हाल ही में हिंदुस्तानी मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के एक कांफ्रेंस में पूरे महाराष्ट्र (पश्चिम भारत के एक राज्य) से लगभग 2,00,000 मुसलमानों की बड़ी तादाद ने भाग लिया और बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना राबे हसनी नदवी ने इस मौके पर बहुत जज़्बाती भाषण दिया और कहा कि शरीयत ख़ुदादाद है और इसमें कोई बदलाव नहीं किया जा सकता है और यहां तक कि पूरी इस्लामी दुनिया शरीयत में अगर तब्दीली करती है तब भी हिंदुस्तानी मुसलमान इसमें कोई बदलाव करने की इजाज़त नहीं देंगे और रवायती शरीयत को अपने दिल के करीब रखेंगे।
ये रुख कैसे उचित है? आज कई औरतें तीन तलाक और अनियमत बहुविवाह वगैरह, जो उनके लिए मुसीबत पैदा कर रहा है, वो इसमें कुछ आवश्यक तब्दीली के लिए आंदोलन कर रही हैं। कुछ फिक्रमंद हज़रात समेत मैंने खुद मुस्लिम पर्सनल लॉ को तर्तीब देने की पहल है ताकि इसके दुरुपयोग को कम से कम किया जा सके और मुस्लिम औरतों को राहत पहुंचाई जा सके। शरीयत कानून का दुरुपयोग किस हद तक किया जा सकता है, इसका फैसला इस तथ्य से किया जा सकता है की हैदराबाद (डेक्कन) की एक मशहूर इस्लामी युनिवर्सिटी ने इस घारणा पर कि इस्लाम बहुविवाह की इजाज़त देता है, एक शख्स को दो नौजवान लड़कियों के साथ एक ही वक्त में शादी करने की इजाजत दे दी।
ये सब सैकड़ों साल पहले लिखी गई किताबों और जारी किए गए फ़तवे पर आधारित है और हमारे उलेमा लोग इन तहरीरों से इंहेराफ (विचलित) करना नहीं चाहते हैं। जब भी इनसे कोई सवाल पूछा जाता है तो ये इन तहरीरों से रुजू करते हैं और एक फतवा जारी करते और फिर अदालत के फैसले की तरह यह फतवा बाद के फतवों के लिए एक नज़ीर बन जाता है और ये फतवा पूरी दुनिया में लागू होने वाला माना जाने लगता है। आम मुसलमानों को पता नहीं है कि ये फतवा सिर्फ मुफ्ती हज़रात की ज़ाहिर की गई महज़ राय है और इनकी पाबंदी करना ज़रूरी नहीं है।
क्या नामवर उलमा की जानिब से जारी किये फतवों को नाकबिले तब्दील माना जाना चाहिए? या फिर उन्हें वक्त और जगह में तब्दीली के साथ बदला जा सकता है? आमतौर पर शरीयत को खुदादाद और नाकाबिले तब्दील माना जाता है और कोई भी व्यक्ति इसमें कोई भी तब्दीली नहीं कर सकता है। हकीकत में शरीयत के कानूनों को हज़रत इमाम अबू हनीफा जैसे प्रसिद्ध इमामों ने अपने ज़माने और हालात की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए तैयार किया था। इस तरह शरीयत को खुदा के इरादे में मुख्लिस इंसानी दृष्टिकोण के रूप में बताया जा सकता है। ये मशहूर है कि हज़रत इमाम शाफ़ेई जब मिस्र स्थानांतरित हुए तो आपने कई फ़िक़्ही मुद्दों पर अपनी राय बदल दी थी।
हाल ही में मैंने अरब दुनिया में सबसे काबिले एहतेराम प्रसिद्ध विद्वान अल्लामा यूसुफ करज़ावी की एक किताब को देखा। ये फतवा और फ़तवे में तब्दीली की आवश्यकता के विषय पर है। ये एक काबिले एहतेराम इदारे इस्लामी फ़िक़्ह अकादमी द्वारा प्रकाशित की गई है। अल्लामा यूसुफ करज़ावी ने फतवा में तब्दीली के लिए औचित्य के रूप में इस्लाम में इज्तेहाद के सिद्धांत को ताजा किया है। अल्लामा का तो यहां तक कहना है कि शरीयत, उम्मत के लिए तब तक उपयोगी नहीं हो सकती है जब तक इज्तेहाद (वो इज्तेहाद की कई शक्लों की तरफ इशारा करते हैं) का अमल वक्त से इस्तेमाल न किया जाये।
ये काबिले ग़ौर है कि शरियत को गतिमान और जहां ये लागू होती है, उसके वक्त और जगह के लिहाज़ से होना चाहिए। जिन बुनियादी सिद्धांतों और मूल्यों पर शरीयत की बुनियाद है उन्हें बदला नहीं जा सकता है लेकिन इन सिद्धांतों और मूल्यों पर आधारित कानूनों को कार-आमद और वक्त के लिहाज़ के मुताबिक रखने के लिए वक्त के साथ इनमें परिवर्तन होना चाहिए। इसी वजह से अधिकांश इस्लामी देशों में पारंपरिक शरीयत कानूनों को बदल दिया गया या इनको तर्तीब (संहिताबद्ध) दिया गया है ताकि ये मुफीद हों जैसा कि ये कभी थे।
अल्लामा करज़ावी ने 10 बुनियादें दी हैं, जिस पर फतवा बदला जा सकता है और ये सभी कारण बहुत प्रासंगिक हैं। सबसे पहले उन्होंने चार बुनियादें जिस पर फतवा तब्दील होना चाहिए यानी वक्त में तब्दीली, जगह में तब्दीली, हालात में तब्दीली और सामाजिक तरीके या रवायत में तब्दीली। कुरान भी इसी अर्थ में मारूफ की इस्तेलाह (पदावली) का इस्तेमाल करता है। फिर बदलाव की पसंद के बारे में छह और बुनियादें पेश करते हैं, जो निम्नलिखित है: (1) इल्म में तब्दीली , (2) लोगों की ज़रूरतों में तब्दीली, (3) लोगों की सलाहियतों में तब्दीली, (4) किसी कहर के फैलने पर (जब कुछ गंभीर समस्या आम हो जाती है), (5) सामूहिक राजनीतिक या आर्थिक स्थिति में बदलाव और (6) राय या फिक्र में तब्दीली।
ये दस बुनियादें वास्तव में किसी समाज के सभी संभावित बदलावों को शामिल करती हैं। इससे ये बहुत हद तक स्पष्ट है कि इस्लामी फ़िक़्ह, जैसा कि आम लोग सोचते हैं, कि ये स्थिर और किसी भी तरह से काबिले तब्दील नहीं है बल्कि इसमें बदलाव के लिए काफी गुंजाइश है। ये पूरी तरह दूसरी बात है अगर हमारे उलेमा कठोर या नाकाबिल हैं और खुद को शरीयत के खुदादाद होने के पीछे छिपाने की कोशिश कर रहे हैं। वास्तव में कोई भी कानून अगर स्थिर रहता है तो वो समाज की ज़रूरतों को पूरा नहीं कर सकता है।
मध्यकाल के जमाने में बने पर्सनल लॉ में आज कई बदलाव की जरूरत है। इसे लोग जानते हैं कि उस ज़माने की शरीयत में अरब के कई संस्कार और रिवाज भी इसमें शामिल किये गये थे, जैसे की मारूफ औऱ तीन तलाक़, उन्हीं में से एक है। नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम ने इसकी मज़म्मत की है क्योंकि कुरान से औरतों के सशक्तिकरण और उनको बराबर का दर्जा देना मतलूब है और इस पर आप सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के वक्त में किसी ने अमल नहीं किया लेकिन बाद में कुछ कारणों से इसे फिर से लागू कराया गया।
आज औरतें अपने अधिकारों के बारे में बहुत जागरूक हैं और इस तरह का अमल समानता के सिद्धांत के खिलाफ है जो किसी भी अरब परंपरा की तुलना में बहुत ही बुनियादी है। अब भी इन पर हिंदुस्तान जैसे देशों में अमल होता है और यहां तक की इसके खुदादाद होने के बारे में तसव्वुर किया जाता है। इसी तरह बहुविवाह का भी बहुत दुरुपयोग किया जाता है और इसे मर्दों का विशेषाधिकार माना जाता है। इसे बाज़ाब्ता करना होगा और किसी के खब्त के तौर पर इसके इस्तेमाल की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। कोई औरत आज इसे कुबूल नहीं करेगी जैसा कि माज़ी (अतीत) में किया करती थीं। मध्यकाल के पर्सनल लॉ की फार्मूलासाज़ी पुरुष प्रधान मूल्यों से प्रभावित थी और आज पुरुष प्रधान मूल्यों को खासतौर से औरतों के द्वारा चुनौती पेश की जा रही है।
बहुविवाह तेजी से उर्फ यानी सामाजिक प्रासंगिकता और लोकप्रियता का उपयोग कर रहा है। इसकी सिर्फ उन सूरतों में इजाज़त दी जानी चाहिए जहां ये जरूरी है। इसी तरह दूसरे पर्सनल लॉ को भी अगर ज़रूरत हो तो इनका जायेज़ा लिया जा सकता है। अगर हमारे उलेमा शरई कानूनों के मामलों में अपनी राय देते वक्त अपने मन में इन 10 बुनियादों को रखते हैं, तो इससे बहुत फायदा होगा
http://newageislam.com/islamic-ideology/asghar-ali-engineer/fatwas-can-be-changed/d/7268
इस लेख पर हमरेमुस्लिम बन्न्धु मौन रहेनगे य इस् लेख का विरोध् करेन्गे
ज ब इस देश मे और बहुत से मुस्लिम देशो मे भि कन्याओ कि सन्खया लद्को से कम है तब कैसे दो निकाह भेी कैसए हो सक्तेहै
सवाल तर्कपूर्ण हो तो जवाब दिया जा सकता पर सवाल ही नफरत सेप्रेरित ही टी जवाब देकर कोई डिबेट करने से कोई लाभ नही फिर भी इतना कहूँगा किहिदुस्तान में दुनया में सर्वाधिक भ्रूण हत्या होती ह यही कारन हे की इस देश में आपलोग लड़कियों का क़त्ल बंदकर दो तो केवल एक वर्ष काफी हे इस संख्या के उलटा होने में ,,,रजा दशरथ किकित्नी पत्नियों थी श्री कृष्ण की कितनी पत्नियों थी यदि इसके उत्तर ढून्ढ लो तब बात करना
मुस्लिम लद्कियो कि भेी सन्ख्या कम् है तब कुरान कि बहु विवाह कि सुविधा का क्या होगा !
आप के आँकड़े ग़लत हे मुस्लिमस में लड़कियों की संख्या लड़कों से अधिक हे और और इस्लाम पूरी दुनया के लिये हे केवल मुस्लिम्स और नॉन मुस्लिम के लिए नहीं इस्ल्ये पुरिसत्यता के साथ इसका आंकलन करे की कितनी महिलाऐं दुनया में पुरुषों से ज़्यादा हे ये क़ुरआन दुनया के कितनी दूरदर्शिता रखता हे so called विकसित देश जो स्वंय समानता के शिखर कहलाते वहां कएक पुरुष शादि से पूर्व ही लगभग १५महिलाओ के साथ सम्भोग कर चूका होता हे में या आप अनहि बहिन को पब्लिक परपर्टी बनाने से बेहतर यही समझेंगे किकिसी ऐसे व्यक्ति से लीगली विवाह करवा दे जो सामाज में पुरे स्वाभिमान से जीटा हो और एक बात और भी बताऊँ की इस्लाम दुनया का अकेला मज़हब हे जो कहता हे विवाह सिर्फ एक से हे किया जाए और दूसरी शादी की आज्ञा तभी देता हे जब उसके साथ भी पूरा इन्साफ हो और बहविवाह करलेने इस्लाम में किसी का इस्थान ऊँचा नहीं होता मेरे अज़ीज़ भाई मेने इस्लाम और दूसरे मजहबो का अध्ध्य्यन किया हे और यही पाया की यदि कोई भी व्यक्ति चिंतन और मनन करने वाला मस्तिक्ष रखता होगा तो नि संदेह इस्लाम के लिए नतमस्तक होकर रहेगा
आत्म-मुग्धता की भी हद होती है, फ़हीम साहब की नज़र मे दुनिया के सारे मुसलमान, बुद्धिमान और गैर मुस्लिम, महा-बेवकूफ़ है. क्यूंकी वो बुद्धिमान होते तो अब तक मुसलमान बन गये होते? ये तमाम नोबल पुरूस्कार विजेता, जिन्हे सारी दुनिया जीनियस और उत्कृष्ठ बुद्धिमान मानती है, वो इनकी नज़र मे दुनिया के बेवकूफ़ लोग है.
लिंगानुपात की ये बात कर रहे हैं, तो ये सिर्फ़ मुस्लिम समाज मे ही अच्छा है, ऐसा नही है, लगभग तमाम पश्चिमी देश, ivf, गर्भपात, अल्ट्रा-साऊन्ड आदि पे बिना किसी बंदिश के स्वस्थ लिंगानुपात रखते हैं. हमारे देश के बहुसंख्यक वर्ग को इससे सीखने की ज़रूरत है.
दक्षिण एशिया, चीन, कोरिया जैसे देशो से तुलना करने पे, ज़रूर मुस्लिम समुदाय, इस मुद्दे पे बेहतर आँकड़े रखता है. हमारे देश मे भी हिंदू समुदाय को इस विषय पे अपनी मान्यताओ और सामाजिक संस्कृति के प्रति मूल्यांकन करना चाहिए.
वैसे भारत मे भी मुस्लिम बहुल कश्मीर मे लिंगानुपात कम है, जबकि हिंदू बहुल केरल मे स्वस्थ. इसी प्रकार पाकिस्तान और बांग्लादेश मे लिंगानुपात, भारत से बेहतर ज़रूर है, आदर्श नही.
बाकी मुसलमानो की बुद्धिमता के आपके दावे, जोश मे दिखते हैं, आँकड़े इसके उलट कहानी बयाँ करते हैं.
बिलकुल सत्य हे बात हे इस्लाम के पास ही दुन्या की सभी समस्याओं का समाधान हे कुकी दुन्या के और सभी धर्म केवल संस्कृत्ति बन कर रह गए हे मे अपनी बात को उतना ही सत्य समझता हु जितना सूर्य का रात को ढांप कर सवेरा करदेना होता है अल्लाह के बनाए हुए नियम चाहे बहुविवाह हो या केवक पुरुष की तलाक़ देने का हक़ हो सभी दूरदर्शिता की दृष्टि से सत्य हे पहल जब रैप की सजा इस्लाम ने सजा मोत दी तो पूरी दुन्या इस के विरोध में खड़ी हो गई लेकिन आज आडवाणी भी रैप के लिए मृत्यु दण्ड की हिमायत करते नज़र आते हे, अपने लेख को ठीक से नहीं पड़ा मानता हु आप अच्छे लेखक हे और हम सिर्फ बकवास ही करना जानते हे फिर भी एक सवाल अपने आप से करे किया आपने उस किताब का सही मायने में अध्ययन किया हे जिसे खुद अल्लाह ने लिखवाया हो किया उस किताब से भी बढ़कर और कोई पुस्तक हो सकती हे ६० वर्ष के जीवन में ३०-३५ वर्ष अपने दुन्या के विभिन्न ज्ञानों को अर्जित करने में लगाए हे किया १ साल भी ठीक प्रकार अपने क़ुरआन को दिया ,,,बिलकुल नहीं कुकी यदि दिया होता तो आपकी दुनीया और आख़िरत संवर जाती भाई अगर आपकी मुस्लिम हे तो अल्लाह से डरने वाले बने इमान कोई ऐसी चीज़ नहीं हे जो आपके दिल से निकलते समय आपको महसूस कराए इस्ल्ये संयम रखकर अपनी बात रखा करे तर्क और बुद्धि भुत ज़रूरी हे पर जब इसको इमान की रौशनी मिल जाती हे तो इंसान अबुल कलाम आज़ाद ,इकवाल बनजाता हे अल्ला आप को हिदायत दे
आपकी ये बात जायज़ हे की” बाकी सभी धर्म सनस्कर्ति बन कर रह गए हे ” वास्तव में दुनिया में दो ही बड़े अक़ीदे रहे हे इस्लाम और ईसाइयत ईसाइयत ने धीरे धीरे अपना पूरी तरह से सेकुलरिकरण कर लिया नतीजा ईसाइयत की जड़े पूरी तरह हिल गयी उसके चर्च खाली पड़े हे और ये भी सच हे की इस्लाम वो दुर्गत बिलकुल बर्दाश्त नहीं करेगा जो ईसाइयत की हो चुकी हे ना ये हिंदुत्व की तरह हो सकता की जिसके जो मन आये वो करे भक्ति के नाम पर मनोरंजन पर्यटन जो मन आये वो करे ये बाते जायज़ हे और ये भी बात हे की कटटरपंथ से भी हमें लड़ना होगा अगर हम भलाई चाहते हे तो यानि फेथ भी लॉजिक भी इसलिए में कहता हु की एक शुद्ध सेकुलर भारतीय मुस्लिम का काम इस दुनिया में सर्वाधिक कठिन हे में खुद ज़ीरो स्प्रिचुअल नीड का आदमी हु फिर भी मानता हु की ये ” काम ” अल्लाह की तरफ से ही कोई मदद आये तो ही हो पाएगा वर्ना नहीं
आप किस हिदायत की बात कर रहे हैं? मेरे कमेंट मे इस्लाम की बुराई नही थी, हां, फ़हीम साहब की आत्म-मुग्धता और सिर्फ़ मुसलमानो को बुद्धिमान कहे जाने पे सवाल किया.
