मूल रूप से पशु और मनुष्य में यही विशेष अन्तर है कि पशु अपने विकास की बात नहीं सोच सकता, मनुष्य सोच सकता है और अपना विकास कर सकता है।
हिन्दू धर्म ने दलित वर्ग को पशुओं से भी बदतर स्थिति में पहुँचा दिया है, यही कारण है कि वह अपनी स्थिति परिवर्तन के लिए पूरी तरह निर्णायक कोशिश नहीं कर पा रहा है, हां, पशुओं की तरह ही वह अच्छे चारे की खोज में तो लगा है लेकिन अपनी मानसिक गुलामी दूर करने के अपने महान उद्देश्य को गम्भीरता से नहीं ले रहा है।ऐसा क्यों है , दलितों की वास्तविक समस्या क्या है?इसे इस विश्लेषण के द्वारा समझा जा सकता है ………..
परम्परागत उच्च वर्ग द्वारा दलितों पर बेक़सूरी एवं बेरहमी से किए जा रहे अत्याचारों को कैसे रोका जाए,वर्तमान मे तो यही यही दलितों की मूल समस्या है।हज़ारों वर्षों से दलित वर्ग पर अत्याचार होते आए हैं, आज भी बराबर हो रहे हैं। यह अत्याचारों का सिलसिला कैसे शुरू हुआ और आज तक भी ये अत्याचार क्यों नहीं रुके हैं? यह एक अहम सवाल है।इतिहास साक्षी है कि इस देश के मूल निवासी द्रविड़ जाति के लोग थे जो बहुत ही सभ्य और शांति प्रिय थे। आज से लगभग पांच या छः हज़ार वर्ष पूर्व यूरेशियन आर्य लोग भारत आये और यहां के मूल निवासी द्रविड़ों पर हमले किए। फलस्वरूप आर्य और द्रविड़ दो संस्कृतियों में भीषण युद्ध हुआ। आर्य लोग बहुत चालाक थे। अतः छल से, कपट से और फूट की नीति से द्रविड़ों को हराकर इस देश के मालिक बन बैठे।इस युद्ध में द्रविडों द्वारा निभाई गई भूमिका की दृष्टि से द्रविड़ों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है। प्रथम श्रेणी में वे आते हैं जिन्होंने इस युद्ध में बहादुरी से लड़ते हुए अन्त तक आर्यों के दाँत खट्टे किये। उनसे आर्य लोग बहुत घबराते थे। दूसरी श्रेणी वे द्रविड़ आते हैं जो इस युद्ध में आरम्भ से ही तटस्थ रहे या युद्ध में भाग लेने के थेड़े बाद ही रास्ता बादल लिए अर्थात् लड़े नहीं।
यूरेशियन आर्यों ने विजय प्राप्त कर लेने के बाद युद्ध में भाग लेने वाले और न लेने वाले दोनों श्रेणी के द्रविड़ों को शुद्र घोषित कर दिया और उनका काम आर्यों की सेवा करना निश्चित कर दिया। केवल इतना फ़र्क़ किया कि जिन द्रविड़ों ने युद्ध में भाग नहीं लिया था उन्हें अछूत शूद्र घोषित कर शान्ति से रहने दिया। कोली, माली, धुना, जुलाहे, कहार, डोम आदि इस श्रेणी में आते हैं। लेकिन जिन द्रविड़ों ने इस युद्ध में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और इसके साथ ही उन्हें शूर वीरता का परिचय दिया उन मार्शल लोगों को अछूत-शूद्र घोषित कर दिया और इसके साथ ही उन्हें इतनी बुरी तरह कुचल दिया जिससे कि वे लोग हज़ारों साल तक सिर भी न उठा सके। उनके कारोबार ठप्प कर दिए, उन्हें गांव के बाहर ( दक्षिण टोला ) बसने के लिए मजबूर कर दिया और उन्हें इतना बेबस कर दिया कि उन्हें जीवित रहने के लिए मृत का मांस खाना पड़ा। जाटव, भंगी, चमार, महार, खटीक वग़ैरह आदि इसी श्रेणी के लोग हैं।