by — इंजीनियर शुजाअत अली क़ादरी
भारत सूफ़ी संतों का देश है जहाँ हिन्दू और मुसलमान मिलकर रहते हैं। देखा जाए तो हिन्दू समुदाय के दिल में सूफ़ी फ़क़ीरों के लिए जो अक़ीदत है, वह मुसलमानों के कमतर नहीं। आप अजमेर में ख़्वाजा के दरबार में चले जाइए,आपको लगेगा जैसे हिन्दू मुस्लिम एकता का मेला लगा है। सिख, ईसाई,दलित और बौद्ध भी उसी श्रद्धा से आते हैं और ग़रीब नवाज़ से अपनी फ़रियाद लगाते हैं। यह बात मुझे पिछले दिनों दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम और जयपुर में एक शानदार सूफ़ी सम्मेलन के बाद आयोजनकर्ता तंज़ीम उलामा ए इस्लाम के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना मुफ़्ती अशफ़ाक़ हुसैन क़ादरी ने कहीं।
आपको ऐसी सैकड़ों कहानियाँ मिल जाएंगीं जो अन्तरविश्वास से जुड़ी हों और हिन्दू-मुस्लिम एकता की आज भी सबसे बड़ी वजह है। लेकिन सवाल यह उठता है कि इस्लामी आतंकवाद के लिए ज़िम्मेदार घोर वहाबीकरण कीनियोजित मुहिम के आगे यह एकता कितने दिन टिक पाएगी? इसमें बड़ा ख़तरा वहाबीकरण का है क्योंकि यह जितना रियाद में पाया जाता है कि उतना ही इस्लामाबाद में है, जितना दोहा में है उतना ही क्वालालम्पुर,जकार्ता, वॉशिंगटन और बेशक दिल्ली में है।
भारत में इस्लाम पर सबसे अधिक किताबें लिखी गई हैं। पिछले सौ सालों तक भारतीय सुन्नी सूफ़ी समुदाय ने लाखों किताबों की रचना की जो इस्लाम के उदारपंथ सुन्नत वल जमात या सूफ़ीवाद पर आधारित हैं। भारत में वहाबी नियोजित विचारधारा का पोषण पहले स्वतंत्रता संग्राम के निष्फल होने के बाद शुरू हुआ। वर्तमान तुर्की से सात सौ साल राज कर चुकी उस्मानिया ख़िलाफ़त को अंग्रेज़ जब किसी हाल में नहीं हरा सके तो उन्नीसवीं शताब्दी में वर्तमान सऊदी अरब में उन्होंने अलसऊद परिवार को चयन किया जो उस ज़माने में हाजियों से लूटपाट करने वाले एक डाकू गिरोह की तरह काम करता था। अलसऊद के तत्कालीन डाकू अब्दुल अज़ीज़ से ब्रिटेन ने सम्पर्क कर मदद की पेशकश की लेकिन अब्दुल अज़ीज़ इलाक़े जीत जाने पर भी जनता के विद्रोह की आशंका से परेशान था। इसके लिए ब्रिटेन ने उसे पूर्ववर्ती ब्रिटेनपरस्त लेखक इब्न अब्दुल वहाब की विचारधारा के मदरसे साथ में स्थापित करने का सुझाव दिया। इब्न अब्दुल वहाब के नाम से ही इसकी विचारधारा को ‘वहाबियत’ या ‘Wahabism’ कहा जाता है।अब्दुल अज़ीज़ को इस वैचारिक हथियार की ज़रूरत थी जिससे वह अपने अधीन जनता को यह डराने में कामयाब हो गया कि यदि मुसलमान उदार है तो वह काफ़िर है। उस्मानिया ख़िलाफ़त लगातार ब्रिटिश और फ़्रेंच हमले और दक्षिणी अरब में अलसऊद के नियोजित हमलों से ढह गई। भारत में उदार सुन्नी समुदाय ने इसके विरोध में मौलाना मुहम्मद अली जौहर की अगुवाई में ‘ख़िलाफ़त आन्दोलन’ चलाया जिसे महान् स्वतंत्रता सेनानी महात्मा गांधी ने भी समर्थन दिया था। गांधी समझते थे कि जितने ख़तरनाक अंग्रेज़ हैं उतने ही ख़तरनाक वहाबी भी हैं। आमतौर पर यह ग़लतफ़हमी पाई जाती है कि ख़िलाफ़त का अर्थ विरोध होता है लेकिन इसका सही शाब्दिक अर्थ ‘ख़लीफ़ा का राज’ होता है। पूरे विश्व में वहाबी विचारधारा के विरुद्ध पहला फ़तवा भारत से आया था। भारतीय मुसलमानों ने इस ख़तरे को तभी पहचान लिया था लेकिन अरब के लोग इस ख़ौफ़ में आ गए कि अगर उन्होंने वहाबी विचारकों की बात को नहीं सुना तो वह मुसलमान नहीं रहेंगे। वहाबी की ‘फ़तवा राजनीति’ का सूत्रपात यहीं से शुरू हुआ जिसने आज इस्लाम को बेशुमार बदनामी दिलवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
सन् 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम को दबाने के दौरान अंग्रेज़ों को इस बात का अनुभव हो गया कि भारत पर लम्बे वक़्त तक क़ाबिज़ रहने के लिए उन्हें दो चीज़ों की फ़ौरन आवश्यकता है। पहला हिन्दू-मुस्लिम एकता को तोड़ना और दूसरे मुसलमानों के बीच एक ऐसी विचारधारा को पोषित करना जो ख़ुद अपने समाज के ख़िलाफ़ काम करे। उस्मानिया ख़िलाफ़त के इलाक़ों के बँटवारे के दौरान अंग्रेज़ों ने अरब के पवित्र मक्का और मदीना के इलाक़े ‘हिजाज़’ के साथ नज्द और रबीउल ख़ाली का इलाक़ा मिलाकर इसे अलसऊद परिवार को दे दिया और इसका नामकरण एक डाकू परिवार के नाम पर किया यानी ‘सऊदी अरब’। दरअसल पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब को हिजाज़ नाम ही पसंद था और अलसऊद के सत्ता में आने से पहले तक हिजाज़ पर उस्मानिया ख़िलाफ़त या उससे पहले किसी भी इस्लामी हुकूमत में दुनिया भर के मुसलमानों की सहमति से क़ानून चलता था क्योंकि मक्का को अल्लाह का और मदीना को पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब का शहर माना जाता था। चूँकि हर मुसलमान पर पाँच फ़र्जों में आख़िरी हज भी है जो इस बात की तस्दीक़ करता है कि इस्लाम के इन पवित्र स्थलों के जोड़े यानी‘हिजाज़’ पर समहति का क़ानून चलेगा। लेकिन अपने लुटेरी प्रवृत्ति के अनुरूप अलसऊद ने हिजाज़ को निजी सम्पत्ति बनाकर क़ानूनन हाजियों को लूटना शुरू किया। यह लूट ही तो है कि हर साल हज लगभग 20 फ़ीसदी महंगा हो जाता है जिसे भारत की हज कमेटी भी सही ठहराती है क्योंकि उस पर भी वहाबी क़ब्ज़ा है। इतना ही नहीं आज इन दोनों शहरों में मिलाकर इस परिवार ने लगभग 900 पवित्र स्थलों को ध्वस्त कर दिया है और यह पूरी दुनिया के इस्लामी विरासत के भी गुनहगार हैं।
दरगाह ख्वाजा गरीब नवाज़ अजमेर के गद्दीनशीन और अंजुमन कमेटी के महासचिव मौलाना सय्यद वाहिद हुसैन चिश्ती बताते हैं कि अलसऊद ने पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद के मदीना के मकान, पत्नी ख़दीजा की पत्नी का मकान, उनके साथी हज़रत अबू बक्र का मकान ही नहीं तोड़ा बल्कि बेशुमार क़ब्रों के निशान भी मिटा दिए। हज़रत अली की पत्नी और पैग़म्बर की बेटी हज़रत फ़ातिमा, उनके पुत्र हज़रत हसन और ख़लीफ़ा हज़रत उस्मान की क़ब्रों को सपाट कर दिया है। भारत समेत दुनिया के लगभग हर मुस्लिम बहुल देशों में इस सांस्कृतिक नरसंहार के विरुद्ध बड़े बड़े प्रदर्शन हुए लेकिन अलसऊद ने किसी की परवाह नहीं की।
हाल ही में इराक़ में आईएसआईएस के लिए काम करते हुए कल्याण,महाराष्ट्र के एक लड़के आरिफ़ और अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के लिए एक युवा भटकल के मारे जाने के बाद यह सवाल उठना लाज़िमी है कि जिस भारत ने वहाबियत के विरुद्ध सबसे पहली और बड़ी मुहिम चलाई क्या उसकी ज़मीन में इतना ज़हर फैल चुका है कि वहीं से नौजवान वहाबी जिहादी चक्की में पिसने ख़ुद जा रहे हैं। ख़ुफ़िया एजेंसियों ने ऐसे और 17लड़कों की पहचान की है जो वर्तमान में इराक़ में आईएसआईएस के लिए लड़ रहे हैं। जिस समाज ने अंग्रेज़ों के सत्ता मे रहने के दौरान इतना विशाल वहाबी विरुद्ध मुहिम चलाई वहाँ से वहाबी लड़ाकों का निकलना किसी अचरज से कम नहीं।
मुस्लिम स्टूडेंट्स ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इंडिया यानी एमएसओ के राष्ट्रीय अध्यक्ष सय्यद मुहम्मद क़ादरी ने बताया कि लगभग 20 करोड़ से अधिक भारतीय मुसलमान आबादी का 90 प्रतिशत सुन्नी है और इस 90 प्रतिशत का बमुश्किल 10 फ़ीसदी वहाबी है। यह आंकड़ा तब है जब अंग्रेज़ 1857से प्रायोजित वहाबी कार्यक्रम भारत में शुरू करके गए जिसका नतीजा पहले बंटवारे, दंगों के रूप में देखा गया और आज आईएसआईएस या अलक़ायदा के लिए काम कर रहे लड़कों के रूप में सामने है। दरअसल भारतीय राजनीतिज्ञों और नौकरशाही को इस बात की ख़बर ही नहीं है कि वहाबी तंत्र कैसे काम करता है?