अब्दुल कलाम या इकबाल का ही आपने नाम क्यूँ लिया. रवीन्द्र नाथ टेगोर, मेघनाथ साहा, जेसी बोस, जैसे वैज्ञानिक और महान साहित्यकार भी इस देश मे जन्मे हैं. कहीं ऐसा तो नही, कि आप भी फ़हीम साहब की तरह, सिर्फ़ मुस्लिमो को ही विद्वान मानते हैं.
जहाँ तक अल्लाह की मेहरबानी का सवाल है, तो मुझे कोई खास मुकाम हासिल ना हुआ हो, लेकिन इस देश की सबसे लोकप्रिय प्रोद्योगिकी संस्थान से शिक्षा हासिल करी है, और इसके लिए मैं अल्लाह का शुक्र-गुज़ार हूँ. लेकिन मैं यह कहूँ कि चूँकि मैं मुसलमान हूँ, इसलिए अल्लाह ने मुझपे ये नेमत करी, तो ग़लत होगा.
बाकी अगर आप तब्लीगी टाइप की सोच को हिदायत मानते हैं, तो मैं यही कहूँगा कि अल्लाह की हिदायत से मैं उस ग़लत रास्ते पे जाने से अब तक बचा हूँ, वरना एहसासे कमतरी के शिकार क़ौम ने मेरी छोटी सी उपलब्धि को भी स्थानीय स्तर पे मज़हब से जोड़ने की कोशिशे की. समाज मे तवज्जो किसे अच्छी नही लगती, लेकिन मैने इससे दूरी बनाई.
नतमस्तक होना और मनोरोगी होना दोनों में अंतर है भाई ! बड़ी बड़ी बातें लिखने से पहले ‘सम्भोग’ और पुब्लिक प्रॉपर्टी आदि शब्दों का अर्थ सिख लो ! और विवाह करवा दे ? ये क्या होता है ? ये सब औरतों के लिए कहने वाले धर्म के लिए आप चिंतन ,मनन की बात कर रहे हो !!! लेकिन किसे करना चाहिए ? औरतों को या केवल पुरुषों को ? घर में या मस्जिद में ?? ये तो नहीं बताया !! सारी दुनिया की औरतों के लिए क्या सही गलत है इसको तय करने वाले आप कौन हो और आपका कल का जन्मा धर्म क्या है ? कोई ईश्वर ,कोई धर्म सारी दुनिया के लिए नहीं यह उसके जन्म से जुडी बाते ,भाषा पात्र और घटनाओ की सिमित भौगोलिक दायरे में रही पहुँच ही साबित कर देती है ! जरा इसपर भी कभी गौर कर लेना !!
बाकी दायम साहब, मेरी नज़र मे समझदार व्यक्ति वो है, जो किसी भी किताब को पूर्वाग्रह से ना देखे, और अपनी समालोचना की ताक़त और विवेक को किसी भी किताब या घटना का विश्लेषण करते समय ना खोए. बाकि हर विषय पे लिखी मशहूर किताबे पढ़ने का शौक रखता हूँ, इसलिए कोई संशय ना रखे, मुझे पढ़ने का ही शौक है. जितना लिखता हूँ, उससे सैकड़ो गुना पढ़ता हूँ.
ऊम्म्त को एसे लोगो कि दर्कार हे जो लिख्ने ओर बोल्ने कि सलहियत रख्ते हो कोन ईमान वाला ओर कोन न्हि ये अल्लाह हेी जानता हे मेंरा मतलब यह हे की दीं के बारे में बोलने से एहतियात रखना ज़रूरी हे कुकी ये वो दीन हे जो १४०० सो सालों सेअपनी बेबाकी और हुक़्परस्ती पर तमाम दुन्या को चैलेंज किये हुवे हे इक़बाल ने जब क़ुरआन को पढ़ा और ग़ोर फिकर किया तो तो उसने अपनी लाइब्रेरी की तमाम किताबे निकाल कर रखदी और सिर्फ क़ुरआन को ही उसमे जगह दी भाई इसका ये मतलब मत समझना की की और इल्म इस्लाम की नज़र में कुछ नहीं क़ुरआन की तो पहली आयत ही यूँ नाज़िल हुई की पढ़ो अल्लाह के नाम से जो निहायत रेहमवाला हे तो इल्म तो इस्लाम का जुज़ हे चाहे कोई भी हो में टैगोर और साहू और भीतर से वैज्ञानिक और दार्शनिकों का सम्मान करता हु पर बात यहाँ इस्लाम की हो रही हे इस्ल्ये इक़बाल और कलाम साहब का नाम लिया गया बाक इसका में क्या जवाब दूँ के आपके मुताबिक़ क़ुरआन का विश्लेषण भी दूसरी किताबों की तरह समय की बरबादी नज़र आता हे आपको अपन किसी भी संस्थान से शिक्षा ली हो पर यदि आप अपने जीने का मक़सद ही नहीं जानते तो क्या किया जा सकता ह बस यही कहूँगा अल्लाह आपके इल्म में इज़ाफ़े के साथ आपके इमान में भी इज़ाफ़ा करे और आप को एहसास कराए की आप उस क़ोम का हिस्सा हे जिसके नोजवान सो हुए हे और जो कग रहे हे वो आपकी तरह भटके हुए हे जो इंसाबो की लिखी हुई किताबों को पढ़ना फख्र समझे और अल्लाह की किताब को पड़ना वक़्त की बर्बादी बुरा माँने भाई नेरी बैटन पर घोर करे जज़ाकअल्लाह
मैने किसी किताब, भले ही वो क़ुरान हो, को पढ़ने को वक्त की बर्बादी नही कहा. क़ुरान, इस दुनिया की एक बड़ी आबादी की जीवन शैली और सामाजिक मूल्यों को दिशा देने मे भूमिका अदा करती है.
मेरे जैसे मुस्लिम पृष्ठभूमि के व्यक्ति ही नही, इस दुनिया के अधिकांश गैर-मुस्लिम बुद्दीजीवियो ने भी इसको पढ़ा है. ये दुनिया की तमाम मुख्य भाषाओ मे आज ऑन-लाइन और सरलता से मौजूद है. इस्लाम को लेके वेब-जगत मे मची मुखर बहस के पीछे गैर मुस्लिमो की इस्लाम और क़ुरान के बारे मे बढ़ती जानकारी है.
समर्थन या आलोचना, नज़रिए पे निर्भर है. लेकिन लोग पढ़ भी रहे हैं, और चर्चा भी कर रहे हैं. इस्लाम के प्रति विमर्श का ये दौर अभूतपूर्व है.
साहब आप भी भलाई चाहते हे हम भी सवाल ये हे की जाकिर भाई लॉजिक से बात करते हे आप फेथ से तो आप हमें दुश्मन क्यों माने ? अगर की आप फेथ की आड़ में कोई व्यक्तिगत हित नहीं साध रहे तो आप हमें दुश्मन क्यों माने ? जबकि हम न इस्लाम न किसी और फेथ के खिलाफ हे आप फेथ की बात करिये जो आखिरत में काम आएगा हम लॉजिक की बात करते हे जो दुनिया में भलाई करेगा तो क्यों हमारे बीच टकराव हो ? हमारे बीच समन्वय सहमति क्यों न हो लॉजिक में कोई बुराई भी नहीं हे चाहे तो अपने आस पास ही देख लीजिए की बड़े बड़े फेथ के दावे करने वाले लोग अपनी व्यक्तिगत हित पर आंच आते देखते ही लॉजिक से काम लेने लगते हे हां दूसरे के या दुनिया के हित में ही लॉजिक को भूल जाते हे तो हमें -आपको अपना दुश्मन नहीं समझना चाहिए हम किसी को भी नमाज़ रोजे से मना नहीं कर रहे हे लेकिन लॉजिक वालो को ऐसे ही दर्शाया जाता हे ( स्वार्थी ताकतों दुअरा ) मानो वो इस्लाम के दुश्मन हे ये गलत हे
1. बेमकसद की जिंदगी होती, तो शायद इतना पढ़ने का हौसला, अल्लाह नही देता. मकसद है, इसी वजह से बिना पैसो के यहाँ लिख रहा हूँ. स्वार्थी होता तो तब्लीगी जमात से जुड़ कर, अपनी पावर और पोज़ीशन का बढ़ाता. लेकिन अपने फ़ायदे के लिए, समाज को पीछे रखने का मेरा जमीर गंवारा नही करता. एहसासे कमतरी के शिकार, लोग पढ़े-लिखे लोगो को हाथो हाथ लेते हैं.
2. बार-बार आप “ईमान” शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं, जैसे हम लोग तो इस दुनिया मे बे-ईमान है, और ईमानदार सिर्फ़ आप जैसी सोच के लोग.
3. सिकंदर साहब की जैसी तो मुसीबतो का सामना, अब तक अल्लाह के रहम से मुझे नही करना पड़ा, फिर भी जिंदगी मे स्पिरिचुअल आवश्यकता मुझे पड़ी. कई बार मायूस हुआ, तो अल्लाह से हौसला और मदद माँगी, हर छोटी-बड़ी कामयाबी के बाद, उसका शुक्र अदा करना नही भूला.
दायम साहब, आपने मकसद की बात कही तो इस दुनिया को छोड़ते वक्त, उससे थोड़ा सा ही सही, लेकिन बेहतर बना सकूँ, ये ही मकसद है. अल्लाह से इसका हौसला माँगता हूँ कि जिनको मुझसे कम मिला, उनको कुछ दे सकूँ. यहाँ लिखने के पीछे भी वोही नीयत और मकसद है.
भाई आपकी सोच बहुत अछि हे लेकिन मेने कहा हे थोडा संयम ज़रूरी हे बात सर्फ उतनी सी नहीं होती जितना आप या में सोचते और लिखते थे बल्कि उसके बहुत से और पहलु होते ह में आपको हज़रात अबूबकर सिद्दीक़ का एक क़ोल् बताता हु अपने फरमाया में हर बात ये सोचकर कहता हु के इसके भी ग़लत होने की गुंजाइश है ये खुद को ग़लत समझना नहीं बल्कि बड़प्पन की निशानी हे दूसरी बात ये की अपने कहा आप खुद को इमान वाला और दूसरों को बे ईमान समझते हे ,इ भी नहीं हे हाँ दुआ करे की में ऐसा बन जाऊं इमान का अर्थ अटूट आस्था हे जिसका उल्टा बे-ईमानी नहीं होता इस्ल्ये मेने आपको बेईमान नहीं कहा सिर्फ गुज़ारिश की के तर्क और आस्था के बीच समानता बनाइये किसी एक को दूसरे पर बढ़ोतरी देंगे तो समस्या आएगी इस्लाम में ये शब्द अद्ल (मेयनरवि) के नाम से बहुत आया हे इस्लाम में यही विशेषता हे की ये यह माहि कहता की आप दुन्या के तम्मम रिश्ते नाटो दायित्वों को छोड़कर किसी पर्वत पर तपस्या करके मुझे पा लोग बल्कि समाज के सारे दायित्वों का पूरी ईमानदारी से निर्वाहन करना ही कुल दीन ह जिसमे हमारे पैदाइश से मोत तक सभी क्रियाएँ सम्मलित गए जो अलकः के नियम अनुसार की गई हो …!औ में तर्क का बहुत बड़ा समर्थक हु लेकिन आस्था और तर्क मिलकर ही मेरे ईमान को पूर्ण करते है
जनाब ईमान नही होने का मतलब बे-ईमान ही होता है, और ईमान रखने वाला, ईमानदार. आप बार-बार मुझे ईमान लाने की हिदायत दे रहे हैं, क्या आपको नही लगता कि बिना किसी व्यक्ति को जाने, ऐसी बाते कहना, तमीज़ का तक़ाज़ा नही?
मेरे विवेक से जो की अल्लाह-ताला ने मुझे अता फरमाया है, जो बात मुझे सही लगती है, उसे पूरी सच्चाई से कहने और लिखने की हिम्मत अल्लाह से माँगता हूँ. मुझे लगता है, यही ईमान-दारी होती है. इस ईमान-दारी को मेरा अल्लाह जानता है,
जहाँ तक बात संयम की और ग़लत होने की गुंजाईश की है, तो मैं इसे मानता हूँ, इसी वजह से विचार-विमर्श मे सहिष्णुता और असहमति के बावजूद, बात कहने की आज़ादी का पक्षधर हूँ.
आज जिस संयम की बात आप कह रहे हैं, हम (मुसलमान) लोग उसी संयम, विचारो की विविधता को ही अपना लें, तो क़ौम की स्थिति मे सुधार आ जाए.
मैं आस्था और तर्क दोनो को ही मानता हूँ. दोनो भले ही अलग हो, लेकिन विपरीत नही हो सकते. जो विचार, तर्क और विवेक की कसौटी पे उचित नही लगते, उनपे आस्था भी नही रखी जा सकती.
और अल्लाह ने सही और ग़लत की समझ के लिए, हमे विवेक दिया है.
ज़ाकिर साहिब में डिबेट्स में बहूत ज़्यादा विश्वास नही रखता हु आप जबरन हर बात का जवाव पेश कररहे हो इसे तर्क नही कुतर्क कगत हे दूसरी बात ईमानदारी का उल्टा बे-ईमानी होता हे जो आज समाज में धर्म की टर्म में नहीं लिया जाता ईमान यनि
ब्ली जिसका उल्टा डिस बलीफ होगा डिसओनेस् नहीं,खे में कहूँगा की आप जररसे नोजवानो की क़ोम को ज़रूरत हे आप लोग तर्क को इमान पर हावी मत करे कुकी तर्क को हावी करने से ईमान जाता रहेगा आप हर बात तर्क से सिद्ध नहीं कर पाओगे और इस होने पर आपके दिल में धर्म के प्रति ग़लतफहमियाँ पंपेंगी और नतीजे खतरनाक होंगे इस्ल्ये आख़िरत का ख़ौफ़ रखिये ,,आप बताइये जन्नत और जहन्नम को कैसे तर्क के आधार पर सिद्ध करेंगे क़ुरआन कहता हे गमने इंसानों और जिन्नात को इबादत के कये पेदा किया जिन्नात होते हे कहा से तर्क देंगे !कभी-कभी जब हम किसी विषय पर अपने विचार देते हे तो ये साबित करने के लिए हम बड़े सेक्युलर हे अपने धर्म को ही ग़लत कहने लगते हे बिना उसके संभावित भविष्ये को जाने ये बड़ी अफसोसनाक हालात हे सच बोलने से डरे और धर्म की हर बात अगर कुआं हदीस से साबित हे तो उसपर कभी कोई शक शुबहा न रखें ,,,
आपने सही मुद्दा उठाया हे बिलकुल यही बात हे की बहुत से लोग घबराते हे और सही घबराते हे की इस्लाम के साथ भी वही करने की आशंका रहती हे जो तर्कवादियों नास्तिको ने यूरोप और मगरिब में ईसाइयत के साथ किया सच तो ये हे की मगरिब अगर आज़ादी और तर्क के नशे में ईसाइयत की दुर्गत न करता तो बहुत अच्छा होता वो खुद भी एक अच्छा समाज पाते और इस्लाम में भी उतनी कटटरता ना बढ़ती सही हे आपकी आशंका जायज़ हे मगर आप हम लोगो को गलत समझ रहे हे हम तर्क करते हे दुनियादारी के मसलों पर हम फेथ के मसलों पर तर्क नहीं करते हे क्योंकि फेथ में तर्क होता ही नहीं हे ये तो अलग ही बात हे हमारी तरफ से आप बेफिक्र रहे हम नास्तिकता नहीं फैलाते न ही इस्लाम तो क्या किसी भी अक़ीदे के खिलाफ लिखते हे लेकिन हां अक़ीदों की आड़ में और फेथ की आड़ में दुनिया में अपना हित साध रहे लोगो और उनके चमचो के खिलाफ हम जरूर लिखते हे और आगे बहुत ज़्यादा लिखेंगे इस काम में जान जाने या बड़े से बड़े नुक्सान से भी पीछे नहीं हटेंगे तो इस विषय पर कोई समझौता नहीं होगा बाकी फेथ की तरफ से आप कोई चिंता ही ना करे हमारे तर्कों के तीर का निशाना सिर्फ शोषक लोग हे और कुछ नहीं
सिकंदर भाई, ये जाहिल मौलनाओ की संगत मे रह कर, कंफ्यूज हो गये हैं. या तो इन्होने ईमान की जो परिभाषा, इन कम-अकल लोगो से समझी, उसकी कमी मुझे देखने मे, ये मुझे बे-ईमान कह दें. इनकी दलील है, जनाब आप ईमान से दूर हो गये हैं, लेकिन बे-ईमान नही.
जनाब या तो जिसे ये ईमान कहते है, उसका कोई दूसरा नाम रख दे, या ईमानदार आदमी के लिए दूसरा शब्द धून्ढो, तो बात समझ मे भी आए, वरना कम-अकल मौलानाओ की ही बे-सिर पैर केी भाशा बोलनी है, तो मै ऐसेी चर्चा मे दिल्चस्पेी नहेी लेता. तब्लिगि जमात मे आपको ऐसे लोग मिल जायेन्गे.
हम मुसलमान, इस बात को जानते हैं, कि अल्लाह एक है, जिसका कोई आकार नही है, उसकी इबादत करो, नमाज़ पढ़ो, रोजे करो, हज चल जाओ. ये बहुत सरल सिद्धांत है, लेकिन इस सरलता से मौलानाओ की दुकान बंद हो जाएगी.
