पाकिस्तानी शासन और शासक की कुर्सी शायद दुनिया का सबसे बड़ा कांटो का ताज हे जब से पाकिस्तान बना तब से ही इसके हर शासक की ये जैसे नियति ही रही हे की उन्हें बुरे दिन , बुरा अंजाम जरूर ही झेलना पड़ता हे . इलाज न मिलना गोली मिलना फांसी लंबी जेल यात्रा मुकदमेबाज़ी देश निकाला हर पाकिस्तानी शासक का अंजाम रहा हे ये सिलसिला पाकिस्तान के निर्माता और कायदेआज़म जिन्ना के साथ ही शुरू हो गया था कायदे आज़म मुस्लिम लीग के बेताज़ बादशाह थे मुस्लिम लीग में उनका कहा ही आखिर होता था उनके अलावा लीग में किसी की अहमियत नहीं थी सभी फैसले वो खुद ही लेते थे सत्ता के लालच में पाकिस्तान बनने तक कोई कुछ बोला नहीं लेकिन पाकिस्तान बनने के बाद उनके अपने डिप्टी लियाकत अली खान के साथ खिंच तान शुरू हो गयी थी हद ये भी थी की गवर्नर जनरल होते हुए भी जिन्ना खुद केबिनेट की मीटिंग लेते थे और पी एम् लियाकत अली खान उनके नीचे थे धीरे धीरे जिन्ना साहब का सवास्थ्य गिरता गया और लियाकत अली खान हावी होकर उनकी अवहेलना करने लगे जिन्ना के डॉक्टर इलाही बख्श का बयान था की जिन्ना ने उनसे कहा था की अब जितनी जल्दी हो सके वो मरना चाहते हे ये कहते हुए जिन्ना की आँखों में आंसू थे इलाही बख्श कहते हे की कुछ ऐसा हुआ था की जिन्ना की जीने की इच्छा मर गयी थी शायद यही हुआ होगा की पाकिस्तान बनने से पहले जो उनके सामने आँख मिलकर बात भी नहीं कर सकते थे वो अब उन्हें पूछते भी ना थे इसके बाद आया ग्यारह सिंतबर 1948 का उनकी मौत का दिन उनकी मौत शांति से नहीं हुई बल्किउस पूरा दिन उनकी दुर्गत सी हुयी थी जब बलूचिस्तान से कराची वापस लौटते हुए बीमार होने पर उनके लिए एक खटारा एम्बुलेंस भेजी गयी जो रास्ते में ही खराब हो गयी और पाकिस्तान का निर्माता बीच सड़क पर लाचार रुक रहा था किसी के दिमाग में ये तक नहीं आया की गवर्नर जनरल की कार से ही उस हलकी सी एम्बुलेंस को खिंच उन्हें जल्द अस्पताल पहुचाया जाए कराची की उमस भरी गर्मी थी और मक्खियां उनके चेहरे पर भीन भीना रही थी इसके बाद भी उनके इलाज़ में डॉक्टर इलाही बख्श को काफी दिक्कते आयी कई जरुरी सुविधाय नहीं मिल सकी और उसी रात जिन्ना साहब का इंतकाल हो गया ( महात्मा गाँधी को जहां शहीद की मौत मिली जिससे एक तो उनकी छवि और सलीब पर लटके ईसा के जैसी हो गयी यही नहीं उनकी शहादत से उनके शिष्य नेहरू को देश में वो शांति और मज़बूती के दस साल मिल गए जिस दौरान नेहरू ने देश में सेकुलरिज्म और लोकतंत्र की जड़े बेहद गहरी क़र दी ) जिन्ना साहब के इंतकाल के साथ ही वो सपना भी टूट गया जिसकी झलक उनके मौत से ठीक एक साल पहले ग्यारह सितंबर 1947 के भाषण से मिली थी की पाकिस्तान भी एक सामान्य देश बनेगा इसी के साथ वो सिलसिला शुरू हुआ जिसके तहत हर पाकिस्तानी शासक बुरे अंजाम की नियति पाता रहा!
जिन्ना के बाद पाकिस्तान में लियाकत अली खान का एकछत्र राज़ शुरू हुआ मगर तीन साल बाद ही एक नाराज़ अफ़ग़ान शरणार्ती ने एक जनसभा में ही उनकी गोली मारकर हत्या कर दी हत्यारे को भी वही ढेर कर दिया गया केनेडी की तरह उनकी भी हत्या का भेद आजतक नहीं खुल सका हे मगर लगता यही हे की ये सत्ता संघर्ष का ही नतीजा था इसके बाद अगले बड़े और प्रभावशाली पाकिस्तानी शासक थे राष्ट्रपति इसकंदर मिर्जा जो शिया होते हुए भी सुन्नी प्रभुत्व वाले पाकिस्तान के शक्तिशाली नेता बनकर उभरे थे उन्होंने उस गलती की शुरुआत की जो शायद इसके बाद परंपरा सी बन गयी की हर पाकिस्तानी शासक किसी को अपने फुल वफादार मानकर उसे अपना राइट हेंड बनाता और कुछ दिनों बाद वही राइट हेंड उनकी गर्दन दबा देता इसकंदर मिर्जा ने ना केवल अयूब खान को एक कोर्ट मार्शल से ही बचाया था बल्कि उन्हें पाकिस्तानी सेना का पहला कमांडर इन चीफ भी बनाया था मगर 27 अक्टूबर 1958 की रात मिर्जा ये देख कर भौचक रह गया जब अचानक रात में अय्यूब के सेनिको ने उन्हें उन्ही के आवास पर घेर लिया ये लगभग तय था की ये सैनिक उन्हें मार डालते अयूब के साथी यही चाहते थे लगभग चार दिन तक मिर्जा लगभग स्टेनगन के नीचे रहे मगर उसके बाद अमेरिकी दबाव में अयूब ने उनका लन्दन भेजा जाना स्वीकार कर लिया था लन्दन में मिर्जा को बहुत बुरे दिन देखने को मिले उन्हें देश वापस नहीं आने दिया उनकी हालात इतनी ख़राब थी की वो अपनी पत्नी से यह कहते हुए 1969 में दुनिया छोड़ गए की हम मेडिकल का खर्च नहीं बरदाश्त कर सकते सो मुझे मरने दो !