भारत सरकार द्वारा हाल ही में गठित की गई सेंट्रल वक़्फ़ कौंसिल यानी सीडब्लूसी के सदस्य और वक़्फ़ बचाने की अखिल भारतीय मुहिम ‘ईमान’संस्था के संस्थापक अध्यक्ष इंजीनियर मुहम्मद हामिद का मानना है कि कुछ समझ की कमी और कुछ विदेशी रिश्वत ने भारत के इस्लामी जगत को बहुत नुक़सान पहुँचाया है। इसका उदाहरण देते हुए हामिद कहते हैं कि भारत के वक़्फ़ बोर्डों पर लगभग सऊदी अरब परस्त वहाबी नौकरशाही और राजनीतिक नियुक्तियों का क़ब्ज़ा है। सऊदी अरब और उसके भारतीय एजेंट जानते हैं कि एक वक़्फ़ बोर्ड हाथ आने पर उन्हें दो चीज़ें हाथ लगती है।
पहला वक़्फ़ बोर्ड की मस्जिदों की इमामत जहाँ से ज़हर आसानी से फैलाया जा सकता है और दूसरे पुरानी वक़्फ़ मस्जिदों में बैठने से इन इमामों और इनके वहाबी आक़ाओं को वैधानिकता मिल जाती है जिसका फ़ायदा यह राजनीतिक और नौकरशाही रसूख बनाने में उठाते हैं। इंजीनियर हामिद का कहना है कि धर्म प्रचार के नाम पर सऊदी अरब के पैसों पर घूमने वाले एजेंटों को इन्हीं मस्जिदों में पनाह मिलती है जिससे वह अपना धंधा चलाते हैं। वह कहते हैं हज कमेटियों और मुस्लिम कल्याण की योजनाओं पर क़ब्ज़ा करने से वो दोहरा लाभ उठाते हैं। एक सऊदी अरब की कृपा से वहाबी मुहिम चल रही है और दूसरी राजनीतिक पनाह से धंधा को वैधानिकता भी मिल जाती है। रह गई 90 प्रतिशत बहुसंख्यक उदार सुन्नी सूफ़ी और शिया आबादी जिसकी उनको फ़िक्र नहीं।
पूरी दुनिया में आज वहाबी फ़िक्र के लिए समझ का विस्तार हो रहा है। चेचेन्या के राष्ट्रपति रमज़ान कादिरोव इसके पंडित माने जाते हैं मिस्र,कोसोवो, तुर्की, सीरिया, बांग्लादेश, इंडोनेशिया और पाकिस्तान में उदारपंथ वहाबी तंत्र के ख़िलाफ़ खड़ा हो रहा है।ऑल इंडिया तंज़ीम उलामा ए इस्लाम ने इन्हीं मुद्दों पर पिछले साल मानसून में दिल्ली के रामलीला मैदान में महारैली का आयोजन किया था जिसमें लाखों लोग शरीक़ हुए लेकिन सरकार को इन बातों से कोई सरोकार नहीं। जब सरकारी संस्थाओं में वहाबी वक़्फ़, हज और यूनिवर्सिटी के सिलेबस और सिस्टम में बैठे हैं तो वहाबी विचारधारा के संस्थानीकरण के विरुद्ध सार्थक लड़ाई कैसे लड़ी जा सकेगी। तंज़ीम उलामा ए इस्लाम के संस्थापक मुफ़्ती अशफ़ाक़ क़ादरी पूछते हैं‘हमारी उदार सुन्नी सूफ़ियों की अनपढ़ समझी जाने वाली करोड़ों की भारतीय आबादी को इस बात का शऊर है कि वहाबियत कितनी ख़तरनाक है, क्या ये सियासयदाँ और अफ़सर नहीं समझते?’
क़ादरी, मुस्लिम स्टूडेंट्स आर्गेनाईजेशन ऑफ़ इंडिया, के राष्ट्रीय महासचिव हैं.
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इस्लाम की इस तरह की चर्चा में हम इस बात को क्यों रेखांकित नहीं करते कि वहाबी, देवबंदी, सलफ़ी जैसे फिरके कभी भी अपना धार्मिक आधार अब्दुल-बिन-वहाब, या मुहम्मद कासिम ननोत्वी जिन्होंने देवबंद में दारूल-उलूम कि स्थापना कि को नहीं मानते. धार्मिक मान्यताओं के लिए, वो पैगम्बर मुहम्मद को ही केंद्र में रखते हैं.
मुस्लिम समुदाय के दूसरे फिरके. जैसे शिया, बरेलवी, अहमदी आदि जरूर पैगम्बर मुहम्मद के अतिरिक्त अली, हसन, सूफी संतों को भी धार्मिक चरित्र के तौर पे ले लेते हैं, लेकिन वहाबी मत के साथ ऐसा नहीं है. वो तो अपने आप को शुद्ध इस्लाम को मानने वाला मानते है.
ऐसी सूरत में किसी को वहाबी विचारधारा से असहमति है, तो उसे पैगम्बर मुहम्मद पे ही चर्चा करनी चाहिए कि या तो वहाबी धर्म-गुरुओं द्वारा जिन हदीसों का हवाला दिया जा रहा है, वो प्रमाणिक नहीं है, और अगर प्रमाणिक है, उसके बाद भी उसपे अमल से आपको एतराज है, तो क्यों?
कुरान तो १४०० साल से अविवादित है, और उसे सम्पूर्ण रूप में स्वीकारना ही इस्लाम कि शर्त है, तो जिन मान्यतों के पीछे वहाबी लोग, कुरान का हवाला दे रहे हैं, और आपको उनपे एतराज है, तो दोनों में से एक ही सही है. या तो कहो, उन्हें कुरान में आस्था है, और जो लिखा गया है, वो सही है, या कुरआन में उन्हें आस्था नहीं.
तफसिरो कि आड़ लेकर, इधर-उधर कि बात करके लोगो को क्यों गुमराह करना?
मुझे नहीं लगता की की ये बरेलवी उलेमा , वहाबियत से कोई लड़ पाएंगे मुझे नहीं लगता हे क्योकि ये सभी इस्लाम या इंसानियत के लिए नहीं बल्कि अपने अपने वर्चस्व और दबदबे के लिए अधिक सोच विचार में रहते हे इनकी लड़ाई आतंकवाद या कटटरता के खिलाफ नहीं बल्कि अपनी अपनी टेरिटरी की हिफाज़त और अपने अपने किलों की सिक्योरिटी के लिए हे भारतीय उपमहाद्वीप में तो वहाबियत के पेरोकार और कारकुन जहां अरब देशो से पैसा खींचते हे वही शिया , ईरान से और बरेलवी लोकल और गेर मुस्लिमो से पैसा खींचते हे ये सब इसी की लड़ाई हमारी नज़र में तो हे अफ़सोस भारत और दुनिया और मुस्लिम दुनिया में में भी कोई भी कैसी भी ताकत सेकुलर मुस्लिमो की पेरोकार नहीं हे इसलिए हम जैसा ये वर्ग इतना दीन हीन हे . हिंदी नेट पर ही देखे तो आज इस कदर मुस्लिम विचारक और लिखने वाले अब हे ही , मगर वो शुद्ध सेकुलर मुस्लिम वर्ग की ” सदस्य्ता ” लेने से दूर ही रहते हे उन्हें अंदाज़ा हे की ये कितना सरदर्दी का काम हे
वहाबियत से लड़ना फिर क्या हुआ? वहाबी या सलाफी अपनी मान्यताओं के लिए, क़ुरान और सुन्नत को आधार बनाते हैं. आपका भी मानना है कि क़ुरान और सुन्नत पे हमला नही किया जाए, क्यूंकी ये जड़ है. फिर तो तफसीरो की ही आड़ ही ली जाएगी ना. क्यूंकी क़ुरान का दूसरा एडीशन तो है नही, जिसका हवाला दिया जा सके?
फिर आपका भी मानना है कि रिलीज़न के बिना भी मूल्यो मे आस्था, सिर्फ़ ख़ास लोगो के ही बस की बात है. आम आदमी को तो रिलीज़न चाहिए ही.
फिरका है क्या? इस्लाम तो दुनिया के सामने, पूरे पेकेज मे ही आया, जिसको इस पेकेज की अनेको बाते दिल को छू गयी, लेकिन कुछ बाते गले नही उतरी, उसने तफसीरो की आड़ लेके अपने मन मुताबिक व्याख्या कर ली. किसी ने जान-बुझ के कर ली, किसी ने किसी के देखे सुने कर ली. किसी ने नेक-नीयत से किसी ने अपना उल्लू सीधा करने के लिए.
