by — महेंद्र मिश्र
सेना को लेकर मोदी सरकार बहुत खतरनाक खेल खेल रही है। यह कितना खतरनाक हो सकता है। शायद उसके नेताओं को भी इसका अहसास नहीं है। सेना सरहद के लिए बनी है। और उसका वहीं रहना उचित है। सेना एक पवित्र गाय है उसको उसी रूप में रखना ठीक होगा। घर के आंगन में लाकर बांधने से उसके उल्टे नतीजे निकल सकते हैं। क्योंकि आप अगर सेना का राजनीतिक इस्तेमाल करते हैं। तो इसके जरिये वह भी राजनीति के करीब आती है। और इस कड़ी में कल उसको भी राजनीतिक चस्का लग सकता है। और एकबारगी अगर राजनीति का खून उसके मुंह में लग गया। तो फिर देश की राजनीति को उसके चंगुल में जाने से बचा पाना मुश्किल होगा।
पाकिस्तान की नजीर आप के सामने है। अयूब खान के सत्ता पर कब्जे के बाद लोकतंत्र जो पटरी से उतरा। तो फिर कभी ठीक से उस पर नहीं चढ़ सका। और उसका नतीजा यह रहा कि सेना और राजनीति के बीच सत्ता पर बर्चस्व का खेल वहां चलता रहता है। कभी सेना भारी पड़ती है। तो कभी राजनीति। लेकिन आखिरी सच यही है कि खाकी ने वहां सत्ता पर अपनी स्थाई पकड़ बना ली है। जिसके चंगुल से राजनीति को निकालना अब मुश्किल हो रहा है। भारत में भी राजनीति का जो हाल है। वह आश्वस्त करने वाला नहीं है। गोते में अपनी साख तलाशती इस राजनीति को जनता कभी भी लात मार सकती है। बशर्ते उसे एक विकल्प मिल जाए। हालांकि 67 सालों के लोकतंत्र में यह बहुत मुश्लिक है। और एक हद तक नामुमकिन भी। लेकिन एक पल के लिए ही सही अगर आप कल्पना करें। सेना कोई विकल्प लेकर सामने आ जाए। तो एक बड़ी जमात जो इन लुटेरे नेताओं और उनकी गिरफ्त से राजनीति को मुक्त कराने की पक्षधर है। क्या उसके साथ खड़ी नहीं हो सकती है? अगर ऐसा हो जाए तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए।
अनायास नहीं कारगिल के बाद जब बीजेपी की कुछ इकाइयां या उसके एक हिस्से ने पोस्टरों में तीनों सेना अध्यक्षों की तस्वीर छापी। तो उस समय के सेनाध्यक्ष जरनल वीपी मलिक ने उस पर कड़ा एतराज जाहिर किया। इस मसले पर बाकायदा उन्होंने तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मुलाकात की थी। जिसमें उन्होंने कहा था कि सेना अराजनीतिक है और उसे वैसा ही बनाए रखना उचित होगा। अटल ने उनसे इत्तफाक जाहिर करते हुए उन हरकतों पर रोक लगाने की बात कही थी। वीपी मलिक ने यह बात अपनी किताब ‘कारगिल फ्राम सरप्राइज टू विक्ट्री’ में दर्ज्ञ की है। उसके साथ ही इस किताब में उन्होंने एक और वाकये का जिक्र किया है। जिसमें उन्होंने बताया कि उसी दौरान वीएचपी यानी विश्व हिंदू परिषद का एक प्रतिनिधमंडल उन्हें राखी बांधने सेना के हेडक्वार्टर पहुंच गया। लेकिन उन्होंने उससे मिलने से इनकार कर दिया। फिर निराश होकर वो लोग पीआरओ के कमरे अपनी राखियां छोड़कर चले गए। इस घटना के बाद से ही सेना के मुख्यालय में लोगों के प्रवेश में सख्ती बरती जाने लगी।