किन्तु इस मार्शल श्रेणी के लोगों में से एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा बना जिसने यह तय कर लिया कि ठीक है हम युद्ध में हार गए हैं लेकिन फिर भी हम इन आर्यों की गुलामी स्वीकार नहीं करेंगं। वे लोग घोर जंगलों में निकल गए और वहीं पर रहने लगे। नागा, भील, संथाल, जरायु पिछड़ी जातियां आदि जंगली जातियां इसी वर्ग में आती हैं। जो आज भी आर्यों की किसी भी सरकार को दिल से स्वीकार नहीं करती हैं और आज भी स्वतंत्रतापूर्वक जंगलों में ही रहना पसन्द करती हैं।आर्य संस्कृति का ही दूसरा नाम हिन्दू धर्म या हिन्दू समाज है। ये आज बात तो शांति की करते हैं लेकिन हज़ारों वर्ष पूर्व हुए आर्य-द्रविड़ युद्ध में छल से हराए गए द्रविड़ संस्कृति के प्रतीक महाराजा रावण का प्रति वर्ष पुतला जला कर द्वेष भावना का प्रदर्शन करते हैं। आज भी वे शूद्रों को अपना शत्रु और गुलाम मानकर उन्हें ज़िन्दा जला डालते हैं, उनका क़त्ले आम करते हैं, उनके साथ तरह-तरह के अवर्णनीय लोमहर्षक अत्याचार करते हैं।इनके अतिरिक्त रोज़ाना ही अत्याचारों की ख़बरें छपती रहती हैं। बलछी, कफलटा, दिहुली, साढ़ूपुर आदि में हुए दिल दहलाने वाले काण्ड कभी भुलाए नहीं जा सकते हैं।देश में कोई ऐसा क्षण नहीं होगा जबकि दलित वर्ग पर अत्याचार नहीं होता होगा, क्योंकि अख़बार में तो कुछ ही ख़ास ख़बरें छप पाती हैं।
‘‘ये अत्याचार एक समाज पर दूसरे समर्थ समाज द्वारा हो रहे अन्याय और अत्याचार का प्रश्न है। एक मनुष्य पर हो रहे अन्याय या अत्याचारों का प्रश्न नहीं है, बल्कि एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग पर ज़बरदस्ती से किये जा रहे अतिक्रमण और जुल्म, शोषन तथा उत्पीड़न का प्रश्न है।’’इस प्रकार यह एक निरन्तर से चले आ रहे वर्ग कलह की समस्या है।इन अत्याचारों को कौन करता है? क्यों करता है? और किस लिए करता है? अत्याचारी अत्याचार करने में सफल क्यों हो रहा है? क्या ये अत्याचार रोके जा सकते हैं? अत्याचारों का सही और कारगर उपाय, साधन या मार्ग क्या हो सकता है? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिन पर दलित वर्ग को आज फिर से संजीदगी से विचार करना चाहिए।दलित वर्ग पर अत्याचार हिन्दू धर्म के तथकथित सवर्ण हिन्दू करते हैं और वे अत्याचार इसलिए नहीं करते कि दलित लोग उन का कुछ बिगाड़ रहे हैं बल्कि अल्पसंखयकों और दलितों पर अत्याचार करना वे अपना अधिकार मान बैठे हैं और इस प्रकार का अधिकार उन्हें उनके धर्म ग्रन्थ भी देते हैं।सवर्ण अपनी परम्परागत श्रेष्ठता क़ायम रखने के लिए अत्याचार करता है। जब दलित वर्ग परम्परागत उच्च वर्ग (हिन्दू) से व्यवहार करते वक्त बराबरी के, समानता के रिश्ते से बरताव रखने का आग्रह करता है तब यह वर्गकलह उत्पन्न होता है, क्योंकि ऊपरी वर्ग निचले वर्ग के इस प्रकार के व्यवहार को अपनी मानहानि मानता है। इस प्रकार सवर्ण अपनी परम्परागत श्रेष्ठता क़ायम रखने के लिए अत्याचार करता है। सवर्ण और दलित वर्ग के बीच यह एक रोज़ाना होने वाला ‘वर्गकलह’ है।जो दलित इंका मुक़ाबला नहीं कर पाया उसने धर्म परिवर्तित कर लिया और तब वह और इनके निशाने पर आ गया ।
