अलीगढ़ के कुंवर पाल सिंह जी जन्म 1937 अलीगढ़ में ही पले बढे पढ़े और अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से तीन दशक तक जुड़े रहे और 1997 में कला संकाय के डीन और हिंदी विभाग के अध्य्क्ष पद से 1997 में सेवानिर्वत्त हुए उनकी किताब ”साहित्य और हमारा समय ” के एक लेख”कुलीन संस्कर्ति बनाम जन संस्कर्ति” में उन्होंने अलीगढ़ के मुस्लिम मार्क्सवादियों का रोचक वर्णन किया हे पेश हे कुंवर पाल सिंह जी के लेख के कुछ अंश ————————- एक थे लाल सिद्दीक जब पार्टी पर प्रतिबंध था और जिले के तमाम नेता जेल चले गए तो वो जिला पार्टी के मंत्री हो गए घोर क्रन्तिकारी स्वयं अभिजात वर्ग से थे और उस संस्कर्ति का जाने अनजाने प्रदर्शन भी करते थे . 1950 में वे अंडर ग्राउंड थे बस से किसी देहात जा रहे थे सर पर साफा , धोती पहनकर ऊपर से बढ़िया विलायती ओवरकोट पहने हुए थे और इस किसान वेशभूषा में पाइप पी रहे थे किसी किसान ने उन्हें पहचान लिया और पूछा सिद्दीक साहब ये क्या हुलिया बना रखा हे उन्होंने पूछा तुमने मुझे कैसे पहचान लिया में तो अंडर ग्राउंड हु आपका ओवरकोट और पाइप देख कर किसान ने कहा . उनके बारे में एक और लतीफा मशहूर हे उन्होंने एक नौजवान महिला पार्टी कॉमरेड को मेंडेट किया की तुम मुझसे शादी करो ये परतु हित में हे यह मामला प्रांतीय पार्टी तक गया तब उस महिला कामरेड को राहत मिली अब पूछेंगे लालसिद्दिक कहा हे ? कश्मीर के उग्रवादियों के पक्ष में पुस्तके और लीफलेट लिख रहे हे वो भी मार्क्सवाद के फ्रेम वर्क में इन अभिजात्य लोगो की एक पूरी क्लास रही हे जिन्होंने अपने हित में पार्टी का इस्तेमाल किया और जब मौका लगा तो पार्टी को छोड़ दिया 42 साल के पार्टी जीवन में ऐसे कई लोगो को जानता हु!
वर्ग सहयोग की राजनीति के प्रवक्ता जेड ए अहमद थे अलीगढ़ पार्टी के इंचार्ज वे जब भी आते हमें यह समझते की कोंग्रेस में एक बहुत बड़ा प्रगतिशील तबका हे वह पर्तिकिरियावादियो से घिरा हुआ हे उनकी हमें मदद करनी चाहिए वे समाजवादी शक्तियों को मज़बूत करने में हमारा हाथ बटाएंगे और फिर धीरे से कहते थे वे लोग भी हमारी पूरी मदद करने को तैयार हे हम नौजवान उनसे पूछते थे ” कामरेड अहमद क्या कोंग्रेस सरकार हमारी मदद करके अपने पैरो पर कुल्हाड़ी मारेंगी वो डांटेते ——————- में जन कवि मूढ़ जी की बात से इस प्रसंग को समाप्त करना चाहता हु . डॉ अहमद की बात से आहात होकर उन्होंने कहा था- मेने तो ऐसा मुर्ख जमींदार और पूंजीपति नहीं देखा जो अपनीजड़ खोदने के लिए आपको औजार उपलब्ध कराय !
पिछले दशक ( नब्बे का ) में यह तय हो गया हे की देश की एकता अंखडता बिना मार्क्सवादियों के सम्भव नहीं हे साम्प्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष भी मार्क्सवादियों के बिना अकेले सम्भव नहीं हे धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई बिना वामपंथी राजनीति के आधार के बिना नहीं लड़ी जा सकती हे यदि कोई सांस्क्रतिक या साहित्यिक संस्था यह दम भर्ती हे की वे केवल साम्प्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष कर रहे हे उन्हें किसी राजनति से कोई अर्थ नहीं हे तो वे स्वयं तो भर्मित हे ही , समाज में भी भरम का कुहासा फैलाते हे वे यह भूल जाते हे की साहित्य कला और सन्सक्रति का भी एक वर्गीय आधार होता हे उस मूलाधार को छोड़ कर इनकी इस्थिति कटी पतंग की तरह होती हे जिन्हें हवा के झोंके कहा फेंक दे कोई नहीं बता सकता !
इस बात को स्पष्ट करने के लिए में कुछ और उदाहरण देना चाहता हु पचास और साठ के दशक में अली सरदार जाफरी का एक क्रन्तिकारी व्यक्तिव और कवि के रूप में बहुत नाम था हम नौजवानों को उनके तथा उनके काव्य के प्रति बड़ा आकर्षण था उन्ही दिनों स्टूडेंट फेडरेशन के उमीदवारो ने छात्रसंघ के चुनावो में भारी सफलता प्राप्त की . हम लोग बहुत प्रसन्न थे उन्ही दिनों सरदार जाफरी अलीगढ़ आये थे हम दस छात्र उनसे मिलने उनके साले साहब के बंगले फलकनुमा पर पहुचे उनकी सुराल बहुत कुलीन घराने से थे हम लोगो ने उत्स में उन्हें अपनी सफलता सुनाई और उमीद थी के वे जरूर हमें शाबाशी देंगे हमारे साथ इंजिनयरिंग के दो बहुत सकिर्य साथी मकसूद हामिद रिजवी और सिराजुरहमान भी थे जाफरी साहब ने उन दोनो की और मुखातिब होकर कहा की ” भाई पढ़े लिखो ये राजनितिक काम उतने महत्वपूर्ण नहीं हे जितना की अपना कॅरियर बनाना पढ़ो लिखो और अच्छे नंबर लाओ इस समय समय की यही मांग हे . एक घंटे की बातचीत में कम से कम दस बार उन्होंने पंडित नेहरू और इंदिरा गाँधी का नाम लिया उनसे मिलकर हम लोग बहुत दुखी और परेशान हुए मकसूद ने तो जाफरी साहब को कुछ सख्त बाते भी कही जाफरी साहब ने कहा आज की सबसे बड़ी आवश्यकता हे पंडित नेहरू और इंदिरा गाँधी के हाथ मज़बूर करे ताकि देश को पर्तिकिर्यावादी और साम्प्रदायिक शक्तियों से बचाया जा सके . सरदार जाफरी व्यक्ति नहीं थे बल्कि पार्टी के भीतर पनप रही वर्ग सहयोग की राजनीती के प्रतिनिधि थे किसान मज़दूरों के गीत गाते गाते वे और उनके बहुत से सहयोगी नेहरू की कुलीन संस्कर्ति का गुणगान कर रहे थे इस पर विस्तार से कहने की आवश्यकता नहीं हे कोंग्रेस ने अपनी अवसरवादी नीतियों असैद्धान्तिक समझोतो से सम्पर्दयिकता जातिवाद और क्षेत्रीयता को जिस तरह से बढ़ावा दिया वह राजनीति का अ ब स जाने वक हर व्यक्ति भली भांति समझता हे !
(वाणी प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक” साहित्य और हमारा समय ” लेखक कुंवर पाल सिंह , से साभार )
कुल मिलाकर लगता हे की कुंवर पाल सिंह जी के भी अनुभव कुछ वैसे ही रहे हे जैसा की शमशाद इलाही शम्स इस लेख में उर्दू कवियों की साइकि के बारे में बता रहे हे थे http://khabarkikhabar.com/archives/1496
शमशाद इलाही शम्स ”यह, भी एक ऐतिहासिक सत्य है कि उर्दू भाषा के साहित्यकारों की एक लंबी फ़ेहरिस्त उन लेखकों से भरी पड़ी है जिन्होंने भारत में इंकलाब करने की कसमें खायी थी, सज्जाद ज़हीर से लेकर कैफ़ी आज़मी तक बायें बाजु के इन तमाम दानिश्वरों, शायरों, अफ़साना निगारों ने जंगे आज़ादी में बड़ी-बड़ी कुर्बानियां दी है. १९४३ में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (अधिकारी लाईन के चलते) ने पाकिस्तान विचार को लेनिन के सिद्धांत के आधार पर खुली मान्यता दी और बाकायदा मुस्लिम साथियों को पाकिस्तान में कम्युनिस्ट पार्टी बनाने के लिये भेजा गया, सज्जाद ज़हीर पाकिस्तान कम्युनिस्ट पार्टी के पहले जनरल सेक्रेट्री भी बने, उनके बाद फ़ैज़ साहब ने किसी हद तक परचम थामे रखा बावजूद इसके कि उन्हें कई दौरे हुक्मरानों ने जेल की सलाखों के पीछे डाले रखा फ़िर भी वह मरते दम तक अपने इंकलाबी मकसद से नहीं हटे. दुर्भाग्य से ये तमाम नेता उर्दू भाषी ही थे जो अपनी आला तालीम के बावजूद कोई बड़ा ज़मीनी आंदोलन शायद इसी लिये नहीं खडा कर पाये क्योंकि इनकी तरबियत भी कुलीन-सामंती निज़ाम, ज़ुबान, उसूलों और रस्मों-रिवाज में ही हुई थी. इन्होंने मुशायरों में भीड़ तो इकठ्ठी की लेकिन उसे जलूस बना कर सड़क पर लाने में सफ़ल न हुये. शायरी से ’किताबी और काफ़ी इंकलाब’ पाश कालोनी के कुछ मकानों में तो जरुर हुआ लेकिन सुर्ख इंकलाब का परचम कभी घरों के उपर नहीं फ़हराया जा सका. इन्हें लेनिन पुरुस्कार जैसे बड़े बड़े एज़ाज़ तो हासिल हुए लेकिन व्यापक जनता का खुलूस इन्हें न मिल सका. आज भी कमोबेश यही हकीकत हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों देशों में देखी जा सकती है. इस ज़ुबान के शायर/लेखक टेलीवीज़न चैनलों पर अच्छी बहस करते तो देखे जा सकते हैं लेकिन दांतेवाडा काण्ड-सोनी सोरी-आज़ाद हत्याकाण्ड आदि पर जावेद अख्तर-गुलज़ार कभी नहीं बोलते देखे जा सकते, वहा अरुंधति राय उन्हें पटखनी देती नज़र आती हैं. नतीज़ा यही हुआ कि सलमान तासीर की हत्या के बाद उसके विरोध में चंद आदमी सड़क पर उतरे जबकि उसके कातिल को अदालत में वकीलों की तरफ़ से किसी कौमी हीरो जैसा सम्मान मिला.”
पेश हे इसी विषय मरहूम लेखक निश्तर खानकाही की कुछ खरी खरी जो उन्होंने अपनी पुस्तक कैसे कैसे लोग मिले में लिखी हे एक जगह वरिष्ठ लेखक कवि अकादमिक अशोक चक्रधर को याद करते हुए निश्तर साहब लिखते हे ”रात सोने से पहले सोचा था की अशोक चक्रधर के बारे में लिखूंगा कवि व्यंगकार टी वि फिल्मो के निर्माता जनवादी साहित्यकार शिक्षक प्रोफेसर आदि आदि ————-अशोक चक्रधर कम से कम लोगो को नेकी की तरफ बुला तो रहा हे आवाज़ तो दे रहा हे लोगो को . में ऐसे लोगो की निराशा को बेहतर समझ सकता हु जिन्होंने अशोक चक्रधर और उसके वामपंथी साथियो को दिल्ली की सड़को पर लाल झंडा उठाय और मार्च करते देखा था कहते हे यह उसके लड़कपन या युवावस्था के दिन थे वह भी साहित्य में रूचि लेने वाले कई अन्य युवको की तरह लेखन के माध्यम से ही प्रगतिशील और फिर जनवादी आंदोलन के साथ आया था एक लम्बी कतार थी ऐसे नौजवानो की जो इस बाढ़ में बहकर जनता के साथ आये थे आज विश्लेषण करता हु तो मुझे लगता हे कुई प्रगतिशील या जनवादी आंदोलन से प्रतिबद्धता के पीछे उन दिनों उन युवा लेखको के भीतर कोई सोचा समझा और अपने मन मस्तिष्क में गहराई तक उतरा हुआ कोई सिद्धांत नहीं था एक विद्रोह था पुरानी जड़ होती हुई सामाजिक मान्यताओ को तोड़ने की एक ललक थी , जनवाद के मंच से उदय होकर उजाले की तरह फैलने की एक प्यास थी जो शांत हो गयी तो कितने ही लोग आंदोलन दुआरा अर्जित की गयी पूंजी को लेकर वयवस्था का हिसा बनते ही चले गए दिक्कत यह थी की पुराने सामंती युग की सामाजिक मान्यताओ और नैतिक मूल्यों को तो हम लोग अपने विद्रोही उन्माद में तोड़कर छिन्नभिन्न कर चुके थे किन्तु नए प्रगतिशील अथवा जनवादी समज की नैतिकता अभी अस्तित्व में नहीं आई थी इसलिए हम्मे बहुत से लोगो को पूंजीवादी या अवसरवादी वयवस्था का हिसा बनने में कोई झिझक नहीं हुई ————————
दिल्ली के रहने वाले उन दिनों के कितने ही लोग साक्षी हे की उन्होंने तब युवावस्था के चक्रधर को सड़को पर अपनी टोली के साथ लाल झंडे उठाय मार्च करते देखा हे यह टोली कितनी ही बार जब अँधेरी सुनसान रात होती और सड़को पर कुत्ते भोंक रहे होते , उन्हें दीवारो पर क्रन्तिकारी पोस्टर चिपकाते दिखाई दी मुठिया ताने हुए और इंकलाब की जवाला आँखों में दहक़ाए , कुछ पहचाने अनपहचाने सपने लिए यह अशोक चकधर जे मुकेश हे सुधीश पचोरी हे , भगवती हे कर्णसिंह चौहान हे नौजवानो का एक जत्था हे जो आगे बढ़ रहा हे क्रांति के मार्ग पर कविताय लिख रहा हे लेख लिख रहा हे नाटक खेल रहा हे . ये सारे युवा अपने उद्द्शेय में सच्चे थे और खरे थे लेकिन साथ ही बहुत मासूम और सीधे भी वे नहीं जानते थे की उनके पास विचार की जो पूंजी हे उस पर ख्याति का ठप्पा लगते ही , वह एक दिन आगे चल कर बाजार की बहुमूल्य वास्तु में परिवर्तित हो जाने वाली हे वही लोग , जिनमे इस इस्तिथि का स्वागत करने की क्षमता थी , इसमें ढल गए , जिनमे बाजार की ऐसी योग्यता नहीं थी , वे रह गए यहाँ देखना होगा की बाज़ारवाद ने किसको अंदर से कितना बदला हे . जब मेने यह देखा की हास्य व्यंगय कवि की हैसियत से अशोक चक्रधर सुरेंदर शर्मा के बाद सबसे महंगा कवि हे वह भारी मुआवजे के अलावा हवाई ज़हाज़ के किराय से कम पर बात नहीं करता , मुझे कोई हेरात नहीं हुई , क्योकि अपनी कला का मोल लगाना सबको नहीं आता और जिन्हे नहीं आता वो निसंदेह दुखी होते हे में इस तोह में लगा रहता हु की वय्वसायी होने के बावजूद कोई आदमी कितना अच्छा आदमी रह गया हे यह अनुभव की दौलत जब एक दरवाज़े से घर में प्रवेश करती हे तो शराफत दूसरे दरवाज़े से बाहर निकल जाती हे , सब पर लागू नहीं होता और मेरा ख्याल हे अशोक चक्रधर सबमे शामिल नहीं होंगे न वह शामिल होना चाहेंगे ”————–
हिंदी साहित्य निकेतन बिजनौर से प्रकाशित लेखक मरहूम निश्तर खानकाही की पुस्तक कैसे कैसे लोग मिले से साभार
तो इधर कुंवर पाल सिंह जी वरिष्ठ मुस्लिम मार्क्सवादियों से दुखी थे तो उधर निशतरख़ानक़ाही अशोक चक्रधर जेसो में कामयाबी के बाद आये चेंज से . बात मेरी ये समझ आयी हे की सत्ता या सफलता में आने के बाद सभी बदल जाते हे इसमें एक बात मेने ये नोट की हे और शायद यही मेन बात हे की हर क्रांति या परिवर्तन की शमा बुझ ही जाती हे और शोषण पर टिका निजाम जस का तस रहता हे बात ये भी हे की जब तक हमारी बॉडी में बेहद बेहद ऊर्जा रहती हे 18 22 28 30 35 40 तक तो तब तक हममे अक्ल अनुभव ग्रेस सयम समझ कम ही होती हे बस जोश और एनर्जि होता हे जब तक हममे ये सब ” अक्ल अनुभव ग्रेस सयम समझ ” आता हे तबतक यानि पैतीस चालीस पेंतालिस के बाद बॉडी थकने ही लगती हे वो चेंज लाने के लंबे संघर्ष से मुह चुराने लगती हे इसकी जगह अब वो आराम से अपनी सत्ता या सफलता की जुगाली करते रहना अधिक चाहती हे जवान लोहिया जी ने यही कहा था की भारत विभाजन इसलिए हुआ था की कोंग्रेस नेता सब थक चुके थे वो मुस्लिम लीग से एक लंबे संघर्ष में बिलकुल नहीं पड़ना चाहते थे बाद में जब 67 में जब बेमिसाल संघर्ष के बाद लोहिया जी के हाथो कुछ सत्ता आयी तो उनका शरीर कमजोर ही नहीं बल्कि खत्म ही हो गया था तो खेर मेरी तो यही समझ आया की भाई अपनी ऊर्जा को बचाओ तिस पेंतीस चालीस पेंतालिस पचास साठ के बाद भी जोश और ऊर्जा से भरपूर रहने की कोशिश करो ताकि हमारा शरीर हर संघर्ष को तैयार रहे मेरी तो यही तैयारी हे और रहेगी
जैसे अब्दुल अलीम साहब की बात देखे की एक तरफ तो वो अलीगढ़ की मुस्लिम कम्युनल ताकतों से संघर्ष भी करना चाहते थे इसके लिए वी सी की पोस्ट से इस्तीफा भी देना चाहते थे मगर दे नहीं पाए तो बात यही न की भाई इनकी बॉडी थक चुकी होगी वो न वी सी पोस्ट का आराम छोड़ना चाहती थी न फिर से संघर्ष को राजी थी इसी तरह अली सरदार जाफरी साहब की बात देखे जिनसे कुंवर पाल जी और उनके नौजवान साथियो की बहस हुई थी अगर में गलत नहीं हु तो अली सरदार जाफरी कुंवर पाल जी से 24 साल बड़े थे ज़ाहिर हे जब इनके विवाद हुआ होगा तब तक जाफरी साहब की बॉडी और खून भी ठंडा सा पड़ चूका होगा वो सरकार से संघर्ष की जगह कोई सुरक्षा चाह रहा होगा यहाँ तक की शायद शायद इन्ही जाफरी साहब आदि उर्दू कवियों पर ग़ज़ल लेखक लेकिन घोर कम्युनल तुफेल चतुर्वेदी का आरोप हे की ये लोग मुस्लिम साम्प्रदायिकता के प्रति बेहद नरम रुख रखते थे तुफेल का आरोप तो यहाँ तक हे की जब उर्दू लेखक कृश्ण चन्दर राष्ट्रपति जाकिर हुसेन की रिश्तेदार सलमा सिद्दकी से शादी चाहते थे तो इन लोगो ने कृश्न चन्दर पर इस्लाम कबूल करने का दबाव तक डाला था इससे तो यही लगता हे की बढ़ती एज के साथ ये लोग बिलकुल ही पिल पिले हो चुके थे यहाँ तक की इनका सेकुलरिज्म भी डगमग होने लगा था
Mukesh Kumar shared कुमार अशोक’s post.1 hr · कुमार अशोक2 hrs · New Delhi · इस पोस्ट को पढ़ने के लिए मैं आग्रह कर रहा हूँ। यही नहीं मेरा आग्रह यह भी है कि इसे ज़रूर शेयर करें। इतने दिनों में मैंने कोई भरोसा कमाया है आपका तो उस भरोसे के लिए————————————–झूठ फैलाना संघियों का पुराना पैंतरा है। अफ़वाहें उनकी प्राण वायु है। कुत्सा प्रचार उनकी धमनियाँ। आज फिर आये एक मैसेज ने भीतर से दहला दिया है कि सैकड़ों/ हज़ारों साल पुराने इतिहास से छेड़छाड़ करते अब वे सौ पचास साल पुराकुमार अशोक’s ने उस इतिहास पर भी कीचड़ फेंक रहे हैं जिसके निशानात अब भी ज़िंदा हैं हमारे बीच।सज़्ज़ाद ज़हीर को जानते हैं आप? लखनऊ के पास एक बेहद रईस खानदान में जन्में। पढ़ने के लिए उस दौर की रवायत के मुताबिक इंगलैंड भेजे गए। लेकिन ग़ुलामी की जंज़ीरों को तोड़ने की राह तलाशते वह पहुँचे वाम आंदोलन तक। मुल्कराज आनंद और फैज़ जैसों के साथ मिलकर लन्दन में ही शुरू हुआ यह सफ़र ताउम्र चला। हालात यह कि वह और उनकी हमसफ़र रज़िया आपा उस बड़े बंगले के आउटहाउस में कुछ दिन रहे जिसकी मिल्कियत उनके बड़े भाई की थी। अलग राह चलने की कीमतें दोनों ने चुकाई। क़लम उनका हथियार बना।क़लम को धार देने और लेखकों को सामराजी बेड़ी के सामने एकजुट करने के लिए अपने साथियों के साथ उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के निर्माण का काम हाथ में लिया। देश भर में घूम घूम कर लेखकों को मुत्मइन किया और जब इसकी पहली सभा हुई तो प्रेमचंद ने उसकी सदारत की। इस तहरीक और इसके सदस्यों के बीच बन्ने भाई के नाम से जाने जाने वाले सज़्ज़ाद साहब को उनकी किताब “रौशनाई के सफ़र” से जाना जा सकता है।जब आज़ादी मिली तो पार्टी ने उन्हें पाकिस्तान जाकर वहाँ इंक़लाब की तैयारी के लिए कहा। चार बेटियों और रज़िया जी को यहाँ छोड़कर बिना कोई सवाल किए वह पकिस्तान चले गए और फैज़ तथा दूसरे साथियों के साथ इंक़लाब की राह तलाशते रावलपिंडी षड्यंत्र काण्ड में गिरफ़्तार हुए। मुक़दमा चला। जब आज़ाद हुए तो कहीं के नागरिक न रह गए थे। नेहरू ने भारत आने का न्यौता दिया, नागरिकता दी और इस लंबे वक़्फ़े में रज़िया जी ने बच्चियों की तालीम और रोज़मर्रा के तमाम जद्दोजहद से गुज़रते अपनी क़लम को कभी रुकने नहीं दिया। लौटकर फिर उन्होंने बदले हालात में प्रगतिशील आंदोलन को मजबूत करने ही नहीं बल्कि देश विदेश के लेखकों को लाल परचम तले लाने की लड़ाई लड़ी।
हमारे बीच सक्रिय नूर ज़हीर उनकी सबसे छोटी बेटी हैं। बाप माँ लाम पर और पार्टी घर। आँखें खुलने से अब तक पार्टी, थियेटर, लेखन और संघर्ष ही जीवन रहा। परम्परा आगे बढ़ी तो उनके बच्चे भी जुड़े। पंखुरी ज़हीर के नाम से जे एन यू और उसके बाहर के लोग परिचित ही हैं। हर लड़ाई में आगे देखा जा सकता है उसे। लाठियों के बीच, पानी की बौछारों के बीच।ख़ैर ये सब इतने अपने हैं कि मेरी तारीफ़ पर मुझे ही डपट देंगे। आज लिखना पड़ा तो इसलिए कि एक व्हाट्सएप मैसेज में इन सब पर कीचड़ उछाला गया है। जिन्हें मनुष्य को हिन्दू मुसलमान की बाइनरी से आगे देखने की तमीज़ न हो, चरित्र को मंगलसूत्र से आगे देख पाने की ताब न हो, उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है।लेकिन आपसे उम्मीद है कि अपने साथियों की आलोचना की तरह ही उनके समर्थन में कोई कोताही नहीं करेंगे। एक झूठ के सामने सच को मजबूती से खड़ा करेंगे। आख़िर बदलाव की वही अलम आपने भी तो थामी है न साथी।कुमार अशोक’s
ashish Pradhan
22 hrs ·
नब्बे के दशक की बात है। एक छोटे से शहर के दो भोले भाले लड़कों को JNU में एडमिशन मिल गया। छोटे शहरों के खण्डरनुमा सरकारी स्कूल कॉलेजों में पढ़ने वाले दोनों लड़के बड़े खुश। बड़ी बड़ी बिल्डिंगें, लाइब्रेरी, क्लास रूम जैसे जन्नत में आ गए हों। देश के अलग अलग कोनों से स्टूडेंट पढ़ने आये थे। विदेशों से भी, खासकर एशिया और अफ्रीका से। खैर जल्द ही वे दूसरे लड़कों से घल मिल गए। होस्टल और यूनिवर्सिटी में उनके बहुत से दोस्त बन गए। उनके दोस्त थे बड़े अजीब पर उन सब में बहुत कुछ कॉमन था। बाल बढ़ा के रखते, दाढ़ी नहीं बनाते। पेंट या जीन्स पे कुरता पहनते और पैरों में रबर की चप्पल। कुछ बड़े फ्रेम का चश्मा पहनते थे। कंधे पर खद्दर का बड़ा सा झोला टांगते जिसमें क्यूबा, वियतनाम, रूस, चाइना से सम्बंधित किताबें होती थीं। दिन भर सिगरेट फूंकते, सिगार का धुंआ छोड़ते और रात में शराब पीते। फिर शराब पीकर चिल्लाते… मार्क्स, माओ, चे ग्वेवारा, फ्रीडम, फाइट, रेवोलुशन। पूंजीवाद मुर्दाबाद, सर्वहारा जिंदाबाद के नारे लगाते जैसे देश में कुछ उलट पुलट कर देना चाहते हों।
