगी की दुश्वारियों में भी मुस्कुराते रहने का जो पैग़ाम दिया, वह हमेशा मायूस लोगों की रहनुमाई करता रहेगा. बक़ौल फ़िराक़ गोरखपुरी-
अब तुमसे रुख़्सत होता हू, आओ संभालो साज़े-ग़ज़ल
नये तराने छेड़ो, मेरे नग़मों को नींद आती है…
(स्टार न्यूज़ एजेंसी)
Abhijeet Singh
9 hrs ·
हिन्दुओं में एक बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी ये है कि ‘उर्दू’ और ‘अरबी’ एक मजहब विशेष के मानने वालों की भाषा है इसलिये हमें इसे सीखने या इसका प्रचार करने की कोई जरूरत नहीं है. जबकि सच ये है कि किसी मजहब के साथ इसका संबध मात्र इतना ही है कि उनकी किताब जिस भाषा में उतरी थी वो अरबी है और जिस भाषा में उनके ‘नबाब’ बात किया करते थे वो उर्दू थी.
जहाँ तक ‘उर्दू’ की बात है तो उर्दू की परवरिश भारत में हम हिन्दुओं ने ही ज्यादा की है. पंडित दयाशंकर ‘नसीम’, पंडित रतननाथ ‘सरशार’, नरेश कुमार ‘शाद’, मुंशी प्रेमचंद, जगत मोहन लाल ‘खां’, बेनी नारायण ‘जहां’, तिलोक चंद ‘महरूम’, रघुपति सहाय ‘फ़िराक’, जगन्नाथ ‘आजाद’, आनंद नारायण ‘मुल्ला’, राजेन्द्र सिंह ‘बेदी’, कृशन चंदर ये तमाम हिन्दू नाम है जिन्होनें उर्दू भाषा को जनप्रिय बनाया और जब ये भाषा रोजगारपरक हुई तो हमने अपनी बेबकूफी में इससे किनारा कर लिया. रोजगारपरक मतलब ये है कि आपको विश्वविद्यालयों के संस्कृत विभाग में तो दूसरे मजहब वाले मिल जायेंगें पर ‘उर्दू’ के विभाग में शायद ही आपको कोई गैर-मुस्लिम मिलेगा. फ़िल्म इंडस्ट्री में उर्दू वाले आज शहंशाह बने फिरतें हैं, हर उर्दू चैनेल पर वही लोग भरे पड़े है, उर्दू अखबार और पत्रिकाओं के दफ्तर में सिर्फ उनको काम मिलता है तो क्या ये हमारी जहालत नहीं है कि उर्दू से खुद को अलग कर हमने अपने लिये रोजगार के कई बड़े अवसरों को गँवा दिया? अगर कुछ उर्दू में लिखा है तो ‘देश-विरोध’ में ही होगा ऐसा भी नहीं है क्योंकि प्रेमचन्द की मशहूर और जब्तशुदा रचना ‘सोज़े-वतन’ उर्दू में ही थी. इसलिए उर्दू अपने आरंभिक काल से लेकर आज तक कभी भी मुसलमानों की भाषा नहीं थी, मुसलमान आगे आये, उर्दू को अपना घोषित करते हुये विभाजन का तर्क बनाकर सामने किया और हमने उर्दू को हमेशा के लिए अपने से अलग कर लिया और हमने उर्दू को उनके लिये छोड़ दिया. उर्दू जुबान में शेरो-शायरी करने वाले आपके घर की आबरू कब्ज़ रहें हैं और आप बेबस और लाचार बने सिर्फ कोसते रहतें हैं. कभी आपने उर्दू-अखबारात उठा कर देखें हैं कि वहां कैसे-कैसे आलेख होतें हैं और क्या-क्या संदेश प्रसारित किये जातें हैं? आपके लिये तो वो काला अक्षर भैंस बराबर ही है. तो आप अगर इसको नहीं सीखते और उन संदेशों और आलेखों का संज्ञान नहीं लेते तो यकीन जानिये कि देश में फैलाए जा रहे जहर के प्रसार में कहीं न कहीं आप भी भागीदार हैं.
