ओलम्पिक दुनिया का सबसे बड़ा खेल आयोजन होता हे फुटबॉल जैसे खेल को छोड़ दे तो बाकी सभी खेलो में वर्ल्ड कप चेम्पियन होने से भी अधिक सम्मान और गौरव की बात ओलम्पिक चेम्पियन होना या ओलम्पिक में कोई भी पदक जीतना माना जाता हे सभी खिलाड़ियों के लिए कहा जाता हे की वो अपना बेस्ट ओलम्पिक के लिए बचा कर रखते हे ओलम्पिक में जीत क्या मायने रखती हे इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाइये की ओलम्पिक चेम्पियन खिलाडी फिर ताउम्र ओलम्पिक चेम्पियन ही कहलाता हे उसे पूर्व चेम्पियन नहीं कहा जाता हे रियो ओलम्पिक में उमीद तो थी की भारत पहली बार दो अंको में मैडल जीतेगा ( वैसे जीत तो सिर्फ गोल्ड ही होती हे इसलिए टेली सिर्फ गोल्ड से ही बनती हे लेकिन ओलम्पिक भावना की वजह से बाकी दो ओलम्पिक पदको का भी भारी सम्मान होता हे ) हर बात की तरह ही हमारे पी एम् की भारत को पदक जिताने के विषय में कुछ भी लफ़्फ़ाज़िया सामने आयी थी लेकिन नतीजा पिछले तीन ओलंपिक में सबसे ख़राब प्रदर्शन के रूप में सामने आया सवा अरब के देश की ओलम्पिक या कहे की खेलो में ही असफलता कितनी जबरदस्त हे इसका अंदाज़ा इस बात से लगाइये की दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश हॉकी टीम से इतर सिर्फ एक गोल्ड मैडल सौ सालो के इतिहास में ले पाया हे वो भी पसीने के कम और एकाग्रता के खेल में ( अभिनव बिंद्रा शूटिंग ) इससे भी ज़्यादा शर्मनाक बात की भारत से दस नहीं बीस गुना अधिक मैडल और गोल्ड मैडल सिर्फ कुछ देशो ने भी नहीं बल्कि सिर्फ कुछ खिलाड़ियों ने अकेले ही जीत रखे हे जेसे की माइकल फेल्प्स बोल्ट कार्ल लुइस नुरमी आदि पदको की लिस्ट पर गौर करे तो कई कठमुल्लावादी हास्यपद पाबंदियों वाले बिहार से भी छोटे देश ईरान तक ने तीन गोल्ड और टोटल 8 मैडल जीते पूर्व युगोस्लाविया के कई टुकड़े हुए थे उसके टुकड़े के भी टुकड़े से बना शायद हमारी किसी बड़ी विधानसभा सीट से भी छोटा देश कोसोवो तक एक गोल्ड जित लेता हे इसके अलावा भारत से भी अधिक भ्र्ष्टाचार और गृहयुद्ध , छोटे छोटे और अराजकता गरीबी भुखमरी बेहद कम आबादी के देश जैसे जॉर्जिया अल्जीरिया उज्बेकिस्तान इथोपिया अजरबेजान कोलोम्बिया मिस्र ट्यूनेशिया जोर्डन जैसे देशो ने भी ओलम्पिक में भारत से तो बहुत बेहतर किया हे!
अब आप देखे की हमेशा की तरह इस भयंकर हार के बाद चारो तरफ हज़ारो लेख छप रहे हे जिसमे हार की चीर फाड़ हो रही हे और वो ही कारण बताय जा रहे हे जो की उन छोटे छोटे देशो में भी हे ही जिनका पर्दशन भारत से तो बहुत बेहतर रहा ही जैसे क्रिकेट जैसे आरामतलब फालतू खेल के लिए दीवानगी सुविधाओ की कमी भ्र्ष्टाचार नेताओ की मनमानी आदि आदि ये सब भी सही हे और ये भी सच हे की पिछले सालो में फिर भी क्रिकेट से इतर खेलो के लिए फिर भी हालात बनिस्पत बेहतर ही हुए हे पहले तो ये हाल था की जीत पर भी कुछ नहीं मिलता था जबकि अब खिलाड़ियों को कम से कम इतना तो पता हे की एक जीत उन्हें करोड़ो में लाद देगी दूसरे खेलो को अब स्पांसर भी मिलने लगे ही हे वो भी अब ठीक ठाक कमा रहे ही हे वार्ना भारत के कितने ही पुराने ओलम्पिक एशियाड होकि फुटबॉल के खिलाड़ियों की दुदर्शा की खबरे आती रही हे वास्तव में अगर भारत जैसे की आस लगाई गयी थी दस बीस ओलम्पिक मैडल जीत लेता तो भी वो चीन जैसे देश से सात गुना कम ही होते वो भी बड़ी विफलता ही होती तब ये जो कारण विभिन्न लेखों में आजकल चारो तरफ पेले जा रहे हे जिनमे हालात को सुविधाओ को फण्ड की कमी नेताओ आदि को कोसा जा रहा हे तब तो वो सही होते और हे भी . और चलिए मान लिया की चारो तरफ छप रहे लेखों की बात मान भी ली गयी जैसे ये बता रहे हे वैसे हो भी गया और भारत ने अगली बार दो की जगह दस भी मैडल जीत भी लिए ( गोल्ड की तो बात ही ना करे ) तो भी तो हम चीन जैसे देशो से बहुत बहुत बहुत पीछे होंगे ही ——– ? भारत की ओलम्पिक में विफलता तो शायद मानव इतिहास की ही खेलो में सबसे बड़ी विफलता कही जा सकती हे आखिर क्यों इतना बड़ा देश जहां अब अरबपतियों करोड़पतियों लखपतियों की कतार लगी हे ( अभिनव बिंद्रा ने भी शायद खुद की ही वेल्थ के दम पर सुविधाय जुटा कर भारत का एकलौता नॉन हॉकी गोल्ड जीता था ) वो इथोपिया जैसे अकालग्रस्त भुखमरे जैसे देश से भी पिछड़ा हुआ हे मेरा अन्दाज़ा हे की भारत की खेलो में इस अदभुत विफलता का सबसे बड़ा राज़ हे ”हिन्दू कठमुल्लावाद ” !
भारत में सबसे अधिक पैसा और संसाधन इसी हिन्दू कठमुल्लावादी सोच और वर्ग के पास ही हे और साफ़ हे की ये वर्ग ना तो खुद खेलो में कुछ करता हे ( हिंदुत्व की प्रयोगशाला पेसो में सबसे आगे पर खेलो में फिसड्डी ) ना ही किसी और को ही कोई प्रोत्साहन देता हे जैसे की चीनी मिडिया ने साफ़ साफ़ लिखा हे की भारत की खेलो में इतनी बेमिसाल विफलता का एक बड़ा राज़ हे शाकाहार . और शाकाहार पर सबसे अधिक जोर भारत में हिन्दू कठमुल्लावादी वर्ग ही देता हे अगर में गलत नहीं हु तो इस वर्ग की हरकत देखिये की इसने शाकाहार के नाम पर शायद मध्यप्रदेश में गरीब आदिवासी दलित बच्चो से अंडा तक बन्द करवाने की कोशिश की थी इसका मतलब ये नहीं हे की में शाकाहार के खिलाफ हु नहीं शाकाहारी होना भी बहुत अच्छी और सेहतमंद बात हे मगर क्या करे की अधिकतर खेलो में जीतने के लिए आपको सिर्फ सेहतमंद और रोगों से दूर ही नहीं रहना होता हे बल्कि बहुत ही ज़बरदस्त दमखम भी चाहिए होता हे ( इस दमखम की हमारे देश में कितनी कमी हे की अंदाज़ा लगाइये जिस क्रिकेट के लिए भारत में इतनी दीवानगी हे इतनी सुविधाय हे उस तक में भारत आज तक एक भी शुद्ध खूंखार फास्ट बोलर देने में विफल रहा हे इस विफलता को इस तरह से ढंका गया की भारत के बनियो ने क्रिकेट को अपने पेसो और आबादी के दम पर अपने कब्ज़े में लेकर फ़ास्ट बोलिंग को ही बधिया करवा दिया उसका रूप ऐसा बदलाhttp://khabarkikhabar.com/arch ives/1770 की पिछले दिनों महान फ़ास्ट बोलर ग्लेन मैक्ग्रा ने भी शिकायत की की अब फ़ास्ट बोलिंग बर्बाद हो रही हे लेकिन ये सब मक्कारियां चालाकियां और पेसो का रुतबा क्रिकेट जैसे दुनिया के लिए बेमतलब बेमकसद फालतू और आलसियों के खेल में तो चल सकता हे बाकी खेलो ओलम्पिक एशियाड कॉमनवेल्थ और फुटबॉल आदि में नहीं ) इस दमखम के लिए जो खाना जरुरी होता हे वो खाया जाता ही हे साइना नेहवाल की ही बात करे तो वो शुद्ध शाकाहारी थी मगर कोच पुलेला गोपीचंद की सलाह मानकर उन्होंने चिकन खाना शुरू किया और मैडल जीते अब चाहे तो वो और मैडल जीत जीत कर अपना कॅरियर खत्म कर फिर से वेजेटेरियन हो जाए तो कोई हर्ज़ नहीं हे .
अब अंदाज़ा लगाइये देश की सबसे अधिक वेल्थ को अपने कब्ज़े में लिए बैठा हिन्दू कठमूल्लवादी कट्टरपन्ति वर्ग ने शुद्ध शाकाहार के प्रति कट्टरपंथ दिखाकर भारत को खेलो में कितना नुक्सान पहुचाया होगा इसी कारण ये वर्ग खुद भी खेलो में कुछ भी तो ना कर सका हे —- ? ऊपर से कोढ़ में खाज ये भी की इस वर्ग ने खेलो में खुद तो कभी कुछ किया ही नहीं देश का भारी आर्थिक शोषण करके देश में भारी असमानता फैलाकर इसने दुसरो को भी खेलो में कुछ नहीं करने दिया करे कैसे भला जब आर्थिक शोषण लूट और असामनता की वजहों से देश के एक बड़े हिस्से को तो रोटी कपड़ा मकान की समस्याओ से ही कोई निजात नहीं हे खेलो के लिए ऊर्जा कहा से लाये ज़ाहिर हे शाकाहार के प्रति इस वर्ग की सनक को सम्मान ही दिया जा सकता था की भाई जब आपको जानवरो से इतना प्रेम हे तो इंसानो से दस गुना अधिक होना चाहिए था मगर ये वर्ग कभी भी इंसानो के शोषण से बाज़ नहीं आया शोषण लूट भी ऐसी जो शायद ही दुनिया में कही और भी होती हो प्रेमचंद की ” सवा सेर गेंहू ” जैसी शोषण की कहानिया शायद ही किसी और देश में लिखी गयी हो यानी बात बिलकुल साफ हे यानी जब तक देश के सबसे अधिक संसाधन और पैसा हिन्दू कट्टरपन्ति कठमुल्लावादी वर्ग के कब्ज़े में रहेंगे तब तक भारत की खेलो में इसी तरह से दुदर्शा होती रहेगी और हमें क्रिकेट की फ़र्ज़ी खरीदी हुई फालतू उपलब्धियों पर बाकी खेलो में इक्कादुक्का व्यक्तिगत उपलब्धियों से ही सन्तोष करना पड़ेगा और दुनिया हम पर हँसती रहेगी
मांसाहारी कठमुल्ले ही कितने मेडल लाये?
शाकाहार या मांशाहार ये सिर्फ कुतर्क हैं अगर आप के स्कुल में मेथ पढ़ाने की फेस्लीटी नही हैं तो आप मैथेमेटिशीयन पैदा नही कर सकते
आपके इस लेख से सहमत नहीं क्योके आप जो कह रहे है वह प्रैक्टिकाली ऐसा नहीं है !