तो इस सरल सिद्धांत को बना दो, जटिल. लोगो को डराओ, अल्लाह के नाम से डराओ. ईमानदारी, जिसकी समाज को ज़रूरत है, और लोगो को ईमानदारी का मतलब भी पता है से भटका कर, ईमान को लेके कंफ्यूज़न पैदा करो.
सीधी सरल बातो से दुकाने नही चलती. मेहनत से कतराते हैं. जिन लोगो ने ईमानदारी से अपने पेशे मे मेहनत कर कोई मुकाम हासिल किया हो, लेकिन इन मक्कार और धूर्त लोगो को भाव नही देता हो, उन्हे ईमान से भटका हुआ बता दो. उन्हे सुबह शाम ये कहते रहो, अल्लाह तुम्हे हिदायत दे, तुम ईमानदार तो हो, लेकिन ईमान से भटक गये हो. ऐसा करके, इंसान को अपने चंगुल मे फँसा कर निकम्मा बना दो. निकम्मेपन से ग़रीबी छाएगी, जुर्म बढ़ेगा, हताशा बढ़ेगी, इनका धंधा ज़ोर मारेगा.
इनका धंधा, अफ़ीम का जैसा है. एक बार अफ़ीम खाने के बाद, इंसान को अफ़ीम की लत लग जाती है, फिर वो कुछ समय बाद, फिर अफ़ीम खरीदने के लिए उसी दुकानदार के पास जाता है. कोई अफ़ीम के नशे से जगने के बाद, इनकी बदहाली का सूरते-हाल इन्हे बतलाए, जिसे ये झुठला ना सके, तो फिर जन्नत के ख्वाब दिखा के उन्हे वापस सुला दिया जाता है.
ये अफीमख़ोर, खुद अफ़ीम के नशे मे सोए हुए हैं, और जागते हुए को भटका हुआ बताते हैं.
आज दुर्गति की बाते करे तो मुस्लिम मुमालिको मे ये ज़्यादा है, और इस दुर्गति के लिए इस्लाम की हिफ़ाज़त का दावा करने वालो का ज़्यादा रोल है. मुस्लिम समाज मे मज़हब के नाम पे हिंसा का कोई भी वाक़या उठा के देख लो, उसके पीछे किसी ना किसी धर्मगुरू का हाथ है. गली-मोहल्ले से लेकर, टीवी पे छाए हुए दुनिया भर मे मशहूर आलिमो तक पे दाग लगे हैं.
इसलिए, इस तरह के ईसाइयत की दुर्गति का हवाला देने वालो को, मुस्लिम मुमालिको की असलियत बताना ज़्यादा ज़रूरी है. इस्लाम की जितनी दुर्गति हो रही है, उतनी आज किसी ओर मज़हब की नही हो रही.
मस्जिदो के आबाद होने, नमाज़ या रोजे से इस्लाम आबाद नही होगा, अगर इस्लाम की आड़ मे तकब्बुर बढ़ेगा. ऐसी मस्जिदो की भीड़ को मैं इस्लाम की दुर्गति ही कहूँगा.
जिन अर्थों मे हम ईमानदारी, और बे-ईमान को देखते हैं, ईमान उसी सन्दर्भ मे होना चाहिए, बाकि मज़हब के दुकानदारों ने ईमान की परिभाषा ही संकुचित कर दी, जिसकी वजह से आज दुनिया के मुसलमानो की बदहाली हो रही है, वो ईमान से भटक रहे हैं.
ईमान को लेके मेरे मन मे कोई अंतर-विरोध नही, अंतर्विरोध आपकी बातो मे है, और इसी अंतर्विरोध मे हमारी क़ौम खो चुकी है.
जहाँ तक बात है, पढ़े लिखे लोगो की क़ौम को ज़रूरत की, तो इसमे कोई दो-राय नही, लेकिन हम चाहते हैं कि वो पढ़े-लिखे, लोग क़ौम को उसी अंधेरी सुरंग मे रखे, जिसमे वो पड़ी हुई है. जैसे ही उन्हे कोई रोशनी दिखाता है, वो उसे बे-ईमान कहने लग जाते हैं,
9वी सदी के ये वैज्ञानिक तो अपनी कब्र मे से निकल कर, मज़हब और ईमान को लेके अपने विचार नही रख सकते. लेकिन आज के भी जो चंद बड़े वैज्ञानिक, जो मुस्लिम समाज से निकले हैं, उन्हे भी हम बे-ईमान घोषित कर देते हैं. अब्दुस सलाम, परवेज़ हूद्बोय इसके उदाहरण हैं. ये लोग अंधेरी सुरंग से निकल कर रोशनी की राह पे निकले, तो हम लोगो को रास नही आया.
हम चाहते हैं कि जाहिल मौलानाओ ने हमे जिस आँधी सुरंग मे घुसा दिया है, उसी मे हमे कोई रोशनी दिखा दे. अरब के ये महान वैज्ञानिक भी अब्दुस सलाम की जैसे ही तर्क की रोशन दुनिया की राह पे ही अल्लाह की कृपा से चले थे, लेकिन आप जैसे लोग, इन्हे भी अपनी सुरंग का साथी घोषित करने पे तुले हो.
तारीख गवाह है, कि आपकी सुरंग मे सिर्फ़ अंधेरा ही है. ईमान की ज़रूरत आपको है. बे-ईमानी को ही आज ईमान के नाम से मज़हब के बाजार मे बेचा जा रहा है.
तर्क से ईमान के जाने की बात, उसी अंधेरी सुरंग के द्वारपालो की दलील लगती है. अल्लाह ने इंसान को अच्छे और बुरे मे फ़र्क करने की सलाहियत दी है. ये इंसान पे निर्भर है कि वो इसे निखारता है, या ख़त्म कर देता है.
असल में जाकिर भाई फुल फेथ की दुनिया बहुत आराम और तनावमुक्ति भी देती हे मुझसे बेहतर ये कोई नहीं जानता होगा क्योकि एक तो मेरे जीवन में तनाव का अम्बार दूसरे की न में कोई भी शराब सिगरेट पान तम्बाकू कोफ़ी का ही सेवन करता हु ( टेस्ट भी नहीं किया कभी ) जो तनाव से फोरी राहत देते हे ना ही मेरी कोई भी स्प्रिचुअल गतिविधि रही जो लॉन्ग टर्म राहत देते हे नतीजा मेरा स्ट्रेस हमेशा काबू से बाहर रहा कोई राहत नहीं मेरे लिए , अब होता यही हे की लोग ” जाकिर नायकों ” और दूसरे बाबाओ को तो पसंद करते हे क्योकि वो तनाव से राहत देते हे जो आम इंन्सान के लिए आज की बेहिसाब असमानता जुल्म और समस्याओं की दुनिया में लोगो को पसंद आता हे जबकि हम जैसे टुच्चे , लोगो को तर्क की दुनिया में भी आने की दावत देते हे जो लोगो को ज़हर ही लगती हे सवभाविक ही हे यानि हालात ये हे की पहले मुर्गी आये या अंडा ? , यानि पहले लोग सही हो तब दुनिया बदलेगी न्यायपूर्ण होगी या पहले लोग बदले तब दुनिया बदलेगी ? भेजा फ्राई हे
शराबी, शराब पीके नाले की चौखट पे मस्त पड़ा रहता है, लेकिन उस नशे मे उस मस्ती मे वो धीरे धीरे बर्बाद हो रहा है. यही हालत, आज हमारी क़ौम की हो रही है.
परेशानी और विपदा की स्थिति मे हम हिम्मत नही जुटाते, बल्कि हताश होके, इन लोगो की शरण मे चले जाते हैं.
जबकि हिम्मते मर्दा, मददे खुदा होता है.
दायम साहब, एक और चीज़ पे बार-बार जो दे रहे थे, वो है क़ुरान पढ़ने पे. इंसानो की लिखी किताबे तो पढ़ ली, कभी अल्लाह की लिखी किताब भी पढ़ लो….. वग़ैरह वग़ैरह.
आपको ऐसा क्यूँ लगा कि एक पढ़े लिखे मुसलमान ने अब तक क़ुरान नही पढ़ी होगी? क्या आपको एक भी शिक्षित मुसलमान मिला है, जिसने क़ुरान नही पढ़ी हो? इस्लाम को लेके इतना हो-हल्ला हो रहा है, बहस हो रही है, और गैर-मुस्लिम तक क़ुरान पढ़ कर, उसपे किताबे लिख रहे हैं, तो मुसलमान तो इसे पढ़ ही रहे होंगे.
इसी साइट पे राज हैदराबाद करके व्यक्ति हैं, जो क़ुरान की आयतो का ज़िक्र करता रहता है, और उसपे सवाल भी करता रहता है, जबकि वो क़ुरान पढ़ने के बाद मुसलमान नही बना. दुनिया मे सैकड़ो किताबे, इस्लाम की आलोचना मे कुछ वर्षो मे आई है, वो यक़ीनन, उन किताबो को पढ़ने के बाद ही लिखी गयी. तो ज़रूरी नही कि जिस किताब की आप बात कर रहे हैं, उसको पढ़ने के बाद, सभी लोगो के नज़रिए एक जैसे हो.
ये तो हुई आलोचना करने वालो की बात. बाकि इस्लाम और क़ुरान मे आस्था रखने वाले, विभिन्न फिरके के लोगो मे भी इस किताब को लेके मतभेद है, और वो बहुत खूनी संघर्ष तक का रूप भी कई जगह अख्तयार कर चुके हैं.
तो उस किताब को पढ़ लेने से सभी समस्याओ का हल निकल जाएगा, ऐसी आशा करने को ना-समझी कहा जाए या भोलापन?
और वाकई मे आप चाहते हैं कि क़ुरान को लोग पढ़े, तो इस्लाम पे अपने विचार रखने पे कई लोगो की हत्याए हुई है, उनकी भर्त्सना करे. क्यूंकी उन लोगो ने अपने विचार, उस किताब को पढ़ने के बाद ही रखे, और वो सभी लोग काफिरो के परिवारो से नही आए थे. उनमे से अनेको लोग, मुस्लिम परिवेश मे ही पढ़े-लिखे थे.
अगर वो लोग, क़ुरान नही पढ़ते तो शायद उनकी जान नही जाती. आपने एक शब्द “संयम” का भी प्रयोग किया. क़ुरान पढ़ने की दावत के साथ, हमे उस संयम को खुद का अपनाना पड़ेगा. हम मुसलमानो मे उसी संयम की कमी है.
क्या कुरानेी अल्लह का कोई आकार नहेी है ?
देखे कुरान ३८/७५ जिस्मे दोनो हाथ होने क दावा किया गया है
३९/६७ दाये हाथ मे आस्मान को लपेतने केी बात् कहेी जतेी है
और् कल्पित जहन्नुम मे अल्लह अप्ना “पैर ” दालेन्गे
क्य अब भि उस्को आकार वाला नहेी कहा जायेगा ?
ज़ाकिर साहब आपमे वाक़ई संयम की कमी हे एक बात के ३ ३जवाब एक एक शब्द उठाते हे और उसपर अपकी राय र देते हे मेने कोई इलज़ाम नहीं लगाया आप पर बल्कि का की किसी के दिल में इमान होना या ना होना अल्लाह ही तय कर सकता हम नहीं मेने सिर्फ अपकेलिखने के तरीके पर ताकीद की और फिर कह रहा हूँ की दीनी मसमलात पर लिखते समय जोश से नहीं जोश से काम ले माना अपने क़ुरआन पढ़ा होगा लेकिन लेकिन उसका कोई असर आपके किरदार सेज़ाहिर नहीं होता बेहतर हे कुछ देर रोज़ खुद को दे और सोचे बहस करने से काबिलियत नही बढ़ती तकब्बुर बढ़ता हे हर बात का जवाब लिखना हर नाट का सही जवाब ये ज़रूरी नहीं इस्ल्ये तकब्बुर के बजाए तदब्बुर से आम ले अपने अपने इल्म का बड़ा ज़िक्र किया में भी थोडा बहुत एडुकेटेड हूँ कॉमर्स से पीएचडी हु और अपने शहर के होनहार नोजवानो में से हूँ ये सव अल्लाह का शुक्र हे दुसर बात ये की आप ये पता करेब की ग़ीबत किया हे हर लेख में आप ग़ीबत के अलावा कुछ नहीं लिखते इससे बाज़ आएं मौलानाओ को जाहिल कहना उलेमाओं का मज़ाख़ उड़ाना बंद करदे बुरे लोग सभी जमातों में होते लेकिन सब बुरे हे और जाहिल भी ऐसा नहीं हे में जनता हूँ हम बहत से फिरके हे नहीं होने चाहिए लेकिन उनकी ग़ीबत के बजाए हमें खुद की इस्लाह करनी चाहिए और जमात का अलग २ काम करने के तरीके हे सब ग़लत हे ऐसा नहीं हे में आपको बताडूँ की में एक टीसीगर गन किसी जमात का हिस्सा नहीं हु किसी भी फिरके का हिस्सा नहीं हु कोई पूछे तो कहता हु में मुस्लिम हूँ क़ुरआन को तावीज़ की तरह रखने खिलाफहूँ जिस तरह और मज़हबो के हकदारों ने धार्मिक ग्रंथों से लोगो को दूर रखा ऐसा इस्लाम में होता नही देखना चाहता इस्ल्ये लोगिन को कुआं की तरफ बुलाता हूँ मेरे अज़ीज़ क़ुरआन को किताब की तरह पढोगे तो कुछ हासिल कर पाओगे उसपर ग़ोर फिक्र किया कीजे मे समझता हु जो वाक़ई ग़ोर फ़िक्र करेगा वो एक बेहतर मुस्लिम एक देशभक्त मुस्लिम बनेगा ,,,आप बार बार अब्दुस्सलाम और दीगर वैज्ञानिकों का ज़िक्र करते हे क़ुरआन में इल्म हासिल करना फ़र्ज़ क़रार दिया हे तो वो क्यू कर इल्म के खिलाफ होगा ,,मे ओरबेहस् में नहीं पड़ना चाहता आप खुश रहे अल्लाह आपके दिल को और रोशन करे देशभक्ति क़ोम परस्ती कमज़ोरों के काम आना और तमाम अच्छाइयों का मरकज़ आपके दिल बना दे आमीन
आप जो कहना चाह रहे थे, वो मुझे पता था, बस मज़हब के ठेकेदारो ने जो अंतर्विरोध और कंफ्यूज़न पैदा किया, उसकी ओर मैने ध्यान दिलाया.
संयम की कमी, दुनिया मे सबसे ज़्यादा हमारी क़ौम मे ही है, और इसी वजह से बिना बात को समझे, मज़हब के नाम पे ये कहीं भी पागल भीड़ मे तब्दील हो जाती है. और इस भीड़ को जो मज़हब के ठेकेदार हांकते है, मैने उनकी ओर ही इशारा किया. संयम और सहिष्णुता के पैरोकार, आलिमो की मैने हमेशा तारीफ़ ही की है. इस फोरम मे आप नये आए हैं, अगर आप मेरे कमेंट्स को देखेंगे तो मैने तकब्बुर, पैदा करने वाले तथाकथित मौलनाओ के लिए ही लिखा है.
जी ये आपकी बात सो फ़ीसदी सही हे में आपके ब्लॉग पर बेशक नया हूँ पर आप जेसे बुद्धिजीविओं के संपर्क में सदा रहा हूँ कान्ति आदि पर लेख आते रहते हे में समझता हु पाठकों तक अच्छे विचार पहुंचे चाहे माध्यम मंच हो मीडिया हो या मैगज़ीन में संविधान की एक कॉपी अपने पास रखता हु और उसमे जहर विश्वास भी हे ऐसा इस्ल्ये की लोगो का नाज़रय हमें लेकर ये भी हे की हम क़ानून में कम विशेआस रखते हे और यदि वास्तव में हम अपने संविधान और ख़ास कर अपने अधिकार को जान लेंगे तो हमारी बहुत सारी समस्याएँ समाप्त जाएँगी में आता मौलानाओ से कही ज़्यादा बड़ा रोल हमारी इस हालात के लये उन मुस्लिम राजनेताओं का हे जो खुद बेतुके बयांन देकर हमे कट्टरवादी साबित करते हे य भी ठीक हे की हम्मे से कुछ लोग जज़्बाती होकर इनके पिछलगु बन जाते हे ये शिक्शा की कमी के कारण होता हे ,,हम मादरे वतन ज़िंदाबाद खूब शोख से कहेंगे और इसी को हिंदी में परिवर्तन कर जब भारत माता की जय की आए तो हम इसे शिर्क मानते हैं ,,,,जबकि खुद अल्लाह हमे पांच बार बुलाता और हम उसकी पुकार को अनदेखा कर अपनी जीविका में व्यस्त रहते क्या इससे बड़ा शिर्क भी हो सकता है,,खेर बात लंबी हो गयी सिकंदर साहब और आप दोनों ही बेहतरीन कामो में व्यस्त हे मेरी राय आप लोगों के लिए ग़लत नहीं हो सकती और यदी मेरी किसी बात से आपको दुःख पहुचा हो तो में माफी चाहूँगा
अरे साहब माफ़ी की कोई बात ही नहीं हे सच तो ये हे की आप भी भलाई ही चाहते हे और हम भी बस तरीके अलग अलग हे हमें टकराव के मुद्दे टालने चाहिए और सहमति के बिंदु तलाशने चाहिए और सहमति के बिंदु बातचीत से ही निकलते हे और इंटरनेट इसका ही बेहतरीन माध्यम हे मगर अफ़सोस इसका गलत इस्तेमाल भी खूब हो रहा हे इस पर हिन्दू मुस्लिम कटटरपंथी छाय हुए हे कारण उनको मिलनी वाली फंडिंग ही हे मगर हमसे कुछ मतभेद होते हुए भी सच तो ये हे की आप कटरपंथी हो ही नहीं , क्योकि कटटरपंथी उतनी लम्बी बहस कर ही नहीं पाते हे जितनी आपने की हे कटरपंथी तो थोड़ी ही देर में फैसला फ़तवा सुनाकर निकल जाते हे मगर आप ने लम्बी बात बहस – अच्छी की हे शुक्रिया
मुझे बहुत खुशी हुई कि दायम साहब, आप बहुत पढ़े लिखे व्यक्ति हैं. हमारी क़ौम मे पढ़े-लिखे लोगो की बहुत कमी है. आपके, हमारे विचारो मे मतभेद हो सकता है, लेकिन मकसद एक है. नज़रिया अलग है.
khabarkikhabar.com पे विभिन्न नज़रियो पे बेबाक बात होती है, इस फोरम की खास बात, इसके लेख नही बल्कि पाठको की सक्रियता है, जो विविधतापूर्ण बाते रखते हैं.