जहाँ तक ‘अरबी भाषा; का ताअल्लुक है तो ये संसार की प्राचीनतम भाषाओँ में एक मानी जाती है. सेमेटिक मजहब की भाषाओँ में यह हिब्रू के समकक्ष है. भविष्य पुराण की माने तो नोहा (नूह) के जमाने में भगवान बिष्णु ने भाषा को सहज करने की दृष्टि से एक मलेच्छ भाषा को जन्म दिया था और उसे नोहा (नूह) को सिखाया था, इस भाषा को हिब्रू कहा गया जो दायें से बाईं ओर लिखी जाती है. ‘ही’ मतलब हरि और ब्रू मतलब बोला गया यानि जो भाषा हरि के द्वारा बोली गई वो हिब्रू कहलाई.
उनकी किताब अरबी भाषा में है महज इसलिये ‘अरबी भाषा’ से हमारा ताअल्लुक नहीं ऐसी सोच गलत है. इस्लाम पूर्व के कवियों की रचनाओं में महादेव, वेद और भारत भूमि की स्तुति के पद मिलतें हैं. प्राचीन अरबी काव्य-ग्रन्थों अंदर ऐसे कई कई पद मिलतें हैं. इन्हीं काव्य-संग्रहों में अरबी कवि लबी-बिन-ए-अरबतब-बिन-तुर्फा की लिखी महादेव स्तुति मिलती है. इस्लाम के आगमन के पूर्व अरबी भाषा में कई पुराणों का अनुवाद भी हुआ था. अरबी में अनुदित अति-प्राचीन भागवत पुराण का मिलना इसकी पुष्टि करता है.
इसका अर्थ ये भी है कि अरबी से हमारा भी ताअल्लुक है जो इस्लाम के आगमन के काफ़ी पूर्व से है. पर हमने क्या किया? हममें कितने लोग हैं हैं जिनको ये पता है कि ‘अरबी भाषा’ में कितनी वर्ण हैं? शायद 0.000001 प्रतिशत को भी नहीं.
आपने अरबी नहीं सीखी तो इसका अर्थ ये है कि आप भारत के विश्विद्यालाओं के अरबी विभाग में नौकरी के अवसर गँवा रहें हैं. आज भारत का मध्य-पूर्व और अफ्रीका के कुछ देशों के साथ व्यापार के असीमित अवसर है, अगर आप अरबी जानेंगें तो इस अवसर के फ़ायदे आप भी उठा सकतें हैं मगर आपको इसमें रूचि ही नहीं है.
जो धर्मप्रचार में रूचि रखतें हैं उनके लिये कुछ तथ्य रखता हूँ. बाईबिल का आज दुनिया के 2200 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है, आप जिस भाषा का नाम लीजिये ईसाई मिशनरियां उस भाषा में अनुवादित बाईबल आपके सामने प्रस्तुत कर देंगीं. मुसलमान अनुवाद कार्य में इतने आगे तो नहीं पहुँचे पर उन्होंने दुनिया की हर प्रमुख भाषा में अपनी किताब अनुवादित कर ली है, यहाँ तक की हदीस भी अरबी से इतर कई भाषाओँ में अनुवादित हो चुकी है. जमात-अहमदिया तो बाकायदा हर ‘पुस्तक मेला’ में अलग-अलग भाषाओँ में कुरान के अनुवाद की प्रदर्शनियाँ भी लगाती है. हममें से कितने लोगों ने अपनी किताबों को अरबी या उर्दू में अनुवादित करने की जहमत उठाई है? इस्कॉन, गीता-प्रेस और आर्य-समाज के एक्का-दुक्का प्रयासों को छोड़ दें तो इस मामने में हमारी उपलब्धि लगभग शून्य है. हमारी कुछ किताबों का फ़ारसी में अनुवाद भी हुआ तो ये भी उनकी ही मेहरबानी थी, हम खाली हाथ ही बैठे रहे हमेशा से.
