प्रस्तुति सिकन्दर हयात
( नरहरी विष्णु गाडगिल 1896- 1966 भारत के पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल में 46 -47 – 52 में मंत्री थे वो कांग्रेस की उस धारा में थे जो नेहरू की नीतियों को पूरी तरह से पसंद नहीं करती थी और सरदार पटेल को अधिक पसंद करती थी बाद में उनके पुत्र और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता वी एन गाड़गिल ने भी नब्बे के दशक में कोंगेस को अपनी नीतियों पर फिर से विचार की बात उठाई थी पेश हे उनकी पुस्तक के कुछ अंश )
इस तुष्टिकरण का परिणाम यह निकला की मुसलमानो की हठवादिता और भी बढ़ गई . हिन्दू लोग स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे और मुसलमान इस ताक में लगे थे की उसका फल टपके और हथिया ले . भारत के मुसलमान बहुत पहले से ही उन फलों को पा लेने के अभ्यस्त हो चुके थे जिनके लिए हिन्दुओ को बलिदान और कष्ट सहन करना पड़ता था मुसलमान 1945 में भी उतने ही उतावले हो रहे थे कांग्रेस वालो में राजा जी की गिनती बहुत बड़े समझदारो में होती थी वे भी मुसलमानो की इस ऐतिहासिक प्रवृत्ति का शिकार हुए और उन्होंने मुसलमानो को तुष्ट करने की योजना बनाई . उन्होंने भारतीय एकता और आत्मनिर्णय की सिद्धांत में गठजोड़ करने का प्रत्यन कीया उन्होंने गांधी जी और जिन्ना में मुलाकात कराई निश्चय ही इस भेंट की कुछ उपलब्धि नहीं हुई क्योकि वे जिन्ना समझते थे की हर बात का उत्तर नहीं में देने से उन्हें पाकिस्तान प्राप्त हो सकता हे ————- सत्ता हस्तांतरण का दिन नजदीक आ रहा था और यह स्पष्ट ही था की नई सरकार बन का भार कांग्रेस पर ही होगा इसलिए गांधी जी ने मौलाना आज़ाद को सुझाया की कांग्रेस का नया अध्यक्ष चुना जाए मौलाना वल्ल्भ भाई को कांग्रेस अध्यक्ष नहीं बनना चाहते थे इसलिए उन्होंने नेहरू का नाम परस्तवित किया हममे से कुछ ने वल्ल्भ भाई का नाम प्रस्तावित करने की योजना बनाई परन्तु कुछ ”गांधीवादियों” ने हम से कहा की गांधी जी चाहते हे की नेहरू को ही कांग्रेस अध्यक्ष बनाया जाए यदि वे कांग्रेस अध्यक्ष न बने होते तो तो वे प्रधानमंत्री भी न बन पाते और उस वयवस्था में वे क्या करते इसे कौन जानता हे फिर गांधी जी ने अपने अनुशासित सैनिक वल्ल्भ भाई से कहा की तुम प्रलोभन से दूर ही रहो —— अंतरिम सरकार के गठन का समय जैसे जैसे नजदीक आता गया वैसे वैसे गेरलीगी मुसलमान सदस्य कांग्रेस के नजदीक आने लगे मौलाना आज़ाद उन्हें जुटा सकते थे प्रभावशाली वक्ता के रूप में उनका कोई सानी नहीं था . परन्तु वे इस कर्तव्य से विमुख ही रहे उन्होंने कांग्रेस के इस निश्चय को खुले दिल से स्वीकार नहीं किया था की वह अंतरिम सरकार में सम्म्लित हो — विचारशील मुसलमानो पर आज़ाद का प्रभाव कुछ कम नहीं था परन्तु वे उनकी उदासीनता से कांग्रेस से दूर हट रहे थे . राष्ट्रिय मुसलमानो की जो अजीब कौम हमारी राजनीति में उतपन्न हुई थी वह धीरे धीरे लुप्त हो रही थी एक बार वल्ल्भ भाई ने मजाक मजाक में मगर बहुत ही चुटीले शब्दों में कहा था की देश में अब एक ही राष्ट्रिय मुसलमान रह गया हे और वह हे जवाहर लाल नेहरू ——16 अगस्त 1946 के बाद से पुरे भारत की स्थिति तनावपूर्ण रही पंजाब और बंगाल में कांग्रेस मन्त्रिपरिषदे नहीं थी इसलिए वहां हिन्दू असुरक्षित थे बिहार और उत्तरप्रदेश में कांग्रेस मंत्री परिषदे थी परन्तु यहाँ कॉंग्रेसी सरकार अपनी पक्षपातहीनता सिद्ध करने के लिए हिन्दू हितों के विरुद्ध कार्य करने को उधत थी हमारे नेता सीधे खड़े होने के फेर में पीछे की और गिर रहे थे ——— मस्जिदे और दरगाहे तो मुस्लिम साम्प्रदायिकता की गढ़ बनी हुई थी परन्तु मंदिर और देवालय हिन्दू साम्प्रदायिकता से अछूते रहे हिन्दूऔ पर आघात करने के लिए मुल्ला और मौलवी मुसलमानो को उकसा रहे थे ऐसे पर्यवारण में दो सितम्बर 1946 को कांग्रेस ने शासन भार सम्भाला !