सिकंदर भाई और मैने एक दूसरे के विचारो को कई बार सराहा, तो कई बार बेबाकी से बहस भी की. फाहिम साहब ने फरमाया था कि हम दूसरे मज़हब के लोगो की तारीफ़ के चक्कर मे आत्म-मंथन करते हैं तो हिंदू कट्टरपंथियो से भी हमारी जम कर बहस हुई है.
बेबाकी से ही, एक दूसरे की साईकी समझी जा सकती है.
http://khabarkikhabar.com/archives/1269
संयम, प्रेम, सत्य यही तो हर मज़हब की बुनियाद है. अगर ये नही तो दुनिया की कोई भी किताब पढ़ लो, कोई भला नही होने वाला. मिसाल के तौर पे हाफ़िज़ सईद. हाफ़िज का मतलब, आप जानते ही हैं, जिसे क़ुरान कंठस्थ हो, जेबिबा का निशान सर पे लिए घूमता है, और आतंकवाद फैला रहा है. अल-कायदा, लश्कर-ए-झींघवी के उदाहरण है.
इस्लामाबाद की लाल-मस्जिद का मौलवी अब्दुल अज़ीज, पेशावर के क्रूर हमले के बाद भी, उन बच्चो को शहीद मानने से इनकार करता है, बल्कि तालिबान से सहानुभूति दिखाते हुए, इसे स्वाभाविक कार्यवाही बताता है.
मुमताज़ क़ादिर, जिसे आतंकवाद के लिए गठित विशेष कोर्ट से फाँसी की सज़ा सुनाई जाती है, को वहाँ के अधिकांश (अधिकांश ज़ोर दे के रहा हूँ) धार्मिक संगठनो ने शहीद घोषित कर दिया. ये तमाम लोग, क़ुरान को पढ़े थे, गौर से पढ़े थे. क़ुरान मे आस्था भी रखते हैं. उससे बेहतर, ये राज हैदराबाद, राजिब हैदर जैसे लोग हैं, जो क़ुरान पढ़ कर, भले ही उसकी आलोचना करे, लेकिन मुहब्बत और आपसी भाईचारे को महत्वपूर्ण सामाजिक मूल्य मानते हैं.
जाकिर नायक, मुर्तिद को एक गद्दार की तरह मान कर, उसको मार दिए जाने की वकालत करते हैं. उस आधार पे तो हर नये मुसलमान को, हिंदू, ईसाइयो को मार देना चाहिए, लेकिन वो ऐसा नही करते.
जनाब, कम-अकल, जाहिल मौलाना, बाजार मे छाए हुए हैं, ये अपवाद नही.
किताब पढ़ने का ऐसा है.
“पोथी पढ़ पढ़ जग भया, कोई ना पंडित होये. ढाई आखर, प्रेम का पढ़े जो पंडित होये”
लोगो की जाने जा रही है, जो लोग नफ़रत फैला रहे हैं, उनके विचारो की आलोचना, आपको मेरे संयम से दूर नज़र आई. और जो लोग, मज़हब को लेके लोगो की जान ले रहे हैं, या उनको हीरो मान रहे हैं, उनका क्या?
क्या आपको पता है, आतंकी मुमताज़ क़ादरी के जनाज़े मे 7 लाख से अधिक लोगो ने शिरकत करी? सच से मुँह फेर लीजिए.
और प्रेम, मुहब्बत, भाईचारे की बात करने वालो को अल्लाह की हिदायत देते रहिए.
मौलाना वहिउद्दिन, असग़र अली इंजीनियर, जावेद अहमद घामिदि, और भी अनेको आलिमो की मैने इसी फोरम पे अनेको बार तारीफ़ की है. मैने सिर्फ़ तकब्बुर, जिसका आपने ज़िक्र किया, उसी को फैलाने वाले लोगो की आलोचना की.
और मेरे लिए तो हर सच्चा और नेक व्यक्ति, ईमान वाला है.
जैसा की दायम साहब ने कहा कि अन्य मज़हब के लोग, धार्मिक ग्रंथो से दूर हो गये हैं, ऐसा क़ुरान या इस्लाम के साथ नही होने देंगे, तो अच्छी बात है.
क़ुरान और इस्लाम को लेके हाल के वर्षो मे बहुत बाते हुई है, लेकिन ऐसी प्रसिद्धि भी क्या, जिसमे नकारात्मकता भी हो. ये नकारात्मक बाते जब मीडिया मे आती है, तो हमारे समाज के ही कई तथाकथित आलिम, मौलाना अपने स्टेट्समेंट्स से उसको सही भी साबित करने लग जाते हैं.
आपने, राजनेताओ को दोष दिया, लेकिन मुझे लगता है, राजनेता से ज़्यादा हमारे मुल्ला, ज़िम्मेदार है. मैने जितने भी हाल के वर्षो के कमेंट्स और घटनाओ को ज़िक्र किया है, ये सब के सब कठमुल्लाओं के द्वारा निर्देशित थे.
वैसे भी हमारी क़ौम, सियासतदनों से ज़्यादा तथाकथित मौलानाओ या आलिमो के ज़्यादा प्रभाव मे है. और मुस्लिम देशो मे तो सियासत और मज़हब मिले हुए हैं, वहाँ तो इनमे अंतर करना भी सही नही.
रोशन ख़याल मुस्लिम विद्वानों की मैने बहुत तारीफ की है. लेकिन मेरा मानना है कि मुस्लिम धर्म-गुरुओं की अक्सरीयत, संकीर्ण सोच रखती है, और समाज मे फैलाती है.
और इन धर्म-गुरुओं से ज़्यादा दोषी, आवाम है, जो इन्हे तवज्जो देती है.
किसी किताब को ईश्वर की लिखी किताब और आख़िरात को ही जीवन का उद्देश्य मान लेने के बाद बहस की कोई गुंजाइश भी बचती है क्या ? वह दोनों अर्थों में वक्त की बर्बादी ही हुई ! सिकंदर साहब डांवाडोल मत होइए केवल सेकुलर होने से ये साबित नहीं होता की आप धार्मिक मिथकों ,ईश्वरीय किताब या अवतारो जैसी बकवास पे यकीं नहीं करते ! मैं भी नास्तिक नहीं हूँ लेकिन मेरी आस्तिकता किसी किताब की बूत की या काल्पनिक अदृश्य ईश्वर की भी मोहताज नहीं ! मैं ईश्वर को किसी के द्वारा किये नामकरण से पुकारने के लिए खुद को बाध्य नहीं समझता ! इस मामले में आप या तो इस पार रह सकते हो या उस पार ! आप चाहें तो बेशक आपके साथ मैं भी कुरआन को सर्वश्रेष्ठ कहूँ लेकिन पहले आप कुरआन के लिए उस मान्यता पर अपना रुख स्पष्ट करने की हिम्मत दिखाए जो ये कहती है ये अल्लाह द्वारा ,ने खुद लिखी या लिखवाई किताब है ,इसीलिए इसके किसी भी बात की समीक्षा या आलोचना की इजाजत नहीं ! इसपर आपके क्या स्पष्ट विचार है यह आप शुरू में ही साफ़ कर दें तो वास्तव सब के वक्त की बर्बादी बचेगी !
सचिन साहब, असल मैं बात ऐसी है कि सिकंदर साहब ने जिंदगी मे बहुत थपेड़े खाए हैं, सोच के स्तर मे भी इनमे बहुत परिवर्तन आए हैं. मुस्लिम समाज के हर वर्ग को बहुत करीब से देखा है, इसलिए ये एक आम मुसलमान की साईकी को बहुत अच्छे से जानते हैं. एक मुसलमान, इस्लाम मे क्यूँ आस्था रखता है, अपनी आस्था का मूल्यांकन करने मे उसके क्या अवरोध है, ये इन्हे पता है.
इन्हे एक आम मुसलमान के बौद्धिक स्तर का भी पता है. अगर आप इस्लाम पे सीधा प्रश्न करोगे तो एक आम मुसलमान आपकी बात सुनेगा ही नही. लेकिन आम मुसलमान, अमन, तरक्की, तालीम, स्वास्थ्य, रोज़गार चाहता है.
लेकिन इन सब मसलो मे उसकी कुछ मज़हबी ज़ज्बात आड़े आ रहे हैं, उसे वो नही स्वीकरेगा. बल्कि मज़हब से दूरी, या अन्य समुदायो की मुस्लिमो से नफ़रत को साजिशो को इसका कारण मानेगा. इस विषय पे विविधता पूर्ण चर्चा के रास्ते खोलने की कोशिश की जा सकती है, लेकिन नब्ज़ पढ़नी आनी होगी.
इनका ऐसा मानना है कि मुस्लिम समुदाय ऐसी स्थिति मे तो पहुँच सकता है, जहाँ वो नमाज़, रोजे, हज, ज़कात और वो तमाम रवायते, जो अन्य समुदाय से टकराव का कारण नही बनती, और आख़िरत मे सफलता की भी न्यूनतम दरकार पूरी कर देती है पे ही सिमट जाए.
क्यूंकी इस जिंदगी के बाद की जिंदगी के जो खौफनाक वाकये और किस्से, मज़हबी किताबो मे बयान है, उस डर पे विजय प्राप्त करना, एक आम व्यक्ति के लिए संभव नही. बुद्धिजीवी व्यक्ति की बात नही हो रही, लेकिन आम इंसान के जीवन मे कठिन समय आता है, और उसके लिए, वो मज़हब की शरण मे जाता ही है.
सिकंदर साहब, विन/ विन स्थिति की तलाश मे रहते हैं, जहाँ कम से कम टकराव मे अधिकतम सहमति ढूंढी जा सके. हालाँकि मैं इस तरीके को सबसे सटीक समाधान नही मानता, लेकिन ये पूरी तरह अप्रभावी हो ऐसा भी नही.
मैं जानता हूँ जाकिर साहब ! लेकिन मसला सर्फ धर्म का होता तो मुझे भी ये विन विन बहुत सुहाता ! लेकिन बात श्रद्धा और अंधश्रद्धा की है जिससे हो रहे व्यक्तिगत नुकसान तो बहुत बड़े और घिनौने होने के बावजूद भी सामने नहीं आते लेकिन सामजिक नुकसान आज सारी दुनिया भुगत रही है ! और हमारी और आपकी बदनसीबी से ये सिर्फ और सिर्फ धर्म से जुड़े हैं ! जो बेशक ईश्वर को माने ,उसकी लिखी किताब को माने ! किसी को कोई एतराज नहीं होगा लेकिन इतिहास, वर्तमान गवाह है की रंजिश न मानने वाली बात से शुरू होती है ! और ऐसे में कोई बहस होती है तो उसका मतलब ही यही होता है की बहस में शरीक होने वाला बहस की पहली शर्त ,की यह विषय बहस के लायक है, यह स्वीकारता है ! फिर भले ही वह बाद में कुछ भी साबित कर दे ! साबित होने पर सबको मानना पड़ेगा ! लेकिन जो किसी को समीक्षा से परे ही रखना चाहेगा तो स्पष्ट है की वह अंधानुकरण का समर्थक है और अंधश्रद्धा इसीका दूसरा नाम है ! लेकिन मैं सिकंदर जी को जितना जानता हूँ इतनी दूर भीं नहीं ले जा कर भी नहीं देख रहा था ! बस गलती इतनी होगई की कल ये सवाल कोई उनसे पूछता उससे पहले मैंने पूछ लिया ! और उस वक्त पूछने वाले को वो क्या समझते यह बताकर उन्होंने भी स्वयं के लिए बहुत कुछ स्पष्टं कर दिया ! जो मुसलमानो में तो कम से कम उनके आपके बताये उद्देश्यों के लिए काफी सहूलियत पैदा कर देगा ! वैसे ऐसी कसरत करने वालों का दूसरा नाम संत भीं होता है !
मेरी खुद की बात अलग हे में एक ऐसा इंसान हु जिसकी ना कोई इमोशनल नीड हे मेरी ना कोई आध्यत्मिक प्यास हे में मानसिक शारीरिक रूप से बहुत मज़बूत हु अच्छा जो में बता रहा हु ऐसे लोग आमतौर पर बुरे होते हे पर में बुरा भी नहीं हु तो में एक अलग ही करेक्टर सा हु में ऐसा खुद नहीं बना बल्कि मेरे हालात ने बनाया हे इतफाक़ ऐसा हुआ की मेने बहुत सहा बहुत पढ़ा जो पढ़ते हे वो सहते नहीं हे जो सहते हे वो पढ़ते नहीं हे तो में अपने से दूसरों को नहीं तौल सकता हु बाकी दुनिया की , मुसलमानो की बात और मिजाज मुझसे अलग होगा ही . में एक बात पर अडिग रहूँगा की ना में इस्लाम या किसी भी मज़हब का कभी भी प्रचार करूँगा ना उसके खिलाफ बोलूंगा और एक बात मुझे अच्छे से पता हे की चाहे जितने कोशिश कर लो मुसलमान तो कुरान और नबी पर ईमान रखेगा ही चाहे उसके नतीजे दुनिया में कुछ भी हो अगर आप चाह रहे हे की किन्तु परन्तु कैसे भी करके हम इस्लाम की जड़ पर हमला करे तो वो में नहीं करूँगा आप जो चाहे करे आपकी मर्जी आपको तो सुविधा हे की जो चाहे मानो जो चाहे छोड़ो जो चाहो वो करो मगर वो सुविधा इस्लाम में तो कभी भी नहीं मिलेगी और इस सुविधा के बिना भी हम कटट्रपन्तियो से लड़ने उन्हें कमजोर करने उन्हें हारने का पूरा इरादा और संकल्प रखते हे मगर वैसे नहीं हो पाएगा जो आप चाह रहे हे सचिन जी लिख्ते हे ”बेशक आपके साथ मैं भी कुरआन को सर्वश्रेष्ठ कहूँ लेकिन पहले आप कुरआन के लिए उस मान्यता पर अपना रुख स्पष्ट करने की हिम्मत दिखाए जो ये कहती है ये अल्लाह द्वारा ,ने खुद लिखी या लिखवाई किताब है , ” सचिन जी या तो ईश्वर हे या तो नहीं हे अगर ईश्वर हे तो हर धार्मिक मान्यता सही भी हो सकती हे अगर ईश्वर नहीं हे तो बस बात ही खत्म में दोनों ही मान्यताओं ( हे , नहीं हे ) में ईश्वर धर्म और धार्मिक मुद्दों पर चलने वाली अंतहीन बहस खत्म होती हे हां इंसान का अच्छा बुरा होना धार्मिक अधार्मिक अतिधर्मिक न्यूनतम धार्मिक किसी में कन्फर्म नहीं हे
आपको इतनी सफाई देनी पड रही है ,और आजकल हर जगह कुछ ज्यादा ही देनी पड रही है !! इसीलिए मेरा स्पष्ट और सीधा सा सवाल था और वह भी ईश्वर के लिए नहीं सिर्फ उसकी लिखी किताबो पर यह आप मुझे एक अरसे से जानने के बावजूद नही समझ पाये और मुझे भी आपको इस्लाम के मूल से हिलाने वाले आदि कहने लगे और गाहे बगाहे मेरे बहाने मेरे धर्म पर ताने पढकर मैं भी हैरत में हूँ !
भाई !! धर्म फिर वो कोई सा भी वो चीज ही नहीं जिसकी जड़ें हिल सके ! हम आप किस खेत की मूली हैं भाई खुद एक धर्म भी दूसरे धर्म की जड़ें नहीं हिला सकता ! वर्ना आज दुनिया में सिर्फ एक ही धर्म होता , न किसी को प्रचार करना पड़ता न किसी किताब पर कोई डिबेट होता ! लेकिन ऐसा नहीं है यह आप भी देख ही रहे हो ,जिस धर्म का कोई प्रचार नहीं करता कोई धर्मान्तरण करवाने नहीं निकलता वो छोटा से छोटा धर्म भीं आज अपने अस्तित्व की जड़ें जमाये हुवे है ! मेरा सवाल न धर्म पर था न ईश्वर पर ,और न ही मुझे किसी धर्म ग्रन्थ को कम आंकना है ! मेरा सीधा सवाल समीक्षा से जुड़ा था की आपकी नजर में कुरआन इस दायरे में आता है या नहीं !!! ? बस ! इसके जवाब के बात बाकी बातें आती ! लेकिन ..