मध्य-पूर्व और मिस्र समेत अफ्रीका के कई देशों में अरबी भाषा चलती है, तो अपनी जहालत में क्या हमने वहां के करोड़ों अरबी भाषी लोगों को अपने धर्म की जानकारी से वंचित करने का प्रयास नहीं किया है? आज अगर इन देशों से कोई हिन्दू धर्म के किताबों को अपनी भाषा में पढ़ना चाहे तो वो खुद को कितना असहाय महसूस करेगा?
हमारे यहाँ शब्द को “ब्रहम: कहा गया है और हर भाषा श्रीहरि और माँ शारदा से प्रदत्त मानी गई है इसलिये किसी भाषा को सीखने से परहेज मत कीजिये.
वैसे, बातें कई हैं पर फिलहाल आग्रह ये है कोई भी भाषा किसी मजहब विशेष की बपौती नहीं है और जहाँ तक अरबी और उर्दू का ताअल्लुक है तो ये तो बिलकुल भी नहीं. इसके पौधे को हमने सींचा है. अब तय आपको करना है कि आप क्या करेंगें? कोसते, कुढ़ते हुये बस अपनी बेबसी का रोना रोयेंगें या आगे आकर अपने आर्थिक, सामजिक और धार्मिक पक्ष को बेहतरी प्रदान करेंगें? सु-समय और सु-अवसर बार-बार नहीं आते.—————————————————————————————ikeShow More Reactions · 1 · 8 hrs
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Khan Junaidullah
Khan Junaidullah Agreed
उर्दू को मुसलमान की भाषा समझा गया,
और उर्दू को खत्म करने का उद्देश्य मुसलमान को दीन से दूर करना था, क्योंकि उस समय तक बहुत सा दीन का साहित्य उर्दू में था,
परंतु पिछले 70 साल में मुसलमानों ने बहुत सा इस्लामिक साहित्य हिंदी में अनुवाद करके यह साबित किया कि सत्य “दीन” किसी भाषा का मुहताज नहीं,सत्य किसी भी भाषा में कहा जाये सत्य ही रहेगा,
अल्ल्लाह केवल और केवल एक है ( लाइलाहा इल्लल्लाह)
मुहम्मद सल्ल. अल्लाह के संदेश वाहक हैं ( मुहम्मद ( सल्ल.) रसूल अल्लाह)—————————————arun K Pandey उर्दू जिस उधेश्य के लिए खड़ी की गई थी अब उसकी प्रासंगिकता समाप्त हो रही है । भारतीय उपमहाद्वीप मे उर्दू के जगह पे चुपके अरबी दस्तक दे रही । अब ख़ुदा हाफ़िज उतना कारगर नही रहा अल्लाह हाफिज जजाक अल्ला अहमदुल अल्ला जैसे शब्द प्रचलित हो रहे है।
ये अरबी रेगिस्तान सबको लील जाएगा । पाक बंगलादेश को लील चुका अब भारत में रेत पहुच चुका है—————Neetu Agrawal इससे बेहतर तर्क पहले वाले लेख में थे Abhijeet Singh जी।ये आपकी उर्दू के प्रति मोह्हबत बोल रही है।सीखने पर प्रतिबंध की बात तो कहीं है ही नहीं, प्रचार से असहमत।