मौजूदा समय आलम यह है कि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह खुलेआम इस मामले को जनता के बीच ले जाने की बात कर रहे हैं। न कोई उनको रोकने वाला है। और न ही कहीं से एतराज जताया जा रहा है। सेना के आला अधिकारियों की चुप्पी भी इस मसले पर बेहद रहस्यमय है। कहीं से किसी तरह के प्रतिरोध की खबर नहीं आ रही है। यहां तक कि सेना से जुड़े पूर्व अधिकारी भी इस पर चुप्पी साधे हुए हैं। यह बात बीजेपी के लिए तो मुफीद है। लेकिन सेना का इसमें क्या हित हो सकता है। यह समझना मुश्किल है। या फिर यह कहीं बीजेपी-संघ की बड़ी साजिश का हिस्सा तो नहीं? दरअसल बीजेपी जनता के सैन्यीकरण की हिमायती रही है। और इस तरह के किसी भी मौके को हाथ से नहीं जाने देना चाहती। यह अकेली ऐसी पार्टी है जिसने एक पूर्व सेनाध्यक्ष को सीधे राजनीति में प्रवेश दिलाने का काम किया है। यह एक तरह से सेना के सीधे राजनीतिकरण की शुरुआत है। लेकिन वर्दी जब खादी में बदलती है। तो उसके नतीजे बेहद खतरनाक होते हैं। दुनिया के इतिहास ने इस बात को कई बार साबित किया है। लिहाजा इस तरह के किसी प्रयोग में जाने का कोई तुक नहीं बनता। और जाने से पहले एक हजार बार सोचना चाहिए।
इसमें अभी तक किसी तरह का शक रहा हो। तो सेना संबंधी मनमोहन सिंह से जुड़ा हिंदू का खुलासा मौजूदा सरकार के लिए काफी है। बावजदू इसके सरकार अभी भी इससे कोई सबक सीखने के लिए तैयार नहीं हो। तो यह देश के लिए किसी दुर्भाग्य से कम नहीं होगा। इसका मतलब है कि सरकार अपने स्वार्थ में अंधी हो गई है। और उसे न तो देश का ख्याल है न ही उसके हितों का। एकबारगी सोचिए मनमोहन सिंह 2011 में मौजूदा कार्रवाई से भी बड़ी कार्रवाई करके चुप बैठे थे। जबकि विपक्ष से लेकर पूरा देश उनके ऊपर हमले कर रहा था। यहां तक कि कुछ एक लोग उन्हें कायर सरीखे घिनौने शब्द से भी नवाजने से बाज नहीं आए।
लेकिन मनमोहन सिंह मौन रहे। क्योंकि उन्हें अपने से ज्यादा अपने देश की इज्जत और उसके हित की चिंता थी। चाहते तो खुद कुछ कहना भी नहीं पड़ता और किसी एक रिपोर्टर के हवाले से पूरी कहानी सामने आ जाती। लेकिन सिर्फ राजनीतिक तंत्र ही नहीं बल्कि सेना से लेकर पूरा सत्ता प्रतिष्ठान इस पर चुप्पी साधे रहा। यह होता है एक शासक उसका धैर्य और उसकी संजीदगी। वह सब कुछ जानते हुए भी उसको जज्ब कर लेता है। वह खुद विष पीता है लेकिन देश और उसके लोगों पर आंच नहीं आने देता। मौजूदा दौर में भी जब सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े लोगों ने पूर्व सरकारों पर हमला शुरू किया। और इतिहास में इस तरह की किसी स्ट्राइक की बात को खारिज किया। तब भी मनमोहन सिंह शांत रहे। चाहते तो बोलते और बहुत कुछ बोलते। और अब सीधे सत्ता के प्रति उनकी कोई जवाबदेही भी नहीं थी। लेकिन अपनी गोपनीयता की शपथ कहिए या फिर नैतिक संस्कार या कहिए देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी ने उनके हाथ बांध रखे थे।
