आज़ादी के बाद प्रगतिशील आंदोलन लेखन के लेखक निश्तर साहब ( 1930 – 2006 ) ने कम ही लिखा मगर बढ़िया लिखा पेश हे उनकी बेहतरीन पुस्तक हिंदी साहित्य निकेतन बिजनौर से प्रकाशित ” कैसे कैसे लोग मिले ” से उनके कुछ विचार निश्तर साहब लिखते हे – यहाँ यह बताता चलू की दिल्ली प्रवास से पहले ही मेरा लगाव मार्क्सवाद से हो गया था यह लगाव मार्क्स और लेनिन के साहित्य को पढ़ कर इतना नहीं हुआ जितना उर्दू हिंदी साहित्य को पढ़ कर हुआ था पहले मेने भी देखा देखि धार्मिक मान्यताओ से खुल कर इंकार किया . ‘ शैतान बख्श दिया गया ‘ जैसी विद्रोही कविताय लिखी और बाद में सोच के धरातल पर भी धार्मिक वयवस्था पर मेरी आस्था समाप्त हो गयी . यहाँ समाप्त शब्द पूर्ण रूप से सत्य नहीं हे क्योकि मेरा मानना हे की कोई भी व्यक्ति शतप्रतिशत नास्तिक नहीं हो पाता . हज़ारो वर्ष के संस्कार आस्थाओ से किसी न किसी हद तक उसे जोड़े रखते हे जोश मलीहाबादी ने कहा था ‘ यह दीन पे इसरार किया जाता हे वह दीन से बेजार किया जाता हे इक उम्र से इंकार पे माइल हे दिमाग और दिल हे की इकरार किये जाता हे ‘
बात दरअसल यह हे की पुरानी आस्थाय उस वक्त तक अपनी जड़े नहीं छोड़ती जब तक नई आस्थाओ की नीव नहीं मज़बूत हो जाती और जहा तक हमारा सवाल हे हमने तो नास्तिकता सैद्धांतिक आस्था के माध्यम से नहीं फैशन के माध्यम से ग्रहण की थी बाद में इसे चिंतन और वैज्ञानिक विश्लेषण ने काफी कुछ माँजा भी पर धब्बे पूरी तरह से दूर नहीं हुए हां इतना अवश्य हे की साहित्य ने और वैज्ञानिक सोच ने मुझे और मेरे जैसे कई औरो को भी दीन धर्म जाती पाँति और सामाजिक भेदभाव से ऊपर उठ कर सोचना और वयवहार करना सिखाया . आप चाहे तो मेरे व्यक्तित्व में एक अर्द्ध नास्तिक पहलु जोड़ सकते हे जिसके भीतर कही न कही आस्थावान चोर छिपा हे , लेकिन जो धार्मिक भेदभाव से पूर्णतया अलग हे , जो आदमी को धर्म जाती या किसी अन्य खाने में रख कर नहीं देखता मानव उसके लिए पहले भी मानव हे और अंत में भी मानव जो उसे उसकी समस्त दुर्बलताओं और पर्बलताओ सहित स्वीकार करता हे .
बुद्धि के स्तर पर मेरी किसी भी धर्म में कोई आस्था नहीं हे मुझे लगता हे जैसे भौतिक सत्ता स्थापित करने वालो अपनी शक्ति से काम लेकर जनता को अपने अधीन बना रखा , वैसे ही आध्यात्मिक सत्ता कायम करने वालो ने अपने विवेक और मानसिक शक्ति से काम लेकर एक ऐसी बड़ी वयवस्था स्थापित की जो पहली वयवस्था से कही ज़्यादा शक्तिशाली थी और फिर ये दोनों सट्टे मिलकर आदमी को जड़ एव दास बनाने में लग गई . पर आज भी जबकिसी बहुत ही सुंदर नारी का चेहरा मुझे दिखाई दे जाता हे तो बरबस कह उठता हु की इसे देख कर लगता हे की खुदा हे मेने इसी लेख में कही कहा हे की पूर्ण रूप से नास्तिक हो जाना हर आदमी के बस की बात नहीं हे हज़ारो वर्ष पुराने संस्कार छीप छीप कर उस पर हमला करते रहते हे संसार की सुन्दरतम रचनाओ को देख कर चाहे वह नारी के रूप में हो या किसी और रूप में , मुझे लगता हे की इसका कोई महानतम रचयिता होना चाहिए इससे आगे मर्त्यु के बाद मिलने वाला जीवन सवर्ग नरक हिसाब किताब आदि मान्यताओ पर मेरा विशवास नहीं हे ” साभार हिंदी साहित्य निकेतन बिजनौर से प्रकाशित ” कैसे कैसे लोग मिले ” पुस्तक
( प्रस्तुति- सिकंदर हयात )
अच्छी किताब हे ये पढ़ कर पता लगा की मरहूम निश्तर साहब काफी प्रतिभाशाली व्यक्ति थे मगर आर्थिक समस्याओ और प्रोत्साहन की कमी से कुछ खास अधिक ना लिख पाये न वो मुकाम हासिल कर पाये जो इनका हो सकता था फिर भी अच्छा लिखा उनकी किताब के माध्यम से कुछ और जरुरी बाते भी पेश करने की कोशिश करूँगा काका हाथरसी के दामाद अग्रवाल साहब का भी शुक्रिया की उनकी ईमानदार कोशिशो से ये किताब छपी थी अच्छा इस किताब में घोर साम्प्रदायिक ग़ज़ल लेखक विनय चतुर्वेदी उर्फ़ तुफैल चतुर्वेदी जी का भी जिक्र हे
मैं तो कायल हूँ फलसफा-ए-मन्तिक का, मैने मज़हब की सुनी तो बहुत लेकिन मानी नही.
ईश्वर मे आस्था रखना और किसी मज़हब मे आस्था रखना दो भिन्न बाते है. एक व्यक्ति किसी भी मजहब मे विश्वास ना रखने के बावजूद भी ईश्वर मे अटूट आस्था रख सकता है.