.हर समय यूनिवर्सिटी में हड़ताल करने की फिराक में रहते। पढ़ते कम और क्लासों का बहिष्कार ज्यादा करते। प्रोफेसरों से उलझते, लाल झंडा फहराते और एक दूसरे को कामरेड कहकर बुलाते। जब भी मिलते आपस में लाल सलाम ठोकते। धर्म की आलोचना करते। उसे अफीम कहते थे। धर्म को मनुष्य की गुलामी का हथियार मानते। हर धार्मिक रीति रिवाजों का जम के मख़ौल उड़ाते। कैंटीनों में, पब्लिक पार्कों में, होस्टलों में धर्म और राजनीति पर वाद विवाद होता था। कभी कभी क्लास रूम में भी। हर समसामयिक मुद्दे पर गरमा गरम बहसें होती थीं। कश्मीर पर, असम पर, केरल बंगाल पर, बांग्लादेश पर, पाकिस्तान चीन पर। धीरे धीरे दोनों लड़कों पर इन बातों का गहरा प्रभाव पड़ने लगा। वे भी उनके रंग में रंग गये। हर त्यौहार अब उन्हें दकियानूसी लगने लगा। पर्यावरण की चिंता में सूखने लगे। दिवाली पर आवो हवा बर्बाद होती थी, सो उन्होंने दिवाली मनाना छोड़ दिया। होली पर पानी बर्बाद होता था, उन्होंने होली खेलना भी छोड़ दिया। महाशिव रात्रि में बर्बाद होते दूध पर वे बौखला जाते थे। उन्हें समझ आ गया था कि राम, कृष्ण, दुर्गा, जैसे देवी देवताओं का कोई अस्तित्व नहीं था, कोरी कल्पनाएं हैं । अगर अस्तित्व था तो रावण, कंस और महिषासुर का था। इसलिए उन्होंने मंदिर जाना छोड़ दिया।
.ऐसी क्रांतिकारिता करते करते समय बीत गया। सब पढाई पूरी कर के निकल लिए जिंदगी की भाग दौड़ करने, कोई यहाँ, कोई वहां, कोई न जाने कहाँ ? ये वो समय था जब मोबाइल नहीं थे। न ऑरकुट था, न फेसबुक और न व्हाट्स एप। करीब 30 साल बाद ही वे दोनों लड़के मिल पाए। मिलकर बहुत खुश हुए। बाकियों का कुछ भी पता नहीं था। जिंदगी की भागम भाग में कभी कोई कहीं मिला भी नहीं। दोनों ने मिलकर प्लान बनाया क्यों न फेसबुक पर ढूंढा जाए ? नाम और शहर से ढूंढते हैं। JNU से भी ढूंढेंगे। जो कहीं नहीं मिल रहा हो उसे एक बार फेसबुक पर तलाशा लो, मिल जाएगा। जो कहीं नहीं है, फेसबुक पर जरूर होगा। इस तरह कुछ मिले भी और कुछ नहीं भी मिले। कोई सरकारी नौकर हो गया था। कोई पत्रकार हो गया था तो कोई अपना बिज़नस चला रहा था।
देख प्रणब घोष साला कैसा मोटा हो गया है।साले जयंत पणगावकर की बीबी देख, कितनी नाटी और काली है। साले को यही मिली थी शादी को, कितनी लड़कियां मरती थी कैम्पस में इस पे और इसने ये पसन्द की।
ओफ्फो वासु चटर्जी की वॉल तो देख, ये साला अब भी क्रांतिकारिता फैला रहा है।
यार जावेद को ढूंढ।ये रहा जावेद। पर ये दाढ़ी वाला कौन है ? जावेद तो नहीं लग रहा।
अरे जावेद ही है बस दाढ़ी रख ली है।.सफीक उल् हक, सलमान बट, मुबीन शेख। सबको ढूंढा गया एक एक कर के। उन्हीं में से एक था जावेद खान। जो उनके दल का नेता था, बड़ा ही क्रांतिकारी लड़का था। हड़ताल से लेकर बहिष्कार तक सबसे आगे रहता। धर्म से लेकर राजनीति के हर विषय पर होने वाले वाद विवाद में बढ़चढ़ कर भाग लेता। मार्क्स और चे का पक्का चेला। महिला अधिकारों का सबसे बड़ा समर्थक। भारतीय सभ्यता और संस्कृति का ख़ास आलोचक। उसे इन सब में हिप्पोक्रेसी ही दिखती। सबकी वाल अच्छे से चेक की गयी। कुछ देर बाद की खाना तलाशी के बाद दोनों कामरेडों के मुंह लटक गये। उनके दोस्तों में कई मुस्लिम लड़के भी थे। जो उस समय पूरी तरह से नास्तिक हुआ करते थे। गोल जालीदार टोपी नहीं पहनते, दाढ़ी नहीं रखते, नमाज़ नहीं पढ़ते, रोजा नहीं रखते। हमेशा किरान्ति की बातें करते। धर्म और परम्पराओं का मजाक उड़ाते। मार्क्स, चे और माओ की जय जयकार करते। मानव धर्म की बात करते। उनके तर्कों पर सब वाह वाह कर उठते। पर वे आज 30 साल बाद देख रहे हैं कि सभी ने दाढ़ी रखी है, टोपी लगाई है, कमेंट में अस्सलाम वाले कुम, वालेकुम अस्सलाम कहते नजर आ रहे हैं। मस्जिदों में दिख रहे हैं, ईद की नमाज़ पढ़कर गले लगकर फोटो खींचा रहे हैं, इफ्तार पार्टियों में दावत उड़ा रहे हैं। कुछ हज़ कर आये हैं, मक्का में खड़े होकर फोटो पोस्ट कर रहे हैं। कोई एक बार हज़ कर के हाजी हो गया है तो कोई दो बार हज़ कर के अल हाजी हो गया है।
.दोनों कामरेड नशे में धुत्त सामने बैठे अपनी गम गाथा मुझे सुनाये जा रहे थे….. Ashish ये लोग तो कहते थे कि धर्म अफीम हैं पर इन्होंने तो इस्लाम अच्छे से अपना रखा है। सिर्फ कॉलेज में ही ये कम्युनिस्ट थे पर कॉलेज के बाहर असल जिंदगी में ये मुसलमान के मुसलमान ही रहे। सारा ढोंग तमाशा सिर्फ दूसरों को बहकाने के लिए था। अगर ये इतने ही अच्छे कम्युनिस्ट थे तो अपने लिए क्या जन्नत की सीट पक्की कर रहे हैं? क्या मार्क्स के सिद्धान्तों, माओ की विचारधारा और चे का दृष्टिकोण इनके लिए सिर्फ दिखावा था? हम तो कॉलेज के बाद भी मार्क्स, माओ और चे को पूजते रहे, उनके विचारों को फैलाते रहे और वही के वही रहे जो कॉलेज के समय थे लेकिन ये लोग क्या हो गए?वे अपना दुखड़ा रोये जा रहे थे और मैं चुपचाप उन्हें सुनते हुए प्रोफेसर नरेंद्र कुमार सिंह सर को याद कर रहा था। मेरे कॉलेज टाइम के प्रोफेसर सिंह सर अक्सर कहा करते थे कि एक हिन्दू कम्युनिस्ट हो सकता है पर एक मुस्लिम कभी भी कम्युनिस्ट नहीं हो सकता। अगर होगा भी तो दिखावे के लिए होगा पर जैसे जैसे उसकी उम्र ढलेगी वो धीरे धीरे अपने मूल धर्म में लौटने लगेगा लेकिन कम्युनिस्ट हिन्दू मरते दम तक कम्युनिस्ट ही रहेगा। एक हिन्दू कम्युनिस्ट राम, कृष्ण को जम के गाली देगा लेकिन एक मुस्लिम कम्युनिस्ट चाहे जितना भी नास्तिक होने का दिखावा करे पर कभी भी अपने मुहम्मद और अल्लाह को गाली नहीं देगा। मुस्लिम कम्युनिस्ट रंगे सियार की तरह होता है जो तुमको अपने धर्म से भटकाएगा, तुम्हारे लिए दाढ़ी, टोपी नहीं रखेगा, नमाज़ नहीं पढ़ेगा पर तुम्हारी पीठ पीछे वह वह सब करेगा जो वह करता है। देश की सभ्यता संस्कृति पर सवाल करेगा, तुम्हारे ईष्ट का मजाक बनायेगा पर अपनी इस्लामिक संस्कृति पर और अपने खुदा पैगम्बर पर हमेशा खामोश रहेगा। इन रंगे सियारों से हमेशा बचना चाहिए।सिंह सर की एक एक बात सही थी, JNU में ऐसे रंगे सियार बहुत मिलते हैं। अभी एक दिखा था न, जो दाढ़ी नहीं रखता, टोपी नहीं पहनता पर नारे इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह के लगाता है। खुद को एथीस्ट (नास्तिक) और कम्युनिस्ट कहता है लेकिन मस्जिदों में सुबह शाम नमाज़ पढ़ता है, रमजान में रोज़े रखता है और इफ्तार की दावतों में शामिल होता है।
ऐसे रंगे सियार का नाम है उमर खालिद। ashish Pradhan
जगदीश्वर चतुर्वेदी
श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के दिन सदमे में था जेएनयू
ऐसा गम मैंने नहीं देखा बौद्धिकों के चेहरे गम और दहशत में डूबे हुए थे। चारों ओर बेचैनी थी । कैसे हुआ,कौन लोग थे, जिन्होंने प्रधानमंत्री स्व.श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या की। हत्या क्यों की। क्या खबर है।क्या क्या कर रहे हो इत्यादि सवालों को लगातार जेएनयू के छात्र -शिक्षक और कर्मचारी छात्रसंघ के दफतर में आकर पूछ रहे थे। मैंने तीन -चार दिन पहले ही छात्रसंघ अध्यक्ष का पद संभाला था,अभी हम लोग सही तरीके से यूनियन का दफतर भी ठीक नहीं कर पाए थे। चुनाव की थकान दूर करने में सभी छात्र व्यस्त थे कि अचानक 31 अक्टूबर 1984 को सुबह 11 बजे के करीब खबर आई प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गयी है। सारे कैंपस का वातावरण गमगीन हो गया ।लोग परेशान थे। मैं समझ नहीं पा रहा था क्या करूँ ? उसी रात को पेरियार होस्टल में शोकसभा हुई जिसमें हजारों छात्रों और शिक्षकों ने शिरकत की और सभी ने शोक व्यक्त किया। श्रीमती गांधी की हत्या के तुरंत बाद ही अफवाहों का बाजार गर्म हो गया। किसी ने अफवाह उडा दी कि यूनियनवाले मिठाई बांट रहे थे। जबकि सच यह नहीं था। छात्रसंघ की तरफ से हमने शोक वार्ता और हत्या की निंदा का बयान जारी कर दिया था। इसके बावजूद अफवाहें शांत होने का नाम नहीं ले रही थीं। चारों ओर छात्र-छात्राओं को सतर्क कर दिया गया और कैम्पस में चौकसी बढा दी गयी।
कैंपस में दुष्ट तत्व भी थे। वे हमेशा तनाव और असुरक्षा के वातावरण में झंझट पैदा करने और राजनीतिक बदला लेने की फिराक में रहते थे। खैर ,छात्रों की चौकसी, राजनीतिक मुस्तैदी और दूरदर्शिता ने कैम्पस को संभावित संकट से बचा लिया।
दिल्ली शहर और देश के विभिन्न इलाकों में हत्यारे गिरोहों ने सिखों की संपत्ति और जानोमाल पर हमले शुरू कर दिए थे। ये हमले इतने भयावह थे कि आज उनके बारे में जब भी सोचता हूँ तो रोंगटे खडे हो जाते हैं। श्रीमती गांधी की हत्या के बाद हत्यारे गिरोहों का नेतृत्व कौन लोग कर रहे थे, आज इसे दिल्ली का बच्चा बच्चा जानता है। इनमें कुछ लोग अभी जिंदा हैं और कुछ लोग मर चुके हैं। यहां किसी भी दल और नेता का नाम लेना जरूरी नहीं है।कई हजार सिख औरतें विधवा बना दी गयीं। हजारों सिखों को घरों में घुसकर कत्ल किया गया।कई हजार घर जला दिए गए। घर जलाने वाले कौन थे , कैसे आए थे, इसके विवरण और ब्यौरे आज भी किसी भी पीडित के मुँह से दिल्ली के जनसंहार पीडित इलाके में जाकर सुन सकते हैं। अनेक पीडित अभी भी जिंदा हैं।
श्रीमती गांधी की हत्या और सिख जनसंहार ने सारे देश को स्तब्ध कर दिया।इस हत्याकांड ने देश में साम्प्रदायिकता की लहर पैदा की। जिस दिन हत्या हुई उसी दिन रात को जेएनयू में छात्रसंघ की शोकसभा थी और उसमें सभी छात्रसंगठनों के प्रतिनिधियों के अलावा सैंकड़ो छात्रों और अनेक शिक्षकों ने भी भाग लिया था। सभी संगठनों के लोगों ने श्रीमती गांधी की हत्या की तीखे शब्दों में निंदा की और सबकी एक ही राय थी कि हमें जेएनयू कैंपस में कोई दुर्घटना नहीं होने देनी है। कैंपस में चौकसी बढा दी गयी।
देश के विभिन्न इलाकों में सिखों के ऊपर हमले हो रहे थे,उनकी घर,दुकान संपत्ति आदि को नष्ट किया जा रहा था। पास के मुनीरका,आरकेपुरम आदि इलाकों में भी आगजनी और लूटपाट की घटनाएं हो रही थीं। दूर के जनकपुरी,मंगोलपुरी,साउथ एक्सटेंशन आदि में हिंसाचार जारी था। सिखों के घर जलाए जा रहे थे।सिखों को जिंदा जलाया जा रहा था। ट्रकों में पेट्रोल,डीजल आदि लेकर हथियारबंद गिरोह हमले करते घूम रहे थे।हत्यारे गिरोहों ने कई बार जेएनयू में भी प्रवेश करने की कोशिश की लेकिन छात्रों ने उन्हें घुसने नहीं दिया। जेएनयू से दो किलोमीटर की दूरी पर ही हरिकिशनसिंह पब्लिक स्कूल में सिख कर्मचारियों और शिक्षकों की तरफ से अचानक संदेश मिला कि जान खतरे में है किसी तरह बचा लो। आर. के .पुरम से किसी सरदार परिवार का एक शिक्षक के यहां फोन आया हत्यारे गिरोह स्कूल में आग लगा रहे हैं। उन्होंने सारे स्कूल को जला दिया था। अनेक सिख परिवार बाथरूम और पायखाने में बंद पडे थे। ये सभी स्कूल के कर्मी थे, शिक्षक थे। शिक्षक के यहां से संदेश मेरे पास आया कि कुछ करो। सारे कैंपस में कहीं पर कोई हथियार नहीं था। विचारों की जंग लडने वाले हथियारों के हमलों के सामने निहत्थे थे। देर रात एक बजे विचार आया सोशल साइंस की नयी बिल्डिंग के पास कोई इमारत बन रही थी वहां पर जो लोहे के सरिया पडे थे वे मंगाए गए और जेएनयू में चौतरफा लोहे की छड़ों के सहारे निगरानी और चौकसी का काम शुरू हुआ। किसी तरह दो तीन मोटर साइकिल और शिक्षकों की दो कारें जुगाड करके हरकिशन पब्लिक स्कूल में पायखाने में बंद पडे लोगों को जान जोखिम में डालकर कैंपस लाया गया,इस आपरेशन को कैंपस में छुपाकर किया गया था क्योंकि कैंपस में भी शरारती तत्व थे जो इस मौके पर हमला कर सकते थे। सतलज होस्टल,जिसमें मैं रहता था ,उसके कॉमन रूम में इनलोगों को पहली रात टिकाया गया। बाद में सभी परिवारों को अलग अलग शिक्षकों के घरों पर टिकाया गया। यह सारी परेशानी चल ही रही थी कि मुझे याद आया जेएनयू में उस समय एक सरदार रजिस्ट्रार था। डर था कोई शरारती तत्व उस पर हमला न कर दे। प्रो अगवानी उस समय रेक्टर थे और कैंपस में सबसे अलोकव्रिय व्यक्ति थे। उनके लिए भी खतरा था। मेरा डर सही साबित हुआ। मैं जब रजिस्ट्रार के घर गया तो मेरा सिर शर्म से झुक गया। रजिस्ट्रार साहब डर के मारे अपने बाल कटा चुके थे । जिससे कोई उन्हें सिख न समझे।उस समय देश में जगह-जगह सैंकडों सिखों ने जान बचाने के लिए अपने बाल कटवा लिए थे। जिससे उन पर हमले न हों। डाउन कैंपस में एक छोटी दुकान थी जिसे एक सरदार चलाता था, चिन्ता हुई कहीं उस दुकान पर तो हमला नहीं कर दिया। जाकर देखा तो होश उड गए शरारती लोगों ने सरदार की दुकान में लाग लगा दी थी। मैंने रजिस्ट्रार साहब से कहा आपने बाल कटाकर अच्छा नहीं किया आप चिन्ता न करें, हम सब हैं। यही बात प्रो. अगवानी से भी जाकर कही तो उन्ाके मन में भरोसा पैदा हुआ। कैंपस में सारे छात्र परेशान थे,उनके पास दिल्ली के विभिन्न इलाकों से खबरें आ रही थीं, और जिसके पास जो भी नई खबर आती, हम तुरंत कोई न कोई रास्ता निकालने में जुट जाते।
याद आ रहा है जिस समय आरकेपुरम में सिख परिवारों के घरों में चुन-चुनकर आग लगाई जा रही थी उसी समय दो लड़के जेएनयू से घटनास्थल पर मोटर साइकिल से भेजे गए, हमने ठीक किया था और कुछ न हो सके तो कम से कम पानी की बाल्टी से आग बुझाने का काम करो। यह जोखिम का काम था। आरकेपुरम में जिन घरों में आग लगाई गयी थी वहां पानी की बाल्टी का जमकर इस्तेमाल किया गया।हत्यारे गिरोह आग लगा रहे थे जेएनयू के छात्र पीछे से जाकर आग बुझा रहे थे। पुलिस का दूर-दूर तक कहीं पता नहीं था।
कैंपस में चौकसी और मीटिंगें चल रही थीं। आसपास के इलाकों में जेएनयू के बहादुर छात्र अपनी पहलीकदमी पर आग बुझाने का काम कर रहे थे। सारा कैंपस इस आयोजन में शामिल था। श्रीमती गांधी का अंतिम संस्कार होते ही उसके बाद वाले दिन हमने दिल्ली में शांतिमार्च निकालने का फैसला लिया। मैंने दिल्ली के पुलिस अधिकारियों से प्रदर्शन के लिए अनुमति मांगी उन्होंने अनुमति नहीं दी। हमने प्रदर्शन में जेएनयू के शिक्षक और कर्मचारी सभी को बुलाया था । जेएनयू के अब तक के इतिहास का यह सबसे बड़ा शांतिमार्च था। इसमें जेएनयू के सारे कर्मचारी,छात्र और सैंकडों शिक्षक शामिल हुए। ऐसे शिक्षकों ने इस मार्च में हिस्सा लिया था जिन्होंने अपने जीवन में कभी किसी भी जुलूस में हिस्सा नहीं लिया था, मुझे अच्छी तरह याद है विज्ञान के सबसे बडे विद्वान् शिवतोष मुखर्जी अपनी पत्नी के साथ जुलूस में आए थे,वे दोनों पर्यावरणविज्ञान स्कूल में प्रोफेसर थे,वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के संस्थापक आशुतोष मुखर्जी के करीबी परिवारी थे। जुलूस में तकरीबन सात हजार लोग कैंपस से निकले थे,बगैर पुलिस की अनुमति के हमने शांति जुलूस निकाला ,मैंने शिक्षक संघ के अध्यक्ष कुरैशी साहब को झूठ कह दिया कि प्रदर्शन की अनुमति ले ली है। मैं जानता था अवैध जुलूस में जेएनयू के शिक्षक शामिल नहीं होंगे। मेरा झूठ पकडा गया पुलिस के बडे अधिकारियों ने आरकेपुरम सैक्टर 1 पर जुलूस रोक दिया और कहा आपके पास प्रदर्शन की अनुमति नहीं है।आपको गिरफतार करते हैं। मैंने पुलिस ऑफीसर को कहा तुम जानते नहीं हो इस जुलूस में बहुत बडे बडे़ लोग हैं वे तुम्हारी वर्दी उतरवा देंगे। उनके गांधी परिवार से गहरे रिश्ते हैं। अफसर डर गया बोला मैं आपको छोडूँगा नहीं मैंने कहा जुलूस खत्म हो जाए तब पकडकर ले जाना मुझे आपत्ति नहीं है। इस तरह आरकेपुरम से पुलिस का दल-बल हमारे साथ चलने लगा और यह जुलूस जिस इलाके से गुजरा वहां के बाशिंदे सैंकडों की तादाद में शामिल होते चले गए । जुलूस में शामिल लोगों के सीने पर काले बिल्ले लगे थे, शांति के पोस्टर हाथ में थे। उस जुलूस का देश के सभी माध्यमों के अलावा दुनिया के सभी माध्यमों में व्यापक कवरेज आया था। यह देश का पहला विशाल शांतिमार्च था। जुलूस जब कैंपस में लौट आया तो अपना समापन भाषण देने के बाद मैंने सबको बताया कि यह जुलूस हमने पुलिस की अनुमति के बिना निकाला था और ये पुलिस वाले मुझे पकडकर ले जाना चाहते हैं। वहां मौजूद सभी लोगों ने प्रतिवाद में कहा था छात्रसंघ अध्यक्ष को पकडोगे तो हम सबको गिरफतार करना होगा। अंत में पुलिसबल मुझे गिरफतार किए बिना चला गया। मामला इससे और भी आगे बढ गया। लोगों ने सिख जनसंहार से पीडित परिवारों की शरणार्थी शिविरों में जाकर सहायता करने का प्रस्ताव दिया। इसके बाद जेएनयू के सभी लोग शहर से सहायता राशि जुटाने के काम में जुट गए। प्रतिदिन सैंकडों छात्र-छात्राओं की टोलियां कैंपस से बाहर जाकर घर-घर सामग्री संकलन के लिए जाती थीं और लाखों रूपयों का सामान एकत्रित करके लाती थीं।यह सामान पीडितों के कैम्प में बांटा गया। सहायता कार्य के लिए शरणार्थी कैम्प भी चुन लिया गया। बाद में पीडित परिवारों के घर जाकर जेएनयू छात्रसंघ और शिक्षक संघ के लोगों ने सहायता सामग्री के रूप में घरेलू काम के सभी बर्तनों से लेकर बिस्तर और पन्द्रह दिनों का राशन प्रत्येक घर में पहुँचाया। इस कार्य में हमारी दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों ने खास तौर पर मदद की। मैं भूल नहीं सकता दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो.जहूर सिद्दीकी साहब की सक्रियता को। उस समय हम सब नहीं जानते थे कि क्या कर रहे हैं, सभी भेद भुलाकर सिखों की सेवा और साम्प्रदायिक सदभाव का जो कार्य जेएनयू के छात्रों -श्िक्षकों और कर्मचारियों ने किया था वह हिन्दुस्तान के छात्र आंदोलन की अविस्मरणीय घटना है।
यह काम चल ही रहा था कि पश्चिम बंगाल के सातों विश्वविद्यालयों के छात्रसंघों के द्वारा इकट्ठा की गई सहायता राशि लेकर तत्कालीन सांसद नेपालदेव भट्टाचार्य मेरे पास पहुँचे कि यह बंगाल की मददराशि है। किसी तरह इसे पीडित परिवारों तक पहुँचा दो। विपत्ति की उस घड़ी में पश्चिम बंगाल के छात्र सबसे पहले आगे आए। हमने उस राशि के जरिए जरूरी सामान और राशन खरीदकर पीडित परिवारों तक पहुँचाया। इसका हमें सुपरिणाम भी मिला अचानक जेएनयू के छात्रों को धन्यवाद देने प्रसिद्ध सिख संत और अकालीदल के प्रधान संत स्व.हरचंद सिंह लोंगोवाल,हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक सरदार महीप सिंह और राज्यपाल सुरजीत सिंह बरनाला के साथ जेएनयू कैम्पस आए। संत लोंगोवाल ने झेलम लॉन में सार्वजनिक सभा को सम्बोधित किया था, उन्होंने कहा अकालीदल की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने जेएनयू समुदाय खासकर छात्रों को सिख जनसंहार के समय साम्प्रदायिक सदभाव और पीडित सिख परिवारों की मदद करने,सिखों की जान बचाने के लिए धन्यवाद भेजा है। सिख जनसंहार की घडी में सिखों की जानोमाल की रक्षा में आपने जो भूमिका अदा की है उसके लिए हम आपके ऋणी हैं।सिखों की मदद करने के लिए उन्होंने जेएनयू समुदाय का धन्यवाद किया। हमारे सबके लिए संत लोंगोवाल का आना सबसे बड़ा पुरस्कार था। सारे छात्र उनके भाषण से प्रभावित थे।
( जगदीश्वर चतुर्वेदी सिख विरोधी दंगों के समय जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष थे। बाद में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफ़ेसर हुए। प्रसिद्ध मीडिया विश्लेषक हैं। )
मीडिया विजिल से जुड़ने के लिए शुक्रिया। जनता के सहयोग से जनता का मीडिया बनाने के अभियान में कृपया हमारी आर्थिक मदद करें।
Shambhunath Shukla
Yesterday at 10:22 ·
आस्तिकता और नास्तिकता परस्पर अन्योन्याश्रित है। जैसे एक ही सिक्के के दो पहलू लेकिन धर्म और मार्क्सवाद परस्पर विपरीत ध्रुव हैं। धर्म निर्धन और असहाय को निवृत्ति सिखाता है जबकि मार्क्सवाद गरीबों को प्रवृत्ति के मार्ग पर चलने को प्रेरित करता है। धर्म अन्याय,अत्याचार, अनाचार को बढ़ावा देता है तथा अमीर और गरीब की खाई को चौड़ा करना ही उसका धर्म है जबकि मार्क्सवाद अनीति के विरुद्घ लडऩा सिखाता है। तथा गरीबों को बताता है कि उसकी गरीबी की वजह ईश्वर या भाग्य नहीं बल्कि सत्ता पर बैठे निरंकुश लोगों की तानाशाही है। इसलिए इस तानाशाही का विनाश करो। धर्म के रक्षक गरीब होते हैं जबकि अमीर उसका भरण-पोषण करते हैं दूसरी तरफ मार्क्सवाद के रक्षक गरीब होते हैं और अमीर उसके शिकारी। लेकिन आज मुझे लगता है कि मुहम्मद साहब ने जो इस्लाम पंथ चलाया था वह काफी हद तक गरीबरक्षक और अमीर विरोधी है। शायद इसीलिए इस्लाम मार्क्सवाद के काफी करीब है क्योंकि मार्क्सवाद अपने अंतस से जिस समाजवाद को बढ़ावा देता है उसे मुहम्मद का दर्शन पिछले डेढ़ हजार साल से दे रहा है।Shambhunath Shukla
1 May at 19:20 ·
कामरेड की हिंदी!