लेकिन दूसरी तरफ मौजूदा सरकार और उसका पूरा निजाम नंगे तरीके से तुच्छ राजनीतिक स्वार्थों के लिए हर वह काम करने के लिए तैयार है। जिसकी देश और उसके हित इजाजत नहीं देते। एक ऐसी स्ट्राइक जो सवालों के घेरे में है। उसका घूम-घूम कर डंका पीटा जा रहा है। और लाभ लेने के लिए उसके नेता अब सड़कों पर निकल पड़े हैं। इतना ही नहीं उसके प्रवक्ता और पिछलग्गू तमाम कुतर्कों के साथ इन हरकतों को जायज ठहराने की कोशिश कर रहे हैं। और आखिर में सबसे बड़ा सवाल यह है कि सरकार में रहते कोई कैसे झूठ बोल सकता है। और वह भी अपनी पिछली सरकारों के बारे में! ( http://www.bhadas4media.com/vividh/10941-sena-ko-rajneeti-mei-khichne-ke-khatre)
Mahendra Mishra10 hrs · राजनीतिक लाभ लेने के चक्कर में ये अपनी तो छीछालेदर करा ही रहे हैं । सेना की इज्जत भी दांव पर लगाने से बाज नहीं आ रहे हैं। देश के रक्षा मंत्री ने बयान दिया है कि 2011 की स्ट्राइक सर्जिकल थी ही नहीं । क्योंकि उसका फैसला स्थानीय स्तर पर लिया गया था । जिसमें राजनीतिक तंत्र की कोई भूमिका नहीं थी । इसके जरिए पर्रिकर जी यह बताना चाहते हैं कि सेना कई बार भारतीय राजनीतिक सत्ता के नियंत्रण से दूर रहती है । और कई बड़े फैसले बगैर उससे संपर्क के खुद ले लेती है । अब इनसे कोई पूछे कि इतना बड़ा फैसला जिसमें कि सेना को नियंत्रण रेखा पार करना हो । और एक नहीं दो-दो दिन पाकिस्तान के कब्जे वाले क्षेत्र में उसे रहना हो । और उसमें भी एक बड़े ऑपरेशन को अंजाम दिया जाना हो । जिसमें पाक के 8 से ज्यादा सैनिकों की मौत होती है । क्या वह बगैर राजनीतिक सत्ता से संपर्क के सम्भव है ? इतना बड़ा फैसला जिसमें कि एक युद्ध की भी आशंका छुपी हुई है। सेना उसे बगैर अपने ऊंचे अफसरों और उनके जरिए राजनीतिक सत्ता से संपर्क किए ले लेगी ? ये कहेंगे और लोग मान लेंगे ।
यहां तक कि जब कारगिल युद्ध हो रहा था । तब भी सेना एलओसी नहीं पार कर पाई थी । क्योंकि तब के पीएम अटल बिहारी वाजपेयी ने इसकी इजाजत नहीं दी । जबकि उस समय इतनी अफरातफरी होती है कि इस तरह की किसी कार्रवाई को अंजाम देना आसान होता है । क्योंकि सेना उस समय एक्शन में होती है । बावजूद इसके लाख चाहते हुए भी सेना इस काम को नहीं कर सकी । यह बात तब के सेनाध्यक्ष वीपी मलिक ने अपनी किताब में लिखी है । उन्होंने लिखा है कि इसको लेकर प्रधानमन्त्री के साथ एक दिन में तीन-तीन बैठकें हुईं । सैनिक अफसरों के पूरे दबाव के बाद भी अटल जी तैयार नहीं हुए । उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय दबावों का हवाला दिया । साथ ही युद्ध को वह कारगिल से आगे दूसरे क्षेत्रों में नहीं फैलाना चाहते थे ।
Mahendra Mishra10 hrsलेकिन पर्रिकर साहब ने यहां जो सिद्धान्त पेश किया है । उससे सेना की जितनी बदनामी है उतनी ही राजनीतिक निजाम की भी । यह कुछ पाकिस्तान जैसी स्थिति पेश करने की कोशिश की गई है । जहां सेना और राजनीतिक तंत्र के बीच हमेशा एक अंतर्विरोध काम कर रहा होता है । लेकिन पर्रिकर साहब ने तो सेना की निचली यूनिट को भी अपने ऊपर की कमान से स्वायत्त दिखा दिया है । सेना जैसे महकमे में एक यूनिफाइड कमांड काम करता है । वहां पर्रिकर की यह व्याख्या न सिर्फ सेना बल्कि पूरे देश की प्रतिष्ठा को चोट पहुँचाने वाली है ।