آپ جے سچ لکھا ہے مگر سوال یہ ہے کے مسلم ملکو نے بھی کون سا کمال کیا ہے . اصل مے ہمارے دیش مے کوئی جذبہ ہی نہیں ہے ملک کے متھالک اور دشو مے کون سے ادھک ہے –
वाहिद साहब ट्रांसलेट से देखा की आपने शायद मुस्लिम देशो की भी नाकामी का मुद्दा उठाया हे तो हम उसकी भी चर्चा कर चुके हे उनकी भी नाकामी का राज़ हे मुस्लिम कठमुल्लावाद कट्टरपंथ ये इंसान को ना तो सोचने देते हे ना कुछ करने देते हे जैसे यहाँ उमाकांत साहब जैसे समझदार आदमी भी सोचने को राजी नहीं हे की आखिर गोपीचंद ने कैसे साइना को कैसे चेम्पियन बनाया —-? कठमूल्लवाद और कटरपंथ केवल एक ही खेल में माहिर होते हे वो हे शोषण का खेल . इसलिए हम लोगो को अपने अपने धर्म आस्था पर कायम रहते हुए ही , और भी शुद्ध और 100 % सेकुलर लिबरल बनने को कहते हे तभी शोषण कम होगा जब शोषण कम होगा तभी आम आदमी भी बेफिक्र होकर कोई खेल खेल पायेगा तभी मैडल आएंगे याद रखिये की हर जीते हुए खिलाडी के पीछे और निचे सेकड़ो हारे हुए और इंजर्ड हुए खिलाडी हो सकते हे यही खिलाडी ही प्रेक्टिस करवा करवाकर खुद हार कर चेम्पियन खिलाडी को आगे बढ़ाते हे यानी हारे हुए खिलाड़ियों का भी पूरा पूरा मान सम्मान हक़ होना चाहिए उनको भी इतना पैसा जरूर ही मिलना चाहिए की कम से कम जिंदगी की बेसिक जरूरतों की तो उन्हें बिलकुल चिंता ना करनी पड़े लेकिन यहाँ हाल देखिये क्या हे की दो मैडल जितने वालो को करोड़ो दिए जा रहे हे जो हारे जैसा की महावीर फोगाट बता रहे हे की उनकी बेटीयो को प्रेक्टिस तक उधार के गद्दों पर करनी पड़ी
रमेश जी जब भी आपके पास समय हो तब आप डिटेल में बता सकते हे की लेख में आपको क्या गलत लगा दूसरा की ऐसा नहीं हे की सिर्फ यही एक वजह हे खेलो में भारत की दुर्गत की और बहुत सी वजह हे और वो वजह आजकल चारो तरफ आ रहे लेखों में डिस्कस हो भी रही हे सही भी हे लेकिन ये जो वजह ये कही डिस्कस नहीं हो रहि तो मेने ये भी मुद्ध उठा दिया फिर ये ना समझे की में मांसाहार का गान कर रहा हु या शाकाहारियों को कमजोर बता रहा हु बिलकुल नहीं में तो खुद बहुत से लोगो को अधिक मांसाहार से चेताता रहता हु में खूब बहुत ही मिनिमम लेता हु अंडे भी कम कर दिए हे जरुरी हुआ तो में फिट रहने के लिए शुद्ध शाकाहारी भी बन सकता हु लेकिन जैसा की लेख में बताया गया चीनी मिडिया ने भी बताया की फिट सेहतमंद दुबला निरोग रहना एक अलग बात होती हे बहुत अछि बात हे . मगर खेलो में एक खास समय में खास पॉवर चाहिए होती हे किस कदर दमखम चाहिए होता हे में समझ सकता हु क्योकि में भी एमच्योर ( नॉन प्रोफेशनल ) फुल मैराथन ( 42 किलोमीटर छह घंटे से कम में ) की तैयारी कर रहा हु दौड़ना मेरे लिए बहुत आसान हे मगर यकीन कीजिये की अगर आपने रफ़्तार बढ़ानी हो तो इतनी पॉवर लगानी पड़ती हे की जान निकल जाती हे आखिर वो जीतने की पॉवर कहा से आएगी — ? उसके लिए बहुत से लोगो मांस अंडे की जगह सूखे मेवे भी लेते हे मगर वो तो और भी महंगे हे और ना उनका उत्पादन बढ़ सकता ना हो सकता तो करे तो क्या करे आखिर हम कैसे जीतेंगे —–? और भला इसमें क्या शक हे की भारत में सबसे अधिक दौलत के ढेर पर शुद्ध शाकाहारी जैन बनिए गुजराती आदि समाज बैठे हे में इनके शाकाहार का पूरा पूरा सम्मान करता हु मगर अगर इन्हें खुद नहीं खेल खेलने हे तो दूसरे समाजो को आगे बढ़ाए ये नहीं की एम् पि में गरीब बच्चो से अंडा तक छीनने की कोशिश का आरोप हे क्या उन्हें काजू बादाम खिलाओगे — ? या फिर ये हे की जैसा की शुद्ध संघी और पत्रकारिता के नाम पर कलंक —— कुमार झा ने लिखा की खेलो में हार से परेशान होने की जरुरत नहीं हे ठीक हे फिर हिस्सा ही लेना बंद कर दीजिये ऐसा कर लीजिये .
स्तरहीन लेख वास्तविकता से कौसो दूर
उमाकांत जी जब भी भी समय हो तो वास्तविकता आप ही लेख या कमेंट से बता सकते हे शुक्रिया . आपकी बात जायज़ हे लेख स्तरहीन भी हो सकता हे मगर लेख का मुद्दा ध्यान देने के काबिल तो हे ही सच हे की लेख में गहराई नहीं हे क्योकि में कोई काबिल आदमी नहीं हु ना ही मुझे कोई ऐसी एजुकेशन मिली हे ना ही मेरी सात पुश्तों में भी कोई लेखक या कोई अकादमिक हुआ हे ना ही मुझे कोई भी कैसा भी किसी का भी कभी भी कोई सपोर्ट मिला हे ऊपर से जीवन में प्रॉब्ल्म्स के अम्बार लगे रहते हे जिससे फोकस में बहुत दिक्कत आती हे इसलिए हो सकता हे की मेरा लेखन स्तरहीन हो उसमे गहराई ना हो सही भी हे मगर मेरा इरादा पूरी तरह से नेक था ,हे , और रहेगा इस दुनिया में बहुत से लोग बेहद काबिल होते हे मगर उनके इरादे अच्छे या नेक नहीं होते हे भारत तो अब चारो तरफ ऐसे ही काबिल लोगो के कब्ज़े में हे —- ? और बीरू यादव भाई आपने पूछा की मांसाहारी कठमुल्लाओ ने कितने पदक जीते तो हां ये भी हे की अगर ईरान जैसे देशो में तरह तरह की मुस्लिम कठमुल्लावादी पाबंदिया और बेन ना होते तो वो भी आठ की जगह बीस मैडल ले सकते थे पाकिस्तान की भी खेलो में भारी दुर्गत हो रही हे उसका भी कारण भि उनकी कठमुल्लावादी सोच हे जिसके कारण पकिस्तान में मांसाहार की सनक , खफ्त हे वहां जरुरत से बहुत ज़्यादा मांसाहार किया जाता हे जिससे हो सकता हे वहां भी लोगो की बच्चो की फिटनेस ख़राब हो रही हो खेर जो भी हो हम तो भारतीय हे हमें सिर्फ भारत से मतलब हम सिर्फ भारत को मैडल लेते देखना चाहते हे
Ye sikandar hayaat sahab jo hai….inhe mai 3-4 salo.se lagaatar pdh raha hu….ye sahab secularism ka naqaab pahankar aate hai..darasal ye ek samprdaayik tatv hain jinhe ham ‘Soft Jihadi ‘ keh sakte hai….muslim samaz aise hi karta hai kuch logo ko aage rakhkar jo jhootmuth ka secularism ka dhong karte hai..dusre samudayo ko bhrm me rkhta hai…aur apne mansubo ko anzaam dene me laga rehta hai….ye bat yad rkhne ki hai ki agar koi muslim islam me aastha rkhte hue secularism ki bat karta hai to sawdhaan rehne ki jarurat hai….kyoki islam me secularism ki koi jagah nhi hai…aise insan kabhi bhi asli rang dikha sakte hai….ye khulkar hindu kattrata ki mukhalfat karte hai…par jo asli samsya hai vo islami kattrata hai us par do ek bat keh kar puri kar dete hai….inse sawdhan rahe.
कुरान खुद सेकुलर नहेी है तब कुरान को सहेी समज्हने वाले उन्के भक्त कैसे सेकुलर हो सक्ते है
Jo sampradayik tatv khulkar samne aa jaaye vo utne khatarnaak nhi…jitne ki vo jo secularism ka naatak karte hain….islami kattrata jo nit naye aayamo ko chhu rahi hai ….uska ek aayam ye bhi hai ki kuch apne logo ko secular samaz me entry karwa dete hain. Islami kattrata jo puri duniya ke liye naasur ban chuki hai. Uska udgam kya hai ham sabhi jaante hai….usi par se dhyaam hatane ke sikandar hayat jaiso ko aage kar diya jata hai….ye sahab bhi apne krtvya ko bakhubi nibha bhi rahe hain….islami kattrta jisne puri duniya ko nafrat ki aag me jhonk diya hai….uski chapet me aa gaya hai hindu samaz jo ki swabhawik rup se secular hai..
इस्लामिक कट्टरता के खिलाफ में 2005 से प्रिंट में और 2010 से नेट पर लिखता आ रहा हु विस्फोट मोहल्ला नवभारत पर , फिर यहाँ लाखो लाइने लिखने की मेहनत की होगी वो भी तब जबकि आई प्रॉब्लम्स और इंजिरी की वजह से स्क्रीन यूज के थोड़ी ही देर बाद मेरा सर बहुत ज़्यादा दुखने लगता हे इसलिए में स्मार्ट फोन तक यूज नहीं करता हु खेर मेरा अधिकतर लेखन मुस्लिम कट्टरता के खिलाफ ही हुआ हे http://khabarkikhabar.com/archives/category/writers/%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A4%B0-%E0%A4%B9%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A4
To janab aap apna focus kewal islami kattrta tak hi rakhiye….aur usme hi asfal prayaas jari rakhiye…hindu kattrta ki aap fikr na kare…uska gala pkdne wale unihi samaz me bahut hai…hindu kattrpanth majboori me paida huwa hai….jo ki islami kattrta ke karan aaya….aur uper se hindu samaz me hi uski bakhiya udhedne wale bahut hai….kyoki ye naturally…secular dharm hai…mujhe garv hota hai….uske ulta islami kattrta jnmjaat swaghosit swaposit manmani hoti hai….jo dharm ki chasni me dubi hui hai…hindu kattrta islami kattrta ka hi parinam hai…vo khud me damit hai shoshit hai….islami kattrpan kisi ki nhi sunta….usme se hi kuch secularism ka dhong karne wale jo gini chuni sankhya me hai…apni seemao ke daayre me…bhala kya kar sakte hai….aapne ek bar kaha tha ki kewal islami kattarpan pe bolunga to muslim samaz me galt samdesh jayega…..are bhai aaj ke jo mahan secular neta patrkar buddhjiwi aadi jo kewal majburiwash khade hue hindu kattarpan ko paani pee pee ke koste hain aur muslim kattrta pe muh me dahi jama lete hai..unhe to iski parwah nhi rahti ki hindu samaz me kya sandesh jayega…aur mahan secular bhi kehlaate hai…aur aapki nazro me deshi ghee ki tarah shuddh secular bane rahte hai…mai NDTV pe mahan secular patrkar Ravish kumar ko dekh raha tha…love jehad ke topic pe bat ho rahi thi….mahan secular patrkar ne ulta love jehad ka topic uthane wale ko hindu ko hi buri tarah lataad diya….abhi kisi hindu kattrpanthi ne kisi muslim ladki ko is tarah se kiya hota to vo mahan patrkar us kartrpanthi ko noch khata…..ikhlaq mudde pe screen black kar li…is mudde pe apna muh kala kyo na kar liya….aise me koi kattarpanth ki taraf jhuk sakta hai….javed akhtar ka kehna hai tum hindu log musalmano ki tarah kattar mat bano unhe apni tarah liberal banao….bilkul javed sahab ham secular hi hai…aur aisa kehna ka sahas kewal atheist muslim hi kar sakta hai…asthawan muslim kabhi shuddh secular nhi ho sakta..kyoki vo islami daayre me bandha hota hai….kitna bhi secularism ka dawa koi muslim kar le uski secularism ek hindu kattarpanthi ki bhi seclurism ke aage kuch nhi hai…..kyoki vo secularism seemao me nhi bandhi hai….aur hame us par naaz hai..kisi ko prove karne ki jarurat bhi nhi hai..isliye Sikandar sahab apna naqab nikal fekiye…aur asli rup me aa jaeye..ladna hai jhut me hi to islami kattrta se hari hui ladai ladiye..jo ki aapke bas ka bhi nhi hai….