मई दिवस (मे डे) पर कानपुर के फूलबाग मैदान में मैने तीन लोगों के भाषण सुने हैं। एक ईएमएस नंबूदरीपाद का और दूसरा कामरेड ज्योति बसु का। तीसरा बीटी रणदिबे का। पहले वाले दोनों ने कानपुर की रैली में अपना भाषण अंग्रेजी में दिया वहीं रणदिवे ने अपनी टूटी-फूटी हिंदी में दिया। लेकिन जहां ईएमएस नंबूदरीपाद ने कहा कि उनको बेहद दुख है कि एक ही देश होते हुए भी उन्हें अपनी बात रखने के लिए अंग्रेजी का सहारा लेना पड़ रहा है। उन्होंने कहा था कि उन्हें मलयालम आती है पर मलयालम के लिए दुभाषिया यहां नहीं ला सके। इसके विपरीत कामरेड ज्योति बसु ने कहा कि देश में संपर्क भाषा चूंकि अंग्रेजी है इसलिए वे अपनी बात अंग्रेजी में रख रहे हैं। मजे की बात कि दोनों के कानपुर आगमन के मध्य करीब बीस साल का फर्क था। पर दुभाषिया एक ही आदमी था। शायद उसे ही अंग्रेजी का हिंदी करना आता होगा। नंबूदरीपाद हकलाते थे पर वे इस तरह धाराप्रवाह डेढ़ घंटे तक बोलते रहे कि लगा ही नहीं कि कामरेड हकलाते भी हैं। कामरेड नंबूदरीपाद उन शख्सियतों में से थे जिन्होंने देश में सबसे पहले एक राज्य में कम्युनिस्ट सरकार बनाई और उसे कांग्रेस ने गिरवा दिया। क्योंकि भूमि सुधार का वे ऐसा बिल लाना चाहते थे जो सारे कांग्रेसी सामंतों को ध्वस्त कर डालता। कामरेड ज्योति बसु पश्चिम बंगाल में दो बार उप मुख्यमंत्री रहे और 1977 से 2000 तक मुख्यमंत्री। पर हिंदी के बारे में उनके विचार शुद्घतावादी बंगाली भद्रलोक सरीखे थे। उनके राज में विनयकृष्ण चौधरी ने जो भूमि सुधार किया उसकी फसल अब ममता बनर्जी काट रही हैं। और शायद यही कारण है कि पूरी ताकत लगाकर भी पश्चिम बंगाल में भाजपा शायद ही अपने पांव गड़ा सके। यानी दो कम्युनिस्ट नेता दोनों ही भाकपा से माकपा में आए पर एक में हिंदी न जानने के लिए शर्मिन्दगी और दूसरे के अंदर हिंदी के अज्ञान पर भद्रलोक जैसा अहंकार व हिंदी भाषियों के प्रति तिरस्कार। यही कारण रहा कि उत्तर प्रदेश के सारे उन स्थानों से कम्युनिस्ट पार्टियां साफ हो गईं जहां पर कभी कामरेड के मायने ही होता था जीत पक्की। और उस कानपुर में तो कम्युनिस्ट आंदोलन की जड़ें ही समाप्त हो गईं जहां पर कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ और कानपुर बोल्शेविक षडयंत्र केस में जहां एमएन राय, श्रीपाद अमृत डांगे, कामरेड मुजफ्फर हसन और शौकत उस्मानी पर मुकदमा चला। कामरेड शौकत उस्मानी उन मुसलमानों से थे जिन्होंने खिलाफत आंदोलन का विरोध किया था और गांधीजी द्वारा इस आंदोलन को समर्थन देना मुसलमानों को कुएं में फेक देने के समान कहा था। कामरेड शौकत उस्मानी की पुस्तक “मेरी रूस यात्रा” से पता चलता है कि उस समय पढ़ा-लिखा और संजीदा मुस्लिम नेता अपने हिंदू साथियों की तुलना में कहीं ज्यादा उदार और सेकुलर हुआ करता था।Shambhunath Shukla
Uday Singh
24 May at 15:10 ·
बामपंथ ने देश को क्या दिया जानिये (1)
========================आजकल फेसबुक या अन्य जगह पर बामपंथ तथा कम्युनिस्ट पार्टी की खूब आलोचना हो रही है ।संघ परिवार जहा कम्युनिस्टो को देश का दुश्मन नंबर वन घोषित करता है वही कुछ तथाकथित अंबेडकरवादी इनको संघ की ही एक शाखा बताते है ,घोर ब्राह्मणवादी और ना जाने क्या क्या ।हमे कम्युनिस्टो परिवार जब ऐसा आरोप लगता है तो उस जवान बेटे की बात याद आती है जो बूढे बाप को लात मारते हुए कहता है तुने हमको क्या किया है ।
हलाकि मै कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य नही हू क्योकि मेरे पास सदस्य बनने की क्षमता नही है फिर समाज मे रहते हुए जिन बातो को देखा हू उनको आपलोगो के सामने रख रहा हू ।
हमे याद है सन् 1963 -64 का वह समय जब मै चार मे पढता था और हिन्दी मे चिट्ठी लिख लेता था तब उस समय काम करने के लिए पूरे हिन्दुस्तान से लोग कोलकाता ही जाते थे ।पूरे देश से लोग कलकत्ता जाकर कल कारखानो मे काम करते थे ।हमारे गाव के करीब दो सौ आदमी कलकत्ता थे और यही हालत पूरे हिन्दी प्रदेशो की थी ।उस समय जब महिलाए हमसे अपने पति से चिट्ठी लिखवाती थी तो कुछ बाते याद है -भरपेट खाना खा लिह, जूता खरीद लिये ,हमारे चिन्ता मत करे । घर चू रहा है पर किसी तरह से काम चल जाई ।जो चिट्ठी आती तो मै ही पढकर सुनाता -फैक्ट्री से हफ्ता नही मिला ।बीस रूपया तो खाये मे कट गया ।मकान क पाच रूपया भाडा ।एगो जूता खरीदे के बा ।नंगे पैर बहुत तकलीफ होती बाद ।दस रूपया भेज देले बानी ।यहा नौकरी के कौनो सही ठिकाना नही है ।जब चाहे मालिक निकाल देही । जे के निकाल देता है उसमे कितना मजदूर खाने बिना मर जाते है ।औरते दस पैसा मे शरीर बेचे के तैयार बानी तबो पेट भरने खाना नही मिल रहा है ।
दोस्तो उस समय नौकरी की कोई गारंटी नही कोई पीएफ नही कोई पेनसन या मशीन से अपंग हो जाने पर कोई मुवायजा नही लोग कटे हाथ लेकर गाव आकर भीख मांगते थे ।जिन औरतो के पति कोयले की खान मे काम करते थे उन औरतो की माँग धो दी जाती थी क्योकि कोयला खान मे काम करने का उस समय मतलब की कुछ ही दिन मे मौत ।ऐसै मे कोई पार्टी नही थी जो इन नारकीय जीवन मे कुछ राहत दिलाने सके सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टी के ।उस समय मानववादी संवेदनशील लोग अपना धन बैभव व अच्छी नौकरी छोड़कर कम्युनिस्ट के मजदूर आन्दोलन मे कूद पड़े ।कुछ लोग पेपर मे लिखते थे कुछ नाटक कर लोगो को संगठित करते थे ।कितने लोगो मारे भी गये ।और एक संगठित मजदूर संगठन बन गया ।पूंजीपति घुटने टेक दिये ।नौकरी की गारंटी हुई ।पीएफ कटने लगा ।बोनस मिलने लगा ।हाथ पैर कट जाने पर अच्छा मुवायजा मिलने लगा ।काम आठ घंटे की गारंटी अधिक करने पर ओवर टाईम ।पूरे देश के लाखो लाखो मजदूरो का जीवन सुशहाली से भर गया ।लोगो घर आकर घर बनाने लगे बच्चो को अच्छी शिक्षा कपडे लत्ते की बयवसथा किये ।जयोतिबसु बंगाल के बहुत बडे जमीदार लंदन से पढे वकील थे पर पूरी सम्पत्ति कम्युनिस्ट पार्टी को दान कर दिये और पार्टी से मिले जीवन निर्वाह भत्ते से खर्च चलाते थे ।बंगाल के कृषि मंत्री थे हरिकृष्ण कोनार ।बंगाल के टाप टेन जमीदारो मे गिनती होती थी ।पूरी जमीन मजदूरो मे बाट दिये ।और कम्युनिस्ट पार्टी मे हमेसा रहे ।दो रूपये मीटर से अधिक का कभी कपड़ा नही पहने ।प्रमोद दास गुप्ता इनजियर थे ।बंगाल कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव पर जिन्दगी भर मजदूर जैसै रहे ।बंगाल का हाल जानना चाहते हो तो प्रसिद्ध बंगाली उपन्यासकार तारा शंकर बंदोपाध्याय का गणदेवता पढिये जिसे ज्ञान पीठ पुरस्कार मिला था ।वहा के जमीदार गरीब लडकियो को एक कप चाय से भी कम कीमत की समझते थे ।उन जमीदारो से और उनके अत्याचार से कौन लडा ।हरिकृष्ण कोनार ने लडा कम्युनिस्ट पार्टी ने लडा ।आज बंगाल मे कोई जमीदारो नही है ।बंगाल मे कोई किसान आत्महत्या नही करता गुजरात महाराष्ट्र जैसा ।वहा कृषि सुधार हिन्दुस्तान मे सबसे अच्छा है यह भारत सरकार का आकडा कहता है ।बंगाल मे कल कारखाने गुजरात व अन्य जगह जाने की कहानी यो है ।जब पूजिपतियो को लगा कि हम मजदूरो से आठ घंटे से अधिक काम नही करा सकते उनका खून नही चूस सकते तो बंगाल से कारखाने बंद कर केन्द्र सरकार की शह पर गुजरात महाराष्ट्र वगैरह मे चले गये ।वहा के पूजिपति अब मजदूरो से बारह घंटे काम कराते है ।मोदी और योगी तो अठारह घंटे काम कराने की सलाह दे रहे है ।योगि ने तो साफ कहा दिया है जो अठारह घंटे काम न कर सके बाहर जाये ।मित्रो आप कम्युनिस्ट पार्टी को वोट दे या न दे पर मानवता के लिए इतना त्याग करने वालो को संघ का दलाल कहना देश का गद्दार कहना उचित है ? ऐसा कहने वाले कही खुद ही तो उन पूजिपतियो के इशारे पर काम नही कर रहे है ?Uday SinghUday Singh
25 May at 14:27 ·
बामपंथ ने देश को क्या दिया (2)
=========================हमारा इस विषय पर पोस्ट लिखने का मतलब हरगिज यह नही है कि अन्य लोगो ने कुछ नही किया देश के लिए और कम्युनिस्ट पार्टी मे कोई कमी नही कोई गलती नही की ।हमारा मकसद यह है कि कम्युनिस्ट पार्टी भी देश समाज के लिए बहुत कुछ किया है ।उन्हे देश का गद्दार कहना देश के क्रान्तिकारीयो का अपमान है ।सिर्फ गाजीपुर जिले मे कमसे कम्युनिस्ट दस ऐसै स्वतंत्रता सेनानी है जिनको आजादी की लड़ाई मे आजीवन और डबल आजीवन कारावास तक हुआ था जो सासंद और विधायक भी रह चूके है जिनका मरते दम तक भाजपा काग्रेस व अन्य दल के नेता सम्मान देते थे ।उनके मरने के बाद पूरे जिले से जनसैलाब उमड गया था ।
कम्युनिस्टो के हर काम को लिखने के लिए इतना पोस्ट पर्याप्त नही मै एक दो कामो को बता पाउगा ।आलोचना करने वाले लोगो ने निवेदन है कि जो बात पोस्ट मे उठाई गयी है उस संदर्भ पर आलोचना करे फालतू काव काव करने से कोई फायदा नही । नवंबर 1967 मे पश्चिम बंगाल मे अजय मुखर्जी बंगला काग्रेस बनाकर कम्युनिस्ट पार्टी के साथ संविद सरकार बनाये थे तब कम्युनिस्ट पार्टी के जयोतिबसु गृह मंत्री तथा बंगाल के सबसे बड़े जमीदार हरे कृष्ण कोनार कृषि एवं रेवेन्यू मिनिस्टर थे । हरे कृष्ण कोनार एक बड़े जमीदार थे पर सारी जमीदारी गरीबो को दे दिये थे और एक मजदूर की तरह रहते थे । जब सरकार बन गयी तो हरे कृष्ण कोनार ने उन जमीदारो से जमीन छीनकर गरीबो भूमिहीनो मे बाटने की बात मुख्यमंत्री अजय मुखर्जी से कही जो जमीन सरकार की थी और जिनपर जमीदारो का कब्जा था ।अजय मुखर्जी ने कहा संसद मे विधेयक लाओ । कोनार साहब के कान खड़े हो गये विधेयक तो गिर जायेगा क्योकि बहुत अधिक विधायक जमीदार घराने के थे ।अजय मुखर्जी भी जमीदार थे ।कोनार ने ज्योति बसु से कहा कि जमीन का कागजात मेरे पास जो जमीन गाव समाज की है उसपर गोपनीय तरीके से भूमिहीनो को पार्टी की तरफ से पट्टा कर दे रहा हू और एक ही दिन मै जमीन पर कब्जा करा दूगा आप गृहमंत्री हो पुलिस मत भेजना ।जयोतिबसु ने हरी झंडी दे दी ।बस यही हुआ ।जयोतिबसु ने कहा “मामला जमीदार और भूमिहीनो का है ।आपस मे मिल बैठकर समझ लेगे ।यह देश गाधी का है पुलिस की क्या जरूरत ।पुलिस बैरक से बाहर नही निकलेगी ।फिर क्या था सब जमीदारो द्वारा कब्जा की गयी जमीन पर भूमिहीनो का कब्जा हो गया ।मुख्यमंत्री ने ज्योति बसु से पूछा तो ज्योति बसु ने उपर की बात दोहरा दी ।पर अजय मुखर्जी का जमीदार प्रेम उमड पडा ।वे अपने ही सरकार के खिलाफ कलकत्ता के मोहम्मद अली पार्क मे धरने परे बैठ गये ।भारत के इतिहास मे यह पहला अवसर था जब कोई मुख्यमंत्री अपने ही सरकार के खिलाफ धरने परे बैठा था ।पत्रकारो ने पूछा “आपकी सरकार आप मुख्यमंत्री और आप ही धरने पर । अजय मुखर्जी ने कहा अरे कैसा मुख्यमंत्री ,मै तो मुर्ख मंत्री हू ।हमारे भाई जमीदार संकट मे है पुलिस हमारे हाथ मे नही रेवेन्यू के अधिकारी हमारे हाथ मे नही ।तो दोस्तो कम्युनिस्ट पार्टी ने एक झटके मे जमीदारो की कमर तोड दी ।आज बंगाल मे कोई ऐसा जमीदार नही जिसके कब्जे मे बेनामी जमीन हो । इसलिए बंगाल कृषि विकास व सुधार मे सबसे आगे है वहा के किसान गुजरात महाराष्ट्र की तरह आत्महत्या नही करते क्योकि सबके पास कुछ न कुछ खेत है खाने भर को ।जबकि उत्तर प्रदेश विहार मध्यप्रदेश तमिलनाडु आन्ध्र प्रदेश मे सिलिग व गाव समाज की जमीन पर गरीबो भूमिहीनो का कब्जा नही हो पाया जबकि इन प्रदेशो मे दलित व पिछडे मुख्यमंत्री हो चूके है । डी बंदोपाध्याय आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की हिम्मत किसी के पास नही है न लालू के पास है नही नितिश के पास न मायावती के पास न करूणानिधि के पास ।डी बंदोपाध्याय आयोग ने कहा था कि सरकार अगर नक्सल समस्या को हल करना चाहती है तो आयोग की संस्तुति को लागू करो पर बंगाल केरल व त्रिपुरा छोडकर किसी सरकार मे दम नही कि उस को लागू कर सके । जयोतिबसु जब तक मुख्यमंत्री रहे एक बार भी हिन्दू मुसलमान दंगा नही हुआ ।जब सिखो को पूरे हिन्दुस्तान मे मौत के घाट उतारा जा रहा था तो बंगाल मे किसी सरदार को खरोच तक नही आयी ।जो पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी पर ब्राह्मण वाद का आरोप लगाते है तो उनको पता होना चाहिए ज्योति बसु कभी मंदिर मे जाकर पूजा नही किये किसी ज्योतिषी के पास नही गये । कम्युनिस्ट पार्टी के सांसदो पर एक पैसे के घोटाले का आरोप नही लगा । बामपंथ के एक बार चौसठ सासंद थे ।उनकी पूरी संपत्ति मिलकर भाजपा काग्रेस बहुजन सपा के एक सांसद के संपत्ति के भी बराबर नही होगी ।मै चुनौती देता हू ।एक सासंद का मतलब सबसे अमीर सांसद से है ।लोगो से निवेदन है आप कम्युनिस्टो की आलोचना करे उनकी नितियो की आलोचना करे उनकी गलतियो की आलोचना करे पर विना मतलब गैरजिम्मेदाराना आरोप न लगाये ।
See TranslationUday सिंह ——————Archana Gautam was feeling प्यारी माया.
23 May at 23:06 ·
अंग दान करने में सबसे आगे वामपंथी(असली वाले, आज कल स्वयंसिद्ध मिलावट वाले भी हैं ) हैं और सबसे पीछे बाबा, साधू-संतों की जमात !! लेकिन बाबा लोग तो काया को माया मानते हैं फिर काहे पीछे ? अरे जब सारी मोह माया त्याग दी है तो, काया से भी मोह त्यागो भई कम से कम उनका तो भला हो जाए जो माया का लुत्फ़ उठाना चाहते हैं !!
Rajeev
2 hrs · London, United Kingdom ·
#विषैलावामपंथ
कुछ दिनों पहले क्रिटिकल थ्योरी के बारे में लिखा था. 1937 में जर्मनी से भागकर अमेरिका में बसे वामपंथी होर्कहाइमर ने क्रिटिकल थ्योरी दी थी, जिसका मूल है कि कुछ भी आलोचना से परे नहीं है…धर्म, नैतिकता, समाज, राष्ट्र, माता-पिता, प्रेम, भक्ति, सत्य, निष्ठा…हर चीज की बस आलोचना करो…हर चीज में बुराई खोजो, निकालो…हर पवित्र संस्था, व्यक्ति, विचार और भावना की निंदा करो…
1960 के अमेरिका में एक दूसरे वामपंथी हर्बर्ट मार्क्यूस के नेतृत्व में चले लिबरल मूवमेंट में इसका खुला प्रयोग सामने आया जिसने परिवार और राष्ट्रवाद के स्थापित मूल्यों के विपरीत एक भ्रष्ट, पतित, नशे में डूबे हुए, वासनाग्रस्त उच्श्रृंखल अमेरिकी समाज की स्थापना का अभियान चलाया…जिसने अमेरिका में अपराध, नशा और समलैंगिकता की महामारी फैला दी…
बेटे को यह समझा रहा था, तो उसे यह नहीं समझ में आया कि कोई जानबूझ कर ऐसा एक समाज क्यों बनाना चाहेगा? इसका राजनीति से क्या रिश्ता है? ऐसे एक मूल्यहीन समाज के निर्माण से सत्ता पर कैसे कब्जा किया जा सकता है, कैसे शक्ति आती है?
यह अमेरिका था. उसके स्थापित मूल्यों को उखाड़ कर वामपंथियों को तत्काल और प्रत्यक्ष सत्ता नहीं मिली. लेकिन उसी समय दुनिया के दूसरे छोर पर एक दूसरे विशाल देश में इसी क्रिटिकल थ्योरी का प्रयोग सत्ता-नियंत्रण के लिए हो रहा था. देश था चीन, और यह प्रयोग करने वाला व्यक्ति था माओ. एक समय मार्क्स-माओ-मार्क्यूस का नाम वामपंथ की त्रिमूर्ति के रूप में लिया जाता है…आज टैक्टिकल कारणों से वामपंथियों ने मार्क्यूस का नाम जन-स्मृति से लगभग छुपा रखा है.
1966 में अमेरिका में जिस दिन नशेड़ी वामपंथी संगीत बैंड बीटल्स ने अपना सुपरहिट एल्बम “रिवाल्वर” रिलीज किया था, ठीक उसी दिन चीन में माओ ने अपने कल्चरल रेवोल्यूशन की घोषणा की थी. इस सांस्कृतिक क्रांति में माओ ने सभी पुराने बुर्जुआ मूल्यों को जड़ से उखाड़ कर उसकी जगह सिर्फ वामपंथी क्रांतिकारी सांस्कृतिक मूल्यों को स्थापित करने का आह्वान किया. माओ के बनाये संगठन रेड-गार्ड्स ने सभी क्रांतिविरोधी प्रतिक्रियावादी तत्वों और मूल्यों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाओं और व्यक्तियों पर हमला बोल दिया.