लेकिन जब आंख पर तुच्छ राजनीतिक स्वार्थों की पट्टी चढ़ जाए तो फिर कुछ दिखाई नहीं देता है । अनायास नहीं पर्रिकर साहब बार-बार इसका श्रेय मोदी को देने की कोशिश कर रहे हैं। और पूरे मामले में सेना की भूमिका को गौड़ कर दे रहे हैं । सेना का इससे बड़ा अपमान और क्या हो सकता है । सेना शहादत दे रही है और मेडल आप बांध रहे हैं ।Mahendra Mishra10 hrs
riyabh Ranjan : नेताओं और सेलेब्रिटीज के आगे घुटने टेकने के लिए हमेशा तैयार रहने वाले (कुछ) भारतीय पत्रकारों को जरा पाकिस्तानी पत्रकारों से कुछ सीखना चाहिए। DAWN अखबार के एडिटर ने बयान जारी कर कहा है वो अपने अखबार में छपी हर खबर पर कायम हैं। उन दो खबरों पर भी जिनके मुताबिक नवाज़ शरीफ सरकार ने अपनी सेना को चेतावनी दी थी कि आतंकवादियों के खिलाफ सख्ती बरती जाए वरना पाकिस्तान दुनिया में अलग-थलग पड़ जाएगा।पाकिस्तानी सेना और PMO ने न सिर्फ अखबार की इन खबरों को नकारा था, बल्कि रिपोर्टर सिरिल अलमीडा के देश से बाहर जाने पर पाबंदी भी लगा दी है। ऐसे हालात में Dawn के एडिटर का खबरों पर कायम रहकर अपने रिपोर्टर का साथ देना वाकई तारीफ के काबिल है। भारत में कितने एडिटर ऐसा करने का दावा कर सकते हैं? यहां मामला फंसने पर एडिटर का साथ देना तो दूर, रिपोर्टर पर सारा ठीकरा फोड़ कर उसे नौकरी से निकाल दिया जाता।गौरतलब है कि पाकिस्तान में ऐसी कोई भी खबर लिखना या दिखाना खतरे से खाली नहीं होता जिसमें सेना की आलोचना हो। पाकिस्तानी सेना कई बार ऐसे पत्रकारों को पिटवा चुकी है, मरवा भी चुकी है। अभी कुछ लोग ये पढ़कर सोच रहे होंगे कि काश भारत में भी ऐसे पत्रकारों को मरवा दिया जाता।Sanjaya Kumar Singh : इमरजेंसी में सरकार ने मीडिया पर नियंत्रण लगाए थे। तब मीडिया ने इसका विरोध किया या सरकार की ‘सेवा’ की। अब बगैर इमरजेंसी लगाए मीडिया ने पालतू होना स्वीकार किया है। अब वह पालतू होने का कर्तव्य निभा रहा है। सरकारी नीतियों की सुरक्षा देना और अपनी समझ के अनुसार भौंकना इसमें शामिल है। अपवाद तब भी थे, अब भी हैं।
पत्रकार द्वय प्रियभांसु रंजन और संजय कुमार सिंह
शीतल सर की इस ” जिंदगी से परेशान ” तिवारी पर टिपण्णी Sheetal P Singh4 hrs · कल ही मुझे एक “ब्राह्मण हिन्दू” पत्रकार कोशिका विज्ञान के नोबल पुरस्कार धारी जापानी साइंटिस्ट की वैज्ञानिक उपलब्धियों को वेद पुराण के किसी सूक्त पर आधारित बता कर “महान” होने के दम्भ से लहालोट होते मिले थे । तब मैं बीकानेर की रामलीला में हनुमान का पात्र निभा रहे एक युवा की मूर्खतापूर्ण तकनीकी प्रबंधन और शेखीबाजी से हुई मौत पर पोस्ट लिख रहा था । आज यह ख़बर आई है ।पोंगापंथों बच्चों की हत्या क्यों कर रहे हो ?