प्रेमचन्द की महानता के बावजूद उन्हें नोबेल पुरुस्कार क्यों नहीं मिला – ? आई आई टी दिल्ली के निदेशक ने गपशप के दौरान मुझसे यह सवाल पूछा . मेरे पास इसका कोई संतोषजनक उत्तर न था . सिवाय यह कहने के और कुछ न था की प्रेमचन्द की रचनाओ के अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध नहीं थे जो पश्चमी दुनिया का ध्यान उनकी और ले जा सकते . यह सवाल किसी हीन ग्रंथि की अभिव्यक्ति नहीं था . यह चाहत की मेरा जुड़ाव मेरे दिए दायरे के बाहर की दुनिया से हो , खास इंसानी हे . प्रेमचन्द के वे पत्र जो वे केशोराम सब्बरवाल को लिखते हे इसके गवाह हे की केशोराम दुआरा उनकी रचनाओ के जापानी अनुवाद को लेकर वे खास उत्साहित थे , लेकिन इन पत्रो में दिलचस्प हे प्रेमचन्द का हिंदी के साहित्यिक जीवन का वर्णन ” हिंदुस्तान का साहित्यिक जीवन बड़ा हौसला तोड़ने वाला हे जनता का कोई सहयोग नहीं मिलता हे आप चाहे दिल निकालकर रख दे , मगर आपको पाठक नहीं मिलते हे शायद ही किसी किताब का तीसरा सनस्करण हुआ हो हमारा किसान गरीब और अशिक्षित हे और बुद्धिजीवी यूरोपीय साहित्य पढ़ते हे . घटिया साहित्य की बिक्री बहुत अच्छी हे मगर न जाने क्या बात हे की मेरी किताब तारीफ तो बहुत पाती हे मगर बिकती नहीं हे . ”
तेरा भी हे मेरा भी ऐसी साल पहले का यह दुखड़ा आज के हिंदी लेखक को बिलकुल अपना मालूम पड़ता हे हिंदी में पेशेवर लेखक की संस्था न बन पाने के कारणों की पड़ताल अभी बाकी हे प्रेमचन्द का पूरा जीवन इसी संघर्ष में बीता जिसमे वे लेखन को प्राथमिक और अपने आप में पूरा काम का दर्जा दिलाने की लड़ाई लड़ते रहे . लिखना एक समाजपयोगी उत्पादक किर्या हे यह समझ अभी भी हमारे भीतर नहीं लिखने से पहले एक पूरी तैयारी की दरकार हे यह समझ लिखे की कीमत तय करने वालो के पास नहीं . हिंदी और अंग्रेजी में लेखक को दिए जाने वाले पैसे में अंतर इसका एक उदाहरण हे समाज लेखन में निवेश करने को तैयार नहीं . वह कुछ पुरुस्कारों तक अपने कर्तव्य को सिमीत रखता हे लेकिन पुरुस्कार तो किसी पर्किर्या के नामित बिंदु पर होना चाहिए उस पर्किर्या में किसी की दिलचस्पी नज़र नहीं आती हे नतीजा लेखक का घोर अकेलापन वह अपने मध्य वर्ग दुआरा बहिष्कृत महसूस करता हे जिसने प्रयास पूर्वक अंग्रेजी को सिर्फ कामकाज तक न रहने देकर अपनी सवेंदना की भाषा भी बना लिया हे सबूत आपको उसके बुकशेल्फ में मिलते हे जहां हिंदी की जिल्दे दिखती नहीं हे यहाँ तक की अब वह प्रेमचन्द और टेगोर को भी अंग्रेजी के जरिये पढ़ना चाहता हे दिलचस्प यह हे की बांग्ला मध्यवर्ग ने एक चतुर रिश्ता अंग्रेजी से बना रखा हे और उसे बांग्ला किताबे और बांग्ला संगीत अपनी बैठक में सजाने में शर्म महसूस नहीं होती!
ज्ञानपीठ या बुकर — ? यही वजह हे की भारत के सबसे बड़े साहित्यिक पुरुस्कार ज्ञानपीठ से हिंदी कवि कुंवर नारायण को सम्मनित किये जाने को लेकर कोई उत्साह और उत्सव इन पढ़े लिखे तबके में दिखाई नहीं पड़ा , जिसने कुछ दिन पहले ही एक नवतुरिया लेखक अरविन्द अडिगा को मेन बुकर दिए जाने का ज़ोरदार स्वागत किया था बुकर अरविन्द को मिलेगा की दूसरे भारतीय लेखक अमिताव घोष को , इसे लेकर अखबारों और पत्रिकाओ में कयास आराई में पन्ने भर दिए गए थे , ज्ञानपीठ या साहित्य अकादमी पुरुस्कारों की घोषणा से पहले समकालीन लेखन में कोई उतेज़ना भरी चर्चा नहीं चलती दिखाई देती , इसलिए अगर आप हिंदी कथा के बारे में इस दुनिया से कुछ जानना चाहे तो आपको प्रेमचन्द के बाद निर्मल वर्मा कॄष्णा सोबती या गींताजलि श्री का कुछ जिक्र मिलेगा . इनका अनुवाद किसी सुचिंतित साहित्यिक निर्णय के बाद किया गया हो , इसके प्रमाण नहीं हे . एक मित्र ने ठीक ही कहाकी विक्रम सेठ ए सूटेबल बॉय के विस्तार को लेकर चमत्कृत होने वालो ने अगर अमृत लाल नागर को पढ़ा होता तो उनका ख्याल कुछ और ही होता ., अमृत लाल नागर यशपाल फणीश्वरनाथ रेनू की किसी रचना से परिचय के चिन्ह अंग्रेजी साहित्य समीक्षा संसार में नहीं मिलते तीसरी या चौथी पीढ़ी के शिक्षित वर्ग के अंग्रेजी की दुनिया में सकिर्य होने से यह उम्मीद होना चाहिए थी की दिवभाषी साहित्यिक विद्वत्ता विकसित होगी , ऐसा दुर्भाग्य से हुआ नहीं इस पीढ़ी ने तय करके खुद को एकभाषी बना लिया हे !
(समीक्षक और प्राध्यपाक अपूर्वानंद जी का यह लेख कुछ वर्ष पूर्व वेबदुनिया हिंदी पर प्रकाशित हुआ था वही से साभार . वेबदुनिया हिंदी)
भारत में अंग्रेजी लेखन और लेखक का मतलब हे पैसा और आराम की जिंदगी ( लेखन से पहले भी अधिकतर मामलो में ) और हिंदी और भारतीय भाषाओ में लेखन का मतलब हे की भुखमरी जैसे हालात , एक को जरुरत से ज़्यादा आराम की जिंदगी ने खोखला कर दिया हे तो दुसरो को जिंदगी की मुश्किलो ने . जो भी हो रहा हे नतीजा यही हे की लोग पढ़ने लिखने से दूर जा रहे हे ये बहुत ही घातक संकेत हे ” समाज लेखन में निवेश करने को तैयार नहीं हे ” मानो लेखको की कोई अहमियत नहीं हे अब देखे तो मेरा कज़िन हे केंसर पर काम कर रहा हे हे नोबेल विजेताओ के साथ उठना बैठना हे अंग्रेजी भी खूब पढता हे मगर किसी अंग्रेजी लेखक से इम्प्रेस भी नहीं हुआ किसी को कोट भी नहीं करता हे पहले कट्टरपंथ के खिलाफ उदासीन था अब धीरे धीरे कई बरसो की मेरे साथ बहस बातचीत के बाद अब समझ रहा हे स्टेण्ड लेने लगा हे अब जो बाते हमने उसे बताई समझाई वो क्या हमारे पास ऐवे ही थी नहीं उसके पीछे हमारा बरसो का अध्धयन और संघर्ष था वो सब हमने उसके दिमाग में डाला अब जब ऐसे प्रोफ़ाइल वाला आदमी मुद्दो पर स्टेण्ड लेगा तो दस लोग समझेंगे कहने का मतलब यही हे की समाज को लेखन और लेखको को गंभीरता से लेना होगा
I AM AGREE WITH THIS प्रेमचन्द की महानता के बावजूद उन्हें नोबेल पुरुस्कार क्यों नहीं मिला – ? आई आई टी दिल्ली के निदेशक ने गपशप के दौरान मुझसे यह सवाल पूछा . मेरे पास इसका कोई संतोषजनक उत्तर न था . सिवाय यह कहने के और कुछ न था की प्रेमचन्द की रचनाओ के अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध नहीं थे जो पश्चमी दुनिया का ध्यान उनकी और ले जा सकते .
मुंशी प्रेमचंद को साहित्य के लिए नोबेल पुरुष्कार मिलना ही चाहिए था , मेरे समझ से रविन्द्र नाथ टैगोर से अच्छे साहित्यकार थे !
Dilip C Mandal19 hrs · यह अभागी लाइब्रेरी उदास है
चलिए आपको आज एक बिल्डिंग में ले चलता हूं. अगर आप दिल्ली में हैं, तो बेर सराय यानी ओल्ड JNU कैंपस से दक्षिण दिशा में वसंत कुंज की तरफ जाएंगे, तो यह अरुणा आसिफ अली मार्ग है. इस पर लगभग डेढ़ किलोमीटर चलने पर दाईं ओर एक बिल्डिंग नजर आएगी. यह इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन यानी IIMC है.यहां भारत में पत्रकारिता, मीडिया और मास कम्युनिकेशन की देश की सबसे बड़ी लाइब्रेरी है. लगभग 40,000 किताबें इस विषय पर यहां बैठकर पढ़ी जा सकती हैं.यहां आपको एक रैक पर चोम्सकी मिलेंगे, तो दूसरी पर एडवर्ड हरमन, तो कहीं बेन बेगडिकियान, तो कही मैकलुहान, तो कहीं वुडवर्ड. माखनलाल चतुर्वेदी से लेकर गणेश शंकर विद्यार्थी, श्योराज सिंह बेचैन और एसपी सिंह भी नजर आ जाएंगे, यहां इतिहास, राजनीति, समाजशास्त्र और इन विषयों से मीडिया के रिश्तों पर भी कई किताबें हैं, देश-विदेश की मीडिया की लगभग 100 पत्रिकाएं यहां आती हैं. एक एक पत्रिका की सब्सक्रिप्शन हजारों रुपए की है.मैं तो आंख बंद करके इस लाइब्रेरी की गंध महसूस कर सकता हूं. वहां के बुक रैक्स और चेयर्स मुझे पहचानते हैं. मैं आपको अभी बता सकता हूं कि माइनॆरिटी एंड मीडिया या मीडिया मोनोपली या मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट या मीडिया एंड पावर किताब या प्रेस कौंसिल की रिपोर्ट आपको किस रैक के किस कोने में मिलेगी. यह लाइब्रेरी बरसों से मेरे लिए दूसरे घर की तरह रही है, मैंने यहां बैठकर तीन किताबें लिखी हैं.