किस तरह से इस वर्ग कलह से अपना बचाव किया जा सकता है। इसका विचार करना अत्यावश्यक है। इस वर्ग कलह से अपना बचाव कैसे होगा? इस प्रश्न का निर्णय करना मैं समझता हूँ मेरे लिए कोई असंभव बात नहीं है। आप सभी लोगों को एक ही बात मान्य करनी पड़ेगी और वह यह कि किसी भी कलह में, संघर्ष में, जिनके हाथ में सामर्थ्य होती है, उन्हीं के हाथ में विजय होती है, जिनमें सामर्थ्य नहीं है उन्हें अपनी विजय की अपेक्षा रखना फ़िज़ूल है । इसलिए तमाम दलित और अल्पसंखयक वर्ग को अब अपने हाथ में सामर्थ्य और शक्ति को इकट्ठा करना बहुत ज़रूरी है।
मनुष्य समाज के पास तीन प्रकार का बल होता है। एक है मनुष्य बल, दूसरा है धन बल, तीसरा है मनोबल। इन तीनों बलों में से कौन सा बल आपके पास है? मनुष्य बल की दृष्टि से आप अल्पयंख्यक ही नहीं बल्कि संगठित भी नहीं हैं। फिर संगठित नहीं, इतना ही नहीं, इकट्ठा भी तो नहीं रहते। दलित लोग गांव और खेड़ों में बिखरे हुए हैं इसी कारण से जो मनुष्य बल है भी उसका भी ज़्यादती ग्रस्त, ज़ुल्म से पीड़ित अछूत वर्ग की बस्ती को किसी भी प्रकार का उपयोग नहीं हो सकता है।धन बल की दृष्टि से देखा जाए तो आपके पास थोड़ा बहुत जनबल तो है भी लेकिन धन बल तो कुछ भी नहीं है। सरकारी आंकड़ों अनुसार देश की कुल आबादी की 55% जनसंख्याआज भी ग़रीबी की रेखा से नीचे का जीवन बिता रही है जिसका 90% दलित और अल्पसंखयक वर्ग के लोग ही हैं।
मानसिक बल की तो उससे भी बुरी हालत है। सैकड़ों वर्षों से हिन्दुओं द्वारा हो रहे ज़ुल्म, छि-थू मुर्दों की तरह बर्दाश्त करने के कारण प्रतिकार करने की आदत पूरी तरह से नष्ट हो गई है।ऐसे लोगों का आत्म विश्वास, उत्साह और महत्वकांक्षी होना, इस चेतना का मूलोच्छेद कर दिया गया है। हम भी कुछ कर सकते हैं इस तरह का विचार ही किसी के मन में नहीं आता है।
यदि मनुष्य के पास जन बल और धन बल ये दोनों हों भी और मनोबल न हो तो ये दोनों बेकार साबित हो जाते हैं। मान लीजिए आप के पास पैसा भी ख़ूब हो और आदमी भी काफ़ी हों, आपके पास बन्दूकें और अन्य सुरक्षा सामग्री भी उप्लब्ध हो लेकिन आपके पास मनोबल न हो तो आने वाला शत्रु आपकी बन्दूकें और सुरक्षा सामग्री भी छीन ले जाएगा। अतः मनोबल का होना परम आवश्यक है। मनोबल का जगत प्रसिद्ध उदाहरण आपके सामने है। ऐतिहासिक घटना है कल्पना की बीत नहीं। नेपोलियन एक बहुत साहसिक एवं अजेय सेनापति के रूप में प्रसिद्ध था, उसके नाम ही से शत्रु कांप उठते थे, लेकिन उसको मामूली से एक सैनिक ने युद्ध में हरा दिया था। विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि इस सैनिक ने यह कह कर उसे हराया था कि मैं नेपोलियन को अवश्य हराऊंगा क्योंकि मैंने उसे खेल के मैदान में हरा रखा है। और वास्तव में उसने नेपोलियन को हरा दिया। उस सैनिक ने उस महान शक्तिशाली अजेय कहे जाने वाले नेपोलियन को इसीलिए हरा दिया क्योंकि उसका मनोबल नेपोलियन के प्रति खेल के मैदान से ही बढ़ा हुआ था।