भला कहा विन विन सिचवेशन हे हमारे लिए तो दोनों तरफ से घिन घिन सिचवेशन हे मुझे तो ताजुब हे की अब तो हिंदी में तो इतने सेकुलर मुस्लिम लेखक हे नेट पर , पर किसी ने भी किसी उत्पीड़न की बात कभी नहीं की और इधर उर्दू के सबसे बड़े पत्रकार बताय जाने वाले अजीज बरनी के अखबार में सिर्फ मुझे ही निशाना बनाया गया था ? एक कटट्रपांथि मुस्लिम ब्लॉगर जो सारे इस्लाम विरोधी हिन्दू पाठको को प्यारे भाई प्यारे भाई कहते फिरते थे उन्होंने ने कैसे निशाना लगाकर खास मेरी ही ” पीठ पर छुरा ” सा घौपा था शायद आप भी साक्षी थे तब सचिन भाई और इतने मोदी भक्त हिन्दू कटरपंथी हे नेट पर भरे पड़े हे आज तक किसी ने हमारी तारीफ नहीं की सबने भला बुरा ही कहा सिर्फ ये कैसा विन विन हे ? खेर सचिन भाई मेने आपके धर्म पर ताना नहीं मारा हे इस्लाम और हिंदुत्व दो बिलकुल विपरीत प्रकार के धर्म तो हे ही इसमें क्या शक हे ? मेने पहले ही बता दिया था की ना कभी किसी धर्म का प्रचार करूँगा ना विरोध कारण ये हे की जीवन पहले ही बहुत कठिन और समस्याओं के अम्बार से भरा हे हे मुझे अपनी एनर्जी और कामो के लिए बचानी हे ना की प्रचार या विरोध में और बात कुरान की समीक्षा की नहीं सही और समयानुकूल व्याख्या की हे जो वहीदुद्दीन खान साहब से लेकर जावेद घमदी आदि करते ही रहते हे और इस्लाम के साथ किसी के भी मतभेद कुरान को लेकर नहीं हे बल्कि मतभेद शरीयत में हे और शरीयत कुरान पर ही नहीं हदीसो से भी बनती हे लेकिन सभी हदीसो की मान्यता नहीं हे अब तारिक फ़तेह जैसे लोग कहते हे की आई एस सभी कुछ वही तो कर रहा हे जो मुल्लाओ की बनाई शरीयत में हे तो शरीयत जरूर समीक्षा का विषय हे और उस पर बात होती भी हे http://visfot.com/index.php/current-affairs/11739-allah-nahi-mullah-ka-kanoon-hai-muslim-personal-law.html ———— जारी
मेरा कज़िन लंदन में हे यूरोप काफी घूमता हे वो खुद ना के बराबर मज़हबी हे अब उसकी ही रिपोर्ट हे की भाई गोरे वैसे तो बहुत अच्छे हे बहुत अच्छे मगर अब वो बस मस्त जीना चाहते हे परिवार बच्चे पालने से बहुत बच रहे हे मगर अब भी वो बहुत लोग हे जो शान्ति से परिवार बना और चला रहे हे मेरा कज़िन कहता हे की में हैरान हु की वो सारे के सारे पक्के कैथोलिक और पक्के ईसाई ही हे पारसी समाज आज मिटने के कगार पर खड़ा हे उनका खरबो रुपया भी उन्हें बचा नहीं पा रहा हे क्योंकि पारसी आस्था खत्म हो चुकी हे और सनस्कर्ति उन्होंने मग़रिबी बहुत पहले ही अपना ली थी तो भाई हम मुस्लिम समाज को आधुनिक बनना चाहते हे लेकिन जैसा की सब जानते ही हे की आधुनिक होना मतलब मग़रिबी होना अब जो हालात मगरिब में हे उन्हें तो उनका पैसा और कम आबादी होना बचा ही लेगा मगर बाकी दुनिया जहां ना कोई खास पैसा हे और आबादी फिलहाल तो बहुत अधिक हे तो उन्हें आधुनिकता के साइड इफेक्ट से कौन बचाएगा ? जाहिर हे की आस्था बचाएगी तो भाई बहुत बाते सोच कर चलनी पड़ता हे —– जारी
हा हा हा हा ! ठीक है ठीक है सिकंदर भाई ! अब और विवाद में नहीं जाऊँगा !
विवादों में पढ़िये खूब पढ़िये ” पेड़ ” के पत्तो फसल उसके फैलाव पतझड़ बहार आदि पर बात कीजिये मगर जड़ पर ही कुल्हाड़ी चलाने की ज़िद मत कीजिये आप मानते हे की जड़ पर हमला होगा तो पेड़ गिरेगा फिर चारो तरफ पत्तो से गंदगी नहीं होंगी खुला खुला लगेगा पेड़ पर बैठे बन्दर भी भाग जाएंगे जबकि में मानता हु की पेड़ अगर गिर गया तो बड़ी तेज़ धुप में सब झुलस जाएंगे इससे तो अच्छा हे की हम गंदगी साफ़ करे और बंदरों से लड़े उन्हें भगाय
सचिन साहब, आप जिस बेबाकी की बात कर रहे हैं, वो मुस्लिम समुदाय के भीतर शुरू नही हुई है, ऐसी बात नही है. इस वीडियो को देखिए.
https://www.youtube.com/watch?v=4nEvMwEGPW4
ये बहस मुस्लिम बहुल मिस्र के टीवी स्टूडियो मे हो रही है. क्या आज के 10 साल पहले, कोई इस विषय पे इस मुखरता की उम्मीद कर सकता था.
हिंदू समाज की कुरीतियों को भी समाज से हटाने मे सैकड़ो वर्ष लगे. कुरितियो के समर्थन मे भी धार्मिक ग्रंथों का हवाला दिया गया, और उन ग्रंथो और किताबों को भी ईश्वरीय संदेश ही माना गया.
अब भले ही आस्तिक लोग, क़ुरान को ईश्वर की किताब कहते रहे, लेकिन तर्कवादियो के सवाल लगातार बढ़ेंगे, आज़ाद सोच को दबाना, अब इतना आसान नही होगा.
आज हन्नान साहब, हो या दायम साहब, या शादाब या कोई ओर. जब हिंसा और नफ़रत के नंगे नाच और आग की लपटे, इनके दामन को भी छुएगी, और ये जाँएंगे की, ये क्रूर लोग, अमेरिका या इजरायल के पिट्ठू नही है, हमारे समाज के भीतर के लोग हैं, तो सवाल ये भी उठाएँगे, नज़रिया इनका भी बदलेगा. परलोक की मनोहर कहानियाँ या रूह कंपा देने वाली जहन्नुम की आग के फसाने भी, सोचने से इन्हे नही रोक पाएँगे.
फिर नई नस्ले भी आती है, पुरानी नस्लो की सोच के साथ, अपने तजुर्बे से नई सोच लाती है. अब तक सवाल, तलवार के दम पे उठने से रुके हुए थे. इंटरनेट के दौर मे कब तक रुकेंगे.
https://www.youtube.com/watch?v=4y5a7VJhrZA
ये नीचे वाला लिंक लो, ये तो सौदी अरब के टीवी शो का है.
https://www.youtube.com/watch?v=ceGqB4raTZo
इस मुखरता के बीच, हसन निसार, जावेद घामिदि, वहिउद्दिन ख़ान, नज़म सेठी, परवेज़ हूदभोय की शैली भी अलग तरीके से जागरूकता लाने की कोशिश करती है.
मकसद, सोचने के लिए प्रेरित करना है. सोचने मे क्या अवरोध है, इसको समझना ज़रूरी है. लोगो की साईकी को समझे बिना, उन्हे समझाया नही जा सकता.
क्या आप 5 साल के बच्चे से बहुत तर्क की उम्मीद कर सकते हैं. तर्कवाद की दलील के साथ हम देखे क़ि समाज का आई क्यू लेवल क्या है?
इसमें कोई शक नहीं हे जो आपने कहा . लेकिन इस्लामिक आस्था की जड़े बेहद गहरी हे मुझे नहीं लगता की इसकी जड़ो पर हमले से कोई फायदा होने वाला हे उल्टा ही परिणाम आएगा अंत में युद्ध विराम ही सबको कबूल करना होगा ना कठमुल्लाओं और ना ही उनके खुले और छुपे समर्थकों की सारी दुनिया में इस्लाम फैलाने की खफ्त कभी पूरी होगी और ना ही इस्लाम कभी भी ईसाइयत वाली नियति कबूल करेगा आख़िरकार सबको सहअस्तित्व पर ही आना होगा और इसकी शुरुआत भारत ही होगी इस्लाम और हिंदुत्व दो बिलकुल विपरीत आस्थाय हे उपमहाद्वीप में अगर हम कही एक शहर में भी हिन्दू मुस्लिम शुद्ध सहअस्तित्व ( शुद्ध सहअस्तित्व यानि कोई दंगा पंगा कहासुनी नहीं ) करवा पाये तो यही से एक बहुत बड़ी क्रांति की शुरुआत होगी हमारे लेखन और दूसरी गतिविधियों का मकसद भी यही होना चाहिए
सिकंदर भाई ! हिंदुओं में भी जिसे श्रद्धा कहा जाता है उसकी भी पहली शर्त यह होती है की वह तर्कों से सर्वथा तलाकशुदा हो ! लेकिन जहाँ साईं को मानने की बात आती है तब यही श्रद्धावादि उसे न मानने के तर्क देने लग जाते हैं ! इसीलिए मैं कभी उनका तरफदार हो ही नहीं सकता जहाँ श्रद्धावादियों के लिए भी पक्षपात के साथ ही सही लेकिन श्रद्धा भी तर्क पर आश्रित हो वहां हम बुद्धिजीवियों के लिए न होने का तो सवाल ही नहीं उठता ! फिर जब हम उन्हें पक्षपाती कहेंगे तब किसी अन्य मजहब की किसी बात को तर्क से अलग रखकर क्या हम भी पक्षपाती नहीं कहलायेंगे ?
यही बात आजकल हिन्दू तृप्ति देसाई के महिलाओं के मंदिर प्रवेश के लिए उठा रहे हैं और देसाई मैडम ने अब हाजी अली का रुख किया ! इसमें पहले हिंदुओं की बात कर लूँ जो ऐसी बातों को मुस्लिमों के यहाँ भी ऐसा करवा दो इस जिद पर स्वीकारने को तो कम से कम तैयार हो जाते हैं ! फिर भले ही इसमें वह धर्म की अडिग परम्पराओं की बली चढाने के साथ साथ खुद के धर्म सुधार को मुसलमानो के पैमाने पर अपनाने का इल्जाम भी अपना लेते हैं !
लेकिन मजारो को लेकर मुसलमानो में भी साईं जैसी ही स्थिति होने के बावजूद मुसलमान देसाई का विरोध करने क्यों जमा हो जाते हैं ? फिर कैसे माना जाय की मुसलमान कुरआन से बाहर कुछ नहीं सोचते ,करते या मानते ?? खैर इसके लिए तो शिया सुन्नी का उदाहरण ही काफी है लेकिन जब एक आम मुसलमान के कुरआन पर ईमान अपनी सहूलियत के हिसाब से होने पर किसी मुसलमान को ऐतराज नहीं तो आप जैसे बुद्धिजीवी को एक समाजहित कारी सवाल पर अपनी अडिग स्थिति भी स्पष्ट करने में इतनी झिझक क्यों है सिकंदर भाई ? क्या इसे आपका अपने हम मजहाबियों से अलग पड़ जाने का डर समझूँ ? डूबती नांव में छेद नहीं है इस को मानकर कैसे कोई खुद को भी बचा सकता है ! औरों की बात तो बाद की है !!!
मसला तो यही हे की जिन लोगो का तर्कों से तलाक नहीं हे उन्होंने ही क्या इंसानियत के झंडे गाड़ दिए हे ? राजेंद्र यादव कितने बड़े तर्कवादी थे उन्होंने मन्नू जी का कितना मानसिक शोषण किया ठीक किसी कठमुल्ला की तरह , तरुण तेजपाल ईश्वर को झुनझुना कहता हे वो कितना बड़ा फ्राड निकला तर्कवादी चीन के शासक कटट्रपन्ति पाकिस्तान को पालते हे ताकि लोकतान्त्रिक भारत के नाक में दम रहे और चीन में लोकतंत्र का दबाव ना बढे आधा वेस्ट अब फेथ छोड़कर तर्कवादी हो चूका हे फिर भी वेस्ट की ये विशाल आबादी अपनी सरकारों से नहीं कहती की कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग घोषित करे ताकि मुस्लिम कतरपन्तियो की शिकस्त हो नहीं बल्कि वो दोनों पार्टियों को हथियार बेचते हे तो भाई इंसान बड़ा जटिल प्राणी हे और ऐसे कोई सबूत नहीं मिलते हे की नास्तिक या गेर धार्मिक या शुद्ध तर्कवादी होने पर वो कोई बेहतर इंसान हो जाता हे
सिकंदर भाई ,ऐसे तो आपके पहले कॉमेंट में आस्था की समाज में जरुरत को लेकर धार्मिक मान्यताओ को मानने की मज़बूरी का इजहार मेरे लिए काफी था और इसीलिए ज्यादा न कुरेदते हुवे मैंने बात वहीँ खत्म करना उचित समझा था लेकिन फिर आप घूम जाओ कर के सीधे तर्कवादियों पर ही निशाना साध कर और इस्लाम की जड़ की पैरवी करते हुवे फिर अपने आप को किसी शिर्क से बचाते प्रतीत होने लगे ! ? माना की लोग हमें पढ़ते हैं ! लेकिन सवाल यह है की क्या हम सिर्फ उनके लिए लिखते हैं ?
अब आप जड़ की बात कर ही रहे हो तो मैं आपको बता दूँ की ठीक यही गलती हर धर्म को लिखने में ,बनाने में हुई है ! वर्ना आज धर्मों का ये हाल न होता !
तर्कवादी कभी किसी धर्म या ईश्वर की तरह सब को सिर्फ फायदा पहुंचाने का दावा नहीं करता ,और न ही धर्म और ईश्वर की तरह ये उसकी स्वयं घोषित जिम्मेदारी है ! इसीलिए तर्कवादियों को ही ईश्वर तुल्य बनाने की या फिर उनसे ये गलत है तो दूसरा सही ईश्वर मांगने या फिर ऐसी अपेक्षा रखने की स्वाभाविक धारा में बहकर हम भी कहीं न कहीं जो जैसा है वैसा ही स्वीकारने की इंसानी बेबसी का समर्थन करने लग जाएंगे जो विज्ञान की प्रगति तो छोड़िये जन्म तक के लिए बाधक रही ! बेशक आप इस बेबसी को चाहे जो समझ कर स्वीकारिये लेकिन उसके लिए तार्किकता पर सवालिया निशाँ उन सभी लोगों को नाकारा ठहरा देंगे जिन्होंने केवल और केवल तर्क से इंसान को न जाने कितने वर्षों की जानवरों सी जिंदगी से निजात दिलाकर आज के जीवन तक पहुंचाया ! और जाहिर है की इससे भी बेहतर के सफ़र में यह तो देखा जाएगा ही की अब तक के सफ़र में क्या बेहतर रहा ! और नतीजा कभी साबित नहीं करना पड़ता !!
वो तर्क ही होता है जो सबसे पहले जरुरत को पहचानता है इसीलिए वो स्वीकारता भी है ! और इसीलिए उसने श्रद्धा और आस्था की जरुरत को नहीं नकारा लेकिन जहाँ वो जरुरत से ज्यादा होकर तर्क पर हावी होने लगी की वो उसकी औकात दिखाने में नहीं चुकता और उसके बिना भी सफल होकर दिखाता है ! और मैं यह सिर्फ भौतिक सफलता और जीवन की बात नहीं कर रहा बल्कि उस जीवन की बात कर रहा हूँ जिसे धर्मो ने आख़िरात से सदा कम आंकने के बावजूद अंत में आख़िरात के हर अंजाम के लिए जीवन को ही आधार माना ! सीधी सी बात थी ! अगर इंसानी दिमाग और जीवन आख़िरात के अच्छे अंजाम के लिए इतना बड़ा रोड़ा होता तो पैदा होते ही तुरंत बेदाग़ रहकर मरना या मारना क्या बुरा होता ? लेकिन कोई भी धर्म ये सलाह नहीं देता ! बावजूद इसके अब यह बात अलग है की आजकल फिर से कुछ लोग यही कर रहे हैं ! और पहले भी कर चुके हैं !
लेकिन कुल मिलाकर आख़िरात के लिए ही सही जीवन का महत्व कम तो नहीं हो जाता !! फिर इस जीवन को स्वस्थ रखकर जितना बढ़ाओगे उतना अआख़िरत के लिए ज्यादा अच्छा कार्य कर पाने में कौन अहम् भूमिका निभाता है ? तर्क ,विज्ञान ,तर्कशुद्ध आस्था या अतार्किक अडिगता, अवैज्ञानिक मान्यता और अंधश्रद्धा ? मेरे संगीत के गुरुं कनवर्टेड ईसाई है और उन्हें यह सिखाया गया की जब तर्कों में हारने लगो तो यह समझ कर अपना दिमाग बंद कर लो की सामने वाला तुम्हारा ईमान हटा रहा है ! और ईश्वर ने कहा है की ऐसे लोग भी मिलेंगे तो यह भी उसी के अनुसार हो रहा है समझने वालों और समझाने वालों से दिल को बहलाने के लिए यह ख्याल अच्छा है कहने के अलावा आप क्या तर्क करेंगे ?