यूं भी शानदार जगह है. चाय-पानी की पास में व्यवस्था है. निकट ही दहिया जी के कैंटीन में दिल्ली के सबसे बेहतरीन सत्तू पराठे मिलते हैं. सस्ती फोटोकॉपी हो जाती है. एयर कंडीशंड है, स्टाफ भी अच्छा है.लेकिन यह लाइब्रेरी बरसों से उदास है.जानते हैं क्यों?पिछले बीस साल में इस लाइब्रेरी में टीवी का कोई एंकर नहीं आया. मेरे अलावा शायद कोई संपादक भी यहां नहीं आया है, रिपोर्टर भी नहीं आते. यहां तक कि IIMC के टीचर्स को देखने के लिए भी यह लाइब्रेरी कई बार महीनों तरस जाती है.यह मेरा इस लाइब्रेरी का पिछले 15 साल का अनुभव है. इसकी पुष्टि आप इस लाइब्रेरी के स्टाफ से कर सकते हैं.आप सोच रहे होंगे कि पत्रकारिता की सबसे बड़ी लाइब्रेरी में आए बिना संपादकों, एंकरों का काम कैसे चल जाता है. पत्रकारिता के क्षेत्र में देश-दुनिया में क्या चल रहा है, किस तरह के डिबेट्स हैं, यह जानने के उन्हें जरूरत क्यों नहीं है?और फिर जो लोग अपने प्रोफेशन के बारे में नहीं पढ़ते, वे इतने आत्मविश्वास से टीवी पर लबर-लबर जुबान कैसे चला लेते हैं. अखबार में इतनी-लंबी चौड़ी कैसे हांक लेते हैं?अब तक यह होता रहा है. संपादक और एंकर अपने सामान्य ज्ञान और अनुभूत ज्ञान के बूते काम चलाता रहा है. उससे कभी पूछा ही नहीं गया कि आपने आखिरी किताब कौन सी पढ़ी थी और कितने साल पहले.अनुभूत ज्ञान का महत्व है. एक किसान या मछुआरा या बढ़ई या मोटर मैकेनिक अपने अनुभूत ज्ञान से महत्वपूर्ण कार्य सिद्ध करता है.लेकिन संपादक और एंकर भी अगर अनुभूत ज्ञान यानी पान दुकान से मिले ज्ञान से काम चलाना चाहता है, तो उसे भी समकक्ष आदर का पात्र होना चाहिए,राजू मैकेनिक और एक संपादक के ज्ञान अर्जित करने की पद्धति में अगर फर्क नहीं है, तो दोनों का समान आदर होना चाहिए.सिर्फ कोट और पेंट पहनने की वजह से संपादक और एंकर को ज्ञानी मानना छोड़ दीजिए.वे अनपढ़, अधपढ़ और कुपढ़ है. वे पान दुकानदार के बराबर ही जानते हैं.अज्ञान से भी आत्मविश्वास आता है, वह वाला आत्मविश्वास उनमें कूट-कूट कर भरा है,इसलिए भारत में पत्रकारिता की सबसे बड़ी लाइब्रेरी उदास है.यह पत्रकारों की नई पीढ़ी और खासकर SC, ST, OBC तथा माइनॉरिटी के युवा पत्रकारों पर है कि इन लाइब्रेरी पर अपना क्लेम स्थापित करें. किताबों से दोस्ती करें. इस लाइब्रेरी की उदासी दूर करें.क्योंकि मीडिया पर अब तक जिनका कंट्रोल रहा है, उन्होंने यह काम किया नहीं है. उनका ज्ञान उनकी टाइटिल में है, पिता की टाइटिल में है. इसलिए स्वयंसिद्ध है. आपको इसका लाभ नहीं मिलेगा.पढ़ना पड़ेगा.Dilip C Mandal
Discussion on naisadak 18 comments
जाम में तमाम हो चुका है बंगलौर
सिकंदर हयात
सिकंदर हयात सिकंदर हयात 9 months ago
जितना समझ आया की आपने अंग्रेजी वर्ग की अच्छाइया गिनवाई आदि सही हे अंग्रेजी वर्ग में भी बहुत अच्छे लोग भी हे लेकिन गौर करे तो ये सब वही होंगे जो देसी भाषाओं हिंदी आदि से भी जुड़े जरूर होंगे ( हालांकि मुसलमानो में ”अंग्रेजीप्लसउर्दू ” वाले वर्ग को में घातक मानता हु इसी वर्ग ने पाकिस्तान बनवाया था खेर ) ये बहुत अच्छा वर्ग हे लेकिन ऊपर मेने शुद्ध अंग्रेजी वर्ग की बात की हे ये बेहद ताकतवर हे और बेहद सेल्फिश भी ये तो जो हे सो हे चिंता इस बात की हे इस वर्ग के लटको झटकों से करोड़ो लोग इम्प्रेस होते हे वो भी इनके जैसा बनना चाहते हे माओ में बच्चों को हिंदी भुलाने ( हिंदी नहीं आती बोलने का गर्व ) और शुद्ध अंग्रेजी वर्ग में बच्चों को ढालने की होड़ लगी हे ये भविष्य के लिए बहुत बुरा संकेत हे बुरा संकेत से मेरा मतलब ”अर्थ ” में इकोनोमि मे नहीं हे और बहुत नुक्सान होंगे
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सिकंदर हयात
सिकंदर हयात – Ashish 9 months ago
माफ़ करना भाई रोमन में पढ़ना बड़ा कठिन होता हे प्रवाह नहीं बनता हे जवाब कैसे लिखे ? हो सके तो यहाँ से नागरी में लिख लिया करो http://visfot.com/index.php/hi… भाई में बहुत ही ज़्यादा आम आदमी हु जो कुछ लिखता हु वो बहुत ही ज़्यादा जमीनी अनुभवों से लिखता हु http://khabarkikhabar.com/arch… अंग्रेजी अंग्रेजी वर्ग से भारत को बहुत फायदा हुआ हे मगर नुकसान भी बहुत हे इसी तरफ ध्यान दिल रहा था
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सिकंदर हयात
सिकंदर हयात praveen kanungo 9 months ago
आपकी बात सही हे मेरे भाई और दूसरे परिचितों ने भी बेंगलोर में अच्छा अनुभव ही बताया मगर यहाँ मेरा मुद्दा दूसरा हे मेरा कहना हे की भारत का शुद्ध अंग्रेजी वर्ग हद से ज़्यादा सेल्फिश हे और वो खुद जो हे सो हे चलो ठीक हे , पर गम्भीर मसला ये हे की ये दूसरों को भी अपने जैसा बनने को दबाव वो भी सफल बनाता हे
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सिकंदर हयात
सिकंदर हयात सिकंदर हयात 9 months ago
बहुत से लोग ये भी कह सकते हे की वहां काफी लोग गेर अंग्रेजी शिक्षा वर्ग में से भी हे सही हे मेरा अपना सॉफ्टवेयर इंजिनियर भाई भी दो साल वहां रहकर आया हे सही हे होंगे मगर मसला यही हे की ये अंग्रेजी वर्ग बहुत तेज़ी से दूसरे पर भी अपनी ही जैसा बन जाने का बेहद और सफल दबाव डालता हे अल्लाह माफ़ करे ऊपर से इस वर्ग की महिलाय लड़कियां और भी कामयाब तरीकों से अपने जैसा ही बन जाने का दबाव फैलाती हे एक एक लड़की दस दस को अपने जैसा बनने पर मज़बूर कर सकती हे मेरी इस बात का बुरा ना माने में जरा भी महिला विरोधी नहीं हु न ही में कोई बचकाना हिंदी प्रेमी या अंग्रेजी विरोधी हु नहीं में तो सिर्फ जीवन की पाठशाला से मिले जमीनी अनुभव बता रहा हु
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सिकंदर हयात
सिकंदर हयात 9 months ago
ये भारतीय अंग्रेजी वर्ग हे और साफ़ देखा जा सकता हे की भारत में अंग्रेजी वर्ग अपनी लाइफ चाहे जैसी भी बन ले बाकी लोगो के लिए वो कुछ भी नहीं करता हे ये वर्ग ( कुछ भले लोगो को छोड़कर ) बेहद सेल्फिश और बदमिजाज और आत्मकेंद्रित ही होता हे आप समाज की बात कर रहे हे देखा तो गया हे की ये वर्ग अपने परिवार के ही दूसरे सदस्यों की भी परवाह नहीं करता हे वजह अंग्रेजी भि हो सकती हे इसमें कोई शक नहीं की अंग्रेजी ही ज्ञान विज्ञान ग्लोबलाइज़ेशन और टेक्नोलॉजी की भाषा हे सही भि हे मगर साथ ही साथ ये वीभत्स उपभोक्तावाद और व्यक्तिवाद की भी भाषा हे जो लोग सिर्फ अंग्रेजी की ही दुनिया में खुद को सीमित कर लेंगे उनका यही रवैय्या होगा ही. इसका अपवाद भी नहीं मिलेंगे इसलिए गांधी जी की महान दूरदर्शिता भरी चेतावनी थी की ”अँगरेज़ चाहे तो यही रहे मगर अंग्रेज़ियत को निकाल दो ” यानि अँगरेज़ और एक भाषा के रूप में अंग्रेजी रहे कोई दिक्कत नहीं मगर अंग्रेजी शिक्षा नहीं होनी चाहिए अफ़सोस नेहरू इस बात को न समझ सके
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कुल मिलाकर भारत का सच ये हे की भारत में अंग्रेजी स्टेरॉयड की तरह हे ये लेने पर ये इंसान को ताकतवर भी बना देती हे सही हे लेकिन साथ ही साथ ये ”मोतियबिंद ” भी कर देती हे ( ज़्यादा स्टेयरॉयड लेने पर मोतियाबिंद भी हो सकता हे हे बाल भी कम हो जाते हे इसलिए ज़्यादातर बॉडीबिल्डर गंजे भी होने लगते हे ) इसी ”मोतियाबिंद ” का शिकार भारत का अंग्रेजी वर्ग और अंग्रेजी लेखक और पत्रकार रहे हे इसलिए उनमे सब कुछ होते हुए भी वो बात नहीं आ पाती हे जो आनी चाहिए ——–? इसके लिए बेहतर होगा की लोग अंग्रेजी के स्टेरॉयड के साथ साथ देशी भाषाओ के साथ भी जुड़े रहे भले ही कड़वी दवा समझ कर ही साथ रखे तो फिर आप स्टेयरॉयड से होने वाले मोतियाबिंद से बचे रहेंगे मेने अपने सोशल सर्किल में भी देखा हे की सारा अंग्रेजी वर्ग सब कुछ होते हुए भी बहुत कुछ खो भी रहा हे कुछ कमी सी साफ दिखती हे
कुछ भले लोगो को छोड़ दे तो ये एकभाषी ( अंग्रेजी ) समाज , समाज में बेहद सेल्फिशनेस फैला रहा हे आप कहेंगे की बाकी जो समाज हे क्या उसमे बुराइया स्वार्थ नहीं हे —– ? बिलकुल हे बहुत हे मगर वो लोग कोई आदर्श नहीं हे उन्हे कोई नहीं मानता हे जबकि इस एकभाषी अंग्रेजी समाज को एक आइडल की तरह देखा जाता हे इसलिए ये और गंभीर बेहद गंभीर समस्या बन रहा हे मेने ये मुद्दा मेरे महाविद्वान कज़िन ( जिसके की अंग्रेजी लेख साइंस रिपोर्टर जैसी मैगज़ीन तक में छपते हे जो अंग्रेजी हिंदी उर्दू तीनो में आराम से लिख पढ़ बोल और काम कर सकता हे ) के साथ छह साल पहले एक बातचीत में उठाया तो तब उसने कुछ नहीं कहा था तब उसे ये बात नहीं जंची थी . अब खेर पिछले छह सालो में इस दौरान हमारे यहाँ हमारे सोशल सर्किल में जो एकभाषी ( अंग्रेजी ) लोग हे उन्होंने जो सेल्फिशनेस के व्यक्तिवाद के नए नए रिकॉर्ड बनाये ( ऐसे तीन पैसे वाले करेक्टरों की तो माँ अपने बंगले में यु ही लुढ़क पुढ़क कर मर गयी कोई देखने वाला न था लाखो रूपये थे मगर लास्ट टाइम पे इलाज तक न मिला एक और करेक्टर थी जो बड़े गर्व से बताती थी की उनका बेटा तो क़ुरान भी अंग्रेजी में ही पढता हे आज वो सात साल से बीमार हे वो बेटा अब डॉक्टर हे और उनके इलाज़ की कोई परवाह नहीं करता हे पैसा हे लेकिन ना तो हॉस्पिटल में रहने का दमखम हे ना भावनाये हे ) उसके बाद कल जब वो मुझसे मिला तो खुद ही कहने लगा की तूने एकभाषी साइक्लोजी जो बातपर तब कही थी वो तो वाकई बिलकुल सही थी मेने कहा की मसला ये हे की जो लोग सिर्फ ” अंग्रेजी ” की ही दुनिया में खुद को लिमिटिड कर लेंगे तो फिर होगा यही की इसमें तो कोई शक नहीं की अंग्रेजी ही ज्ञान विज्ञानं टेक्नोलॉजी आगे बढ़ने दुनिया से जुड़ने की भाषा हे जिसके बहुत फायदे हे सही हे मगर मसला ये हे की ये साथ ही साथ वीभत्स भोगवाद उपभोक्तावाद घोर व्यक्तिवाद की भी भाषा हे जो लोग जानबूझ कर एकभाषी बन जाएंगे उनमे ये गुण ”वीभत्स भोगवाद उपभोक्तावाद घोर व्यक्तिवाद ” थोड़े नहीं तो बहुत , आ ही जाएंगे आप बच नहीं सकते फिर उनका घोर सेल्फिश हो जाना भी नेचुरल हे वो किसी और के बारे में चिंतन नहीं कर पाएंगे उनके पास स्म्रतियाँ नहीं होंगी उनके लिए किसी और का नंबर ही नहीं आएगा वो सिर्फ और सिर्फ अपने बारे में सोचेंगे बहुत ज़्यादा सोचेंगे और विकास तो होगा मगर भावनाव के विनाश की कीमत पर और ये आजकल बहुत ही ज़्यादा हो रहा हे . इनको देख कर नए नए लोग , नए माँ बापो में होड़ लगी हे अपने अपने बच्चो को एकभाषी बनाने की ये बेहद गलत हो रहा हे लोगो को बताया जाना चाहिए की वो दूसरी भाषाओ को भी अपने जीवन में जगह जरूर दे
http://khabarkikhabar.com/archives/2780 इस तरह का गूंगापन समाज के ऊँचे तबके में बढ़ता ही जा रहा हे और इस ऊँचे तबके की नकल करने को करोड़ो लोग जी जान से जुटे हि हे ————– ? तथाकथित ”मिसेज फनी बोन्स ” का भी हाल पढ़े सिकंदर हयात
August 5, 2016सलमान के बारे में तो दीपक असीम उर्फ़ अनहद ने भी बहुत पहले और बड़ी सटीक बात कही थी की” लंबी और सार्थक बातचीत करना सलमान के बस का रोग नहीं हे ” शायद ये भी एक रहा होगा की तमाम खुबिया और शायद भारत का सबसे नेकदिल सेलिब्रेटी होने के बाद भी सलमान के पास कोई लेडी टिक नहीं पाती शायद सलमान बहुत बुरे वक्ता और श्रोता हे लड़कियों महिलाओ से तो अच्छी बातचीत करना और भी जरुरी होता हे खेर स्टार्स की ही क्या बात करे सबजगह यही हाल हे की लोगो की भाषा क्षमता खत्म हो रही हे अच्छी रोचक बातचीत करना समाप्त सा हो रहा हे कई महफ़िलो में तो मुझे बहुत इरिटेशन भी होती हे की कई लोग बात करने के लिए हमारा ही मुह ताक रहे होते हे( हम इस कला में माहिर हे ) वो आपस में कोई रोचक बातचीत नहीं कर पाते हे इसकी वजह ये हे की लोगो ने पढ़ना लिखना कम कर दिया हे इसके बहुत बुरे नतीजे होंगे अपनी बात कहना दूसरे की समझना अच्छे रिश्तो की नीव होता हे फिर इंसान की वैसे भी बहुत ज़बरदस्त नीड होती हे अपनी कहना दूसरे की सुनना मुँहजोरी करना यानी ”बकरस ” भी जीवन के दूर रसो की तरह बहुत जरुरी रस होता हे REPLYसिकंदर हयातAugust 10, 2016इंसानो को समझने की समझ कितनी कम हो रही हे इसका एक उदहारण देखिये की टिविंकल खन्ना अपने पिता राजेश खन्ना पर नसीरुद्दिन शाह की टिप्पणी पर तो ऐतराज़ कर रही हे मगर उन्हें समझ नहीं रही की सुपर स्टार रहे राजेश खन्ना की मौत किन हालात में हुई थी बरसो तक वो तन्हा अराजक सा जीवन जीते रहे 2001 में उन्हें लेकर एक फिल्म बनाने वाले एक डाइरेक्टर ने बी बी सी पर बताया था की कैसे उन्हें फिल्म लेते ही वो रोज फोन करने लगे , घर बुलाने लगे की घर आओ यार में दिलचस्प आदमी हु वो लिखते हे की” तब इस सुपर स्टार रहे व्यक्ति का अकेलापन देख कर में दहल गया था ” ज़ाहिर हे की वो भयंकर अकेलेपन का शिकार थे उनकी बेहद लाडली बेटिया शायद न उनका अकेलापन समझ सकी न दूर कर सकी न अपने माँ बाप की का पेच अप करवा सकी न अपने पिता का फिर से घर बसवा सकी ज़ाहिर हे की न समझ थी न शब्द थे की दूसरे को कुछ समझा सक
Skand Shukla
14 September at 08:43 ·
हिन्दी की समस्या भाषा की समस्या कम , कथ्य की समस्या अधिक है।
मैं हर हिन्दी-प्रेमी से अँगरेज़ी-घृणा के बारे में अवश्य पूछता हूँ। बहुधा उत्तर ‘हाँ’ में मिलने के साथ ही लोग अन्ध अँगरेज़ी-विरोध पर तुल जाते हैं। उन्हें अँगरेज़ी और अँगरेज़ियत में भेद नहीं मालूम। वे लॉर्ड डलहौज़ी और आइज़ैक न्यूटन में अन्तर नहीं जानते , उन्हें वॉरेन हैस्टिंग्स और विलियम हार्वे की शक़्लें एक-सी जान पड़ती हैं।
अँगरेज़ी संसार की सबसे शक्तिशाली भाषा क्यों है इसका उत्तर वे साम्राज्यवाद देते हैं। लेकिन साम्राज्य कैसे खड़ा होता है और अपने साथ क्या-क्या लाता है , यह नहीं बताते। साम्राज्य जोख़िम उठाने से शुरू होता है , वहाँ राजा विद्वानों और व्यापारियों को प्रश्रय देते हैं। अँधेरे में उस राज्य के कुछ लोग सागर पार तिरते आने-जाने लगते हैं।
पहले उनके जहाज़ों-तले भूगोल हिलता है , फिर दूरदर्शन से खगोल के भेद खुलते हैं। उसके बाद मानव-तन के सूक्ष्म दर्शन में मनीषी जुट जाते हैं। सिरों पर सेब गिरते हैं , मनों में हलचल उठती है। भाप की सीटी बजती है और लोहे की लम्बी बाँहें खुलती चली जाती हैं।
अँगरेज़ी का उत्थान अँगरेज़ी-साहित्य की वजह से नहीं है , विज्ञान के कारण है। जब उन्होंने हम से अधिक और बेहतर अनुभव सीख लिये तब हमसे बेहतर अनुभूतियाँ अंकित करनी भी सीख लीं। मन-भर अनुभव से ही तो मन-भर अनुभूति जन्म लेती है !