में एक बड़े परिवार और बड़े समाज का सदस्य रहा हु जहा खुशिया डबल रही और तनाव ट्रिपल से भी ज़्यादा रहे हे ऐसे में मेरी न कोई इमोशनल नीड हे ना मेरी खुद की कोई स्प्रिचुअल नीड हे मेरी केवल फाइनेंशियल नीड और समस्याएं रही हे बाकी कुछ दरकार नहीं फिलहाल दूर दूर तक हे लेकिन हां दुसरो की इमोशनल या स्प्रिचुअल नीड का में सम्मान करता हु मेरी सिस्टर को बेटी की चाहत थी शायद दस बीस लाख अस्पतालों को देकर और कम से कम दो मिसकैरेज झेल कर भी उन्होंने बेटी हासिल कर ही दम लिया और गुड़िया से भी ज़्यादा सुन्दर मेरी डेढ़ साला भांजी हे इसी दौरान उन्होंने मुझसे कुछ समझिए काम करने को कहा कुछ गतिविधिया अब खुद अगर में मर भी रहा हु तो भी में ना करता मगर सिस्टर की खातिर मेने किया क्योकि बहुत नाजुक टाइम था मेने कहा चलो इस गतिविधि से सिस्टर को तसल्ली होती हे तो ठीक हे में जाता हु खुद अपने लिए में कभी न करता चाहे जो होता हो तो ये हे
नश्तर खंखाही की में ने शायरी पड़ी है और उन का शुमार एक अच्छे शायर में होता है . उन की ये किताब पड़ने की खाविश है देखते है अगर कोई इंडिया से आता है तो उसे मंगाया जाये गा
निश्तर खानकाही
ज़िन्दगी को ज़र-ब-कफ़, ज़रफाम करना सीखते
कौन था वो किससे हम आराम करना सीखते
वक़्त ने मोहलत न दी वरना हमें मुश्किल न था
सिरफिरी शामों को नज़रे-जाम करना सीखते
सीख लेते काश हम भी कोई कारे-सूद-मंद
शेर-गोई छोड़ देते, काम करना सीखते
खुद-ब-खुद तय हो गए शामो-सहर अच्छा था मैं
सुबह करना सीख लेते, शाम करना सीखते
क़द्र है जब शोरो-गोगा की तो हजरत आप भी
गीत क्यों गाते रहे, कोहराम करना सीखते
जनवादी लेखक संघ की प्रेस रिलीज…
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें, किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए… ऐसा कहने वाले, हिंदी-उर्दू की तरक्क़ीपसंद, जम्हूरियतपसंद अदबी रवायत के प्रतिनिधि शायर, निदा फ़ाज़ली का देहांत हम सबको गहरे विचलित कर देनेवाली एक ख़बर है. वे 78 साल के थे. देश के बंटवारे के समय, जब उनकी उम्र महज़ 9 साल की थी, उन्होंने अपने परिवार की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ भारत में ही रहने का फ़ैसला किया. ग्वालियर और भोपाल में अपने संघर्ष के आरंभिक दिन बिताने के बाद 1960 के दशक में वे बम्बई चले गए, जहां ‘धर्मयुग’ और ‘ब्लिट्ज’ में स्तम्भ लेखन करते हुए 80 के दशक में उन्हें फिल्मों में गीत लिखने के प्रस्ताव मिलने शुरू हुए.
उनके लिखे कई गाने बहुत लोकप्रिय हुए. वे उन रचनाकारों में से थे जिनके यहाँ ‘लोकप्रिय’ और ‘साहित्यिक’ का अंतर एक छद्म साबित होता है. उनकी कितनी ही पंक्तियाँ आम जनता की ज़ुबान पर चढ़ी हुई हैं. उनकी शायरी और फ़िल्म-गीत, दोनों में बहुत आमफ़हम मुहावरे में जिस स्तर की दार्शनिकता और जनपक्षधर अंतर्वस्तु मिलती है, वह कम ही रचनाकारों के यहाँ सुलभ है. तक़सीम से मिला दर्द आजीवन उनके साथ रहा और वे लगातार बहुत मज़बूती से फ़िरकापरस्ती, बुनियादपरस्ती के ख़िलाफ़ रहे. निदा फ़ाज़ली साहब ने 1997 में जनवादी लेखक संघ के कलकत्ता अधिवेशन में उपस्थित होकर औपचारिक रूप से संगठन की सदस्यता ली थी. तब से लेकर वे मृत्युपर्यंत जलेस के सदस्य रहे. उनके निधन से जनवादी लेखक संघ शोक-संतप्त है. हम उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं.
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह
(महासचिव)
संजीव कुमार
‘ कल वयवस्था में ढल जाएंगे ये आज के जोशीले आदर्शवादी ” निश्तर खानकाही पाठको आजकल जे एन यु और उसके वामपंथी छात्र नेताओ की चारो तरफ चर्चा हे आज बेहद जुझारू और अपने मकसद धुन और दुनिया बदलने के पक्के लग रहे हे ये लोग कल को इनको क्या हो जाता हे ? ये सब बदल क्यों जाते हे ? पेश हे इसी विषय मरहूम लेखक निश्तर खानकाही की कुछ खरी खरी जो उन्होंने अपनी पुस्तक कैसे कैसे लोग मिले में लिखी हे एक जगह वरिष्ठ लेखक कवि अकादमिक अशोक चक्रधर को याद करते हुए निश्तर साहब लिखते हे ”रात सोने से पहले सोचा था की अशोक चक्रधर के बारे में लिखूंगा कवि व्यंगकार टी वि फिल्मो के निर्माता जनवादी साहित्यकार शिक्षक प्रोफेसर आदि आदि ————-अशोक चक्रधर कम से कम लोगो को नेकी की तरफ बुला तो रहा हे आवाज़ तो दे रहा हे लोगो को . में ऐसे लोगो की निराशा को बेहतर समझ सकता हु जिन्होंने अशोक चक्रधर और उसके वामपंथी साथियो को दिल्ली की सड़को पर लाल झंडा उठाय और मार्च करते देखा था कहते हे यह उसके लड़कपन या युवावस्था के दिन थे वह भी साहित्य में रूचि लेने वाले कई अन्य युवको की तरह लेखन के माध्यम से ही प्रगतिशील और फिर जनवादी आंदोलन के साथ आया था एक लम्बी कतार थी ऐसे नौजवानो की जो इस बाढ़ में बहकर जनता के साथ आये थे आज विश्लेषण करता हु तो मुझे लगता हे कुई प्रगतिशील या जनवादी आंदोलन से प्रतिबद्धता के पीछे उन दिनों उन युवा लेखको के भीतर कोई सोचा समझा और अपने मन मस्तिष्क में गहराई तक उतरा हुआ कोई सिद्धांत नहीं था एक विद्रोह था पुरानी जड़ होती हुई सामाजिक मान्यताओ को तोड़ने की एक ललक थी , जनवाद के मंच से उदय होकर उजाले की तरह फैलने की एक प्यास थी जो शांत हो गयी तो कितने ही लोग आंदोलन दुआरा अर्जित की गयी पूंजी को लेकर वयवस्था का हिसा बनते ही चले गए दिक्कत यह थी की पुराने सामंती युग की सामाजिक मान्यताओ और नैतिक मूल्यों को तो हम लोग अपने विद्रोही उन्माद में तोड़कर छिन्नभिन्न कर चुके थे किन्तु नए प्रगतिशील अथवा जनवादी समज की नैतिकता अभी अस्तित्व में नहीं आई थी इसलिए हम्मे बहुत से लोगो को पूंजीवादी या अवसरवादी वयवस्था का हिसा बनने में कोई झिझक नहीं हुई ————————