एक और बात ! अब कुरआन में ऐसा है या नहीं ये तो आप लोग ही बताएं लेकिन मेरे संगीत गुरु के हिसाब से बाइबल तो यह भी कहता है की अगर कोई आजीवन बेदाग़ रहकर अपना पूरा जीवन समाजहित में लगा दे लेकिन यीशु को ईश्वर न माने तो वह भी शैतान है जो अच्छे कार्य कर के खुद को येशु के समतुल्य स्थापित कर येशु के स्थान को चुनौती देने के लिए धरती पर आया है या था या अब भी जन्म ले रहा है और आगे भी लेता रहेगा ! अब बताइये !!! इसके बाद आप क्या तर्क करेंगे ? और …..केवल इस एक अडिगता पर की उन्होंने किसी को ईश्वर माना की नहीं माना उन तमाम समाज सुधारको को हम कैसे शैतान, मुनाफिक,काफ़िर मानेंगे जिनकी बदौलत और उन्ही का हवाला दे दे आज हम धर्मो की व्याख्याओं को सही कर कर के उनकी अच्छाई उपलब्धि गिना गिना कर धर्म से ही बिगड़े जीवन को संवार पाये है !!!!
”आप जैसे बुद्धिजीवी को एक समाजहित कारी सवाल पर अपनी अडिग स्थिति भी स्पष्ट करने में इतनी झिझक क्यों है सिकंदर भाई ? क्या इसे आपका अपने हम मजहाबियों से अलग पड़ जाने का डर समझूँ ? ” आपको क्या लगता हे की अभी हम अलग थलग नहीं हे ? कल को हम राजनीति या सार्वजिनक जीवन में जाए तो आपको क्या लगता हे की मुसलमानो में चार लोग भी हमे पसंद करेंगे ? भाई हम अलग थलग तो हे ही
अगर छुपे हुए कठमुल्ला होंगे, तो छुपे हुए मुनाफिक भी होंगे. पूरी दुनिया के लोगो की सोच कभी एक जैसी नही हो सकती.
पूरी दुनिया मे इस्लाम का परचम का ख्वाब अवास्तविक है. जिस अरब की ज़मीन पे, इस्लाम ने 1400 साल पहले दस्तक दे दी, उस ज़मीन पे अभी भी मुनाफिक ख़त्म नही हुए.
इस्लामिक स्टेट, 20 साल भी वहाँ हुकूमत कर ले, तो भी उनकी समझ वाला असली इस्लाम स्थापित नही कर सकती.
उम्मा का ख्वाब, अव्यवहारिक है, क्यूँकि मज़हब के प्रति असुरक्षा के भाव मे, कभी भी आपसी भरोसा बढ़ ही नही सकता. और इस असुरक्षा के भाव से निकलना, कट्टरपंथियो या छुपे हुए कट्टरपंथियो को स्वीकार्य नही.
क़ुरान को पत्थर की लकीर बताने वाले जज्बाती लोग भी, उसके शाब्दिक अर्थो को हलक के नीचे नही उतार पाते, और तफसीरो की आड़ लेते हैं.
वरना, शाब्दिक अर्थो पे जाए तो, कोई मुसलमान किसी भी गैर-मुस्लिम से कोई दोस्ताना संबंध ना रखे. ना ही सशस्त्र जिहाद के आंदोलन मे नमाज़, रोजे तक अपने आप को सीमित रखे. सशस्त्र जिहाद मे शामिल ना होने पे, नमाज़, रोजे रखने वालो तक को जहन्नुम की आग का संदेश है.
बहुत सी बाते हैं. सच्चाई यही है कि इस्लामिक स्टेट, बोको हराम, अल-कायदा की जैसे असली शराब को हलक मे उतारने की हिम्मत, आम मुसलमान की नही. सब सोडा मिला के ही पीते हैं.
भविष्य मे यह हो सकता है कि शराब बनना बंद ना हो, लेकिन नीट पीने और पिलाने वाले बंद हो जाए, और सब सोडा मिला के पीए.
इसे ही कहेंगे की जड़ पे हमला मत करो. यानी शराब बंद मत करो. बस थोड़ी और ओकेजनल पीने-पिलाने की आदत डालो.
में अपनी बात कह रहा हु जो मानने या न मानने के लिए आप स्वतंत्र हे फ़र्ज़ कीजिये आप नहीं मानते हे तो में नेहरू जी के शब्दों में ” मिस्र में विभिन्न ईसाई मठ अक्सर एक दूसरे को डंडो और घूसों से सच्चा धर्म सिखलाने की कोशिश करते रहते थे ” में ये कभी भी नहीं करने वाला हु असल में जो बात मेने कही वो बात आपसे ज़्यादा आपके माध्य्म से मुसलमानो मे उन लोगो को सम्बोधित थी जो खुद कोई खास कटटरपंथी नहीं हे मगर इस्लाम को लेकर बेहद सवेंदनशील हे उन्हें भी लगता हे की इस्लाम की जड़ उखड़ने या कमजोर करने की कोशिश हो रही हे आदि में आप और परदेसी जी के माध्यम से उन्हें भी सम्बोधित कर रहा हु की इस्लाम को लेकर कोई भी बहस बात होती हे तो होने दो इन मुद्दों पर ना खुद उत्तेजित हो ना हिंसक हो ना किसी को होने दो घबराओ मत इस्लाम अपनी जगह मज़बूत हे और रहेगा ना उसके मूल में कोई परिवर्तन हो पाएगा इसका सबसे बड़ा उद्धरण में खुद भी हु में बिलकुल जीरो स्प्रिचुअल हु फिरभी फिर भी अगर चाहे मेरी गर्दन पर तलवार रख दो मेरे सामने दुनिया की सारी दौलत ताकत , सबसे सुन्दर लड़की कुछ भी रख दो कुछ भी रख दो बदले में मुझसे एक सेकण्ड के लिए शिर्क को कहो , या एक घंटे के लिए भी इस्लाम छोड़ कर किसी और अक़ीदे सनस्कर्ति में एडजस्ट होने को कहो मुझसे करोड़ो अरबो रुपयों को बदले सिर्फ एक घूँट शराब एक कौर सूअर के मांस को कहो तो भी मेरी ना ही होगी . तो यहाँ यही मेरे एक नहीं दो सन्देश हे की इस्लाम की जड़ पर हमला मत करो और अगर जड़ पर हमला होता भी हे तो होने दो किसी हालत में हिंसा या उत्तेजना चिंता मत करो बहस बात होने दो इति सिद्धम
श्रेी सिकन्दर जेी , जब जद खराब हो ,तभि पेद से लगे पत्ते भि खराब हो सक्ते है
नेीम कि जद कद्वेी है तभि पत्तिया भि कद्वेी मिलतेी है
बुरऐयो कि जद पर प्र् हार् किया जाता है !
शारेीरिक लदाई मे निर्बल स्थान पर प्र हार किया जाता है
इस आलोचना, और बहस मे जो मजबूत है, वो बचा रह जाएगा, और वो ही असल ईमान है. अगर वो इस्लाम है, तो हम उसकी पताका सारी दुनिया मे देखना चाहते हैं.
बाकी, शिर्क का ना होना, तो आज के मौलनाओं की नज़र मे इस्लाम की एकमात्र शर्त नही. इस्लाम की आलोचनाओ की आँधी मे, एक और निराकार ईश्वर की आस्था, हिल ही नयी पाएगी.
और जिसके हिलने का डर है, वो सत्य है ही नही. इस्लाम, परम सत्य हो सकता है, लेकिन फिर वो वो नही, जिसे आज बहुसंख्यक मुस्लिम समझ रहा है.
एक ईश्वर की आस्था से तो मैं भी नही डीगा. लेकिन उसकी अपारता पे संदेह नही किया. बुल्ले शाह ने भी कभी ईश्वर के अस्तित्व से इनकार नही किया, लेकिन उसको छोटा नही माना.
खैर बात नास्तिकता की वकालत तो शायद कोई नही कर रहा. ईश्वर के ईर्ष्यालु होने पे प्रश्न है. एक ईश्वर मे मेरी आस्था है, इस वजह से नही की मैं उसे ईर्ष्यालु मानता हूँ.
शिर्क ना करना, और उसको अक्षम्य (नाकाबिले माफी) मानने मे अंतर है. खैर, जब तक आस्था, व्यक्तिगत विषय है, ये बहस फ़िजूल है.
जब ये सियासत से जुड़ जाती है, हम इसकी मुख़ालफ़त करेंगे.
आग मे जल कर सोना निखरता है. आलोचनाओ से सत्य, सूर्य की तरह चमक कर बाहर आता है.
और आग मे जिसके जल जाने या ख़त्म होने का डर है, वो सोना नही.
इस्लाम, अगर सत्य है, तो आलोचना उसका बाल भी बांका नही कर सकती. और जिसकी हिफ़ाज़त के लिए हिंसा की ज़रूरत पड़े, वो सत्य है ही नही. सच की राह पे जो चलता है, वो ही सच्चा मुसलमान (मुसल्ल्म ईमान) है.
जाकिर जेी बहुत सहेी बात है ,
” आग मे जलकर सोना निखरता है ”
तर्क से हेी व्यक्ति सत्य कि ओर जा सक्ता है ,
वेद गेीता रामायन बाईबल कुरान आदि बदेी नहेी है उन्से कई गुना बदेी मानवता है !
कसौतेी किसि किताब या व्यक्ति को नहि इन्सनियत को बनाना चाहिये
“दुसरे के साथ वहि व्यव्हार करो ,जो अप्ने लिये भेी पसन्द आये ”
हर शक्तिवान व्यक्ति ., कम्जोर इन्सान और जान्वर आदि केी रक्शा करे ”
हर बुद्धिमान व्यक्ति निर्बल कि रक्शा करे
शिर्क तो इस्लाम् कि बुनियाद मे है
कल्मा क्या है ?
मुहम्मद् जि का नाम क्यो शामिल् रहे
नबियो कि फौज फरिश्ति कि फौज क्यो मानि जाये
हम्को इश्वर को मानने के लिये राम हनुमान क्रिशन आदि किसि भि व्यक्ति कि साथ मे जरुरत हर्गिज् नहेी पदतेी है
जब हर जेीव् को स्वन्सो के माध्यम से सिर्फ् इश्वर से जेीवन मिल्ता है तब उस्के नाम से “दलालो ” को क्यो याद किया जाये ?
अरबेी मे “ला इलाहा इल्लिलाह जर्रा जर्रा रसुल उल्लाह ” क्यो न कहा जाये कया सारेी कायनात का कन कन इश्वर के होने का सन्देश नहि मिल्ता है ? क्य कोइ भि वैग्यानिक खोज् के लिये इस्लामेी कल्मा देख्ता है या ” जर्रा जर्रा” देख्ता है !
सचिन जी मेरे खुद के लिए आस्था अनास्था मुद्दा नहीं हे मेरी अपनी बात अलग हे कई जगह में आम आदमी की बात कर रहा होता हु उसके मिजाज शंकाओं आशंकाओं की बात कर रहा होता हु फ़र्ज़ कीजिये आपकी जीत होती हे जैसा आप चाहते हे वैसा ही होता हे तो मुझे क्या तकलीफ हे ? फ़र्ज़ कीजिये नहीं होती हे तो क्या बाते हे क्या मुद्दे हे आपकी जीत नहीं हो तो कटट्रपन्तियो की भी जीत न या हो कोई समझौता हो तो वो क्या हो ? उसके क्या बिंदु हो जैसे नीचे शिर्क की बात हुई मुझे अरबो रुपया दो तो भी में शिर्क नहीं करूँगा हां करने पर दूसरे के सर में दर्द भी नहीं करूँगा एक समझौते का बिंदु हुआ अब यहाँ इस पॉइंट पर आपने भी शायद पढ़ा ही की शायद पुणे के महा महा कटटरपंथी शायद पुणे के वासी भाई जिनसे बड़ा और वैचारिक मुस्लिम कटरपंथी मेने नहीं देखा से हमारी लम्बी बहस हुई थी वो कहते थे ( जाकिर नाईक टाइप भी ) की या तो तुम ये कह दो की तुम मुस्लिम नहीं हो और दफा हो जाओ या फिर हो तो शिर्क मिटाना तुम्हारा काम हे जो तुम्हे करना ही पड़ेगा यानि उनका कहना था की लोगो से इस्लाम कबूल करवाना ही होगा अब यहाँ समझौते का बिंदु क्या हो ? मेने उन्हें कहा की इसका आशय तो ये हे की हम ही इतने अच्छे बने की अगला हमसे इम्प्रेस होकर शिर्क करना छोड़ दे लेकिन आगे मेने कहा की वासी भाई इतने अच्छे तुम या कोई और बन ही नहीं सकते क्योकि अच्छा बनना आदर्श पर चलना मतलब अपनी जिंदगी झंड करवा लेना लेकिन फिर भी आप शिर्क मिटाने के लिए इतना अच्छा बन सकते हो तो बनो ये मेने बिंदु दिया अब अल्लाह ही जाने फिर क्या हुआ मगर फिर वासी भाई हमसे बहस को नहीं आये तो सचिन भाई ये हे की जब हम आपस में बात कर रहे होते हे तो सम्बोधित जनता को ही कर रहे होते हे उसके ही मुद्दे सुलझा रहे होते हे जो न सुलझे उन पर समझौते के बिंदु बता रहे होते हे हमारा आपका या जाकिर भाई का आपस में कोई मुद्दा नहीं हे
श्रेी सिकन्दर जेी , हर समज्हौता सत्य को नुक्सान करके हेी हो सक्ता है ,
थोदेी सिद्हान्तो केी बलि देकर के भेी
समज्हौते राजनेीति के अन्ग होते है
राज्नेीति मे ज्हुथ नेीति ज्यादा चल्तेी है !
सिकंदर भाईं , बात मेरे या तर्कों की जीत की भी नहीं है ! क्यों की ऐसी जीत से कैसे किनारा करना है इसकी सुविधा भी धर्मों ने दे रखी है जिससे ये धर्म वादी बड़ी आसानी से वासी भाई की तरह तुम अपने रास्ते जाओ हम अपने कह कर पीछा छुड़ा लेते हैं ! हो सकता है की आपको लेकर मैं भी जाने अनजाने वही गलती कर रहा था ,इसके लिए माफ़ी चाहूँगा ! लेकिन व्यक्तिगत तौर पर समझौता होने से मुद्दे खत्म तो नहीं हो जाते इसीलिए हमें उन मुद्दों के लिए लिखना चाहिए इसमें अगर हम लोगों की फ़िक्र करने लगे तो न धरती गोल रहेगी न चौकोन ,न धरती सूरज के इर्द गिर्द घूमेगी न और कोई ग्रह ,मत भूलिए की धर्म के विपरीत जाती कई तर्क और खोजों के खोजकर्ताओं ने ,समाज सुधारकों ने अपने तर्कों को सिद्ध करने में अपने जान की तक पर्वा नहीं की ! और उस समय अपनी बातों पर अडिग रहने वालों ने न सिर्फ उसे अपनाया उलटे इसका मूल तो हमारे धर्म ग्रंथों में ही होने का ढिंढोरा भी पीटने लगे !!! तो किसने कहा की ये अब नहीं हो सकता ? जैसे जाकिर हुसैन भाई फरमाते हैं हम शाब्दिक अर्थों को तफसिरों संदर्भो की आड़ में सही सिद्ध करने की कसरत तो करते ही हैं न ! और हमारे तर्कों से गुस्साने वाले हिंसा पर उतारू होने वालों को हम बातचीत की बहस की मेज पर लाते वक्त इतना तो समझा ही सकते हैं की भाई जिसे आप ईश्वरीय किताब मानते हो वह केवल हमारे कहने से तो अईश्वरीय साबित नहीं हो जायेगी ? और दूसरी बात क्या कहीं भी अल्लाह ने ये कहा है आप अपने जमीर को विवेक को गिरवी रख कर चलो ? जैसे की आज आतंकवादियों के लिए कहा जाता है ! उन्होंने कुरआन की आयतों को लेकर अपनी अक्ल गिरवी राखी इसीलिए तो सिर्फ दुनिया ही नहीं खुद मुसलमान आज इस्लाम का यह रूप देख रहा है न ? तो क्या अब उन आतंकवादियों को भी जान से मार देने से नेस्तनाबूत कर देने से इस्लाम पर लगा ये दाग धूल जाएगा ?? या भविष्य फिर ऐसा नहीं होगा इसकी गारंटी दे पायेगा ?? तो ? रास्ता अंत में क्या बचता है तर्क ,चर्चा ही न ? तो फिर इस रास्ते से कुरआन को क्यों वंचित रखा जाय ? क्या किसी पर तर्क वितर्क होने से उसका सन्मान कम हो जाता है ,अगर वो तर्क वितर्क जीवन की सहूलियत के लिए और आख़िरात के अच्छे अंजाम को पाने में सहायक हो ??
सचिन साहब, धार्मिक मान्यताओ के पीछे, जो सबसे बड़ा कारण है, वो है मौत. बात मौत से डर की नही, ये तो सबको एक ना एक दिन आनी ही है. और ये स्पष्ट है. जो जिस सामने है, उसपे विवाद है ही नही.