तुलसीदास और शेक्सपियर लगभग समकालीन हैं। उनके साहित्य में एक-सी गुणवत्ता है , क्योंकि उनकी सोच-सरोकार का स्तर भी एक-सा है। लेकिन फिर आगे उनके यहाँ सोचने का ढर्रा बदला और ऐसा बदला कि उसी बदले ढर्रे-तले वे हम पर काबिज़ हो गये।
वे काबिज़ हुए क्योंकि वे सोचते थे। वे प्रकृति पर श्रद्धा-मात्र नहीं करते थे , उसे बाह्यान्तर बूझते थे। वे श्रमशील थे , वे मेहनतकश थे। उन्होंने लूटना तब आरम्भ किया , तब कर्मठ ढंग से स्वयं को कस लिया और हम कोसते रह गये।
उनका चिन्तन हमसे अलग है , उनका विश्लेषण-संश्लेषण हमसे भिन्न है। वे आस्था-परम्परा के नाम पर झण्डा बुलन्द नहीं करते , वे फ़ख़्र से कहते हैं कि बर्तानिया-सल्तनत ने अपने मुक्त चिन्तन से दुनिया को अपने आगे झुकाया है। आज वे चाहे राजनीतिक रूप में एक शक्ति भले न हों , सांस्कृतिक रूप में उनकी छाप संसार पर बड़ी गहरी खचित है।
हिन्दी का साहित्य उस अनुभव से कटा हुआ चल रहा है , जो उन्होंने अपने जीवन में रचा-बसा लिया है। हिन्दी-सर्जना उन्हीं चुनिन्दा विषयों पर चलती चली आ रही है , प्रयोग हो रहे हैं लेकिन उनकी संख्या अपेक्षा से बहुत कम है।
समस्या है कि यदि हिन्दी में लेखन मजबूरी में किया जा रहा है , तो वह गुणवत्ता में अँगरेज़ी के समतुल्य कैसे होगा ? हिन्दी-लेखक की पहुँच वैश्विक भले हो गयी है , लेकिन विज्ञानसम्मत अभी भी उतनी नहीं है। हिन्दी-पाठक बेचारा भ्रमित है। पेट कहता है अँगरेज़ी पढ़ो , भावना कहती है हिन्दी न छोड़ो। इसी द्वन्द्व में उलझा वह ‘ईज़ी हिन्दी’ की माँग करता अँगरेज़ी की तरफ खिंचता जा रहा है।
वह ईज़ी अँगरेज़ी की माँग करेगा , तो लोग उसका मज़ाक उड़ाएँगे। उसका तिरस्कार होगा जमकर। अँगरेज़ी भाषा और उसके विषय , दोनों बहुधा उसकी जद में नहीं हैं। इसलिए वह ईज़ी हिन्दी- ईज़ी हिन्दी कहता दहलीज़ पर खड़ा है और अँगरेज़ी उसे अपनी ओर आहिस्ता-आहिस्ता घसीट रही है।
अँगरेज़ी जो नित्य पढ़ते हैं , बहुधा वे भी कोई मुक्त चिन्तक नहीं। उनमें वे सारे विकार हैं , जो इंग्लिश-सोप से न धुले। वे उन सारे कलुषों को लिये जीवन जी रहे हैं , जिन्हें न पहले गंगा मैया धो पाती थीं और अब न थेम्स और मिसीसिपी मैया। वे अँगरेज़ी पढ़कर विज्ञानी नहीं हुए , उन्होंने उसमें बातें जानकर अपना कॉलर ऊँचा किया। वे यह समझ ही न पाये कि भाषा से वे ऊँचे नहीं उठेंगे , सोच उन्हें उत्तुंगता देगी।
हिन्दी-भाषी मतिभ्रमित कुण्ठा में है , अँगरेज़ी-भाषी कुण्ठित मतिभ्रम में। बहुधा दोनों नहीं जानते कि भाषा सिखाती क्या है। दोनों विज्ञान को तो पढ़ते हैं लेकिन पीत्सा टेक-अवे अन्दाज़ में। विज्ञान की सच्ची-अच्छी सोच थिर कर चबाने से आती है।
हिन्दी के लिए विज्ञान अछूता भय और विस्मय है। या फिर प्राचीनता के छद्म दम्भ के लिए अज्ञानभरा तिरस्कार है। अँगरेज़ी के लिए वह पैसा कमाने हेतु कम्पलसरी सब्जेक्ट है , ओहदा है , शोहरत है। एक रस्सी को साँप समझकर दूर छड़ी से छूता है , दूसरा रस्सी को साँप बता कर चार्म से पैसे बना रहा है।
हिन्दी का गान्धर्व-विवाह विज्ञान से होने दीजिए और फिर परिणाम देखिए। विज्ञान-उपभोक्ता सन्ततियों के समूह में कुछ विवेकवान् विज्ञानी भी जन्म ले लेंगे।
#skandshukla22
Jagadishwar Chaturvedi
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प्रमोशन और साहित्य में करप्शन
हिन्दी में सेमीनार के प्रमाणपत्र जुटाने की संक्रामक बीमारी कॉलेज शिक्षकों में फैल गयी है। सेमीनार में वे इसलिए सुनने जाते हैं जिससे उन्हें सेमीनार में भाग लेने का सर्टीफिकेट मिल जाए। यह साहित्य के चरम पतन की सूचना है। ये वे लोग हैं जो हिन्दी साहित्य से रोटी-रोजी कमा रहे हैं। ये लोग सेमीनार में बोले बिना सेमीनार में भाग लेने का प्रमाणपत्र पाकर अपने को धन्य कर रहे हैं। आयोजक यह कहकर शिक्षकों को बुलाते हैं कि प्रमोशन कराना है तो सेमीनार सर्टीफिकेट लगेगा, आ जाओ सुनने, सर्टीफिकेट मिल जाएगा। फलतः ज्यादातर शिक्षक सेमीनार को सुनने आते हैं। सेमीनार का सर्टीफिकेट पाने के लिए वे डेलीगेट फीस भी देते हैं। इस प्रक्रिया में दो किस्म का साहित्यिक भ्रष्टाचार हो रहा है. पहला नौकरी में प्रमोशन के स्तर पर हो रहा है। श्रोता के सर्टीफिकेट को वक्ता के सर्टीफिकेट के रूप में पेश करके तरक्की के पॉइण्ट प्राप्त किए जा रहे हैं। दूसरा , साहित्य विमर्श के नाम पर कूपमंडूकता बढ़ रही है। सेमीनारों में वक्ताओं के भाषण साधारण पाठक की चेतना से भी निचले स्तर के होते हैं और सेमीनार के बाद सभी लोग एक-दूसरे की पीठ ठोंकते हैं, गैर शिक्षक श्रोता फ्रस्टेट होते हैं,वे मन ही मन धिक्कारते हैं और कहते हैं और कहते हैं कि वे सुनने क्यों आए। वक्तागण आशीर्वाद देते हैं,पैर छुआते हैं। इस समूची प्रक्रिया में कई लोग तो इस कदर नशे में आ गए हैं कि उन्हें यह बीमारी हो गयी है कि शहर में कोई भी साहित्यिक कार्यक्रम हो उनको अध्यक्षता के लिए बुलाओ,ये लोग अध्यक्ष न बनाए जाने पर कार्यक्रम में जाते नहीं है। नहीं बुलाने पर नाराज हो जाते हैं। इन पंडितों का मानना है वे जिस सेमीनार में जाते हैं उस सेमीनार को सार्थक करके आते हैं। इस प्रसंग में मुझे कई लेखकों की रचनाएं याद आ रही हैं। इनमें सबसे पहले में मुक्तिबोध को उद्धृत करना चाहूँगा। बहुत पहले मुक्तिबोध ने हिन्दी के प्रोफेसरों के बारे में लिखा, ”बटनहोल में प्रतिनिधि पुष्प लगाए एक प्रोफ़ेसर साहित्यिक से रास्ते में मुलाकात होने पर पता चला कि हिन्दी का हर प्रोफेसर साहित्यिक होता है। अपने इस अनुसन्धान पर मैं मन ही मन बड़ा खुश हुआ। खुश होने का पहला कारण था अध्यापक महोदय का पेशेवर सैद्धान्तिक आत्मविश्वास। ऐसा आत्मविश्वास महान् बुद्धिमानों का तेजस्वी लक्षण है या महान् मूर्खों का दैदीप्यमान प्रतीक ! मैं निश्चय नहीं कर सका कि वे सज्जन बुद्धिमान हैं या मूर्ख ! अनुमान है कि वे बुद्धिमान तो नहीं, धूर्त और मूर्ख दोनों एक साथ हैं।”
मुक्तिबोध ने यह भी लिखा है ” चूँकि प्रोफेसर महोदय साहित्यिक हैं इसलिए शायद वे यह कुरबानी नहीं कर सकते। नाम- कमाई के काम में चुस्त होने के सबब वे उन सभी जगहों में जाएंगे जहॉं उन्हें फायदा हो-चाहे वह नरक ही क्यों न हो।”
हिंदी के शिक्षकों की अवस्था इससे बेहतर नहीं बन पायी है। हिन्दी के इस तरह के आयोजनों में किस तरह के भाषण होते हैं और चेले-चेलियां किस तरह प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं इस पर कवि -कहानीकार उदयप्रकाश की बड़ी शानदार कविता है ‘पाँडेजी’ ,उसका अंश देखें-
“छोटी-सी काया पाँडेजी की
छोटी-छोटी इच्छाएँ
छोटे-छोटे क्रोध/और छोटा दिमाग।
गोष्ठी में दिया भाषण,कहा-
‘नागार्जुन हिन्दी का जनकवि है ‘
फिर हँसे कि ‘ मैंने देखो
कितनी गोपनीय
चीज को खोल दिया यों।
यह तीखी मेधा और
वैज्ञानिक आलोचना का कमाल है। ‘
एक स-गोत्र शिष्य ने कहा-
‘ भाषण लाजबाब था
अत्यन्त धीर-गंभीर
तथ्यपरक और विश्लेषणात्मक
हिन्दी आलोचना के खच्चर
अस्तबल में
आप ही हैं
एकमात्र
काबुली बछेड़े/
‘तो गोल हुए पाँडे जी
मंदिर के ढ़ोल जैसे
ठुनुक -ठुनुक हँसे और
फिर बुलबुल हो गए
फूलकर मगन !”