दिल्ली के रहने वाले उन दिनों के कितने ही लोग साक्षी हे की उन्होंने तब युवावस्था के चक्रधर को सड़को पर अपनी टोली के साथ लाल झंडे उठाय मार्च करते देखा हे यह टोली कितनी ही बार जब अँधेरी सुनसान रात होती और सड़को पर कुत्ते भोंक रहे होते , उन्हें दीवारो पर क्रन्तिकारी पोस्टर चिपकाते दिखाई दी मुठिया ताने हुए और इंकलाब की जवाला आँखों में दहक़ाए , कुछ पहचाने अनपहचाने सपने लिए यह अशोक चकधर जे मुकेश हे सुधीश पचोरी हे , भगवती हे कर्णसिंह चौहान हे नौजवानो का एक जत्था हे जो आगे बढ़ रहा हे क्रांति के मार्ग पर कविताय लिख रहा हे लेख लिख रहा हे नाटक खेल रहा हे . ये सारे युवा अपने उद्द्शेय में सच्चे थे और खरे थे लेकिन साथ ही बहुत मासूम और सीधे भी वे नहीं जानते थे की उनके पास विचार की जो पूंजी हे उस पर ख्याति का ठप्पा लगते ही , वह एक दिन आगे चल कर बाजार की बहुमूल्य वास्तु में परिवर्तित हो जाने वाली हे वही लोग , जिनमे इस इस्तिथि का स्वागत करने की क्षमता थी , इसमें ढल गए , जिनमे बाजार की ऐसी योग्यता नहीं थी , वे रह गए यहाँ देखना होगा की बाज़ारवाद ने किसको अंदर से कितना बदला हे . जब मेने यह देखा की हास्य व्यंगय कवि की हैसियत से अशोक चक्रधर सुरेंदर शर्मा के बाद सबसे महंगा कवि हे वह भारी मुआवजे के अलावा हवाई ज़हाज़ के किराय से कम पर बात नहीं करता , मुझे कोई हेरात नहीं हुई , क्योकि अपनी कला का मोल लगाना सबको नहीं आता और जिन्हे नहीं आता वो निसंदेह दुखी होते हे में इस तोह में लगा रहता हु की वय्वसायी होने के बावजूद कोई आदमी कितना अच्छा आदमी रह गया हे यह अनुभव की दौलत जब एक दरवाज़े से घर में प्रवेश करती हे तो शराफत दूसरे दरवाज़े से बाहर निकल जाती हे , सब पर लागू नहीं होता और मेरा ख्याल हे अशोक चक्रधर सबमे शामिल नहीं होंगे न वह शामिल होना चाहेंगे ”————–
हिंदी साहित्य निकेतन बिजनौर से प्रकाशित लेखक मरहूम निश्तर खानकाही की पुस्तक कैसे कैसे लोग मिले से साभार
Sanjay Shraman Jothe
11 October at 16:09 ·
बुद्ध, बौद्ध धर्म और विपश्यना : भारतीय समाज की संजीवनी
+++++++++++++++++++++++++++++++++++++
बुद्ध से लेकर कृष्णमूर्ति जैसे गंभीर दार्शनिकों और ओशो जैसे मदारी बाबाओं तक में धर्म और मानवीय चेतना के बारे में एक वैज्ञानिक प्रस्तावना उभरती रही है. अलग अलग प्रस्थान बिन्दुओं से यात्रा करते हुए बुद्ध कबीर अंबेडकर कृष्णमूर्ति और ओशो एक जैसी निष्पत्तियों पर आ रहे हैं और गौतम बुद्ध की क्रान्तिद्रिष्टि को समकालीन समाज के अनुकूल बनाते जा रहे हैं. जैसे जैसे सभ्यता आगे बढ़ रही है, सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक बदलावों और क्रांतियों के साथ वैज्ञानिक और तकनीकी विकास होता जा रहा है वैसे वैसे मनुष्य समाज अधिकाधिक बौद्धिक रुझान का होता जा रहा है. कोरे विश्वासों और मूर्खतापूर्ण कर्मकांडों से परे विशुद्ध ध्यान मूलक अनुशासनों का आकर्षण बढ़ रहा है. अब जब ध्यान की बात आती है तो इसका अर्थ बुद्ध और बौद्ध धर्म होता है. पूरी दुनिया में बुद्ध और बौद्ध धर्म ध्यान और चेतना के विकास के विज्ञान के पर्याय बन चुके हैं.
इस कड़ी में हम ये जानने का प्रयास करेंगे कि सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक आयामों के अतिरिक्त वह कौनसा आयाम है जिसकी किसी कौम को या किसी समाज को जरूरत होती है.
वह कौनसी भूमि है जिसपर खड़े होकर कोई समाज या कौम अपने होने की घोषणा करता है और जिसके आधार पर वह अपने अतीत सहित भविष्य का चेहरा दुनिया के सामने रखता है. वह आयाम है उस समाज का “धर्म और रहस्यवाद”. और यह आयाम व्यावहारिक रूप में उस समाज की ध्यान करने की या चेतना के विकास को सिद्ध करने और समझाने की पद्धति से अनुमान में आता है. सीधी सी बात है किसी समाज में या धर्म में चेतना के विकास का या चेतना के अंतिम लक्ष्य के संधान की जैसी धारणा होती है, उसी के अनुरूप उसका सदाचार, शिष्टाचार, सामाजिक ताना बाना, जीवन व जगत के प्रति दृष्टिकोण और न्याय बोध आकार लेता है. ध्यान और आत्मिक विकास के अन्य अनुशासनों का स्वरुप देखकर ही उसकी मान्यताओं का वास्तविक अर्थ समझा जाता है.
इस अर्थ में हमें यह समझना बहुत जरुरी है कि एक वैज्ञानिक और समतामूलक समाज की स्थापना की दिशा में सामाजिक राजनीति और आर्थिक उपायों से कहीं आगे जाते हुये एक वैज्ञानिक आध्यात्म की भी आवश्यकता है. यह विषय बहुत महत्वपूर्ण है. धर्म और रहस्यवाद की जिस तरह की धारणाएं प्रचलित हैं और जिस तरह से दलित और गरीब समाज उसमे फसा हुआ है उसे देखकर इस विषय की महत्ता और भी बढ़ जाती है. जिन्होंने इस विषय पर गहराई से अध्ययन किया है और आसपास के जीवन को आँखें खोलकर देखा है वे जानते हैं कि गरीबों, दलितों और महिलाओं की असली गुलामी सामाजिक राजनीतिक या आर्थिक गुलामी नहीं है.
असली गुलामी मनोवैज्ञानिक गुलामी है और उसका एकमात्र स्त्रोत धर्म और इश्वर या आत्मा की धारणा में होता है. जो लोग नास्तिकवाद का प्रचार करते हैं वे इस बात को समझते हैं लेकिन इस सच्चाई को अमल में लाने का जो माडल देते हैं वह व्यक्तिगत विद्रोह का माडल है. नास्तिक और इश्वर विरोधी सामूहिक क्रान्ति अगर किसी तरह हो सकती है या हुई है तो वो गौतम बुद्ध के साथ ही संभव है. बुद्ध आत्मा, परमात्मा स्वर्ग नरक और पुनर्जन्म की मूर्खतापूर्ण धारणाओं को एकदम निकाल बाहर करते हैं और एक वैज्ञानिक आध्यात्म की नीव रखते हैं. बुद्ध असल में चेतना के जगत में सबसे महान वैज्ञानिक हैं. और कई अर्थों में बौद्ध धर्म वैज्ञानिक आध्यात्म का पर्याय बन गया है. बुद्ध और बौद्ध ध्यान अनुशासन को समझना इस सन्दर्भ में उपयोगी होगा. आइये इस विषय में प्रवेश करें.