रहस्य यह है कि, मौत के बाद क्या? मौत के बाद हम कहाँ जाएँगे, कैसा सलूक हमारे साथ होगा. सबको पता है, कोई सगा, रिश्तेदार, साथ नही जाएगा. इस रहस्य ने फसानो को जन्म दिया. और इस जगह मनुष्य के लिए डर और लालच, दोनो की गुंजाइशे है. डर के लिए नर्क (जहन्नुम) है, लालच को भुनाने के लिए स्वर्ग (जन्नत) है. पुनर्जन्म की अवधारणा भी है.
इनमे से सच क्या है, किसी ने नही देखा. लोग, इसलिए, विभिन्न धर्म, दुनिया मे मौजूद है.
आपके यहाँ, मरने वाले की मृत्यु उपरांत जीवन के लिए 12-13 दिन का शौक होता है, तो हमारे यहाँ भी 40 दिन का मातम. इस दौरान आपके यहाँ भी कई पूजा, प्रार्थनाए होती है. हमारे यहाँ भी दुआए की जाती है.
लेकिन क्या आपने उसे देखा, क्या हमने उसे देखा? इस परलोक के किस्से-कहानियों पे सवाल करने पे, किसने कितना डराया है, आस्था की जड़े उतनी ही गहरी है.
हिंदू समुदाय मे क्या तर्कवाद से श्राद्ध, और तर्पण की प्रथाए बंद हो गयी? सौभाग्य से आपके यहाँ, ईश्वर के ख़ौफ़ को आम जिंदगी के क्रिया-कलापो तक नही फैलाया गया है. फैलाया गया है, तो अंतर-विरोध या अस्पष्टता है.
इस्लाम मे इस डर की जड़े, बहुत गहरी है. और डर को ईश्वर की विशिष्ठ अवधारणा मे यकीन से ज़्यादा जोड़ा गया है, बजाय अनैतिक मूल्यों से.
उदाहरण के तौर पे नमाज़ से इनकार. बलात्कार, चोरी, हत्या आदि से भी बड़ा गुनाह माना गया है. बहुत ज़्यादा ख़ौफजदा होने से, स्वतंत्र विचारो को पनपने मे अवरोध होता है. इसका परिणाम, बौद्धिक जगत मे मुस्लिमो की भागीदारी से पता चलता है.
लेकिन तर्क की रोशनी से ही अगर, मुस्लिम कट्टरपंथ का समाधान आप ढूँढते है, तो दूसरे समुदायो को भी तर्कवाद पे आधारित समुदाय बनना पड़ेगा, लेकिन ऐसा नज़र नही आता.
धार्मिक कट्टरपंथ के जवाब मे, दूसरा धार्मिक कट्टरपंथ तैयार किया जा रहा है. याद रखिए, हम सब एक दूसरे से जुड़े हैं. मुस्लिम, किसी दूसरे ग्रह पे नही रहते. एक दूसरे की सकारात्मक और नकारात्मक बाते दूसरे समुदाय मे भी पहुँचती है.
कल्पित अल्लाह का कुरान पर नमुना देखिये —
कुरान ८/६५ और ६६ को देखिये इन दो अयतो मे ५००% का अनतर है , क्या अल्लाह को इत्ना भि ग्यान् नहि था कौन कित्ना कम्जोर है ?
कुरान ३१/१४ मे सन्तान २ साल माता का दुध् पेीता है और कुरान ४६/१५ मे गर्भ मे रहने और दुध पिने मे ३० माह् का समय , यह ३ माह का अनतर क्यो है ?
पहाद इस्लिये गादे गये ताकि धरतेी न हिले
पहाद गादे जाते है या धरतेी के अन्दर से निकल्ते है
भुकम्प तो अब भेी आते है फिर कुरान को सत्य क्यो माना जाये
कुरान २/५४ सिर्फ बच्दे कि पुजा कर्ने वालो केी आपस मे हत्या करने का आदेश है आज भेी तो पुजा हो रहि है अब हत्या क्यो नहेी केी जातेी है ?
क्या इस्को इन्सानियत कहा जा सक्ता है
कुरान २/६७-७३ गाय कि हत्या कर् के उस्के मान्स से एक मुर्दा कुच पल के लिये जेीवित कर्ने कि तरकेीब है यह् तरकेीब आज् सफल क्यो नहेी होतेी है?
इस कहानेी को गलत क्यो न कहा जाये?
इन नमुनो से कुरान कि जद पर प्रहार क्यो न किया जाये
खुदा केी किताब को देख कर हेी मुन्किर {इन्कार करने वालेी } हुई है दुनिया
जिस खुदा का इल्म{ ग्यान्} ऐसा हो, वह कोई अच्हा खुदा नहेी है {खुदा हेी नहेी है }
अफ़ज़ल साहब, आपके फोरम मे हिन्दी टाइपिंग मे थोड़ी असुविधा होती है. इस वजह से पहले किसी ओर साइट पे जाके, टाइप कर, यहाँ कॉपी-पेस्ट करना पड़ता है.
अगर, इसमे सुधार मे विशेष समस्या ना हो तो, इसे अपना कर, पाठको की सक्रियता मे बढ़ोतरी हो सकती है.
हम तो लेखक हे और समाज के बुड़बक हे हम भी यही कह रहे हे की तर्कवादियों ने कोई ऐसा कमाल करके भी नहीं दिखाया की हम उन्हें ही एक आदर्श पेश करके दिखाये ( जैसे हम कठमुल्लाओं से कहते हे की एक इस्लामी गली ही बसा के दिखा दो वैसे ही तर्कवादी भी कोई आदर्शवादी गली नहीं बस सका हे ) हिन्दू धर्म और समाज में ही ऐसा कुछ बहुत आदर्श भी नहीं हुआ हे जिसे हम मुस्लिम समाज को पेश कर सके तर्क की बात चली तो तो आपको बताऊ जाकिर भाई की हिंदी के दो बहुत ही बड़े लेखक तर्कवादी राजेंद्र यादव और कमलेश्वर दोनों बहुत ही बुरे पति थे ( रश्दी अपनी बीवी को सेक्स न करने पर बेड इन्वेस्टमेंट कहते हे ) फिर भी दोनों का घर चलता रहा दोनों घर की सुविधा और आराम का लाभ उठा कर जम कर नाम दाम ( और एक ”चीज़ ” भी खूब जम कर ) खूब हासिल करते रहे कारण दोनों की ही बीवी आस्थावादी भी थी इसलिए वो ये जुल्म झेल गयी मन्नू जी ने तो ना केवल झेला बहुत बड़ी लेखक और टीचर माँ और भी थी बल्कि लेखन से इतर भी उनका बहुत काम और सम्मान हे मान लीजिए दोनों शुद्ध तर्कवादी होती तो दो दिन में इन्हे लात मार देती और कोई मनचली इनके जीवन में घर आती तो हो सकता था की दो दिन में इनके घर में वो कोहराम मचता की दो बड़े लेखक दुनिया को मिलते ही ना ( राजेंद्र जी की मौत से ठीक पहले क्या हुआ था ——–? ) कहने का आशय ये हे की तर्कवादी भी ऐसा कुछ नहीं कर पाये हे की हम उन्हें आदर्श की तरह पेश कर सके ———- जारी
श्रेी सिकन्दर जेी , तर्क् वादियो कि कोइ विशेश किताब नहि होतेी , उस्का कोइ विशेश मुखिया नहि होता ,
तर्क वादेी सन्गथित नहि होते तब गलि कैसे बनेगेी ?
आज का समाज फैशन् वादेी भेी है क्या उस्केी कोइ गलेी अब तक बन् सकेी है ? क्योकि वह भेी सन्ग् थित् नहि है !
क्या मोल् तोल से खरेीदारेी करने वाले सन्गथित होते है
पुरेी रेल मे सफर कर्ने वाले यात्रेी सन्घथेीत रहते है ?
जाकिर जी ये किसने कह दिया की मैं सिर्फ मुस्लिमो के लिए तर्क की कसौटी चाहता हूँ ? लेकिन अगर आप ऐसा समझ ही रहे हो और आपके लिए भी तर्क की कसौटी पर उतरने के लिए हिंदुओ से शुरुआत की शर्त जायज है तो बताइये अब दुनिया का बड़ा धर्म होने के नाते किसको पहल करने की जरुरत है ? क्या दुनिया का बड़ा धर्म अब हिन्दुओ के नक़्शे कदम पर चलने वाला है ? क्षमा चाहूँगा लेकिन अपने आप की दुनिया का सबसे पुराना और सनातन धर्मी कहलाने वाले हिंदुओं के लिए भी आजकल यही पहले आप वाली बचकानी शर्त होती है ! क्यों की इसी पैमाने पर जब हम एक दूसरे की बातें स्वीकार करने को कहेंगे तो फिर आपके लिए भी मुश्किल हो जाएगा और आप भी बचने के लिए फिर सिकंदर जी की तरह तर्कवाद पर सीधे जज बन के निर्णायक बन कर कुतर्क करने लगेंगे और कट्टरपंथियों के खिलाफ उठाये अपने ही तर्क के अस्त्र को बेकार साबित कर के न इधर के रहेंगे न उधर के !
सचिन जी, मैने ये कभी नही कहा कि हिंदुओं के तार्किक होने पे ही, मुस्लिमो को तार्किक होना चाहिए. बल्कि मैने आपको मिसाले दी कि मुस्लिम समुदाय मे भी अनेको लोग, स्पष्टता के साथ अपनी बात रखने की कोशिश कर रहे हैं, और तार्किकता को बढ़ाने की भी कोशिश हो रही है.
मेरा सिर्फ़ यही कहना है कि मुस्लिम समुदाय, दूसरे ग्रह का प्राणी नही है. हम सब एक दूसरे को प्रभावित करते हैं. गैर-मुस्लिम समुदाय मे भी तार्किकता बढ़ती है, तो मुस्लिम समुदाय भी इससे प्रभावित हुए बिना नही रहेगा. इसका उल्टा भी उतना ही ठीक है.
लेकिन जो समस्याए, उन समुदायो मे आ रही है, वोही समस्याए, मुस्लिम समुदाय मे आ रही है.
सिकंदर साहब ने अच्छा तर्क दिया, (यानी तर्क-संगत विचारो को ही पसंद करते हैं). राजेंद्र यादव हो या, कमलेश्वर या रुश्दी, मैं तो साहित्य जगत के बारे मे नही जानता. मैं साइंस का छात्र हूँ, जिसकी दुनिया की आधारशिला, सिर्फ़ तर्क है, और कुछ नही.
लेकिन क्या इसका अर्थ यह हुआ कि किसी डॉक्टर के विचारो को साइंस का सिद्धांत मान लिया जाए? कोई डॉक्टर, ओपेरेशन से पहले, हनुमान चालीसा पढ़े, तो क्या हनुमान चालीसा के मेडिकल फाय्दे मान लिए जाएँगे?
ठीक उसी प्रकार, राजेंद्र यादव, भले ही तर्कवाद की हिमायत करते हों, लेकिन उनका हर आचरण, तर्क-संगत ही हो, ज़रूरी नही.
तर्क के कोई नुकसान नही. ये मेरा व्यक्तिगत विश्वास है.
सही कहा भाई , असल में सचिन जी इतने ग़ुस्से में थे की मेने खिसक लेना ही उचित समझा इससे पहले भी शरद भाई भी सचिन जी के ” लाठी चार्ज ” में बुरी तरह से घायल होकर लेखन से रुखसत हो चुके हे ,” ठीक उसी प्रकार, राजेंद्र यादव, भले ही तर्कवाद की हिमायत करते हों, लेकिन उनका हर आचरण, तर्क-संगत ही हो, ज़रूरी नही.तर्क के कोई नुकसान नही. ये मेरा व्यक्तिगत विश्वास है ” .यहाँ में राजेंद्र कमलेश्वर रश्दी के माध्यम से आम आदमी तक पहुंचने वाले सन्देश की बात कर रहा था जो भी हो ये आम आदमी नहीं हे और जो भी हो ये दुनिया तो आम और खास दोनों से ही चलनी हे इसी तरह से तर्क और आस्था दोनों से ही दुनिया चलनी हे मुझे तो यही लगता हे हां तर्क अपने आचरण से या आस्था अपने आचरण की अच्छाइयों से तर्क को पराजित कर दे तो मुझे कोई एतराज़ नहीं हे हम भी तर्क पर हे मगर तर्क का डंडा लेकर आस्था की धुनाई मुझसे ना हो पाएगी क्योकि आस्था को लेकर मेरा खुद जीरो स्प्रिचुअल होते हुए भी ( कल भी बहनोई और अम्मी से डांट खायी ) मेरा तर्क ये हे की अगर ईश्वर हे तो हम इंसानो के लिए इससे अच्छी बात कोई नहीं हे ( भले ही वो ईश्वर , जाकिर नायकों आदि आदि की ही बात मानकर हम जेसो को नर्क में ही डाल दे तब भी ) अगर ईश्वर नहीं हे तो इंसानो के के लिए इससे बुरी बात कोई नहीं हे ( क्योकि दुनिया में इतना जुल्म और शोषण हे की ईश्वर पर ही उसका हिसाब छोड़ा जा सकता हे दुनिया में हिसाब किताब करेंगे तो —– ) तो बुरी बात पर क्यों विशवास करे अच्छा ही सोचते हे न ?
इटली जैसा कैथोलिक बहुल और बहुत बढ़िया मौसम वाला देश तक जनसँख्या की कमी का शिकार हो रहा हे हद तो ये हे की गयी की गए साल वहां सिर्फ पचास हज़ार बच्चों ने जन्म लिया ( इससे ज़्यादा तो हमारे मुज्जफरनगर में हो गए होंगे शर्तिया ) इसलिए लाख इस्लामिक कटटरता के खतरे के बाद भी जर्मनी आदि देश लाखो रिफ्यूजियों को आने भी दे रहे हे क्योकि खासकर हाथ के कामगार कम हो रहे हे ये हालात आस्था पर तर्क के हावी हो जाने से हुए हे उधर दक्षिण एशिया में सांस लेने की भी जगह नहीं बच रही हे खासकर मुसलमानो में अभी भी परिवार नियोजन कोई खास भी नहीं हे हालात इतने खराब हे की एक मुस्लिम डॉकटर ब्लॉगर कहते हे ” कोई सच्चा मुसलमान परिवार नियोजन कर ही नहीं सकता ” उधर थोड़ी जागरूकता आई भी तो उससे आज़म खान जैसे नेताओं के पेट में दर्द होने लगा हे ( इस सबके विरोध में में खुद शादी ना करने और बच्चे पैदा ना करने का फैसला ले चूका हु ) दक्षिण एशिया में ये हालात आस्था के तर्क पर हावी होने से हुए हे
सिकंदर जी क्षमा करें लेकिन आप ऐसी बचकानी बातें बार बार करेंगे ऐसा मुझे कभी लगा नहीं था ! आप मुझे बताइये मैंने कब निर्णायक होकर यह कहा की ये हो सकता है ,वो नहीं , ये गलत है और वो नहीं ?? अरे भाई मैं बार बार कह रहा हूँ की मेरा सवाल सिर्फ इन सब निर्णयो के लिए जरुरी समीक्षा से हैं तो फिर आप दोनों इधर उधर क्यों भाग रहे हो ? या फिर आप भी यही मान रहे हो की निर्णय हो चुकें हैं ?? फिर इसके बाद आपसे भी बहस की गुंजाइश ही नहीं बचेगी तो क्यों कोई आपको कुछ पूछेगा ? क्यों की सवाल किसी के जवाब के मोहताज नहीं होते न ही उनके न मिलने से उनका अस्तित्व खत्म हो जाता है ! अगर कोई इस भुलावे में जीना चाहता हो तो बेशक जिए , लेकिन यह सोचकर कभी न जिए की उसके ऐसा मानने से सवालों का मसला खत्म ! जाकिर जी तर्क के मुकाबले आस्था की जितनी जड़ें गहरी होती है न उसके दुगनी तर्क की होती है क्यों की वो अपनी गली बनाने के लिए तर्क नहीं करते ! और तर्क वादी एक बार साबित करता है और सारी दुनिया उसको मानकर अगला कदम उठाती है उसे किसी जाकिर नाइक या बगदादी की जरुरत नहीं पड़ती और न ही किसी सचिन या सिकंदर की कोई गिनती होती है !
सिकंदर साहब आप जो कट्टरपंथियों के खिलाफ बोलते हो उसे क्या कहते हैं ? और उनसे कोई ‘आदर्श ‘ नहीं होने वाला तो क्यों किसी को एकसाथ खुश करने और नाराज न करने की सर्कस में फंसे हो ? आदर्श का मतलब समझते हैं न ? जो अनुकरणीय हो ! फिर तर्कों से कुछ अनुकरणीय स्थापित होने वाला नहीं तो फिर ये लिखने की मजदूरी ,समझौते के बिंदु आदि भी फिर तर्कहीन ही होंगे ? आज तर्कों की बदौलत पूरी दुनिया सिमट कर एक गली बन गई है और लोग किसी अवतार और ईश्वर से ज्यादा एलियन की राह देख रही है ! मंगल पे रहने की और बढ़ रही है और आप अपने शहर में उनकी गली ढूंढ रहे हो ! हम लोगों को इन गलियों से बाहद निकालने लिखते हैं या फिर से किसी तालाब के मेंढक बनाने ?
मेरे एक छोटे से सवाल की बहस को आप दोनों ने मोड़ कर ईश्वर वाद पर लाकर पहले बहुत मुद्दे को भटका दिया है फिर भी चलो अब आप जिस मौत के डर और मृत्यु उपरान्त के लालच की दुहाई दे रहो मुझे बताइये आखिर ये दोनों बातें हैं किसलिए ? इनका उद्देश्य क्या है ? और इस उद्देश्य की पूर्णता में किसे रोड़ा माना गया है ? क्या केवल इस्लाम की जड़ को यथावत स्वीकार लेने से इस उद्देश्य सफल हो जाता है ? या न मानने से इस उद्देश्यों की सफलता में खामी रह जाती है ?