एक तो भाई नागरी में लिखे पूरी बात नहीं पढ़ पाया सिर्फ इतना समझ आया की आपकी ये बात जायज़ हे की हिन्दू कट्टरता के खिलाफ लिखने वाले तो बहुत हे मुस्लिम कट्टरता के खिलाफ लिखने वाले बहुत कम ले दे कर हम चार पांच ही हे अफ़ज़ल भाई जाकिर हुसेन सैफुल्लाह खान ताबिश सिद्दकी , में , और इक्का दुक्का कुछ और हे सोशल मिडिया पर , पर वो भी संदिग्द और फ़र्ज़ी ही अधिक लगते हे बाकी लोगो का खास कर पढ़े लिखे ऊँचे लोगो का क्या रवैया हे ये मेने ज़ाहिद साहब के लेख पर उनकी और मेरे कज़िन जेसो की क्या मानसिकता हे हे इस पर कमेंट दिया ही हे खेर ये लेख मेने इसलिए लिखा की ओलम्पिक में करारी हार के बाद हज़ारो लेख छपे मगर ये मुद्दा कही डिस्कस नहीं हो रहा था ये मुद्दा चीनी मिडिया और मध्य प्रदेश की खबर से मेरे मन में आया था इसलिए मेने ये लेख लिखा और इसमें तो शक ही नहीं हे की ये भी एक बड़ी वजह हे जिससे सवा अरब की आबादी का देश कुछ लाख की आबादी के कोसोवो से भी ओलम्पिक में मात खा जाता हे इसमें तो कोई शक नहीं हे की आगे भी जहा जहा मोदी भाजपा संघ बजरंग वि एच पि अदि आदि मज़बूत होंगे तो फिर जैसा की आप सोचते होंगे की वो इलाका स्वर्ग बन जाएगा ईश्वर करे ऐसा ही हो हमें उससे कोई ऐतराज़ नहीं मगर तब खेलो में भारत की दुर्गत होती ही रहेगी ये तो तय हे. आपका शुक्रिया
ओलम्पिक मे जेीत नहेी मिलेी उस्का दोश शाकाहार नहेी है , दश्को से क्रिकेत कि गुलामेी है हर गलेी मे २-४ बच्हे क्रिकेत खेल्ते है क्योकि तेी वेी मे अन्य मिदिया मे वहेी च्हया रहता है शकाहारेी कुश्ति मे क्यो जिते ? सिन्धु को ३ माह बिर्यनेी नहि देी गयेी थेी ! वैसे सिन्धु मन्साहारेी हेी है
इस बार ओल्मपिक कि हार के लिये मोदेी सर्कार को दोश दिया जायेग कि २५ माह मे अनेक खिलादेी मज्बुतेी से तैययर हो स्कते थे जिस्को सर्ककर ने ध्यान नहेी दिया ! जब इस देश मे क्रिकेत को काफेी हल्का किया जायेगा तब नये खेलो मे भि लोगो कि रुचि बनेगि ! गलेी गलेी मे क्रिकेत खेल्ने वाले बच्हे आगे बध भि नहेी पाते और अन्य खेलो मे उन्कि रुचि भि नहि बन पातेी है !
सिकन्दर सहब पुर लेख पद्ध लिजिये मुस्किल से दो मिनुते लगेन्गे. आगे से नाग् रेी मे लिख्ने कि कोसिस करुन्गा..
रोमन में प्रवाह नहीं बन पाता हे http://www.easyhindityping.com/यहाँ से नागरी में लिख दीजिये पूरी बात का जवाब दिया जाएगा ताकि आपकी नाराज़गी कम हो
में” जीरो स्प्रिचुअल नीड ” का आदमी रहा हु किसी भी धर्म या अक़ीदे आस्था की मेरी कोई ख़ास जानकारी या अध्ययन नहीं हे इसकी जगह मेरे पास जीवन के अनुभव बहुत ज़्यादा हे क्योकि में एक बहुत ही ज़्यादा आम आदमी हु जिसे जीवन में कोई सुविधा या कोई भी सिक्योरिटी ज़ोन या कोई कम्फर्ट ज़ोन नहीं मिला ऐसे में में जो कुछ लिखता हु वो जमीनी और इंसानी अनुभवो हालातो से लिखता हु जो मेने खुद झेले ठीक अपने ऊपर . अब जब में मुस्लिम कठमुल्लावाद पर लिखता हु तो लोग इसे इस्लाम के खिलाफ भी मान लेते आये हे दो बार ” धमकी ” सी भी मिली हे जबकि हमारे लेखन का विषय इस्लाम नहीं बल्कि मुसलमानो की गतिविधियां होती हे में इस्लाम के बारे में नहीं मुसलमानो के बारे में लिखता हु जो मेने खुद देखा महसूस किया वो . ऐसे ही जैसे अब मेने यहाँ हिन्दू कठमुल्लाववाद शब्द प्रयोग किया, चीनी मिडिया और गोपीचन्द दुआरा बताये खान पान का मुद्दा उठाया आदि जिस पर हमारे प्रिय मित्र रमेश कुमार जी तक भी नाराज़ हुए तो बता दू की लेख का हिन्दू धर्म या आस्था से कोई लेना देना नहीं था हमारा विषय इंसान होते हे धर्म आस्था नहीं , हमें ना किसी भी धर्म की जयजयकार में करने में ही और ना ही कभी किसी भी आस्था के अपमान करने में कोई भी दिलचस्पी नहीं रही हे न आगे कोई चांस हे . ” हिन्दू कठमुल्लावाद ” शब्द से आशय कुछ लोगो से था न की हिन्दू आस्था से .
बृजेश यादव जैसे लोगो के लिए इतना ही ” ज़ाहिद ए तंग नज़र ने मुझे काफ़िर समझा, और काफ़िर ये समझता है, मुसलमान हूँ मैं”
समझ नहीं आता जाकिर भाई की हंसे या रोये— ? ये हमें कट्टर मुस्लिम बता रहे हे जबकि अभी मेरा ठीक ठाक लिबरल ही डॉक्टर कज़िन तक भि रात में रुक कर एक बजे तक और सुबह नाश्ते के समय तक मुझे हिन्दू सपोटर होने और ” जीरो स्प्रिचुअल एक्टिविटीज़ ” के लिए खूब भला बुरा कह कर गया हे यही नहीं मेरी मदर से भी अपील करके गया हे की ” पुपो आप ही क्यों नहीं इसे मार मार कर मुसलमान करती ”————-? खेर जाकिर भाई विषय की बात करे तो मैडल से इतर भी खेल ( हर उम्र के लोगो के लिए ) और पढ़ने का कल्चर भारत को चाहिए ही चाहिए वार्ना बड़ी तबाही होगी हो ये रहा हे की भारत में पैसे वाले लोगो के जीवन में एक खालीपन आता जा रहा हे जिसे वो दो चीज़ों से भर रहे हे स्प्रिचुअल एक्टिविटीज़ या फिर सेक्स . इसलिए गौर करे की भारत में ” सेक्स और धर्म का बाजार ” बेहद उफान पर हे इस विषय पर लेख की कोशिश रहेगी
1- करीब १०-१२ saal का था एक बार एक मित्र के साथ दौड़ाने गया था गया पिता जी को पता चला तो डंडा कर दिया उन्होंने की क्यों गया था चेहरा जल्दी बड़ा दिखने लगेगा फलन हो जायेगा ढिमकाना हो जायेगा और पता नही क्या क्या बोला था
२-एक मिडिल स्कूल में टीचर है एक बच्चे को बी टेक करवा रहे है दूसरा तयारी कर रहा है तीसरा फुटबॉल खेलता है तो उसके लिए काफी परेशान कई बार समझाया बच्चे को खेलने दो तुम्हारे दोनों बच्चो से पहले कामयाब हो जाएगा लेकिन समझ नहीं आता उन्हें सोचते है बी टेक करवाना चाहते है उसे ताकि फ्यूचर सेफ रहे
ये कहानी एक दो पिता की नहीं है बल्कि मेरे आस पास के हर पिता की उसे यही लगता है की पढाई में ही फ्यूचर सेफ है
आप कहते है की काठमुल्ला वाद के कारन खेलो का ये हाल हुआ है पर मई कहता हु की बुनियाडी ही नहीं है तो ईमारत कैसे कड़ी होगी
३-पडोसी गाम की एक लड़की दौड़ाने में नेशनल लेवल तक खेली पारिवारिक समस्याएं आयी तो रेलवे ज्वाइन कर लिया फिर ८ घंटे की job फिर सुबह साम की प्रैक्टिस बाद में खेल छोड़ना ही पड़ा
जहा सपोर्ट मिलता भी है तो मज़बूरी में खेल छूट जाता है
मैंने आप से पूछा था की मुजफ्फर नगर में कितने स्टेडियम है खेल है जहा तक मेरा अनुमान है ८००-९०० गाम तो होंगे ही आप मालूम करे की स्कूल लेवल पर खेल एक्टिविटी कितने स्कूल में हो रही है आप ये भी बताइये की यदि स्कूल ही नहीं होने हो शिक्षा कहा से मिलेगा
हमारी सरकार जितना पदक जितने पर इनाम देती है उसका आधा भी क्या खिलाड़ियों को बनाने (इनिशियल लेवल ) पर खर्च कर रही है
माफ़ी चाहूंगा उमाकांत जी आपकी पुरानी बात का जवाब ना दे सका आपने जो पुरानी विफलताओं और हमारे मुज्जफरनगर की बात की तो भाई जो आप या राज़ साहब बता रहे हे सब सही बात हे इनसे भी खेलो में दुर्गत हुई हे सही हे में भी वो सब कारण डिस्कस कर रहा हु लिख रहा हु सब सही बात हे मगर ये तो वो बाते हे जिनसे भारत चालीस पचास मैडल नहीं ले पाता हे सही हे की इन्ही वजहों से हम चीन की तरह खेलो में अच्छा करने से रह गए लेकिन लेख का विषय अच्छा करने से क्यों रह गए —- ? वो नहीं हे लेख का विषय ये हे की हम तो खेलो में बुरा भी नहीं कर पाते हे बुरा तो वो करते हे जो किसी गिनती में होते हे हम तो किसी गिनती में ही नहीं हे मेरा मुद्दा वो नहीं हे की चालीस मैडल कब आएंगे—- ? मेरा मुद्दा हे की एक या दो भी गोल्ड क्यों नहीं आते हे मेरा मुद्दा तो ये हे की भारत में कुछ लोगो की वेल्थ इतनी हे की सिर्फ अपनी वेल्थ से ही वो भी अभिनव बिंद्रा की तरह गोल्ड ले सकते थे यानी दो चार गोल्ड तो हमें नसीब होते ( हलाकि वो भी घटिया ही पर्दशन होता क्योकि ईरान और उत्तर कोरिया तक इससे ज़्यादा लेते हे ) लेकिन हमारे वो दो चार गोल्ड या पदक तक तक तक भी कौन सी विचारधारा खा जाती हे ये इस लेख का विषय हे
आप ओर मैं पचासा पार कर जायेगें अगर अभी इसी वक्त शुरूवात करे तो क्योकि सफल होने के लिये १० se २० साल का समय चाहिये आप देखिये जो मैडल उठा रहे हैं उन्होने ४-६ साल की उम्र से तैयारी की हैं
बिल्कुल, लेकिन इसके लिए खेल को संस्कृति मे बसाना होगा. अभी संस्कृति मे धार्मिक पाखंड बसे हैं.
मेरे कहने का मतलब है के खेल में कट्टरवाद नहीं है बस हमारे देश में माहौल और प्रशिक्षण की कमी है और खेल बजट काम है उससे ज्यादा भष्ट्राचार बहुत है और जेन्यूइन लोगो को मौक़ा नहीं मिलता !