मनोबल की यह एक विशेषता है कि वह एक बार जब किसी के विरुद्ध बढ़ जाता है तो फिर उसका कम होना असंभव होता है। तभी तो नैपोलियन के पास वास्तविक भौतिक शक्ति एवं रण कौशल होने के बावजूद उसके विरुद्ध बढ़े मनोबल वाले एक मामूली से सैनिक ने उसे ऐलान करके हरा दिया। अतः यदि दलित और अल्पसंखयक वर्ग यह सोचे कि हम सिर्फ़ अपनी शक्ति के बल पर ही अत्याचारों का मुक़ाबला कर लेंगं तो यह उनकी भूल है। फिर हमें इस पहलू को हरगिज़ नहीं भूलना चाहिए कि सवर्ण हिन्दुओं का मनोबल हमारे विरुद्ध पहले से ही बहुत बढ़ा हुआ है। हम चाहें कितनी ही वास्तविक शक्ति अर्जित कर लें लेकिन वे तो यही सोचते हैं कि-हैं तो ये वे ही चमार, भंगी (या अछूत) ही है ,ये कर भी क्या सकते हैं? इसीलिए हमें मनोबल बढ़ाने की ज़रूरत है और यह उसी समय सम्भव है जब हम किसी बाहरी सामाजिक शक्ति की मदद लें जिसका मनोबल गिरा हुआ नही वरन् बढ़ा हुआ हो।
वास्तविक स्थिति का यह जो विश्लेषण किया गया है यदि यह वस्तुस्थिति है तो इससे जो सिद्धान्त निकलेगा उसको भी आप सब लोगों को स्वीकार करना होगा और वह यह है कि आप अपने ही व्यक्तिगत सामथ्र्य पर निर्भर रहेंगे तो आपको इस ज़ुल्म का प्रतिकार करना सम्भव नहीं है। आप लोगों कं सामथ्र्यहीन होने के कारण ही आप पर स्पृश्य हिन्दुओं द्वारा ज़्यादती, ज़ुल्म और अन्याय होता है इसमें मुझे किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है।दलित की तरह यहां मुस्लिम भी अल्पसंख्यक हैं। किसी गांव में मुसलमानों के दो घर होने पर कोई स्पृश्य हिन्दू उनकी ओर आंख उठाकर भी नहीं देख सकता इसका भी कारण है ये दो घर भी एक जुट हैं तो बहुत है । आप (दलित-अस्पृश्य) लोगों के दस मकान होने पर भी स्पृश्य हिन्दू ज़्यादती, अन्याय और ज़ुल्म करते हैं। आपकी वस्तियां जला दी जाती हैं, आपकी महिलाओं से बलात्कार होता है। आदमी, बच्चे और महिलाओं को जि़न्दा जला दिया जाता है। आपकी महिलाओं, बहू और जवान बेटियों को नंगा करके गांव में घुमाया जाता है । यह सब क्यों होता है? यह एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है, इस पर आप लागों को गम्भीरता से चिन्तन और खोज करनी चाहिए। मेरी दृष्टि में इस प्रश्न का एक ही उत्तर दिया जा सकता है और वह यह है कि उन दो मुसलमानों के पीछे सारे भारत के मुसलमान समाज की शक्ति और सामथ्र्य है। इस बात की हिन्दू समाज को अच्छी तरह जानकारी होने के कारण उन दो घर के मुसलमानों की ओर किसी हिन्दू ने टेढ़ी उंगली उठायी तो पंजाब से लेकर मद्रास तक और गुजरात से लेकर बंगाल तक संपूर्ण मुस्लिम समाज अपनी शक्ति ख़र्च कर उनका संरक्षण करेगा। यह यक़ीन स्पृश्य हिन्दू समाज को होने के कारण वे दो घर