मिर्जा के बाद पाकिस्तान पर अयूब का एकछत्र राज़ चलने लगा भरपूर अमेरिकी सहायता से पाकिस्तान विकास करते करते विकास दर में एशिया में जापान के बाद दूसरे नंबर पर जा पंहुचा मगर इनके राइट हेंड थे जुल्फिकार अली भुट्टो जिनका मानना था की ” चिड़िया के नीचे से सारे अंडे ऐसे निकल लो की चिड़िया को पता भी ना चले बाद ज़िया उल हक़ ने ये चिड़िया भुट्टो को ही बना दिया ” भुट्टो ने ही अयूब को पहले 65 की जंग लड़ने पर उकसाया और उसके बाद ताशकन्द समझौते पर ज़बरदस्त अयूब विरोधी प्रोपेगेंडा करके अयूब के नीचे की जमीन खिसका दी और याह्या खान के साथ मिलकर अयूब का तख्त कुछ कुछ वैसे ही अंदाज़ में उल्ट डाला जैसे मिर्जा का उल्टा गया था अयूब को भी लगभग वैसा ही अपमानित होकर राष्ट्रपति आवास से निकाला गया जिसके बाद एक समझौते के तहत वो चुपचाप तन्हाई में स्वात चले गए बिना किसी चु चपड़ बदले में उनके पुत्र की सम्पतियो को छोड़ दिया गया इसके बाद आये याह्या खान जो रात दिन शराब और अय्याशी में इतने धुत रहते थे की उन्हें पता भी नहीं चला की कब पाकिस्तान टूट गया और कब उन्हें भी लात मारकर हटा दिया गया इसके बाद पाकिस्तान के पहले लोकतान्त्रिक तरीके से जीते शासक बने जुल्फिकार अली भुट्टो उनके राज़ में सब कुछ ठीक ठाक ही चल रहा था मगर कुछ तो तेल संकट के बाद बढ़ती महगाई बलूचिस्तान में कार्यवाही कुछ तानाशाही का रवैया और कुछ परमाणु बम बनाने की कोशिश पर अमेरिकी नाराज़गी धीरे वो भी अलोकप्रिय होने लगे मगर इस कारण तो वो सिर्फ हटाय जाते उनका फांसी जैसा अंजाम ना होता उनका ये अंजाम हुआ उस ज़िया उल हक़ के कारण जिसे उन्हें एक बेवकूफ और एक भरी वफादार समझ कर सेना सौप दी थी की ये मुर्ख सा आदमी मेरे इशारो पर रहेगा मगर कुछ ही दिनों बाद ज़िया ना केवल भुट्टो को तख़्त उल्ट डाला 1977 लोकतंत्र खत्म कर मिल्ट्री राज़ ले आया बल्कि वो किया जो शायद ही किसी और लोकतान्त्रिक प्रधानमंत्री के साथ दुनिया में हुआ हो की भुट्टो को एक झूठे राजनितिक हत्या के मुकदमे में फांसी दे दी गयी यही नहीं फांसी से पहले उन्हें काफी टॉर्चर दिया गया यहाँ तक की उनके बाथरूम में दरवाजा तक नहीं था सारी दुनिया की अपीलों के बाद भी ज़िया अपने लोगो के ये समझने पर की एक कब्र हे दो आदमी ( ज़िया भुट्टो ) किसी एक को जाना ही होगा फिर भुट्टो को फांसी चढ़ा कर ही माने !
अमेरिका आदि देश भुट्टो को बचा सकते थे मगर अफ़ग़ानिस्तान पर रूस के हमले के साथ ही ज़िया अमेरिका और वेस्ट के चहेते बन गए थे सोवियत संघ को खत्म कर देने वाली अफ़ग़ान वार का ज़िया ने बेहद फायदा उठाया ना केवल 11 साल तक एकछत्र राज़ किया बल्कि अमेरिका और अरब देशो से अंधी मदद भी हासिल की इसी मदद का एक नतीजा पाकिस्तान का एटमी ताकत बनना भी था मगर फिर वही हुआ जो होता आया हे एक विमान हादसे में जिया की ऐसी भयानक मौत हुई की उनकी बॉडी का कोई हिस्सा भी ना मिला उनकी मौत पर जो ताबूत रखा था बेनजीर भुट्टो अपनी किताब में कहती हे की वो खाली था जिया की मौत का भी रहस्य खुल नहीं पाया हे कुछ लोग इसे जिया के फैलाय वहाबीकरण से नाराज़ शियाओ का काम मानते थे तो कुछ लोग इसे कुछ मुद्दो पर भारी मतभेद के बाद अमेरिकी सी आई ए का काम मानते थे हलाकि इस हादसे में पाकिस्तान में अमेरिकी राजदुत की भी मौत हो गयी थी ज़िया की मौत के बाद से ही पाकिस्तान में लगातार चुनाव तो होते रहे और कभी बेनज़ीर तो कभी नवाज़ सत्ता में आते रहे मगर अलोकतांत्रिक तरीको से हटाय जाते रहे इस दौरान भी शासको की दुर्गत की नियति जारी रही बेनजीर को जहां देश छोड़ कर भागना पड़ा वही उन्हें शासन में मिस्टर 40 परसेंट कहे जाने वाले उनके पति आसिफ अली ज़रदारी दस साल से भी अधिक समय तक जेल में सड़ते रहे आख़िरकार जब बेनज़ीर वापस पाकिस्तान आयी तो एक तालिबानी हमले में मारी गयी दूसरे लोकतान्त्रिक शासक नवाज़ शरीफ के साथ भी वही हुआ जो पहले भी होता आया हे एक शक्तिशाली जनरल को निपटाकर हटाकर उन्होंने अपने वफादार परवेज़ मुशर्रफ को सेना सौपी मगर कारगिल के बाद दोनों के मतभेद इतने बड़े की परवेज़ ने ज़िया की तरह ना केवल नवाज़ का तख्ता उल्टा बल्कि लगभग फांसी के तख़्त तक भी ले आये थे मगर सऊदी शासको ने किसी तरह से नवाज़ को बचाकर अपने यहाँ बुला लिया जहा बरसो तक नवाज़ को जलावतनी भुगतनी पड़ी इसके बाद मुशर्रफ का एकछत्र राज़ शुरू हो गया मगर ”परंपरा ” ज़ारी रही सुप्रीम कोर्ट के ज़ज़ों के साथ भिड़ंत में कब मुशर्रफ बेहद अलोकप्रिय हो गए कब उनकी जमीन खिसक गयी उन्हें पता भी नहीं चला नतीजा वो भी पाकिस्तान से खिसक लिए इधर उधर धक्के खा कर जब पिछले सालो में वापस लोकप्रियता के भरम में पाकिस्तान पहुचे तो उन्हें नज़रबन्द कर लिया जहां से वो बड़ी मुश्किल से छूट कर देश छोड़ कर भागे तो पाकिस्तानी शासको की देरसवेर दुर्गत का ये सिलसिला जिन्ना से लेकर अब तक जारी हे अब इस समय पाकिस्तान के अगले शासक क्रिकेटर इमरान खान बताय जा रहे हे देखना दिलचस्प होगा की अगर सत्ता इमरान खान को मिलती हे तो क्या ये ” दुर्गत ” का सिलसिला रुकेगा या नहीं —————– ?