मैं 27 साल कोलकाता रहा हूँ , आए दिन हिन्दी सेमीनारों की दुर्दशापूर्ण अवस्था के किस्से अपने दोस्तों और विद्यार्थियों से सुनता रहा हूँ। मैं आमतौर पर इन सेमीनारों से दूर रहा हूँ। इसके कारण लोग यह मानने लगे हैं कि मैं साहित्य के बारे में नहीं जानता। कई मित्र हैं जो सेमीनार के कार्ड में वक्ता के रूप में मेरा नाम न देखकर दुखी होकर फोन करते हैं कि यहां तो आपको होना ही चाहिए था। मेरी स्थिति इस कदर खराब है कि एकबार कोलकाता की सबसे समर्थ साहित्यिक संस्था की कर्ताधर्ता साहित्यकार नेत्री ने चाय पर अपने घर बुलाया और कहा कि हम इतने कार्यक्रम करते हैं और आपस में बातें भी करते हैं कि स्थानीय स्तर पर कौन विद्वान हैं जिन्हें बुलाया जाए तो लोग आपका नाम कभी नहीं बताते, मैं स्वयं भी नहीं जानती कि आप विद्वान हैं। मैंने कहा मैं विद्वान नहीं हूँ। इसी प्रसंग में मैंने उन्हें त्रिलोचन की एक कविता ‘ प्रगतिशील कवियों की नयी लिस्ट निकली है’ सुनायी,
कविवर त्रिलोचन ने लिखा-
” प्रगतिशील कवियों की नयी लिस्ट निकली है
उसमें कहीं त्रिलोचन का नाम नहीं था
आँख फाड़कर देखा
दोष नहीं था
पर आँखों का
सब कहते हैं कि प्रेस छली है
शुद्धिपत्र देखा ,उसमें नामों की माला छोटी न थी
यहाँ भी देखा ,कहीं त्रिलोचन नहीं
तुम्हारा सुन सुनकर सपक्ष आलोचना कान पक गए थे
मैं ऐसा बैठा ठाला नहीं,तुम्हारी बकबक सुना करूँ
किसी जगह उल्लेख नहीं है,तुम्हीं एक हो,क्या अन्यत्र विवेक नहीं है
तुम सागर लाँघोगे ? -डरते हो चहले से
बड़े-बड़े जो बात कहेंगे-सुनी जायगी
व्याख्याओं में उनकी व्याख्या चुनी जाएगी”
हिन्दी के क्षयिष्णु वातावरण का एक अन्य पक्ष है हिन्दी के पठन-पाठन की ह्रासशील अवस्था। यह स्थिति कमोबेश पूरे देश में है। मसलन जो आज छात्र है वह कल शिक्षक होगा।जो विद्यार्थी एम.ए. में आते हैं उनमें अधिकांश ठीक से हिन्दी लिखना तक नहीं जानते । अब आप ही सोचिए कि जो विद्यार्थी एम.ए. तक आ गया वह हिन्दी लिखना नहीं जानता। इस तरह के विद्यार्थियों की संख्या हर साल बढ़ रही है। उच्च शिक्षा की सुविधाओं का निचले स्तर पर विस्तार हुआ है। बड़े पैमाने पर छात्र हिन्दी ऑनर्स कर रहे हैं , वे जब ठीक से हिन्दी लिखना नहीं जानते,ठीक से प्रश्नों का उत्तर तक नहीं देते तब वे कैसे एम.ए. तक अच्छे अंक प्राप्त करके आ जाते हैं, इसका रहस्य कोई भी आसानी से समझ सकता है कि हिन्दी में अंक कैसे दिए जाते होंगे। हिन्दी प्रमोशन के नाम पर बड़े पैमाने पर ऐसे छात्रों की पीढ़ी तैयार हुई है जो येन-केन प्रकारेण अंक हासिल करके पास हुए हैं। पढ़ने,समझने और सीखने की आदत बहुत कम विद्यार्थियों में है। जिनमें यह आदत है उन्हें पग-पग पर छींटाकशी, अपमान और अकल्पनीय असुविधाओं का सामना करना पड़ता है। देश में सारे विद्यार्थी जानते हैं कि हिन्दी में नौकरी पाने के नियम क्या हैं ? किसके हाथ में नौकरियां हैं ? किस नेता और प्रोफेसर को पटाना है और कैसे पटाना है । इस समस्या की जड़ें गहरी हैं,गहराई में जाकर देखें तो हिन्दी के शिक्षक नए से डरते हैं,विचारों का जोखिम उठाने से डरते हैं। अन्य से सीखने और स्वयं को उससे समृध्द करने में अपनी हेटी समझते हैं। साहित्य को अनुशासन के रूप में पढ़ने -पढ़ाने में इनकी एकदम दिलचस्पी नहीं है।
आज वास्तविकता यह है कि ज्यादातर शिक्षक और समीक्षक आजीविका और थोथी प्रशंसा पाने लिए अपने पेशे में हैं।वे किसी भी चीज को लेकर बेचैन नहीं होते। उनके अंदर कोई सवाल पैदा नहीं होते। एक नागरिक के नाते उनके अंदर वर्तमान की विभीषिकाओं को देखकर उन्हें गहराई में जाकर जानने की इच्छा पैदा नहीं होती।वे पूरी तरह अतीत के रेतीले टीले में सिर गडाए बैठे हैं।
हिन्दी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि शिक्षक और आलोचक अपने नियमित अभ्यास और ज्ञान विनिमय को अनुसंधान का जरिया नहीं बना पाए हैं। विद्यार्थियों में मासूमियत और अज्ञानता बनाए रखने में इस तरह के शिक्षकों की बड़ी भूमिका है।ये ऐसे शिक्षक हैं जो ज्ञान के आदान-प्रदान में एकदम विश्वास नहीं करते। कायदे से शिक्षक को पारदर्शी, निर्भीक और ज्ञानपिपासु होना चाहिए।किन्तु हिन्दी विभागों में मामला एकदम उल्टा है।हिन्दी के शिक्षक कम ज्ञान में संतुष्ट,आरामतलब,और दैनन्दिन जीवन की जोड़तोड़ में मशगूल रहते हैं।
इसके विपरीत यदि कोई शिक्षक निरंतर शोध करताा है या निरंतर लिख रहा है तो उसका उपहास उडाने और केरीकेचर बनाने में हमारे शिक्षकगण सबसे आगे होते हैं। और कहते हैं कि बड़ा कचरा लिख रहे हैं।हल्का लिख रहे हैं। यानी हमारे शिक्षकों को निरंतर लिखने वाले से खास तरह की एलर्जी है।वे यह भी कहते हैं कि फलां का लिखा अभीतक इसलिए नहीं पढ़ा गया या विवेचित नहीं हुआ क्योंकि जब तक उनकी एक किताब पढकर खत्म भी नहीं हो पातीहै तब तक दूसरी आ जाती है।इस तरह के अनपढों के तर्क उसी समाज में स्वीकार किए जाते हैं जहां लिखना अच्छा नहीं माना जाता। कहीं न कहीं गंभीर लेखन के प्रति एक खास तरह की एलर्जी या उपेक्षा जिस समाज में होती है वहीं पर ऐसी प्रतिक्रियाएं आती हैं। इस तरह की मनोदशा के प्रतिवादस्वरूप त्रिलोचन ने लिखा है-
“शब्द
मालूम है
व्यर्थ नहीं जाते हैं
पहले मैं सोचता था
उत्तर यदि नहीं मिले
तो फिर क्या लिखा जाय
किन्तु मेरे अन्तरनिवासी ने मुझसे कहा- लिखाकर
तेरा आत्म-विश्लेषण क्या जाने कभी तुझे
एक साथ सत्य शिव और सुंदर को दिखा जाय
अब मैं लिखा करता हूँ
अपने अन्तर की अनुभूति बिना रँगे चुने
कागज पर बस उतार देता हूँ”
हिन्दी से जुड़े अधिकांश जटिल सवालों की हमारी समीक्षा ने उपेक्षा की है। वे किसी भी साहित्यिक और सांस्कृतिक बहस को मुकम्मल नहीं बना पाए हैं। हिन्दी में साहित्यिक बहसें विमर्श एवं संवाद के लिए नहीं होतीं,बल्कि यह तो एक तरह का दंगल है,जिसमें डब्ल्यू डब्ल्यू फाइट चलती रहती है।हमने संवाद,विवाद और आलोचना के भी इच्छित मानक बना लिए हैं। इसे भी हम अनुशासन के रूप में नहीं चलाते।
परंपरा का मूल्यांकन करते हुए हमने सरलीकरण से काम लिया है।परंपरा की इच्छित इमेज बनाई है परंपरा की जटिलताओं को खोलने की बजाय परंपरा के वकील की तरह आलोचना का विकास किया है। परंपरा का मूल्यांकन करते हुए जो लेखक-शिक्षक परंपरा के पास गया वह परंपरा का ही होकर रह गया।
परंपरा के बारे में हमारे यहां तीन तरह के नजरिए प्रचलन में हैं। पहला नजरिया परंपरावादियों का है जो परंपरा की पूजा करते हैं।परंपरा में सब कुछ को स्वीकार करते हैं। दूसरा नजरिया प्रगतिशील आलोचकों का है जो परंपरा में अपने अनुकूल की खोज करते हैं और बाकी पर पर्दा डालते हैं।तीसरा नजरिया आधुनिकतावादियों का है जो परंपरा को एकसिरे से खारिज करते हैं। इन तीनों ही दृष्टियों में अधूरापन और स्टीरियोटाईप है।
परंपरा को इकहरे,एकरेखीय क्रम में नहीं पढ़ा जाना चाहिए।परंपरा का समग्रता में जटिलता के साथ मूल्यांकन किया जाना चाहिए।परंपरा में त्यागने और चुनने का भाव उत्तर आधुनिक भाव है। यह भाव प्रगतिशील आलोचकों में खूब पाया जाता है। परंपरा में किसी चीज को चुनकर आधुनिक नहीं बनाया जा सकता। नया नहीं बनाया जा सकता। परंपरा के पास हम इसलिए जाते हैं कि अपने वर्तमान को समझ सकें वर्तमान की पृष्ठभूमि को जान सकें।हम यहां तक कैसे पहुँचे यह जान सकें।परंपरा के पास हम परंपरा को जिन्दा करने के लिए नहीं जाते। परंपरा को यदि हम प्रासंगिक बनाएंगे तो परंपरा को जिन्दा कर रहे होंगे। परंपरा को प्रासंगिक नहीं बनाया जा सकता। परंपरा के जो लक्षण हमें आज किसी भी चीज में दिखाई दे रहे हैं तो वे मूलत: आधुनिक के लक्षण हैं, नए के लक्षण हैं।नया तब ही पैदा होता है जब पुराना नष्ट हो जाता है। परंपरा में निरंतरता होती है जो वर्तमान में समाहित होकर प्रवाहित होती है वह आधुनिक काअंग है।
हिन्दी में सबसे ज्यादा अनुसंधान होते हैं।आजादी के बाद से लेकर अब तक कई लाख शोध प्रबंध हिन्दी में लिखे जा चुके हैं।सालाना 7 हजार से ज्यादा शोध प्रबंध हिन्दी में जमा होते हैं। लेकिन इनमें एक फीसद शोध प्रबंधों में भी सामयिक समाज की धड़कन सुनाई नहीं देगी। हमें विचार करना चाहिए कि रामविलास शर्मा, नगेन्द्र,नामवरसिंह, विद्यानिवास मिश्र, मैनेजर पांडेय, शिवकुमार मिश्र, कुंवरपाल सिंह , चन्द्रबलीसिंह , परमानन्द श्रीवास्तव, नन्दकिशोर नवल आदि आलोचकों ने कितना वर्तमान पर लिखा और कितना अतीत पर लिखा ? इसका यदि हिसाब फैलाया जाएगा तो अतीत का पलड़ा ही भारी नजर आएगा। ऐसे में हिन्दी के वर्तमान जगत की समस्याओं पर कौन गौर करेगा? खासकर स्वातंत्र्योत्तर भारत की जटिलताओं का मूल्यांकन तो हमने कभी किया ही नहीं है।Jagadishwar Chaturvedi
एक संजय तिवारी विस्फोट हे विद्वान मगर बहुत ही बदमिजाज और जीवन के अनुभवों से विहीन साम्पर्दयिक और जातिवादी , दूसरी तरफ ये हे पुराने पत्रकार आवेश तिवारी एक सभ्य सुसंस्करत पढ़ा लिखा और जीवन के अनुभवों से भी सम्पन्न आदमी किस तरह से बात और विचार करता हे ये आवेश तिवारी से सीखना चाहिए इसी तरह लखनऊ का सूफी संत भी बहुत ही विद्वान आदमी हे मगर जो उसने अपने लाइक्स की हवस में किया था बहुत ही दुखद ———— ? इसी तरह संघियो का प्रिय प्रिंस इन्दोरी , भी महा महा विद्वान आदमी में हे मगर हे वो भी बदमिजाज कल वो भी वेज को लेकर खूब ज़हालत दिखा रहा था तो ये तीनो बेहद ही बेहद विद्वान हे मगर हे तीनो शायद बदमिजाज भि , शायद इन्हे जीवन के अनुभव नहीं मिले हे इसलिए तीनो सुई से लेकर सेटेलाइट की जानकारी रखते हे मगर कभी अपने जीवन के किसी अनुभव का जिक्र नहीं करते हे शायद वो इन्हे सुविधाओं में रहने के कारण नहीं मिले इसलिए तीनो बदमिजाज भी हे ये बहुत होता हे बहुत , इससे पता चलता हे की अध्ययन के साथ साथ जीवन के जमीनी अनुभव भी प्राप्त होने चाहिए तभी आदमी संकीर्णताओं से पूरी तरह से खुद को आज़ाद कर पाता हे खेर आवेश तिवारी लिखते हे ” Awesh Tiwari