उन्हे जीने दो ! वे इन्सान हैं उन्हे भगवान न बनाओ !Sheetal P SinghYesterday at 12:23 · टीवी के जनरल कर्नलदूरदराज़ क़स्बों छोटे मंझोले शहरों और बड़े शहरों के भीतर बसे क़स्बों के दर्शक टीवी को बड़ी श्रद्धा से देखते हैं और टी वी पूरी मक्कारी/योजना से उनकी इस अबोधता का शिकार करता है । वह इन अबोध लोगों को सूचना देने / मनोरंजित करने के दौरान तमाम घटिया माल इन खुली आँखों को परोस देता है जो भौतिक रूप में भी है और विचार के रूप में भी । खुली आँखों वाले ये अबोध उसे तालाब की भूखी मछलियों को फेंके गये चारे की तरह निगल जाते हैं !आजकल न्यूज़ चैनलों पर रिटायर्ड फौजी अफ़सरों का बाज़ार गर्म है ।
शीतल पी सिंह कम लोग जानते होंगे कि टी वी चैनल अपने स्टूडियो में बुलाये मेहमानों को आने के पैसे देते हैं ! इसी वजह से तमाम पाकिसतानी फौजी जनरल कर्नल भी बेइज़्ज़त होने के लिये वहाँ बैठे मिलते हैं । हमारे रिटायर्ड जनरलों का तो कहना ही क्या ?बीजेपी जैसी विकराल पार्टियाँ अपनी लाइन के जनरलों को टीवी बहसों में विशेषज्ञ के रूप में स्थापित करने का योजनाबद्ध अभियान चलाती हैं । नतीजा यह है कि तमाम जनरल एक सी भाषा बोलते हैं जबकि सोशल मीडिया पर हम एक से बढ़कर एक क़ाबिल रिटायर्ड आफिसरों का लिखा पढ़ते हैं जो कभी टी वी डिबेट में नहीं होते !टी वी पर परोसे गये इन जनरलों के रूप रंग हाव भाव से बीजेपी को भले फ़ायदा हो सेना की छवि को ज़बरदस्त नुक़सान हो रहा है । ज़्यादातर स्तरहीन हैं , चीख़ते चिल्लाते हैं , बेडौल शरीरों के स्वामी हैं और सुब्रह्मण्यम स्वामी के चेले लगते हैं !ये सब सरकसों में पाये जाने वाले मरघिल्ले शेरों की याद दिलाते हैं !संध्या बहसें टीवी चैनलों को फ़ील्ड रिपोर्टिंग से कहीं ज्यादा सस्ती पड़ती हैं । इसलिये सारे चैनलों ने इसे अपना लिया है । राज्यों के चैनल तो मेहमानों को कोई पैसा नहीं देते । उन्हे तो काफ़ी सस्ता पड़ता है !खैर जब तक पाकिसतान है कश्मीर सड़क पर है तब तक जनरलों कर्नलों की बनरघुडकियों के करतब देखते रहिये ..,..
पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक का लाभ मोदी जी क्यों न ले
पठानकोट कांड हुआ
विरोधी दलों ने चुन चुन कर मोदी निति की अलोचना की ‘
लाहौर रुकने की भी आलोचना हुयी
उडी कांड हुआ
मोदी जी की जमकर आलोचना हुयी
जबकि पठानकोट और उडी कांड में सैनिको की लापरवाही जिम्मेदार थी
जब मोदी जी ने उडी कांड का जवाब देने का आदेश दिया
तब उसका श्रेय मोदी जी क्यों नहीं लेंगे
अगर २ घंटे बाद पाकिस्तान अपने देश में जोरदार हम्ला कर् देता तब क्या मोदी निति आलोचना नहीं होती की बैठे बिठाए देश को युद्ध में झोक दिया
मोदी जी इस बात की आलोचना किजिये उन्होंने यही कार्य पठानकोट कांड के बाद क्यों नहीं किया
शायद उड़ीं कांड के सैनिक मौत से बच सकते थे
याद कीजिये दिसंबर ७१ के युद्ध को
७२ के आरंभ में अनेक राज्यों के विधानसभा के चुनाव थे
इन्दिरा जि ७१ के युद्ध का राजनैतिक लाभ उठाया था
और मजबूर होकर अटल जी को कहना पड़ा था की इंदिरा जी दुर्गा की अवतार है
अनेक दलों ने शंका की की क्या अटल जी कांग्रेस में जाने वाले है ?