याह्या खान जिन्होंने भट्टो के साथ मिलकर अयूब खान का तख्तापलटा था उनका अंजाम लिखना रह गया था उनका अंजाम यह हुआ ” भुट्टो को अपना पद सौंपने के बाद याहया ने उनसे हाथ मिलाते हुए कहा था, गुड बाई सर, आई विश यू लक. जनरल पीरज़ादा ने उनसे हाथ मिलाते हुए कहा, अब आप एक आज़ाद व्यक्ति हैं. याहया ने ज़ोर का ठहाका लगाते हुए बगल में खड़े हुए अपने बेटे अली से कहा था, हाँ अली, तुम और हम अब आज़ाद हैं.
याहया बहुत ज़्यादा दिनों तक आज़ाद नहीं रहे और अपने जीवन के अगले पांच साल उन्होंने नज़रबंदी में बिताए. इस दौरान उन्हें लकवा भी मार गया. जनरल ज़िया ने जब भुट्टो को सत्ता से हटाया, जब जा कर याहया ख़ाँ की रिहाई हो सकी.”
पुस्तक अंश ” ”सुर्ख कारवाँ के हमसफ़र ” नूरजहीर सज़्ज़ाद ज़हीर की जन्मशताब्दी के अवसर पर एक भारतीय लेखको का एक प्रतिनिधिमंडल पाकिस्तान के सफर पर गया था जिसमे सज़्ज़ाद ज़हीर की बेटी नूर ज़हीर भी थी जिन्होंने इस रोचक सफर पर एक किताब लिखी . इसी सफर में एके हंगल ने 57 साल बाद फिर से कराची की धरती पर कदम रखा था और अपने तब के बिछड़े साथियो से मिले थे ‘ सुर्ख कारवाँ के हमसफ़र ‘ इसी किताब के कुछ अंश साभार पेश हे ——————————— जलसा खत्म हो गया . विभूति नारायण राय और अली जावेद ( भारतीय ) के साथ में राहत सईद साहब ( पाकिस्तानी ) के घर के लिए रवाना हुई बाकी डेलिगेशन के लोग पाकिस्तान इंस्टिट्यूट ऑफ़ लेबर एन्ड रिसर्च जो पाइलर कहलाता हे के गेस्ट हाउस में ठहराय गए थे . राहत सईदसाहब के घर का अजीब माहौल हे . यहाँ धर्म के नाम पर कोई फर्क नहीं किया जाता हे जो लोग ऐसा करते हे उन्हें बड़ी नीची नज़रो से देखा जाता है , मगर शिया सुन्नी का फर्क बड़े जोरशोर से मनाया जाता हे राहत भाई शिया हे और उनकी बेगम सुन्नी और दोनों ही अपने अपने फिरके को बेहतर मुस्लमान मानते हे . राहत भाई मोहर्रम को संस्कर्ति का अहम और उन्नत अंग समझते हे और भाभी की हर आदत को मज़हब गिनते हे . यानी आप हुए सुसनस्क्र्त और वह हुई धार्मिक यानि बैकवर्ड . बड़े मज़े की तकरार दोनों में पहली रात में ही शुरू हो गयी . क्योकि सज़्ज़ाद ज़ाहिर साहब ने बचपन में ही सिखाया था की घर की मालकिन औरत ही होती हे लिहाज़ा में राहत भाई के बजाय भाभी की राय की तरफदारी करना बेहतरी समझी .वैसे राहत भाई को बहुत ज़्यादा साथ देने की जरुरत नहीं थी अली जावेद तो सख्त किस्म के शिया हे ही और विभूति भाई हिन्दू के नाते शियापक्षी हे दोनों ही राहत भाई का साथ दे रहे थे और तीनो का साथ देने के लिए कई अदद बोतलें थी. ऐसा सुनने में आया हे की जोश मलीहाबादी जिन्हें रोज शाम को पीने की आदत थी , अपने आखिरी दिनों में काफी तकलीफे झेलते रहे क्योकि पाकिस्तान में उन्हें शराब नहीं मिलती थी तंग आकर उन्होंने शाम के समय काली चाय बनवा कर पीनी शुरू कर दी थी , शायद खुद को यह सहारा देने के लिए की सीरत एक सी ना सही , सूरत एकजेसी थी खेर अब सूरते हाल वैसे नहीं थे ट्रेन में जो हुआ वह इतफ़ाक़ नहीं था पाकिस्तान इस्लामी मुल्क सही यहाँ पीने पिलाने की न तो कोई कमी थी और न ही पाबन्दी . ———————————————– फिर जलसे में एके खलबली सी हुई और एके हंगल साहब को लिए राहत सईद मंच पर आये और हंगल और मीरचंदानी ऐसे गले मिले जैसे ‘बिछुड़े हुए काबे में जब सनम आएंगे तो ऐसे ही दरोदीवार से गले मिलेंगे ‘ सारा हाल तालियों से गूंज उठा और एके भराई हुई आवाज़ ने नारा दिया ” पाक हिन्द दोस्ती जिंदाबाद नारा पुरे जलसे में बार बार दोहराया गया इन दोनों से ( हंगल और मीरचंदानी ) से सज़्ज़ाद जहीर ने कहा था की हिंदुस्तान चले जाओ , यहाँ अभी कुछ कर पाना सम्भव नहीं हे एके ने हां कहा दूसरे ने कहा ना और इसी पार्टी जनरल सेकेट्री के हुकुम को मानने ना मानने से दोनों दोस्त ऐसे बिछड़े की आज 54 साल बाद मिले ——————————— डेलिगेशन को स्टेज पर बुलाकर तरफ कराया गया फिर डेलिगेशन के नेता होने के नाते डॉ कमल प्रसाद का भाषण हुआ उर्दू में पढ़ने लिखने वालो ने सबको डराकर रखा था की कोई ज़्यादा मुश्किल हिंदी न बोले क्योकि पाकिस्तान में लोग समझेंगे नहीं . कमला प्रसाद भी पहले तो बड़ा सतर्क रहे और बड़ा सम्भल कर सीधी सादी भाषा में बोलते रहे , फिर जैसे जैसे भावुकता और उत्तेजना बढ़ी और बात गंभीर भी हुई वह अपनी असली भाषा पर आ गए