1 hr · हिन्दू धर्म से जुड़ी किसी परंपरा या मान्यता या फिर हिन्दू धर्म को श्रेष्ठ साबित करने के लिए हम मुसलमानों पर किस हद तक निर्भर है यह चौंकाता है। योगी ने दस दिन में दो बार कहा कि इंडोनेशिया के मुसलमान खुद को राम का वंशज मानते हैं। यह सच भी है तो क्या राम इसलिए महान हैं? छठ पूजा मुस्लिम भी करते हैं? तो क्या छठ पूजा इसलिए श्रेष्ठ है, इस बात का क्या कोई मूल्य नही कि सूर्य की उपासना का यह सर्वाधिक लोकप्रिय पर्व है? क्या हमारे वेद ,हमारी ऋचाएं तब तक महतचिं हैं जब तक कोई ऐसा उदाहरण सामने लाकर नही खड़ा कर देते जिसमें कोई मुस्लिम इन्हें श्रेष्ठ कहे? दरअसल हम लोग बड़े काइयां किस्म के हैं जब कोई गैर हिन्दू ,हिन्दू धर्म की जय कहता है तो हम सोच बैठते हैं कि उसका धर्म छोटा हमारा श्रेष्ठ हो गया। दरअसल हम हिन्दू धर्म ,हिन्दू संस्कृति के बारे में कुछ भी न जानने वाली पीढ़ी के लोग हैं जो अपने हाथों से अपनी पीठ ठोंके जा रहे हैं। जिस धर्म की आजकल लहर है वो शाह धर्म हैं।
Shanu Shrivastava
Shanu Shrivastava खुद तो घंटा जानकारी नही, बस तयशुदा एजेंडे के तहत उलूलजलूल कुछ भी लिख देंगे और जवाब मिलने पर तिलमिला जाएंगे
Awesh Tiwari
Awesh Tiwari आप जाइये, बहुत कूद चुके अब अपनी पूंछ में आग लगा लीजिये
Sanjay Tiwari
12 hrs ·
पहले दिन से इस्लाम कोई आध्यात्मिक आंदोलन नहीं था। इस्लाम में आध्यात्म आया जब उसका ईरान और भारत में प्रवेश हुआ। शुरुआत से ही इस्लाम इलाका दखल का कार्यक्रम था जो तलवार के बल पर चलाया गया। द प्रीचिंग आफ इस्लाम (१९१३) में टी डब्लू आर्नाल्ड लिखते हैं “अरबों का विस्तार कोई आध्यात्मिक आंदोलन नहीं था, बल्कि अपने पड़ोसियों की संपन्नता पर डाका था। अरब उनकी जमीन और संपन्नता को छीनकर उस पर कब्जा करना चाहते थे।”Rahul Rajeev
21 October at 12:56 ·
जब इस्लाम नहीं था तब किसके कारण हिंदू धर्म सिमट गया था ? पूरे प्रायद्वीप में बौद्ध और जैन धर्म ने स्थान ले लिया था ? जो कारण तब था वही कारण इस्लाम कबूल करने का रहा । जातिवाद और कर्मकाण्ड -जिसने बहुसंख्य हिन्दुओं का जीना हराम कर दिया था । जब अंदर कमजोर होता है तो बीमारियाँ होती ही हैं । जैसे हालत तब थे उसमें इस्लाम भाईचारा का संदेश लेकर आया । नवाबों के आने के सैकडों वर्ष पहले सूफियों के द्वारा इस्लाम आ गया था और फैल चुका था । एक वृहत्तर समाज हिंदू धर्म से त्रस्त था । तब इस्लाम होता या न होता तो कोई और होता या फिर कोई नया धर्म बन जाता पर कमजोर , परेशान, पीडित हिंदू इस धर्म को छोड़ कहीं और जाते ज़रूर । क्योंकि दलितों , पिछड़ी जातियों के साथ अन्याय इसी हिंदू धर्म के नाम पर हो रहा था ॥
एक बात और ऐसा सिर्फ हिंदू धर्म के साथ नहीं हुआ । दुनियाँ के हर धर्म में कुछ समय बाद विकृतियां आती रही हैं और लोग नये नये धर्म बनाते व स्वीकार करते रहे हैं ।Rahul Rajeev
20 October at 22:35 ·
क्या दुनिया की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी की संस्कृति रामायण हो सकती है!! इंडोनेशिया की कुल आबादी 24 करोड़ का 90% मुस्लिम हैं।
इंडोनेशिया के शिक्षा और संस्कृति मंत्री अनीस बास्वेदन भारत आए थे. इस यात्रा के दौरान उनके एक बयान ने खास तौर पर सुर्खियां बटोरीं. अनीस का कहना था, ‘हमारी रामायण दुनिया भर में मशहूर है। हम चाहते हैं भारत के कलाकार इंडोनेशिया आ कर रामलीला मंचन करें और हमारे यहां, इससे रामायण की साझा संस्कृति का विकास होगा।
इंडोनेशिया मे नियमित रामलीला मंचन होता है। वहां रामायण 7 वीं सदी मे आई और अगर तबसे रामलीला मंचन हो रहा है तो भारत से बहुत पुराना है रामलीला मंचन!! भारत मे तो रामलीला तुलसीदास के बाद ही खेली जाने लगी और विधिवत मंचन तो कहते हैं बहादुरशाह जफ़र ने ही शुरू करवाया दिल्ली रामलीला मैदान मे।
इंडोनेशियन स्कूल शिक्षा मे रामायण पढाई जाती है।
एक किस्सा है।
इंडोनेशिया के पहले राष्ट्रपति सुकर्णो के समय में पाकिस्तान का एक प्रतिनिधिमंडल इंडोनेशिया पहुंचा तो उन्हें मुस्लिम देश मे रामायण मंचन देखकर हैरानी हुई।
तो सुकर्णो ने कहा कि इस्लाम हमारा धर्म है और रामायण हमारी संस्कृति!
इंडोनेशियन मुस्लिमों का कहना है वो बेहतर इंसान बनने के लिए रामायण पढ़ते हैं!!
और हमारे यहां रामायण और राम लला वाले ??
कैसे इंसान हैं रामायण पढ़कर!!
रामलला के ठेकेदारों ने पिछले 3 दसक मे जय श्री राम को एक उग्र उदघोष बना दिया है!!
संस्कृति!!
संस्कृति के नाम पर इतिहास मिटाते हैं, विरासत मे मिली इमारतों पर बुलडोजर फिरवाने की बात करते हैं।
धर्म और संस्कृति वाकई दो अलग अलग विषय हैं।
और संस्कृति की दुहाई देने वाले हमारे (कु)सांस्कृतिक दल को सीखना चाहिए कि सत्ता की गन्दी धर्म की राजनीति के चलते वो भारत के धर्म और सांस्कृतिक विरासत को कितना जहरी बना चुके हैं। रामलला उन्हें माफ करें वो नही जानते वो धर्म देश और संस्कृति के असली दुश्मन हैं…
Ankit Jamshedpur के वाल से
See Translation
Apoorva Pratap Singh
23 hrs ·
लोग मजबूरी में अपने बच्चों को बड़े पूंजीपति स्कूल में पढ़ाते हैं, मैकडी में खिलाते हैं, मेहनत कश का खून चूसने वाली सरकार की या कॉरपोरेट की ऊंची नौकरी बजाते हैं और फिर फेसबुक ही तो बचता है अपनी किरान्ति निकालने को !
आपको इससे भी दिक्कत है !!
फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन से क्या प्रॉब्लम है ? कोई आपके हाथ तो नहीं रोक रहा, हर परम्परा-पर्व को बंद करवाने और करने वालों में गिल्ट भरने और उनकी न्यूट्रल मंशा को ही कंडीशन्ड करने की इच्छा मात्र ही तो है !
रिफॉर्मेशन, समय और सम्मिलित होना-समझना, दोनों की मांग करता है इतना एफर्ट कौन करे । बेहतर है कि बन्द ही करवा दो !
इच्छाओं का सम्मान कीजिये, चुप रहिये ! या कट लीजिये ! फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन वाली वाल्स पर आपका फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन मज़ाक या उपेक्षित हो जाये तो शिकायत मत कीजिये !Rahul Rajeev
20 October at 16:44 ·
बहुत अच्छी प्राइवेट व्यवस्था
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बहुत अच्छा प्राइवेट हॉस्पिटल, बहुत अच्छा पब्लिक स्कूल … इससे खुश होने की ज़रूरत नहीं ॥ यह हमारे लिये शर्म की बात है । जब सरकारी व्यवस्था बर्बाद हो जाती है तभी प्राइवेट व्यवस्था खड़ी होती है । अगर यह इतनी ही अच्छी व्यवस्था होती तो लोग प्राइवेट सैनिक बनाते और देश की रक्षा करते ।अधिकारी भी प्राइवेट होते । सरकार से ज्यादा सक्षम दूसरा कोई नहीं हो सकता । अगर लगने लगे कि दूसरी व्यवस्था ज्यादा मजबूत हो गयी है तो समझिये कि सत्ता ने सह देकर इसे बढ़ाया है । भले bsnl बर्बाद हो पर रिलायंस को यही सरकार कर्ज देती है न कि रिलायंस सरकार को कर्ज देता है । प्राइवेट व्यवस्था के मजबूत होने का अर्थ है जान बूझ कर सरकारी व्यवस्था को कमजोर करना । इसलिये प्राइवेट स्कूल, अस्पताल के अच्छा होने पर खुशी नहीं शोक मनाईये ॥
Arun Maheshwari
11 hrs ·
लेखक कल्याण कोष की स्थापना की जाय
सरला माहेश्वरी
मैला आंचल’ और ‘परती परिकथा’ के महान कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु की पत्नी ने दूरदर्शन के ‘परख’ कार्यक्रम को दिये गये एक साक्षात्कार में आंतरिक वेदना से कहा था कि “चाहूँगी कि मेरे घर में और कभी कोई लेखक पैदा न हो।”
हमारे समाज में लेखकों की यह स्थिति इस समाज के अन्यायपूर्ण ढांचे पर ही एक कड़ी टिप्पणी है। व्यवस्था का स्वरूप लेखकों के प्रति हमेशा ही निर्दयी उदासीनता का रहा है क्योंकि लेखक स्वभावत: व्यवस्था-विरोधी होता है। इसीलिए खूबसूरत शफीलों में बंदी हमारी व्यवस्था कभी भी लेखक की अंदरूनी जिंदगी की ओर झांकने की चेष्टा नहीं करती। और सिर्फ हमारे यहाँ ही नहीं, सभी जगह लेखकों के संदर्भ में हम व्यवस्था का यही रुख देखते हैं।
सुप्रसिद्ध उपन्यासकार ग्रेबियल मारक्वेज ने कुछ वर्षों पहले अपनी पुस्तक ‘हन्ड्रेड इयर्स ऑफ सालिच्यूड’ जिसकी प्रतियों की बिक्री ने रिकार्ड तोड़ दिया, कहा था कि यह पुस्तक बहुत अच्छी हुई होती अगर मेरे पास इसे लिखने का और वक्त होता लेकिन कर्ज के बढ़ते हुए बोझ तथा महाजन की तरह प्रकाशक के दबाव ने मुझे इसे किसी तरह खत्म करने को मजबूर कर दिया।
हमारे यहाँ स्थिति और भी विकट है। एक लेखक संघ से जुड़े होने के नाते, एक लेखक परिवार से जुड़े होने के नाते, लेखकों के जीवन की पीड़ा को मैंने बहुत निकट से भोगा है। और आज के इस माध्यमों के युग में जहाँ पूरी संस्कृति का माध्यमीकरण हो रहा है वहाँ सृजनात्मक लेखन के लिये तो स्थितियाँ और भी विकट होती जा रही हैं। पाठक और लेखक के बीच का रिश्ता टूटता जा रहा है। पुस्तकें छपती नहीं है, छपती हैं तो बिकती नहीं हैं, बिकती हैं तो लेखक को उसकी रायल्टी नहीं मिलती है। हमारे कानून भी लेखकों के साथ न्याय नहीं करते।
संपत्ति संबंधी अन्य तमाम कानूनों में संपत्ति की पूर्ण विरासत को स्वीकारा गया है। किसी भी संपत्ति के वारिस को संपत्ति पर पूर्ण अधिकार होता है। लेखन जो लेखकों की संपत्ति होती है उसे इस प्रकार की पूर्ण स्वीकृति हासिल नहीं है जो अन्य प्रकार के मामलों में दी गयी है।