रेड-गार्ड्स मूलतः स्कूली बच्चों और टीनएजर्स की संस्था थी. ये बच्चे टिड्डियों की तरह हजारों की भीड़ में निकलते थे और किसी भी एक व्यक्ति को अपनी प्रतिक्रिया या स्ट्रगल सेशन के लिए चुनते थे. उसके घर में घुस कर तोड़फोड़ करते थे, कोई भी पुराना या कीमती सामान जो पुराने चीनी विचारों या संस्कृति के प्रतीकों को प्रतिबिंबित करता था उसे तोड़-फोड़ करते थे या लूट कर ले जाते थे. उस व्यक्ति को या उसके पूरे परिवार को पकड़ कर घसीटते हुए ले जाते थे, उसके कपड़े फाड़ कर, उसके मुँह पर कालिख पोत कर, गले में अपमानजनक तख्तियाँ लटकाकर उसका तमाशा बनाकर पीटते और अपमानित करते हुए ले जाते थे. फिर उसे एक स्टेज पर हज़ारों या कभी कभी लाखों की भीड़ के सामने ले जाते थे और उसे क्रांति का शत्रु घोषित करके उसे बुरी तरह पीटते थे…कुछ भी वर्जित नहीं था…सामूहिक बलात्कार से लेकर हत्या तक कुछ भी आउट ऑफ बाउंड नहीं था. लाखों लोगों की हत्या कर दी गई, हज़ारों नें इसमें पकड़े जाने के डर से आत्महत्या कर ली और अपने पूरे परिवार को जहर दे दिया. राष्ट्रीय और ऐतिहासिक महत्व के स्मारकों और संग्रहालयों को नष्ट कर दिया गया, पुस्तकालय और मठ जला दिए गए, मंदिरों, मठों और चर्चों से मूर्तियाँ तोड़कर वहाँ चेयरमैन माओ के पोस्टर्स लगा दिए गए. कन्फ्यूशियस के संग्रहालय तक को नष्ट कर दिया गया…सबकुछ जो प्राचीन चीनी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता था वह निशाने पर था…संस्था, प्रतीक, विचार, व्यक्ति…
स्कूल ऑफिशियली बंद कर दिए गए, बच्चे अब सिर्फ क्रांतिकारी शिक्षा पाते थे…जिसमें शामिल था माओ के विचारों को जानना, माओ की रेड-बुक पढ़ना, और पुरानी शिक्षा पद्धति के प्रतीक शिक्षकों का अपमान करना और उन्हें प्रताड़ित करना. बच्चों ने स्कूलों के शिक्षकों को पकड़ पकड़ कर इन स्ट्रगल-सेशन में पीटना और स्कूलों में ही पब्लिक एक्सक्यूशन करना शुरू कर दिया. हज़ारों शिक्षकों को उनके स्कूल के बच्चों ने मार डाला. बच्चों ने अपने माता-पिता को मार डाला क्योंकि उनकी नज़र में वे पिछड़ी सोच के और क्रांतिविरोधी थे. और इन बच्चों पर पुलिस या सेना को किसी तरह की कारवाई करने की सख्त मनाही थी क्योंकि ये बच्चे क्रांति के वाहक थे.
यह पागलपन कुल दस साल चला, 1976 में लगभग माओ की मृत्यु तक. पर पहले तीन वर्ष सबसे बुरे थे. और इस सांस्कृतिक क्रांति में मरने वालों की कुल संख्या का अनुमान 16 से 30 लाख के बीच लगाया जाता है. 17 लाख का आंकड़ा खुद चीनी सरकार का आधिकारिक आँकड़ा है.
पर अभी भी यह स्पष्ट नहीं हुआ कि इस पागलपन का राजनीतिक पहलू क्या था? इसका राजनीतिक लाभ किसे हुआ और कोई ऐसा एक समाज क्यों बना रहा था जहाँ बच्चे अपने पेरेंट्स की, स्टूडेंट्स अपने टीचर्स की ऐसी निर्मम हत्या कर रहे हों?
तो इस सांस्कृतिक क्रांति के पीछे का राजनीतिक इतिहास यह था कि 1958-60 के बीच में माओ ने कुछ ऐसी सनक भरी हरकतें की थीं, कृषि और औद्योगिकरण के ऐसे क्रांतिकारी प्रयोग किये गए थे कि पूरे चीन में भीषण अकाल पड़ गया था और जिसमें 2-3 करोड़ लोग मारे गए थे. इसका नतीजा यह हुआ था कि माओ की लोकप्रियता में भारी कमी आई थी और पार्टी के अंदर माओ की प्रभुसत्ता पर गंभीर सवाल खड़े हो गए थे. इस सांस्कृतिक क्रांति की आड़ में माओ ने आतंक का जो राज्य फैलाया उसमें माओ के सारे प्रतिद्वंदी निबट गए…बहुत से मार डाले गये, बाकी दुबक गए, और देंग सियाओ पिंग जैसे लोग निर्वासन में चले गए.
शाब्दिक, वैचारिक अराजकता सिर्फ सांकेतिक नहीं होती…उसमें विराट राजनीतिक शक्ति छुपी होती है. और एक वामपंथी इस शक्ति को पहचानता है और उसके प्रयोग के उचित अवसर की प्रतीक्षा करता है. हम भी पहचानें और समय रहते उसका प्रतिकार करें…नहीं तो जब दरवाजे पर हजारों की भीड़ खड़ी मिलेगी तो कुछ नहीं कर पाएंगे…Rajeev
13 hrs · London, United Kingdom ·
कुछ दिनों पहले किसी ने फेसबुक पर ध्यान दिलाया था, अम्बेडकर जी की मूर्ति अब्राहम लिंकन स्टाइल में…
भारत की सारी गड़बड़ी की जड़ अमेरिका में बैठे वामी गिरोह में है. तो उनका सारा नैरेटिव अमेरिकी इतिहास से प्रेरित होता है, क्योंकि स्क्रिप्ट वहीं लिखी जाती है.
बहुत समय से भारत में जो दलित संघर्ष की कहानी बनाई जा रही है उसे अमेरिकी अश्वेत दासता के समानांतर खड़ा किया गया है. उसमें बाबासाहब को अब्राहम लिंकन की छवि में चित्रित किया जा रहा है तो कोई आश्चर्य नहीं है…पर हद तो तब होगी जब जिग्नेश मेवानी को मार्टिन लूथर किंग जूनियर बना कर पेश किया जाएगा. देश में 1960-68 के बीच के अमेरिकी ब्लैक-राइट्स दंगों की तर्ज पर गड़बड़ी के लिए तैयार रहिये…बॉलीवुड की कोई फ़िल्म नहीं होती जो हॉलीवुड की घटिया नकल ना हो…Rajeev
14 hrs · London, United Kingdom ·
एन्डगेम क्या होता है, चेस के जानकार समझते हैं. एन्डगेम खेल का वह आखिरी दौर होता है जब आप प्रतिद्वंदी को शह और मात देने के लिए चालें चलते हो. ओपनिंग मूव और मिडिल गेम में आप अपने मोहरे सही जगह बिठाते हो और प्रतिद्वंदी के मोहरे काटते हो…एन्डगेम में उसका नतीजा दिखता है…
1 जनवरी के दंगों से एन्डगेम की शुरुआत हो चुकी है. इसके पहले कितने ही मौके मिले थे मोदी सरकार को विपक्षियों के मोहरे काटने के…
खैर…यह वक़्त चुके मौकों पर अफसोस करने का नहीं है. यह खेल नहीं, युद्ध है. और सरकार ने क्या क्या नहीं किया…कितने मौके गँवाये… कितनी शिकायतें हैं हमें, यह अपनी जगह…
पर मोदी का सबसे बड़ा मोहरा हम हैं… हमारा विश्वास और समर्थन है…यह वजीर जब तक है, बादशाह सुरक्षित है…सारी शिकायतें अपनी जगह…हम साथ हैं, हर हाल में
See Translation
सुयश सुप्रभ
11 hrs ·
रिटायर्ड प्रोफ़ेसर हसन ज़फ़र आरिफ़ भी मारे गए। पाकिस्तान में। सबको रोटी मिले, यही कहते रहे। ज़िंदगी भर। हत्यारों ने बहुत यातना दी। लाश पर चोट के कई निशान थे। सरकार ने फिर भी हत्या को सामान्य मौत में बदलने की कोशिश की।
हसन हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने के बाद अपने देश लौट आए। लेकिन धार्मिक कट्टरता और भ्रष्टाचार का ‘हार्ड वर्क’ करने वालों ने उन्हें हमेशा के लिए चुप कर दिया। लेफ़्ट ने कितनी कुर्बानियाँ दी हैं, इसका हिसाब जनता ही करे।
Krishna Kant
15 mins ·
देश के इतिहास को कम्युनिस्टों ने तोड़ा, फिर मरोड़ा, फिर निचोड़ा, खखोरा, बर्बाद कर दिया। चलो मान लिया। लेकिन पिछले सौ साल में संघियों ने क्या लिखा? दुनिया का सबसे बड़ा संघटन है उनके पास। सबसे बड़ी पार्टी उनके पास। विवेकानन्द फाउंडेशन उनके पास। लिखने पढ़ने से कौन रोक रहा था?
आइये हम बताते हैं कौन रोक रहा था। आपकी मूर्खता। आज तो सत्ता में हैं, इतिहास गलत है इसका रोना भी है। और कर क्या रहे हैं? एक माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय है, उसके कुलपति ने संघ के मुखपत्र पांचजन्य में लेख लिखा है, जिसमे साबित करने की कोशिश की है कि नारद दुनिया के पहले पत्रकार थे। पत्रकारिता की शुरुआत जाने दीजिए, कुलपति महोदय यही बता दें कि 13 मई को नारद जयंती कैसे मनाते हैं? अगर नारद 13 मई को पैदा हुए मतलब ईसवी सन के बाद कि पैदाइश हैं। आपके हर लिखे में, हर अवधारणा में मूर्खता का पहाड़ खड़ा होता है। कम्युनिस्टों ने इतिहास बर्बाद किया होगा, उनका बचाव हम क्या करेंगे, लेकिन आप अपनी मूर्खता से बर्बाद हैं। ऐसे महा ज्ञानी जिस विवि के कुलपति हैं, उसके छात्रों का क्या होगा इसकी चर्चा जाने दें। क्या पता उनको भी नारद बनकर सत्ता रूपी विष्णु को भजने में सुख मिले।
संघी गप्प लेखन के उलट इतिहास लेखन पे बात करें, तो फिलहाल हमारे बीच प्रो शम्सुल इस्लाम लिख रहे हैं। संघियों को नंगा कर देते हैं। सारा संदर्भ संघी महापुरुषों के ही लेखन से ही होता है। ऐसा होता है लेखन, पुख्ता प्रमाण के साथ, जिसे कोई काट न सके।
आपने सौ साल में सिर्फ पश्चगामी तरीके से सोचा, और मध्ययुगीन विचारों को पोषित किया। धर्म के आधार पर बना पाकिस्तान, जो संघियों के द्विराष्ट्र सिद्धान्त का मूर्त रूप था, 25 साल में टूट गया। 60 साल बाद पहली बार चुनी हुई सरकार बन पाई, आज भी बर्बाद है। लेकिन संघियों का हिन्दू राष्ट्र का 19वीं सदी का सपना अब भी जवान है। उसे बर्बाद ही होना है। यह समझने की समझ तक आप में नहीं आई, इतिहास क्या खाक लिखोगे?Krishna Kant
15 mins · Sanjay Tiwari
59 mins ·
बीते दो हजार साल में भारत में दो धार्मिक आंदोलन सबसे मुखर रूप से स्थापित हुए। पहला, शैव आंदोलन और दूसरा वैष्णव आंदोलन। शैव मत का प्रचार किया शंकराचार्य ने और वैष्णव मत का प्रचार किया रामानुजाचार्य ने। दोनों का प्रभाव उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम सब तरफ फैला। दोनों उसी तमिलनाडु में पैदा हुए थे जिसे कम्युनिष्ट द्रविड़नाडु घोषित कर रहे हैं।
लेकिन ये जूताखोर जमात है। इन्हें सच झूठ से कोई मतलब नहीं है। इन्हें बंटवारे की अपनी गंदी मानसिकता को पालना पोसना है। गंदगी में पैदा होती है, उसी में पलती बढ़ती है और उसी में नष्ट हो जाती है।Sanjay Tiwari
3 hrs ·
आज ट्विटर पर एक ट्रेन्ड चल रहा है। द्रविड़नाडु। आइडिया उन्हीं का है जिन्हें कम्युनिस्ट कहते हैं। कम्युनिज्म हो और बंटवारे वाली राजनीति न हो, यह भला कैसे हो सकता है। समाज की कमजोर कड़ियों को पकड़कर उसे तोड़ने का काम भारत में कम्युनिस्ट हमेशा से करते रहे हैं। पाकिस्तान की मांग उठी तो जिन्ना के साथ खड़े हो गये। कश्मीर में अलगाववाद उभरा तो हुर्रियत के साथ खड़े हो गये। अब यही उभार दक्षिण में पैदा करने की कोशिश की जा रही है।
हालांकि यह उनकी खुशफहमी है कि वो अलगाववादी राजनीति में अब कभी सफल हो पायेंगे लेकिन मेरा कहना है सब काम छोड़कर पहले इस देश में कम्युनिज्म को वैसे ही कुचल दीजिए जैसे इंडोनेशिया ने कुचल दिया था। भारत की ज्यादातर राजनीतिक समस्याओं का समाधान हो जाएगा।
http://thewirehindi.com/4389/bhagat-singh-and-savarkar-a-tale-of-two-petitions/
(समयांतर के अप्रैल अंक से साभार )-धीरेश सैनी माणिक सरकार को आप कितना जानते हैं?
JUL 10, 2017 0
” दरअसल, मणिक सरकार पिछले साल विधानसभा चुनाव में अपने नामांकन के बाद अचानक देश भर के अखबारों में चर्चा में आ गए थे। नामांकन के दौरान उन्होंने अपनी सम्पत्ति का जो हलफनामा दाखिल किया था, उसे एक राष्ट्रीय न्यूज एजेंसी ने फ्लेश कर दिया था। जो शख्स 1998 से लगातार मुख्यमंत्री हो, उसकी निजी चल-अचल संपत्ति अढ़ाई लाख रुपये से भी कम हो, यह बात सियासत के भ्रष्ट कारनामों में साझीदार बने मीडिया के लोगों के लिए भी हैरत की बात थी ”मेरी दिलचस्पी त्रिपुरा के मुख्यमंत्री मणिक सरकार (बांग्ला डायलेक्ट के लिहाज से मानिक सरकार) के बजाय उनकी पत्नी पांचाली भट्टाचार्य से मिलने में थी। मैंने सोचा कि निजी जीवन के बारे में `पॉलिटिकली करेक्ट` रहने की चिंता किए बिना वे ज्यादा सहज ढंग से बातचीत कर सकती हैं, दूसरे यह भी पता चल सकता है कि एक कम्युनिस्ट नेता और कड़े ईमानदार व्यक्ति के साथ ज़िंदगी बिताने में उन पर क्या बीती होगी। पर वे मेरी उम्मीदों से कहीं ज्यादा सहज और प्रतिबद्ध थीं, मुख्यमंत्री आवास में रहने के जरा भी दंभ से दूर। बातचीत में जिक्र आने तक आप यह भी अनुमान नहीं लगा सकेंगे कि वे केंद्र सरकार के एक महकमे सेंट्रल सोशल वेलफेयर बोर्ड के सेक्रेट्री पद से रिटायर हुई महिला हैं।
फौरन तो मुझे हैरानी ही हुई कि एक वॉशिंग मशीन खरीद लेने भर से वे अपराध बोध का शिकार हुई जा रही हैं। मैंने एक अंग्रेजी अखबार की एक पुरानी खबर के आधार पर उनसे जिक्र किया था कि मुख्यमंत्री अपने कपड़े खुद धोते हैं तो उन्होंने कहा कि जूते खुद पॉलिश करते हैं, पहले कपड़े भी नियमित रूप से खुद ही धोते थे पर अब नहीं। वे 65 साल के हो गए हैं, उनकी एंजियोप्लास्टी हो चुकी है, बायपास सर्जरी भी हुई, ऊपर से भागदौड़, मीटिंगों, फाइलों आदि से भरी बेहद व्यस्त दिनचर्या। पांचाली ने बताया कि दिल्ली में रह रहे बड़े भाई का अचानक देहांत होने पर मैं दिल्ली गई थी तो भाभी ने जोर देकर वादा ले लिया था कि अब वॉशिंग मशीन खरीद लो। लौटकर मैंने माणिक सरकार से कहा तो वे राजी नहीं हुए। मैंने समझाया कि हम दोनों के लिए ही अब खुद अपने कपड़े धोना स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक नहीं है तो उन्होंने पैसे तय कर किसी आदमी से इस काम में मदद लेने का सुझाव दिया। कई दिनों की बहस के बाद उन्होंने कहा कि तुम तय ही कर चुकी हो तो सलाह क्यों लेती हो।सीएम आवास के कैम्प आफिस के एक अफसर से मैंने हैरानी जताई कि क्या मुख्यमंत्री के कपड़े धोने के लिए सरकारी धोबी की व्यवस्था नहीं है तो उसने कहा कि यह इस दंपती की नैतिकता से जुड़ा मामला है। मणिक सरकार ने मुख्यमंत्री आवास में आते ही अपनी पत्नी को सुझाव दिया था कि रहने के कमरे का किराया, टेलिफोन, बिजली आदि पर हमारा कोई पैसा खर्च नहीं होगा तो तुम्हें अपने वेतन से योगदान कर इस सरकारी खर्च को कुछ कम करना चाहिए। और रसोई गैस सिलेंडर, लॉन्ड्री (सरकारी आवास के परदे व दूसरे कपड़ों की धुवाई) व दूसरे कई खर्च वे अपने वेतन से वहन करने लगीं, अब वे यह खर्च अपनी पेंशन से उठाती हैं।मैंने बताया कि एक मुख्यमंत्री की पत्नी का रिक्शा से या पैदल बाज़ार निकल जाना, खुद सब्जी वगैरहा खरीदना जैसी बातें हिंदी अखबारों में भी छपी हैं। यहां के लोगों को तो आप दोनों की जीवन-शैली अब इतना हैरान नहीं करती पर बाहर के लोगों में ऐसी खबरें हैरानी पैदा करती हैं। उन्होंने कहा कि साधारण जीवन और ईमानदारी में आनंद है। मैंने तो हमेशा यही सोचा कि मणिक मुख्यमंत्री नहीं रहेंगे तो ये स्टेटस-प्रोटोकोल आदि छूटेंगे ही, तो इन्हें पकड़ना ही क्यों। मैं नहीं चाहती थी कि मेरी वजह से मेरे पति पर कोई उंगली उठे। मेरा दफ्तर पास ही था सो पैदल जाती रही, कभी जल्दी हुई तो रिक्शा ले लिया। सेक्रेट्री पद पर पहुंचने पर जो सरकारी गाड़ी मिली, उसे दूर-दराज के इलाकों के सरकारी दौरों में तो इस्तेमाल किया पर दफ्तर जाने-आने के लिए नहीं। सरकारी नौकरी से रिटायरमेंट के बाद अब सीआईटीयू में महिलाओं के बीच काम करते हुए बाहर रुकना पड़ता है। आशा वर्कर्स के साथ सोती हूं तो उन्हें यह देखकर अच्छा लगता है कि सीएम की पत्नी उनकी तरह ही रहती है। एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता के लिए नैतिकता बड़ा मूल्य है और एक नेता के लिए तो और भी ज्यादा। मात्र 10 प्रतिशत लोगों को फायदा पहुंचाने वाली नई आर्थिक नीतियों और उनसे पैदा हो रहे लालच व भ्रष्टाचार से लड़ाई के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता और उससे मिलने वाली नैतिक शक्ति सबसे जरूरी चीजें हैं।दरअसल, मणिक सरकार पिछले साल विधानसभा चुनाव में अपने नामांकन के बाद अचानक देश भर के अखबारों में चर्चा में आ गए थे। नामांकन के दौरान उन्होंने अपनी सम्पत्ति का जो हलफनामा दाखिल किया था, उसे एक राष्ट्रीय न्यूज एजेंसी ने फ्लेश कर दिया था। जो शख्स 1998 से लगातार मुख्यमंत्री हो, उसकी निजी चल-अचल संपत्ति अढ़ाई लाख रुपये से भी कम हो, यह बात सियासत के भ्रष्ट कारनामों में साझीदार बने मीडिया के लोगों के लिए भी हैरत की बात थी। करीब अढ़ाई लाख रुपये की इस सम्पत्ति में उनकी मां अंजलि सरकार से उन्हें मिले एक टिन शेड़ के घर की करीब 2 लाख 22 हजार रुपये कीमत भी शामिल है। हालांकि, यह मकान भी वे परिवार के दूसरे सदस्यों के लिए ही छोड़ चुके हैं। इस दंपती के पास न अपना घर है, न कार। कम्युनिस्ट नेताओं को लेकर अक्सर उपेक्षा या दुष्प्रचार करने वाले अखबारों ने `देश का सबसे गरीब मुख्यमंत्री` शीर्षक से उनकी संपत्ति का ब्यौरा प्रकाशित किया। किसी मुख्यमंत्री का वेतन महज 9200 रुपये मासिक (शायद देश में किसी मुख्यमंत्री का सबसे कम वेतन) हो, जिसे वह अपनी पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी (माकपा) को दे देता हो और पार्टी उसे पांच हजार रुपये महीना गुजारा भत्ता देती हो, उसका अपना बैंक बेलेंस 10 हजार रुपये से भी कम हो और उसे लगता हो कि उसकी पत्नी की पेंशन और फंड आदि की जमाराशि उनके भविष्य के लिए पर्याप्त से अधिक ही होगी, तो त्रिपुरा से बाहर की जनता का चकित होना स्वाभाविक ही है।हालांकि, संसदीय राजनीति में लम्बी पारी के बावजूद लेफ्ट पार्टियों के नेताओं की छवि अभी तक कमोबेश साफ-सुथरी ही ही रहती आई है। त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और केरल की लेफ्ट सरकारों में मुख्यमंत्री रहे या केंद्र की साझा सरकारों में मंत्री रहे लेफ्ट के दूसरे नेता भी काजल की इस कोठरी से बेदाग ही निकले हैं। लेफ्ट पार्टियों ने इसे कभी मुद्दा बनाकर अपने नेताओं की छवि का प्रोजेक्शन करने की कोशिश भी कभी नहीं की। मणिक सरकार से उनकी साधारण जीवन-शैली और `सबसे गरीब मुख्यमंत्री` के `खिताब` के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि मेरी पार्टी और विचारधारा मुझे यही सिखाती है। मैं ऐसा नहीं करुंगा तो मेरे भीतर क्षय शुरू होगा और यह पतन की शुरुआत होगी। इसी समय केंद्र की कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार भ्रष्टाचार के लिए अभूतपूर्व बदनामी हासिल कर चुकी थी और उसकी जगह लेने के लिए बेताब भारतीय जनता पार्टी केंद्र में अपनी पूर्व में रही सरकार के दौरान हुए भयंकर घोटालों और अपनी पार्टी की राज्य सरकारों के मौजूदा कारनामों पर शर्मिंदा हुए बगैर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश को स्वच्छ व मजबूत सरकार देने का वादा कर रही थी। अल्पसंख्यकों की सामूहिक हत्याओं और अडानी-अंबानी आदि घरानों पर सरकारी सम्पत्तियों व सरकारी पैसे की बौछार में अव्वल लेकिन आम-गरीब आदमी के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण आदि मसलों पर फिसड्डी गुजरात को विकास का मॉडल और इस आधार पर खुद को देश का भावी मजबूत प्रधानमंत्री बताते घूम रहे नरेंद्र मोदी की शानो शौकत भरी जीवन-शैली के बरक्स मणिक सरकार की `सबसे गरीब-ईमानदार मुख्यमंत्री की छवि` वाली अखबारी कतरनों ने विकल्प की तलाश में बेचैन तबके को भी आकर्षित किया जिसने इन कतरनों को सोशल मीडिया पर जमकर शेयर किया। हालांकि, ये कतरनें मणिक सरकार की व्यक्तिगत ईमानदारी के तथ्यों को जरा और मिथकीय बनाकर तो पेश करती थीं पर इनमें भयंकर आतंकवाद, आदिवासी बनाम बंगाली संघर्ष व घोर आर्थिक संकट से जूझ रहे पूरी तरह संसाधनविहीन अति-पिछड़े राज्य को जनपक्षीय विकास व शांति के रास्ते पर ले जाने की उनकी नीतियों की कोई झलक नहीं मिलती थी। लोकसभा चुनाव में जाने से पहले माकपा का शीर्ष नेतृत्व सेंट्रल कमेटी की मीटिंग के लिए अगरतला में जुटा तो उसने प्रेस कॉन्फ्रेंस और सार्वजनिक सभा में त्रिपुरा के विकास के मॉडल को देश के विकास के लिए आदर्श बताते हुए कॉरपोरेट की राह में बिछी यूपीए, एनडीए आदि की जनविरोधी आर्थिक नीतियों की कड़ी आलोचना की। दरअसल, मणिक सरकार और त्रिपुरा की उनके नेतृत्व वाली माकपा सरकार की उपलब्धियां उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी की तरह ही उल्लेखनीय हैं लेकिन उनका जिक्र कॉरपोरेट मीडिया की नीतियों के अनुकूल नहीं पड़ता है।लेकिन, भ्रष्टाचार में डूबे नेताओं के लिए मणिक सरकार की ईमानदारी को लेकर छपी छुटपुट खबरों से ही अपमान महसूस करना स्वाभाविक था। गुजरात के मुख्यमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव के प्रचार अभियान के सिलसिले में अगरतला आए तो वे विशाल अस्तबल मैदान (स्वामी विवेकानंद मैदान) में जमा तीन-चार हजार लोगों को संबोधित करते हुए अपनी बौखलाहट रोक नहीं पाए। उन्होंने कहा कि कम्युनिस्ट खुद को ज्यादा ही ईमानदार समझते हैं और इसका खूब हल्ला करते हैं। उन्होंने गुजरात के विकास की डींग हांकते हुए रबर की खेती और विकास के सब्जबाग दिखाते हुए कमयुनिस्टों को त्रिपुरा की सत्ता से बाहर कर कमल खिलाने का आह्वान किया। लेकिन, उनका मुख्य जोर बांग्लादेश सीमा से लगे इस संवेदनशील राज्य में साम्प्रदायिक भावनाएं भड़काने और तनाव की राजनीति पर जोर देने पर रहा। उन्होंने कहा कि त्रिपुरा में बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण खतरा पैदा हो गया है जबकि गुजरात से सटा पाकिस्तान मुझसे थर्राता रहता है। झूठ और उन्माद फैलाने के तमाम रेकॉर्ड अपने नाम कर चुके मोदी को शायद मालूम नहीं था कि मणिक सरकार की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण सीआईए-आईएसआई के संरक्षण में चलने वाली आतंकवादी गतिविधियों पर नियंत्रण और आदिवासी बनाम बंगाली वैमनस्य की राजनीति को अलग-थलग कर दोनों समुदायों में बड़ी हद तक विश्वास का माहौल बहाल करना भी है।