और खुले दिल से तत्सम शब्दो का प्रयोग करने लगे लेकिन क्या बात थी की मज़मा हर सही मुद्दे पर दाद दे रहा था ? या तो यहाँ के लोग हिंदी समझते थे या फिर दिलो की जबान सरहदों दीवारों के पारे उतर जाती हे और दूसरे दिलो में गूंज पैदा करती हे फिर तो सबकी ऐसी हिम्मत बंधी की खगेन्द्र ठाकुर ने शुरुआत ही ” मंच पर बैठे आदरणीय अध्यक्षगण से की लेकिन जलसे के बाद सब पाकिस्तानी साथियो ने कहा की काम की बात सिर्फ उनके और कमला प्रसाद के भाषण में थी ——————————— शाम के वक्त सादीकैन नाम की संस्था की और से हम लोगो का अभिनंदन था यह संस्था स्कुल भी चलती और मुस्तक़िल हिन्द पाक दोस्ती की कोशिश भी करती हे ————— कैसा अजीब माहौल था जिसमे पाकिस्तानी अदीब ,हम लोगो को अपनापन देने कै लिए आपस में होड़ लगा रहे थे . कोई कमला प्रसाद को खींचे जा रहा था कोई देवताले जी की गर्दन छोड़ने को राजी नहीं था यह केसी बेपनाह मोह्हबत हे जो सरकारी दीवारों को तोड़ कर चकनाचूर नहीं कर पाती हे नौजवान अदीबो का अलग झुण्ड हमारे बीच से छांट छांट काट हमउम्र अदीबो को अपने घेरे में लिए तफसीली बातचीत में मगन था इतना अच्छा माहौल था की जी चाहता था की इस रात की सुबह न हो ————————————————–सूफी साहब ( एक बलूच और कम्युनिस्ट कार्यकर्ता ) सूफी साहब को देख कर ज़रा मायूसी हुई लेकिन जब उनसे बातचीत शुरू हुई तो एकदूसरी हैरानी ने आ घेरा इतना साफ़ , सुलझा हुआ दिमाग और सियासत और और अंतराष्ट्रीय राजनीति की इतनी गहरी समझ ————-दूसरे इनकी बहुत ही छोटी , भूरी नीली आँखों से उस वक्त आग बरसने लगती हे जब बलूचिस्तान पर बराबर होने वाले ज़ुल्म और ज़बर की बात होती हे पाकिस्तान कै पुरे कल्चर में पंजाबियत का बोलबाला हे ————कुछ इन्ही कारणों से पूर्वी पाकिस्तान अलग हुआ ——-आज भी वही समस्या बरक़रार हे . उनके साथ हमदर्दी रखते हुए भी मेरी समझ नहीं आ रहा था की फिर किसका बंधन ज़्यादा मज़बूत हे . धर्म का जिसने हिंदुस्तान को काट कर पाकिस्तान बनाया या सन्सक्रति का जिसकी वजह से पाकिस्तान कट कर बांग्लादेश वज़ूद में आया ——————————-सूफी साहब की सारी बाते सुनकर मेने उनसे ही पूछा की” अगर इतनी ही साम्प्रदायिकता सहनी थी तो एक हिन्दू मुस्लिम भेदभाव सहते और हिंदुस्तान को एके ही रखते तो क्या बुरा था ? तंज से मुस्कुराकर बोले ” मुझे क्या पता मेने तो हिंदुस्तान को काटा नहीं तो फिर किसने काटा ? ” मेने हैरत से पूछा ” आपने ” छोटा सा जवाब जो मेरे मुह पर थप्पड़ की तरह लगा . सच तकलीफदेह कड़वा असहनीय सच . यु पि बिहार क़े मुसलमानो ने ही यह तय किया था की वह हिन्दुओ कै साथ नहीं रह सकते . उन्होंने ही सावरकर क़े एके बेवकूफी क़े लेख को सारे हिन्दुओ की राय मन लिया था उन्हें ही एके अलग मुस्लिम देश चाहिए था क्या क्षेत्र का चयन भी यह सोच कर किया होगा की वहां तो ज़ाहिल कबीले बसते हे हम पढ़े लिखे रोशनख्याल मुसलमान आराम से उन पर शासन कर पाएंगे हम यहाँ की तरह अल्पसंख्यक ना होंगे हम अव्वल शहरी होंगे और यह हमारे नौकर चाकर हमारी प्रजा . वे मुझे यु घूर रहे थे जैसे मेरे दिल का हाल मेरे चहरे पर पढ़ रहे हो फिर जैसे सब समझ कर बोले ” लेकिन ऐसा हुआ नहीं पुरे पाकिस्तान पर पंजाबी छा गए , ” ( प्रकाशक मेधा बुक्स नवीन शाहदरा से प्रकाशित पुस्तक सुर्ख कारवाँ क़े हसमसफर लेखिका , नूर ज़हीर , साभार )
प्रसन्न प्रभाकर
सिंध, सदियों से सुलगता एक स्थान, विभाजन के दौरान बिना दहके कैसे रह सकता था। ऊपरी कहानी सब जानते हैं कि कितने दंगे हुए, नरसंहार हुए, अंदर में कुछ अलग खिचड़ी पक रही थी। करांची हिन्दू बहुल इलाका था। धनी लोगों में अधिकांश हिन्दू ही थे। पैसे और व्यापार की इतनी धमक की कि पार्टीशन के पहले दुसरे समुदाय वालों को कितनो ने कह रखा था कि बनने दो पाकिस्तान, हम चलने नहीं देंगे।हालात तब अधिक बिगड़े जब वहां मुहाजिर आने शुरू हुए, वो जिन्हें जन्नत सरीखे पाकिस्तान के सब्जबाग दिखाये गए थे। उस जन्नत को न पाकर उन्होंने डराने-धमकाने से लेकर सरेबाज़ार क़त्ल को अंजाम देना शुरू किया। स्थानीय मुस्लिम इससे अलग रहे। भारत में भी यही हुआ था बस समुदायों की अदला – बदली हो गई थी। अल्पसंख्यक जगह छोड़कर भागने लगे। कांग्रेस का निर्देश था कि आप अपनी जगह पर बने रहें । मगर सामने जिंदगी दाव पर लगी हो तो …..