बुद्ध भारत के लिए क्यों जरुरी हैं और उनकी बतलाई पद्धतियाँ किस तरह हमारे लिए उपयोगी हैं ये हमें जानना चाहिए. जो लोग भारतीय समाज में विभाजन अंधविश्वास, ऐतिहासिक, पराजय, गुलामी और अवैज्ञानिकता को देखकर दुखी होते हैं उन्हें बुद्ध को गहराई से समझना चाहिए. अक्सर ही भारतीय समाज की समस्याओं का पहाड़ देखकर निराशा होती है और इस पहाड़ के सामने नतमस्तक हो चुके बुद्धिजीवी, क्रांतिकारी, प्रगतिशील, नास्तिक नए धर्मों के प्रवर्तकों और गुरुओं से भी निराशा होती है. कुछ विद्रोहियों को छोड़ दें तो बाकी सब के सब पुरानी समाज व्यवस्था के सामने हार चुके हैं. न केवल हार चुके हैं बल्कि वे बहुत अपमानजनक समझौते करके ज़िंदा हैं.
इस अर्थ में मध्यकाल के कबीर और आधुनिक युग के कृष्णमूर्ति अकेले हैं जो कोई समझौता नहीं कर रहे हैं. इन दोनों में बुद्ध की तरह ही गैर समझौतावादी क्रान्तिद्रिष्टि है. कबीर का साहित्य चूंकि प्रक्षिप्तों से पाट दिया गया है और उनके लेखन में बहुत सारा लेखन उनके विरोधियों ने उनके नाम से ठूंस दिया है इसलिए कभी कभी कबीर भी परम्परागत लगते हैं. खासकर तब जब उनकी भक्ति और उनका रहस्यवाद वैष्णव भक्ति या नवधा भक्ति जैसा नजर आता है. कबीर न तो रामानंद के शिष्य हैं न वैष्णव हैं. वे खालिस गैर सांप्रदायिक व्यक्ति हैं जो जाति वर्ण सहित स्त्री पुरुष के विभाजन को भी नहीं मानते हैं. इस अर्थ में वे बुद्ध के बहुत निकट हैं. ब्राह्मणवादियों और पोंगा पंडितों ने षड्यंत्र पूर्वक बुद्ध को विष्णु और कबीर को वैष्णव बनाया है. लेकिन बुद्ध और कबीर इतने विराट हैं कि इन आरोपणों और षड्यंत्रों का सीना चीर कर बार बार निकल आते हैं और अंधविश्वास पर खड़े धर्मों की प्रस्तावनाओं पर कहर बनकर टूटते हैं. ये उनकी अपनी विशेष शैली और पहचान है.
उधर कृष्णमूर्ति तो खालिस बौद्ध दर्शन पर ही टिके हैं और उनकी शिक्षाओं का सार बौद्ध धर्म की विपश्यनामूलक अंतर्दृष्टि पर आधारित है. उनका सबसे गहरा और प्रचलित वक्तव्य है – “दृष्टा ही दृश्य है” (observer is the observed). यह बहुत ही सुन्दर और क्रांतिकारी वक्तव्य है. इस एक वक्तव्य की गहराई में जाते ही हम देख सकेंगे कि कृष्णमूर्ति की “चोइसलेस अवेयरनेस” और बुद्ध की “विपश्यना” कैसे एक समान हैं और कैसे मनुष्य की चेतना पर काम करती है. बुद्ध के असली चमत्कार को समझना है तो इस भूमिका से गुजरकर देखिये. आप न सिर्फ धर्म और रहस्यवाद के एक उजले पक्ष को देख सकेंगे बल्कि यह भी जान पायेंगे कि भारत की सनातन समस्याओं के लिए सबसे कारगर इलाज क्या है.
विपश्यना को गहराई से समझते हैं. विपश्यना का अर्थ है देखना या पीछे मुड़कर देखना. इसी से स्पष्ट होता है कि दृष्टा या साक्षी पर आधारित यह कोई विधि है. दर्शन शास्त्र का “दर्शन” शब्द इसी अनुभूति का परिणाम है. जिन लोगों ने मनुष्य के मन और जीवन सहित मनुष्य के समाज की समस्याओं का गहरा अध्ययन किया है उन्होंने रहस्यवाद या अध्यात्म को एक नकद और प्रेक्टिकल विद्या के रूप में प्रचारित किया है. दर्शन और देखना सहित विपश्यना और दर्शन शास्त्र एक ही प्रवाह में हैं. ताज्जुब नहीं कि इसीलिये बौद्धों ने दुनिया का सबसे विस्तृत और बहुआयामी दर्शनशास्त्र रचा है.
विपश्यना जिन मौलिक अनुभवों और अनुभवजन्य मान्यताओं पर खड़ी है वे बहुत महत्वपूर्ण हैं. सबसे महत्वपूर्ण मान्यता है कि मन शरीर और जीवन सहित प्रकृति में जो कुछ है उसे बगैर किसी धारणा या कल्पना के देखना. यह वैज्ञानिक और वस्तुनिष्ठ निरीक्षण का ही मानसिक रूप है. विज्ञान इसी ढंग से बाहर निरीक्षण करता है विपश्यना इस ढंग से मन में निरीक्षण सिखाती है. दूसरी बात ये कि सब पदार्थ और रचनाएं असल में किसी अन्य पदार्थों और रचनाओं के सम्मिलन या संघात का परिणाम हैं. उनका स्वयं में कोई अस्तित्वगत मूल्य नहीं है. जैसे कि जिसे हम शरीर कहते हैं वह बहुत सारे जीव द्रव्यों और रसायनों से मिलकर बना है. ये द्रव्य अंतिम रूप से चार महाभूतों में सिमट जाते हैं जिन्हें प्रथ्वी जल अग्नि और वायु गया है (यहाँ आकाश को शामिल नहीं किया जाता है). इन द्रव्यों या महाभूतों से शरीर की रचना हुई है इसलिए अगर शरीर को ठीक से देखा जाए तो वह भी अंततः इन चार महाभूतों में विघटित होता हुआ नजर आता है. अंत में जो बचता है वह चेतना है जो इस संघटन या विघटन को दूर से देखती है.
वह एक अर्थ में आकाश स्वरुप है लेकिन चूंकि वह इस सबमे शामिल नहीं होती इसलिए चेतना और आकाश को चार महाभूतों से अलग ही रखा गया है. हिन्दुओं की तरह उसे पंचभूतों की श्रेणी में शामिल नही किया गया है. इसका क्या लाभ है इसपर आगे बात करेंगे. तो विपश्यना शरीर को अन्य द्रव्यों का समुच्चय मानती है और शरीर ही नहीं मन और व्यक्तित्व सहित “स्व” को भी अन्य छोटी छोटी स्वतंत्र रचनाओं का समुच्चय मानती है. यह बौद्ध दर्शन की धुरी है. “मन” “व्यक्तित्व” “स्व” या “आत्म” असल में स्मृतियों, इच्छाओं, कल्पनाओं और विचारों का ढेर मात्र है. इसीलिये मन में ठीक से झाँकने पर अखंड मन जैसा कुछ पकड में नहीं आता सिर्फ विचार कल्पना स्मृति आदि ही नजर आते हैं. यही सबसे बड़ा दान है बौद्ध धर्म का और इसी से बुद्ध मानव मन की संरचना के सबसे महान अन्वेषक सिद्ध होते हैं.