कापीराइट कानून में लेखक की मृत्यु के पश्चात उसकी पुस्तकों की रायल्टी उसके क़ानूनन वारिस को सिर्फ 50 साल तक ही मिल सकती है। उसके बाद रायल्टी का कोई प्रावधान नहीं होता है। मैं नहीं चाहती कि इस कानून में रायल्टी की अवधि को बढ़ाने आदि के बारे में कोई संशोधन किया जाय क्योंकि लेखन पर जितना अधिकार लेखक का तथा उसके कानूनी वंशजों का है, आम पाठकों का उससे कम नहीं है।
लेकिन वास्तविकता यह है कि आमतौर पर तमाम व्यवसायिक प्रकाशन संस्थान उन्हीं पुस्तकों की बिक्री से बेइन्तिहा मुनाफा बटोरा करते हैं जिन पुस्तकों पर लेखकों की रायल्टी की अवधि समाप्त हो चुकी होती है। मेरा अनुरोध है कि सरकार कापीराइट कानून में इस प्रकार का परिवर्तन करे कि जिससे कापीराइट की मियाद खत्म हो चुकी पुस्तकों की बिक्री में सरकार खुद एक निश्चित प्रतिशत रायल्टी वसूल कर सके और इस प्रकार वसूल की गयी पूरी राशि को लेखक कल्याण कोष में जमा करा दिया जाय। इससे एक बहुत बड़ा कोष तैयार हो सकता है। इस कोष के जरिये लेखकों की पांडुलिपियों को प्रकाशित करने में अनुदान आदि से शुरू करके लेखक समाज को हर प्रकार की राहत प्रदान करने का काम किया जा सकता है। यह योजना हर पुस्तक पर लागू होनी चाहिए, वह भले ही धार्मिक पुस्तक, वैज्ञानिक विषयों से संबंधित पुस्तक या अन्य किसी प्रकार की पुस्तक ही क्यों न हो। इससे यह कोष एक विशाल कोष का रूप ले सकेगा तथा रायल्टी कानून से हम जो उम्मीद करते हैं कि वह लेखक के अपने जीवन-काल में, उसके लेखन-कार्य में सहयोगी बने, वह उम्मीद भी काफी हद तक पूरी हो सकती है। मानव संसाधन मंत्रालय को तत्काल इस आशय की पूरी योजना बना कर पेश करनी चाहिए।
( राज्य सभा में सरला )
आज फणीश्वर नाथ रेणु के जन्मदिन पर उन्हें नमन।
क्या एक अंग्रेज की बात सुनकर आंखें खुलेंगी? अंग्रेजी पर मार्क टली का लेख
मार्च 17, 2012 अफ़लातून अफलू द्वारा
[” मार्क टली भारत में एक परिचित नाम है । वे तीन दशक से ज्यादा समय तक भारत में बीबीसी के संवाददाता रहे हैं । भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण से सम्मानित किए जा चुके हैं । यह लेख कुछ साल पहले लिखा गया था । भारतीय संस्कृति पर नाज करने वाले मार्क टली ने हाल ही में टीवी पर एक इंटरव्यू के दौरान कारन थापर को जो कुछ कहा , वह गौरतलब है । करन थापर ने गुस्से से पूछा की क्या आप चाहते हैं की हम इस तरह से कपड़ा पहनना छोड़ दें , जमीन पर बैठने लगें ? मार्क टली ने कहा – “नहीं – नहीं , मैं ऐसा नहीं चाहता । मैं आपसे एक बात पूछता हूं कि आप क्या चाहते हैं – असली भारत या नकली अमेरिका ? ” यह सामग्री जिला शिक्षा अधिकार मंच व् विद्यार्थी युवजन सभा – जिला होशंगाबाद द्वारा प्रकाशित ‘जागो भारत श्रृंखला ‘ के परचे से साभार ली गई है । ]
दिल्ली में ,जहां मैं रहता हूं उसके आस-पास अंग्रेजी पुस्तकों की तो कई दर्जनों दुकानें हैं , हिंदी की एक भी नहीं । हकीकत यह है की दिल्ली में मुश्किल से ही हिंदी पुस्तकों की कोई दुकान मिलेगी । टाइम्स आफ इंडिया समूह के समाचार पत्र नवभारत टाइम्स की प्रसार संख्या कहीं ज्यादा होने के बावजूद भी विज्ञापन दरें अंग्रेजी अखबारों के मुकाबले अत्यंत कम है । इन तथ्यों के उल्लेख का एक विशेष कारण है । हिंदी दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली पांच भाषाओं में से एक है । जबकि भारत में बमुश्किल पांच प्रतिशत लोग अंग्रेजी समझते हैं ।
कुछ लोगों का मानना है यह प्रतिशत दो से ज्यादा नहीं है । नब्बे करोड़ की आबादी वाले देश में दो प्रतिशत जानने वालों की संख्या १८ लाख होती है और अंग्रेजी प्रकाशकों के लिए यही बहुत है । यही दो प्रतिशत बाकी भाषा – भाषियों पर प्रभुत्व जमाए हुए है । हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी के इस दबदबे का कारण गुलाम मानसिकता तो है ही , उससे भी ज्यादा भारतीय विचार को लगातार दबाना और चंद कुलीनों के आधिपत्य को बरकरार रखना है ।
इंग्लैण्ड में मुझसे अक्सर संदेह भरी नज़रों से यह सवाल पूछा जाता है की तुम क्यों भारतीयों को अंग्रेजी के इस वरदान से वंचित करना चाहते हो जो इस समय विज्ञान , कम्प्युटर ,प्रकाशन और व्यापार की अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है ? तुम क्यों दंभी -देहाती (स्नाब – नेटिव )बनाते जा रहे हो ? मुझे बार – बार बताया जाता है की भारत में संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी क्यों जरूरी है, गोया यह कोई शाश्वत सत्य हो । इन तर्कों के अलावा जो बात मुझे अखरती है वह है भारतीय भाषाओं के ऊपर अंग्रेजी का विराजमान होना । क्योंकि मेरा यकीन है की बिना भारतीय भाषाओं के भारतीय संस्कृति ज़िंदा नहीं रह सकती ।कोढ़ में खाज का काम अंग्रेजी पढ़ाने का ढंग भी है । पुराना पारंपरिक अंग्रेज़ी साहित्य अभी भी पढ़ाया जाता है । मेरे भारतीय मित्र मुझे अपने शेक्सपियर के ज्ञान से खुद शर्मिन्दा कर देते हैं । अंग्रेजी लेखकों के बारे में उनका ज्ञान मुझसे कई गुना ज्यादा है । एन . कृष्णस्वामी और टी . श्रीरामन ने इस बाबत ठीक ही लिखा है जो अंग्रेज़ी जानते हैं उन्हें भारतीय साहित्य की जानकारी नहीं है और जो भारतीय साहित्य के पंडित हैं वे अपनी बात अंग्रेज़ी में नहीं कह सकते । जब तक हम इस दूरी को समाप्त नहीं करते ,अंग्रेजी ज्ञान जड़विहीन ही रहेगा । यदि अंग्रेजी पढ़ानी ही है तो उसे भारत समेत विश्व के बाकी साहित्य के साथ जोड़िये न की ब्रिटिश संस्कृति के इकहरे द्वीप से ।
चलो इस बात पर भी विचार कर लेते हैं की अंग्रेजी को कुलीन लोगों तक मात्र सीमित करने के बजाय वाकई सारे देश की संम्पर्क भाषा क्यों न बना दिया जाए ? नंबर एक , मुझे नहीं लगता इसमें सफलता मिल पाएगी (आंशिक रूप से राजनैतिक कारणों से भी ) । दो, इसका मतलब होगा भविष्य की पीढ़ियों के हाथ से उनकी भाषा संस्कृति को जबरन छीनना । निश्चित रूप से भारतीय राष्ट्र की इमारत किसी विदेशी भाषा की नींव पर नहीं खड़ी हो सकती है । भारत , अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया की तरह महज भाषाई समूह नहीं है । यह उन भाषाओं की सभ्यता है जिसकी जड़ें इतनी गहरी हैं की उन्हें सदियों की औपनिवेशिक गुलामी भी नहीं हिला पाई ।संपर्क भाषा का प्रश्न निश्चित रूप से अत्यंत कठिन है । यदि हिन्दी के लंबरदारों ने यह आभास नहीं दिया होता की वे सारे देश पर हिन्दी थोपना चाहते हैं तो समस्या सुलझ गई होती । अभी भी देर नहीं हुई है । हिन्दी को अभी भी अपने सहज रूप में बढाने की जरूरत है और साथ ही प्रांतीय भाषाओं को भी , जिससे की यह भ्रम न फैले की अंग्रेजी साम्राज्यवाद की जगह हिन्दी साम्राज्यवाद लाया जा रहा है । यहाँ सबसे बड़ी बाधा हिन्दी के प्रति तथाकथित कुलीनों की नफरत है । आप बंगाली , तमिल , या गुजराती पर नाज़ कर सकते हैं , पर हिन्दी पर नहीं । क्योंकि कुलीनों को प्यारी अंग्रेजी को सबसे ज्यादा खतरा हिन्दी से है । भारत में अंग्रेजी की मौजूदा स्थिति के बदौलत ही उन्हें इतनी ताकत मिली है और वे इसे इतनी आसानी से नहीं खोना चाहते ।
– मार्क टली
Devanshu
23 hrs ·
क्या हिन्दी विदूषकों की भाषा है?
हिन्दी सिनेमा में हिन्दी का मास्टर जी बहुत खाता है । सबके टिफिन बॉक्स से भोजन चुरा लेता है । हिन्दी का मास्टर दिखने में ढक्कन, ऊल जलूल हरकतें करने वाला है । वह उपहास का पात्र है । कबीर, तुलसी के दोहों को ऊटपटांग तरीके से पढ़ते हुए कक्षा में अपनी हंसी उड़वाता है । हिन्दी का मास्टर अगर गलती से ढंग का मानुष हुआ भी तो बेहद गरीब इंसान होता है । उसकी कोई स्टाइल नहीं होती । और बारहा तो उसे चुपचुप ठरकी होते हुए भी हमने देखा । जो कर कुछ नहीं सकता बस सुंदरी को चोरी छिपे निरखता रहता है ।
लेकिन उर्दू का शायर हसीन मुहब्बत करता है । बस एक शेर क्या पढ़ा, कॉलेज की सारी सुंदर लड़कियां कुर्बान । शायर के कपड़े भी आधुनिक, एकदम ज़माने के तेवर से मेल खाते हुए ।
हिन्दी भाषा और उसके पुत्रों को इस देश में गली का कुत्ता बना दिया गया है । नेहरू की लादी हुई अंग्रेजियत ने हमारे भीतर ऐसी कुंठा भरी है कि हम अपने महान कवि लेखकों के लिए भी गौरव नहीं कर पाते । हिन्दी पढ़ाने वाला गरजू समझा जाता है । अच्छा ! हिन्दी का मास्टर है !! मतलब यह कि हिन्दी का मास्टर है तो फुद्दू ही होगा । घर की मुर्गी दाल बराबर । अंग्रेजी पढ़ाने वाले की रंगत तो देखो ! उर्दू के गुलूकार की अदा में जो बात है वो हिन्दी वालों में कहां..! जिस भाषा की खाता है, जिस भाषा के पैसों पर अय्याशियां करता है, जीवन के सुख वैभव भोगता है, उसी भाषा की छाती पर चढ़कर हग देता है । ठीक वैसे ही जैसे बेटा मां को विधवा होते ही घर से चलता कर देता है ।
हिन्दी का पाठक महाअभागा, परले दरजे का पतित है । उसे तो अपनी भाषा के गौरव से क्या लेनादेना ? मैं नहीं जानता, यह हीनता बोध कहां से कैसे आया लेकिन मैंने अकसर हिन्दी के शिक्षकों को जोकर जैसा ही देखा है । अंग्रेजी के आतंक से कांपता हुआ । जबरन टूटी फूटी अंग्रेजी बोलने की कोशिश में चारों खाने चित होता हुआ । उसे इस बात का मान ही नहीं है कि वह तुलसी, सूर मीरा, प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी, अज्ञेय, प्रेमचंद, जैनेन्द्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, मुक्तिबोध , कुंवर नारायण जैसे महान और विलक्षण साहित्यकारों का सेवक है । उसे तो उर्दू का एक दो टकिया शायर मार देता है और अंग्रेजी पढ़ाने वाले से उसकी क्या तुलना..?