जाकिर जी आप धर्म और ईश्वर को लेकर इस डर और लालच की व्यक्तिगत थ्योरी को तो स्वीकार रहे हो लेकिन इस थ्योरी के पीछे असल में छुपी समाज और मानव जीवन के सुखमय बनाने की थ्योरी को सपेशल भूल रहे हो ! और याद रहे यही तर्क आप लोग देने लग जाते हो जब कुरआन की किसी आयत को आपत्तिजनक बताया जाता है ,फिर आप ही कहते हो शब्द नहीं सन्दर्भ देखिये ! फिर डर और लालच के लिए शब्दों पर ही क्यों अटक जाते हो ? उसे उद्देश्य की कसौटी पर उतारने में इतनी बहाने बाजी क्यों ? इसीलिए मुझे बड़ा खेद है की इस्लाम की पैरवी करने वालों को ही नहीं पता की उसकी जड़ क्या है ? और हमला और समीक्षा में अंतर का जिनको इल्म नहीं वह ईश्वर आदि जैसी बातों के इल्म की बात न ही करे तो ही अच्छा होगा ,वर्ना ऐसे ही पहले से शर्मिंदा हो रहा वो रहमदिल खुदा फिर किसी नए धर्म को लेकर आएगा लेकिन उसे “अंतिम” कहने की भूल कभी नहीं करेगा ।
सचिन साहब, आप स्पष्ट बात करने की बात कर रहे हैं. मुस्लिम कट्टरपंथी लोग, अपने विचारो के बचाव मे, किन किताबो का हवाला देते हैं, क्या हमे नही पता?
जाकिर नायक, इसरार अहमद जैसे लोगो के वीडियो यूटयूब पे मिल जाएँगे. लेकिन एक बात बताइए कि हम इन किताबो की आलोचना करने लग जाए, मुहम्मद साहब, जिन्हे सारा मुसलमान अपना आदर्श मानता है को ही इस सारे फ़साद की जड़ बता दें. यही चाहते हैं आप?
वरना सारे अहमदियो को मौत के घाट उतार दो का आह्वान करने वाले विश्व-प्रसिद्ध इस्लामिक विद्वान, इसरार अहमद को हम कैसे जवाब दें? उनसे ज़्यादा तो इस्लाम का विद्वान मैं तो नही.
लेकिन आपको क्या लगता है, इस्लाम और मुहम्मद को आतंकवाद से जोड़कर, हम कामयाब हो जाएँगे.
राज जैसे लोग, इस्लाम और मुहम्मद साहब की निंदा करते हैं, क्यूंकी इनकी नज़र मे ये आतंकवाद की जड़ मे है.
लेकिन लश्कर ए तय्यबा, isis, बोको हराम जैसे संगठन, राज साहब की इस्लाम की व्याख्या को ही सही मानते हैं, फिर भी इस्लाम की निंदा नही करते.
यानि इस्लाम और मुहम्मद साहब को आतंकवाद से जोड़ने के बाद भी आतंकवाद ख़त्म नही होगा. जैसे सती-प्रथा को हिंदू धर्म-ग्रंथो की देन बताने के बावजूद भी कई हिंदुओं ने इसे स्वीकारा.
मुख्य बात यह है कि आतंकवाद क्या होता है, ये क्यूँ ग़लत है? चोरी, बलात्कार ग़लत है, और क्या क्या सही नही है, इसका तो पता होना चाहिए. सही-ग़लत मे फ़र्क करने जितनी अकल तो होनी पड़ेगी.
पहले इस समझ को विकसित करना पड़ेगा. और जिस दिन ये समझ विकसित हो गयी, किसी धर्म की निंदा या तरफ़दारी की भी ज़रूरत नही पड़ेगी.
सही-ग़लत की ये समझ, धार्मिक किताबो से नही आती. परवरिश से आती है.
इसी वजह से हम, इस्लाम का अर्थ “शांति” बताते है, जबकि इसका अर्थ “समर्पण” होता है. इसका कारण यह है कि शांति पे ज़ोर देते रहने से ये एक आवश्यक नैतिक मूल्य बन जाए.
नैतिक मूल्यो पे ज़ोर देने की सर्वाधिक ज़रूरत है. और ये मूल्य इतने मजबूत हो कि मज़हब को उन मूल्यो के अनुरूप व्याखित कर दें, और ना कर पाए, तो मूल्यो को ही चुने.
स्पष्ट चर्चा का तभी महत्व है, जब नैतिक मूल्य परिभाषित और पोषित हो. हम उसका प्रयास कर रहे हैं.
मरहूम इसरार अहमद का ये वीडियो देखिए. ये मैं मुस्लिमो के लिए कह रहा हूँ. जो हर अहमदी समुदाय पे होने वाले कातिलाना हमलो के बाद, दुख व्यक्त करता है.
https://www.youtube.com/watch?v=CTd3hfY_Bzc
सिर्फ़ isis (दाईश), या बोको हराम को ख्वारिज मानने से चैन की साँस मत लीजिए कि ये तो दूसरे देश मे यहूदी-अमेरिकी साजिश है.
इस्लाम की आड़ मे आतंकवाद को पोषित करने वाले, वो तथाकथित विद्वान है, जिन्हे हम इस्लाम का जानकार कहते हैं.
एक बात हमेशा याद रहे की अगर इरादा नेक हो उसमे कोई व्यक्तिगत फायदे की मिलावट ना हो तो जरुरी नहीं हे की अलग अलग बात आपस में बहस करते हुए ही और हुए भी , सब अपनी जगह सही और उचित भी हो सकते हे और एक मकसद की तरफ बढ़ते भी हो सकते हे जैसे एक बार क्या हुआ की जनसत्ता में अजित साहा जैसा खोजी पत्रकार सिमी के नाम पर हुए जुल्म औिर फर्ज़ीवाड़े की डिटेल बता रहे थे तो वही उनका विरोध करते हुए साजिद रशीद सिमी की कारगुजारियों की डिटेल बता रहे थे दोनों में लम्बी बहस हुई थी दोनों अलग बात कर रहे थे मगर दोनों अपनी जगह सही भी थे और एक पेज पर भी थे अजित की बात सही थी की किसी बेगुनाह का उत्पीड़न बर्दाश्त या नज़रअंदाज़ नहीं किया जाएगा वही साजिद रशीद भी अपनी जगह सही थे की सिमी के साथ किसी सिम्पेथी की या किन्तु परन्तु की जरुरत नहीं हे दोनों सही थे क्योंकि दोनों का इरादा सही था इसी तरह के एक केस में मोहल्ला लाइव पर हाल ही में छी न्यूज़ के घिनौनेपन के खिलाफ उसमे अच्छी खासी नौकरी कर रहे विश्व दीपक साहब के एक लेख पर जिसमे उन्होंने मुसलमानो के उत्पीड़न का विरोध किया था वहां मेने कटटरपंथी गतिविधियों की बात उठाई थी हम दोनों ऊपर से अलग दिख रहे थे मगर अपनी जगह दोनों जायज़ बात कर रहे थे तो ऐसा नहीं हे की में जाकिर भाई और सचिन भाई अलग अलग बात करते हुए भी सही नहीं हो सकते हे
मशहूर आलीमो को कम अकल बताने पे, मेरे पे तकबबूर फैलाने का आरोप लगाने वाले, दायम मियाँ, इस विडिओ को भी देखे. ये लाल मस्जिद वाले अब्दुल अज़ीज हैं, जिन्होने पेशावर मे मारे गये बच्चो को शहीद नही बताया. बल्कि तालिबान के हमले को स्वाभाविक प्रतिक्रिया बताया. और तालिबान (पाकिस्तान वाला ही) को इस्लामी तहरीक से जोड़ा. इस्लामिक स्टेट को भी ये काफ़ी पसंद करते हैं.
https://WWW.YOUTUBE.COM/WATCH?V=KHNWX5XFWRC
और इन्हे यहूदी या अमेरिकी पैसो पे पलने वाला, खारिज या मुनफिक ना समझ लेना. मशहूर इस्लामी स्कॉलर, इसरार अहमद साहब, इन्हे व्यक्तिगत रूप से जानते हैं, इनके विचारो से अवगत है. डॉ इसरार साहब का मानना है कि मौलाना अब्दुल अज़ीज के ईमान पे शक किया ही नही जा सकता. इस्लाम के प्रति उनके ज़ज्बात, शक और सुबहे से परे हैं. ये विडिओ देखे.
https://WWW.YOUTUBE.COM/WATCH?V=GRQAY_Z1UKU
isis खारिज है, या ये अब्दुल अज़ीज, या महरूम इसरार मियाँ. वैसे ये नीचे वाले डॉ सैयद तालिब-उर-रहमान साहब तो डॉ इसरार अहमद को ही मुसलमानो को गुमराह करने वाला बता रहे हैं.
https://WWW.YOUTUBE.COM/WATCH?V=UPJFHO4ZJZ8
ये मौलाना भी कोई कम मशहूर नही. वैसे उनका पूरा वीडियो यहाँ देखो.
https://WWW.YOUTUBE.COM/WATCH?V=IALHVGWN9T0
हम पे तकब्बुर बढ़ाने और फित्ने फैलाने के इल्ज़ाम लगाने से पहले, सेलिब्रिटी मौलानाओ पे गौर फरमाओ. हमारी फ़िक्र बेबुनियाद नही है.
धर्म अध्यात्म आस्तिकता नास्तिकता को लेकर यहाँ हम लोगो की लंबी बहस हुई थी मेरा कहना यही था की मेरी खुद की कोई स्प्रिचुअल नीड नहीं हे लेकिन दुसरो की स्प्रिचुअल नीड का में सम्मान करता हु आध्यत्म भी इंसान की बहुत गहरी प्यास हे और शायद रहेगी भी हालांकि मेरी खुद कि कोई प्यास नहीं हे खेर संजय तिवारी लिखते हे Sanjay TiwariSanjay Tiwari10 hrs · अगर आपसे यह कहा जाए कि हनुमान चालीसा सुनने के लिए टिकट खरीदना पड़ेगा तो आप कितना खर्च करेंगे? शायद धेला भी नहीं। हां, जस्टिन बीवर का शो हो तो दस पांच हजार का टिकट जरूर खरीद लेंगे। हमारी आपकी बात छोड़िये। हम लोगों की मति मारी गयी है। लेकिन जहां जस्टिन बीवर पैदा हुआ है वहां हनुमान चालीसा सुनने के लिए अच्छा खासा खर्च करना पड़ता है। एक आदमी के लिए एक टिकट का खर्चा पांच से दस हजार रूपया।कृष्णदास का जो भी हनुमान चालीसा कंसर्ट होता है उसका टिकट इतना ही या फिर कई बार इससे भी मंहगा होता है। कृष्णदास हारमोनियम बजाकर हनुमान चालीसा गाते हैं। गुरु स्तुति करते हैं। दुर्गा मां की उपासना के छंद गाते हैं और पश्चिम में जहां चले जाते हैं लोग उनको टूटकर सुनने आते हैं। इसलिए नहीं कि कृष्णदास ने कोई धर्मांतरण की मुहिम चला दी है और लोगों श्रद्धावान समर्पित हिन्दू हो गये हैं, बल्कि इसलिए कि यह सब स्ट्रेस मैनेजमेन्ट का हिस्सा है। कृष्णदास और मितेन इसी तरह पूरी दुनिया में घूमकर मंत्रजाप का, संकीर्तन का कंसर्ट करते हैं और लोग इसलिए भारी रकम खर्चकर आते हैं क्योंकि इससे भावनात्मक रूप से संतुलन कायम होता है। अस्थिर दिमाग को स्थिर करने में मदद मिलता है और भीतरी शांति प्राप्त होती है। विज्ञान ने मनुष्य को जिस तर्क के बियाबान में लाकर छोड़ दिया है वहां से आगे शांति का सरोवर धर्म में है। आध्यात्म में है। धारणा में है। ध्यान में है। जप में है। संकीर्तन में है।
हर बात के फायदे भी हे नुक्सान भी अब इन तिवारी जी की ही पिछले साल बड़ी हालात ख़राब की खबरे आ रही थी अस्पताल में भर्ती थी विस्फोट तो लगभग कोमा में हे ही बहुत टाइम से , कन्फर्म नहीं हु पर सूना हे की अगर दिल्ली सरकार मदद ना करती तो कुछ भी हो सकता था ———– खेर हो सकता हे की मेने पहले भी कहा था की हो सकता हे की तब आध्यतामिकता ने हिंदुत्व ने आस्तिकता ने इन्हें इन हालात से उबरने में बड़ी मदद की हो आस्था में बड़ी ताकत और शांति होती ही हे इसका मुझे बहुत गहरा अंदाज़ा हे क्योकि एक तो वैसे ही मेरे जीवन में टेंशन प्रॉब्लम इनसिक्योरिटी हमेशा रही ही . ऊपर से जीरो स्प्रिचुअल होने और कोई भी मेरी आध्यतमिक एक्टिविटीज ना होने से मेरा स्ट्रेस और भी डबल और भी आउट ऑफ़ कंट्रोल ही रहा जबकि मेने महसूस किया की आस्तिको के मज़े हे वो सब कुछ ऊपर वाले पर छोड़ कर टेंशन फ्री भी हो जाते हे तो ये हे हालांकि ये भी सच हे के जैसे की हमने देखा की स्प्रिचुअल्टी अधिक आस्तिकता के सहारे तिवारी जैसे लोग उबर तो आये मगर इनके अंदर कम्युनलिज्म के कीटाणु भी आ गए और शुद्ध सेकुलरिज्म नहीं रहा कई जगह अब ये और हिन्दू कटटरपन्तियो की फौज सेम पेज पर हे जबकि हम जैसे लोगो की मुस्लिम कटटरपन्तियो से एक सेकण्ड के लिए भी नहीं जमती परसो डॉक्टर कज़िन आया वो मुश्किल से पांच या एक % ही कट्टरपन्ति होगा तब भी हम दो घंटे तक कुत्ते बिल्ली की तरह बहस करते रहे हमसे कहा जाता हे की तुम थोड़े रिलजियस क्यों नहीं होते मेने कहा नहीं होसकते क्योकि हमारी मज़बूरी हे की हमें तर्क की दुनिया में रहकर कटटरपन्तियो से लड़ाई लड़नी हे कुल मिलाकर तर्क और फेथ के सटीक बेलेन्स और सहअस्तित्व बनाना होगा काम बहुत कठिन हे मगर करना होगा
Zaigham Murtaza
Yesterday at 19:44 ·
इस मुल्क को ज़हरीला बनाने में सबसे अहम योगदान गुजरात के ठलुओं और बिहार, यूपी के भैय्यों का है। काम धाम कुछ है नहीं, बच्चे पैदा किए और ठेल दिए सस्ते शिशु मंदिर और मदरसों में। हिंदुस्तान भर के सस्ते धार्मिक स्कूलों के छात्रों की लिस्ट देख लीजीए… हर दूसरा ज़हर उगलता नेता देख लीजिए इन्ही तीन राज्यों का होगा। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, बेंगलुरू, हैदराबाद छोड़िए पंजाब के दूरदराज़ गांव में मज़दूरी करने वाला और तमिलनाडु के किसी सेठ का ग़ल्ला संभालने वाला भी गज्जू होगा या भैय्या। जहां जाते हैं अपने मज़हब की पोटली साथ लेकर जाते हैं। दुकान जमाई और कमाई शुरू। गांव गाव शाखा और गांव गांव जमात में ये… बजरंगी, सिमी, तबलीग़ी, अंजुमनी ये। कश्मीर की मस्जिद के इमाम से लेकर रामेश्वरम के मंदिर तक में यही नज़र आएंगे। सारी सियासत, सारी लड़ाई और सारे खेल इनके बोए हैं। बाक़ी बात अगर ग़लत है तो सबूत के साथ साबित करदें। तब तक हम भी खाने कमाने का कोई ठिकाना तलाश लें।Zaigham Murtaza
9 hrs ·
चंद्रशेखर आज़ाद आज अगर जेल में है तो उसकी वजह मायावती अमित शाह की अघोषित दोस्ती है। बीजेपी मायावती की सुखसुविधाओं और अट्टालिकाओं से छेड़छाड़ नहीं करेगी। बहनजी को टिकट और वोट ट्रांसफर का उचित मुआवज़ा मिलता रहेगा और बीजेपी सत्ता भोगती रहेगी। इधर बीजेपी यूपी में दूसरा जिग्नेश नहीं पनपने देगी। चंद्रशेखर टाईप लौंडे, जो ख़ास विचारधारा के विरुद्ध हैं बीजेपी-बीएसपी की मौक़ापरस्त राजनीति में फिट नहीं बैठते। कितने और दंगाई जेल में हैं? जबकि यूपी सरकार अपने घोषित दंगाईयों पर से मुक़दमे वापस ले रही है चंद्रशेखर पर बीजेपी-बीएसपी की ख़ामोशी सब बयान कर रही है। ‘द ग्रेट चमार’ नामक सवर्ण विरोधी विद्रोह मायावती की सर्वजन संभाव और संघ की जाति तोड़ो योजना के लिए ख़तरनाक है। इसीलिए दोनों मिलकर चंद्रशेखर आज़ाद को निपटा रहे हैं।