रमेश जी सही हे की खेल में कट्टरवाद नहीं हे मगर एक खास किस्म के कट्टरवाद के कारण भारत का बहुत बड़ा और पैसे वाला तबका दमखम वाले खेलो में कुछ करना तो बहुत दूर की बात हे ”कदम तक नहीं हि रख पाता हे ” ( मेने कहा ना की भाई ओलम्पिक एशियाड में जीतेंगे तो हम तब जब हमारे पास ढेर सारे खेलने वाले हारने वाले खिलाडी होंगे यही खिलाडी हार हार कर किसी चेम्पियन को आगे बढ़ाते हे ) और फिर उसी कट्टरवाद के कारण उसी का दिल इतना बड़ा भी नहीं हो पाता की वो दुसरो को ही खेल के मैदान में आगे बढ़ाने में इन्वेस्ट करे ” प्रयोगशाला ” जहां जिनके पास सबके अधिक पैसा हे उन्ही का खेलो में हाल देख लो खेल ही नहीं वास्तव में जीवन के हर फिल्ड हमें उदार सेकुलर सहअस्तित्व वाला होने की जरुरत हे
एक बार फिर से साफ़ कर दू की इस लेख में जो चीनी मिडिया की कही बात और पुलेला गोपीचन्द और साइन नेह्वाल के हवाले की बात हे उनसे मेरा मकसद ये बिलकुल भी नहीं था की जो आमतौर पर होता हे की शाकाहारियों को कमजोर बताना और मांसहाहरियो को ताकतवर शेर चीता आदि बताना ये सब बकवास हे. और भी मुझे मुझे किसी के भी अक़ीदे ,संस्कर्ति , इलाके , देश सूरत रंग कद परम्पराओ नाकनक्श खानपान आदि का मजाक उड़ाना बिलकुल भी पसंद नहीं हे में कभी ये नहीं करता हे ये सच हे की शाकाहार भी सेहत के लिए बहुत अच्छा होता हे इसी तरह जो लोग मांसाहार को अच्छा मानते हे( में उनके भी कुछ खून चूसने वाले शाकाहारियों दुआरा राक्षसीकरण के भी खिलाफ हु ) उन्हें भी इसकी लिमिट समझनी चाहिए याद रखिये की कुदरत का निजाम हे की जितनी भी चीज़े खाने में बेस्वाद होती हे वो सब सेहत के लिए अच्छी होती हे और जितनी भी टेस्टी चीज़े होती हे वो सब एक लिमिट के बाद मोटापा चढ़ा कर हेल्थ खराब ही करवाती हे तो मांसाहार का भी गुणगान ना करे लेख का मकसद ये भी बताना था की हेल्थी फिट रहना वजन कम रखना एक बहुत अछि बात हे मगर एक खास समय में खास पावर अगर खेलो में जितने के लिए चाहिए तो उसके लिए जो एक्सपर्ट बताएँगे वो खाना पडेगा वार्ना हारते रहो खेलो में . यही बात गोपीचन्द की मान कर साइना ने मैडल जीते और जित के बाद मध्यप्रदेश में गरीब आदिवासी कुपोषित बच्चो से अंडा तक छीनने की कोशिश करने वालो ने भी कोई ऐतराज़ नहीं किया इसी को मेने कठमुल्लावाद कहा इसी का विरोध इस लेख में हे शाकाहार का बिलकुल नहीं अभी तो खेर में भी एक थर्ड क्लास ही सही पर एथलीट हु पर अगर कल को मुझे पावर की नहीं सिर्फ वेट कंट्रोल की जरुरत हुई में भी अगर कल को जरुरत पड़ी तो शाकाहारी भी बन सकता हु आप भी यही करे जैसी जरुरत वैसा खाना ले शाकाहारी या मांसाहारी कटटरपन्तियो की ना सुने
पता चलता हे की खबर की खबर के काफी पाठक तो बाहर के देशो अमेरिका कनाडा अमीरात आदि के हे यहाँ तक की आइसलैंड ( इंग्लैंड और ग्रीनलैंड के बीच एक छोटा सा देश ) तक से भी पाठक आज दिखाई दिए इन सभी का बहुत बहुत शुक्रिया आगे और बेहतर लेखन विचार पेश करने की कोशिश रहेगी विदेशी पाठको का एक बार फिर शुक्रिया और वेलकम
sikandar hayat ji aap se puri tarah sahmat hu aur iske liye govt. bhi jimmedaar hai.
शुक्रिया अंसारी जी . अंसारी जी सरकार जिम्मेदार हे की की हम खेलो में अच्छा नहीं कर पाते हे हिन्दू कठमूल्लवाद जिम्मेदार हे की हम खेलो में अच्छा छोड़ो बुरा भी नहीं कर पाते हे बुरा तो वो करते हे जो मुकाबले में होते हे हम तो किसी गिनती में ही नही हे और एक ज़हरीला संघी संपादक लिखता हे की ” ———– कुमार झा10 August at 15:59 · अगर ओलम्पिक आप ज्यादे जीत नही पाते तो यह कोई ऐसी बात नही है जिससे शर्मिंदा हुआ जाय. ठीक है कि राष्ट्रों के जीवन में हर प्रतीक का अपना महत्व है. हर मामले में अव्वल होने की ईमानदार कोशिश होती रहनी चाहिए. अव्वल आने पर जश्न भी मनाना ही चाहिए, लेकिन किसी देश की सफलता-असफलता ‘खेल’ से नही नापा जा सकता. खेल सफलता नही है, न ही सफलता खेल है.
हर देश की अपनी विशेषता होती है, उनकी अपनी ख़ास संस्कृति है. मुट्ठी भर खेल थोड़े उसका मापदंड हो सकता है भला? फिर भी सरकारों को ख़ूब सुविधा देनी चाहिए खिलाड़ियों के लिए. जीते तो बड़ी बात न जीत पाए तो अगली बार.एक सीमा से ज्यादे जीत की भूख भी समाज को बीमार ही बनाती है. ऐसी हवस राष्ट्र को भी स्वस्थ नही रहने देता. ” बताइये हे नहीं संघी ज़हालत का नमूना की जीत का तो अभी कही कही दूर दूर तक नाम भी नहीं ( जीत सिर्फ गोल्ड ही होती हे ) और ये लिखता हे की ”एक सीमा से ज्यादे जीत की भूख भी ”
यहाँ ये भी साफ़ कर दू की शाकाहार भी सेहत के लिए बहुत ही अच्छा होता हे जो लोग शाकाहार को घास फुस बताते हे वो मुर्ख ही हो सकते हे हमेशा की तरह दिल्ली पर बुखार का आतंक हे हमारे यहाँ भी कई को हो चुका हे तो में अपना ही बता दू की बचपन में मेरी इम्युनिटी अच्छी नहीं थी बात बात पर तीनो सीजन में मुझे बुखार जरूर होता था 95 में तो ऐसा बुखार हुआ था की भरी लू में आठ दस चादर ओढे पड़ा था उसके बाद फिर मुझे सलाद खाने का शौक लग गया सभी तरह की सलाद प्याज़ मूली गाजर खीर ककड़ी वगेरह में पुरे साल सलाद जरूर ही लेता हु उसके बाद मेरी इम्यून सिस्टम इतना बढ़िया हुआ की पिछले 21 साल से मुझे कभी भी बुखार या कोई और बीमारी नहीं हुई हे इस दौरान मेने कभी बिस्तर नहीं पकड़ा . आँखे मेरी चोट और पेसो की कमी से सही समय पर ट्रीटमेंट ना मिलने की वजह से काफी वीक हे पर बाकी बॉडी मेरी लोहे की हो चुकी हे सर्दी गर्मी लू बरसात मेरे ऊपर कोई असर नहीं डाल पाती हे मेरे कज़िन के शब्दो में ”इसे तो डेंगू के मच्छरों से पकड़ पकड़ भी कटवाओ तो भी इसे कुछ नहीं होगा ” इस इम्युनिटी सिस्टम का क्रेडिट में सलाद को ही देता हु
ओलम्पिक के बाद आज के हालात पर भी चीनी मिडिया ने सही लिखा हे ”ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है, ‘भारत के पास काफी पैसा है लेकिन यह कुछ नेताओं, अधिकारियों और कुछ पूंजीवादियों के पास इकट्ठा हो गया है. ये सभी लोग देश में उपलब्ध धन को खर्च नहीं करना चाहते जो वास्तव में भारत के लोगों का ही है. भारत के ये एलीट लोग देश के बजाय खुद के लिए इस धन को खर्च कर रहे हैं और पीएम मोदी की अव्यवहारिक ‘मेक इन इंडिया’ जैसी स्कीम से यह उम्मीद कर रहे हैं कि विदेशी कंपनियां आकर वहां निवेश करें।’ ”
संघी सोच से कैसे खेलो में कामयाबी मिलेगी सोचे ? Devanshu Jha
22 October at 22:30 ·
कबड्डी में भारत की जीत उतनी ही बड़ी है, जितनी बड़ी जीत क्रिकेट में भारत का दुबारा चैंपियन बनना थी । ईरान की हार में भारत का राष्ट्रवाद जीता है, नरेन्द्र मोदी की ताकत जीती है । मोदी असाधारण नेता हैं, अदभुत व्यक्तित्व जिन्होंने एक मरते हुए देश को जीने के सैकड़ों कारण दिये हैं । भारत की टीम को प्रणाम, भारत के बेजोड़ नेता के आगे नतमस्तक । भारत आगे बढ़ेगा, प्रदीप्त होगा, जलने वाले कीट पतंगों की तरह भस्म होते रहेंगे ”
शमाएल ग़ज़नफ़र बिन फ़ाएक़
शमाएल ग़ज़नफ़र बिन फ़ाएक़ कबड्डी की विश्व विजेता टीम एयरपोर्ट पर मायूस यह आज हिंदुस्तान की मुख्य हैडिंग है कबड्डी में भारतीय टीम को विश्व विजेता बनाने वाले खिलाड़ियों का रविवार को स्वागत करने नई दिल्ली हवाई अड्डे पर हरियाणा सरकार का कोई नुमाइंदा नहीं पहुंचा
यह उदासीनता तब है जब 14 सदस्य टीम में प्रदेश के 8 खिलाड़ी थे क्रिकेट के प्रति दीवानगी किसी से छुपी नहीं है लेकिन पारंपरिक खेलों के प्रति सरकार के नजरिया अब भी नहीं बदला है जबकी जीत पर सोशल मीडिया पर ट्वीट कर प्रधानमंत्री अभिनेता अमिताभ बच्चन मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत सिंह खेल मंत्री अनिल गोयल क्षेत्र की बड़ी हस्तियों ने बधाई दी थी इंदिरा गांधी हवाई अड्डे पर पहुंचे कबड्डी खिलाड़ियों की सुरक्षा उनके घर तक पहुंचाने और स्वागत की चिंता किसी ने नहीं दिखाई घर पर माँ ने तिलक लगाकर किया स्वागत #माता की जय
मेने भी ऊपर यही बताया था की वेज सेहत के लिए अच्छा हे और नॉनवेज ताकत के लिए , दोनों अलग अलग बात हे भारत के नम्बर वन ओलम्पियन गोलाफेंक खिलाडी विकास गौड़ा डेली ढाई किलो चिकन खाते हे और जैसा की लेख में बताया की वेज की खफ्त के कारण भारत खेलो में इतना पिछड़ा हे वही मुसलमानो में खासकर नॉनवेज की अधिकता के कारण तोंद डबल चिन आम हो चुकी हे Shambhunath Shukla
1 hr · मांसाहार और शाकाहार को लेकर मैं गांधीजी की तरह सदैव द्वंद में रहा. कई बार लगता था कि शारीरिक मजबूती के लिए मांसाहार जरूरी है फिर कई बार लगता था नहीं मनुष्य जब आनाज उपजाने लगा तो उसके लिए शाकाहार एक बेहतर विकल्प है. फिर धार्मिक और जातीय बंधन आड़े आए. मगर वहां भी द्वंद है. वैष्णव शाकाहारी हैं लेकिन उनके आराध्य राम तो खुद मांसाहारी थे. और शिव तो सर्वभक्षी हैं. रह गई ब्राह्मणों की बात तो गौड़, कान्यकुब्ज, सनाढ्य और जुझौतियों व सरयूपारीण तथा कुछ तमिल ब्राह्मणों को छोड़कर बाकी के ब्राह्मण तो अमूमन मांसाहारी होते हैं. लेकिन आज यह द्वंद मिटा डाक्टर Skand Shukla की एक पोस्ट से. डाक्टर साहब के अनुसार मनुष्य सर्वग्राही है. नुकीले दांत और नाखून इसकी पुष्टि करते हैं. उसका पाचन सिस्टिम भी सब कुछ पचाने के लिए अनुकूल है. मगर आज की जीवनशैली में यदि आप मेहनत नहीं करते तो फिर भोजन में कमी करनी होगी. मसलन शरीर के लिए आवश्यक आयरन कलेजी से भी मिलता है और पालक से भी. लेकिन कलेजी आपको कोलोस्ट्रोल भी देगी. इसलिए या तो इतना श्रम करिए कि मांसाहार हज़म कर सकें अन्यथा शाकाहार ही बेहतर. हाँ शारीरिक श्रम का मतलब दौड़ना, ब्रिस्क वाकिंग और फिजिकल एक्सरसाइज़ ही है रामदेव की तरह पेट फुलाने-पिचकाने या नाक दबाकर ऊर्ध्व श्वास लेने से कुछ नहीं होगा. अतः या तो खाना ‘बर्न’ करिए अथवा बंद करिए.Shambhunath Shukla
Skand Shukla
Yesterday at 05:41 ·
शाकाहार-मांसाहार पर पोस्टें ख़ूब आयी हैं। दोनों के अपने-अपने चाहने वाले हैं। अपनी-अपनी दलीलें हैं , विश्वास हैं।
मनुष्य एक सर्वाहारी प्राणी है , यह सत्य है। उसकी देह में स्थूल और सूक्ष्म स्तर पर दोनों ही के पक्ष में प्रमाण हैं। कई पोषक तत्त्व हरी वनस्पतियों से मिलते हैं , तो कई के लिए जानवर ही विकल्प हैं।
मांसाहार की तुलना में यह भी सही है कि शाकाहारी भोजन बहुधा सुपाच्य है। पालक से लोहा मिलता है , कलेजी से भी मिलता है। लेकिन कलेजी से कोलेस्टेरॉल भी मिलता है। ख़ून तो बढ़ेगा , हृदयाघात की आशंका भी बढ़ेगी।
लम्बी बात एक-एक तत्त्व , एक-एक रसायन पर की जा सकती है। लेकिन मोटी बात यह है कि मांसाहार के साथ दो बातों का ध्यान बहुत आवश्यक है। पहला खाये गये जानवर के दूध और मांस की गुणवत्ता। डेयरी-मीट जन्तु-उत्पाद हैं , उनमें थोड़ी भी लापरवाही आपको बीमार कर सकती है। ( हालांकि यहाँ भी पेस्टीसाइडों से लिपे फल-अनाज लगभग बराबर की टक्कर देते हैं।
दूसरा व्यायाम है। कुछ खाइए , अगर जलाएँगे नहीं : पक्का बीमार पड़ेंगे। न पालक बचाएगी , न मुर्गा। )
कसरत बीमारी के बाद नहीं शुरू की जाती। वह बचपन से आरम्भ करके मरने वाले दिन तक की जाती है। और वह पार्कों में योगासन के नाम पर शर्माजी-वर्माजी की अख़बारी गप्प नहीं होती : योग के नाम पर अधिकांश लोग प्रपंच करने निकलते हैं।
बाक़ी सांस्कृतिक पहलू इतने हैं कि मुसहर भी इसी देश में हैं और जैन भी। जो जितना सर्वाहारी है , उतना जीने के लिए एडजस्ट किये पड़ा है।Skand Shuklaajinder Singh
10 hrs · Jamshedpur ·
पड़ोसी तो गया दोनों आंखों से……???
