by — आशुतोष तिवारी
प्रधानमंत्री जी !
आपकी सरकार अपने जीवन के ढाई साल जी चुकी है | इन ढाई सालों में तमाम ऐसे विवाद हो चुके हैं जिनमे सरकार को यह तो सामने आकर सफाई देनी पड़ी है या फिर सरकार बैकफुट पर आ गयी है | हालांकि दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में सरकारों के साथ ‘मीडिया की सक्रियता’ और ‘नागरिक जवाबदेही’ के चलते विवादों का रिश्ता आम रहा है लेकिन पिछले ढाई सालों में छाये रहे राजनीतिक विमर्श को देखें तो यह एक कढी की और इशारा करता है | सवाल उठता है कि क्या लोकतंत्र की संस्थाओं को सोच –समझकर कमजोर किया जा रहा है ?प्रधानमन्त्री जी ! लोकतंत्र स्वयं में एक ‘सम्पूर्ण संस्था’ नही है बल्कि इसकी बनावट ही कुछ इस तरह की है कि यह तमाम छोटी लेकिन मजबूत संस्थाओं के जरिये अपना काम – काज संचालित करता है | जमूरियत की मजबूती और उसे एकाधिकार से बचाने के लिए इन संस्थाओं को स्वायत्त रखा जाता है ताकि ‘जनता के शाषन’ का आधार ‘सरकारों की नागरिकों के प्रति जवाबदेही’ को सुनिश्चित किया जा सके | हालांकि दुनिया के भीतर लोकतंत्र के जरिये चुनी गयी सरकारें भी नागरिकों के प्रति जवाबदेही के कर्तव्य के साथ धोखा करती रही हैं और कई बार तो लोकतंत्र के नाम पर बनकर आयी सरकार ने जनता के साथ बेशुमार तानशाही भरा बर्ताव किया है | इसीलिए देश में मध्य , वाम या दक्षिण; किसी भी धारा की सरकार हो , उसकी काम करने की प्रक्रिया पर नजर रखना हर जागरूक नागरिक का दायित्व होना चाहिए | यह ख़त आपको लिखकर मैंने अपना वही दायित्व निभाया है |
हाल ही में आपके नोटबंदी के फैसले के बाद जो भी विमर्श हुआ है उसका सबसे दिलचस्प पहलू रिजर्व बैंक के गवर्नर की गैरमौजूदगी है | इस गैर मौजूदगी को लोग तमाम तरह से देखने लगे हैं | लिखा जाने लगा है कि उर्जित पटेल के गवर्नर बनते ही रिजर्व बैंक सरकार के बताये रास्ते पर चलने लगा है | इन आरोपों के साथ जो तर्क दिए जा रहे हैं ,आपकी सरकार को उन पर चिंतित होना चाहिए | देश की मौद्रिक व्यवस्था चलाने की जिम्मेदारी रिजर्व बैंक की है पर आरोप लग रहा है कि नोट बंदी का फैसला सरकारी फैसला था | यदि यह फैसला सोच –समझकर रिजर्व बैंक लेता तो फिर हर रोज नोट –बंदी के संदर्भ में नयी घोषणायें करने की जरूरत नही पड़नी चाहिए थी | नागरिको की परेशानिया गिनाते हुए रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन से इसे लागू करने से इनकार कर दिया था | सरकार नीतिगत दरों में कटौती करना चाहती थी पर रघुराम इसके लिए तैयार नही थे जबकि उर्जित पटेल की समय में आने वाली पहली मौद्रिक नीति में ही 0.25 फीसदी की घोषणा कर दी गयी | अब सरकारपब्लिक डेब्ट मैनेजमेंट समिति (सरकार के किये जरूरत के वक्त पैसे के बंदोबस्त के रिजर्व बैंक के अधिकार को सरकारी हांथो में लेना ) पर आगे बड़ रही है बल्कि डी सुब्बाराव पर रघुराम राजन ने इसका विरोध किया था | सरकार बैड बैंक (बड़े बैंको का बही खाता साफ़ सुथरा दिखाने के लिए अलग से बैंक जो NPA के मामले निपटायेंगे ) योजना पर भी आगे बढ़ रही है जिससे