इसीलिये वे अनत्ता या शून्य की प्रस्तावना कर सके थे. अगर मन अपने कारण स्वरूप विचारों स्मृतियों इत्यादि का ढेर है तो इस ढेर के बिखर जाने पर मन से मुक्ति मिल सकती है और मन से मुक्ति ही दुखों से मुक्ति है. इस तरह विपश्यना एक क्रांतिकारी मान्यता पर खड़ी है. वो ये कि मन या स्व को जिन रचनाओं ने मिलकर बनाया है उन रचनाओं को आपस में अन्तः क्रिया करते हुए आपस में टकराते हुए और अलग अलग रूप आकार लेते हुए देख लो. इस देखने से पता चलेगा कि मन और विचार अपने आप ही एक स्वतंत्र मशीन की तरह किन्ही कार्यकारण नियमों से चलते हैं वहां बहुत कुछ है जो यांत्रिक ढंग से होता है. वहां कोई दिव्य प्रेरणा या ईश्वरीय हस्तक्षेप जैसा कुछ नहीं है. अधिक से अधिक मनुष्य के स्वयं के विवेक को किसी परिवर्तन या निर्णय का श्रेय दिया जा सकता है अन्यथा तो मन स्वयं भी दूसरों से उधार ली गयी रचना है.
ये मान्यताएं बौद्ध धर्म की बहुत आधारभूत विशेषताएं हैं जो उसे हिन्दू व जैन धर्म से अलग करती हैं. इनका मतलब ये हुआ कि जैसे शरीर स्वयं में भोजन, जल, खनिज, मांस, मज्जा आदि से बनता है और इसी में विघटित हो जाता है उसी तरह मन या स्व भी विचार, भाव, इच्छा स्मृति कल्पना आदि से बनता है और उन्ही में विघटित हो जाता है. तब सवाल उठता है कि इस संघटन और विघटन को देखने और जानने वाला क्या है और कौन है? हिन्दू और जैन इसे आत्मा कहते हैं. और बौद्ध इस प्रश्न का उत्तर ही नहीं देते. स्वयं बुद्ध के समय से यह निर्देश दिया गया है कि इस प्रश्न का उत्तर न दिया जाए. उत्तर न देने के दो बड़े कारण हैं. पहला यह कि यह अनुभव से जानने योग्य बात है, इसे व्यर्थ की चर्चा का विषय बनाकर जिज्ञासा और अन्वेषण की चुनौती की ह्त्या नहीं करनी चाहिए.
दूसरा और सबसे बड़ा कारण है कि इसी प्रश्न के उत्तर पर सनातन आत्मा, परमात्मा, भूत प्रेत और पुनर्जन्म जैसे पाखण्ड खड़े होते हैं. फिर इन पाखंडों पर शोषण, कर्मकांड और विभाजन जन्म लेता है. इसीलिये बुद्ध ने इस प्रश्न का उत्तर छुपाकर एक बहुत ही क्रांतिकारी नजरिया दिया है जो उनके पहले कोई सोच भी नहीं सकता था. उनके बहुत बाद बीसवीं सदी के महान दार्शनिक लुडविन विटगिस्तीन ने भी यह लिखा है कि जो चीजें समझाई नहीं जा सकती उनकी बात भी नहीं की जानी चाहिये, इससे समझ नहीं बल्कि अंधविश्वास पैदा होता है. बुद्ध इस बात को न सिर्फ समझ रहे हैं बल्कि अमल में भी ला रहे हैं. बहुत बाद में इस प्रश्न के उत्तर पर जब विवाद बढ़ता है तो उस सत्ता को शून्य कहा दिया गया है. असल में यह गहरा मजाक है, अनाम को शून्य का नाम दिया है यह भी बौद्ध दार्शनिकों की समझ का ही चमत्कार है. वे शून्य नाम देकर भी अनाम या अनुत्तर को उत्तर बता रहे हैं और विरोधियों का मुंह बंद कर रहे हैं. आज भी लोग यह समझने में कठिनाई अनुभव करते हैं कि अगर वे जानते हैं तो उत्तर क्यों नहीं देते. ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि बुद्ध के लिए अध्यात्म या रहस्यवाद अनुभव का विषय है वे कथावाचक या प्रवचनकारों की तरह ध्यान धर्म और अध्यात्म को मनोरंजन का विषय नहीं बना रहे हैं. वे अनुभव करने के लिए ललकारते हैं. और विपश्यना उनके अनुभव का मार्ग है.
इस तरह विपश्यना मूलतः अपने ही मन और व्यक्तित्व में झाँकने की प्रणाली है. यह अपने आप में इतनी वस्तुनिष्ठ और वैज्ञानिक है कि इसकी तुलना में अन्य कोई भी ध्यान या निरीक्षण की विधि किसी अन्य धर्म में नहीं है. और इसके जो परिणाम हैं वे भी अन्य विधियों में नहीं हैं. विपश्यना को अन्य प्रणालियों से अलग समझने के लिए अन्य विधियों का उदाहरण समझना चाहिए. भारत के अन्य धर्मों में प्रचलित विधियां कल्पना और सम्मोहन पर आधारित हैं. इस कल्पना को धारणा कहा गया है. धारणा ऐसी कल्पना को कहा गया है जो अभी व्यक्ति के लिए साकार नहीं हुई है लेकिन गुरु के लिए वह साकार हो गयी है. जैसे कि तृतीय नेत्र का अभी शिष्य को कोई अनुभव नहीं है लकिन गुरु को हो चुका है. इसलिए गुरु शिष्य को तीसरे नेत्र पर किसी ज्योति की कल्पना करने को कहता है. या किसी देवी देवता के स्वरुप पर या मन्त्र या पवित्र शब्द को दोहराने को कहता है. इस तरह अन्य भारतीय धर्मों की सारी विधियाँ कल्पना और एकाग्रता पर आधारित हैं. इसका सीधा अर्थ हुआ कि यह कल्पना किसी अन्य के द्वारा दी जायेगी और इस कल्पना पर आपको एकाग्र होना है. आइये इसका पोस्टमार्टम करते हैं.
इस तरह की विधियों में यह मानकर चला जा रहा है कि गुरु अनिवार्य रूप से शिष्य से अधिक जानता है, सही जानता है और उसकी सत्ता को शिष्य को अनिवार्य रूप से मानना ही होगा. इसीलिये अन्य धर्मों में गुरु की अनिवार्यता एक भयानक समस्या बन जाती है. इसी से स्वतंत्र वैज्ञानिक सोच, नवाचार और विद्रोह सहित वैज्ञानिक जिज्ञासा की संभावना पर रुकावट लग जाती है. गुरु शिष्य के बीच में बहुत फासला पैदा हो जाता है जो अमानवीय है. इसी फासले का फायदा उठाकर शिष्यों का शोषण होता आया है. इसीकारण शिष्य गुरुओं से इमानदारी से प्रश्न करना भूल गये हैं और जब चुनौतीपूर्ण प्रश्न नहीं पूछे जाते तो गुरुओं में भी एक झूठी आत्ममुग्धता पैदा हो गयी है. भारत में विश्वगुरु होने की बीमारी यहीं से निकली है.