बातचीत के क्रम में यूं ही मैं पूछ बैठा – आपने अपना वोट किस पार्टी को दिया।
उनका जवाब – बी जे पी को।
लेकिन क्यों – मैंने पूछा
उनका जवाब – क्योंकि यही एक पार्टी है जो इनको डण्डा कर सकती है। बाकी सब तो तुष्टिकरण में लगे हुए हैं।
इस जवाब को आप गलत या सही जो भी कहिये। लेकिन सच्चाई यही है। कि एक बहुत बड़े तबके ने बी जे पी को वोट केवल इसी एक वजह के कारण दिया।
आज जब जी डी पी गिर रही है। महंगाई बढ़ रही है। नौकरियां नही है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं। नोटबंदी असफल हो चुकी है। तमाम तरह के नकारात्मक हालात के बावजूद कही कोई हलचल नही। सुगबुहाट नही। विरोध नही। आम जन में कोई आक्रोश भी नही।
तो इसकी वजह सिर्फ एक है कि आमजन की प्राथमिकताएं आज भी वही हैं। जिस कारण से उन्हों ने वोट दिया। तीन तलाक, कॉमन सिविल कोड, राम मंदिर, धारा 370 , वंदे मातरम का गायन , गौ हत्या पर पाबंदी। इसलिए जितनी भी दुर्दशा हो जाये। भले लोगों को आधी रोटी खानी पड़े। लेकिन वोट वही जाएगा।
बी जे पी ने भी उनकी उम्मीदों को सार्थक करते हुए ये दिखा दिया कि कैसे यू पी में बिना उनके सहयोग के सरकार बनाई जा सकती है। ये एक नया प्रयोग था जो सफल भी रहा। लेकिन जिसके परिणाम भविष्य के लिए बहुत घातक हैं।
आखिर ऐसे हालात हुए क्योंकर। क्या ये एक दिन का नतीजा है। शायद नही। सालों से मुस्लिम तुष्टिकरण को देखता और सहता आया उदारवादी हिन्दू ने भी आखिर कट्टरता की राह पकड़ ली। ये उसका स्वभाव नही मजबूरी में उठाया गया कदम है। उसका ये कदम दरअसल बी जे पी के समर्थन में ना होकर तुष्टिकरण ताकतों के विरोध में था। और उस वक्त बी जे पी ही एक ऐसी पार्टी बन कर उभरी जिसमे उसे ये संभावनाएं नजर आयी।
आखिर ऐसे हालात के लिए जिम्मेवार कौन है। मेरे ख्याल में तुष्टिकरण में लगी पार्टीयां और मुस्लिमो की कट्टर सोच ने ऐसे हालात पैदा कर दिए। वंदे मातरम हो, योग हो , तीन तलाक हो , हर जगह इनकी सोच की कट्टरता ने इन्हें मुख्य धारा में शामिल होने भी नही दिया। एक देश के भीतर संविधान से इतर शरियत को मानने का आग्रह और दबाव भी अंततः इनके ही विरुद्ध गया।
मैंने बहुत पहले कहा था कि मुस्लिम कट्टरता उतनी घातक नही। लेकिन उसके जवाब में अगर हिन्दू कट्टर हो गया तो बहुत मुश्किल होगी। आज हम उसी मुश्किल से रूबरू हैं।
देश मे लाख समस्याएं हैं। लेकिन अब चूंकि बहुमत की प्राथमिकताएं अलग है इसलिए किसी को कोई फर्क नही पड़ता कि जी डी पी कहाँ जा रही है। बहुमत खुश है कि डण्डा हो रहा है।
वो कहानी तो आपने सुनी होगी कि जब कुछ मांगने पर ईश्वर पड़ोसी को उसका दुगना देने का वरदान देता है। तो व्यक्ति अपनी एक आंख फोड़ने को कहता ही।
आज हम भी अपनी एक आंख फुड़वा कर केवल इसलिए खुश हैं कि पड़ोसी तो गया दोनों आंखों से।Tajinder Singh
Rahul Shende
31 August at 12:18 ·
“शुद्ध शाकाहारी हिंदुओं से ज़्यादा जातिय हिंसा, लैंगिक छल और धार्मिक बर्बरता पूरी दुनिया मे कोई नही करता।”
― राहुल शेंडे.Rahul Shende
31 August at 12:05 ·
“जातिय घृणा से हर दिन कम से कम पाँच अछूत महिलायें रेप दी जाती हैं, छुतों द्वारा। और ये आँकड़ा तब का है जब भय के कारण सिर्फ़ 10% मामले रजिस्टर हो पाते हैं।
लेकिन जाति का सच बोलने से हिन्दू समाज की शांति भंग होती है, इसलिये मुँह बंद रखिये, और तब ही खोलिये जब सवर्णों का रेप हो। इस देश मे मोमबत्ती मार्च का रिवाज़ है, इसलिये मशालों को पानी मे भिगोये रखें।”
― राहुल शेंडे.Rahul Shende
2 September at 10:41 ·
“न मुझे बजरंगबली पसंद है, न बाहुबली और ना ही बकरे की बली, ईद मुबारक़ हो।”
राहुल शेंडेRahul Shende
17 hrs ·
“जब दुनिया भर की सभ्यताएं पब्लिक डेवलपमेंट में स्कूल, राजतंत्र और टॉयलेट डिज़ाइन कर रहीं थी, तुम पत्थरों की प्राण प्रतिष्ठा में लीन थे और आज जब दुनिया रोबोट बना रही है, तब भी यहाँ अछूत अपने हाथों से सर पर मैला ढ़ोने को मजबूर हैं, और ये भूखी बेरोज़गार हिन्दू जनता यहाँ राममंदिर पर बिलबिला रही है। ये है हिंदुत्व की असली औकात!” #StopManualScavenging
― राहुल शेंडे.Rahul Shende
15 hrs ·
“हिटलर तो फिर भी ज़हरीली गैस से मारता था, योगी तो ऑक्सीजन ही से मार देता है।” #मेरिटिया_योगी
― राहुल शेंडे.—————————————-Sanjay Shraman Jothe
7 hrs ·
बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न।
किसी भी धर्म से या आप्तपुरुष से कोई अनन्तकालिक उम्मीद नहीं की जा सकती। बुध्द के नाम पर भी कत्ल हो रहे हैं। किसी नाम से कोई निर्णय नही होता। अंतिम रूप से तर्क, संवेदना, मनुष्यता और समताबोध ही हमारे लिए आश्वासन है।
See Translation
Purushottam Agrawal
8 hrs ·
म्यांमार में रोहियांग मुस्लिमों पर ज़ुल्म कौन ढा रहा है?
ब्राह्मण परंपरा के वैदिक, वेदान्ती, सनातनी
या श्रमण परंपरा के बौद्ध?
चिढ़ाने के लिए नहीं
यह याद दिलाने के लिए पूछा कि
न क्रूरता पर किसी का एकाधिकार है न करुणा पर——————————— rakesh Gautam हे भोले बकरों।
तुम इन झूठे, लंपट पशुप्रेमियों की बातों में मत आना,
जीवन एक संग्राम है, मुक्ति ही समाधान है,
तुम्हारी इज़्ज़त ही इस वजह से है की तुम कटते हो,
जिस दिन इन झूठे पशु प्रेमियों की बातों में आकर तुमने कटना बन्द किया,
उसी दिन तुम आवारा हो जाओगे और चारे की जगह पॉलीथिन, कूड़ा करकट और यहां तक के लठ खाने पड़ेंगे।
ये सारे पशुप्रेमी शहरी पपलू हैं, ये फिर तुम्हे आवारा पशु कह कर अपने शहरों से दूर हमारे गांवो में धकेल देंगे,
अपने urban estate में ये तुम्हारी छांव तक नही पड़ने देंगे, फर
देखो भाई बकरों, हमारे गांवो में इनकी माता और पिता गाएं ने ही तबाही मचा रखी है, उस के साथ हर रोज़ हमारा संग्राम होता है, लठपुजारी होती है,
तुम बेचारे तो एक लठ भी सहन नही कर पाओगे, इनकी माताएं और पिता तो फिर भी 8-10 लठ सहन कर लेते है।
इन लंपट के माता पिता तक आवारा तो मेरे भाई बकरों हमारे गांवो से बहुत अच्छा है तुम्हारा बाड़ा,
हमारे गांवो में मत आना भाई लोगो,
तुम ईद पर यूँ ही कटते रहना, लोगो को यूं ही जन्नत का रास्ता दिखाते रहना,
मत आना भाई बकरों इन झूठो की बातों में।
कसाई अमीर
Dev Lohan——————-Sanjay Shraman Jothe
30 August at 09:45 ·
क्या देशप्रेम का ठेका आयुर्वेद और प्राणायाम ने ही ले रखा है? क्या सिर्फ शाकाहारी ही देशप्रेम के गीत गा सकते है? शिलाजीत, और कपालभाति में जितना देशप्रेम उभरता है उतना ही देसी चिकन करी और बिरयानी से क्यों नहीं उभर सकता?
दलितों आदिवासियों के अपने रोजगार हैं। चिकन, बकरा बकरी, सब्जी भाजी, दूध इत्यादि कई रोजगार हैं। इन सबसे देश की असली सेवा होती है।
भाई कुलदीप के पोल्ट्री फार्म से चिकन खरीदिये और उससे स्वदेशी पकवान बनाइये। पिज्जा बर्गर फ्रेंच फ्राइज जैसे विदेशी पकवानों का मोह छोडकर देसी पकवान बनाइये और अमूल्य भारतीय मुद्रा को विदेश जाने से बचाइये।
देशप्रेम दर्शाने का हर भारतीय का अपना तरीका और अधिकार है। हर जाति वर्ण और समुदाय अपने ढंग से देशप्रेम की घोषणा करें। किसी एक रंग के देशप्रेम का कोई परमानेंट ठेका नहीं है।
अपना अपना देशप्रेम अपनी भाषा मे व्यक्त कीजिये और धूर्तों की देशप्रेम की मोनोपाली को टक्कर दीजिये।—————-uldeep Pahad added 2 new photos — feeling जन्मदिन स्पेशल with Munesh Bhumarkar and 9 others.