ऊपर Comment मे इस संघी अभिजीत ने भाषा के मामले में दूसरे संघियो को नसीहत की तो इसी बात को आगे बढ़ाते हुए की संघियो को खान सितारों की सफलता से भी बहुत ही सीने पर सांप लोटेते हे और ये इस वर्चस्व को कम करने को एड़ी चोटी का जोर लगाते हे मगर इनकी लोकप्रियता टस से मस नहीं हो रही हे पचीस साल हो गए हे राजेश खन्ना की लोकप्रियता पांच साल रही तो अमिताभ के सुपरस्टारडम में दस बारह साल बाद अनिल कपूर ने सेंध लगा ही दी थी ऐसे में खानो की सिल्वर जुबली की वजह क्या हे —————- ? संघी अपनी मूर्खता के कारण कम्युनल कारण खोजते रहते हे और कम्युनलिज्म से हि इनकी लोकप्रियता कम करने की कोशिश करते रहते हे जबकि असल वजह वो हे जिसकी तरफ वरिष्ठ फिल्म लेखक अजय ब्रहाम्ताज़ बताते हे की नए सितारों की जबान ही साफ़ नहीं हे इसलिए वो और उनके किरदार लोगो के दिल में नहीं उतरते हे और वो बात आती ही नहीं हे जबकि खान सितारों को उर्दू और साफ़ हिंदी तलफ़्फ़ुज़ का बेहद फायदा मिलता रहा हे और सेफ अली खान का तलफ़्फ़ुज़ साफ़ नहीं रहा तो कभी लोगो के दिलो में नहीं उतरे अजय जी लिखते हे ”इस कामयाबी के बीच वरुण धवन की भाषा और आवाज खटकती है। ‘जुड़वां’ और उसके पहले की फिल्मों में भी उनका उच्चारण दोष स्पष्ट है। अंग्रेजी मीडियम से पढ़ कर आए फिल्म कलाकारों की हिंदी में भाषा का ठेठपन नहीं रहता। हां,अभ्यास से वे उसे हासिल कर सकते हैं,लेकिन उसके लिए उन्हें जिम में जाने जैसी तत्परता और नियमितता निभानी पड़ेगी। साथ ही उनकी आवाज किरदारों के अनुकूल नहीं हो पाती। वे इस पर मेहनत करते भी नहीं दिखते। हिंदी ट्यूटर और वॉयस इंस्ट्रक्टर रख कर दोनों कमियों को दूर किया जा सकता है। अगर वरुण धवन को हिंदी फिल्मों में लंबी पारी खेलनी है। खानत्रयी और अमिताभ बच्चन जैसी दीर्घ लोकप्रियता हासिल करनी है तो उन्हें अपनी भाषा और आवज पर धान देना होगा। मुंबईकरों की हिंदी में ‘द’ और ‘ध’,’ज’ और ‘झ’,’थ’ और ‘ठ’ के भिन्न उच्चारण की दिक्कतें आम हैं। वे शब्दों के आखिरी अक्षर पर लगे अनुस्वार का सही उच्चारण नहीं कर पाते। ‘हैं’ को ‘है’ बोलना आम है। बोलते समय सही ठहराव और उतार-चढ़ाव से संवाद का प्रभाव और आकर्षण बढ़ता है। हिंदी का अभ्यास हो तो संवादों में आवश्यक भाव लाया जा सकता है। ”
Haider Rizvi
1 hr ·
जन्नत की उबाऊ आबो हवा से बोर होकर असदुल्लाह खान ग़ालिब जन्नत के बाग़ में टहलने लगे… पता ही नहीं चला कि कब टहलते टहलते आबलापा क़दम जन्नत के गेट तक पहुँच गए…..
गेट के बार लोगों का हुजूम लगा हुआ था… ग़ालिब ने दरबान से दरयाफ़्त किया कि क्या हुआ मियाँ, केजरीवाल साहब आए हैं क्या? कुछ धरने वरने जैसा माहौल लग रहा है….