माकपा के नृपेन चक्रवर्ती और दशरथ देब जैसे दिग्गज नेताओं के मुख्यमंत्री रहने के बाद 1998 में मणिक सरकार को यह जिम्मेदारी दी गई थी तो विश्लेषकों ने इसे एक अशांत राज्य का शासन चलाने के लिहाज से भूल करार दिया था। 1967 में महज 17-18 बरस की उम्र में छात्र मणिक प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार के खिलाफ चले खाद्य आंदोलन में बढ़-चढ़कर शामिल रहे थे। उस चर्चित जनांदोलन में प्रभावी भूमिका उन्हें माकपा के नजदीक ले आई और वे 1968 में विधिवत रूप से माकपा में शामिल हो गए। वे बतौर एसएफआई प्रतिनिधि एमबीबी कॉलेज स्टूडेंट यूनियन के महासचिव चुने गए और कुछ समय बाद एसएफआई के राज्य सचिव और फिर राष्ट्रीय उपाध्यक्ष चुने गए। 1972 में वे माकपा की राज्य इकाई के सदस्य चुने गए और 1978 में प्रदेश की पहली माकपा सरकार अस्तित्व में आई तो उन्हें पार्टी के राज्य सचिव मंडल में शामिल कर लिया गया। 1980 के उपचुनाव में वे अगरतला (शहरी) सीट से विधानसभा पहुंचे और उन्हें वाम मोर्चा चीफ व्हिप की जिम्मेदारी सौंपी गई। 1985 में उन्हें माकपा की केंद्रीय कमेटी का सदस्य चुना गया। 1993 में त्रिपुरा में तीसरी बार वाम मोर्चा की सरकार बनी तो उन्हें माकपा के राज्य सचिव और वाम मोर्चे के राज्य संयोजक की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी गईं। 1998 में पार्टी ने उन्हें पॉलित ब्यूरो में जगह दी और त्रिपुरा विधानसभा में फिर से बहुमत में आए वाम मोर्चा ने विधायक दल का नेता भी चुन लिया। कहने का आशय यह कि यदि अशांत राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी एक मुश्किल चुनौती थी तो उनके पास जनांदोलनों और पार्टी संगठन में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों का कीमती अनुभव भी था।
मणिक के मुख्यमंत्री कार्यकाल की शुरुआत को याद करते हुए जॉर्ज सी पोडीपारा (त्रिपुरा में उस समय सीआरपीएफ के आईजी) लिखते हैं कि आज के त्रिपुरा को आकर देखने वाला अनुमान नहीं लगा पाएगा कि उस समय कैसी विकट परिस्थितियां थीं जिन पर मणिक सरकार ने कड़े समर्पण, जनता के प्रति प्रतिबद्धता, विश्लेषण करने, दूसरों को सुनने, अपनी गलतियों से भी सीखने और फैसला लेने की अद्भुत क्षमता, धैर्य और दृढ़ निश्चय से नियंत्रण पाया था। जॉर्ज के मुताबिक, `एक सच्चे राजनीतिज्ञ की तरह उन्होंने राज्य के लिए बाधा बनी समस्याओं को अपनी प्राथमिकताओं में शामिल किया। उस समय राज्य में आदिवासी और गैर आदिवासी समुदायों के बीच आपसी अविश्वास और वैमनस्य सबसे बड़ी चुनौती थे। दो जाति समूहों के बीच का बैर किसी भी तरह के आपसी संवाद को बांस के घने बाड़े की तरह बाधित किए हुए था। निर्दोषों की हत्या, अपहरण और संपत्ति की लूटपाट 1979 तक भी एक आम रुटीन जैसी बातें थीं। मणिक सरकार ने महसूस किया कि जब तक यह दुश्मनी बरकरार रहेगी और जनता के बड़े हिस्से एक दूसरे को बर्बाद करने पर तुले रहेंगे, राज्य गरीब और अविकसित बना रहेगा। उन्होंने अपना ध्यान इस समस्या पर केंद्रित किया और अपनी सरकार के सारे संसाधन इससे लड़ने के लिए खोल दिए।`
मणिक सरकार ने एक तरफ टीयूजेएस, टीएनवी और आमरा बंगाली जैसे आतंकी व चरमपंथी संगठनों के खिलाफ सख्ती जारी रखी, दूसरी तरफ आदिवासी इलाकों में विकास को प्राथमिकता में शामिल किया। यहां की कुछ जनजातियों के नाम भाषण में पढ़कर आदिवासियों के प्रति भाजपा के प्रेम का दावा कर गए नरेंद्र मोदी को क्या याद नहीं होगा कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों के जंगलों में रह रहे आदिवासियों को कॉरपोरेट घरानों के हितों के लिए उजाड़ने और उनकी हत्याओं के अभियान चलाने में उनकी पार्टी भाजपा और कांग्रेस दोनों की ही सरकारों की क्या भूमिका रहती आई है? इसके उलट मणिक सरकार ने त्रिपुरा में आदिवासियों के बीच लोकतांत्रिक प्रक्रिया तेज कर निर्णय लेने में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने पर बल दिया। उनकी अगुआई वाली लेफ्ट सरकार ने सुदूर इलाकों तक बिजली-पानी, स्कूल, अस्पताल जैसी मूलभूत सुविधाएं सुनिश्चित कीं और कांग्रेस के शासनकाल में आदिवासियों की जिन ज़मीनों का बड़े पैमाने पर अवैध रूप से मालिकाना हक़ ट्रांसफर कर दिया गया था, उन्हें यथासंभव आदिवासयों को लौटाने की पूर्व की लेफ्ट सरकारों में की गई पहल को आगे बढ़ाया। प्रदेश में जंगल की करीब एक लाख 24 हेक्टेयर भूमि आदिवासियों को पट्टे के रूप में दी गई, जिसके संरक्षण के लिए उन्हें आर्थिक मदद दी जा रही है।खास बात यह रही कि उस बेहद मुश्किल दौर में मुख्यमंत्री मणिक सरकार ने यह एहतियात रखी कि शांति स्थापित करने के प्रयास निर्दोष आदिवासयों की फर्जी मुठभेड़ में हत्याओं का सिलसिला न साबित हों। वे सेना और केंद्रीय सुरक्षा बलों के अधिकारियों से नियमित संपर्क में रहे और लगातार बैठकों के जरिए यह सुनिश्चित करते रहे कि आम आदिवासियों को दमन का शिकार न होना पड़े। इसके लिए माकपा नेताओं और कार्यकर्ताओं को इस मुहिम में आगे रहकर शहादतें भी देनी पड़ीं। यूं भी आदिवासियों के बीच लेफ्ट के संघर्षों की लम्बी परंपरा थी। त्रिपुरा में राजशाही के दौर में ही लेफ्ट लोकतंत्र की मांग को लेकर संघर्षरत था। उस समय दशरथ देब, हेमंत देबबर्मा, सुधन्वा देबबर्मा और अघोर देबबर्मा जैसी शख्सियतों द्वारा आदिवासियों को शिक्षा के अधिकार के लिए जनशिक्षा समिति के बैनर तले चलाई गई मुहिम में लेफ्ट भी भागीदार था। 1948 में वामपंथ के प्रसार के खतरे के नाम पर देश की तत्कालीन नेहरू सरकार ने जनशिक्षा समिति की मुहिम को पलीता लगा दिया और आदिवासी इलाकों को भयंकर दमन का शिकार होना पड़ा तो त्रिपुरा राज्य मुक्ति परिषद (अब त्रिपुरा राज्य उपजाति गणमुक्ति परिषद यानी जीएनपी) का गठन कर संघर्ष जारी रखा गया। 1960 और 1970 में आदिवासियों के लिए शिक्षा, रोजगार, विकास और उनकी मातृभाषा कोरबरोक को महत्व दिए जाने के चार सूत्रीय मांगपत्र पर लेफ्ट ने जोरदार आंदोलन चलाए थे। राज्य में माकपा की पहली सरकार आते ही केंद्र की कांग्रेस सरकार व राज्य के कांग्रेस व दूसरे चरमपंथी संगठनों के विरोध के बावजूद त्रिपुरा ट्राइबल एरिया ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल (एडीसी) के गठन जैसे कामों के चलते भी आदिवासियों में माकपा का मजबूत आधार था।
जाहिर है कि आतंकवाद के खिलाफ सख्त पहल और विकास कार्यों में तेजी के अभियान में मणिक सरकार की पारदर्शी कोशिशों को परेशानहाल आदिवासियों और खून-खराबे का शिकार हुए गरीब बंगालियों दोनों का समर्थन हासिल हुआ। हालांकि, शांति की इस मुहिम में तीन दशकों में माकपा के करीब 1179 नेताओं-कार्यकर्ताओं को जान से हाथ धोना पड़ा। कांग्रेस की राज्य इकाई हमेशा आदिवासियों और बंगाली चरमपंथी संगठनों को हवा देकर दंगे भड़काने में मशगूल रहती आई थी और इन संगठनों की बी टीमों को चुनावी पार्टनर भी बनाती रही थी। केंद्र की कांग्रेस सरकारें भी आतंकवादी संगठनों से जूझने के बजाय उनके साथ गलबहियों का खेल खेलती रहीं। लेकिन, आदिवासियों के बीच लेफ्ट का प्रभाव बरकरार रहा और राज्य में शांति स्थापित हुई तो दोनों ही समुदायों ने चैन की सांस ली। मणिक सरकार का यह कारनामा दूसरे राज्यों और केंद्र के लिए भी प्रेरणा होना चाहिए था लेकिन इसके लिए विकास की नीतियों को कमजोर तबकों की ओर मोड़ने की जरूरत पड़ती और कॉरपोरेट को सरकारी संरक्षण में जंगल व वहां के रहने वालों को उजाड़ने देने की नीति पर लगाम लगाना जरूरी होता।
मुख्यमंत्री मणिक और उनकी लेफ्ट सरकार की वैचारिक प्रतिबद्धता का ही नतीजा रहा कि बेहद सीमित संसाधनों और केंद्र सरकार की निरंतर उपेक्षा के बावजूद त्रिपुरा में जनपक्षधर नीतियां सफलतापूर्वक क्रियान्वित हो पाईं। केंद्र व दूसरे राज्यों में जहां सरकारी नौकरियां लगातार कम की जा रही हैं, एक के बाद एक, सरकारी महकमे बंद किए जा रहे हैं, वहीं त्रिपुरा सरकार ने तमाम आर्थिक संकट के बावजूद इस तरफ से अपने हाथ नहीं खींचे हैं। गरीबों के लिए सब्सिडी से चलने वाली कल्याणकारी योजनाएं बदस्तूर जारी हैं और सरकार की वर्गीय आधार पर प्राथमिकताएं स्पष्ट हैं। मसलन, राज्य कर्मचारियों को केंद्र के कर्मचारियों के बराबर वेतन दे पाना मुमकिन नहीं हो पाया है। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने कर्मचारियों के बीच इसे मुद्दा बनाने की कोशिश की थी लेकिन मुख्यमंत्री राज्य कर्मचारियों को यह समझाने में सफल रहे थे कि केंद्र ने राज्य की मांग के मुकाबले 500 करोड़ रुपए कम दिए हैं। लेकिन, तमाम दबावों के बावजूद राज्य सरकार हर साल 52 करोड़ रुपये की सब्सिडी उन गरीब लोगों को बाज़ार मूल्य से काफी कम 6.15 रुपये प्रति किलोग्राम भाव से चावल उपलब्ध कराने के लिए देती है जिन्हें बीपीएल कार्ड की सुविधा में समाहित नहीं किया जा सका है। गौरतलब है कि बीपीएल कार्ड धारकों को तो 2 रुपये प्रति किलोग्राम चावल दिया जा ही रहा है। गरीबों को काम देने के लिए लेफ्ट के दबाव में ही यूपीए-1 सरकार में लागू की गई मनरेगा स्कीम जहां देश भर में भयंकर भ्रष्टाचार का शिकार है, वहीं त्रिपुरा इस योजना के सफल-पारदर्शी क्रियान्वयन के लिहाज से लगातार तीन सालों से देश में पहले स्थान पर है।
तार्किक आलोचना की तमाम जगहों के बावजूद त्रिपुरा सरकार की विकास की उपलब्धियां महत्वपूर्ण हैं। प्रदेश की 95 फीसदी जनता चिकित्सा के लिए सरकारी अस्पतालों पर निर्भर है। सुदूर क्षेत्रों तक चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने के साथ ही राज्य सरकार अपने कॉलेजों से पढ़कर नौकरी पाने वाले डॉक्टरों को पहले पांच साल ग्रामीण क्षेत्र में सेवा करने के लिए विवश करती है। प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से त्रिपुरा उत्तर-पूर्व राज्यों में पहले स्थान पर है तो साक्षरता दर में देशभर में अव्वल है। प्राथमिक स्कूलों से लेकर उच्च शिक्षा संस्थानों के फैलाव, एनआईटी और दो मेडिकल कॉलेजों ने राज्य के छात्रों, खासकर आदिवासियों व दूसरी गरीब आबादी के छात्रों को आगे बढ़ने और सरकारी मशीनरी का हिस्सा बनने का मौका दिया है। सिंचाई सुविधा के विस्तार, सुनियोजित शहरीकरण, फल, सब्जी, दूध, मछली उत्पादन आदि में आत्मनिर्भरता पर त्रिपुरा गर्व कर सकता है। कभी खूनखराबे का पर्याय बन गया त्रिपुरा आज रक्तदान के क्षेत्र में भी देश में पहले स्थान पर है और इसमें आदिवासी युवकों का बड़ा योगदान है।
नरेंद्र मोदी ने अगरतला में अपने भाषण में त्रिपुरा सरकार पर रबर की खेती को बढ़ावा देने के लिए गुजरात की तरह जेनेटिक साइंस का इस्तेमाल न करने का आरोप भी लगाया था। लेकिन, रबर उत्पादन में त्रिपुरा की उपलब्धि की जानकारी मोदी को नहीं रही होगी। रबर उत्पादन में त्रिपुरा देशभर में केरल के बाद दूसरे स्थान पर है। यह बात दीगर है कि रबर की खेती से आ रहा पैसा नई चुनौतियां भी पैदा कर रहा है। मसलन, परंपरागत जंगल और खाद्यान्न उत्पादन के मुकाबले काफी ज्यादा पैसा देने वाली रबर की खेती त्रिपुरा की प्राकृतिक पारिस्थितिकी में अंसतुलन पैदा कर सकती है लेकिन उससे पहले सामाजिक असंतुलन की चुनौती दरपेश है। आदिवासियों में एक नया मध्य वर्ग पैदा हुआ है, जो गरीब आदिवासियों को सदियों के सामूहिक तानेबाने से अलग कर देखता है। उसके बीच सामाजिक-आर्थिक न्याय के सवालों पर बात करना इतना आसान नहीं रह गया है। यह नया मध्य वर्ग और दूसरे पैसे वाले लोग गरीब आदिविसियों की जमीनों को 99 साला लीज़ की आड में हड़पना चाहते हैं और एक बड़ी तबका अपनी ही ज़मीन पर मजदूर हो जाने के लिए अभिशप्त हो रहा है। माकपा के मुखपत्र `देशेरकथा` के संपादक और माकपा के राज्य सचिव मंडल के सदस्य गौतम दास कहते हैं कि उनकी पार्टी ने प्रतिक्रियावादी ताकतों से और गरीबों की शोषक शक्तियों से वैचारिक प्रतिबद्धता के बूते ही लड़ाइयां जीती हैं। उम्मीद है कि युवाओं के बीच राजनीतिक-वैचारिक अभियानों से ही इस चुनौती का भी मुकाबला किया जा सकेगा।
पड़ोसी देश बांग्लादेश के साथ त्रिपुरा सरकार के संबंधों का जिक्र भी तब और ज्यादा जरूरी हो जाता है जबकि आरएसएस और बीजेपी लम्बे समय से बांग्लादेश के साथ हिंदुस्तान के संबंधों को सिर्फ और सिर्फ नफ़रत में तब्दील कर देने पर आमादा हैं। मोदी ने उत्तर-पूर्व के दूसरे इलाकों की तरह अगरतला में भी नफ़रत की इस नीति पर ही जोर दिया। लेकिन, मुख्यमंत्री मणिक सरकार और उनकी सरकार का बांग्लादेश की सरकार साथ बेहतर संवाद है। बांग्लादेश में अमेरिका और पाकिस्तानी एंजेसियों के संरक्षण में सिर उठा रही साम्प्रदायिक ताकतों के दबाव के बावजूद वहां की मौजूदा शेख हसीना सरकार हिंदुस्तान के साथ दोस्ताना है और त्रिपुरा सरकार के साथ भी उसके बेहतर रिश्ते हैं। इस सरकार ने त्रिपुरा में आतंकवाद के उन्मूलन में भी मदद की है। अगरतला से सटे आखोरा बॉर्डर पर तनावरहित माहौल को आसानी से महसूस किया जा सकता है। बांग्लादेश के उदार, प्रगतिशील तबकों व कलाकारों के साथ त्रिपुरा के प्रगाढ़ रिश्तों को अगरतला में अक्सर होने वाले कार्यक्रमों में देखा जा सकता है जिनमें मणिक सरकार की बौद्धिक उपस्थिति भी अक्सर दर्ज होती है। त्रिपुरा के लेफ्ट, उसके मुख्यमंत्री और उसकी सरकार की यह भूमिका दोनों ओर के ही अमनपसंद तबकों को निरंतर ताकत देती है।
56 इंच का सीना जैसी तमाम उन्मादी बातों और देह भंगिमाओं के साथ घूम रहे उस शख्स से त्रिपुरा के इस सेक्युलर, शालीन, सुसंस्कृत मुख्यमंत्री की तुलना का कोई अर्थ नहीं है। कलकत्ता यूनिवर्सिटी से कॉमर्स के इस स्नातक की कला, साहित्य, संस्कृति में गहरी दिलचस्पी है और यह उसके जीवन और राजनीति का ही जीवंत हिस्सा है। बहुत से दूसरे ताकतवर राजनीतिज्ञों और अफसरों की आम प्रवृत्ति के विपरीत इस मुख्यमंत्री को सायरन-भोंपू के हल्ले-गुल्ले और तामझाम के बिना साधारण मनुष्य की तरह सांस्कृतिक कार्यक्रमों को सुनते-समझते, कलाकारों से चर्चा करते और संस्कृतिकर्मियों से लम्बी बहसें करते देखा-सुना जा सकता .
-धीरेश सैनी
(समयांतर के अप्रैल अंक से साभार )
Navmeet Nav
14 mins · Assistant Professor at M.M. Medical college and hospital, kumarhatti ,Solan, H.P.
स्तालिन क्यों मुर्दाबाद हैं?
इंग्लैंड के डॉ आर्थर न्यूज़होम और अमेरिका के जॉन एडम्स किंग्सबरी, ये दो लोग थे जिन्होंने सोवियत संघ में सार्वजनिक स्वास्थ्य और चिकित्सकीय सुविधाओं का जायजा लिया था, ने स्तालिन के समय का आंखों देखा हाल अपनी किताब “रेड मेडिसिन” में लिखा था। इसी किताब से कुछ अंश :-
… क्रांति से पहले रूस में लगभग 26000 डॉक्टर थे। डॉ रॉबकिन के अनुसार 1931 में यह संख्या कुल 76000 हो गई थी।
….सभी मजदूरों और किसानों, जो देश की आबादी का सबसे बड़ा भाग हैं, को बिल्कुल मुफ्त मेडिकल सेवा दी जाती है। बाकी सबके लिए भी यही किया जाना है लेकिन अभी तक प्राथमिकता मजदूरों को ही दी जाती है। इस प्रकार किसी डिस्पेंसरी में किसी बुद्धिजीवी को तब तक इंतजार करना पड़ता है जब तक सभी मजदूरों का उपचार न हो जाये।
….कजान में हर बीमार व्यक्ति के लिए उसके जिले की पोलीक्लीनिक से डॉक्टर उसके घर भेजा जा सकता है लेकिन इस तरह के गैर जरूरी बुलावों को रोकने के लिए कड़े नियम भी बनाए गए हैं। इस तरह डॉक्टर को फोन करके घर बुलाया जा सकता है।
….पहले बहुत गरीब लोगों के लिए लगभग कोई भी प्राइवेट डॉक्टर नहीं होता था, और मरीजों को लगभग असंभव मेडिकल फीस देनी पड़ती थी। गरीबों के लिए अस्पताल बहुत ही कम और अपर्याप्त थे। इन अस्पतालों में भी उनको मुख्यतः सामान्य उपचार ही मिलता था, मूल्यवान उपचार का तो उनके लिए कोई अवसर ही नहीं था। अब डॉक्टरों की संख्या कई गुना बढ़ गई है। और बड़ी संख्या में नए डॉक्टरों की ट्रेनिंग चल रही है। अमीरों के पुराने अस्पतालों को अब मजदूरों के लिए समर्पित कर दिया गया है और इनकी सुविधाएं भी बड़े पैमाने पर बढ़ाई जा रही हैं। सामान्य और विशेष बीमारियों के लिए नए अस्पताल बनाए जा रहे हैं और देश के सबसे गरीब लोगों को चिकित्सा के हर विभाग में प्राथमिकता दी जाती है। उपचार के स्थान अब पूरी जनता द्वारा प्रयोग किये जाते हैं और रूस के प्रत्येक भाग से मरीज इन स्थानों लर भेजे जाते हैं। इस तरह पहले केवल अमीरों को मिलने वाली चिकित्सा सुविधाएं अब सार्वभौमिक हो गई हैं।
…..अधिकतर मजदूरों और उनके परिवारों को मुफ्त मेडिकल सुविधा मिलती है और इसका खर्चा बीमा फण्डों से नहीं बल्कि सामान्य टैक्स प्रणाली से निकाला जाता है।
सभी ट्रेड यूनियन वाले, सभी बीमाकृत व्यक्ति, सभी बेरोजगार व्यक्ति और उनके आश्रित मुफ्त चिकित्सा के हकदार हैं, और सभी छात्र और सभी अपाहिज लोग भी।
“वंचित वर्ग” (यहां वंचित से मतलब अभिजात पूंजीपति वर्ग से है) को मुफ्त चिकित्सा सेवा की योजना में शामिल नहीं किया गया है, यद्यपि उन्हें चिकित्सा सुविधा से वंचित भी नहीं रखा जाता है। यह आधिकारिक रूप से घोषित है कि “जीवन और मृत्यु के सभी मामलों में सभी नागरिकों के लिए आपातकालीन सेवा मुफ्त में उपलब्ध कराई जाए।”
Doctors for Society पेज सेNavmeet Nav
2 hrs ·
एक संशोधनवादी कामरेड स्तालिन को मुर्दाबाद कह जाता है। उसके समर्थक इसका औचित्य ठहराते हैं। कुछ कहते हैं कि फासीवाद के खिलाफ लड़ाई में स्तालिन मुर्दाबाद कहना जरूरी है। आइये देखते हैं कि कामरेड स्तालिन क्यों मुर्दाबाद हैं?
राहुल सांकृत्यायन ने कहा था, “साथी स्तालिन तब तक जिन्दा रहेंगे जब तक दुनिया के हर मजदूर को उसका हक नहीं मिल जाता।”
अभी भी दुनिया के मजदूरों को उनका हक मिला नहीं है। इसलिए स्तालिन के विचार, उनकी शिक्षाएं और उनकी विरासत अभी भी जिन्दा हैं।
1943 में टाइम मैगजीन ने स्तालिन को “मैन ऑफ़ द इयर 1942” चुना था। वोट करने वाले अधिकतर अमेरिकी नागरिक थे। टाइम मैगज़ीन ने लिखा था, “सिर्फ स्तालिन ही जानते थे कैसे सोवियत जनता ने नाजियों को परास्त किया। स्तालिन ही जानते थे कैसे फासीवाद को कुचला जा सकता है। स्तालिन ही जानते थे कि “फौलाद का आदमी” होने का अर्थ क्या होता है।”
और यह हुआ कैसे कि टाइम जैसी घनघोर बुर्जुआ मैगज़ीन उनकी प्रशंसा करने पर विवश हो गई?