जिसे हम वहाबी कहते हैं, उससे जुड़ा हर व्यक्ति भी अपना उल्लू सीधा कर रहा हो, ज़रूरी नही. कइयों की वाकई मे आस्था होती है. और अगर आस्था का प्रश्न आ गया, तो कैसे समस्या का समाधान ढूँढे. अगर प्रश्नो को ही जड़ पे हमला मान लिया जाए.
साहिर लुधियानवी का एक शेर याद आ रहा है.
“उन्हे पता भी चले, और वो खफा भी ना हो,
इस एहतियात से क्या मज़ा की बात करे”
हल निकालना है, चर्चा के दायरे सीमित है. कुछ पत्थर की लकीरे हैं. इन्हे मिटाना भी नही है, इंपे चलना भी नही है. बाते घुमा फिरा के करनी है.
हो सकता है, अल्लाह कोई ऐसा रास्ता सूझा दे कि साँप भी मर जाए, और लाठी भी ना टूटे.
इस बात पे भी गौर करिएगा कि इस्लामी कट्टरपंथ या दकियानूसी विचारो के लिए, जितने भी बुद्धिजीवी और लेखक आए, वो सब शिया, बरेलवी, सूफ़ी वग़ैरह ही आए. देवबंदी नगण्य है, और जो आप जैसे हैं, उन्हे तो कई देवबंदी तक मुसलमान मानने को तैयार नही.
इसी फोरम पे उम्मत की बड़ी बड़ी बाते करने वाले लोगो को ही देख लो.
में ऊपर लेखकों की नहीं उलेमाओं की बात कर रहा था मेरा कहना ये थे की इन नेता टाइप मुल्लाओ और मुल्ला टाइप नेताओं से कुछ भला न हो सकेगा असाम में ही देखे जैसे ही एक मुल्ला टाइप नेता मुस्लिम वोटो के बेताज बादशाह बने नतीजा भाजपा संघ की सरकार के रूप में ही सामने आया हे ये उन मुर्ख मुस्लिम फेसबुकियो के मुंह पर तमाचा हे जो सुबह से शाम तक मुस्लिम पार्टी बनाओ का राग अलापते हे और ये मुद्दा की ” इस्लामी कट्टरपंथ या दकियानूसी विचारो के लिए, जितने भी बुद्धिजीवी और लेखक आए, वो सब शिया, बरेलवी, सूफ़ी वग़ैरह ही आए. ” ये मेने अपनों जेसो की दुदर्शा सामने लाने को ही बताया था की भाई ये लोग जब सुन्नी या वहाबी कटटरता के खिलाफ लिखेंगे तो कोई तो होगा ही जो इनके समर्थन में होगा या आएगा इनके अपने अक़ीदे के ही छोटे या बड़े लोग , हे ना ? जबकि हम तो हर तरफ से तन्हा और लाचार हे —– जारी
इस्लाम की जड़ो को पूरा सम्मान देते हुए, कट्टरपंथ से लड़ने के लिए एकजुट होना शुरू करोगे, तो अपने आप फिरका बन जाएगा. या तो तन्हा रहो, या फिरको बनो. या जड़-फड़ की चिंता ना करो.
सीधी सी बात है, वहाबी, सलाफी लोगो ने क़ुरान और सुन्नत सामने रख दी है, अपनी दलाईल मे. इन्होने केस की सुनवाई से पहले ही, इन्हे त्रुटि-रहित घोषित कर दिया. अब हम भी इनके ही नियमो के अंतर्गत खेल खेलना चाह रहे हैं. हारी हुई बाजी को खेल रहे हैं, हारा हुआ केस लड़ रहे हैं. तन्हा इसलिए लड़ना पड़ेगा, क्यूंकी हमे मजबूरियो मे रास्ते तलाशने है. हमारे पास विकल्प बहुत सीमित है.
जिस दिन अकेले नही रहे, उस दिन फिरका हो जाओगे. ये सारे फिरके ऐसे ही बने है. कहीं पे निगाहे, कहीं पे निशाना वाली बात है.
अरे फिरका विरका छोड़ो जाकिर भाई यहाँ तो अपने विचारों और प्रचार के साथ सबसे पहले तो जीने के ही वांदे हे समस्याओं जिम्मेदारियों चिंताओं के इतने अम्बार हे की जीना लिखना या कुछ और करना भी हराम ही हे फिरका विरका तो बहुत दूर की बात हे पहले जिन्दा और एक्टिव तो रहे बाकी बाद की बात हे और ये तो सच ही हे की भारत की ही नहीं दुनिया भर की शोषणकारी ताकते अंदर ही अंदर मुस्लिम कटट्रपन्तियो को पसंद करती हे और शुद्ध सेकुलर मुस्लिम्स के साथ कोई भी ” ताकत ” नहीं हे इसलिए नहीं हे की किसी के हित हे किसी को समझ नहीं हे कोई डरपोक हे कोई अलगरज हे ——– जारी
फ़र्ज़ करो, मज़हब संगीत को अनैतिक ठहरा दे, नाच-गाने को हराम ठहरा दे. चित्रकारी को ग़लत ठहरा दें.
लेकिन आपको संगीत सुनके सुकून मिलता हो, थिरकने के बाद आप, तनाव मुक्त महसूस करते हो. कला-विहीन समाज को विकृत्ति पैदा करने मे सहायक मानते हो, तो आपके पास दो विकल्प हैं.
1. मज़हब पे ही बंदूक तान दो, ना रहेगा बाँस, ना बजेगी बाँसुरी.
नुकसान यह है कि मज़हब के प्रति आस्था रखने वाले लोगो को ठेस पहुँचेगी. हो सकता है, सीधे हमले से लोग इतने असुरक्षित महसूस करें कि लोग प्रतिक्रियावादी हो जाए, और कट्टरपंथी लोगो की तरफ झुक जाए. हिंसक प्रतिक्रिया मे जान भी जा सकती है.
समझदार व्यक्ति हुआ तो सीधी स्पष्ट चर्चा, सार्थक बहस को भी जन्म दे सकती है.
2. आप संगीत का महिमा-मॅंडन करो. जिस मज़हब की व्याख्या, इसे अनैतिक बताए, उसीके गुणगान वाले गाने, कव्वलियान, नाते गाओ. मज़हबी लोगो को ही थिरकने पे मजबूर कर दो. संगीत दिल को सुकून देता है, इसका अहसास आम जनता को करा दो. कला को सामाजिक स्वीकृति दिला दो.
उसके बाद, जब कोई धर्म-गुरु, संगीत को हराम ठहराए तो, समाज के भीतर से उसके खिलाफ आवाज़ उठे.
मज़हब के भीतर, अंतर्विरोधो की गुंजाइश होनी चाहिए. सेक़ूलेरिज़्म, दुनिया मे तभी आया है, जब मज़हबी अंतर्विरोधो ने भयानक शक्ल ले ली, और लोग लड़ते लड़ते तक गये.
मैं तो फिरकेवाद मे ही कोई समाधान की उम्मीद देख रहा हूँ. कभी तो थकेंगे, ये लोग.
सूफ़ीज़्म क्या था, सिकंदर भाई. आज ये वहाबियत के आगे अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा है. लेकिन इसकी शुरुआत भी उसी निर्मम राजनैतिक आंदोलन को कमजोर करने के लिए ही हुई थी, जैसी आज वहाबी या सलाफी कर रहे हैं.
मैं दूसरे देशो को ज़रूर इस्लामी कट्टरपंथ को बढ़ावा देने का दोषी मानता हूँ, जैसे अमेरिका ने रूस के खिलाफ, इनको इस्तेमाल किया. लेकिन आज के दौर मे ये डरे हुए हैं. इस इस्लामी चरमपंथ का शिकार, हर देश हुआ है. अब इन्हे कोई हल्के मे नही ले रहा.
हालाँकि, अपने खराब अनुभव के बाद भी सलाफी व्याख्या से प्रेरित isis को पश्चिमी देशो ने सिर्फ़ अपने आर्थिक हित साधने के लिए सऊदी अरब, कतर आदि देशो के ज़रिए मदद पहुँचाई, लेकिन बाद मे पीछे भी हटे.
मुझे लगता है, आज ये तमाम देश ये चाहते हैं कि मुस्लिम समुदाय मे ये आग फैले, और आग मे जलते हुए, ये अपने भीतर से ही इस्पे पानी डाले, क्यूंकी इस आग का कारण, इनके भीतर ही है.
अफ़ग़ानिस्तान, फ़िलिस्तीन मे बाहर से लड़ते लड़ते ये तक गये हैं. ये पश्चिमी देश भी इसी धार्मिक अंतर्विरोधो के चक्कर मे बहुत खून बहा चुके हैं. उसके बाद इन्हे अकल आई, और सेक़ूलेरिज़्म की तरफ झुके.
इनका मानना है कि इनकी इस आग को बाहर से पानी मत डालो, बल्कि इसे हवा दो. पानी हमारे घर मे है, लेकिन हम डालना नही चाहते.
हम इस दुविधा मे है कि घर मे चिंगारी तो रहे, लेकिन आग ना लगे.
चिंगारी को बढ़िया बोलो, लेकिन हवा देने वाले को गलियाओ.