पिछले बीस वर्षों में हिन्दी के मास्टर साहब की अधोगति हो गई है । हमारे समय तक, खासकर हिन्दी माध्यम के स्कूलों में हिन्दी के शिक्षक सम्मानित होते थे पर जब से अंग्रेजी शिक्षा हमारे घरों में आम हुई है तभी से हिन्दी के मास्टर साहब गुठली हो गए हैं ।
बच्चों से सुनता हूं, उनके स्कूल में हिन्दी पढ़ाने वाले पीस हैं । उनकी एक विचित्र शैली है, वे अलग तरह से डांटते हैं, वे कुछ ऊटपटांग करते हैं । ऐसे ही कई और स्कूलों के शिक्षकों के बारे में सुना । हमारे पड़ोस में हिन्दी की मास्टर साहिबा परले दरजे की जोकर हैं । उनका तो इस देश में मन ही नहीं लगता । हरदम विदेश में काम करने वाले बेटे के साथ ही विचरण करती हैं । अंग्रेजी बोलने के चक्कर में अपना ही मज़ाक उड़वाती हैं ।
हिन्दी के साथ जुड़ने के लिए जो गौरव, आत्माभिमान, योग्यता और प्रेम होना चाहिए, वह है ही नहीं तो स्वरूप सुंदर कैसे हो सकता है.. मैं नहीं जानता क्षेत्रीय भाषा की क्या स्थिति है.. पर देश के सबसे बड़े क्षेत्र में बोली जाने वाली एक महान और सुंदर भाषा की इज्जत उतारी जा रही है और, इज्जत उतारने वाले कोई आक्रांता नहीं उसके ही पुत्र हैं ।
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Abdul RashidAbdul Rashid Sanjay Tiwari जी ,विस्फोट की आज भी जरूरत है।
Sanjay Tiwari ब्लाग के बतौर तो आज भी जिन्दा ही है बाकी विस्फोट को पैसे की जरूरत है। जब तक पैसा नहीं होगा अब किसी से लिखवायेंगे नहीं।Abdul Rashid Sanjay Tiwari जी इस समस्या से इनकार नहीं किया जा सकता। ब्लॉग मैं पढ़ता हूँ। मुझे नहीं मालूम के द वायर वालों की बात कितना सच है लेकिन वो ये दावा करते हैं के सब कुछ जनता के पैसे से चल रहा है,तो क्या ऐसी व्यवस्था बनाया जा सकता है।
Sanjay Tiwari Abdul Rashid ऐसी कोई व्यवस्था नहीं हो सकती। वायर को बड़ी फंडिंग है। कुछ कॉरपोरेट घरानों से। भारत के लोगों को अभी मीडिया दान और सहयोग का सब्जेक्ट ही नहीं लगता। उनके लिए मीडिया एक धंधा है। इसलिए कोई मदद को आगे नहीं आता। ”—————————————————————————————————————————————————————————————————————————————————————————पाठको तिवारी हो या कोई हो हिंदी वालो को कोई पैसा नहीं दे सकता हे ना देगा जिसके पास भी जब भी पैसा आता हे वो उसे अपनी जरूरतों पर खर्च कर देता पहले जरूरतों पर फिर महत्वकांशाओ पर चाहतो पर खर्च कर देता हे टाइम्स ग्रुप के पास खरबो रुपया हे एक ज़माने में नवभारत ब्लॉग की टी आर पि फेसबुक टाइप ही थी मगर सवाल ही नहीं उठता की ये हिंदी लेखकों को चवन्नी भी दे और सभी का भी यही हाल हे संसथान छोड़े एक ज़माने में एक हिंदी लेखक ने मनोरंजन जगत के लिए लिख कर खूब पैसा कमाया था लोगो को आस थी की अब ये गरीब हिंदी , हिंदी लेखकों की मदद करेगा मगर उनके दोस्त लेखक ने बताया की आस तो बहुत थी मगर उन्होंने कोई खास नहीं किया मेरा अंदाज़ा हे की उनकी क्योकि ढेर सारी मित्र थी वो शायद उन पर लुटा देते होंगे उनकी एक मित्र ने तो उनके मुंबई के फ्लेट पर भी कब्ज़ा कर लिया था सेकुलर थे लेकिन कम्युनल की मदद से फ्लेट छुड़वाया था लब्बोलुआब ये हे की पैसा आते ही लोगो की दस चाहते जाग जाती हे पैसा लूट जाता हे और हिंदी हिंदी वाले खासकर कंगाल ही रहते हे अब एक लास्ट कोशिश हम करना चाहते हे में और अफ़ज़ल भाई शुद्ध ईमानदार हे हमारी कोशिश ये चल रही हे मेरे एक लंदन के कज़िन ने कुछ हज़ार की मदद से शुरुआत भी की हे एक और कज़िन यूरोप में हे उससे भी मदद मांगी हे लेकिन ज़ाहिर हे की इतना आसान नहीं हे सो मेने मॉडल ये सोचा हे की लगभग लगभग तीस लाख की जमीन मेरे पास हे ही एक हाइवे बन गया तो कीमत डबल भी हो सकती हे तो मेरा मॉडल ये हे की लोग हमे पैसे दे हमारे अकॉउंट में डाले आपका पैसा सेफ रहेगा हम उसे हाथ भी नहीं लगाएंगे वो रखा रहेगा फ़र्ज़ कीजिये की देने के बाद जबकभी आपको जरुरत हो आप हमसे वापस ले ले और अकॉउंट में रखे रखे जो कुछ भी उसका ब्याज का पैसा होगा वो हम खबर की खबर के लिए अच्छा लिखने वाले हिंदी लेखकों में बाँट देंगे हम खुद कुछ नहीं रखेंगे सब कुछ ओपन रहेगा हिंदी लेखन में पैसा हो हिंदी लेखक फल फुले और इतना तो मिले ही की लेखन की लागत तो निकले इससे भी कोई बड़ा बदलाव आ सकता हे ऐसी मेरी आस हे और ये भी तय हे की हमारे आलावा ये काम कोई नहीं कर सकता हे कोई नहीं
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सिकंदर हयात
सिकंदर हयात on June 8, 2018 at 3:37 pm
अगर कोई पाठक इस योजना में जो मेने ऊपर बताई हे कोई सहयोग देना चाहे तो मेरा नम्बर 9582937300 हे
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सिकंदर हयात
सिकंदर हयात on June 18, 2018 at 10:07 am
पिछले दिनों सूना हे की ग्रामीण पत्रकारिता के नाम पर एक प्रकार और rj को काफी फण्ड मिला था उससे क्या होना था वही हुआ की खबर आयी की उन्होने अपने रिश्तेदारों को काम पे लगा दिया उनके बिज़नेस जमा दिए लखनऊ में शानदार बंगला बना लिया और ज़ाहिर हे की ये काम करते करते हिंदी वालो को हिंदी के लिए तो कोई बजट नहीं बच सकता हे न बचा ये काम सिर्फ हम कर सकते हे हम लोग काबिल तो नहीं हे टेलेंट नहीं हे हमारे पास मगर एक खासियत हे हमारी हम टफ भी हे और शुद्ध ईमानदार भी हे हम कभी करप्ट नहीं हो सकते हे चाहे जो परलोभन हो बल्कि हमे चाहिए ही नहीं हे वो सब जिसके लिए लोग देर सवेर भ्र्ष्ट हो ही जाते हे तो में बिलकुल कन्फर्म हु की कल को चार पैसे हुआ तो वो हम तो दे सकते हे हिंदी में अच्छा लिखने सोचने वालो को बाकी चाहे जिसे फण्ड दे दो सुविधाएं दे चाहे जो दे दो कोई ये काम नहीं करने वाला हे जैसे उर्दू के सबसे बड़े पत्रकार साहब के बारे में एक छोटे उर्दू पत्रकार ने बताया था की पैसा फण्ड खिंच खिंच के खुद उन्होंने नोएडा में शानदार बंगला बना लिया और नए उर्दू पत्रकारों से कहते हे की पेट पर पथर बांध कर कौम की खिदमत करनी हे इसी तरह से एक ”कौम की खिदमत ” करने वालो के यहाँ उनकी मैगज़ीन में मेरे एक दोस्त ने काम किया मुझसे भी लिखवाया मुझे तो खेर पता ही था मगर मेरे दोस्त के पैसे मारकर कौम का इंसाफ दिलवाने के लिए फण्ड लेने वालो ने सबसे पहले मेरे दोस्त के काम का पैसा मारा हर कोई यही करता हे हिंदी के सभी अखबार कहते हे इसी तरह बड़े बने हे यही तरीका हे शोषण करो और बड़े बने लेकिन अगर हमारे पास बजट हुआ तो हम ये सब नहीं करेंगे क्योकि हमें इन सब बातो की सारी गहराई पता हेसिकंदर हयात on June 17, 2018 at 11:46 pm
कुछ मुस्लिम लेखकों को हमारी इस योजना पर ऐतराज़ भि हो सकता हे की भाई लेखन के लिए ब्याज का पैसा हम नहीं लेंगे ये बहुत अच्छा आदर्श हे सही भी हे उनका फिर ये रहेगा की जैसे ही साइट की टी आर पि बढ़ेगी एड बढ़ेंगे तो फिर उन्हें ad से पैसे दिए जा सकते हे खेर जो भी हे ये मेरा दावा हे की सबसे अधिक टी आर पि वाली हिंदी और हिंदी रायटिंग जिसका वैसे कोई महत्व हो ना हो पर चुनावी में तो हे ही तो हिंदी के आम लेखकों को आज तक न किसी ने पैसे दिए ना देगा आज की तारीख में सबसे अधिक हिंदी लेखन फेसबुक पर हो रहा हे और फेसबुक कोई रेवेन्यू शेयर नहीं करता कोई भी हिंदी लेखकों को पैसा नहीं देता हे ये काम सिर्फ और सिर्फ हम कर सकते हे और कोई नहीं
agadishwar Chaturvedi
15 hrs ·
कम्युनिस्ट पार्टी के लोग राष्ट्रभाषा हिंदी और कम्युनिकेशन की हिंदी में अंतर नहीं समझते। वे हिंदी के सवाल को राष्ट्रभाषा के सवाल के रूप में ही देखते और उसके प्रति अ-लोकतांत्रिक आचरण करते हैं। हिंदी कम्युनिकेशन की सबसे प्रभावशाली भाषा है। यह साधारण किंतु महत्वपूर्ण बात वे आजतक समझ नहीं पाए हैं। साधारण सी बात से इस उपेक्षा को समझ सकते हैं,
माकपा के पास विशाल प्रकाशन संगठन है जिसने महत्वपूर्ण किताबें अंग्रेजी ,बंगला और मलयालम में छापी हैं। लेकिन हिंदी को ये लोग प्रकाशन योग्य भाषा ही नहीं समझते।चंद किताबें हिन्दी में इन्होंने प्रकाशित की हैं। कई भाषाओं में टीवी चैनल भी हैं लेकिन हिंदी में कोई चैनल नहीं है, यह तो नेट प्रचार का दवाब है जिसके कारण कुछ वेबसाइट वे चला रहे हैं,लेकिन उनका फ्लो और सामग्री इतनी कम है कि बस कुछ कहने को मन नहीं करता।
Jagadishwar Chaturvedi
Yesterday at 17:23 ·
महान कम्युनिस्ट नेता ए.के.गोपालन ने देश की व्यापक यात्राएं कीं,वे मथुरा भी आए,शहर के अंदर नुक्कड़ सभा की,लेकिन वे मलयालम में बोले। अब सोचो किसको मथुरा में मलयालम समझ में आई होगी!!
काश, हिंदी की सार्वजनिक संप्रेषण महत्ता कम्युनिस्ट नेता समझ पाते तो कम्युनिस्ट आंदोलन की राष्ट्रीय इमेज एकदम भिन्न होती।
हिंदी का प्रश्न राष्ट्रभाषा से नहीं , बल्कि वृहत्तर समाज के साथ संप्रेषण से जुड़ा है।
ईएमएस नम्बूदिरीपाद कई दशक दिल्ली में रहे लेकिन हिंदी में भाषण देना न सीख पाए।
जबकि गैर हिंदीभाषी राज्य से आने वाले अधिकांश कांग्रेसियों ने हिंदी सीखी और जमकर भाषण भी हिंदी में दिए।
कम्युनिस्ट दलों में जब तक हिंदी राष्ट्रीय संप्रेषण की भाषा नहीं बनती तब तक वे हिंदी क्षेत्र में संकट में रहने को अभिशप्त हैं।
Jagadishwar Chaturvedi
Yesterday at 17:00 ·
केरल में बड़े से बड़ा वाम नेता और बुद्धिजीवी जब सार्वजनिक भाषण देता है तो मलयालम में ही बोलता है। यही स्थिति कमोबेश बंगाल के वाम की है लेकिन अभागी हिंदी अभी भी वाम का इंतजार कर रही है। भाषा का सवाल अभिव्यक्ति से जुड़ा है,सफल अभिव्यक्ति देशज भाषा में होती है। अंतर समझना हो तो योगेन्द्र यादव के हिंदी भाषण के साथ तुलना करके देख लो,यादव ज्यादा संप्रेषणीय है!