देखते हैं :-
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नाज़ी सेनाएं मास्को के अंदर तक घुस आई थी। सोवियत सुरक्षा एजेंसियों, सेना के उच्चाधिकारियों और पोलित ब्यूरो के सदस्यों, सभी की राय यही थी कि स्तालिन को किसी सुरक्षित जगह पर चले जाना चाहिए। लेकिन स्तालिन ने कहीं भी जाने से इंकार कर दिया और वहीँ एक छोटी सी झोंपड़ी से लाल सेना व सोवियत जनता का नेतृत्व करते रहे। यह था स्तालिन का व्यक्तित्व और उनकी इच्छाशक्ति। इसका कारण भी था। एक तो वह वर्ग संघर्ष और क्रांति की आग से तपकर तैयार हुए नेता थे, और दूसरा वे सोवियत जनता की शक्ति में अटूट विश्वास रखते थे।
विश्वयुद्ध के दौरान स्तालिन का बेटा फौज में लेफ्टिनेंट था। वह जर्मन फौज द्वारा बंदी बना लिया गया। हिटलर ने प्रस्ताव दिया था कि जर्मनी के एक जनरल को छोड़ने पर बदले में स्तालिन के बेटे को छोड़ दिया जाएगा। स्टालिन ने यह कहकर इंकार कर दिया कि , “एक सामान्य-से लेफ्टिनेंट के बदले नाजी फौज के किसी जनरल को नहीं छोड़ा जा सकता।”
विश्वयुद्ध में उनके महत्त्व का इसी से पता चलता है कि उन्हीं दिनों सोवियत संघ और समाजवाद के धुर विरोधी ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने कहा था कि मैं रोज सुबह उठता हूँ तो ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूँ कि स्तालिन जीवित और स्वस्थ रहें, दुनिया को अगर कोई बचा सकता है तो वह स्तालिन ही हैं।
आखिर 2 करोड़ लोगों की शहादत के बाद सोवियत जनता ने हिटलर के नापाक इरादों को धूल चटा दी। दूसरी तरफ जब लाल सेना बर्लिन पहुंची तो एक बंकर में छिपे हुए हिटलर ने डर कर आत्महत्या कर ली थी।
विश्वयुद्ध में विजय के बाद सोवियत संघ की सर्वोच्च सोवियत ने स्तालिन को “सोवियत संघ का नायक” सम्मान देने की घोषणा की। स्तालिन ने यह कहते हुए यह अवार्ड लेने से मना कर दिया कि वे नायक नहीं हैं। नायक है सोवियत संघ की लाल सेना और सोवियत संघ की जनता जिसने इस युद्ध को असंख्य कुर्बानियां देकर जीता है। हालाँकि अपनी मृत्यु के बाद वे उनको नहीं रोक पाये और उनको मरणोपरान्त यह अवार्ड दिया गया।
विश्वयुद्ध ही नहीं बल्कि अन्यत्र भी उनके व्यक्तित्व के बारे में पता चलता है।
स्तालिन को स्तालिन यूँ ही नहीं कहा जाता था। रूसी भाषा में इसका मतलब है “स्टील का आदमी”। वह सच में फौलादी इरादों वाले नेता थे। एक पिछड़े हुए भूखे नंगे देश को महाशक्ति में बदलना किसी टटपूंजीए के बस की बात नहीं है। तमाम पूंजीवादी साम्राज्यवादी कुत्साप्रचार के बावजूद आज भी रूस की जनता अपने इस महान नेता को उतना ही प्यार करती है। कुछ समय पहले रूस में हुए एक सर्वे में स्तालिन को आधुनिक समय का सबसे महान रूसी चुना गया है।
परिवार के बारे में भी स्तालिन का दृष्टिकोण एक अनुकरणीय मिसाल है। जब स्तालिन की बेटी स्वेतलाना के लिए एक अच्छे फ्लैट की व्यवस्था की गई थी तो ये सुनकर स्तालिन बहुत गुस्सा हुए और उन्होंने कहा,” क्या वह केंद्रीय कमेटी की सदस्य है या पोलित ब्यूरो की सदस्य है कि उसके लिए अलग इंतजाम होगा? जहाँ सब रहेंगे, वहीं वह भी रहेगी।”
अमरीकी लेखिका व पत्रकार अन्ना लुई स्ट्रांग स्तालिन के बारे में लिखती हैं :-
……..फ़िनलैंड की स्वतंत्रता तो बोल्शेविक क्रांति का सीधा तोहफा थी। जब जार का पतन हो गया तो फ़िनलैंड ने स्वतंत्रता की मांग की। तब वह रूसी साम्राज्य का हिस्सा था। केरेंसकी सरकार ने इसे नामंजूर कर दिया। ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका भी तब फ़िनलैंड की स्वतंत्रता के पक्षधर नहीं थे। वे नहीं चाहते थे कि पहले विश्वयुद्ध में उनका मित्र रहा जारशाही साम्राज्य टूट जाए। बोल्शेविकों के सत्ता सँभालते ही राष्ट्रीयताओं से जुड़ी समस्याओं के मंत्री स्तालिन ने इस बात को आगे बढाया कि फ़िनलैंड के अनुरोध को स्वीकार कर लिया जाए। उन्होंने कहा था: ‘फिनिश जनता निश्चित तौर पर स्वतंत्रता की मांग कर रही है इसलिए “सर्वहारा का राज्य” उस मांग को मंजूर किए बिना नहीं रह सकता।…….’
‘…………मैंने “मास्को न्यूज़” नामक अख़बार को संगठित किया था। उसके रूसी संपादक के साथ मैं ऐसे चकरा देने वाले झगड़ों में उलझ गई थी कि इस्तीफा दे देना चाहती थी। रूस छोड़कर ही चली जाना चाहती थी। एक मित्र की सलाह पर मैंने अपनी शिकायत स्टालिन को लिख भेजी। उनके ऑफिस ने मुझे फ़ोन करके बताया कि मैं “चली आऊँ और इस सम्बन्ध में कुछ जिम्मेदार कामरेडों से बात कर लूं”। यह बात इतने सहज ढ़ंग से कही गई थी कि जब मैंने खुद को उसी टेबल पर स्तालिन, कगानोविच और वोरोशिलोव के साथ मौजूद पाया तो अवाक रह गई। वे लोग भी वहां उपस्थित थे जिनके खिलाफ मैंने शिकायत की थी। छोटी सी वह पोलिट ब्यूरो पूरे सोवियत संघ की संचालन समिति थी। आज वह मेरी शिकायत पर विचार करने बैठ गई थी। मैं लज्जित हो गई।…..’
स्तालिन के नेतृत्व में जब सोवियत संघ ने अपना संविधान बनाया तो क्या हुआ था। पढ़िए :-
“संविधान को पास करने का तरीका बहुत महत्वपूर्ण था। लगभग एक वर्ष तक यह आयोग राज्यों और स्वैछिक समाजों के विभिन्न ऐतिहासिक रूपों का अध्ययन करता रहा जिनके जरिये विभिन्न काल में लोग साझे लक्ष्यों के लिए संगठित होते रहे थे। उसके बाद सरकार ने जून 1936 में एक प्रस्तावित मसविदे को तदर्थ रूप से स्वीकार करके जनता के बीच बहस के लिए 6 करोड़ प्रतियां वितरित कीं। इस पर 5,27,000 बैठकों में तीन करोड़ साठ लाख लोगों ने विचार-विमर्श किया। लोगों ने एक लाख चौवन हजार संशोधन सुझाए। निश्चित तौर पर इनमे से काफी में दोहराव था और कई ऐसे थे जो संविधान की बजाय किसी कानून संहिता के ज्यादा अनुकूल थे। फिर भी जनता की इस पहलकदमी से 43 संशोधन सचमुच अपनाये गए।”Navmeet Nav
6 hrs ·
मज़दूर वर्ग व उसके नेताओं को बदनाम करने के लिए पूँजीपतियों के भाड़े के टट्टू बहुत दुष्प्रचार करते हैं। अभी खुद को कम्युनिस्ट कहने वाला एक छुटभैया भी सर्वहारा के महान नेता और शिक्षक स्तालिन को टीवी पर मुर्दाबाद बोल कर आया है। उसके बाद से सीपीआई के दूसरे कार्यकर्ता इसे जस्टिफाई करते हुए स्तालिन को गरियाने पर लगे हैं। ऐसे में जरूरी है कि स्तालिन से संबंधित सही जानकारी लोगों तक लेकर जाया जाए। इसी संबंध में यह जानकारी :-
“दस्तावेज इंतजार कर सकते हैं, भूख इंतजार नहीं कर सकती” – स्तालिन
भारत आजाद होने के कुछ ही समय बाद घोर अन्न संकट की गिरफ्त में आ गया था। उसने अमेरिका और रूस दोनों से जल्दी से जल्दी अनाज भेजने का अनुरोध किया। वाशिंगटन के सौदागर-सूदखोर अनाज की कीमत और उसकी अदायगी की शर्तों पर सौदेबाजी करते रहे। उधर जब यही अनुरोध क्रेमलिन के पास पहुँचा, तो स्तालिन ने अन्यत्र भेजे जा रहे अनाज के जहाज भारत की ओर मोड़ने का निर्देश दिया। इस पर क्रेमलिन के एक उच्चाधिकारी ने स्तालिन से कहा : “अभी इस मसले पर समझौता और दस्तावेजों पर हस्ताक्षर होने हैं।”
इस पर स्तालिन ने कहा : “दस्तावेज-समझौते इन्तजार कर सकते हैं, भूख इंतजार नहीं करती।”
(गत शताब्दी में 50 के दशक के एक उच्चपदस्थ भारतीय राजनयिक पी. रत्नम ने उक्त वार्ता की चर्चा मास्को में अपने दूतावास में एकत्र भारतीयों के समक्ष की।)
दिसम्बर 2005 के बिगुल अख़बार में पेज 9 पर प्रकाशित
अंक की पीडीएफ फाइल का लिंक -Navmeet Nav
Yesterday at 16:04 ·
पिछले जून में हमारा एक प्रोजेक्ट चल रहा था टीबी का। एक दिन हम आरएसएस द्वारा संचालित एक हॉस्टल में बच्चों की जाँच करने गए। वहां कोई 50-60 गरीब तबके और ट्राइबल्स के बच्चे रहते हैं जिनको आरएसएस की तरफ से रिहाइश, स्कूल, खाना सब मिलता है। साथ में उनको आरएसएस का साहित्य भी पढ़ाते हैं। मतलब विचारधारा का प्रचार प्रसार नौनिहालों में भी कर रहे हैं ताकि आगे अच्छे और कर्मठ संघी बनाए जा सकें।
इधर अपने कथित कम्युनिस्ट हैं। न तो अपने काडर को पढ़ाते हैं, न खुद पढ़ने देते हैं। कोई पढ़े या पढ़ाए तो उसको किताबी कहने लगते हैं। यही काडर आगे चल कर स्तालिन को मुर्दाबाद कह आता है। और फिर सीना चौड़ा करता है कि टीवी की बहस में फासीवादियों को हरा दिया।Navmeet Nav
7 December at 21:22 ·
बहुत साल पहले की बात है। मैं उस समय 7वीं या 8वीं क्लास में पढ़ता हूँगा। खबर आई कि एक ईसाई मिशनरी ग्राहम स्टेन्स और 10 व 6 साल के उसके दो बेटों को बजरंग दल के एक कार्यकर्ता दारा सिंह ने अपने साथियों के साथ मिलकर जिंदा जला दिया। अगले दिन स्कूल में प्रेयर के बाद सभी टीचर्स ने इस घटना की निंदा की। दारा सिंह और बजरंग दल को बहुत बुरा भला कहा। टीचर या स्टूडेंट कोई भी इस घिनौनी वारदात के समर्थन में नहीं था।
यह तब की बात है। आज राजसमन्द की घटना की वीडियो देखी। लेकिन सिर्फ राजसमन्द ही क्यों? पहलू खान, अखलाक, मोहसिन, गौरी लंकेश, दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी कितनों ही को सरे आम मार दिया जाता है और कितने ही लोग इसका बेशर्मी से जश्न मनाते हैं। टीवी चैनल और पत्रकार तक इन हत्यारों को हीरो की तरह पेश करते हैं। विभाजन के समय क्या हुआ था यह हम लोगों ने नहीं देखा। लेकिन बाबरी ध्वंस से लेकर आज तक के फासीवादी उभार और समाज के तानेबाने में इसके प्रविष्ट होने और फिर इसे सत्ता पर काबिज होते हुए हम सबने देखा है। हमारा देश बहुत खतरनाक दौर से गुजर रहा है। और यह एक दम से नहीं हुआ है। यह बहुत साल से चल रहा है। ईवीएम में घपला करके ये सत्ता में आना सुगम कर सकते हैं लेकिन समाज को अपनी गिरफ्त में इन्होंने ईवीएम से नहीं लिया है। देश इनकी शाखा बन चुका है। हर गली मोहल्ले नुक्कड़ को ये लोग कब्जाते जा रहे हैं। यह बहुत खतरनाक समय है। फासीवाद यूँ ही सी चीज नहीं है।Navmeet Nav
7 December at 11:17 ·
कुछ लोगों ने चन्द मार्क्सवादी किताबें पढ़ डाली हैं और वे अपने को काफी विद्वान समझने लगे हैं; लेकिन जो कुछ उन्होंने पढ़ा है वह उनके दिमाग में घुसा नहीं, उनके दिमाग में जड़ें नहीं जमा पाया और इस प्रकार उन्हें इसका इस्तेमाल करना नहीं आता तथा उनकी वर्ग-भावना पहले की ही तरह बनी रहती है। कुछ अन्य लोग घमण्ड में चूर हो जाते हैं और थोड़ा-सा किताबी ज्ञान प्राप्त करके ही अपने आप को धुरंधर विद्वान समझने लगते हैं और बड़ी-बड़ी डींगें हांकने लगते हैं; लेकिन जब भी कोई तूफान आता है, तो वे मज़दूरों और बहुसंख्यक मेहनतक़श किसानों के रुख से बिल्कुल भिन्न रुख अपना लेते हैं। ऐसे लोग ढुलमुलपन दिखाते हैं जबकि मज़दूर किसान मज़बूती से खड़े रहते हैं, ऐसे लोग गोलमोल बात करते हैं जबकि मज़दूर किसान साफ-साफ दो टूक बात करते हैं।
_माओ त्से-तुंगNavmeet Nav
6 December at 20:03 ·
देखिये फेसबुक पर न तो मरीज को बीमारी का इलाज पूछना चाहिए और न ही किसी डॉक्टर को इलाज बताना चाहिए। यह बच्चों का खेल नहीं। बहुत गंभीर बात है।Navmeet Nav
3 December at 22:50 ·
मिलिए डॉ तपन कुमार लाहिड़ी से
डॉ तपन कुमार लाहिड़ी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के मेडिकल कॉलेज में कार्डियोथोरेसिक सर्जरी विभाग में प्रोफेसर रहे हैं। 2003 में रिटायरमेंट के बाद भी बिना तनख्वाह के इसी कॉलेज को अपनी सेवाएं दे रहे हैं। आज के समय में जबकि डॉक्टरी पैसे कूटने का धंधा बन गई है डॉ तपन के पास अपनी गाड़ी भी नहीं है और वे पैदल ही कॉलेज आते जाते हैं। पिछले 45 साल में हजारों मेडिकल स्टूडेंट्स उनके पास पढ़कर डॉक्टर बने, लाखों मरीजों को उन्होंने ठीक किया लेकिन डॉ लाहिड़ी आज भी उतने ही सादे हैं। 1997 में उन्होंने सैलरी लेनी बन्द कर दी थी। उस समय उनकी सैलरी तमाम भत्तों को मिलाकर एक लाख बनती थी। 2003 में जब रिटायर हुए तो रिटायरमेंट पर मिलने वाला पेंशन और पीएफ का पैसा उन्होंने मरीजों के इलाज के लिए बीएचयू को ही दे दिया। पेंशन से सिर्फ खाने के पैसे लेते हैं। रिटायरमेंट के बाद अमेरिका के बड़े अस्पतालों की तरफ से उन्हें ऑफर भी मिले लेकिन उन्होंने भारत के मरीजों का इलाज करना ज्यादा जरूरी समझा। अपनी सेवाओं के बदले बीएचयू से वे केवल आवास की सुविधा लेते हैं और रोज सुबह साढ़े 6 बजे अपनी ड्यूटी पर पहुंच जाते हैं।
डॉ तपन कुमार जैसे लोग मानवता के सच्चे सेवक हैं। ये उन लोगों में से हैं जिन्होंने घोर पूंजीवाद के दौर में भी पूंजी के भक्त न बन कर मानवता के लिए काम करना उचित समझा है। Doctors for Society की तरफ से हम डॉ तपन कुमार लाहिड़ी को सलाम करते हैंNavmeet Nav
3 December at 17:51 ·
लकुम दीन-कुम व ली दीनी
तुम्हारा धर्म तुम्हें मुबारक, मेरा धर्म मुझे मुबारक।
– मुहम्मद साहब।
मुहम्मद साहब अपने समय के महान सुधारक थे। सच्चे अर्थों में सहिष्णु और सेक्युलर थे।
हालांकि 1400 पहले के कबाइली अरब समाज की तुलना आज के पूंजीवादी समाज से नहीं हो सकती। आज इस्लाम सहित किसी भी धर्म की गप्प मानने की जरूरत नहीं है लेकिन मुहम्मद साहब की अच्छाइयों को नकारा नहीं जा सकता।
Adarsh S-Yesterday at 03:17 · #कसाईयों का विलाप#
पोलिश लेखक Ryszard kapuscinski का सोवियत कत्लखाने पर लिखा गया यात्रा वृत्तांत Imperium अद्भुत है। यह किताब नही, सोवियत कत्लखाने के खिलाफ चार्जशीट है। दसियों साल पहले पढ़ा और एक-एक चीज याद है, इसलिए कि चार-पांच बार पढ़ा। कमजोरों के लिए नहीं है यह दस्तावेज। कापुसिंस्की उन चंद सौभाग्यशाली लोगों में थे जिन्हें सोवियत संघ के पतन के तत्काल बाद वहां के समाज को नजदीक से देखने-जानने का मौका मिला और वह समाज जो कि अभी तक पूरी तरह सोवियत था। येल्तसिन ने तो बस सत्ता संभाली ही थी। हर पन्ने पर हाड़ जमा देने वाली ठंड, भूख भय, दमन और लाखों लोगों के तिल-तिल कर मरने की दास्तान है। ये वो किताब थी जिसे पढ़ने के बाद रोमान टूटा और वामपंथ के नाम से घृणा हो गई। बहरहाल, इस किताब को एक बार पढ़ लेने के अनुरोध के बाद मैं Imperium में वर्णित एक सबसे अहिंसक विवरण साझा करूंगा और इस दावे के साथ कि सोवियत ब्लैक बुक के हिसाब से यह बिना लहसुन प्याज वाला खाना है। बाकी ब्योरे बहुत भयावह हैं।
हुआ यह कि कापुसिंस्की मास्को के जाड़े की एक सुबह होटल से निकले तो देखा कि कुछ लोग ठंड में नहा रहे हैं। जिज्ञासा वश वहां पहुंचे तो पाया कि वहां एक गर्म पानी का सोता था। दिमाग ठनका कि ये गर्म पानी का सोता कहां से आया। पता चला कि ऐन इस जगह पर कभी दुनिया का सबसे भव्य, सबसे विशाल चर्च हुआ करता था। इस चर्च का निर्माण 17वीं सदी में तत्कालीन जार ने शुरू कराया था। उनकी मौत के बाद आए दो जारों ने भी इस चर्च का निर्माण जारी रखा। जारों की तीन पीढ़ियां और पूरे 75 साल में यह चर्च तैयार तैयार हुआ।
पूरे चर्च में सोने की नक्काशी थी। एक हजार टन सोने का गुंबद था और और यहां तक कि चर्च की सोने की घंटी को बजाने के लिए भी दर्जनों लोग चाहिए होते थे। चर्च के गेट खोलने और बंद करने के लिए सैकड़ों लोगों की जरूरत पड़ती थी। पूरे एक लाख लोग चर्च में एक साथ प्रार्थना कर सकते थे। यह संभवत: विश्व की सबसे लंबे समय में निर्मित हुई और सबसे भव्य इमारत थी।
जारों के पतन के कम्युनिस्ट आए। लेनिन सनक कर कुछ साल में गुजर गए लेकिन स्टालिन महाशय की साम्यवादी नजर बहुत पैनी थी। क्रेमलिन इस चर्च के सामने झुग्गी लगता था। सर्वहारा की सरकार शोषक और बुर्जुआ अतीत के इस प्रतीक को कैसे बर्दाश्त करे? सो कामरेड स्टालिन ने तय किया कि एक सड़ियल अतीत की इस सड़ियल बुर्जुआई (पगान) निशानी का कोई नामोनिशान बाकी नहीं रखना है। योजना बनी कि इस चर्च को ध्वस्त कर कोई ऐसी इमारत बनाई जाए जो सोवियत संघ के अनंत विस्तार, इसकी सैन्य शक्ति और इसकी प्रगतिशील कम्युनिस्ट विचारधारा और साम्यवादी मूल्यों को परिलक्षित करे।
वैकल्पिक इमारत का नक्शा बनते ही सर्वहारा के दुलारे स्टालिन ने बिना समय गंवाए कामरेडों के हाथ में हंसिया-हथौड़ा देकर उन्हें चर्च को ध्वस्त करने के काम में लगा दिया। लेकिन पंद्रह दिन बाद सारे कामरेड वापस हो लिए। हंसिया-हथौड़ा और जिहादी जोश किसी काम न आया। इतने दिन में बेचारे चर्च की दीवार में खरोंच भी नहीं मार पाए थे। कुपित स्टालिन ने फौजी इंजीनियर भेजे। उन्होंने बताया कि दीवार टूटने वाली नहीं है। इसे उड़ाना पड़ेगा। सोवियत इंजीनियरों ने बड़ी मेहनत की और तय किया कि बिलकुल इतने बारूद की जरूरत पड़ेगी इसे सुरक्षित तरीके से ढहाने के लिए।
स्टालिन मोशाय ने बारूद लगाकर चर्च को उड़वा दिया। जारशाही का सबसे गौरवशाली प्रतीक ध्वस्त हो गया। पर इसी जगह कम्युनिस्ट रूस की जो भव्य नई इमारत खड़ी करने का जो प्लान था, वह इंदिरा आवास योजना की तरह कागजी ही रह गया। स्टालिन के सोवियत रूस के पास एक दमड़ी भी नहीं थी जो उसके सपनों की इस प्रगतिशील प्रतीक की नींव भी डाल सके। बहरहाल लाखों लोगों की 75 साल की इस अनवरत मेहनत को जमींदोज करने का बदला प्रकृति ने अपने तरीके से लिया। ऐन उसी जगह गर्म पानी का सोता बना कर।
अब जो हमारे वामपंथी, प्रगतिशील और लिबरल भाई त्रिपुरा में लेनिन की प्रतिमा गिराए जाने पर छाती पीट कर विलाप कर रहे हैं, उनसे यही कहना है कि लेनिन की हजार प्रतिमाएं ले लो, बस वो चर्च लौटा दो। तुम्हारा बनाया भी कुछ है? एक लाख प्रतिमाएं ले लो, बस उन चंद धरोहरों को वापस लौटा दो जो तुम्हारी बर्बरता की शिकार हो गईं।Adarsh सन्घि
Rajeev 10 March at 13:23 · #विषैलावामपंथकल लंच में डॉक्टर्स मेस में बैठा था. टीवी पर एक खबर आ रही थी नार्थ और साउथ कोरिया के बीच कुछ बातचीत चल रही है. मेरे बगल में एक कोरियाई लड़की बैठी थी. मैंने उसे टीवी की तरफ दिखाया – देखो, कुछ इम्पोर्टेन्ट हो रहा है क्या? उसने दो मिनट न्यूज़ देखा, फिर कहा – आई डोन्ट केअर…लोग नार्थ और साउथ कोरिया के एक होने की बात करते हैं. मैं नहीं चाहती. मेरे साउथ कोरिया को अकेला छोड़ दो. हमें नार्थ से कोई लेना देना नहीं है. सिर्फ सरकार की बात नहीं है…वे बर्बाद लोग हैं. 60 सालों में कम्युनिज्म ने पब्लिक के दिमाग में इतना कूड़ा भर दिया है कि इनका कुछ नहीं हो सकता…मुझे इनकी कोई परवाह नहीं है, सारे के सारे अगर मर जाएँ आई डोन्ट केअर… जिसने कम्युनिज्म को आसपास से देखा है और समझा है उसकी कम्युनिज्म के लिए यह घृणा सहजही होती है.पर पाँच मिनट बाद वह कुछ फेमिनिस्ट बातें करने लगी. मैंने पूछा, तुम्हें कम्युनिज्म से इतनी घृणा है पर दूसरी तरफ तुम एक लेफ्टिस्ट थॉट की इतनी बड़ी हिमायती हो..उसने पूछा – कौन सा लेफ्टिस्ट थॉट?मैंने कहा – तुम्हें पता है? फेमिनिज्म औरतों के हिस्से का कम्युनिज्म है. इससे औरतों का सिर्फ उतना ही भला होगा जितना कम्युनिज्म से मजदूरों का हुआ…क्या बकवास कर रहे हो? फेमिनिज्म इस अबाउट इक्वलिटी….मैंने कहा – कम्युनिज्म भी समानता की ही बात थी…वो कहने की बात है. कम्युनिज्म भी समानता के लिए नहीं था, कनफ्लिक्ट के लिए था. और एक खास पॉलिटिकल आइडियोलॉजी के लिए सिपाही रिक्रूट करने के लिए था. वही रोल फेमिनिज्म का है. जैसे कम्युनिज्म एक औद्योगिक सिस्टम में मजदूरों को संघर्षरत रखने के लिए बना है…वैसे ही फेमिनिज्म महिलाओं को परिवार नाम की संस्था से कॉन्फ्लिक्ट में खड़ा करने के लिए बना है.थोड़ा सोचने के बाद उसने कहा – अगर है भी तो क्या है. अगर कहीं से कोई अच्छा विचार आता है तो क्या उसे इसलिए नकार दिया जाए कि वह वामपंथ से आया है?वामपंथ की यह ताक़त है. अगर आप उसे एक रूप में नकार देते हैं तो वह दूसरे रूप में घुस आता है. पर रूप बदलने से वामपंथ की नीयत नहीं बदल जाती. कम्युनिज्म के रूप में उन्होंने उद्योगों को नष्ट किया, फेमिनिज्म के रूप में परिवारों को नष्ट कर रहा है. अगर वामपंथ को समझना है तो उसकी नीयत को समझें…और उसे हर रूप में अस्वीकार करें. क्योंकि किसी की नीयत कभी नहीं बदलती…—————————————————-
Shambhunath Shukla
3 hrs ·
एक दिन यूँ ही खरामा-खरामा साइकिल चलाते हुए दिल्ली से अलीगढ़ चला गया था. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय भी गया प्रोफ़ेसर इरफ़ान हबीब से मिलने. इतिहास के इस अंतर्राष्ट्रीय स्तर के विद्वान से मिलना एक नई ऊर्जा से लैस हो जाना है. साल 2001 में कोलकाता के गोर्की सदन में प्रोफ़ेसर इरफ़ान हबीब की सदारत में ‘बंगला के साहित्यिक इतिहास में मुस्लिमों के योगदान’ पर मुझे भी परचा पढ़ना था. सिने गीतकार जावेद अख़्तर और अभिनेत्री शबाना आज़मी भी मौजूद थीं. मैं झिझक रहा था इरफ़ान हबीब जैसे विद्वान के समक्ष मेरा परचा! खैर मैंने भाषण दिया और खूब बोला. इरफ़ान साहब उठे और मुझसे बोले- “अच्छा परचा था”। आज भी वैसी ही सहजता और सरलता उनमे है. आप उनसे कुछ भी करवा सकते हैं. यहाँ तक कि कोई अर्ज़ी अँग्रेजी में लिखो और उनसे कहो- “चचा इसके हिज़्ज़े दुरुस्त कर दो.” हिन्दू हों या मुसलमान सबके लिए उनके दरवाजे खुले हैं. प्रोफ़ेसर साहब अस्सी पार के हैं पर नियम से अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अपने कमरे में 11 से डेढ़ तक बैठते हैं. साढ़े बारह बजे एक भड़भूँजा वहाँ आता है और 50 ग्राम भुने चने उन्हें दे जाता है और बदले में फ़ौरन पैसा ले लेता है. प्रोफ़ेसर इरफ़ान हबीब साइकिल से ही अपने डिपार्टमेंट में आते हैं!Shambhunath Shukla—————————————————–जो लोग छी न्यूज़ जैसे घिनोने हालात में अपनी दाल रोटी चला रहे हे उनका तो कुछ नहीं मगर इन लाखो की तन्खा पाने वाले छी न्यूज़ के लियाकतो का सामाजिक बहिष्कार जरूर किया जाना चाहिए क़म अक्ल ये इतनी हे की एक बार जब मोदी ने शौचालयों की तान छेड़ राखी थी तो इन्हे ऊपर से आदेश मिला होगा तो उसी हिसाब से जब गयीं शायद दशरथ मांझी के गाँव में तो दिख रहा हे की बेचारे लोग सबके गाल पिचके हुए आँखे धसी हुई पेट फुला हुआ तो भी ये उनका दिमाग खाये जा रही थी की आपके यहाँ शौचालय नहीं हे नहीं हे नहीं हे इसे इतनी सेन्स नहीं की खाने के बाद ही तो ———- जब खाना ही नहीं हे तो लेकिन इन्हे तो सिर्फ मोदी नॉनसेंस का प्रोपेगेंडा करना था Vikram Singh Chauhan
Yesterday at 19:33 ·
रुबिका लियाकत तो श्वेता सिंह और अंजना ओम कश्यप से भी खतरनाक है। ऐसे ताल ठोंकती है कि लगता है मोदी से अभी बात हुई है इनकी। सिर्फ ये सच बोलती है बाकी सब झूठे हैं। मुंह सिकोड़ती हुई और आंखे तरेरती हुई बोलती है। और देश की जनता बड़े चाव से इनको सुनती है। इनके प्रोग्राम के नीचे कमेंट देखा जय बीजेपी,मोदी मोदी ही भरे हैं। सुपारी जर्नलिज्म में महिला पत्रकार बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रही है। इन महिला पत्रकारों को देखकर लगता है इनसे असहमत होने पर थप्पड़ भी जड़ देगी। हम तो जबसे बड़े हुए हैं महिला एंकरों में कादम्बिनी शर्मा और निधि कुलपति को ही सुने हैं।अभी सिक्ता देव और नगमा को भी सुनते थे। इतनी मीठी और हल्की आवाज आती है कि वॉल्यूम थोड़ा बढ़ाना पड़ता है।गंभीर से गंभीर विषयों में बिना चिल्लाए पूरा बुलेटिन पढ़ जाती है।इधर ये लोग चिल्लाए बिना चिल्लाये इंट्रो भी नहीं पढ़ पाती है। Vikram Singh Chauhan
Pawan bareli
आप शांतिदूत हैं तो आप शान से AMU, जामिया,हमदर्द और तिब्बिया जैसे विश्व विद्यालयों में नाम मात्र की शैक्षिक फीस और कुछ कौड़ियां देकर होस्टल में रहते हुए शान से मांसाहारी भोजन और नाश्ते की सौगात ग्रहण कर सकते हैं ! क्लास में जाएं तो अच्छा ! न जाएं तो और भी अच्छा , क्योकि ‘छात्र और शिक्षक’ ,’नंबर देने वाले और नम्बर मांगने वाले’ दोनों ‘अशरफुल मख़लूक़ात’ अर्थात अल्लाह के बंदे हैं ,यहां कोई फेल नहीं होता !! औसत ‘शांतिदूत’ छात्र भी अलीगढ़ यूनिवर्सिटी से अभियंता, डाक्टर और स्कॉलर बन कर निकलते हैं ! मुस्लिम होना यहां एक योग्यता है,मगर यदि आप कश्मीर , अफगानिस्तान, बांग्लादेश ,बिहार और उत्तरप्रदेश के आजमगढ़ जैसे क्षेत्रों के शांतिदूत हैं तो आपका खास स्वागत है अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में …
साथियों,देशविभाजन की लकीरें अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में खींची गईं , साम्प्रदयिक हिंसा सहित हर प्रकार के अपराधों का भीषण इतिहास, अलीगढ़ यूनिवर्सिटी की प्रसिद्धि में चार चांद लगाता है ! चूंकि पुलिस यूनिवर्सिटी में घुस नहीं सकती,अतः अनेक अपराधी कैंपस के बाहर और अंदर अपराध कर होस्टलों में छुपे रहते हैं और उन्हें खुल कर पनाह दी जाती है…..