वहां दलितों की आबादी करीब 3 लाख थी। कुछ ने तो अपने मालिकों के साथ जाने से इंकार कर दिया। कहा हमें क्या फर्क पड़ेगा भारत में रहें या पाकिस्तान में, हिन्दू मालिक रहें या मुस्लिम। पर जब एक शाम एक दलित महिला के साथ दुर्व्यवहार हुआ तो सोंच बदल गई। इधर सिंध कांग्रेस के नेताओं ने दिल्ली आकर वास्तविकता से रूबरू करवाया। कांग्रेस अब पलायन के पक्ष में होने लगी।
अब हिन्दू छोड़कर आने लगे। धनी और मध्यम वर्गीय हिन्दू। कुछ अपने दलित नौकरों को भी साथ ले आये। रास्ते में जो हुआ, वह ज्ञात है। दोनों तरफ से रास्ते में मारकाट हुई। अधिकतर दलित निकलने में असमर्थ थे क्योंकि उनके पास न पैसे थे और न ही संपर्क। गांधी उनकी वास्तविकता समझते थे। 1929 में जब वो करांची गए थे तब उनके सम्मान में दो सभाएं आयोजित की गई थीं। एक उच्च वर्गीय हिन्दू की और दूसरी दलितों की। प्रतिरोध में गांधी ने उच्च वर्गीय सभा का बहिष्कार कर दिया।
तो गांधी जी ने जहाज के मालिकों से संपर्क किया। कहा आपको मेरे लिए एक काम करना है। सिंध के दलितों को निःशुल्क भारत लाना था। उन पूंजीपतियों ने ऐसा ही किया। कई जहाज सिर्फ दलितों को लेकर भारत आये।
अब परेशान होने की बारी सिंध की सत्ता की थी। करांची में सफाई से लेकर अन्य ऐसे काम करनेवाले लोग नहीं मिल रहे थे। शहर में अव्यवस्था फ़ैल गई। सरकार ने दलितों के जाने पर प्रतिबंध लगा दिया। उनके इलाकों के आसपास पुलिस के पहरे लगा डाले। कांग्रेस पर प्रतिबंध लग गया।
सफाई का सवाल अब भी हल नहीं हुआ था। विचार हुआ कि बिहार से काम करने के लिए 10000 मुसलमान भंगी लाये जाएँ ।
दलितों के आने पर रोक से भारतीय नेता अम्बेडकर, जगजीवन राम परेशान हो उठे। गांधी ने आवाज उठाई और और अंदर ही अंदर सिंध में अपने विश्वसनीयों को सक्रीय कर दिया। एक बड़े सिंधी नेता जो भारत आ चुके थे, उन्हें यह कहकर भेजा कि जबतक वहां से आने के इच्छुक सारे दलित आ नहीं जाते, तबतक तुम वापस लौटकर नहीं आना।
…वह गांधी के जीवन का अंतिम दिन था।
वह जानते थे कि वहां की शान्ति का यहाँ की शान्ति और यहाँ की शांति का वहां की शांति से कितना गहरा संबंध था। अनशन इसी हेतु था।
रोक नहीं हटी। फिर भी कभी सर पर साफा बांध माड़वाड़ी जैसा बन या किसी अन्य तरीके से वहां अंडरग्राउंड कांग्रेसी नेता दलितों को भेजते रहे। भारत के पाकिस्तान में प्रथम उच्चायुक्त श्री प्रकाश लिखते हैं कि उन्हें तो मुस्लिम बुनकरों की भी चिंता हो रही थी जो बनारस की तरफ से आये थे। फातिमा जिन्नाह ने ऐलान किया था कि साड़ी हिन्दू परिधान है और इसे पहनना गैर इस्लामी ।
बहुत आये। बहुत मुहाजिर भी लौटे। पर अधिसंख्य आबादी वहीँ रही। 1949 में उन सिंधी कांग्रेसी नेता पर प्राणघातक हमला हुआ जिन्हें गांधी जी ने भेजा था।गांधीवादियों को पकड़कर जेल में ठूंसा जाने लगा था इस बिनाह पर कि उनके पास हथियार हैं। मिले थे न हथियार- चरखे, कतलियां, और एक घरेलु चाक़ू। अपने मुस्लिम मित्रो की सहायता से जान बचाते बचाते वह भारत पहुंचे। यहाँ सिंधियों की एक बस्ती बसाई जिसे गांधीधाम नाम दिया गया। इस योजना को गांधी ने आशीर्वाद दिए थे।
भारत में भी बहुत कुछ ऐसा ही हुआ। घटनाएं बहुत हैं जो अंतर्मन में कहीं न कहीं बैठी रहती हैं। उधर भी, इधर भी।—————–प्रसन्न प्रभाकर
20 September at 19:50 ·
पलायन बहुत सारी वजुहातों से होते हैं। राजनैतिक ,सैन्य नरसंहार से लेकर अपनी और स्टेट की बदहाली के कारण जिसका विश्लेषण विद्वतगण कई तरह से करते हैं।
पलायन तब भी होता है जब प्राकृतिक आपदा आती है…बाढ़, सूखा जैसे। पलायन तब भी होता है जब राज्य रोजगार देने में असमर्थ हो जाता है। पलायन तब भी होता है जब राज्य/राष्ट्र अपनी समस्याओं के निदान में पूर्णतया असमर्थ हो जाता है।
सभी पलायन “सर्वाइवल” के लिए ही होते हैं। इसे अनेक खंडों में विभक्त किया जा सकता है। आर्थिक पलायन , राजनैतिक पलायन, एथनिक माइग्रेशन, सांस्कृतिक पलायन… और जो भी हों। इनमें से कोई किसी से कम बुरा नहीं होता। हाँ, परसेप्शन अलग-अलग जाता है। यह परसेप्शन एथिनिसिटी पर सबसे ज्यादा बल देता है। अन्य कारण अधिक महत्व के होते हुए भी ध्यान में नहीं आते/ लाये जाते।
क्या महाराष्ट्र में दुत्कारे जानेवाले बिहारी और यूपी के भैया लोगों की स्थिति किसी विशेष वक्त में किसी रोहिंग्या से अच्छी होती है?