वह अटल जी अबतक कांग्रेस में नहीं गए
अब मौत की कगार में बैठे अटल जी अब क्या कांग्रेस मे जायेंगे
इन्दिरा जी की हत्या हुयी
क्या राजीव जि ने उनकी मौत का राजनैतिक लाभ नहीं उठाया था
राजीव जी का इसमें कौन सा राजनैतिक निर्णय था ?
लोक सभा के चुनाव में अटल जी जैसे दिग्गज भी हार गये थे
भाजपा को केवल २ सीटें मिली थी
और राजीव जी आंधी के आम की तरह अपनी माता और नाना नेहरू से ज्यादा प्रचंड बहुमत से जीतकर आ गए थे
बहुतमत तो खूब मिला
लेकिन सत्ता सम्भाल नहीं पाए
शाहबानो के मुद्दे पर् मौलानाओ के सामने झुके
अयोध्या का ताला खुलने सहयोग किया
वि पि सिंह का विद्रोह हुआ
बोफोर्स कांड में लिपटे
और अगली बार बुरी तरह सत्ता गंवाई
राजा नहीं, फकीर है की नारे बाजी करवाते हुए
वि पि सिंह भी धोखे से सत्ता पा गए
लेकिन १ साल भी सत्ता सम्भाल नहीं पाए
देवी लाल और चंद्र्शेखर का विद्रोह हो गया था
भाजपा भी अलग हो गयी थी
बगैर जनमत के
चंद्र्शेखर भी सत्ता पा गए
फिर क्या हुआ
वह भी एक साल सत्ता में नहीं रह पाए
देश् का सोना और गिरवी रखवा दिया था
चुनाव घोषणा के बाद चुनाव प्रचार के दौरान
राजीव जी की हत्या हुयी
कांग्रेस ने तुरंत उनकी मौत को भुनाया
बहुमत न मिलने केबाद भी नरसिम्हा राव सता में रहे
कभी भाजपा को ,कभी वामपंथियों को कभी सांसदों को खरीद कर अपनी सत्ता सँभालते रहे
सूटकेस कांड शिबुसुरेन रिश्वत कांड हुआ
अयोध्या का ढांचा टुटा
देश भर में दंगे खून खराबा हुआ
आज मोदी जी अबतक टिके हुए है और अगली बार सत्ता लेने के तरीके अभी ढूढ़ रहे है
अबतक पार्टी में कोई विद्रोह नहीं हुआ
कोई घोटाला विख्यात नहीं हुआ
और आगे क्या होगा वह भी सबके सामने आ जायेगा
इन्ही के बीच में
देव गुणा जी की भी लोटरी खुल गयी
वह भी जनमत को अनदेखा करते हुए प्रधान मन्त्री बन गए
लेकिन सत्ता संभाल नहीं पाए
एक साल के अन्दर इस्तेीफा देकर भागे
यह हाल गुज्रराल जी का हुआ
उनकी भी लोटरी खुल गयी
लेकिन वह भी एक साल के अन्दर पद से इस्तीफ़ा देना पड गया था
राजीव हो
वि पि सिंह हो
चन्द्र शेखर हो
देव् गुना हो या
गुजराल हो
उनके अंदर राजनैतिक कुशलता का भारी अभाव था
लेकिन
नेहरू जी
इंदिरा जी
अटल जी
और अब मोदी जी
राजनीति कुशलता से टिकते है
गुजरात में मोदी जि टिके रहे
अब वही हाल देश का भी रहेगा
अनुमान है की
वह खुशी से राजनीती से सन्यास लेकर हटेंगे
विरोधी तरसते रह जायेंगे
फिर भी जनता को बहलाने के लियेकोई भी नेता
कुछ भी मुद्दा उछाल दे उसकी गुंजाइश हमेशा रहेगी
जीत हार तों राजनीती खेल रहेगा ही