अब आते हैं,मन्नान वानी,कश्मीरी पीएचडी स्कॉलर की गाथा पर ,वानी पिछले पांच साल से AMU में ‘पढ़’ रहा था ! एम.फिल छात्र के रूप में भारत सरकार रु 16000/- प्रतिमाह का वजीफा 3 साल तक देती रही थी ! पिछले 2 साल से पीएचडी स्कालर के रूप में भारत सरकार मन्नान वानी को रु 25000/- प्रति माह का वजीफा देती आ रही थी ! लांखोँ रु खर्च कर हम अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के मॉध्यम से मन्नान वानी जैसे कश्मीरी आतंकी बना रहे हैं ! मन्नान वानी हिजबुल का Ak-47 लिए हुए जेहादी आतंकवादी बन चुका है ……
सबक हैं ! मोदी साहेब के लिए कि कम्प्यूटर और आधुनिक सुविधाएं ,समृद्धि और धन रूपी रिश्वत देने के बाद लोग आतंकवादी नहीं बनेंगे– यह ज़रूरी नहीं है ! मोदी साहेब ! आपने कश्मीर में धन और सुविधाओं की नदी बहा रखी है ,खजाना खोल रखा है, मगर आतंक न रुकना था , न रुका !————————————-Pawan
23 hrs ·
“हाउ पुअर पीपुल दीस मुस्लिम्स आर !
माइ गोश् ! होरिबल !
वी शुड डू समथिंग स्पेशल टू दीस पुअर पीपुल !”
यह उन कूल डूड लोगों के बीच की बातचीत है जो लंच में ठेले पर छोले-कुलचे खाने के बाद 40 मंजिला बिल्डिंग के नीचे गुनगुनी धूप में खड़े होकर सिगरेट के सुट्टे का मज़ा ले रहे हैं !!
#हाउ_पुअर’ लोगों की हकीकत जानिए ! पता नहीं वह बंगला है या बांग्लादेशी ! मगर बंगाली मिक्स हिंदी बोलता है नूर उल इस्लाम !अँगूठा छाप है ! पंचर जोड़ने का बिज़निस है भाई का ! 50 रु रेट है मोटर साइकिल का,80 रु रेट कार का ,बड़ी कार मने एसयूवी,वग़ैरा तो रु 125/- प्रति पंचर !! नकली ट्यूब रु 80/- वाला रु 300/- में मोटर साइकिल में,कार में 125 वाला 375 /- में लगाया जाता है यहाँ !! शर्त बस इतनी सी कि मोटर साइकिल-कार मालिक इमरजेंसी,जल्दी में हो और अज्ञानी हो ! जनाब जिन मुस्लिम मज़लूम (?) लोगों की मज़ाक हम #पंचर_वाला’ कह बना रहे हैं उनकी दैनिक आय एनसीआर में रु 1000/- से लेकर रु 5000/- प्रति दिन तक है ! यानि रु 30000/- प्रति महीना कम से कम और अधिकतम की कोई सीमा नहीं !!
कहानी चालू आहे ! नूर उल इस्लाम TV- कूलर-युक्त ‘झोपड़पट्टी’ में निवास करता है ! कांग्रेस सरकार ने ‘निर्वासन स्कीम’ के अंतर्गत मुआवज़े में उल इस्लाम को एक कमरे का फ्लैट फ्री, NCR में आबंटित किया ! नूर उल इस्लाम ने रु 10000/- में फ्लैट को किराए पर दे दिया और झोपड़पट्टी से सरकारी दामादों को हटा कौन सकता है ! आज नूर उल उल इस्लाम एनसीआर में दो घर,एक कार ,एक मोटर साइकिल और 5 बच्चों का मालिक है और नमाज़ी मुस्लमान तो है ही !!!
ऊपर अंग्रेज़ी झाड़ते कूल डूड हिंदु हैं ! 12 लाख में बीटेक करने के बाद प्राइवेट कंपनी में कथित इंजीनियर हैं और रु 15000/- महीना कमाते हैं…..Pawan bareli—————————————————————————–Shambhunath Shukla4 hrs हर साल दिल्ली की सरदी मुझे छेड़ जाती है. मुझे ठण्ड की ठिठुरन से उतनी परेशानी नहीं है, जितनी कि दिल्ली की गंदगी से. प्रदूषण के कारण दो कमरों के दड़बे से निकलने का मन नहीं करता. इसीलिए जब भी फुर्सत मिलती है, मैं कभी हरियाणा तो कभी पंजाब या मेरठ, सहारनपुर, बुलंदशहर या अलीगढ़ चला जाता हूँ. अब मैं सोचता हूँ कि अपना गाज़ियाबाद का जनसत्ताई फ़्लैट बेचकर अलीगढ़ में कोई कोठी खरीद लूं. अलीगढ़ इसलिए क्योंकि एक तो वह पढ़े-लिखे और कढ़े लोगों का शहर है. दूसरे वहां पर ही तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय है, जहाँ पर दुनिया भर से शिक्षार्थी पढ़ने आते हैं. मेरे नाती-नातिन वहीँ से शिक्षा ग्रहण करेंगे और सौहार्द के संस्कार पाएंगे. प्रदूषण वहां है नहीं. हमारे मित्र Vinay Oswal भी वही बिराजते हैं सो सत्संग भी होता रहेगा. और जब भी मन हो अपने वतन कानपुर चले जाओ. वहां से कानपुर कुल तीन सौ किमी है. अलीगढ़ से 72 किमी एटा, वहां से इतना ही बेवर. उसके आगे 75 किमी पर कन्नौज और कन्नौज से 80 कानपुर. अधिक से अधिक चार घंटे की ड्राइव और रास्ते में Rao Deepak और Sharad Misraa से कन्नौज के गट्टे फ्रीShambhunath Shukla
Devanshu
19 hrs ·
वामपंथ का विष…
राम जन्मभूमि विवाद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आया था । मेरे कामरेड मित्र दहक रहे थे । घोर अन्यायपूर्ण फैसला ! एक तो बाबर जैसे युगांतकारी और क्रांतिधर्मा बादशाह की बनवाई मस्जिद गिराने का भगवा षड़यंत्र! ऊपर से कोर्ट का इतना पक्षपाती निर्णय !! भारत की न्याय व्यवस्था भी सड़ गई है ! धन्य हो प्रभु ! तब तो मोदी देश के प्रधानमंत्री भी नहीं थे । वे प्रधानमंत्री रहते तो क्या होता ? अदालत की दीवारों को ढहा दिये जाने का नग़मा गाया जाता !
खैर, उनके मैसेज का मशीनगन दनदना रहा था और मैंने भी कलाश्निकोव खोल रखी थी । तभी तर्क वितर्क के दौरान मैंने कई बार श्रीराम और विवेकानंद का नाम लिया । कामरेड का धीरज छूट गया । उन्होंने मैसेज लिखा———— को अपने पिछवाड़े में डाल लो !
मैं मेट्रो में सफर कर रहा था । जां झनझना उठी । सामने होता तो पिछवाड़े की पूरी शक्ति से वहीं पटक कर पसली तोड़ डालता । एक महापतित, रंडीबाज़ बेईमान हिन्दू ही इतना नीचे गिर सकता है और निश्चय ही इतना गिरने वाला कोई वामपंथी ही हो सकता है । यही वामपंथी किसी अखलाक के मारे जाने पर पूरी हिन्दू जाति, धर्म, संस्कृति और ईश्वर सबको चुनौती देते हुए कर्कश आवाज़ में चिल्लाता फिरता है । पद्मावत फिल्म पर राजपूतों के संपूर्ण बलिदान को ललकारते हुए फिकरे कसता है । ब्राह्मण को गाली देना उसका पेशा ही है । इसका उदाहरण देना आवश्यक था क्योंकि यही वामपंथी मन का शास्त्रीय उदाहरण है । एकदम मोम की पिघलाई मूरत जिसे गढ़ने का गंदा कारखाना दिल्ली में भी है ।
यह और सभी वामपंथी गुजरात के दंगे को विश्व सभ्यता का सबसे बड़ा नरसंहार मानते हैं भारत विभाजन की भयास्पद त्रासदी से लेकर कश्मीर में हिन्दू विस्थापन, अगणित दंगे , पाकिस्तान, बांग्लादेश में हिन्दू निर्मूलन, आतंकवादी हमलों में हजारों मौत और आठ सौ वर्षों के इस्लामी अंधायुग पर चुप रहते हैं । पिछली सदी में रूस,चीन,पूर्वी यूरोप,वियतनाम, कंबोडिया, लातिन अमेरिका में वामपंथियों के हाथों हुई अनगिन जघन्य हत्याओं पर बगलें झांकते हैं ।या समानता स्थापित करने के लिए ज़रूरी मानते हैं । एक ऐसी समानता जिससे अधिक खोखला और वायवीय दर्शन आजतक न दिया गया । पिछली सदी में इन सभी देशों को मिलाकर करीब दस करोड़ लोग वामपंथी राज में मारे गए । यह आंकड़ा नाज़ियों के संहार से करीब साढ़े चार गुणा बड़ा है । और ध्यान रहे कि साम्यवादी संहार तब शुरू हो चुके थे जब हिटलर को जर्मनी में कोई नहीं जानता था । बल्कि नाज़ियों ने यातना और मौत देने की सारी पद्धतियां साम्यवादियों से सीखी थी । जिनका प्रारंभ महान लेनिन के राज में हो चुका था ।
भारत में ये मुट्ठी भर रहे पर आकाश भर का अनर्थ किया। पश्चिम बंगाल को तहसनहस कर बंगाली समाज की रीढ़ तोड़ डाली । जहां सौ, पचास साल पहले महर्षि अरविंद और विवेकानंद पैदा होते थे वहां जादवपुर और जेएनयू के बंगाली जमूरे पैदा होने लगे । देश की सभी प्रभावी शिक्षण संस्थानों, जहां इतिहास और समाजशास्त्र पढ़ाए जाते थे , वहां ये चढ़ बैठे । केन्द्र को हमेशा अपने आतंक से अस्थिर किया । मनमाने फैसले लिए और हिन्दू धर्म, दर्शन, प्राच्यविद्या को अंधविश्वास का समुच्चय घोषित कर दिया ।
ये भारतीयता में लगने वाले घुन है । किताबों की आलमारी में लगने वाले दीमक जिनका पक्का इलाज होना चाहिए । अपने अभीष्ट और लोकतंत्र की हत्या के लिए ये कुछ भी कर सकते हैं । इनसे गंदा और घृणित जोंक दूसरा नहीं है । इन वामपंथियों ने सुभाष बोस, गांधी, पटेल सबको भद्दी गालियां दीं ।भिन्न विचारधारा के कवि लेखकों, आचार्यों को दम भर अपमानित किया। मध्यकालीन इतिहास पूरी तरह से बदल डाला । प्राचीन भारत की अनर्गल परिभाषा गढ़ी ।भारत को देश मानने से ही इन्कार कर दिया । जो भी हमारा पारंपरिक, श्रेष्ठ और उज्ज्वल था उस पर कालिख पोतने की कुचेष्टा की । संस्कृत भाषा से सीमान्त तक घृणा की । वेद, उपनिषद और भारतीय धर्मग्रंथों की विमूढ़ व्याख्या करवाई । समझ लीजिए, भारत की रीढ़ तोड़ने में कुछ भी बाक़ी न रखा ।
आज ये हाशिये पर हैं । इन्हें अपने अस्तित्व का संकट दीख रहा है तो देश के यशस्वी प्रधानमंत्री की हत्या का षड़यंत्र रच रहे हैं । छिः इतना निकृष्ट तो कोई विचारधारा हो ही नहीं सकती । इनका उन्मूलन और समापन ही युगधर्म है । जिसमें किसी संकोच और विचार की आवश्यकता नहीं है ।
Mohammed Afzal Khan
10 hrs ·
पाकिस्तान में तालीबानी आंतकवाद के खूंखार गढ कहें जाने वाले वजीरीस्तान से जुझारू मार्क्सवादी नेता अली जहीर की पार्लियामेंट चुनाव में भारी जीत ताजे हवा के झोंके की तरह है।मानवता और गरीबों,मजलूमों,शोषितों के लिए लंबी जेल काटने से लेकर तालिबान और हाफिज शहीद द्वारा बरपा किये गये धार्मिक आंतकवाद के खिलाफ सीधी लड़ाई लड़ने का उनका महानत्तम ट्रेक रिकार्ड है।अब तक पाक फौज और आंतकवादियों ने मिलकर उनके परिवार के करीब 16 सदस्यों की नृशंस हत्या की है,जिसमें इस क्रान्ति यौद्धा के बूढ़े मां-बाप का कत्ल भी शामिल था,पर वे जरा भी विचलित न हुए और उन्होंने बदस्तूर अपना संघर्ष जारी रखा।वजीरीस्तान के सपूत कहे जाने वाले जन जन के प्रिय कामरेड अली जहीर का इलाके में इस कदर सम्मान है कि इमरान खान ने इलाके से अपने दल का उम्मीदवार ही हटा लिया।कामरेड अली जहीर ने पिछले दशक में स्वात घाटी के स्थानीय हिन्दुओं और सिखों को तालीबानी आंतकवादियों से बचाने के लिए खुली लड़ाईयां लडी और उनमें से अधिकतर को सुरक्षित बचाने में कामयाब हुए।इन्सानियत और गरीबों के इस क्रांतिदृष्टा को हमारा सलाम पहुंचे।
जय प्रकाश उत्तराखंडी Jaiprakash Uttrakhandi sir
R Mishra11 hrs · अमेरिका के वामपंथ के विरुद्ध संघर्ष में कोई अकेला नाम सबसे महत्वपूर्ण है तो वह है सीनेटर जोसफ मैक्कार्थी का. मैक्कार्थी ने १९५०-५६ के बीच अमेरिका में कम्युनिष्टों के विरुद्ध जंग छेड़ रखी थी. उन्होंने वामपंथ के विभिन्न घटकों को पहचाना और दावा किया कि कम्युनिष्ट अमेरिकी तंत्र में अंदर तक घुसे हुए हैं.
मैक्कार्थी के इस दावे की बहुत ही तीखी प्रतिक्रिया हुई. सारे सांप बिच्छू बिलबिलाकर बिलों से निकले और मैक्कार्थी पर टूट पड़े. सबने उसे डिस्क्रेडिट करने की मुहीम छेड़ दी. मैक्कार्थी को झूठा और शक्की करार दिया गया. मीडिया ने स्वतंत्रता और संवैधानिक अधिकारों की दुहाई देनी शुरू कर दी. उसके कदमों को डेमोक्रेसी का होलोकास्ट करार दिया गया. यानी हम जो आज भारत में असहिष्णुता का हल्ला सुन रहे हैं, उससे कई गुना जोर का हंगामा शुरू हुआ.
लेकिन मैक्कार्थी का निश्चय दृढ था. आलोचना की जरा भी परवाह किये बिना वह अपनी लड़ाई में लगा रहा. उसने हज़ारों संदिग्ध कम्युनिष्टों को पकड़ पकड़ कर पूछताछ शुरू की. परमाणु और रक्षा प्रतिष्ठान में काम कर रहे अनेक रूसी जासूसों को पकड़ा, विश्वविद्यालयों में घुसे वामपंथियों की नाक में दम कर दिया। अखबारों के संपादक, हॉलीवुड के सितारे, सरकारी दफ्तरों में बैठे बाबुओं पर पुलिस ने नज़र रखना और रस्ते पर लाना शुरू किया। अमेरिकी वामपंथी गिरोह में भगदड़ मच गयी. कोई भी अछूता नहीं रहा, सबपर नज़र रखी जाने लगी. खुद राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति के अपने स्टाफ भी निगरानी के दायरे में थे.
कम लोग जानते हैं कि बाद में राष्ट्रपति बने और कम्युनिज्म के कट्टर दुश्मन रोनाल्ड रेगन को भी मैक्कार्थी कमीशन के सामने तलब किया गया था. उस समय रेगन अपने विचारों में लिबरल और डेमोक्रैट हुआ करते थे. और उस समय वे हॉलीवुड की स्क्रीन एक्टर्स गिल्ड के प्रमुख थे.
पर रेगन अपने लिबरल रुझान के बावजूद देशद्रोही नहीं थे. उनसे पूछ ताछ की गयी तो उन्होंने कमीशन से सहयोग करने का निर्णय लिया और अपने साथी कलाकारों के बारे में जरूरी जानकारी प्रदान करने के लिए तैयार हो गए. उस समय रेगन को भी हॉलीवुड में कम्युनिष्ट हरकतों की बात बहुत दूर की कौड़ी लगी होगी। लेकिन जब इस सिलसिले में उन्होंने इस विषय पर आँखें खोल कर देखना शुरू किया तो उनका माथा ठनका। उनके अनेक साथी उन्हें अविश्वसनीय रूप से कम्युनिष्ट सोच से ग्रसित मिले जिनके लिए अमेरिका के हितों को नुकसान पहुंचाना और देश से विश्वासघात करना एक बड़े उद्देश्य की प्राप्ति का मार्ग लगता था. इस अनुभव ने रेगन को बदल कर रख दिया और उनके राजनीतिक जीवन को नयी दिशा दी. आगे चलकर हमने रेगन में कम्युनिज्म के विरुद्ध प्रतिबद्ध एक राजनायक पाया।
पर मैक्कार्थी की राह आसान नहीं थी. उन्होंने मगरमच्छों के जबड़े में हाथ डाल दिया था. इतने बड़े बड़े और प्रभावी शत्रु बना लिए थे कि उनसे निबटना आसान नहीं रह गया था. अमेरिका में सैन्य सेवा अनिवार्य थी. मैकार्थी ने स्वयं द्वितीय विश्व युद्ध लड़ा था और मेजर के पद तक गए थे…. हालाँकि उन्हें अपनी जुडिशल सर्विस की वजह से सैन्य सेवा से छूट मिली हुई थी, फिर भी मैक्कार्थी ने विश्वयुद्ध के लिए वालंटियर किया था. पर जब मैक्कार्थी ने सीआईए और सेना में कम्युनिष्ट घुसपैठ की बात की और सेना के उच्च अधिकारियों की संलिप्तता की जांच करनी चाही तो यह उन्हें महंगा पड़ गया
उस समय मैक्कार्थी ने डेविड शाइन नाम के एक युवक की मदद करनी चाही. शाइन एक होटल की चेन का मालिक था. उसी दौरान डेविड शाइन ने एक छोटी सी पुस्तिका लिखी थी – “डेफिनिशन ऑफ़ कम्युनिज्म” जिसमें उसने कम्युनिज्म के खतरों के बारे में आगाह किया था. शाइन के होटल के हर कमरे में उस पुस्तिका की एक कॉपी रहती थी. जब यह पुस्तिका मैक्कार्थी की दृष्टि में आयी तो वह उसके इस प्रयास से बहुत प्रभावित हुआ.