रोहिंग्या के लिए आतंकवाद से जुड़ना दिखलाया जाता है तो वहीं महाराष्ट्र में बिहारियों के लिए गंदगी फैलानेवाले से लेकर जॉब खानेवाले जैसे शब्द प्रयुक्त किये जाते हैं। उन्हें शर्तिया अपराधी माना जाता है।
कुछ सच्चाई तो रहती ही हैै/होगी मगर एक पूरी कम्युनिटी को इसी आधार पर निशाना बनाये जाना कोई नई बात नहीं। मराठा राज्य में भी कभी गुजरातियों और तमिलों( क्षमा करें, लुंगी पहननेवाले) को ऐसे ही ठिकाने लगाया गया था। एक जगह तो यह लिखा दिख जाता है कि बिहारी शौच के बाद धोते भी नहीं। यह सभी बातें सही लगती हैं क्योंकि उसके पीछे एक आधार पहले से बना हुआ होता है जिसे दरअसल बनाया जाता है। ऐसे में ऐसी फालतू बातें भी सत्य प्रतीत होती हैं। पहले राक्षसीकरण करने के बाद ठिकाने लगाने पर सभी “नैतिकता”के नाम पर एकसुर हो जाते हैं।
परसेप्शन डेवलपमेंट हर स्टेट का मन्तव्य होता है। लोकतंत्र में जनता / समाज को लक्ष्य बनाया जाता है। यही कारण है कि कुछ और विषयवस्तु ली हुई समस्या का एक ही विश्लेषण/ प्रस्तुतिकरण/ समाधान दिखता है। समाज स्वयं ही निशाना है यह कभी भी समाज नहीं समझ पाता।
एथिनिसिटी और रिलिजन के नाम पर सबसे अधिक आवाजें उठती हैं। स्टेट बाकी संहारों से मानस को दूर करने लिए इनका प्रयोग बखूबी करता है।
हर चुनाव के पहले राज ठाकरे और कभी बाल ठाकरे जैसे लोग अन्य राज्यों के प्रवासियों का मुद्दा उठाते नहीं थकते। अपने ही देश में विदेशी बने बिहारी उन रोहिंग्या जैसे ही हैं। अपने घर जा नहीं सकते। कुछ गछ ( वायदा) करके निकले थे। कोई बाढ़ तो कोई सूखा से बर्बाद होकर निकला है तो कोई भूमि सुधार न होने की दशा में चाहकर भी खेती न कर पाने की विवशता में। हालाँकि बहुतायत स्वयं की इनोवेशन पोटेंशियल कम होने के कारण भी निकलती है।
इन्हें (निम्न वर्ग , मध्यम वर्ग नहीं जो इन सबसे मुक्त रहकर स्वयं को इस बिंदु पर ऊंचा समझता है ) भी स्टेटलेस कहना उचित होगा !! पिटते यही निम्न वर्ग वाले हैं हालाँकि खबर तभी बनती है जब कोई एक , एक भी उनसे ऊँची हैसियत वाला गलती से शिकार हो जाता है।
हालांकि मौका मिलने पर यही पीड़ित किसी और को पीड़ा देने से नहीं चूकते। पीड़ित के पास किसी अन्य को पीड़ा देने को जायज ठहरानेवाला इतिहास भी होता है।
सिर्फ फिजिकल नरसंहार की बात नहीं कर रहा। यह भी न समझा जाये कि किसी नृशंसता को कम कर के आंक रहा।प्रसन्न प्रभाकर
20 September at 22:09 ·
आगे जो भी लिख रहा हूँ उसे सच न समझा जाये। यह मात्र एक परसेप्शन है/बन सकता है/ बनाया जा सकता है।
बिहार की राजधानी पटना सदियों तक भारतवर्ष के सबसे बड़े साम्राज्यों की राजधानी बनी रही। कहा जाता है कृष्ण को भी सबसे बड़ा विरोध राजगृह वाले जरासंध से झेलना पड़ा था। बिंबिसार, अजातशत्रु, महापद्मनंद , चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक , समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य… जाने कितने साम्राज्यवादी राजा हुए जिन्होंने राजनैतिक रूप से भारत को एकीकृत किया।
किसी अन्य तथाकथित “हिन्दू राजा” की औकात नहीं रही जो इतने बड़े क्षेत्र पर शासन कर सके। ले-देकर थानेश्वर और कन्नौज वाला एक हर्ष मिला जिसपर विवाद अधिक हैं , ऊपर से यह तो बौद्ध निकला।
मुगलों के पुर्व पाटलिपुत्र से बड़ा साम्राज्य किसी ने स्थापित नहीं किया। ऐसे में “हिन्दू पद पादशाही”के तथाकथित वारिस पाटलीपुत्र को क्यों नहीं अपना केंद्र बनाते? कैसे कहें कि इन्हीं के क्षेत्रों से कभी चौथ और सरदेशमुखी वसूला था !