कल्पना के बाद इन विधियों का दूसरा पहलू है एकाग्रता का. शरीर के किसी हिस्से या मन्त्र इत्यादि पर एकाग्रता करनी होती है. इसका अर्थ यह हुआ कि अध्यात्म या ध्यान की सबसे आधारभूत प्रक्रिया की शुरुआत से ही अपने मन और शरीर में विभाजन करने की आदत डाली जा रही है. ये आध्यात्मिक स्क्रीजोफेनिया है. इसमें असल में ये सिखाया जा रहा है कि आपके शरीर में या आपके मन में कोई एक हिस्सा कोई एक विचार पवित्र है और बाकी अपवित्र है. इसी से शरीर मन और व्यक्तित्व में विभाजन पैदा होता है और एक ही व्यक्ति बहुत सारे खण्डों में टूट जाता है. तब उसे शिष्य या गुलाम बनाना और अधिक आसान हो जाता है. इससे शिष्य का रहा सहा व्यक्तित्व भी ख़त्म हो जाता है. अन्य धर्मों में इसी इस मुर्दगी को गुरु या ईश्वर के प्रति समर्पण कहा गया है. इसे बहुत ऊँची अवस्था माना गया है. असल में यह व्यक्ति के स्वतंत्र व्यक्तित्व की हत्या है. इसीलिये ऐसे धर्म नए प्रयोग या नवाचार नहीं कर पाते. सनातन शब्द का अर्थ ही है नए की संभावना का निषेध. पुराने का ही एक अनंत से दुसरे अनंत तक सातत्य.
इस प्रकार कल्पना और एकाग्रता दोनों ही आत्मघाती हैं, गुलाम बनाने वाली हैं और वैज्ञानिक जिज्ञासा की विरोधी हैं. इन्ही से लोगों को मानसिक बीमारिया होती है जिन्हें धार्मिक भाषा में उच्चाटन कहा जाता है. असल में यह कुछ और नहीं है बल्कि विभाजित व्यक्तित्व की बीमारी है जिसे मनोविज्ञान में स्क्रीजोफेनिया कहा जाता है. कल्पनाओं के गहरे दबाव और एकाग्रता से इंसान का अपने खुद के व्यक्तिव से नाता ही टूट जाता है और जिस देवता या भगवान की कल्पना की जाते है वह चलता फिरता या बात करता नजर आने लगता है. यह मानसिक विक्षिप्तता है जिसे अन्य भारतीय परम्पराओं ने बहुत सम्मान दिया है. लेकिन मनोविज्ञान में यह “हेलिसुनेशन” कहलाता है. इसे परम्परा में दिव्य दर्शन कहा गया है, इसकी मूर्खता निस्सारता को इसी बात से समझा जा सकता है ये दिव्या दर्शन उन्ही महापुरुषों या भगवान् का होता है जिसे आप पूजते आये हैं.
किसी हिन्दू को जीसस या किसी इसाई को महाकाली नजर नहीं आती.
इस तरह अन्य धर्मों की प्रार्थना या कल्पना या एकाग्रता आधारित विधियाँ असल में उन्हें पंगु और कमजोर बनाती हैं. न केवल व्यक्ति के स्तर पर वे भयानक रूप से परनिर्भर और गुलाम बन जाते हैं बल्कि समाज और राष्ट्र के स्तर पर भी वे नयेपन और नवाचार से डरने लगते हैं. इसीलिये ऐसे समुदायों में न विज्ञान जन्म लेता है न साहस. यही भारत की हजारों साल लंबी गुलामी का कारण भी रहा है.
इस तरह की प्रणाली के विपरीत विपश्यना में सब कल्पनाएँ मन्त्र तंत्र और धारणाओं को फेंकने के लिए कहा जाता है. शरीर पर और मन पर ध्यान गहराने के लिए प्राकृतिक रूप से चलने वाली श्वांस को “देखने” के लिए कहा जाता है. ये श्वांस पर एकाग्रता नहीं है न ही श्वांस को खींचतान करने का प्राणायाम है. यह शुद्ध रूप से दृष्टा की तरह श्वांस को आते जाते देखने का काम है. इसे करते हुए धीरे धीरे पता लगता है कि शरीर में बहुत सारी चीजें चल रही हैं जिन्हें हमने कभी देखा या जाना ही नहीं. बहुत सारी यांत्रिक चीजें मन में चल रही हैं जो हम समझते रहते हैं कि हमारे निर्णय से होती हैं. इस तरह विपश्यना में प्रवेश करते ही यह साफ़ होने लगता है कि शरीर का अनुभव असल में बहुत सारे अंगों की संवेदनाओं के समुच्चय का अनुभव है और मन का अनुभव विचारों भावनाओं भयों स्मृतियों अत्यादी का अनुभव है.Sanjay Shraman Jothe
इतना पता चलते ही मन से एक दूरी बन जाती है. तब मन को एक कंप्यूटर की तरह बंद चालू करने की कुशलता आने लगती है. तब वह अनावश्यक रात दिन चलता नही रहता. जब उसका उपयोग करना है कीजिये और जब विश्राम करना है तब उसे ऑफ़ करके सो जाइए – ये विपश्यना की अंतिम सफलता है. इसमें मन को भी एक यंत्र की तरह इस्तेमाल करने का हुनर आने लगता है और मन की गुलामी मिटते ही स्मृतियों, भयों, लालच, क्रोध इत्यादि की गुलामी भी मिट जाती है. इसी को निर्वाण कहा गया है. कृष्णमूर्ति और ओशो इस निर्विचार की अवस्था को अस्तित्व का सबसे सुन्दर और समाधानकारी अनुभव बताते हैं. अन्य धर्म इस चीज को बहुत दिव्य भाषा में बहुत अलंकारों के साथ पेश करते हैं इस तरह पेश करते हुए वे इसे लगभग असंभव और अप्राप्य ही बना डालते हैं. इसीलिये सामान्य भारतीय लोग ध्यान या समाधि की प्रशंसा तो खूब करते हैं लेकिन उनसे पूछिए कि कोई अनुभव हुआ है? तो वे कहेंगे कि अरे भाई ये तो जन्म जन्म की साधना से होता या गुरु के प्रताप से होता. ये सब बहाने असल में इसलिए बनाने होते हैं कि अध्यात्म पर एकाधिकार रखने वाले वर्ग ने ध्यान और समाधी को चमत्कारिक और अलभ्य बनाया है ताकि उस वर्ग की सत्ता बनी रह सके. उनके लिए धर्म चेतना के विकास का विज्ञान नहीं है बल्कि समाज को गुलाम बनाने की चालबाजी है.
बुद्ध और अन्य बौद्ध आचार्य इस सत्ता और इसकी चालबाजी को उखाड़ फेंकते हैं और ध्यान और समाधी को रोजमर्रा की चीज बना देते हैं. इसीलिये बौद्धों में ध्यान या समाधि की “कृत्रिम दिव्यता” से मतवाला होकर कोई पागल नही होता. हिन्दू भक्त और सूफी फकीरों में कल्पना आधारित उच्चाटन से पीड़ित बहुत लोग मिल जायेंगे. ये असल में धार्मिक श्रेणी के मानसिक बीमार हैं जिन्हें हिन्दू “परमहंस” और सूफी लोग “मस्त फकीर” कहते हैं. लेकिन सबसे मजेदार बात ये है कि बौद्धों में ऐसे मानसिक विक्षिप्त या मस्त नहीं पाए जाते.