-इस बीच अलवर के मुख्य्मंत्री बदल गए और राज़्य के जो मुसलमान पाकिस्तान चले गए थे वे फिर विनोबा के शब्दों की रट लगाते हुए भारत चले आये अलवर का कुछ अंश पंजाब में हे और कुछ राजस्थान में और यह कोई नहीं कह सकता की इस सवेंदनशील सीमा पर रहने वाले ये सभी मुसलमान भारत के प्रति वफादार ही हे वस्तुस्थिति यह हे की कुछ प्रतिशत राष्ट्रवादी और गावो में रहने वाले मुसलमानो को छोड़ कर अन्य मुसलमानो की आपातकाल में भारत के प्रति निष्ठां संदिग्ध ही हे पिछले कुछ वर्षो से असम सम्बन्धी अनुभव कुछ ऐसा ही बतलाता हे नेहरू हिन्दुओ के कटु आलोचक थे और निरंतर हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वय सेवक संघ पर यह दोषारोपण करते थे की भारत को हिन्दू धर्मतन्त्र बनना चाहते थे —–एक ऐसी ही रिपोर्ट में मेने उन्हें लिखा था की आपने हिन्दुओ पर जो दोषारोपण किये वे ठीक नहीं हे हिन्दू भारत का बहुसंख्यक सम्प्रदाय हे और परजन्तन्त्रिक चुनाव उन्हें सहज ही सततयुक्त कर देते हे – इसके विपरीत स्वय उनके भाषणों से हिन्दुओ में परसपर कटुता उतपन्न होती हे – — पर नेहरू के भाषणों का लहज़ा नहीं बदला!
पाकिस्तान ने किस प्रकार हिन्दुओ को निकल और बंगाली मुसलमानो को असम के कुछ प्रदेशों में जा बसने के लिए प्रेरित किया इस सम्बन्ध में में पहले विस्तारपूर्वक लिख चूका हे भारत सरकार ने इन बातो पर ध्यान नहीं दिया इसके विपरीत जब वल्ल्भ भाई यह सुझाव रखा था की भारत और पाकिस्तान में हिन्दू मुस्लिम जनता की अदला बदली हो और जनसख्या के अनुपात में भूमि का बटवारा हो तो नेहरू बहुत अधिक क्रुद्ध हुए थे यह बात माननी ही होगी की यह अदला बदली दीर्घकाल में हितकर ही सिद्ध होती हमारा देश देश धर्मनिरपेक्ष हे और धर्मनिरपेक्षता में हमारा विशवास तात्विक हे तो भी अवस्थापरक कठोर सत्यो के आधार पर उसमे परिवर्तन होना चाहिए था यदि समग्र दर्ष्टि से देखा जाए तो कहा जा सकता हे की विभाजन के बाद मुस्लमान भारतीय जीवन धारा से पर्थक ही रहे और प्राय सभी शहरो में मुस्लिम संघटन बराबर विषैला प्रचार करते रहे हज़ारो मुसलमान जो भारत छोड़ कर पाकिस्तान चले गए थे , फिर लोट आये और उन्हें उनकी परिसंपत्ति लोटा दी गयी हिन्दुओ के साथ ऐसा न्याय नहीं हुआ . यह ठीक हे की वे दान के पात्र बने और उन्हें आर्थिक सहायता प्राप्त हुई परन्तु जिस स्वाभिमान और धार्मिक विशवास के लिए उन्होंने बलिदान किया उसके लिए उनका सम्मान नहीं हुआ भारत विश्व का अकेला महान हिन्दू राष्ट्र हे और इसमें बहुतेरे ईसाई और मुसलमान भी रहते हे