जाकिर भाई जहां तक उपमहाद्वीप का सवाल हे हम पूछते हे की जमीन पर दिखाओ की क्या रिजल्ट हे यही तो तब्लीगियो के साथ बहस में हमने कहा था तब्लीगी विचार सूफी विचार हिन्दू विचार इस्लामी विचार चाहे जितने महान हो हमें कोई एतराज़ नहीं हे हम जमीनी हाल की चर्चा कर रहे होते हे सुफीजम चाहे जितना महान हो हमने उपमहाद्वीप में इसका रिज़ल्ट केवल ” चढ़ावे ”के रूप में देखा हे http://khabarkikhabar.com/archives/2546इसी तरह शिया मत में भी कटटरता कुछ कम नहीं हे ( वो बात अलग हे की इनकी लॉग डांट सिर्फ सुन्नियो से हे बाकी दुनिया से इन्हे कोई खास लेना देना नहीं हे इसलिए हम तो एक शुद्ध सेकुलर मुस्लिम वर्ग बनाना चाहते हे हे जो ना तो मज़हब विरोधी ही हो ना वो कटटरता को एक इंच भी बर्दाश्त करे हम उपमहाद्वीप और दुनिया में एक तिहाई मुस्लिम्स भी इस वर्ग में लाने में कामयाब हो गए तो बात बन सकती हे http://khabarkikhabar.com/archives/1145( हालांकि ये आखिरी सांस तक खिचने वाला काम होगा सुहेल वहीद साहब खुद इस सरदर्दी में हमारी जानकारी में तो नहीं पड़े हे ? ) ——- जारी
जाकिर भाई जहां तक उपमहाद्वीप का सवाल हे हम पूछते हे की जमीन पर दिखाओ की क्या रिजल्ट हे यही तो तब्लीगियो के साथ बहस में हमने कहा था तब्लीगी विचार सूफी विचार हिन्दू विचार इस्लामी विचार चाहे जितने महान हो हमें कोई एतराज़ नहीं हे हम जमीनी हाल की चर्चा कर रहे होते हे सुफीजम चाहे जितना महान हो हमने उपमहाद्वीप में इसका रिज़ल्ट केवल ” चढ़ावे ”के रूप में देखा हे इसी तरह शिया मत में भी कटटरता कुछ कम नहीं हे ( वो बात अलग हे की इनकी लॉग डांट सिर्फ सुन्नियो से हे बाकी दुनिया से इन्हे कोई खास लेना देना नहीं हे इसलिए हम तो एक शुद्ध सेकुलर मुस्लिम वर्ग बनाना चाहते हे हे जो ना तो मज़हब विरोधी ही हो ना वो कटटरता को एक इंच भी बर्दाश्त करे हम उपमहाद्वीप और दुनिया में एक तिहाई मुस्लिम्स भी इस वर्ग में लाने में कामयाब हो गए तो बात बन सकती हे हालांकि ये आखिरी सांस तक खिचने वाला काम होगा जान भी जाने के इसमें बहुत ज़्यादा चांस रहेंगे शुद्ध सेकुलर मुस्लिम वर्ग इस कदर निहित स्वार्थी लोगो के हितों पर चोट करेगा की वो लोग कुछ भी करेंगे ही इसी का हल्का सा स्वाद मुझे तब मिला जब एक उर्दू अखबार में मेरे बारे में झूठी प्योर झूठी अफवाह फैलाई गयी
सिकंदर भाई, आप ना तो किसी मज़हब का समर्थन करते हैं, ना विरोध. हाँ व्यक्तिगत रूप से आप इस्लाम मे आस्था रखते हैं, उसमे भी देवबंदी अकिदे मे. आप तमाम तरह के कट्टरपंथ के खिलाफ हैं, इस्लामी कट्टरपंथ के भी. तो ऐसी सूरत मे, सेकुलर मुस्लिमो की एकता की बात थोड़ी अटपटी है, जब आप मज़हब के सार्वजनिक प्रदर्शन के प्रति निष्क्रिय है, तो सेकुलर मुस्लिमो की एकता या साथ का कोई अर्थ नही. मुस्लिम पहचान के साथ, कोई भी सार्वजनिक प्रयास की कोशिश तो फिर एक नया फिरका ही होगी. भले ही आप इस फिरके को सामाजिक सौहार्द के उद्देश्य से जोड़ें. जैसे कि अहमदी फिरका, जिसने भले ही गुलाम मिर्ज़ा के नाम का सहारा लिया, लेकिन उसकी टेग लाइन ” सबसे प्यार, किसी से नफ़रत नही” ही रही. वो मुहम्मद साहब को भी रसूल मानते हैं, क़ुरान को भी इज़्ज़त देते हैं, दूसरे धर्मो औ नास्तीको तक से सौहार्द की वकालत करते हैं.
अब अगर, मज़हब के प्रति न्यूट्रल रहते हुए, सामाजिक योगदान या सुधार की बात है, तो उसमे गैर मज़हबी राजनैतिक दल, संगठन, एनजीओ है, जो सेकुलर प्रकृति के भी हैं, और उसमे मुस्लिम भी जुड़े हैं.
अब ये संख्या, आज के दौर मे एक तिहाई या चौथाई तक तो नही है, लेकिन तन्हा होने की बात नही. और अगर, बिंदुवार, समर्थन या आलोचना की बात है, तो फिर राजनैतिक रूप से तो हर व्यक्ति को अलग-थलग होना पड़ेगा.
बाकी राशिद अल्वी, मुहम्मद सलीम, मीम् अफ़ज़ल जैसे राजनेता, मुझे सिर्फ़ मुस्लिम प्रतिनिधि नही लगे.
सोशल मीडिया की बात करें तो. जैसे ताबिश सिद्दीकी है, या हिलाल अहमद है, मुबारक अली जैसे युवा हैं, वो भले ही संख्या मे कम है, दूसरे फिरके के भी शायद हो, लेकिन कट्टरपंथ के खिलाफ, अपने फिरके की वकालत नही करते, और तमाम समुदायो से संवाद स्थापित करने की कोशिश करते हैं. फेसबुक मे ऐसे लोगो को फॉलो करने वालो की संख्या भी हज़ारो मे है. संख्या बहुत कम है, लेकिन अपनी उपस्थिति दर्शाने मे कामयाब हो रहे हैं. इनको पोस्ट्स के लाइक़ और शेयर देख के इसका भी आभास होता है कि इनसे सहमति जताने वाले मुस्लिमो की संख्य भि रही है. बहस करने वाले असहमत लोगो को भी मैं सकारात्मक परिवर्तन मानता हूँ. एक समय ऐसा भी रहा है, जब कट्टरपंथ पे चर्चा करते समय, मज़हब का नाम भी लेना, निषेध था.
विचारो पे लगी बेड़ियाँ, कुछ हद तक तो टूटी ही है. हालाँकि मज़हब की जड़ को चुनौती देने वाले विचार या लेखको का मैं समर्थन नही करता, लेकिन उन विचारो की प्रतिक्रिया मे संयम को ही मैं कट्टरपंथ की हार का पैमाना मानता हूँ. और इस रास्ते पे हम बढ़े हैं. कट्टरपंथ की मात, मज़हब की समाप्ति नही, लेकिन मज़हब को चुनौती देने वालो की स्वीकार्यता है.
”सिकंदर भाई, आप ना तो किसी मज़हब का समर्थन करते हैं, ना विरोध. हाँ व्यक्तिगत रूप से आप इस्लाम मे आस्था रखते हैं, उसमे भी देवबंदी अकिदे मे. आप तमाम तरह के कट्टरपंथ के खिलाफ हैं, इस्लामी कट्टरपंथ के भी. तो ऐसी सूरत मे, सेकुलर मुस्लिमो की एकता की बात थोड़ी अटपटी है,” भाई मेन बात ये हे की मेरे खुद के लिए आस्था कोई मुद्दा नहीं हे में खुद शुद्ध तर्क की दुनिया में भी आराम से रह सकता हु और रह भी रहा हु आस्था के जो मेने बचाव किये वो आम आदमी की सोच की तरफ से थे इसी तरह मेरे आस पास शुद्ध आस्था का माहौल हो तो भी मुझे कोई एतराज़ नहीं हे जहां तक मेरा सवाल हे में खुद जब चाहे शुद्ध तर्क या शुद्ध आस्था की दुनिया में भी जा सकता हु ये मेरा हाल हे जो बहुत लम्बे और गहरे स्ट्रगल से बना हे फिलहाल में बरसो से तर्क की दुनिया में ही हु और बरसो तक रहने भी वाला हु इससे भी बहुत से मेरे अपनों को सख्त एतराज़ होता हे मगर में उन्हें समझाता हु में उनकी आस्था को ख़ारिज नहीं करता बल्कि बताता हु की आज के कटटरपंथ से लड़ने को मुझे तर्क की दुनिया में ही रहना पड़ेगा वो कहते हे इसलिए तुम्हारी लाइफ में इतनी टेंशन हे तुम्हारी लाइफ खराब हे तुम्हे इतनी समस्याओं का सामना करना पड़ता रहता हे में कहता हु ठीक हे यही सही , में सरेंडर नहीं करूँगा चाहे जो हो ? अब अगर फ़र्ज़ कीजिये आप या कोई शुद्ध नास्तिक हे तो में आपको आस्तिकता पर लाने के लिए कोई बहस नहीं करूँगा ना ही नास्तिकता के आधार पर आपको या किस आस्तिक को ही सीधे महान मान लूंगा इंसान का आचरण बड़ा जटिल विषय हे खेर जहां तक देवबंदी की बात तो ये देवबंद मदरसे की या मौलाना मदनी की बात नहीं थी सिर्फ ये था की हम लोग कही चढ़ावे या पीरी मुरीद या कोई मज़हबी जुलुस में नहीं पड़ते हे बस बात खत्म .