30 August at 09:37 ·
#स्वदेशी_पकवान_खाइए, #विदेशी_लूट_से_छुटकारा_पाइए
मैकडोनाल्ड और KFC जैसीे विदेशी कम्पनियों के विदेशी पकवान जैसे बर्गर, पिज़्ज़ा, फ्रेंच फ्राई और चिकन खाकर आप देश की अमूल्य मुद्रा विदेशों में भेज रहे हैं।
आप हमारे अपने स्वदेशी चिकन और स्वदेशी चिकन करी, टिक्का, बिरयानी, तंदूरी चिकन जैसे लजीज भारतीय पकवान खाइये।
भारत की अर्थव्यवस्था एवं भारतवासियो को मजबूत कीजिये।
हमारे जय भारत पोल्ट्री पर स्वदेशी चिकन और बाबा फेमिली रेस्टोरेंट & ढाबे पर स्वदेशी पकवान ऑर्डर कीजिये और देशभक्ति – देशप्रेम का परिचय दीजिये।
देश को विदेशी लूट से बचाइए।
भारत माता की जय
जय भीम जय भारत
आपका अपना साथी
कुलदीप पहाड़
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Kuldeep Pahad
Kuldeep Pahad क्या सिर्फ शाकाहार ही देश प्रेम का प्रतिक है जबकि जिस समय यह भारत देश सोने की चिड़िया हुआ करता था उस समय चमड़े का व्यापार सबसे बड़ा काम था इस देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का।
और आज भी मांशाहार एक बड़ी इकाई है देश को मजबूत अर्थ नीति देने के लिएudhir Meshram कंहा है भाई ये ढाबा
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Like · 2 · 31 August at 16:26
Manage
Kuldeep Pahad
Kuldeep Pahad मध्यप्रदेश के बैतूल जिले में भोपाल नागपुर हाइवे 47 पर ससुन्द्रा चेकपोस्ट के पास
स्मार्ट सिटी और “मूढ़ सभ्यता” का आपसी संघर्ष- संजय जोठे
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स्मार्ट सिटी का सपना भारत मे क्यों कठिन है ये समझना होगा। इस मुद्दे को आप भारत के धर्म की नागर जीवन के प्रति दी गयी सलाह को समझे बिना नहीं समझ सकते। मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, आपस्तंब धर्मसूत्र सहित अन्य धर्म शास्त्रों में नगरीय जीवन की निंदा की गई है। वर्तमान इस्लामिक (अरबी) और ईसाई (यूनानी) जीवन व्यवस्था का विकास रेगिस्तान में नगर बसाते हुये या कबीलों के बीच सिटी स्टेट बसाते हुए हुआ है। इसलिए ये सभ्यताएं और संस्कृतियाँ हिन्दू व्यवस्था की तुलना में नगरीय जीवन के लिए अधिक योग्य हैं।
ईसाई और इस्लामिक व्यवस्था के विपरीत वर्तमान हिन्दू जीवन व्यवस्था का विकास प्राचीन नगरीय जीवन और नगरीय सभ्यताओं को विनाश करते हुए हुआ है। इंद्र का एक नाम पुरन्दर है, अर्थात नगरों का नाश करने वाला। कर्मकांडीय शुचिता के जो शास्त्रीय मानक हैं उसमें कोई भी मन्त्रपाठी ब्राह्मण अपने पवित्र मंत्रों का पूरा लाभ एकांत, वन या गांव में ही ले सकता है। उसकी कर्मकांडीय सफलता शहरों में सीमित हो जाती है। धर्मशास्त्र साफ शब्दों में ब्रह्मचारियों और वेदपाठियों को नगरों में न आने की सलाह देता है और कुम्भीपाक जैसे नरकों का भय दिखाता है। सामान्य मानसिकता भी यही है कि नगर की सुख सुविधा में जीने वाला व्यक्ति अनैतिक है और गांव के अभाव, भुखमरी, एकांत आदि में जीने वाला व्यक्ति सदाचारी होता है।
ये सिर्फ एक उदाहरण है। ऐसे लाखों ठोस प्रमाण हैं जो सिध्द करते हैं कि हिन्दू समाज नगरीय जीवन के साथ तालमेल बैठाने में मुस्लिमों और ईसाइयों की तुलना में बहुत पीछे है। अरब की इस्लामिक व्यवस्था रैगिस्तान की असुरक्षित और कठोर परिस्थितियों में किलेनुमा शहरों में आश्रय खोजती है।
गांधी ने जिस तरह गांव को रोमांटिसाइज किया है उसमें हिन्दू प्रेस्क्रिप्शन का जहर भरा हुआ है। साफ नजर आता है कि हिन्दू व्यवस्था और नगरीय जीवन मे विरोध का रिश्ता है। हमारा सौभाग्य है कि नेहरू ने गांधी की नहीं सुनी और शहरों पर ध्यान दिया
नगरी जीवन की स्थाई व्यवस्था के प्रति सभी धर्मों में दो तरह के दृष्टिकोण रहे हैं। इस्लाम मे सूफी फकीरों के विभाजन भी नगरी जीवन या यायावरी के आधार पर ‘अल-सफ़री’ (हमेशा सफर करने वाले) और ‘अल-मुकीम’ (एक मुकाम पर टिके रहने वाले) के रूप में हैं ठीक इसी तरह बौद्ध मठों के ‘अल मुकीम’ और ‘अल सफ़री’ भिक्खु भी थे, जैन मुनि भी लगातार चलते हैं वे भी ‘अल सफ़री’ के ही उदाहरण हैं। हिंदुओं में भी मठ या आश्रम में जीने वाले और भृमण करने वाले के रूप में है।
बाद के दौर में सामाजिक आर्थिक विकास के साथ हिन्दू धर्म के अलावा अन्य धर्मों और सभ्यताओं ने, विशेष रूप से इस्लाम और ईसाइयत ने नगर के केंद्र में मस्जिद और चर्च को प्रमुखता देते हुए सामूहिक प्रार्थना या साप्ताहिक मास के रूप में सामूहिकता और इंसानी बंधुत्व को विकसित किया। इस तरह उन धर्मो के साथ नगरीय जीवन का और नगर प्रबन्धन की धारणा का विकास तेजी से हुआ।
इसके उलट हिन्दू धर्म ने मंदिर को अधिकांश जनसँख्या के लिए अनुपलब्ध बना दिया। कुओं, तालों, सड़कों, जंगलों पर सामूहिक आधिपत्य के बोध के व्यवस्थित ढंग से हत्या की ये हिंदुओं का रिकॉर्डेड इतिहास है। आज और अभी भी हिंदुओं में सामूहिक जीवन के निषेध, एकसाथ भोजन के निषेध, आपस में गुल मिलकर रहने की संभावना का निषेध बना हुआ है। अभी भी एकांतवासी, आत्मपीडक मुनि या ब्रह्मचारी या भिक्खु का भारी सम्मान बना हुआ है। ये सम्मान असल मे सामान्य नगरीय जीवन के समाजशास्त्र के लिए घातक होता है।
ईसाई और इस्लामिक व्यवस्था में वनवासी या आत्मपीडक मुनि या गुरु का कोई सम्मान नहीं है। वे शहरों में आम जनता के बीच सामान्य जीवन जीने वाले लोगों में से अपने धर्मगुरु चुनते आये है। इन चुने हुये लोगों में नगरीय जीवन के प्रति नगर की सुख सुविधा के प्रति कोई चिढ़ या निंदा की भावना नहीं होती। इसके विपरीत हिन्दू धर्मगुरु और वैरागी बाबा लोग नगरीय सुख सुविधा और सुरक्षा के हमेशा खिलाफ रहे हैं।
इस सबका परिणाम सामने है। ईसाई और मुस्लिम देशों में नगरीय जीवन का प्रबंधन भारत की तुलना में बहुत बेहतर है। हालांकि जिन इस्लामिक मुल्कों में पहले हिन्दू प्रभाव था वहां के शहर अभी बहुत बेहतर नहीं हैं, कारण भी साफ है, धर्म बदलने से जीवन शैली पुरी तरह नहीं बदलती।
नगर या सिटी का मतलब होता है अन्य मनुष्यों के साथ सहकार और समता बनाए हुए जीना। सामूहिक प्रयास करना। सड़कों, नालियों स्नानागारों, तालाबों आदि पर सामूहिक आधिपत्य और सबके समान अधिकारों का सम्मान। और दर्भाग्य से समानता, सामूहिकता और सामूहिक प्रयास हिंदू जीवन व्यवस्था के लिए अजनबी सी बातें हैं।
अपना घर गंगाजल और मन्त्र-अनुष्ठान आदि से साफ करके या पवित्र करके पूजा सामग्री आसपास की नदियों, कुओं में फेंक देना एक सामान्य व्यवहार है। पवित्र नदियों में लाशें बहा देना धार्मिक काम है। साल भर अपने घर के आसपास नालियां सड़कें कैसी भी सड़ रही हों लेकिन उसी सड़क पर दस दिन के लिए देवी देवता का फाइव स्टार पंडाल लगाने के लिए करोड़ो का चंदा करेंगे। और किसी को शर्म भी नहीं आती कि ये सब क्या है।
हिन्दू जीवन व्यवस्था का अन्धविश्वास और नगरीय जीवन के खिलाफ दी गयी उनकी हजारों साल की ट्रेनिंग भारत के शहरों पर भारी पड़ रही है। जिन सभ्यताओं ने नागरी जीवन के प्रबंधन और सुख सुविधाओं का विकास किया है उनके धर्म और सभ्यता को भी गौर से देखिये। अगर आपका मन पाषाण युग मे हवन कर रहा है तो आप कम्प्यूटर युग के शहरों को यूरोप या अरब अमेरिका की नकल करके बना जरूर सकते हैं लेकिन उन्हें चला नहीं पाएंगे। हमारे शहरों में हर साल जो बाढ़ गन्दगी और बीमारी आती है वो साफ बताती है कि सभ्यता उधार में नहीं ली जा सकती।
संजय शर्मा जोठे
Sanjay Shraman Jothe
Yesterday at 00:13 ·
एक आयुर्वेदाचार्य मिले, भोजन पर चर्चा निकली। कहने लगे भारत का भोजन सर्वोत्तम है, भारतीयों की किचन में जितने मसाले हैं वे सब औषधियां हैं। हर एक मसाले का बखान करते गए, इससे ये होता है उससे वो होता है इत्यादि।
मैंने पूछा कि अगर भारतीय भोजन इतना ही अच्छा है तो भारतीय कौम इतनी ठिगनी और कमजोर कुपोषित क्यों है? भारत दुनिया की डाइबिटीज केपिटल क्यों है?
इसका कारण उन्होंने बताया कि पाश्चात्य जीवन शैली अपनाने के कारण भारतीय कमजोर हो रहे हैं। शारीरिक श्रम नहीं कर रहे हैं चीनी नमक शक्कर ज्यादा खा रहे हैं। इसलिए भारतीयों में डायबिटीज फैल रही है।
तो फिर ये औषधि रूपी मसाले क्या गुल खिला रहे हैं जिनकी आपने तारीफ की? ये शरीर को स्वस्थ क्यों नहीं बना रहे? मैंने पूछा
वे बोले कि मसाले स्वयं में पोषण नहीं हैं ये पचाने में मदद करते हैं।
पचाने के लिए भारतीय भोजन में क्या चीजें हैं? मैने पूछा
वे फिर बोले सात्विक भोजन श्रेष्ठ है जैसे सब्जियां, दालें, रोटी चावल सलाद आदि।
मैंने फिंर सवाल किया कि एक आम लोअर मिडल क्लास भारतीय का भोजन क्या है? कितनी दाल सब्जियां और सलाद खाता है? मेरी समझ मे एक सब्जी या एक पतली दाल और चार पांच रोटी से ही रोज पेट भरा जाता है, सलाद के नाम पर प्याज टमाटर के दस बीस टुकड़े और क्या?
वे बोले, कि यही तो भोजन है और क्या हो सकता है?
उनसे फिंर पूछा कि प्रोटीन और फाइबर कहाँ से मिलेगा? आपके मसाले पचाने में मदद जरूर करते हैं लेकिन इन मसालों की मदद से जिस चीज को पचाना है वो चीज क्या है और एक आम भारतीय की थाली में कहां है?