विपश्यना इस अर्थ में न सिर्फ कल्पनाओं और गुरुओं की गुलामी पर विराम लगाती है बल्कि व्यक्ति को मानसिक रूप से बहुत स्वस्थ बना देती है.Sanjay Shraman Jothe
Ashok Kumar Pandey
9 hrs · New Delhi ·
धर्म भरम जनता वनता
—
ज़ाहिर तौर पर मैं एक नास्तिक हूँ और यह मार्क्स तथा उनके बाद के विचारकों को पढ़ते लिखते हुआ है। बात भगत सिंह से शुरू करते हैं। मैं नास्तिक क्यों हूँ जैसा लेख लिखते हुए वह जो तार्किक प्रतिवाद करते हैं धर्म और ईश्वर का उसमें कहीं आस्तिकों का उपहास करने वाला वन लाइनर नहीं है। जानबूझकर चोट पहुँचाने वाली कोई कैची लाइन नहीं है। वह जनता से बोलते बतियाते नज़र आते हैं। संवाद की कोशिश मूल है उसमें।
मार्क्स का एक लेख है पावर्टी ऑफ़ फिलोसॉफी। प्रूदों के फिलॉसफी ऑफ़ पावर्टी के जवाब में। धज्जियाँ उड़ा दी हैं उन्होंने प्रूदों की। लेकिन एक बौद्धिक बहस में इस क़दर क्रूर मार्क्स जब जनता के लिए धर्म को अफीम बताते हैं तो यह भी कहते हैं कि धर्म पीड़ित मानवता की आह है। अफीम क्यों कहा उन्होंने? अफीम एक ऐसा नशा है जो दर्द को दबा देता है। धर्म भी एक ऐसा नशा है जो उत्पीड़न का असर महसूस नहीं होने देता और इस तरह उत्पीड़कों के ख़िलाफ़ युद्ध को मुल्तवी करता है। गोर्की के उपन्यास माँ में जब पावेल की माँ चर्च के उसके विरोध पर दुखी होती है तो वह कहता है माँ मुझे तेरे ईश्वर से नहीं उस ईश्वर से शिक़ायत है जिसकी आड़ में पादरी और ज़ार हमारा उत्पीड़न करते हैं।
आपने देखा है किसी औरत को मंदिर के किसी कोने में विगलित आँसू बहाते हुए? वह किसी लैंगिक मिथक की पूजा आराधना नहीं कर रही होती। वह दुनिया के हर कोने से बेज़ार होकर अपना दर्द विरेचित करने के लिए आख़िरी शरणगाह तक आई होती है। कभी जाइये निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह पर किसी शाम और देखिये किसी पर्दानशीं को कव्वाली के बीच ज़ार ज़ार रोते। वह इस्लाम का प्रचार नहीं कर रही होती अपनी असहायता में तड़प रही होती है। यश और अंशु मालवीय के भाई थे वसु मालवीय। बहुत कम उम्र में एक ऑटो एक्सीडेंट में बम्बई में मृत्यु हुई थी उनकी। कहीं पढ़ा था उनका लिखा कि जब किसी वृद्ध या महिला को मंदिर में रोते देखता हूँ तो मन पिघल जाता है लेकिन किसी नौजवान को यह करते देख क्रोध आता है। मैंने किसी रोज़ा लक्जमबर्ग को इन स्त्रियों का मज़ाक उड़ाते नहीं देखा। किसी सिमोन को वन लाइनर लिखकर चोट पहुँचाते नहीं देखा।
ग्राम्शी जन बुद्धिजीवी की बात करते हैं। फूको हेजिमनी ऑफ़ नॉलेज की बात करते हैं। एक जन बुद्धिजीवी जनता से संवाद करेगा। अपने विश्वासों पर दृढ़ होते हुए उसके प्रति संवेदनशील होगा। उसके मुक्ति संघर्ष में शामिल होगा और दुनिया को बदलते हुए उसे बदलने की अनथक कोशिश करेगा। इसके उलट चार किताबें पढ़कर ज्ञान हासिल कर उसके दम पर अपना वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश करने वाला जनता और उसके विश्वासों का आराम से मज़ाक उड़ा सकता है।बदतमीज़ी कर सकता है। आखिर उसे किसी संघर्ष में नहीं जाना। कोई सामाजिक परिवर्तन नहीं करना।
तो तय आपको करना है। एक जन बुद्धिजीवी की तरह जनता से संवाद या ज्ञान के भरोसे अपना वर्चस्व स्थापित करने वाले बुद्धिजीवी की तरह आम जन का उपहास।
-/
चार साल पहले लिखा था
Anil Janvijay
10 November at 10:49 ·
ये है हमारा शायरी प्रेम। ग़लत-सलत शायरी।
1- मिर्ज़ा ग़ालिब — 1797-1869
“ज़ाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर
या वो जगह बता दे जहां पर खुदा न हो”
……. इसका जवाब लगभग 100 साल बाद मोहम्मद इकबाल ने दिया……
2- इक़बाल — 1877-1938
“मस्जिद ख़ुदा का घर है, पीने की जगह नहीं ,
काफिर के दिल में जा, वहाँ ख़ुदा नहीं।”
……. इसका जवाब फिर लगभग 70 साल बाद अहमद फराज़ ने दिया……
3- अहमद फ़राज़ — 1931-2008
“काफिर के दिल से आया हूँ मैं ये देख कर,
खुदा मौजूद है वहाँ, पर उसे पता नहीं।”
……. इसका जवाब सालों बाद वसी ने दिया……
4- वसी — _1976)
“खुदा तो मौजूद दुनिया में हर जगह है,
तू जन्नत में जा वहाँ पीना मना नहीं।”
वसी साहब की शायरी का जवाब साकी ने दिया
5- साक़ी — (1986)
“पीता हूँ ग़म-ए-दुनिया भुलाने के लिए,
जन्नत में कौन सा ग़म है इसलिए वहाँ पीने में मजा नही।”..
जान अब्दुल्लाह
16 hrs
आदमी इमोशनल है लॉजिकल नही
इसलिए हम अपनी 99 साल की हो चुकी बुजुर्ग बेबे का भी इलाज करवाते है जिनके दोनों गुर्दे फेल है
इसलिए हर जगह लॉजिक मत घुसेड़ा किजिये, हम भावुक है भावनाओ को बने रहने दीजिए
कुछ परंपरा है, कुछ भावना है, कुछ आस्थाएं है, गलत है तो उनमें सुधार का प्रयास कीजिये
अब ऐसे कल कोई कहने लगे कि घर मे कोई मर जाये तो उसको काट के जानवरो को खिला दो तो लॉजिक के हिसाब से तो वह ठीक है क्योकि एक जानवरो को खाना मिलेगा, दूसरा ज़मीन या लकड़ी कम नही होगी तीसरा खर्चा बचेगा लेकिन उस भावना का क्या जो वह दृश्य देख कर आएगा??