के मुसलमान निर्भय होकर अपनी जि़न्दगी बसर करते हैं। किन्तु आप दलित अछूतों के बारे में स्पृश्य हिन्दू समाज की यह धारणा बन चुकी है और वाक़ई सच भी है कि आपकी कोई मदद करने वाला नहीं है, आप लोगों के लिए कोई दौड़ कर आने वाला नहीं है, आप लोगों को रुपयों पैसों की मदद होने वाली नहीं है और न तो आपको किसी सरकारी अधिकारी की मदद होने वाली है। पुलिस, कोर्ट और कचहरियां यहां सब उनके ही होने के कारण स्पृश्य हिन्दू और दलितों के संघर्ष में वे जाति की ओर देखते हैं, अपने कत्र्तव्यों की ओर उनका कोई ध्यान नहीं होता है कि हमारा कौन क्या बाल बांका कर सकता है। आप लोगों की इस असहाय अवस्था के कारण ही आप पर स्पृश्य हिन्दू समाज ज़्यादती, ज़ुल्म और अन्याय करता है। यहां तक जो विश्लेषण किया है उससे दो बातें सिद्ध होती हैं। पहली बात यह है कि बिना सामथ्र्य के आपके लिए इस ज़ुल्म और अन्याय का प्रतिकार करना संभव नहीं है। दूसरी बात यह कि प्रतिकार के लिए अत्यावश्यक सामथ्र्य आज आपके हाथ में नहीं है। ये दो बातें सिद्ध हो जाने के बाद तीसरी एक बात अपने आप ही स्पष्ट हो जाती है कि यह आवश्यक सामथ्र्य आप लोगों को कहीं न कहीं से बाहर से प्राप्त करना चाहिए। यह सामथ्र्य आप कैसे प्राप्त कर सकते हैं? यही सचमुच महत्व का प्रश्न है और उसका आप लोगों को निर्विकल्प दृष्टि से चिंतन और मनन करना चाहिए।
इस बात को ऐसे समझिए , जिस गांव में अछूत लोगों पर हिन्दू स्पृश्यों की ओर से ज़ुल्म होता है उस गांव में अन्य धर्मावलम्बी लोग नहीं होते हैं ऐसी बात नहीं है। अस्पृश्यों पर होने वाला ज़ुल्म बेक़सूरी का है, बेगुनाहों पर ज़्यादती है, यह बात उनको (अन्य धर्म वालों को) मालूम नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, जो कुछ हो रहा है वह वास्तव में ज़ुल्म और अन्याय है यह मालूम होने पर भी वे लोग अछूतों की मदद के लिए दौड़कर नहीं जाते हैं, इसका कारण आख़िर क्या है? ‘तुम हमको मदद क्यों नहीं देते हो?’ यदि ऐसा प्रश्न आपने उनसे पूछा तो ‘आपके झगड़े में हम क्यों पड़ें ? यदि आप हमारे धर्म के होते तो हमने आपको सहयोग दिया होता’- इस तरह का उत्तर वे आपको देंगें और ऐसा उत्तर देना उनकी मजबूरी है ? इससे बात आपके ध्यान में आ सकती है कि किसी भी अन्य समाज के आप जब तक एहसानमंद नहीं होंगे किसी भी अन्य धर्म में शामिल हुए बिना आपको बाहरी सामर्थ्य प्राप्त नहीं हो सकता है। इसका ही स्पष्ट मतलब यह है कि आप लोगों का धर्मान्तर करके किसी भी समाज में अंतर्भूत हो जाना चाहिए। सिवाय इसके आपको उस समाज का सामर्थ्य प्राप्त होना सम्भव नहीं है। और जब तक आपके पीछे सामथ्र्य नहीं है तब तक आपको और आपकी भावी औलाद को आज की सी भयानक, अमानवीय अमनुष्यतापूर्ण दरिद्री अवस्था में ही सारी जि़न्दगी गुज़ारनी पड़ेगी। ज़्यादतियां बेरहमी से बर्दाश्त करनी पड़ेगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। बाबा साहब के इन विचारें से यह