हम जिस शुद्ध सेकुलर मुस्लिम वर्ग की बात कर रहे थे वो क्या होगा कैसा होगा वो बहुत बाद की बात हे फिलहाल उसका कही बीज तो गिरे फ़िलहाल तो वो भी नहीं हे क्योकि इस वर्ग को किसी का समर्थन नहीं हे जिन लेखकों और उनके लाइक की बात आपने बताई हे तो जो मुस्लिम उनका समर्थन एक लाइक बटन या एक एक लाइन का कमेंट डाल कर करते भी हे वो भी कोई भी विचार या कोई अनुभव नहीं रख पाते हे कोई बहस नहीं होती हे उनकी छोड़ो मेरा कज़िन तो अलीगढ़ का इंजीनियरिंग टॉपर हे महा विद्वान हे तीन तीन भाषा औ की खूब किताबें पढता हे और वो खुद ज़रा भी कटटरपंथी भी नहीं हे मेने उसका पेज देखा तो क्या मजाल की कोई मामूली सा भी विचार दिखा हो ? ( कारण यही हे की कोई शुद्ध सेकुलर मुस्लिम वर्ग, विचार ही नहीं हे जिन्होंने रखा भी वो सारे शिया या बरेलवी ही थे जबकि बहुमत देवबंदियों का ही हे ) इसलिए नहीं हे की कोई समर्थन ही नहीं हे शुद्ध सेकुलर मुस्लिम वर्ग बनाने अभी बहुत लम्बा और थका देने वाला संघर्ष करना पड़ेगा ——— जारी
मैने नास्तिकता की वकालत नही करी. मेरा सिर्फ़ यही कहना था कि धर्म के प्रति ना प्रचार ना विरोध की पॉलिसी मे आपको सेकुलर तबके से ही जुड़ना होगा, जिसमे सभी पृष्ठभूमि से आ सकता है. “सेकुलर मुस्लिम” का ही वर्ग तैयार करने या देखने की मंशा, फिर अंतर्विरोध की है.
जैसे हमारा फिल्मी जगत है. टीवी पत्रकारिता मे भी कमाल ख़ान, नगमा सहर, मारूफ़ रजा, कमर आगा जैसे लोग हैं. इनमे से हो सकता है, ज़्यादातर शिया, बरेलवी या किसी अन्य गैर देवबंदी फिरके से निकले हो, लेकिन वो अपने फिरके का पक्ष लेने की बजाय, सेकुलर स्टैंड पे रहते हैं.
सेकुलर, प्रगतिशील नाम के मुस्लिमो के कई संगठन बने हैं, और वो सब नगण्य है, और स्वाभाविक रूप से होंगे, जब सेकुलर हैं, तो फिर मुस्लिम नाम से ही क्यूँ जमात बनाना? इस बात से मैं सहमत हूँ कि आबादी के हिसाब से ऐसे लोगो की संख्या कम है, लेकिन इन लोगो को अलग से एकजुट होने की बजाय, सेकुलर समूहो मे रहकर ही कोशिशे करनी चाहिए.
एकजुट हो चाहे ना हो जो भी हे वो अलग बहस हे पहले ”हो ” तो सही अगर होते तो बताइए की आज हम ये हालात होते देखतेकी चार चार साल की बच्चियों को हिज़ाब करवाया जा रहा हे जाहिर हे की कोई कहने सुनने वाला नहीं हे इन्ही कहने सुनने वाले हमने बढ़ाने हे बाकी बाते बाद की होगी आपने सही लिखा की ” और यही तो वजह है कि जिन फोरम पे सैकड़ो या कुछ हज़ार लोग नज़र दोडाते हैं, हम उनपे घंटो लिखते हैं. ” सही कहा आजकल हिंदी प्रिंट का तो बुरी तरह से पतन हे अंग्रेजी वर्ग को इन मुद्दों में कोई दिलचस्पी ही नहीं हे न उन्हें इसका कोई खास अनुभव हे ना कोई जानकारी हे यु समझे की वो न सेकुलर हे ना कम्युनल हिंदी साइटों पर भी पिछले सालो में पाठक काफी कम हो गए हे इसकी जगह फेसबुक टिवीटर पर काफी अधिक पाठक हे मगर में हिंदी साइटों पर ही टिके रहना सही समझता हु कारण ये हे की फेसबुक आदि काफी समय बर्बाद कर देते हे इसलिए इस पर प्रोपेगंडेबाज़ बहुत हे या वो लोग जिनका रियल लाइफ में सोशल सर्कल या प्रियजन दोस्त आदि कम हे तो वो उसकी कमी यहाँ पूरी करते रहते हे जो भी हे मगर इस पर काफी समय बर्बाद होता हे आप बेमतलब में क्लिक करते ही जाते हे इस सागर में मोती भी हे लेकिन वही बात की आप चाहे जितना बचे भी फिर भी वहां बहुत समय निकल जाता हे फेसबुक टिवीटर के कारण ही आजकल गहराई वाला लेखन बेहद कम हो गया हे रविश कुमार ने जब से फेसबुक टिवीटर छोड़ा तब से उनका लेखन और उसमे गहराई बहुत ज़्यादा बढ़ गयी हे मेरा मानना की आने वाले समय में लोग इस सबसे ऊब जाएंगे लोगो को सूचनाओं या विचारों के विस्फोट की नहीं सही सूचनाओं की अधिक जरुरत होती हे ——जारी
आपकी चिंता जायज़ है, और यही तो वजह है कि जिन फोरम पे सैकड़ो या कुछ हज़ार लोग नज़र दोडाते हैं, हम उनपे घंटो लिखते हैं. और आपकी नियमितता और प्रतिबद्धता क़ाबिले तारीफ़ है.
अफ़ज़ल भाई, भले ही कम लेख लिखते हो, या प्रतिक्रिया देते हो, अपनी जेब से पैसे खर्च करके ये साइट चलाते हैं.
एक बात पे गौर करिएगा कि क्या हर प्रगतिशील व्यक्ति, कट्टरपंथ के लिए आप और मेरे जैसा ही सक्रिय हो, इस बात के नुकसान भी है. मैने आई आई टी से पढ़ाई की, और वहीं से बचपन मे डाले गये कुछ दकियानूसी मान्यताओ पे सवाल उठने शुरू हुए, अंतरराष्ट्रीय राजनीति, इतिहास आदि को पढ़ते समझते, मैंने कट्टरपंथ को समझने मे दिलचस्पी लेने लगा.
लेकिन उसका एक नुकसान भी हुआ, कि मैं मेरे प्यार यानि मेरी पढ़ाई, पेशे के साथ न्याय नही कर पा रहा. दुनिया की हर चीज़ ज़रूरी है. इसकी वजह से मैं भी चिंता मे रहता हूँ.
मान लो, अब्दुस सलाम, इसी कट्टरपंथ से परेशन होकर, रिसर्च पे ध्यान नही देते तो क्या पूरी दुनिया का नाम, अपने फिरके का नाम रोशन कर पाते, जबकि उस समय भी अहमदियों के खिलाफ, पाकिस्तान मे जहर उगला जा रहा था.
शाहरुख ख़ान, आमिर ख़ान जो भारत के सुपर स्टार है, क्या इनका दिल इन इस्लामी कट्टरपंथियो को देख कर नही रोता, लेकिन आज ये लोड लेके, इनके खिलाफ बोलने लग जाएँगे तो अपने पेशे से क्या न्याय कर पाएँगे.
अपने पेशे को ईमानदारी और लगन से करना भी कट्टरपंथ के खिलाफ, दीर्घकालीन लड़ाई का हिस्सा है. दुनिया को अगर तर्क की दुनिया मे लाना है, तो हर क्षेत्र मे मनुष्य को विकास की नई ऊँचाई को छूना होगा.
मैं आई आई टी मे नही पढ़ता, तो शायद इतना तार्किक भी नही होता, फिर बचपन के उस माहौल मे आप जैसे बीसियो उदारवादी भी आ जाते तो कान पे जू तक नही रेंगती.
लोगो ने लाईक करके, अपने काम-धंधो मे लग गये, ये भी उस स्थिति से बुरी नही है, जहाँ बात मज़हब की आते ही गाली-गलौच होने लग जाती थी.
हिंदू-समाज मे सती-प्रथा, अस्पृश्यता को मिटाने मे हज़ारो साल लग गये. इस्लाम तो महज 1400 साल पुराना है, तर्क के साथ सामंजस्य बिठाने मे कई दसिया और लगेगी.
ऐसा लगता है, आपने अपने जीवन का उद्देश्य कट्टरपंथ से लड़ने को ही बना लिया है, बहुत नेक इरादे हैं आपके.
हम तो शायद उतना नही झेल रहे, जितना मुस्लिम मुमालिक झेल रहे हैं. ये आग भी वहीं से लगी थी. ख़त्म भी वहीं से होगी.
भरोसा रखो, जिस राह को आप सही मान रहे हैं, उसी राह पे लोग आएँगे. नफ़रत और खून ख़राबे के उरूज़ पे जाके ही लोगो को प्रेम और अहिंसा का मर्म समझ आएगा.