S Karn
15 November at 19:07 ·
देहातों से लगे शहरी क्षेत्रों में स्कूल कॉलेज का धंधा खूब फल फूल रहा है। क्षेत्र के पुराने धनाढ्य पहले जो पैसा ईंट के भट्टों, पेट्रोल पंप, पब्लिक ट्रांसपोर्ट में लगाते थे अब स्कूल कॉलेज के धंधे में लगा रहे।
इनका ग्राहक अधिकतर सरकारी नौकरी के दम पर गांव से निकला नया नवेला शहराती वर्ग होता है।
इन स्कूलों की चमक धमक शहरी स्कूलों से फीकी ना पड़े इस बात का पूरा ख्याल रखा जाता है।
चमाचम बसें, तड़क भड़क यूनिफॉर्म, एक्स्ट्रा एक्टिविटी के नाम पर हर महीने वसूली जाने वाली फीस…वो सब कुछ जो देहाती से ताजा कनवर्टेड शहराती को आकर्षित करे। ऐसे क्षेत्रों के दम्पत्ति चाहतें हैं कि हमारे बच्चों को मिलने वाली सुख सुविधायें महानगरों में रहने वालों बच्चों से जरा भी कमतर ना हो।
चूंकि ये चाहते हैं कि हमारे बच्चे को अच्छी से अच्छी शिक्षा मिले इसलिये महंगे से महंगे स्कूलों में एडमिशन करातें हैं।
बच्चे की पढ़ाई लिखाई इनके जीवन का सबसे गम्भीर विषय होता है। मैंने ऐसे घर देखें हैं जहां का माहौल बच्चे की पढ़ाई लिखाई को लेकर हमेशा तनाव ग्रस्त बना रहता है। घर की हंसी खुशी पर बच्चे की शिक्षा राहु केतु बनकर सवार रहती है। बच्चे ने होमवर्क किया कि नही, होमवर्क किया तो कितने घण्टे सेल्फ स्टडी की….बाहरी बच्चों के साथ खेल कूदकर बिगड़ ना रहा हो….ऐसे घर बच्चों के लिये प्रताड़ना केंद्र होतें हैं।
ये नही चाहते कि इनके गुणसूत्रों द्वारा बच्चे में ट्रांसफर देहातीपना जरा सा भी पनप सके, ये बच्चे की चमड़ी से देहातीपना खुरच खुरचकर निकाल देना चाहतें हैं। ये नही चाहते कि जहां रहते हैं उस क्षेत्र का प्रभाव बच्चे पर जरा भी पड़े।
ये भांटपार में रहकर बच्चे को दिल्ली, बम्बई ,लंदन जैसा माहौल देना चाहतें हैं। जिससे बच्चे को देहाती भाषा छू भी ना सके….बच्चा बंदर को मंकी , गाय को डंकी कहता है तो इन्हें ऑर्गेज्म मिल जाता है।
ऐसे क्षेत्रों के स्कूल, कॉलेज का धंधा चलाने वाले इनकी ख्वाहिशों को ऑर्गेज्म पहुंचाने के नये नये तरीके भिड़ातें हैं।
जैसे कि आजकल…हर साल एडमिशन के वक्त हल्ला पिटवाते हैं कि हमारे स्कूल में केरल से टीचर बुलाये जा रहे….पेरेंट्स सोचकर ही फूलकर कुप्पा हो जातें हैं कि हमारे बच्चे को पढ़ाने वाला टीचर ढंग से हिंदी नही बोल पाता…उसकी मातृभाषा इंग्लिश है।
हमारा बच्चा भी बड़ा होकर हिंदी बोलने में अटकेगा…waao…
इनको इतनी समझ नही की पांचवी पढ़ाने के लिये तोपचन्द की जरूरत नही…..पांचवी का सिलेबस ढंग से दसवीं पास लड़का भी पढ़ा लेगा…विद्वान होने और टीचर होने में अंतर है…बच्चे को फर्क नही पड़ता टीचर ने phd की है या oxford से पढ़कर आया है…पढ़ाने वाला राम खिलावन है या शशि थरूर…उसको उतना ही पढ़ना है जितनी जरूरत है….टीचर की योग्यता इस पर निर्भर करती है कि जरूरत भर का ज्ञान किस तरीके से कितनी मात्रा में बच्चे में रोप पाता है….ना कि खुद कितना पढा लिखा है।
स्कूल वाले तोपचन्द का ग्लैमर दिखाकर मनमाने पैसे ऐंठते है …पेरेंट्स खुशी खुशी देंते हैं।
और पते की बात ये है कि केरला से इतनी दूर अपना घरबार छोड़कर एक ईसाई भद्दड़ देहात में 15-20 हजार के लिये खुशी खुशी नौकरी करने चला आता है।
ईसाई अपने काम के प्रति इतने डेडिकेटेड और धूर्त हैं कि किसी भी हद तक किसी भी कोने तक पहुंच सकते हैं।
महानगरों में नकेल कसी गयी तो देहातों में भाग रहे।
और अल्पशिक्षित अभिभावक अपने बच्चे को अंग्रेज बनाने की लालच में आने वाली पीढ़ी का पैसे देकर ब्रेनवाश करवा रहे।
भारतीय समाज की कमजोर कड़ी कितने भी दुर्लभ कोने में कितने ही गहरी छुपी हो, ये खोज ही लेतें है…और बेहद धीरे धीरे वार करतें है…जब तक लोगों को एहसास होता है ये वहाँ से कूच करके दूसरी कमजोर कड़ी ढूंढ लेतें हैं।
Vineet Kumar
2 hrs ·
हिन्दी में छोटापन एक समस्या है,
लोग एक-दूसरे को स्वीकार नहीं करते ः रविश कुमार
सवाल ये है कि आप अपने खिलाफ, अपनी विचारधारा के खिलाफ जाकर कितना लिख पाते हैं ? भाषा कोई अलग से चीज नहीं होती, कंटेंट नहीं है तो भाषा की सजावट से आप क्या कर लेंगे ? ऐसा नहीं है कि हिन्दी में लोग पढ़ नहीं रहे हैं, खूब पढ़ते हैं और ऐसे लोगों की संख्या लाखों में है. लेकिन
हिन्दी में असल समस्या छोटापन है. लोगों को लगता है कि मैं फलां का नाम ले लूंगा तो उसे कोई अतिरिक्त लाभ न हो जाए. पुराने लोग नए लोगों का नाम नहीं लेते. जो बहुत पढ़ते हैं वो माध्यम के हिसाब से कंटेंट लोगों तक ले जाने की काबिलियत अपने भीतर पैदा नहीं कर पाते. आपमें काबिलियत नहीं है तो मान लीजिए, सीधे-सीधे माध्यम को कोसने से क्या हो जाएगा ? https://www.youtube.com/watch?v=r9tBRIWB40Q&fbclid=IwAR2DQdHstp7EB_T8NbiFuWlh2r_N5b7Pmt2Kt8T9fn5Or3PaUv4dqi5xAsg
बदलाव या क्रांति अब सिर्फ मनोजगत में हो सकती हे बाहर से कुछ बदलना लगभग नामुमकिन सा था भी और अब तो कोई चांस ही नहीं लगते हे मनोजगत में ही क्रांति की कोशिश करनी होगी इसमें हिंदी उर्दू हिंदुस्तानी या आम बोलचाल की भाषा जो काबुल से कोहिमा मोटा मोटा सब समझ लेते हे उसका बहुत बड़ा रोल होगा ———————————————————————————————————————————————————————————————————————Avyakta16 December 2018 · भारत का अंग्रेजीभाषी और अंग्रेजीकामी वर्ग : आधा तीतर आधा बटेर
यदि कभी आपने स्थानीय अदालतों में अधपढ़ न्यायाधीशों के सामने कुपढ़ वकीलों को जिरह करते देखा हो, तो आपने यह बात महसूस की होगी। यही आधा तीतर आधा बटेर वाली बात। और इसमें उन बेचारों का कोई दोष नहीं होता।
एक पक्ष का कुपढ़ वकील यदि किसी भी तरह की अंग्रेजी में इंडिस्फैं इंडिस्फैं स्फैंडिशफैंडिशफैं कर सकता हो, तो दूसरे पक्ष के हिंदिया वकील की पेशानी पर बल पड़ने लगता है। और इधर अधपढ़ न्यायाधीश की पेट में भी गुड़गुड़ी होने लगती है। और वह अगली तारीख दे देता है।
अभी एक नई प्रवृत्ति ने जोर पकड़ा है। जबसे दिल्ली विश्वविद्यालय और बाकी ‘नेशनल लॉ यूनिवर्सिटीज़’ थोक के भाव कानून की डिग्रियां बांटने लगे हैं, तबसे इन डिग्रियों को गले में टांगे युवा वकील अपने कस्बाई गृहक्षेत्रों में जाकर इसी अधकचरी अंग्रेजी का भौंकाल खड़ा करते हैं।
अंग्रेजी की इस नकली धौंस में रातोंरात अपनी नामपट्टिका पर ‘एडवोकेट, फलाँ हाई कोर्ट’ लिखवाकर अपनी फीस और अपना रसूख बढ़ा लेते हैं।
हिंदी या तेलुगु क्षेत्र का विद्यार्थी यदि किसी तरह कानून की डिग्री हासिल कर लेता है और ‘भारतीय विधिज्ञ परिषद्’ में पंजीकृत हो भी जाता है, तो भी उसकी हैसियत इन अधकचरी अंग्रेजीवालों के सामने कुछ नहीं होती।
ये बेचारे किसी तरह से कानून में परास्नातक और न्यायिक सेवा में पास हो जाने की जुगत भिड़ाते रहते हैं। और इन्हीं में से कई लोग रट्टू जुगाड़ से पास भी हो जाते हैं। भाषा वहाँ भी अपना अप्रत्यक्ष प्रभाव रखती है।
25 अगस्त, 2010 को आंध्रप्रदेश के पाँच न्यायाधीश ‘एलएलएम’ की परीक्षा में चोरी करते पकड़े गए और निलंबित किए गए। परानुभूतिपूर्वक देखेंगे तो इसमें भी आपको कानूनी शिक्षा के भाषायी माध्यम का खेल नज़र आएगा।
भारत की संपूर्ण उच्च-शिक्षा व्यवस्था आधा तीतर और आधा बटेर पैदा कर रहे हैं। इनके ज्यादातर अध्यापकगण भी इसी व्यवस्था की पैदाईश होने की वजह से स्वयं आधे तीतर और आधे बटेर हैं।
सालों पहले इन पंक्तियों के लेखक को ‘एलएलबी’ के ‘एक्ज़ेक्यूटिव प्रोग्राम’ में शामिल होने का अनुभव मिला था। बेचारा न्यायशास्त्र किस तरह भाषा और व्याकरण की शूली पर रोज चढ़ाया जाता है, इसे आप इन कक्षाओं में देख सकते हैं।
अध्यापक को नाटक करना पड़ता है कि उसकी अंग्रेजी इतनी भी खराब नहीं है। इस चक्कर में वह पौना तीतर और सवैया बटेर नज़र आने लगता है। हीनताबोध के मारे जब उसे नकली आत्मविश्वास के साथ नाक-भौं फड़काना पड़ता है तो उसे अपने आप से घृणा होने लगती है।
भारत के कथित ‘पब्लिक स्कूलों’ की स्थिति इससे भिन्न नहीं है। वहाँ के शिक्षकों के चेहरे पर तनाव, उदासी और अपर्याप्तता का बोध हमारी संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था को घुन की तरह खाए जा रहा है या खा चुका है।
भाइयों और बहनों, अस्वाभाविक अंग्रेजीभाषी ‘क्लोन’ पैदा करने की पद्धति भारत में पूरी तरह विफल हो चुकी है।
इसलिए हिंदी माध्यम, असमिया माध्यम या अधकचरे अंग्रेजी माध्यम में भी कानून की पढ़ाई कर न्याय का व्यापार चलानेवालों के व्याकरण पर हँसिए मत। अपने निरीह बच्चों की व्यवस्थाजन्य भाषायी और संप्रेषणात्मक अपंगता का शोकोत्सव मनाइये।
महात्मा गांधी और डॉ लोहिया मूर्ख नहीं थे। उन्होंने अंग्रेजी पढ़ने के बाद उसे थूक दिया था। गांधी ने अपनी पहली किताब गुजराती में लिखी थी। यह अपने आप में एक संदेश था।
29 मार्च, 1918 को इंदौर की एक सभा में गांधी ने कहा था—
“अंग्रेजी भाषा राष्ट्रीय भाषा क्यों नहीं हो सकती, अंग्रेजी भाषा का बोझ भारत के लोगों पर रखने से क्या हानि होती है, हमारी शिक्षा का माध्यम आजतक अंग्रेजी होने से प्रजा कैसे कुचल दी गई है, हमारी अपनी भाषाएँ क्यों कंगाल हो रही हैं, इन सब बातों पर मैं अपनी राय भागलपुर और भड़ौच के व्याख्यानों में दे चुका हूँ। …जब तक हम हिंदी भाषा को और अपनी-अपनी प्रांतीय भाषाओं को उनका योग्य स्थान नहीं देते तब तक स्वराज्य की सब बातें निरर्थक हैं।”
7 जून, 1926 को डॉ. बी. एस. मुंजे को एक पत्र में गांधी लिखते हैं- “हमारे दिमाग पर अंग्रेजी के अस्वाभाविक अध्ययन का बोझ पड़ा हुआ है …अंग्रेजी के वर्तमान अध्ययन को मैं अस्वाभाविक इसलिए कहता हूँ कि इसने देशी भाषाओं को अपदस्थ कर रखा है।”
बीबीसी के एक प्रतिनिधि ने जब 15 अगस्त, 1947 को गांधीजी से देश के लिए एक संदेश मांगा था, तो गांधीजी ने निर्मल कुमार बोस को एक पुर्जे पर लिखकर भेजा था- “उन्हें (अंग्रेजों को) यह भूल जाना चाहिए कि मुझे अंग्रेजी भी आती है।”
और डॉ. राममनोहर लोहिया की बात याद कीजिए जिन्होंने कहा था- “अंग्रेजी का प्रयोग मौलिक चिंतन को बाधित करता है। आत्महीनता की भावना पैदा करता है और शिक्षित और अशिक्षित के बीच खाई बनता है।”
आज इस भाषायी तिलिस्म ने हमारे जीवन के हर पक्ष और तमाम कार्य-व्यापार को अस्वाभाविक बना रखा है। इतना आरोपित और अप्राकृतिक कि इससे छूटने की राह तक नहीं दिखती।
रास्ता है। रास्ता है अपने बच्चों को निजभाषा भी खूब अच्छी तरह सिखाइये। यकीन मानिए वे अंग्रेजी, फ्रेंच और अन्यान्य भाषाएँ भी तभी अच्छी तरह सीख-समझ पाएंगे।
भारत के विद्यालयों और विश्वविद्यालयों की इसी भाषायी अस्वाभाविकता ने हमारी कई पीढ़ियों को अस्वाभाविक बना दिया है। उनकी रचनात्मकता को लील लिया है। उनकी अभिव्यक्ति को कुंठित कर दिया है।
उनके व्यक्तित्व और चिंतन को नकली, बनावटी, अधकचरा और दिशाहीन बना दिया है। उन्हें मानसिक रूप से हीन और रोगी बना दिया है। ऐसी पीढ़ियाँ कैसा देश, समाज और कैसी दुनिया बना पाएंगी, यह सोचने-समझने की बात है।
और हाँ, यह बात हमें अपनी-अपनी भाषाओं में सोचने-समझने की जरूरत है। नहीं तो आप गोगोई जी की अंग्रेजी पर हँसते रहिए और उधर अंग्रेजी आप पर और आपके बच्चों पर हँस रही है।
हिंदी में प्रणाम