इसी कुसुमपुर के धनानन्द के भय से कभी सिकंदर की सेना ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया था। दिल्ली को लेकर है कोई ऐसा उदाहरण ?
एक और कारण है- बौद्ध मत। जिस बौद्ध मत के खिलाफ लिखते इनकी लेखनी नहीं थकती, उसके केंद्र को कैसे स्वीकार कर लें। जबकि कभी भी इस स्तर तक स्वयं न पहुंच सके।
इस अवस्था में ” राष्ट्रवादियों” से यह गुजारिश है को वो पाटलिपुत्र अथवा पटना को देश की राजधानी बनाने की मांग करें। आजकल शहरों के नाम तो बदले ही जा रहे हैं। आक्रमणकारियों द्वारा दिये नाम हटाये ही जा रहे हैं। ऐसे में पटना तो मात्र एक अपभ्रंश ही है ??
मेरा गांव भी तब एनसीआर में जाएगा ??
बनाया जाए न यह परसेप्शन !!क्यों ?
राष्ट्रवादी दायित्व हैं मेरे राष्ट्रवादी मित्रों
हाँ भूल गया था मित्रों , चाणक्य भी तो इसी पाटलिपुत्र को ही देश का केंद्र बनाने के लिए अपने को होम किये हुए थे ?
प्रसन्न प्रभाकर
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Pushya Mitra
Yesterday at 09:42 ·
क्या हुआ पाकिस्तान को बनाने वाली पार्टी ऑल इंडिया मुस्लिम लीग का?
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आज पाकिस्तान में वोट डाले जा रहे हैं. काश वहां होने वाले इस चुनाव को हम डेमोक्रेसी की सफलता कह पाते, क्योंकि यह चुनाव पहली दफा एक डेमोक्रेटिक गवर्नमेंटे के टर्म पूरा होने के बाद हो रहा है. मगर वहां से आने वाली खबरें बता रही है कि यह चुनाव बस कहने को डेमोक्रेटिक है. लोकतंत्र वहां फिर से सेना के ब्यूह में फंसता नजर आ रहा है. बहरहाल इस मसले पर काफी कुछ लिखा जा रहा है. हम दूसरी बात करेंगे.
यह बात होगी ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के बारे में. वह राजनीतिक दल जिसकी पाकिस्तान के एक राष्ट्र के रूप में जन्म लेने में इकलौती और सबसे बड़ी भूमिका मानी जाती है. वह दल कहां गुम हो गया. जबकि उसका इंडियन काउंटरपार्ट कांग्रेस आज भी देश का दूसरा सबसे बड़ा राजनीतिक दल है, हाल-हाल तक यह नंबर वन था.
वैसे तो नवाज शरीफ की पार्टी पीएमएल(नवाज) का पूरा नाम पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज है. यह पार्टी खुद को ऑल इंडिया मुस्लिम लीग से ही जोड़ती है. मगर यह वह पार्टी है नहीं. वह ऑल इंडिया मुस्लिम लीग, जिसने मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में भारत से पाकिस्तान को अलग करने की लड़ाई लड़ी थी वह कई वजहों से पाकिस्तान बनने के महज 11 साल बाद ही 1958 में खत्म हो गयी. इस बीच उसका नाम भी बदला और कई टुकड़े भी हुए.
इस प्रसंग में सबसे दिलचस्प बात जो मुझे लगती है वह इसका नाम है. ऑल इंडिया मुस्लिम लीग. भारत के पाकिस्तान को अलग करने के लिए बनी पार्टी के नाम में ही इंडिया शामिल है. और पाकिस्तान बनने तक यह नाम वैसा का वैसा ही रहा. अलग देश बनने के बाद वहां के हुक्मरानों को इस नाम से दिक्कत महसूस होने लगी और दिसंबर 1947 में जाकर इसका नाम बदला.
उस समय इस पार्टी के दो टुकड़े किये गये. मुस्लिम लीग और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग. इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग नामक पार्टी भारत में बच गये लीगियों ने संभाली और केरल में यह पार्टी आज भी अस्तित्व में है. पाकिस्तान में बची पार्टी का नाम मुस्लिम लीग रखा गया.
इस नामकरण को लेकर भी विवाद हुआ. सुहारावर्दी जो उस जमाने में लीग के बड़े नेता थे, का कहना था कि पाकिस्तान बनने के बाद पार्टी के नाम में मुस्लिम शब्द का होना गैरजरूरी है. इसका नाम पाकिस्तान लीग होना चाहिए. मगर लीग के नेताओं ने उनकी बात नहीं मानी. लिहाजा उन्होंने एक अलग पार्टी बना ली. आवामी लीग. यह आज भी बांग्लादेश में मजबूती से डटी है.
मुस्लिम लीग के दो बड़े नेता था. मोहम्मद अली जिन्ना और लियाकत अली खान. 1948 में जिन्ना गुजर गये और 1951 में लियाकत अली खान. फिर मुस्लिम लीग के गर्दिश के दिन शुरू हो गये. 1955 में यह पार्टी चुनाव हार गयी. युनाइटेड फ्रंट नामक एक गठजोड़ ने पाकिस्तान को बनाने वाली पार्टी को बुरी तरह हरा दिया. उसके बाद माइनॉरिटी सरकार बनी और 1958 में पाकिस्तान सेना के कमांडर इन चीफ ने डेमोक्रेसी को विदाई दे दी और मार्शल लॉ लगा दिया. उसी साल मुस्लिम लीग भी एक पार्टी के तौर पर खत्म हो गयी.