लाख कोशिश करने के बाद भी वे मांसाहार को भोजन में प्रोटीन के स्त्रोत की तरह नहीं देखना चाहते।
ये भारतीय आयुर्वेद और उनके आचार्य हैं, और ये है इससे निकलने वाला भोजन दर्शन।Sanjay Shraman JotheSanjay Shraman Jothe
11 September at 13:37 ·
बेहतरीन टिप्पणी, सहेजने योग्य
Pradeep Kasni
2 September at 09:12 ·
डेरों का प्रमुख दुष्कर्म ये नहीं है कि वहाँ कोई ग़ैर-इन्सानी या अप्राकृतिक यौनाचार और मौजमस्ती की गुंजाइश निकाल लेता है, बल्कि ये है कि डेरों को मूल रूप से बनानेवाले किसान, शिल्पकार, दुकनदार और बेरुज़गार जो भी लोग — हिन्दू और मुसलमान, बग़ैर बाहमी साम्प्रदायिक नफ़रत के — उससे जुड़ते हैं उनको डिसैनफ़्रेन्चाइज़ या अधिकारविहीन करते हुए वहाँ निजी सम्पत्ति की गुंजाइश निकाल ली जाती है।
डेरासंस्था अपने मौलिक स्वरूप में मध्यकालीन कमाऊ निम्नस्थ घरानों के एक ‘कम्यून’ की सूरत हुआ करती जिसके जरिये लोगों को सुरक्षाबोध और आर्थिक स्वावलम्बन का हासिल मिलता था। मध्यकाल में जहाँ बेलग़ाम जागीरदाराना (या राजाशाही) धींगामस्ती का आलम देखा जाता था और लूटमार करते राजाओं और धर्माधीशों के बनिस्बत बेटियों का भात भरते और मुसीबतज़दाओं की मदद करते डाकू ग़रीबों को कहीं ज़्यादा संस्वीकार्य होते थे, डेरे किसी तरह बरसरे-इक़्तिदार हो रहने या अपनी चौधर की ठुक फैलाने के लिये नहीं, बल्कि मुख्यतया आमअवाम के लेखे अपना आत्मसम्मान बचाते हुए किसी तरह जी लेने की सहूलत देनेवाले सामूहिक साधन व सुरक्षाचक्र की बशक़्ल हुआ करते थे। धार्मिकता उनका ध्येय था ही नहीं। भक्त होने का मत्लब था हिस्सेदारान या स्टेकहोल्डर्स होना।
यह डेरों के जनविद्वेषी अवपतन का दौर है। लेकिन और भी महाविकराल त्रासदी ये है कि डूबते लोगों के तिनके की शक़्ल में अतिजीवित डेरों का वह तिनका तो छिन रहा है पर उसकी जगह कोई विकल्प नहीं दिया जा रहा।
डेरासंस्था की ऐतिहासिक अत्यावश्यकता को भी पहचाना जाना चाहिये। उसमें दाख़िल की गयी विकृतियाँ जितनी भीतर से उद्भूत हैं, उससे कहीं ज़्यादा बाहर से या ऊपर से थौंपी गयी हैं।
…और भी।
ये लेख मेने यु ही लिख दिया था बाकी कई लेखकों की तरह से में कोई एजुकेटिड अकादमिक और टेलेंटिड भी नहीं हु अधिकतर जीवन की पाठशाला से मिले सबक से ही लिखा हे ये लेख भी मेने यु ही लिख दिया था मुझे कोई कॉन्क्रीट जानकारी नहीं थी हां लिखा ईमानदारी से था ऐसा लग रहा हे की लेख वाकई बिलकुल सही हे खेलो में भारत की बेमिसाल दुर्गत का राज़ हिन्दू कठमुल्वाद उसकी असमानता और हिन्दू शाकाहारी संकीर्णता ही हे मेरा खुद का अनुभव ये बता रहा हे मेने जीवन में कभी नॉनवेज का कोई खास शौकीन नहीं रहा खासकर खाली नॉनवेज हो खाने में दाल सब्ज़ी सलाद फल वगैरह ना हो तो ये मुझे बिलकुल पसंद नहीं रहा मगर पिछले सालो में मेने फिटनेस पर काफी ध्यान दिया और ध्यान मतलब मुझे सिर्फ हेल्थी ही नहीं रहना था बल्की मुझे ताकत चाहिए हे पॉवर चाहिए दमखम चाहिए सिर्फ निरोग ही नहीं रहना हे ताकत चाहिए कुछ थोड़ी बहुत वैसी ही जैसी एथलीटों के पास होती हे क्रिकेट को छोड़कर लगभग हर खेल के खिलाडी के पास होती हे फिर ये भी हे की जिस संघर्ष भरे रास्ते पर हम चल रहे हे उसमे कामयाबी नामुमकिन हे और .o1 % चांस भी हुआ तो अगर मिली भी तो 45 50 या उसके बाद ही मिलेगी तो कोशिश ये हे की उस एज में भी हमारे पास वही ताकत रहे जो तीस के वय में होती हे तो मेने ताकत फिटनेस पर काफी ध्यान दिया फुटबॉल खेला हाफ मेराथन और अब जिम भी , तो मेने ये परिवर्तन महसूस किया हे की अब मेरी नॉनवेज खाने की चाहत और कूवत में काफी इज़ाफ़ा हुआ हे इससे यही रिज़ल्ट सामने आया की भारत में सबसे अधिक पैसा और संस्धान जिस शुद्ध शाकाहारी हिन्दू कम्युनल वर्ग के पास हे उसमे दमखां ही नहीं हे वो सिर्फ खून चूस सकता हे और वो खेलो में कुछ भी कर ही नहीं सकता हे इसलिए सेनेगल और आइसलैंड जैसे हमारे कस्बे जैसे देश भी फुटबॉल वर्ल्ड कप खेलते हे और भारत के अभी बीस साल भी चांस नहीं हे बहुत से लोग शाकाहार को इंसानियत से जोड़ते हे तो भाई अपना बता दू इंसानियत में भी हम बहुत ही आगे हे इंसानियत और आदर्शो के कारण ही मध्यमवर्गीय होते हुए भी मुद्रा स्फीति को जोड़ ले तो लगभग दो करोड़ के आस पास का नुक्सान और दो दो मौते झेल चुके हे तीसरा बाल बाल बचा हे किसी भी शुद्ध शाकाहारी को सामने रख लो और हमे रख लो में साबित कर दूंगा की हममे उससे ज़्यादा ही इंसानियत और सवेंदनशीलता हे इस विषय में सारे सबूत हे मेरे पास ह
Zaigham Murtaza
Yesterday at 01:00 ·
फीफा विश्व कप 2018 के 32 प्रतिभागियों में से 7 टीम ईरान, सऊदी अरब, मिस्र, मोरक्को, ट्यूनीशिया, नाइजीरिया और सेनेगल मुस्लिम बाहुल्य देश से हैं। जबकि सीरिया क्वालिफाई करते-करते रह गया और इराक़ आख़िर तक लड़ कर बाहर हुआ। कुल 12 टीम हैं जिनमें कम से कम 1 मुस्लिम खिलाड़ी ज़रूर है। कुल 154 मुस्लिम खिलाड़ी इस विश्व कप में शिरकत कर रहे हैं। इनमें जर्मनी के मेसुत ओज़िल, समी ख़दीरा, मिस्र के मोहम्मद सालाह, मोहम्मद अल नेनी, अहमद हिज़ागी, बेल्जियम के मेरोन फेलएनी, अदनान जानुजाज़, मूसा डेंबेल, फ्रांस के आदिल रेमी, उस्मान डेंबेल, नबील फेकिर, स्विट्ज़रलैंड के जोहान ज्योरो, ज़ेरदान शकीरी, ग्रेनित ज़का, हारिस ज़ेरेकोविच, रूस के दलेर कुज़ायेव, मोरक्को के मेहदी बनातिया, हमज़ा मेंडिल, अकराफ हकीमी, नाइजीरिया के अहमद मूसा, सेनेगल के ख़ालिदू कोलिबअली, सादियो माने, ट्यूनीशिया के वहबी ख़ज़री, योहान बेनालुआने, ऑस्ट्रेलिया के अज़ीज़ बेहिख, ईरान के मसूद शुजाई, करीम अंसारीफर्द, अलीरज़ा जहानबख़्श जैसे खिलाड़ी यूरोप के बड़े क्लबों में खेलकर नाम कमा रहे हैं। इनमें सिर्फ सऊदी अरब की टीम के तमाम खिलाड़ी घरेलू लीग से हैं। इनमें शिया, सुन्नी, वहाबी, सलफी, एशियाई, अफ्रीकी, ऑस्ट्रेलियाई और यूरोपीयन भी हैं। बड़ी बात ये है कि इन 154 खिलाड़ियों में से ज़्यादातर ग़रीबी, गॄह युद्ध, नस्लीय हिंसा, विदेशी आक्रमण और आतंकवाद पीड़ित देशों के नुमाइंदे हैं। इनमें आर्थिक प्रतिबंद, साम्राज्यवाद, युद्ध और पलायन की विभीषिका झेल चुके इंसान हैं। ये अपने अपने मुल्क के लिए खेल रहे हैं लेकिन मज़हब के अलावा दर्द, इंसानियत, फुटबॉल और इनका शानदार खेल इन्हें आपस में जोड़ते है। बाक़ी मोरल ऑफ द स्टोरी ये है कि न सारे मुसलमान बम फोड़ते हैं और न सारे मुसलमान पंचर लगाते हैं… मौक़ा मिले तो ये अपने मुल्क के लिए लड़ते भी हैं और गोल भी करते हैं ?
Sanjay Shramanjothe
14 June at 09:52 ·
लीजिये सबूत हाजिर है। भारत की अधिकांश जनसंख्या मांसाहारी है।
लेकिन फिर भी इस देश की 15 प्रतिशत से अधिक आबादी पुलिस और फ़ौज की नौकरी के लिए फिट नहीं है।
कारण ये कि मांसाहार की मात्रा पर्याप्त नहीं है, औसत परिवार को जितना मांस चाहिए उतना उपलब्ध नहीं है।
तमाम योग, आयुर्वेद, ज्योतिष, तन्त्र मन्त्र, दादी के नुस्खे, बंगाली बाबाओं और गंडे ताबीजों के बावजूद भारत दुनिया की डाइबिटीज केपिटल है।
इसका श्रेय उस धार्मिक पाखण्ड को जाता है जो मांसाहार की निंदा करके शाकाहार में उलझाये रखता है। एक आम भारतीय की प्रोटीन की खुराक अल्पपोषित ही रह जाती है।
शाकाहार से प्रोटीन की पूर्ती करना कठिन और महंगा काम है, खासकर भारत की गरीबी इसे असंभव बना देती है।
भारत की जनता को बड़े पशुओं के सस्ते मांस की सख्त जरूरत है।Archana Buddhamitra
Archana Buddhamitra शाकाहार पूरी तरह से क्लास और कास्ट से सम्बंधित है. बहुजन इसे अफोर्ड नहीं कर सकते. और महंगा शाकाहारी भोजन भी बहुजन ही अपनी मेहनत से पैदा करेगा लेकिन खुद नहीं खा पायेगा.
अक्सर शाकाहारी दुसरो के खाने को कण्ट्रोल करते है और अपनी इस व्यकिगत चॉइस से अपने आप को मांसाहारी से ऊपर समझते है. भेदभाव की पहली पाठशाला इसी खान पान से शुरू होती है
Sanjay Shramanjothe
11 hrs ·
भक्त: ऋषिवर, ये विश्वगुरु के सपूत फुटबॉल क्यों नही खेलते ? मुट्ठी भर जनसंख्या वाले देश चैंपियन बन रहे हैं और हम करोड़ो लोग सिर्फ ताली बजा रहे हैं। यह क्या रहस्य है प्रभु?
ऋषिवर: वत्स ये एक अन्य गूढ़ रहस्य है जंबूद्वीप के सूरमाओं का, ध्यान से सुनो। फुटबॉल एक असभ्य खेल है इसमें मजबूत पैरों और “बॉल्स” की जरूरत होती है जो हमारे पास आरंभ से ही नहीं है। विश्वगुरु के सूरमा जमीन पर चलने या दौड़ने के लिए नहीं बल्कि परलोक और वैकुंठ में उड़ने के लिए बने हैं।
हमसे आसमानी और हवा हवाई बातें करके देखो, फिर हम तुम्हे सड़क किनारे “बैठे” हुए वहीं कान में धागा लपेटे हुए मिट्टी में नाखून से पुष्पक विमान और ब्रह्मलोक का नक्शा बनाकर दिखाएंगे।
हम लोग सभ्य खेल खेलते हैं वत्स, सभ्य खेलों में पैर की या “बॉल्स” की मूवमेंट्स नहीं देखी जाती बल्कि मुख से बीज-मन्त्र के जाप की और फेफड़ों के प्राणायाम की क्षमता देखी जाती है।
हमारे प्रिय खेल में पैरों से बॉल को मारकर गोल तक नहीं पहुंचाया जाता बल्कि गोल की तरफ बढ़ रहे पैरों को खींचकर औंधे मुंह गिराया जाता है।
यही विश्वगुरु की सनातन सँस्कृति रही है। हमारा प्रिय खेल हमारी संस्कृति का दर्पण रहा है वत्स।
भक्त: आप किस खेल की बात कर रहे हैं ऋषिवर मै कुछ समझा नहीं!
ऋषिवर: समझो वत्स, हम कबड्डी की बात कर रहे हैं। विश्वगुरु किसी भी सजीव या निर्जीव वस्तु को उसके अपने गोल या लक्ष्य की तरफ जाने देने के लिए नहीं बैठे हैं। विश्वगुरु सबको गोल या लक्ष्य से भटकाकर राह में टांग खींचने के लिए अवतार धरे हैं। लक्ष्य तक पहुंचाना नहीं बल्कि मार्ग से भटकाना हमारे खेल का मुख्य सन्देश है।
फुटबॉल में हो रहा सामूहिक उद्यम हमारी सँस्कृति और दर्शन के खिलाफ है। योजना बनाकर सहकार करना और सबके आनन्द के लिए बॉल को गोल पोस्ट में डालने या लक्ष्य तक पहुंचाने का अभ्यास भारतीय संस्कृति और वर्ण व्यवस्था के लिए घातक है।
इसीलिए समस्त ऋषिगण कबड्डी-कबड्डी जैसे बीज-मन्त्रजाप और सांस रोके रखने जैसे प्राणायाम और योग में देश की प्रजा को फसाकर धीरे से उसकी टांग खींचते हैं।
जपकर्ता और नौसिक्खड़ प्राणायामी जनता को पता भी नही चलता कि उसे जप प्राणायाम और योग क्यों सिखाया जा रहा है, जब तक वो समझ पाए तब तक विश्वगुरु उसकी टांग खींचकर डिबेट का मुद्दा और सरकार दोनों बदल देते हैं।
अब तुम ही बताओ वत्स, उन विधर्मियों के फुटबॉल नामक खेल में सनातन संस्कृति की सेवा करने की ऐसी विराट संभावना कहाँ है?