शाइन ने अनिवार्य सैनिक सेवा एक सामान्य सिपाही “प्राइवेट डेविड शाइन” के रूप में ज्वाइन की. पर अपनी कम्युनिष्ट विरोधी राजनीतिक विचारधारा और मैक्कार्थी से परिचय की वजह से शाइन संभवतः शक की नज़र से देखा जाने लगा और उसे मैक्कार्थी का आदमी मान लिया गया. यह बात उसके कुछ वरीय सैन्य अधिकारियों को अखर गयी और शाइन की गर्दन उनकी मुट्ठी में आ गयी. इस बीच मैक्कार्थी ने अपने स्टाफ की मार्फ़त शाइन को अफसर बनाने की सिफारिश कर दी जहाँ उसकी बौद्धिक क्षमता का पूरा प्रयोग हो सके.
सेना के अधिकारियों ने इस बात का पूरा बखेड़ा खड़ा कर दिया कि मैक्कार्थी सेना के काम काज में दखल देना चाहते हैं और वे सेना को तोड़ देने की धमकी दे रहे हैं. दुश्मन तो मैक्कार्थी के थे ही. तो यह बात कांग्रेशनल कमिटी तक गयी और पूरे देश के सामने मैक्कार्थी की पेशी हुई. मैक्कार्थी ने सेना पर यह आरोप लगाया कि सैन्य अधिकारी कम्युनिष्ट गतिविधियों में संलिप्त होने की जांच के डर से घबराये हुए हैं और इस छोटे से मुद्दे को उछाल कर मैक्कार्थी पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जिस से वह अपनी जाँच ढीली कर दे,
३६ दिनों तक मैक्कार्थी ने पूरे देश की मीडिया, कांग्रेस और सैन्य संस्थानों का दृढ़ता से सामना किया और सिर्फ जवाब ही नहीं दिया बल्कि तीखे सवाल किये जिनका जवाब देना मुश्किल हो रहा था. लेकिन व्यवस्था में बैठे मगरमच्छों ने मैक्कार्थी से पीछा छुड़ाने का फैसला कर लिया था. मैक्कार्थी के विरुद्ध सीनेट ने निंदा प्रस्ताव पास किया और इस झटके से वह राजनीतिक रूप से कभी नहीं उबर सका. उसकी लोकप्रियता, सर्वमान्यता और राजनीतिक प्रभाव कम हो गया था लेकिन कम्युनिज्म के विरुद्ध उसके तेवर धीमे नहीं हुए.
तीन वषों के भीतर, सिर्फ ४८ वर्ष की आयु में वह मेरीलैंड के सैनिक हस्पताल में भर्ती हुआ जहाँ कुछ दिनों के भीतर ही उसकी रहस्यमय रूप से मृत्यु हो गयी. उसका लिवर बुरी तरह से खराब पाया गया, जिसके लिए मीडिया ने अल्कोहल को दोषी घोषित किया, हालाँकि वह उस समय तक बिलकुल स्वस्थ था. उसकी मृत्यु के लिए अनेक कांस्पीरेसी सिद्धांत दिए गए,जिनमें इसे एक सुनियोजित हत्या बताया गया. पर इसमें शक नहीं है कि मैक्कार्थी की राजनीतिक हत्या बहुत पहले हो चुकी थी.
6 20 —– https://www.youtube.com/watch?v=yB4M0uP3ymI Vikas Singh
21 November at 20:19
कई दिनों से वायरल ये वीडियो जो पाकिस्तान के लाहौर में फ़ैज़ फ़ेस्टिवल के दौरान का है जिसमें वहाँ के किसी वामपंथी संगठन के छात्र/छात्राएं पटना के “बिस्मिल अज़ीमाबादी” का लिखा और “रामप्रसाद बिस्मिल” द्वारा स्वाधीनता संग्राम में अमर कर दिया गया ” सरफ़रोशी की तमन्ना” बुलन्दी के साथ गा रहे हैं ,जितनी बार सुन रहा हूँ रोंगटे खड़े हो जा रहे हैं , सोचिए क्या जोश जुनून रहा होगा जब बिस्मिल ,अशफ़ाक़ ये गाते हुए , युवाओं के ख़ून में उबाल लाते हुए आज़ादी के पथ पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर क़दमताल करते होंगे ।
“आज फिर मक़तल में क़ातिल कह रहा है बार बार ,
आयें वो शौक-ए- शहादत जिनके जनके दिल में है ।
मरने वाले आओ अब गर्दन कटाओ शौक़ से ,https://www.bbc.com/hindi/india/2015/08/150814_sarfaroshi_ki_tammana_bismil_azeemabadi_sr
ये ग़नीमत वक़्त है खंज़र कफ़-ए- क़ातिल में है “! ———————
Rajiv Nayan Bahuguna Bahuguna
17 mins ·
यह हैं महाराष्ट्र के इकलौते वामपंथी विधायक विनोद निकोले (दाएं )। विधायकों की छपन छुपाई , पकड़ धकड़ और लुका छुपी के बीच न तो इन्हें कहीं होटल में छुपाया जा सकता है , न खरीदा जा सकता , न बेचा जा सकता । वह यथावत अपनी जनता के बीच सक्रिय हैं ।
सत्ता लोभी पार्टियों , ख़ास कर कांग्रेस और भाजपा के निशाने पर केजरीवाल अथवा वामपंथी राजनेता इसी लिए सतत रहते हैं , क्योंकि वे अपनी सहज सादगी के कारण इनके लिए शाश्वत चुनौती हैं । वे राहुल गांधी की तरह न तो 5 साल में 1 बार गरीब की झोम्पडी में सोने का ड्रामा करते हैं , न दस्ताने पहन कर स्वच्छकारों के पांव धुलने का पाषंड ।
जयपुर में रिपोर्टर रहते मेरे पास कम्युनिस्ट पार्टियों की बीट थी । मैं अक्सर इकलौते मार्क्सवादी विधायक अमराराम के बंगले पर जाता था । विधायक बनने से पहले वह बस कंडक्टर था , और अब भी आदतन कंडक्टर वाला चमड़े का बैग लटकाए फिरता था ।
सीनियर होने की वजह से उसे फ्लेट की बजाय बंगला आवंटित था । वह बंगले की बरसाती में रहता था , और उसकी कोठी में पार्टी का दफ्तर चलता था । उसकी पूरी तनख्वाह पार्टी को जाती थी । पार्टी उसमे से थोड़ा बहुत उसे निर्वाह व्यय देती थी । वह दोपहर को मेरी प्रतीक्षा करता , क्योंकि मैं चटपटी दाल फ्राई और तरकारी होटल से मंगवा कर खुद भी खाता और उसे भी खिलाता। पार्टी द्वारा उसे दी जाने वाली तनख्वाह मुझसे एक चौथाई थी ।
मेरे बचपन की याद । टिहरी जिले में कम्युनिस्टों का प्रकोप बढ़ रहा था । इनसे भयभीत कांग्रेसी कहते थे कि इनका राज आया , तो सबको मेंढक और छिपकली जबरन खानी पड़ेगी । चीन का राज आ जायेगा । कौम का नष्ट हो जाएगा । इसी लिए इन्हें कौम नष्ट कहते हैं ।
बाद को मेरे मामा विद्यासागर नौटियाल कम्युनिस्ट विधायक बने । वह फ्रीडम फाइटर थे , पर विधयक रहते अपनी पेंशन न लगवा सके । बहुत बाद में एनडी तिवारी से कह कर किशोर उपाध्याय ने उनकी पेंशन लगवाई । उनके पास एक साइकिल थी । विधायक रहते वह शाम को उस साइकिल पर आटा तथा सब्ज़ी लाते । लम्बी यात्रा बस से करते थे ।
भारत पर चीन का आक्रमण होने पर वह चीन के विरोध में एक सभा को सम्बोधित करने जा रहे थे , कि उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया । तीन साल ज़ेल में रखा । कांग्रेसियों का कहना था कि वह चीन के एजेंट हैं ।वह शुद्ध शाकाहारी थे ।
वह प्रतिदिन पूजा करते और छापतिलक भी लगाते थे । लेकिन जनसंघी कहते थे कि यह रूस समर्थक इसाई है ।जब तक भारत की जनता
भाजपा और कांग्रेस की गुलाम बनी रहेगी , तब तक ये दोनों पूंजीपतियों द्वारा पोषित पार्टियां बारी बारी देश को बेचती रहेंगी ।
राजीव
कल शाम कॉलेज के बच्चों के एक झुण्ड से मिला. 20-22 साल के बच्चे, प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारियां करते हुए. उनका आधा घंटा समय चुरा कर उनसे बातें की. उन्हें उनकी भाषा में वामपंथ का विष समझाया.
उनमें से एक लड़का वामियों के प्रभाव में था. उसने कुछ बेहद प्रासंगिक प्रश्न पूछे जिनका जवाब देने में मजा आया, और अपनी सोच भी स्पष्ट हुई.
पहली शंका थी वामपंथ की परिभाषा में. उसने कहा – वामपंथ वह सिद्धांत है जो समानता चाहता है.
मैंने कहा – नहीं! वामपंथ वह सिद्धांत है जो संघर्ष चाहता है.
उसने कहा – हाँ, अमीर और गरीब के बीच संघर्ष तो होगा.
मैंने कहा – कौन अमीर है और कौन गरीब? हर कोई किसी ना किसी से अमीर है और किसी ना किसी से गरीब. यह दो वर्ग नहीं हैं, एक स्पेक्ट्रम है. जब मैं हवाई जहाज की इकॉनमी क्लास में चलता हूँ तो मैं गरीब हूँ. मुझे इच्छा होती है कि बिज़नेस क्लास वालों से संघर्ष करूँ और उनकी सीट ले लूँ.
और हमें समानता क्यों चाहिए? किसने समझा दिया कि हमारा लक्ष्य समानता है? हमारा लक्ष्य समानता नहीं, समृध्दि और उन्नति है. तुम नौकरी ढूँढ रहे हो…क्या तुम्हें रतन टाटा बनना है? या तुम टाटा कंपनी में एक अच्छी नौकरी चाहते हो जिसमें तुम्हें अच्छी सैलरी मिले?
बच्चे ने मैक्सिम गोर्की की माँ, मेरा बचपन, मेरे विश्वविद्यालय पढ़ रखी थी. मैंने भी अपनी किशोरावस्था में यही किताबें पढ़ी थीं. बहुत रोचक रहा, पुरानी पढ़ी हुई किताबों की यादें निचोड़ना. उसने कहा – मैक्सिम गोर्की जैसा लेखक अगर मार्क्सवाद से प्रभावित था तो उसमें कुछ तो बात होगी…कोई बेवकूफ लोग तो नहीं थे…
मैंने कहा – पर वे बेवकूफ बन गए. उनके जैसे कितने ही लेखकों और बुद्धिजीवियों ने साम्यवाद का समर्थन किया. रूस में उनमें से अधिकांश साइबेरिया जा पहुँचे. चीन में हंड्रेड फ्लावर्स कैंपेन के बाद वे जेल में डाल दिये गए या मार डाले गए.
हाँ, मार्क्स ने दुनिया को बेवकूफ़ बनाया. उसने एक झूठ बोला जिसपर उनलोगों ने प्रश्न नहीं किया.
यह बताओ, लाभ किस बात का परिणाम है और इसपर किसका हक़ है? श्रम का या पूँजी का?
उसने कहा – श्रम का. पूँजी तो पूरे समाज की साझा सम्पत्ति है.
मैंने कहा – यही मार्क्स का बेसिक झूठ है. लाभ ना श्रम का परिणाम है ना पूँजी का. श्रम का रिवॉर्ड पारिश्रमिक है, पूँजी का रिवॉर्ड है सूद. लाभ साहस का परिणाम है. जिसने नुकसान उठाने का जोखिम लिया, लाभ पर उसका हक़ है.
बच्चे ने पूछा – फिर आपका सोल्यूशन क्या है? आदमी को एक विचारधारा तो चाहिए.
मैंने कहा – मैंने यह पुस्तक एक विचारधारा के विरुद्ध दूसरी विचारधारा को स्थापित करने के लिए नहीं लिखी. यह इस पुस्तक का विषय नहीं है. पर मैंने इसमें दो लोगों का जिक्र किया है जिन्होंने एक समाधान सा प्रस्तुत किया है? एक है चीन के देंग सियाओ पिंग और दूसरे सिंगापुर के ली कुआन यू. एक कम्युनिस्ट और दूसरा घोर एन्टी-कम्युनिस्ट. और इन दोनों ने अपने अपने देशों को समृद्धि दी. क्योंकि ये दोनों ही विचारधारा के फेर में नहीं पड़े. दोनों ने प्रत्येक समस्या के अलग अलग समाधान ढूंढे. हर बीमारी की एक दवा नहीं होती. हम विचारधारा के फेर में फँस के समस्या को भूल जाते हैं, समाधान को खो देते हैं.
बच्चे ने कहा – सर! इतने सालों से मैं कम्युनिस्टों के साथ हूँ, अपनी विचारधारा को एक दिन में छोड़ तो नहीं सकता. लेकिन यह किताब पढ़ूँगा जरूर.
छोटी सी पर आरंभिक सफलता. वामपंथ के खोल को भेदते हुए मैं उसके मर्म तक पहुँच सका, तो सिर्फ इसलिए कि वह अभी भी सामाजिक आर्थिक असमानता से आहत था, समाधान चाहता था. वह क्लासिकल मर्क्सिज्म का शिकार था, कल्चरल मर्क्सिज्म का नहीं. उसने अपने देश, समाज से घृणा करनी आरंभ नहीं की थी. उसे जेएनयू के कन्हैया टाइप गुंडों से सहानुभूति नहीं थी जो भारत के टुकड़े टुकड़े के नारे लगाते हैं. पर उसे शिकायत थी कि शिक्षा फ्री क्यों नहीं है.
मैंने उसे समझाया – तुम्हारा हिस्सा वे जेएनयू वाले खा जा रहे हैं जो दिल्ली में वर्षों वर्षों तक दस रुपये महीने के कमरे में पड़े सब्सिडी की रोटियाँ तोड़ते हैं. वे तुम्हारी लड़ाई नहीं लड़ रहे, तुम्हारे बहाने से पब्लिक के पैसे पर ऐश कर रहे हैं. वामपंथी भी यही करते हैं. गरीबों के बहाने से गरीबों के हिस्से के पैसे पर ऐश करते हैं. राजीव l
r मिश्रा – लोग कह रहे हैं, केजरीवाल की फ्री-फन्ड की राजनीति जीती है तो भाजपा को भी यही राजनीति करनी चाहिए.
पूरी तरह असहमति है. वामपंथी यही करते हैं…वे जीतें या हारें, उनका नैरेटिव हमेशा जीतता है…भाजपा हारी है तो यह हिंदुत्व की हार है और भाजपा को हिंदुत्व छोड़कर फ्री-फण्ड वाली राजनीति करनी चाहिए.आप तब अच्छा खेलते हैं, जब आप अपनी पिच पर खेलते हैं. फुटबॉल के खिलाड़ी के हाथ में क्रिकेट का बल्ला काम नहीं आता. यह फ्री-फण्ड की राजनीति वामियों की होम पिच है. आप इसपर उनसे जीत ही नहीं सकते. आप एक चीज फ्री करोगे, वे दस फ्री कर देंगे. क्योंकि उनका कुछ नहीं आता जाता. इससे अर्थव्यवस्था चौपट हो जाएगी, देश बर्बाद हो जाएगा… उन्हें इससे क्या फर्क पड़ेगा? वे यही तो चाहते हैं. आप गलत सोचते हैं कि वे चुनाव जीतना और सत्ता पाना चाहते हैं. वे देश की बर्बादी चाहते हैं, और सत्ता में रहकर वे यह बेहतर कर सकते हैं. पर अगर भाजपा ही उनका यह काम खुद कर दे तो उन्हें क्या शिकायत हो सकती है?आप उन्हें अपनी पिच पर लाइये, आप जीतेंगे…हमेशा जीतेंगे. जब भी और जहाँ भी हिंदुत्व मुद्दा बना है, भाजपा कभी नहीं हारी है. भाजपा को उनके खेल में उतरने की गलती कभी नहीं करनी चाहिए. उन्हें अपनी पिच पर लेकर आइये. हिंदुत्व को मुद्दा बनाइये, राष्ट्रवाद का प्रश्न जीवित रखिये. लोगों की सोच में हिंदुत्व और राष्ट्रवाद जगाइए और उन साधनों पर वापस कब्जा कीजिये जो लोगों की सोच निर्धारित करते हैं…मीडिया, शिक्षा, कला और इतिहास लेखन…ये ही सत्ता और शक्ति के स्रोत हैं. ये ही राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की लौ जलाएंगे. और राष्ट्रवाद तो एक आग है. जब तक हम और आप जीवित हैं, एक भी हृदय में हिंदुत्व और राष्ट्रवाद जीवित है… हम नहीं हारे हैं. यह आग जलाए रखिये, इसपर मुफ्तखोरी का पानी मत डालिये.र मिश्रा ————————————————————————————————————- ”
hindutv सिकंदर हयात अब इसमें सबसे बड़ा मुद्दा इस समय दलित आदिवासी और गरीब का ही हे की वो किधर जाते हे अब इनके जो मंसूबे हे उसमे सबसे बड़ा पेंच दलित आदिवासी गरीब का ही फंसता हे अपने मंसूबो को पूरा करने के लिए हिंदुत्व को उभारने के लिए इन्हे इनको कस कर गले लगाना होगा . जिसे कस कर गले लगाओगे उसके साथ रिश्ता भी कायम करना और रखना होगा, वही काम इनके लिए सबसे कठिन हे की जो कल तक अनटचेबल थे उन्हें कस कर गले कैसे लगाए ——— ? इनका तो ये की चलो हिंदुत्व खेमे में आकर कम्युनल फोर्स में आगे की पोजीशन ले लेते हो तो ज़्यादा से ज़्यादा धर्मस्थलो में प्रवेश दे देंगे पहले की तरह छाया से नहीं भागेंगे ये सब इतना ही बहुत हे इनके हिसाब से, तो ये ये भी चाहते हे, और बराबरी का अधिकार भी नहीं देना चाहते हे , दे ही नहीं सकते हे, क्योकि उसके लिए फिर इतना इतना विशाल दिल बनाना होगा की उस दिल को मुसलमानो ईसाइयो से भला क्या नफरत रह जायेगी ———— ? तो एक तो ये पेंच हो गया दूसरा की गरीब को गले लगाते ही वो आपसे – अपनी मांगो और आशाओ की लिस्ट थमा देगा . वो भी ये करना नहीं चाहते हे.
r मिश्रा
वि वामपंथ
हमें यह समझाया गया है कि कंपनियाँ हमारी दुश्मन हैं और सरकारें हमारी मददगार… इस पैरासाइट मानसिकता से निकलने की जरूरत है.
हमारे जीवन को इन कंपनियों ने सुविधाजनक बनाया है. जो भी उपयोगी चीजें हैं वह कंपनियों ने ही बना कर दी हैं. अगर आज हम कारों से चलते हैं तो वह इसलिए कि किसी हेनरी फोर्ड ने सस्ती कारें बनाई. अगर आज टेलीविजन देखते हैं, कंप्यूटर इस्तेमाल करते हैं, हमारे हाथ में स्मार्टफोन हैं तो वे सभी किसी कंपनी ने बना कर दी है. अगर अमेरिका में एक दवाई का अविष्कार होता है और अगले सप्ताह वह दवाई हमारे पास के मेडिकल स्टोर में मिलने लगती है तो वह इसलिए कि एक मुनाफे की लालची कम्पनी उसे वहाँ लेकर आती है. अगर आपको अपने शहर में सीटी स्कैनर और एमआरआई की सुविधा मिलती है तो वह इसलिए कि सिमन्स और GE जैसी कंपनियों ने अपने लालच के लिए मशीनें बनाकर आपके शहर तक पहुँचाया है. अगर आप इस भरोसे रहते कि एक लोककल्याणकारी सरकार उसे आपके भले के लिए बना कर आपको देती तो कभी नहीं होना था.
हमें वॉलमार्ट और अमेज़ॉन से डरने की नहीं, उनसे मुकाबला करने की जरूरत है. हमारे अपने अमेज़ॉन और वॉलमार्ट, एप्पल और सैमसंग हों…. जो इसीलिए नहीं हैं क्योंकि पिछली पीढ़ी ने टाटा बिरला को कोसते हुए अपना जीवन बिताया है और नई पीढ़ी को अम्बानी-अडानी को कोसना सिखाया जा रहा है. मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि अम्बानी और अडानी हमारे सबसे अच्छे मित्र हैं. हमें और अधिक अम्बानी और अडानी चाहिए. अमेरिका में भी गरीब हैं, पर अमेरिका का गरीब भारत के गरीब से बेहतर जिंदगी इसलिए जीता है क्योंकि वहाँ एक दो अम्बानी और अडानी के बदले सैकड़ों फोर्ड और रॉकफेलर, बिल गेट्स और स्टीव जॉब्स और जॉफ बेज़ोस हुए हैं. और वह इसलिए हुआ है कि अमेरिकी संस्कृति में अपने जॉफ बेज़ोसों और स्टीव जॉब्स को गालियाँ निकालने की नहीं, उनका सम्मान करने और उनकी समृद्धि में हिस्सेदार बनने की प्रवृत्ति है.
दूसरी तरफ हम चाहते हैं कि सरकार हमें इन कंपनियों के शोषण से बचाये. पर सोचें, हमारा शोषण कौन करता है? कंपनियाँ या सरकार? हमें इतने वर्षों तक गरीबी में रखने में किसका गुनाह अधिक बड़ा है?
यह सरकारी अमला जितना छोटा हो उतना अच्छा, ये टैक्स जितने कम हों उतना बेहतर. सरकार हमारे व्यापारिक निर्णयों में हस्तक्षेप ना करे और उतनी ही गतिविधियों तक खुद को सीमित रखे जो शुद्ध प्रशासन हो… चाहे किसी की भी सरकार हो.
“समानता” का विचार सिर्फ कानून के सामने समानता तक सीमित हो. आर्थिक समानता के बहाने से सरकारें बन्दरबाँट ना करे. हमारा पैसा हमारे हाथ में छोड़ दे, हम उसे बेहतर तरीके से खर्च कर लेंगे. रीडिस्ट्रिब्यूशन ऑफ वेल्थ सरकार का काम नहीं है, वह समाज के अंदर के आर्थिक विनिमयों से अपने आप हो जाता है. हमारा वेल्थ जब सरकार के हाथ से गुजरता है तो वह सरकारी तंत्र के हाथ में लुटता ही है. यह लूट समाजवाद के नामपर होती है, क्योंकि सरकार ने अमीर से लेकर गरीब को देने की अपनी जिम्मेदारी घोषित कर रखी है. यह लूट कभी खत्म नहीं हो सकती, अच्छी सरकारों में भी नहीं. काँग्रेस के समय बेतहाशा होती थी, मोदी सरकार के समय कम हुई है. पर हमारा पैसा जितने अधिक सरकारी हाथों से गुजरेगा उतना अधिक अपव्यय होगा. जब पॉवर प्लांट में बिजली बनकर तारों से आपके घरों तक पहुंचायी जाती है तो रास्ते में उसका नुकसान होता ही है… चाहे कितने भी अच्छे कंडक्टर वायर का प्रयोग किया जाए. इसलिए यह कंडक्टर वायर जितना छोटा हो उतना बेहतर.
सरकारें, यहाँ तक कि अच्छी सरकारें भी, हमारी आज़ादी छीनती हैं…यही उनकी परिभाषा है. दुनिया में जितने तानाशाह हुए हैं, वे सरकारों के रूप में हुए हैं, ना कि कंपनियों के रूप में. जो भी शोषण और दमन हुआ है वह सरकारों ने किया है. फिर भी हमने स्वेच्छा से सरकार नाम की संस्था को चुना है. क्योंकि हमने स्वेच्छा से अपनी स्वतंत्रता का एक भाग सरेंडर किया है, जो समाज के संचालन के लिए जरूरी है. पर स्वतंत्रता जैसी चीज को जितना कम सरेंडर किया जाए उतना बेहतर. सरकारों को जितना कम स्पेस दिया जाए हम उतने स्वतंत्र होंगे.