जैसे गाँधी ने जापान पे परमाणु बम के हमले के बाद कहा था “मेरा अहिंसा मे विश्वास और दृढ़ हो गया है”. आज के जापान और 70 वर्ष पहले के जापान मे अंतर देख लो.
”ऐसा लगता है, आपने अपने जीवन का उद्देश्य कट्टरपंथ से लड़ने को ही बना लिया है, बहुत नेक इरादे हैं आपके.”बिलकुल असल में खुद बहुत कुछ झेला और देखा हे देखा हे का मतलब खून खराबा बम की बात नहीं होती हे जीवन में समस्याओं के और बहुत रूप होते हे
आपकी बाते जायज़ हे मगर मेरे कुछ मुद्दे और हे मेन बात ये हे की ये काम इतना कठिन हे ( रश्दी तस्लीमा बनने से भी बहुत कठिन ) की कोई इस सरदर्दी में कोई खास नहीं पड़ना चाहता हे आपने जिन लोगो के नाम लिए कमाल ख़ान, नगमा सहर, मारूफ़ रजा, कमर आगा उन्होंने स्टेण्ड भले ही लिया हो मगर ऐसा क्या किया जिसे शुद्ध सेकुलर मुस्लिम वर्ग बढे जावेद अख्तर को ही ले जो हाल ही में संघियो की तरह भारत माता की जय के नारे लगा रहे थे इन्होने सेकुलरिस्म की मलाई तो काटी गेर मुस्लिमो के बीच उदारवादी बन कर वाह वाही लूटी मगर किया क्या भारत के मुसलमानो पर सबसे अधिक प्रभाव अलिगेडियन्स का हे ये भी अलीगढ़ से पढ़े क्या कभी अलीगढ़ के चक्कर लगा लगा कर वहां कोई प्रचार कोई डिबेट इन्होने शुरू की नहीं ना———- ? असल में इन लोगो की इसी कायरता और आलस के कारण आज हम लोग इतने अकेले हे और पहली शुद्ध संघी सरकार से झुझ रहे हे — जारि
जावेद अख्तर जैसे लोगो पर तो बहुत ही क्रोध आता हे एकतरफ ये शुद्ध सेकुलर बड़े ही सभ्य सुसंस्कृत मुस्लिम बने रहते हे इस तरह के सुसंस्कृत मुस्लिमो को दुनिया बहुत पसंद करती हे तो वो लाभ लेते हे दूसरी तरफ हराम हे जो कटरपन्तियो से कोई मामूली जंग भी की हो उस सरदर्दी से दूर रहते हे बुद्धिजीवियों के बीच खुद को नास्तिक दर्शाते हे क्योकि वह वो भी फैशन हे दूसरी तरफ जब कांग्रेस राजयसभा भेजती हे तो भी चु नहीं करते की भाई मुझे मुस्लिम होने के नाते तो नहीं भेज रहे हो ? में अपने जावेद साहब के जैसे कज़िन को भी यही कहता हु की तुम कायर और आरामतलब हो वो भी यही करता हे की गेर मुस्लिमो के बीच अपनी बड़ी अच्छी सेकुलर प्रोग्रेसिव छवि पेश करते हे दूसरी तरफ मुस्लिम महफ़िलो में या समाज में या नेट पर ही कही भी कटट्रपन्तियो के खिलाफ भी चु भी नहीं करते हे इन लोगो की इसी कायरता से हम लोगो का काम इस कदर कठिन हुआ हे ——————– जारी
मैं तो आपके ईमान (चारित्रिक दृढ़ता) और कट्टरपंथ से लड़ने के जज़्बे का कायल हो गया.
मैं इस फोरम से कुछ दिन दूर रह कर, अपनी नौकरी मे लगा और पढ़ा तो बहुत सुकून मिला.
कट्टरपंथ से लड़ने मे बहुत बोरियत और सरदर्द है. कारण एक तो कट्टरपंथियो की दुनिया, कम आई-क्यू के लोगो की दुनिया है, उनके बहस करने के लिए, उनके स्तर पे उतरना पड़ता है.
किसी ने कहा है कि बेवकूफो से ज़्यादा बहस नही करनी चाहिए, क्यूंकी वो पहले आपको अपने स्तर पे लाते हैं, और फिर उस स्तर पे उनका तर्जुबा आपसे ज़्यादा होता है.
आपके पढ़े लिखे कजन या जावेद अख़्तर या शाहरुख, आमिर जैसे लोगो का कोई दोष नही, उनपे गुस्सा करने से भी कुछ नही होगा. वो इस कट्टरपंथ के खिलाफ लड़ने लगे, तो इसमे ही उलझ जाएँगे.
दुनिया मे कट्टरपंथ से लड़ना है, लेकिन इसके लिए काम-धंधे नही छोड़े जा सकते.
जाकिर भाई में सोशल मिडिया पर नहीं हु मगर पिछलो दिनों इसका टूर किया तो पाया की एक भी आदमी ऐसा नहीं हे जो आप जैसे वैचारिक कमेंट या पोस्ट लिख सके दूर दूर तक भी नहीं इस साइट की एक बड़ी उपलब्धि आप जैसे विद्वान का मिल जाना भी हे आप सबसे पहले अपने काम में बड़े से बड़ा नाम बनाय कोई शक नहीं की प्रोफेशनल लाइफ में भी आप जेसो की कामयाबी बहुत भला ही करने वाली हे और जाकिर भाई ये न समझे की हम कटटरपंथ से लड़ाई में ही उलझे रहते हे और जिंदगी नहीं जीते ऐसा कुछ नहीं हे हमारी जिंदगी में भी सब कुछ हे मनोरंजन खेल कला सनस्कर्ति हास्यरस ये रस तो बहुत ही ज़्यादा हे मुझे खुद भी हसना और लोगो को भी हसाना बहुत पसंद हे मेरे बीस पचीस हास्य व्यंगय प्रिंट में भी पब्लिश हो चुके हे आगे इस फिल्ड में भी काम का इरादा हे बस शादी बच्चों से में बचना चाहूंगा में किसी और की जिंदगी अपने साथ दांव पर नहीं लगा सकता हां मगर प्रेम और आकर्षण में में हमेशा रहता हु मेरा मानना हे की प्यार , आकर्षण न हो तो हमारी बॉडी ख़राब हो जाती हे बिना ”आकर्षण ” के आप अपनी बॉडी पर वर्क नहीं कर पाते ममता कालिया के शब्दों में की प्रेम नहीं तो प्रेम के भाव से ही प्रेम चल रहा होता हे मेरा भी यही हाल हे तो ऐसा नहीं हे की इस लड़ाई में हम जिंदगी नहीं जी रहे बिलकुल जी रहे हे और चाहे जो हो जीते भी रहेंगे ———– जारी
आप को जो कोशिशे हैं, वो वाकई मे लाजवाब है. लेकिन ऐसा कर पाना, सबके बस की बात नही. कारण आप खुद भी जानते हैं, अब कौन कितना किस चीज़ को वक्त दे पता है, ये सबके अलग अलग मिज़ाज पे निर्भर है.
जैसे हर दुनिया मे आम और खास लोग होते हैं, समझदार लोगो मे भी ये केटेगरी होती है. और इस केटेगरी मे भी आप जैसे लोग ख़ास केटेगरी मे आते हैं.
लेकिन कट्टरपंथ से दूर रह पाना और ख़ासकर मुस्लिम समुदाय मे इसके चपेट मे ना आना, इसके ख़तरो को समझ पाना ही, आज के दौर मे बहुत बड़ी बात है. भले ही, वो कट्टरपंथ से लड़े नही.
बाकी मुस्लिम समुदाय मे आप जैसे लोग 5% भी हो जाए तो उदासीन समझदारों से भी कोई शिकायत नही रहेगी.
अब जैसे आप टूर लगा के आए, लेकिन वहाँ के माहौल से निराशा मिली, लेकिन कई लोग वहाँ भी सरदर्दी मोल लिए हुए होंगे ही.
आप सही कह रहे हैं. लोगो का ध्यान खींचना बहुत मुश्किल है, जो कट्टरपंथी नही भी, वो थोड़ा बहुत तो धार्मिक है ही, लेकिन उसे ये नही पता कि कौनसा रास्ता कट्टरपंथ की तरफ जा रहा है.
1. उदाहरण के तौर पे हमारे देश का बहुसंख्यक मुस्लिम, कठमुल्लाओं के थोड़ा बहुत तो चंगुल मे है, और कुछ संगठनो जैसे isis, बोको हराम, तालिबान (यहाँ भी पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान को लेके प्रोपेगेंडा है) आदि को दहशतगर्द मानता है, और इनकी हरकतों को इस्लाम की शिक्षाओ से भिन्न मानता है. लेकिन हमारे समाज की मुस्लिम जमाते भी उसी रास्ते पे चल रही है, इस बात को मानने से वो इनकार करते हैं. इसका कारण, ये जमाते इन दहशतगर्द तंज़िमो की मुख़ालफ़त करती है, लेकिन इनके विचारो मे स्पष्टता की कमी है.
मिसाल के तौर पे, दाईश को और TTP को ये लोग खवारिज घोषित करते हैं. यानी जिनकी ज़ुबान पे इस्लाम है, दिल मे नही.
क़ुरान मे भी मुनाफिक का कई जगहो पे ज़िक्र है, एक पूरी सूरा इसके लिए है. लेकिन इसकी कोई स्पष्ट कटौती नही.