तभी चचा ग़ालिब की नज़र बाहर कुछ जानी पहचानी शख़्सियतों पर गयी… बाहर विनोद खन्ना, शशि कपूर और टॉम ऑल्टर साहब खड़े नज़र आए…. टॉम ऑल्टर ने जैसे ही ग़ालिब को देखा गेट के उस पार से ही क़दमों में गिर गए… अरे हुज़ूर अब जन्नत की कौन ख़्वाहिश करे, जब उर्दू ज़ुबान के खुदा का ही दीदार हो गया…
ग़ालिब ने कहा, वो सब तो ठीक है मियाँ, लेकिन यह आप लोग बाहर क्यूँ खड़े हैं???
अरे क्या बताएँ ग़ालिब साहब…. ये दरबान अंदर नहीं जाने देरहा, कहता है नया क़ानून आया है कि २०१७ के बाद तब तक रूहों को जन्नत में नहीं आने दिया जाएगा जब तक दुनिया में उनका डेथ सर्टिफ़िकेट आधार से लिंक न हो जाय… तो बस इसी उम्मीद में हम सब बाहर बैठे हुए हैं महीनो से…
ग़ालिब ने सर पर हाथ मारते हुए कहा…
इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई
मेरे दुख की दवा करे कोई
शरअ’ ओ आईन पर मदार सही
ऐसे क़ातिल का क्या करे कोईHaider Rizvi
Girish Malviya
17 hrs ·
आज जाँनिसार अख्तर का जन्मदिन हैं Arun Maheshwari जी का शुक्रिया कि उन्होंने याद दिलाया, जाँनिसार अख्तर बेहतरीन शायर थे कहते है कि उनके परदादा ने ग़ालिब के कहने पर उनका दीवान संकलित किया था, जाँनिसार की शादी मजाज़ की बहन सफ़िया से हुई थी , आज वेलेंटाइन डे है इसे प्रेम का दिवस माना जाता है और प्रेम में प्रेमपत्रों का बहुत महत्व है दुनिया के चुनिंदा बेहतरीन प्रेमपत्रों में जाँनिसार अख्तर ओर उनकी शरीके हयात सफ़िया के आपस मे लिखे पत्र शामिल किए जाते हैं
मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि यदि कोई स्त्री आपसे प्रेम करती है तो उसका प्रेम पुरूष के प्रेम की बनिस्बत कही ऊंचा ओर अनकंडीशनल होता है नेट पर ढूंढते हुए सफ़िया का लिखा एक खत हाथ लगा है
‘अख्तर मेरे,
पिछले हफ्ते तुम्हारे तीन खत मिले और शनिवार को मनीऑर्डर भी वसूल हुआ। तुमने तो पूरी तनख्वाह ही मुझे भेज दी। तुम्हें शायद तंगी में बसर करने में मजा आने लगा है. यह तो कोई बात न हुई दोस्त. घर से दूर रहकर वैसे ही कौन सी सुविधाएं तुम्हारे हिस्से में रह जाती हंै जो मेहनत करके जेब भी खाली रहे?खैर, मेरे पास वो पैसे भी, जो तुमने बंबई से रवानगी के वक्त दिये थे. जमा हैं. अच्छा अख्तर अब कब तुम्हारी मुस्कुराहट की दमक मेरे चेहरे पर आ सकेगी, बताओ तो? बाज लम्हों में तो अपनी बाहें तुम्हारे गिर्द समेट करके तुमसे इस तरह चिपट जाने की ख्वाहिश होती है कि तुम चाहो भी तो मुझे छुड़ा न सको. तुम्हारी एक निगाह मेरी जिंदगी में उजाला कर देती है. सोचो तो, कितनी बदहाल थी मेरी जिंदगी जब तुमने उसे संभाला. कितनी बंजर और कैसी बेमानी और तल्ख थी मेरी जिंदगी, जब तुम उसमें दाखिल हुए. मुझे उन गुजरे हुए दिनों के बारे में सोचकर गम होता है जो हम दोनों ने अलीगढ़ में एक-दूसरे की शिरकत से महरूम रहकर गुजार दिए. अख्तर मुझे आइंदा की बातें मालूम हो सकतीं तो सच जानो मैं तुम्हें उसी जमाने में बहुत चाहती थी. कोई कशिश तो शुरू से ही तुम्हारी जानिब खींचती थी और कोई घुलावट खुद-ब-खुद मेरे दिल में पैदा थी. मगर बताने वाला कौन था कि यह सब क्यों? आओ, मैं तुम्हारे सीने पर सिर रखकर दुनिया को मगरूर नज़रों से देख सकूंगी।