दिलचस्प है कि इसी अयूब खान ने 1962 में पाकिस्तान मुस्लिम लीग की स्थापना की, जो 1988 में डिजॉल्व हो गयी. जिया उल हक के निधन के बाद नवाज शरीफ ने पाकिस्तान मुस्लिम लीग(नवाज) का गठन किया. यह पार्टी उसी मुस्लिम लीग से अपना नाता बताती है. मगर यह नातेदारी जमती नहीं है. आज मुस्लिम लीग के नाम से पाकिस्तान में आधा दर्जन से अधिक पार्टियां हैं. मगर उनमें से किसी का उस मुस्लिम लीग से नाता नहीं है, जिसने पाकिस्तान का निर्माण किया था. इस तरह देखा जाये तो उस मुस्लिम लीग का इकलौता जीवित वंशज इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग है, जो इंडिया के केरल में संचालित हो रहा है.
रियल एस्टेट के बिजनेस में तीन चीजें मायने रखती है।।
पहली लोकेशन, दूसरी.. लोकेशन। और तीसरी- लोकेशन। पाकिस्तान के पास तीनो चीजें थीं। एक ऐसा चौराहा जिससे गुजरना आधी दुनिया की मजबूरी है। सेंट्रल एशिया के प्लेन्स और समुद्र के बीच सबसे छोटा रास्ता पाकिस्तान है। चीन और तिब्बत के बड़े पूर्वी इलाकों के लिए नजदीकी रास्ता पाकिस्तान है। भारत और अरब दुनिया, याने आगे यूरोप के बीच पाकिस्तान है।
इस्लामिक देशों के बीच सबसे नया उपजा, याने उसके बैगेज से फ्री देश कोई है, तो पाकिस्तान है। सूखे रेगिस्तानों से अलग, हराभरा, नदियों, पहाड़ों, खनिज से भरा देश पाकिस्तान है। एशिया के सबसे खूबसूरत पहाड़, सबसे पुरानी सभ्यता, और बहुरंगी ट्राइबल कल्चर का देश पाकिस्तान है। न बेहद बड़ा, न बेहद छोटा देश, न बड़ी न छोटी पॉपुलेशन.. एक परफेक्ट देश पाकिस्तान है।
मगर ठहरिये। परफेक्ट .. न, न , न
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भारत के एक विजनरी लीडर ने अपनी जनता से कहा था- “धरती, नदी, नाले, पहाड़, लोकेशन , इलाका , सीमाएं, सेनाएं देश नही होते। देश है उस पर रहने वाली जनता” .. । तो जनता, जनमानस तय करता है कि अपनी लोकेशन, संसाधन, सेना, युवा, बच्चे, महिलाओं और पॉपुलेशन को किस दिशा में लेकर जाना है। उस नेता ने जो धारा रची, भारत विज्ञान व्यापार और विकास की धारा में गतिमान हुआ।
हमारे साथ शुरू करने वाले पाकिस्तान को देखिये। सत्तर सालों तक खुद को कठमुल्ला राष्ट्र बनाने की जद्दोजहद की जगह, उन लोगों ने नजरिया खुला रखा होता, तो हम कैसा पाकिस्तान देखते?? क्या शान्ति और सुविधाओं से युक्त पाकिस्तानी पहाड़ियां किसी पर्यटन के स्विट्जरलैंड से कम होती? क्या गिलगित बाल्टिस्तान, नीलम वैली, हुंजा जैसे इलाकों में पूरी दुनिया के लोग झूम न पड़ते।
क्या ग्वादर- कराची जैसे कई बंदरगाह, सेंट्रल एशिया के दसियों देश और पूर्वी चीन का विश्व के आयात निर्यात का बिंदु, और नोट गिनने की मशीन न बन जाते? क्या ये सारे देश, पूरे पाकिस्तान में सड़कों, रेलों हवाई अड्डो का जाल न बिछाते?
क्या सेंट्रल एशिया और ईरान के बीच तेल-गैस की पाइपलाइन, आवागमन सरल न होता। क्या इसकी कीमत उसे न मिलती। क्या हर वक्त भारत की गर्दन उसके हाथ न होती। क्या दुनिया उसे सुरक्षित, शांत रखने के लिए अपने सारे घोड़े न खोल देती?
एक शान्त, कास्मोपोलिटन पाकिस्तान जिसने अपने कठमुल्लेपन और हिंदुस्तान से नफरत पर नियंत्रण रखा होता, अगर खुद में और आसपास के देशों में आग न लगाई होती, तो सत्तर साल में वह एशिया का यूरोप होता।सबसे ताकतवर इस्लामी राष्ट्र और बड़ी वैश्विक ताकत होता। वो दुनिया का प्रमुख चौराहा होता, जहां उसकी खानदानी दुकान होती।
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नही, मुझे पाकिस्तान की चिंता नही है। मुझे हिंदुस्तान की चिंता है। हम दुनिया के सामने जो है, वो इसलिए है, क्योकि हम पाकिस्तान नही हुए। हमने शांति, खुलेपन, काम धंधों, दोस्ती, मुस्कान को तरजीह दी। हमने बंदूकों, चाकुओं और कठमुल्लेपन को कभी तरजीह न दी थी।
सात साल पहले आपको बताया गया कि सत्तर साल में कुछ नही हुआ। आज शायद घटती समृद्धि और बढ़ते पागलपन के बीच अहसास कर सकें कि उन सत्तर साल में क्या क्या हुआ। कितने सेक्टर्स में हम अग्रिम पंक्ति में थे, कितने सेक्टर्स में फिसल और पिछड़ गए हैं। सच ये है कि, इन सात सालों में हम पाकिस्तान बनने की यात्रा शुरू कर चुके हैं।
इतिहास यही लिखता है कि, कोई कौम क्या हो गयी। वह ये नही लिखता की वो कौम क्या हो सकती थी। कौम और देश का मुस्तकबिल तो उस दौर में जी रही पीढ़ी की प्राथमिकतायें तय करती हैं। कॅरोना के दौर में लव जिहाद पर कानून बनाने में मशगूल देश का भविष्य समझ लीजिए।
कभी सोचिये कि हमारी पीढ़ी का इतिहास कैसा लिखा जाएगा। क्या हम लोग “हिंदुस्तान का पाकिस्तानीकरण” करने वाली पीढ़ी के तौर पर याद किये जायेंगे।
सोचिये। खुद को बदलिए, आसपास लोगो को समझाइए। यदि आपको भी पाकिस्तान की नही, हिन्दुओ की, और उनके हिंदुस्तान की चिंता है।
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Manish Singh