रघुराम राजन सहमत नही थे |सबसे बड़ी बात कि रघुराम राजन मनमोहन की सरकार हो या आपकी सरकार , सामयिक बहसों में हिस्सा लेते हुए खुलकर अपनी राय रखते थे | बुद्धिजीवी कह रहे हैं कि शायद इस तरह की खुला और आलोचनात्मक रवैया आपकी सरकार को पसंद न हो इसीलिए आप ऐसे आदमी को गवर्नर के पद पर ले आये है जिसने अपना कार्यभार संभालने के दौरान ओपचारिक संबोधन भी नही किया है | कहा जा रहा है कि रिजर्व बैंक के एक संस्था के तौर पर हस्तक्षेप को दूर करने और अपने फैसले मनमाफिक लागू करने के लिए आपकी सरकार उर्जित पटेल को ले आयी है |
कुछ तर्क और भी हैं जो सरकार के पुराने राजनीतिक फैसलों से जुड़े हुए हैं | कुछ लोगों का मानना है कि सरकार न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक इसीलिए लायी थी ताकि न्यायपालिका में राजनीतक हस्तक्षेप की शुरुआत की जा सके | अभी जजों की नियुक्ति कोलेजियम के तहत की जाती है जिसमे वरिष्ठ न्यायाधीशों का एक समूह मुख्य न्यायधीश के लिए अपनी सिफारिशें सरकार के पास भेजता है | शायद तमाम खामियों के बावजूद इस प्रणाली का इरादा न्यायपालिका को सरकारी हस्तक्षेप से दूर रखना होगा |आपकी सरकार जो विधेयक लायी थी उसको सुप्रीमकोर्ट ने यह कहकर असंवैधानिक कह दिया कि ‘ राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग’ न्याय पालिका के कामकाज में दखल देता है | पिछले साल यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन के चेयरमैन प्रोफ़ेसर वेद प्रकाश को कहना पड़ा कि सरकार को उच्च शिक्षा में दखल नही देना चाहिए | NDTV पर एक दिन का बैन लगाये जाने वाले फैसले पर पत्रकार सिद्धार्थ वर्धराजन ने लिखा कि सरकार अपनी ताकत का मनमाना और दुर्भाग्यपूर्ण प्रयोग कर रही है | रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर ने सेंट स्टीफंस में अपने आखिरी सार्वजनिक भाषण में कहा था कि ‘न’ कहने की क्षमता बचाकर रखनी चाहिए और राम नाथ गोयनका सम्मान समारोह के दौरान आपके सामने इंडियन एक्सप्रेस के प्रधान सम्पादक राज कमल झा ने कहा कि “सरकार द्वारा की गयी आलोचना पत्रकार के लिए इज्जत की बात है “|
प्रधानमंत्री जी ! लोग सवाल कर रहे हैं कि क्या ये सब यू ही हो रहा है |लेख में शब्दों की अपनी सीमा होती है इसलिए हमने तमाम मामलात नही उठाये हैं | लोग इन सारी घटनाओं में एक कड़ी देख रहे हैं | उस कढी को देखते हुए ही यह डरावना विचार धीमे – धीमे जनम ले रहा है कि सरकार लोकतान्त्रिक संस्थाओं को जान – बूझकर कमजोर कर रही है | दूरदर्शन के पत्रकार सत्येन्द्र मुरली ने जो दावा किया है उस पर बाते होने लगी हैं | अगर यह सच्चई हुयी तो क्या लोग आप पर भरोसा कर पाएंगे | सच्चई न भी हुयी तो क्या आप जन मानस के दिमाग में आ रही इन सही / गलत अफवाहों/ सूचनाओं की आवाजाही को रोक पाएंगे | मैंने यह ख़त आपको उस दौर में लिखा है जब प्रधानमंत्री को पत्र लिखना बहुत आम होता जा रहा है पर क्या आपकी सरकार द्वारा फेसबुक और निजी ब्लागों पर लिखे जा रहे इन खतों को ‘जागरूक जनमत’ के रूप में नही लेना चाहिए ?