शरणार्थियों के लिए नए घर बनाने के लिए धन की आवशयकता थी और हम लोग चाहते थे की खाली पड़े स्थानों का उपयोग किया जाए जो मुस्लमान पाकिस्तान चले गए थे उनके घरों पर कब्ज़ा उन मुसलमानो ने कर लिया था जो भारत में थे इस प्रकार शरणार्थियों के लिए कोई स्थान ही नहीं था वे गंदे नालों के पास गन्दी झोपड़िया और खेमे दाल कर पड़े थे कई स्थानों पर शरणार्थी खुले में पड़े थे वे यह भी देख रहे थे की जिन घरों को खाली कर मुसलमान पाकिस्तान चले गए हे उन पर कब्ज़ा अन्य मुसलमानो ने कर रखा हे —- गांधी जी के उपवास के कारण हमें पचास करोड़ रूपये पाकिस्तान को देने पड़े थे जबकि पाकिस्तान से हमें उलटे तिन अरब रूपये लेने थे —मुसलमानो के साथ कैसा बर्ताव किया जाए इस सम्बन्ध में नेहरू और पटेल का मतभेद बढ़ता ही गया दिल्ली के मुसलमानो ने सांयकाल बिरला भवन में नित्य प्रति जाने का क्रम बन लिया था और वे वहां प्राथना करने के बदले गांधी जी को अपने प्रति हुए अन्यायों की अत्युक्तिपूर्ण कहानिया सुनाते थे और फिर गांधी जी उन्हें हम लोगो के पास भेज देते थे (मीनाक्षी प्रकाशन मेरठ से प्रकाशित पुस्तक नेहरू शासन की अंतर्कथा लेखक नरहरि विष्णु गाडगिल से साभार )
इस पुस्तक और लेखक के विचारों से अंदाज़ा होता हे की कांग्रेस में भी सरदार साहब की अगुआई में एक अच्छी खासी ” टू नेशन थ्योरी ” मौजूद थी यानि एक तो महात्मा गांधी की दूरदर्शिता की उन्होंने देश को सरदार साहब के हाथो में जाने से वीटो कर दिया ( हलाकि नेहरू उन्हें पुत्र की तरह तो सरदार भी छोटे भाई की तरह बेहद प्रिय थे )दूसरा की उनकी और नेहरू की जोड़ी कैसे पागल कर देने वाले जटिल हालात में भी करोड़ मुसलमानो को उजड़ने से बचाया गंगा जमुनी तहज़ीब को बचाया और एक सेकुलर लोकतान्त्रिक देश की रचना की . सरदार साहब को भारत सौंप दिया जाता तो वो एक सिर्फ एक ”ताकतवर ” देश की नीव डालते जरूर डालते मगर वो ताकतवर देश बाद में पाकिस्तान और सोवियत संघ की तरह टूट कर बिखर जाता . गांधी नेहरू के इस महान कारनामे के बारे में जनता को पूरी पूरी तरह से अभी ज्ञान नहीं हे मगर हमें कराना चाहिए और इंशाल्लाह कराएँगे भी . और आज जो हालात हे उनमे आगे तो गांधी नेहरू और भी अधिक बेहद जरुरी होंगे ही आमीन
Mr. V N Gadgil की पुस्तक का ये अंश ध्यानपूर्वक पढ़ने पर प्रतीत होता है की ये भ्रामक है। लेखक किसी व्यक्तिगत कुंठा का शिकार है।
ये बात भी स्पष्ट है की भारत ने पाकिस्तान को 55 करोड़ दिए ही नहीं, क्या गाडगीळ जी यह नहीं जानते होंगे।
इतिहास के नाम पर कुछ भी लिख कर धोखा दिया जा रहा है। किताब का ये अंश केवल गांधी, नेहरू, पटेल के वैचारिक मतभेद दिखाने के लिए ही लिखा गया है।