उम्मा की भी बात है, और मुनाफिको से लड़ने और सचेत रहने की भी. अब इस अंतर्विरोध का अंजाम देखिए.
मुझे किसी व्यक्ति ने इसरार अहमद का तफ़सीरे-क़ुरान सुनने को कहा. इसके बाद मैने उनके विचारो को जानने की कोशिश की.
वो देवबंदी अकिदे हैं, लेकिन उम्मा के हसीन ख्वाब मे शिया, बरेलवियों को साथ लेके चलना चाहते हैं. लेकिन अह्मदियो को सारो को कत्ल करना चाहते हैं. एक इंसान के कत्ल को सारे कायनात के कत्ल वाली आयत को अनदेखा कर, वो मस्जिदे- अल-जर्रार वाली आयत से प्रभावित दिख रहे हैं.
अहमदियो ने किसिका खून नही किया तो क्या, मस्जिदे-अल-ज़रार वालो ने किसको मारा था. ज़ुबान पे कलमा, और दिल मे कुफ्र काफ़ी है, किसी को मस्जिद मे इबादत करते हुए मरने के लिए.
मौलाना तारिक़ जमील भी अहमदियों से चिढ़ते हैं.
लेकिन अब इन मौलाना की दलील सुनिए, इसरार साहब के लिए. उनके मुताबिक ये मुस्लिम क़ौम को गुमराह कर रहे हैं.
https://www.youtube.com/watch?v=upjFho4zjz8
इन मौलाना की भी फ़ैन फॉलोविंग कम नही. इनकी पूरी दलाईल यहाँ सुनिए. ये बरेलवियों के भी प्रतिष्ठित धर्म-गुरुओं के लिए क्या फरमाते है.
https://www.youtube.com/watch?v=iaLHVGWn9t0
अब बताइए कि अहमदी खारिज है, इसरार अहमद खारिज है, या ये डॉ रहमान साहब?
अल्लाह माफ़ करे लोग भी इतने मुर्ख होते हे की जब कोई किसी को मारकर सवाब कमाने को कहता हे तो उससे ये नहीं पूछते की तुम या तुम्हारे बच्चे ही खुद क्यों नहीं ये ”नेक ” काम करते ? इनके प्रवचनों की बात मेन बात यही हे की आसान रस्ते पर तो ये सरपट दौड़ते हे जनरल सी अच्छी बाते ही उपमहाद्वीप के ये सभी धार्मिक बड़े कर लेते हे मगर जैसे ही उसूलो पर अडिग रहने की बात आती हे फ़ौरन पीठ दिखा देते हे क्योकि उसूलो पर चलने का मतलब ही हे नुक्सान ही मुक्सान ये कभी फायदे का फोरी सौदा नहीं होते हे इसलिए में तो किसी भी मुल्ला को नहीं सुनता हु और लोगो को भी इनसे दूर ही रहने की सलाह देता में तो चाहूंगा की मुस्लिम समाज पर वैचारिक सेकुलर लोगो का अधिक प्रभाव हो इससे ही समस्याओं के हल निकलेंगे बाकी किसी की भी धार्मिक गतिविधियों से हमें एतराज़ नहीं हे ———- जारी
जाकिर भाई इसमें कोई शक नहीं की एक सेकुलर मुस्लिम असल में भारतीय सेकुलर मुस्लिम का काम दुनिया में सबसे कठिन और भेजा फ्राई करने देने वाला हो गया हे यु समझिए की सेकुलर पाकिस्तानी मुस्लिम का काम भी आसान हे मगर सेकुलर भारतीय मुस्लिम का काम” ब्रेन हेमरेज ” कर देना वाला हे हमारे काम को सबसे अधिक कठिन बना दिया हे हिन्दू कठमुल्लाओं की लगातार बढ़ती फलति फूलती ताकतवर बेहद एक्टिव फौज ने , क्योकि जब हम मुस्लिम कटरपन्तियो से झुझ रहे होते हे तो अचानक से ऐसा आभास होता हे ( आम मुस्लिम के लिए ) मतलब हे नहीं , लेकिन ऐसा आभास , ऐसा फिर दीखता हे की हम और हिन्दू कठमुल्ला वर्ग ”सेम पेज ” पर हे ये बहुत ही दुखद अनुभव होता हे अच्छा ये हिन्दू कटट्रपन्ति भी ऐसे ज़हरीले छोटी सोच के कायर और संकीर्ण हे की उनके साथ सेम पेज ऐसा आभास ऐसी ” मरीचिका ” होने से भी हमारा बहुत नुक्सान होता हे बहुत मानसिक पीड़ा होती हे इसलिए आप देखे की हिन्दि में मुस्लिम लिखने वालो की फौज अब सोशल मिडिया पर हे मगर अफ़ज़ल भाई या ताबिश सिद्द्की जेसो को छोड़ कर बाकी सब का काम सुधार वाद या उदारवाद फैलाना नहीं रात दिन झूठी सच्ची शिकायत करना पद और आरक्षण माँगना और हिन्दू कटट्रपन्तियो की संकीर्णता की प्रतिकिर्या देना ही बस रह गया हे ———— जारी
”दुनिया मे कट्टरपंथ से लड़ना है, लेकिन इसके लिए काम-धंधे नही छोड़े जा सकते.”
जाकिर भाई बात यही तो हे की चाहे वो जावेद अख्तर हो या मेरा कज़िन काम धंदे की कोई परेशानी ही नहीं हे ये लोग अच्छी सुरक्षित टेंशन फ्री लाइफ गुजार रहे हे चाहते तो जावेद जैसे लोग बड़े पैमाने पर और मेरे कज़िन जैसे लोग छोटे पैमाने पर मुसलमानो में नयी सोच की नींव रख सकते थे जावेद की ही बात करे तो इनका भला क्या काम धन्दा हे पिछले तीस साल से ? उससे पहले ही बहुत कुछ हासिल कर चुके बच्चे सिर्फ दो वो सेटल हो चुके सब कुछ तो दसियों साल पहले हासिल हो चूका और चलो ठीक हे आपकी जिंदगी आपकी मर्ज़ी मगर मुद्रा ऐसी देते इमेज ऐसे बनते हे जैसे बड़े प्रगतिशीलजिहादी हो ? यही हाल मेरे कज़िन का हे आराम की जिंदगी छोटा परिवार सरकारी नौकरी वो खुद कहता हे की सरकारी नौकरी वो भी एजुकेशन में वो भी केम्पस में हमारी तो बहुत आराम की जिंदगी हे अरे भाई हे तो कुछ तो चु करो और नहीं करनी तो अपनी इमेज खास कर गेर मुस्लिमो के सामने ऐसी बड़ी क्रन्तिकारी बड़ी लिबरल क्यों पेश करते हो ? जैसे अलीगढ़ में काफी कश्मीरी हे जब कश्मीरी लड़कियों के बेंड के खिलाफ मुल्लाओ ने फ़तवा दिया तो हमने तो बहुत कुछ लिखा मगर मेरे कज़िन ने अपने सीनियर जावेद साहब की तरह कोई चु नहीं की इसलिए नहीं की की अगर लड़कियों के बेंड का समर्थन करते तो कटट्रपन्तियो के निशाने पर आते अगर विरोध करते तो गेर मुस्लिमो के बीच अपनी चाँद जैसी उजली प्रगतिशील छवि पर आंच आती तो इसलिए ये चोंच पर रबर बेंड चढ़ा लेते हे इनकी हरकतों पर नाराज़ होकर में अपने खून नहीं जल रहा मगर ये बाते कहनी सुननी भी तो जरुरी हे ———– जारी
”अब जैसे आप टूर लगा के आए, लेकिन वहाँ के माहौल से निराशा मिली, लेकिन कई लोग वहाँ भी सरदर्दी मोल लिए हुए होंगे ही. ” ये तो सच हे जाकिर भाई की इसमें नागरी के सबसे अधिक पाठक फेसबुक आदि सोशल मिडिया पर हे वैसे तो ठीक हे मगर इस मीडियम की सबसे बड़ी बुराई ये हे की ये बहुत अधिक टाइम ख़राब करता हे यहाँ तो जैसे आप हम दूसरे लोग बात कर रहे विमर्श करते हे तो वो तो सही हे वहां पता चलता हे की आप सामने वाले की भाई के शादी के फोटो देख रहे हो इसके आलावा प्रोपेगंडे फोटो शॉप्स फ़र्ज़ी वीडियो फ़र्ज़ी बाते भी बहुत हे सबसे अधिक हिन्दू कठमुल्लाओं ने फिर उनके बाद मुस्लिम कठमुल्लाओं ने हद से ज़्यादा गंद मच रखी हे इस सागर में मोती भी हे मगर टाइम भी बहुत ही अधिक लगता हे आप अपने हर लाइक और कमेंट करने वाले का पेज देखते जाओगे और अपना समय बर्बाद करते जाओगे ऊपर से 90 % से भी अधिक कमेंट बकवास होते हे उनको पढ़ना वाही वक्त की बर्बादी तीसरा ये माध्यम इसके लाइक शेयर आपको बिलकुल आत्ममुग्द बन देते हे इसलिए इसके बहुत से लिखने वाले कुछ यु हावभाव देते मानो मोदी सरकार आने में या सरकार का कोई डिसीजन बदलने में उनकी बड़ी भूमिका रही हे आत्मुगदता का आलम ये हे की सुमंत भट्टाचार्य जैसे अच्छा लेखक और पत्रकार जिन्हे हम आउटलुक में पढ़ते थे वो भी बेहद बचकानी बाते करते दीखते हे इसलिए इस माध्यम से जितना हो सके बचना ही बेहतर होगा हालांकि डर हे की इनका इस कदर प्रोपेगेंडा ना जाने लोगो पर क्या कैसा असर डाल रहा होगा ?