आशुतोष तिवारी
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”’अरुण महेश्वरी11 मिन्स · भारत रत्न और नोबेलजयी प्रो. अमर्त्य सेन ने मोदी सरकार के विमुद्रीकरण के विचार और उस पर अमल, दोनों को ही नादिरशाही बताया है । यह सरकार के सर्वाधिकारवादी चरित्र का परिचायक है।इंडियन एक्सप्रेस को ईमेल के ज़रिये दिये गये अपने साक्षात्कार में उन्होंने बहुत ही साफ़ शब्दों में कहा है कि सिर्फ एक तानाशाही सरकार ही निष्ठुरता से आम जनता को ऐसी मुसीबत में डाल सकती है ।मोदी के इस दावे पर कि इस पीड़ा से अन्तत: लाभ होगा, प्रो. सेन ने साफ़ शब्दों में कहा कि "पीड़ा देने वाली हर चीज अच्छी होती है, यह सोचना ग़लत है । "उन्होंने कहा कि "लोगों से अचानक यह कहना कि आपके पास जो सरकार का प्रतिज्ञा पत्र (नोट) है, उसमें की गई प्रतिज्ञा का कोई मायने नहीं है, क्योंकि वे काला धन के रूप में कुछ ग़लत लोगों के हाथ लग गये है, तानाशाही शासन की एक ज्यादा जटिल अभिव्यक्ति है । क़लम की एक नोक से इसने भारतीय मुद्रा को रखने वाले तमाम लोगों को तब तक के लिये अपराधी घोषित कर दिया है जब तक वे अपने को निर्दोष साबित नहीं करते हैं ।"बैकों से अपने रुपये उठाने में आम लोगों के सामने आ रही कठिनाइयों को उन्होंने एक तानाशाही सरकार का निष्ठुर क़दम बताते हुए कहा कि इससे किसी भी प्रकार की भलाई की उम्मीद नहीं की जा सकती है । जो लोग काला धन रखने में सिद्ध-हस्त हैं उनको इससे ज़रा भी आँच नहीं आएगी, लेकिन मासूम लोग मारे जायेंगे ।"अच्छी नीतियाँ कभी-कभी पीड़ादायी होती है लेकिन पीड़ा देने वाली, वह कितनी भी क्यों न हो, सभी चीज़ें अच्छी हो, यह जरूरी नहीं होता है ।"प्रो.सेन के इस साक्षात्कार को साझा करते हुए हम यही कहेंगे कि भारत के आम लोगों के जीवन पर किसी भी सरकार का इससे बड़ा हमला और उनका इससे बड़ा अपमान दूसरा नहीं नहीं हो सकता है । इस विषय बोलते हुए मोदी की खिलखिलाहट रावण के अट्टहास सी लगती है । जनतंत्र में किसी नेता से ऐसी अश्लीलता की कल्पना भी नहीं की जा सकती है ।मोदी कहते हैं कि ”बड़ों को बड़ी तकलीफें हो रही है और छोटों को छोटी !” उनसे पूछिये कि मृत्यु से भी बड़ी क्या कोई तकलीफ़ है ? और, क्या एक भी बड़ा आदमी सड़कों पर बैंक के सामने लाईन लगाने की वजह से मरा है ?मोदी की ”छोटों को छोटी तकलीफें” की बात जले पर नमक छिड़कने के समान है । ””
सही कहा सेन बाबू जनता ने को इतना अपमानित कभी नहीं किया गया जहां जहां पांच सौ के नोट चले भी वहां भी मेने खुद को बेहद अपमानित सा ही महसूस किया हे और सभी जगह लूट सी भी हो रही ही हे एक मेने फुटबॉल ली वो मुझे सात सौ वाली साढ़े आठ सो की लगी वही पेट्रोल भी बेहद कम लग रहा हे — ? हमें चलाने वालो के सामने बेहद विनम्र होना पड रहा हे मानो वो हम पर कोई बहुत बड़ा अहसान कर रहा हो कई जगह ये पूछते हुए की चल रहे हे या नहीं बिलकुल भिखारी वाली फील आ रही हे में श्योर हु की बाकी सब के साथ भी ऐसा ही या इससे भी बहुत बुरा ही हुआ होगा .
इतने दिनों से एक भी नोट में ए टी एम् से निकलने में असफल ही रहा हु ऊपर से जब कभी खाली ए टी एम् से बाहर निकल रहा होता हु तो कुछ क़ातर आँखे खासकर फेमली वाले लोग मध्यमवर्गीय निम्न मध्यमवर्गीय हसबेंड वाइफ आशा भरी नज़रो से पूछ ही लेते हे भाई साहब केश हे क्या — ? उन्हें ना करते हुए उनकी आँखों में निराशा देख कर में सहम जाता हु की पता नहीं बेचारे किस जरुरत में भटक रहे होंगे —- ?