भक्त: अहो ऋषिवर, अद्भुत! कबड्डी और फुटबॉल के इस अंतर में इतनी विराट देशना छुपी है… अनुपम!
– संजय श्रमण
https://www.youtube.com/watch?v=U0bh-eKmdhg
Deepali Tayday
Yesterday at 01:33 ·
पूरी दुनिया बदल रही है, अपनी गलतियाँ सुधार रही है और उनके निर्णयों में ये सुधार और बदलाव दिख भी रहा है। लेकिन बस भारत को ब्राह्मणों ने नाश कर रखा है……सुधार की बजाय कुंद कर दिया है।
फ्रांस की फ़ुटबॉल टीम में 50% प्लयेर अफ़्रीकन है। उनमें भी अधिकतर मुस्लिम हैं। टीम के दो तिहाई सदस्य दूसरे देशों के हैं।काले रंग के प्रति नफ़रत, इस्लामोफोबिया और रंगभेद से ऊपर ऊठने के कारण ही फ्रांस दूसरी बार फीफा वर्ल्डकप फुटबॉल जीत सका है। जहाँ गोरे रंग और प्योरिटी का कॉन्सेप्ट था वहाँ अब नस्लीय विविधता को स्वीकार कर बदलाव लाया जा रहा है।
और हमारे देश में ??
हमारे देश में भगवान बीमार हो रहे, मूर्ति को लोग काढ़ा पिला रहे, डॉक्टर मरते लोगों को छोड़कर पत्थर की सांसें चेक कर रहे। जनेऊधारियों ने लोगों का दिमाग इतना बन्द कर दिया है कि बदलाव तो दूर की बात मिनीमम ह्यूमिनिटी भी नहीं निभाते बन पा रही है।
बहरहाल फ़्रांस को इस नस्लीय विविधता वाली शानदार टीम के साथ फीफावर्ल्डकप जीतने की बधाई……??
क्रोशिया भी शानदार खेला।
#Kaala
#PowerOfBlack
#FIFA
Devanshu Jha
Yesterday at 09:03 ·
क्योंकि दुनिया में सबकुछ गोरा काला ही नहीं है…!
कल फ्रांस और क्रोएशिया के मैच से पूर्व और मैच के बाद कई भावुक और वामपंथी विचारक इस बात से उद्वेलित दिखे कि फ्रांस जैसे नेपोलियन के देश को आज अश्वेत मार्टिन लूथरों ने विजय के आलोक से भर दिया । गर, फ्रांस इन अश्वेतों के बिना ही विजयी हुआ होता जैसा कि 1998 में हुआ था तो उसकी विजयरेखा उतनी उज्ज्वल न होती !
वामपंथ की एक रीत है ।वह हर विषय में अनावश्यक भेद खोजता है । सदाचिंत्य भेदाभेदवाद के प्रवर्तक !!! यानी,अगर कोई अश्वेत है तो निश्चय ही दलित होगा ! सताया हुआ! फिर चाहे फुटबॉलर हो या महिषासुर ! इसी भेद को जीवित रखकर वह संवेदना के लिए खाद पानी जुटाता है और दुनिया कह उठती है कि देखो वामपंथी कितने न्यायी हैं । यहीं से विनोद कांबली जैसे अयोग्य और अनुशासनहीन खिलाड़ी के साथ सचिन के अन्याय किए जाने की ज़मीन तैयार होती है और वामपंथी, दलित चिंतक प्रचारित करते हैं कि कांबली के साथ भेदभाव किया गया ।
आश्चर्य है कि भारतीय ट्रैक एंड फील्ड के इतिहास में जब कोई हिमा दास पहली बार स्वर्ण पदक जीत कर राष्ट्रगान सुनते हुए रो पड़ती है तब वामपंथी चुप रहते हैं । हिमा दास भी काली है, बहुत दरिद्र पिता की बेटी है । परंतु, वहां भेदभाव की ज़मीन कैसे तैयार हो ? बिचारी तो देशप्रेम में डूबी हुई थी। ऊपर से राष्ट्रगान सुनकर भावविभोर हो रही । भले ही वह भूखी रही पर देश को क्यों कोसना ? हर बात में भेद क्यों देखना ? क्योंकि दुखी या दरिद्र तो गोरा भी सकता है । मेरे गांव के ही कई पंडित जी विकट दरिद्री में जीवन काट रहे हैं ।
देखिए, हमारे तो भगवान राम भी श्यामल हैं । नीलाम्बुज श्यामल कोमलांगम् …..पर, वे तो आर्यदेव ठहरे! उन्होंने तो रावण जैसे दलित राक्षस को मार डाला ! उनका कैसा सम्मान और उनसे कैसा स्नेह !
यह काला गोरा का भेद हर जगह नहीं चल पाता । पेले काले हैं । काले रहकर ही हजार गोल दागे । सम्मान में दुनिया झुकी रही । विव रिचर्ड्स से लेकर वेस्टइंडीज के दसियों धुरंधर एकदम झक्क काले रहे पर सम्मान कम न हुआ । अनावश्यक रंगभेद पैदाकर सहानुभूति जगाना एक फर्जी भावुकता है । इमोश्नल फ़ूल बनाने का ड्रामा । चैंपियन या विजेता सिर्फ़ नायक होते हैं !!काले या गोरे नहीं होते !!!!
#France
गिरराज वेद शाकाहार एक हिंसक अवधारणा
————————–कई जगहो पर जैन पर्यूषण पर्व के दौरान मांस की बिक्री पर सरकारी प्रतिबंध लगा दिया जाता है, तो सावन मास और नवरात्रि के दौरान हिंदी पट्टी क्षेत्रों में सामाजिक प्रतिबंध लग जाता है !
ऐसे वक़्त में अधिकतर शाकाहारियों का तर्क होता है कि जैन धर्म में हिंसा वर्जित है और पर्यूषण पर्व के दौरान कुछ दिनों के लिए मांस की बिक्री और जानवरों के कत्ल पर प्रतिबंध जायज है यही तर्क नवरात्रि और सावन माह के दौरान दिया जाता है !
जबकि वैज्ञानिक प्रमाण कहते हैं कि यह गलत धारणा है ! मांसाहार की तुलना में शाकाहार कहीं ज्यादा हिंसक विकल्प है !
हाल ही में ऑस्ट्रेलिया में गेहूं और दूसरे अनाजों के उत्पादन से जुड़े कुछ आंकड़ों से ऐसे ही दो निष्कर्ष साफ-साफ देखने को मिलते हैं !
जिससे पता लगता है की शाकाहार से –
1- पर्यावरण को ज्यादा नुकसान पहुंचता है !
2- मांस उद्योग से ज्यादा हिंसा खेती में होती है. इंसानी शरीर के लिए उपयोगी एक किलोग्राम प्रोटीन के उत्पादन में शाकाहार में 26 गुना ज्यादा जीव मारे जाते हैं !
अनाज उत्पादन के लिए पहली शर्त होती है कि खेत तैयार किए जाएं. इसके लिए स्थानीय वनस्पतियों को नष्ट किया जाता है और इस दौरान इन पर निर्भर रहने वाले जानवरों की भी मौत हो जाती है !
अब मान लिया जाए की शाकाहार का चलन बढ़ता है तो अनाज का और उत्पादन बढ़ाना पड़ेगा ! इसके लिए और जमीन साफ की जाएगी यानी और वनस्पति नष्ट होगी !
उत्पादन बढ़ाने का दूसरा तरीका है कि और सघन खेती की जाए. इसके लिए ज्यादा कीटनाशकों और उर्वरकों की जरूरत होगी जो पर्यावरण को और नुकसान पहुंचाएंगे !
इस शोध में पाया गया की जिन जानवरों का मांस खाया जाता है वे सभी चारागाहों पर पलते- बढ़ते हैं ! ये जानवर मूल रूप से स्थानीय वनस्पतियों या घास पर निर्भर रहते हैं ! ये घास या वनस्पतियों को नष्ट नहीं करते बल्कि उस जगह की मूल जैव विविधता को बरकरार रखते हैं ! चारागाहों में अनाज नहीं उगता इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि यहां से मिलने वाले मांस का खेती-किसानी पर कोई बुरा प्रभाव पड़ता हो !
अब हम इस बहस के एक दूसरे पक्ष, जीव हिंसा पर गौर करते हैं – एक भैंसे का औसतन वजन 300 किलो होता है इसमें 72 प्रतिशत बोनलैस मीट होता है इस मीट में 23 प्रतिशत प्रोटीन होता है. यानी एक जानवर के मारे जाने पर 50 किलो प्रोटीन मिलता है ! यानी 100 किलो प्रोटीन के लिए 2 जानवरों की हत्या होती है !
शाकाहार और उसके लिए खेती में किस तरह की क्रूरता व हिंसा बरती जाती है उसका सबसे बड़ा उदाहरण चूहे हैं
हर साल पैदा होने वाले चूहों में से 80 प्रतिशत जहर देकर मार दिए जाते हैं ! प्रति फसल एक हेक्टेयर पर कम से कम 100 चूहे मारे जाते हैं ! इस एक हेक्टेयर में गेहूं का औसत उत्पादन 1.4 टन होता है ! इसमें 13 प्रतिशत प्रोटीन होता है ! इस हिसाब से देखें तो 182 किलो प्रोटीन के लिए 100 से ज्यादा चूहे मारे जाते हैं, यानी सौ किलो प्रोटीन के लिए 55 से ज्यादा जीवों की हत्या होती है, जबकि सीधे मांसाहार से 100 किलो प्रोटीन पाने के लिए सिर्फ 2 जानवरों की हत्या की जाती है ! यानी शाकाहार में 26 गुना ज्यादा जीव मारे जाते हैं !
कोलंबिया में इंटरनेशनल सेंटर फॉर ट्रॉपिकल एग्रीकल्चर की रिपोर्ट कहती हैं कि विकसित देशों में शाकाहारी होने का एक फ़ायदा हैं, ये सेहत के लिए बेहतर है, लेकिन विकासशील देशों में ये गरीबी को बढ़ावा देने की वजह बनता है
अगर सारी दुनिया से रातों-रात मांस खाने वालों को हटा दिया जाए तो क्या होगा? इसके लिए इस रिपोर्ट में जार्विस और दूसरे जानकार बहुत से तर्क देते हैं-
दुनिया में करीब साढ़े तीन अरब जानवर जुगाली करने वाले हैं ! और करीब 10 अरब से भी ज़्यादा मुर्गियां-मुर्गे हैं ! इतनी ही तादाद में हर साल इन्हें स्लॉटर हाऊस में भी भेजा जाता है, यानी बहुत बड़ी संख्या में लोग इनके पालने से लेकर इन्हें काटने और लोगों तक पहुंचाने में लगे हैं, और प्रत्यक्ष रुप से लाखों लोगों को इससे रोजगार मिला हुआ है !
और विकासशील देशों की कुल ज़मीन का एक तिहाई हिस्सा या तो पूरी तरह से बंजर या कुछ हद तक बंजर है ! इस ज़मीन का इस्तेमाल जानवरों को चराने के लिए ही किया जाता है ! अफ़्रीका जैसे देशों ने कुछ हिस्सों में चरागाहों को खेती के लायक़ बनाने की कोशिश की गई, लेकिन ऐसा हो न सका ! ऐसे में माँस के लिए पाले जाने वाले जानवरों के लिए ये ज़मीन उपयोगी साबित होती है और व्यर्थ भी नहीं जाती !
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इस लेख में दिए गए तर्क यह साबित करने के लिए नहीं हैं कि सभी लोगों को मांसाहारी हो जाना चाहिए या फिर जो शाकाहारी हैं वे गलत रास्ते पर हैं ! इससे बस यह बात साबित की जा सकती है कि यदि शाकाहार के पक्ष में जीव हिंसा को एक ढाल बनाया जाता है तो यह कमजोर ढाल है !
खानपान में नैतिकता का पैमाना क्या हो ? इसका कोई एक सटीक जवाब नहीं हो सकता, यह लोगों की निजी पसंद- नापसंद पर ही निर्भर करेगा ! गिरराज वेद