तुम्हारी अपनी
सफिया’
अख्तर ने कोइ कमी नही रखी लिखने में उनके चंद अशआर भी देखिए
आहट मेरे क़दमों की सुन पाई है
इक बिजली सी तनबन में लहराई है
दौड़ी है हरेक बात की सुध बिसरा के
रोटी जलती तवे पर छोड़ आई हैं
—————————
‘हर एक घडी शाक (कठिन) गुज़रती होगी
सौ तरह के वहम करके मरती होगी
घर जाने की जल्दी तो नहीं मुझको मगर
वो चाय पर इंतज़ार करती होगी’
—————————
इक रूप नया आप में पाती हूँ सखी
अपने को बदलती नज़र आती हूँ सखी
खुद मुझको मेरे हाथ हंसी लगते हैं
बच्चे का जो पालना हिलाती हूँ सखी
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सस्ते दामों ले तो आते लेकिन दिल था भर आया
जाने किस का नाम खुदा था, पीतल के गुलदानों पर
आज भी जैसे शाने पर तुम हाथ मेरे रख देती हो
चलते चलते रुक जाता हूँ, साड़ी की दूकानों पर
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और क्या इस से ज्यादा कोई नर्मी बरतूं
दिल के जख्मों को छुआ है तेरे गालों की तरह
और तो मुझको मिला क्या मेरी महनत का सिला
चन्द सिक्के हैं मेरे हाथ में छालों की तरह
डॉ. शारिक़ अहमद ख़ान
12 hrs ·
मुंशी प्रेमचंद की मोहब्बत और बैरिस्टर मोतीलाल नेहरू की स्कॉच की बोतल-फ़िराक़ साहब के गोरखपुर के घर लक्ष्मी भवन के उस गोल कमरे मतलब मेहमानख़ाने अर्थात ड्राइंग रूम की सैर पर ये वीडियो ले जाता है जहाँ के आतिशदान के सामने कभी बैठकर रघुपति सहाय ‘ फ़िराक़ गोरखपुरी ‘ ने लक्ष्मी भवन में मेहमान बन आए मुंशी प्रेमचंद से पूछा था कि ‘क्या मुंशी जी आपने कभी मोहब्बत की है ‘ .मुंशी जी ने जवाब दिया कि ‘ शिद्दत की आंच का अंदाज़ा नहीं लेकिन मुझे एक घसियारिन से मोहब्बत थी,जब वो हमारे दुआरे घास काटने आती तो मैं उसको उछल-उछल के बताया करता कि यहाँ भी घास है. वहाँ भी है,देखो इधर है, उधर है,ये मैं उसकी मोहब्बत में करता,उसकी घसकटाई में मदद करता,वही पहली मोहब्बत थी,लेकिन दब-छिपकर ‘.ख़ैर.. अब बताते हैं मोतीलाल नेहरू की बात.मोतीलाल इलाहाबाद से कार से आज़मगढ़ आए.दोहरीघाट में बड़ी नाव पर रख उनकी कार घाघरा पार कराई गई.गोरखपुर पहुँचे और फ़िराक़ साहब के घर लक्ष्मी भवन में इसी ड्राइंगरूम में मेहमान हुए.शेव बनाने बैठे तो फ़िराक़ ने पूछा कि आप खाना तो खाएँगे.जवाहर लाल नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू ने जवाब में कहा कि क्या मैं भूखा रहूँगा.फ़िराक़ भागकर रेलवे स्टेशन गए और केलनर को लेमनेड समेत सब आर्डर दे आए.जब सब आ गया तो स्कॉच की बोतल खोल मिस्टर मोतीलाल नेहरू के सामने रख दी.पंडित जी मज़े से ढालकर पीते रहे और मज़े-मज़े की बातें करते रहे. वीडियो में अपनी आवाज़ में हम बीच में फ़िराक़ के घर के उस कमरे की सैर पर ले चलते दिखेंगे जो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सेनानियों की आरामगाह रहा और खुले-दबे-नेपे साहित्यकारों की शरण स्थली भी. आज वीडियो रिकॉर्ड किया है.नज़र-ए-इनायत फ़रमाएं.