Abbas Pathan28 October at 14:13 · सुबह की मीठी चाय के साथ खून से सने हुए अखबार का जायका लेते हुए जैसे ही मैं अंतर्राष्ट्रीय पृष्ठ की तरफ पलटा’ लिखा था ” यहूदी धर्म स्थल पर बंदूकधारी ने हमला किया, 11 कीमौत”हमने आखरी चुस्की लगाते हुए गहरी सांस ली, की चलो ‘बंदूकधारी’ का हमला था, कोई आतंकी हमला नही था।, आतँकी हमला होता तो नजाने कितने बेगुनाह लौंडो को एफबीआई उठाती और आतंकवादी के पूरे समुदाय को “अमन की पैरोकार दुनिया” के प्रति जवाबदेह होना पड़ता। भारत और बाकी पूरी दुनिया मे भी तो यही सबकुछ हो रहा है। “आतंकवाद” का कॉपीराइट एक सम्प्रदाय विशेष के गले में घँटा बनाकर डाल दिया गया है। वो जहाँ कही कदम रखता है दुनिया को उसके गले मे लटका हुआ घँटा सुनाई देता है। इनकी बकबक सुनकर और देखकर “कभी कभी मुझे लगता है “समुदाय विशेष का हर एक व्यक्ति सम्भावित आतंकवादी है”
पिछले हफ्ते ऐसे ही एक बन्दूकधारी ने रूस के एक कॉलेज में अपनी बन्दूक का जलवा बिखेरकर 19 लोगो की जान ले ली थी। जबतक बंदूकधारी का नाम सामने ना आया तब तक हड़बड़ाहट में जांच एजेंसियां इसे आतंकी हमला मानकर अपना काम कर रही थी फिर जैसे ही पता चला कि बंदूकधारी के गले मे आतंकवाद के कॉपीराइट का घँटा नही बंधा है तो इसे सामूहिक हत्या का मामला मानकर कार्यवाही की जाने लगी। तमाम मिडीया ने यही हेडिंग लगाई जो आज लगी है, “बन्दूकधारी का हमला”। ज्ञात रहे “बंदूकधारीयो ने इसी वर्ष दो दर्जन से ज्यादा घटनाओ को अंजाम दिया है”
बहरहाल मैं जो बात कह रहा हूँ यही सच है, इस सच को दुनिया के तमाम ‘कवि लेखक शायर और सयाने’ जानते है, हालांकि वो बात अलग है कि वे ऐसी चर्चाओं में पड़कर अपने कमीज पर कोई लेबल नही लगवाना चाहते।
अखबारों की खबर में इसे आतंकी हमला भी करार दिया जा सकता था बशर्ते बंदूकधारी का सरनेम कोई “उर्दू अरबी” में होता।———–
Zaigham Murtaza
8 hrs ·
इब्लीस आपको बहकाने के लिए कैसा रूप धर कर आता है? ओनिडा टीवी वाला दो सींग और पूंछ वाला शैतान? अंग्रेज़ी फिल्मों वाला ड्रेक्युला या रामसे ब्रदर्स की फिल्मों का सफेद कफन ओढ़े लाल लाल आंखो वाला फर्ज़ी सा भूत? जी नहीं इनमें से कोई नहीं। अगर ऐसा हुलिया रखकर आए तो या तो धुन लिया जाएगा या फिर आप चीख़ मारकर भाग जाएंगे। तो फिर? वो हिंदुओं के बीच तिलक लगाकर चोटी धरकर जाएगा, मुसलमानों के बीच दाढ़ी, टोपी और शेरवानी में ताकि पढ़ा लिखा, धार्मिक और सभ्य दिखे। इब्लीस या शैतान आपके पास आकर फिल्मी हू हू हाहा नहीं करेगा। वो मज़हबी बातें करेगा। ऐसी बातें जो आपके दिल में चुभें। आपको जिनमें अपना माज़ी नज़र आए। आपके दुख छिपे हों। इनके ज़रिए वो आपकी भावनाओं को हवा देगा और आपका सबसे बड़ा हमदर्द दिखने की कोशिश करेगा। आपकी ज़रा मदद भले न करे लेकिन उकसाने में कभी कमी नहीं छोड़ेगा।
इब्लीस की सबसे बड़ी पहचान यही है कि वो माज़ी यानि अतीत के ज़ख़्म कुरेद कर, झूठे सच्चे क़िस्से गढ़ कर और भुला देने लायक़ बातों को बतंगड़ बनाकर आपके दिल में दूसरे इंसानों के लिए नफरत भरेगा। वो कभी आपके मुस्तक़बिल यानि भविष्य की बातें न करेगा और न करने देगा। आपके ज़हन को हर उस तरफ मोड़ेगा जो नफरत, गंदगी और ज़हर बढ़ाने में मददगार हों। लेकिन वो कभी आपकी तालीम, कारोबार, करियर, समाजी मज़बूती की तरफ नहीं बढ़ने देगा।
तो भैया हमदर्दी और इब्लीसियत के बीच की जो बारीक सी लाइन है उसे गाढ़ा कीजिए। अगर कोई आपको सिर्फ उकसाता है, आपके दर्द को अपनी सियासत का ज़रिया बना रहा है, मज़हब और फिर्क़े के नाम पर अलग थलग कर रहा है, जिसे दुनिया भर में हमेशा बुरा ही बुरा नज़र आता है वो आपका हमदर्द नहीं हो सकता। होशियार रहिए। मज़हबी दिखना वाला, पढ़ा लिखा नज़र आने वाला और आपके मतलब की जज़्बाती बातें करना वाला मन से इब्लीस या शैतान का मानने वाला मानसिक असुर भी हो सकता है। अल्लाह अल्लाह ख़ैर सल्ला…
Zaigham Murtaza is with Shuaib Pasha and Mohammed Zakir Riyaz.
27 October at 19:35 ·
मालवीय नगर के मसले को सिर्फ साम्प्रदायिक कहकर नकार देना काफी नहीं है। ये सच है कि मुसलमान की जान सस्ती है। मुसलमान के झगड़े में चश्मदीद तो होते हैं मानवीय संवेदनाएं नहीं। 8 साल का बच्चा भी अगर शिकार है तो फर्क़ नहीं पड़ता। तमाशबीन कुछ इसलिए नहीं आते कि हमें क्या, कुछ ख़ौफ में दूर रहते हैं और कुछ पिटाई का मज़ा लेने के फेर में बीच-बचाव नहीं करते। बहरहाल जिन्होंने हत्या की वो दूसरे धर्म के थे लेकिन हमेशा की तरह कुछ ‘हमारे अपनों’ की शह पर दिलेरी दिखा गए। झगड़ा सिर्फ मज़हबी नफरत का नहीं है वक़्फ की बंदरबांट का भी है। आसपास के दलितों को यक़ीन है मुसल्टे भाग जाएं तो पूरा क़ब्रिस्तान हमारा। आसपास के मुसलमानों को उम्मीद है कि मदरसा बंद हो तो ज़मीन हम क़ब्ज़ाएं। इमाम को चाहत है कि मदरसा बना रहे तो मालिकाना हक़ उनके पास रहे। सोमनाथ भारती चाहते हैं झगड़ा बना रहे ताकि वोट मिलें।
मरहूम महमूदुल हसन जौनपुरी कहा करते थे कि बोसीदा मस्जिद पर किसी की नज़र नहीं जाती। कोई इमारत है जहां से आमदनी है या आमदनी की उम्मीद है तो सबकी नज़रे जम जाती हैं, मुतवल्ली हम बन जाएं।————-
Zaigham Murtaza
29 October at 13:41 ·
मुसलमानों का इल्मी, फिक्री सियासी मेयार… फिर्क़ो, इलाक़ाइयत और जिहालत में डूबी सियासत समझनी हो तो इन दिनों अलीगढ़ चले जाइए। यूनियन के इलेक्शन हैं जिनमें जिहालत का बोलबाला है। हम जिसे दक्षिण एशिया में इल्म का मक्का समझते हैं वहां न अपनी ज़बान बची है, न अपनी तहज़ीब और न शऊर। वैसे भी जब दामाद या संभावित दामाद होने की बिना पर जहां भर्ती होती हों, जमात और मज़ार से जुड़ाव पास होने की गारंटी बन गया हो और यूनिवर्सिटी मिनी मदरसा बन गयी हो तो ये सब बातें हैरान नहीं करतीं। एएमयू बचाना है तो यूनिवर्सिटी सर्विस सिलेक्शन कमीशन जैसा कोई इदारा क़ायम हो और कैंपस के अंदर मज़हबी जमातों पर रोक लगे। थियोलाॅजी डिपार्टमेंट बंद किया जाए और भाई भतीजावाद ख़त्म हो। जब तक भर्ती और एडमिशन में ट्रांसपेरेंसी नहीं होगी और सख़्ती से तालीमी मेयार क़ायम नहीं किया जाएगा, सर सैयद का चमन चरसी, जाहिल, आवारा, बंकमार और बदतमीज़ लोगों की सैरगाह बना रहेगा। अल्लाह अल्लाह ख़ैर सल्लाह…