धर्म न हो तो इंसान यह भी कर लेगा,
वैसे एक धर्म मे ऐसा मिलता जुलता क्रिया कलाप है।
अब है तो है उसको एक्सेप्ट कीजिये। सही है जो है
Abbas Pathan
19 January at 11:56
दो दिन पहले जावेद अख़्तर ने खुद को नास्तिक कहा था, कल शबाना आज़मी का एक्सीडेंट हो गया.. आज जावेद अख़्तर साहब ने चाहने वालों से ‘दुआ’ की गुज़ारिश की है।
दुआ किससे करेगा कोई? नास्तिकता में तो दुआ का कांसेप्ट नहीं हो सकता। इसलिए मैं कहता हूँ भारत में नास्तिकता नहीं है। नास्तिकता के नाम पर जो लोग हमें नज़र आ रहे हैं ये दरअसल सर्वोच्च सत्ता से नाराज़ हैं, बाग़ी हैं। कट्टर मानसिकता के धर्मावलंबियों ने इनकी नाराज़गी को और अधिक हवा दी है। इधर आप पत्थर के सांप से घृणा करेंगे उधर कोई नज़र आपके दिल में फुफकार मार रहे ज़हरीले सांप को देख लेगी। घृणा बुराइयों की नई फ़सल को जन्म देती है।
मैं मूर्तिपूजा को नहीं मानता, इसका अर्थ ये नहीं कि मूर्तिपूजा करने वालों से घृणा करने लगूँ, उन्हें महामूर्ख समझने लगूँ.. मुझे तो इनपर प्यार आता है। इन्हें देखकर ख़्याल आता है कि कितने भोले लोग हैं, पत्थर को जग का स्वामी समझ रहे हैं। मूर्तिपूजा की धारणा का समझ में आना वाला सीधा अर्थ ये है कि अगर हम इनसे थोड़ा सा अच्छा सुलूक करेंगे तो ये हम जैसे जिंदा हाड़ माँस के प्राणी को भगवान ना सही, कुछ ना कुछ तो समझेंगे.. जब पत्थर को सबकुछ समझ लिया तो हमें कम से कम अपना भाई तो पल भर में समझ लेंगे। ये मासूमियत किसे पसन्द नहीं आएगी।
वही थ्योरी दूसरी तरफ़ भी लागू होती है, मूर्तिपूजा वाले हज़रात समझ ले कि जो लोग अदृश्य ईश्वर को सजदा कर रहे हैं, वे क्या आप जैसे हाज़िर बन्दे को कुछ भी नहीं समझेंगे? आप थोड़ा सा मुस्कुराकर गले गला लीजिए इन्हें, ये आपको प्रणव मुखर्जी बना देंगे। इतिहास उठाइये, इन्होंने भरोसा किसपर किया.. जिन लोगों ने इनके लिए इफ़्तार में दरिया बिछाई उनपर.. जो लोग इनके बीच में गए उन्हें मस्जिद के मिम्बर पर बैठाया। ना जाति पूछी, ना धर्म, ना अक़ीदा..। महात्मा गाँधी हज़रत हसन हुसैन को पढ़ते थे और ख़ान अब्दुल गफ्फार महात्मा गाँधी की सूरत को पढ़ते जाते थे।
कहने का अर्थ है राजनीतिक पार्टियों और कट्टर सँघटनो के पालतू कुत्तें बनने से अच्छा है इंसान बना जाए.. उसी में सुकून है। मुहब्बत से दिल हल्का होता है, और नफ़रत से दिल पर बोझ बना रहता है। दोनों अहसासों को महसूस करके देखिए, कौनसा अहसास अच्छा लगता है उसका चुनाव कर लीजिए।
बहरहाल जावेद साहब की कलम का और शबाना आज़मी की अदाकारी का मैं कायल हूँ। मैं यही दुआ करूँगा कि रब इनकी उम्र में इज़ाफ़ा करे, सेहत को तंदरुस्त रखे।
Uday Narayan
भगतसिंह की नास्तिकता को पढे ,समझे और उसपर अमल करे
**********************
नास्तिकता का सिर्फ और सिर्फ एक ही अर्थ होता है किसी अलौकिक शक्ति मे विश्वास न करना और दुनिया मे ऐसा कोई धर्म नही जो अलौकिक मे विश्वास न करता हो ।दरअसल विना अलौकिकता के धर्म टिक नही सकता ।फेसबुक पर बहुत से नास्तिक ग्रुप है वे अलौकिकता के नकारात्मक पक्ष के साथ साथ नैतिकता ,संस्कृति ,कला,रिति रिवाज ,सामाजिक ढाचे का जो सकारात्मक भूमिका निभाते है उनका भी विरोध करने लगते है जो नासमझी के अलावा कुछ भी नही है ।धर्म भी अपने समय कि एक उस समय की समकालीन व्यवस्था की बुराइयों के खिलाफ लडकर ही स्थापित हुआ है इस बात को ध्यान मे रखना चाहिए यह किसी एक चालाक या धूर्त आदमी के दिमाग की उपज कतई नही है जैसा कि बडे बडे नास्तिक दावा करते है ।यह भी याद रखे कि कोई भी आस्तिक शतप्रतिशत आस्तिक नही होता और कोई नास्तिक भी शतप्रतिशत नास्तिक नही होता ।नास्तिक को चाहिए की धर्म की सकारात्मक पक्ष को स्वीकार करे और आस्तिक को भी नास्तिक के सकारात्मक और तार्किक विचार को स्वीकार करना चाहिए ।इस मामले मे भगतसिंह ने हमे बेहतर रास्ता दिखाया है उसी को अनुसरण हमलोगो को करना चाहिए ।हम धार्मिक रहे पर प्रगतिशील धार्मिक रहे मतलब हम प्रगतिशील हिन्दू ,मुसलमान या इसाई बने फिर दुनिया मे कोई विवाद नही होगा।भगतसिंह ने धर्म के तीन हिस्से किये है
1-Essentials of religion अर्थात धर्म की जरूरी बाते अर्थात सच बोलना चोरी न करना हत्या न करना गरीब की मदद करना आपस मे प्यार मोहब्बत से रहना बगैरह बगैरह
2-Philosophy of religion -यानी जन्म मृत्यु पूनर्जन्म ,संसार रचना कर्मफल इत्यादि बातो मे सभी धर्म भिन्न विचार रखते है और इसी बहस मे मारपीट दंगा फसाद होता है ।विज्ञान ने बहुत ही उन्नति कर लिया है इसको समझने के लिए विज्ञान का सहारा लेकर ही इन चीजो को समझा जाय ।
3-Rituals of religion -मतलब हर तरह के रस्मोरिवाज शादी ब्याह मरनी करनी ।ये सबके अलग अलग है इनको अपने विश्वास और संस्कृति के अनुसार करना ।
***********************
दुनिया मे शान्ति समानता समाजवाद की स्थापना के लिए भगतसिंह के दिखाये रास्ते पर चलकर ही प्राप्त हो सकता है ।और कोई दुसरा रास्ता नही ।