डॉ. शारिक़ अहमद ख़ान
16 hrs ·
आज फ़िराक़ गोरखपुरी के निवास लक्ष्मी भवन शहर गोरखपुर जाना हुआ था.गोरखपुर शहर के तुर्कमानपुर मोहल्ले के इसी बंगले में फ़िराक़ साहब का जन्म 28 अगस्त सन् 1896 को हुअा.फ़िराक़ यहीं पले-बढ़े और यहीं रहते हुए मॉडल स्कूल गोरखपुर में प्रारंभिक शिक्षा हासिल की.उसके बाद जुबली स्कूल गोरखपुर के छात्र रहे.फ़िराक़ को इसी जगह उस दौर के जाने-माने आलिम मौलवी सादिक़ साहब पढ़ाने आया करते.इसी लक्ष्मी भवन से फ़िराक़ साहब की बारात निकली जो 21 जून सन् 1914 को मौजा बेलाबाड़ी सहजनवा ज़िला गोरखपुर के विंदेश्वरी प्रसाद के दरवाज़े गई.वहाँ से फ़िराक़ के हमराह किशोरी देवी इसी लक्ष्मी भवन में बहू के तौर पर आईं.ये लक्ष्मी भवन फ़िराक़ के पिता मुंशी गोरख प्रसाद ‘ इबरत ‘ ने बनवाया था जो गोरखपुर के दीवानी के मशहूर वकील और शायर थे.इनकी एक मसनवी हुस्ने-फ़ितरत बहुत मशहूर हुई. इसी जगह फ़िराक़ के पुत्र गोविंद और बेटियाँ प्रेमा,प्रभा और पुष्पा भी पले-बढ़े.फ़िराक़ ने इसी लक्ष्मी भवन में रहते हुए स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया.मोतीलाल नेहरू और मुंशी प्रेमचंद अक्सर यहाँ आते और लक्ष्मी भवन में मेहमान होते.फ़िराक़ साहब जब इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ाने लगे तो यहाँ आना कम हो गया.बहनों-भाइयों की पढ़ाई-लिखाई और शादी के ख़र्चों की वजह से फ़िराक़ ने लक्ष्मी भवन का एक हिस्सा बेच दिया और एक हिस्से को स्कूल को दे दिया.आज भी यहाँ कुछ लोग रहते हैं और सरस्वती विद्या मंदिर स्कूल भी चलता है.अब लक्ष्मी भवन की दरो-दीवार दरक रही हैं.कई कमरों की छतें टूट गई हैं.काफ़ी बड़ी कोठी का बड़ा हिस्सा जर्जर हो चुका है.ठीक हिस्से में रिहाइश है और स्कूल चलता है.यहाँ तो साहित्यकारों-कवियों-शायरों से जुड़ी जगहों को संरक्षित करने का कोई चाव सरकारों को नहीं रहा है.फ़िराक़ पश्चिम के किसी देश में जन्मे होते तो इस जगह को वहाँ के लोगों ने संरक्षित किया होता और लगन से संवारा होता.रघुपति सहाय ‘फ़िराक़ गोरखपुरी ‘जैसा विद्वान सदियों में पैदा होता है.बाकी बातें और विज़ुअल मेरे वीडियो में मौजूद हैं.