बात अपने आप साफ़ हो जाती है कि सामथ्र्य प्राप्त करने के लिए हमें किसी अन्य समाज का एहसानमंद अवश्य ही होना पड़ेगा किसी अन्य समाज में हमें अवश्य ही मिल जाना होगा। दलित वर्ग के जो लोग ऐसा समझते हैं कि वह स्वयं अपने संगठन और बाहूबल से ही अपनी समस्याएं हल कर सकते हैं वे सिर्फ़ यही नहीं कि ख़ुद धोखे और फ़रेब में हैं, बल्कि दलित समाज को भी ग़लत राह दिखा रहे हैं- ऐसी राह जो बाबा साहब के विचारों के बिल्कुल विपरीत है।
हिन्दू धर्म और समाज की ओर यदि सहानुभूति की दृष्टि से देखा जाए तो अहंकार, अज्ञान और अन्धकार ही दिखाई देगा। यही कहना पड़ेगा। इसका आप लोगों को अच्छा ख़ासा अनुभव है। हिन्दू धर्म में अपनत्व की भावना तो है ही नहीं। किन्तु हिन्दू समाज की ओर से आप लोगों को दुश्मनों से भी दुश्मन, गुलामों से भी गुलाम और पशुओं से भी नीचा समझा जाता है।हिन्दू समाज में क्या आपके प्रति समता की दृष्टि है?कुछ हिन्दू लोग अछूतों को कहते हैं कि तुम लोग शिक्षा लो, स्वच्छ रहो, जिससे हम आपको स्पर्श कर सकेंगे, समानता से भी देखेंगे। मगर वास्तव में देखा जाए तो अज्ञानी, दरिद्री और अस्वच्छ दलितों का जो बुरा हाल होता है वही बुरा हाल पढ़े-लिखे पैसे वाले और स्वच्छ रहने वाले तथा अच्छे विचार वाले दलितों का भी होता है।दलित वर्ग समृद्धि की पराकाष्ठा के प्रतीक तत्कालीन उपप्रधानमंत्री श्री जगजीवन रामजी को वाराणसी में श्री संपूर्णनन्द की मूर्ति का अनावरण करने पर जिस तरह से अपमानित होना पड़ा था उससे दलितों की आंखें खुल चुकी हैं कि हिन्दुओं का स्वच्छता के आधार पर समानता का बर्ताव करने का आश्वासन कितना बड़ा धोखा है। याद रहे, श्री जगजीवन राम जी द्वारा अनावरण की गई मूर्ति को गंगाजल से धोकर पवित्र किया गया था।
कुछ भाई अपने आर्थिक पिछड़ेपन ही को अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों का कारण मानते हैं। यह बात ठीक है कि ग़रीबी बहुत दुखों का कारण है लेकिन ग़रीब तो ब्राह्मण भी हैं, वैश्य भी हैं और क्षत्रिय भी हैं ग़रीबी से वे लोग भी परेशान हैं और वे ग़रीबी के विरुद्ध लड़ भी रहे हैं लेकिन हमें एक साथ दो लड़ाइयां लड़नी पड़ रही हैं- एक तो ग़रीबी की दूसरी घृणा भरी जाति प्रथा की। एक तरफ़ हम पर ग़रीबी की मार पड़ रही है और दूसरे हमारी एक विशेष जाति होने के कारण हम पिट रहे हैं। हमें जाति की लड़ाई तो तुरन्त समाप्त कर देनी चाहिए। हम भंगी, चमार, महार, खटीक आदि अछूत तभी तक हैं, जब तक कि हम हिन्दू हैं।क़ानून से आपको चाहे जितने अधिकार और हक़ दिए गए हों किन्तु यदि समाज उनका उपयोग करने दे तब ही यह कहा जा सकता है कि ये वास्तविक हक़ है। इस दृष्टि से देखा जाए तो आपको न मंदिर जाने की स्वतंत्रता है और न जीने की स्वतंत्रता है, यह आप भली-भांति जानते हैं। इसके समर्थन में अधिक तथ्य जुटाने की आवश्यकता नहीं है। यदि स्वतंत्रता की दृष्टि से देखा जाए तो हम अपने आपको एक गुलाम से भी बदतर हालत में ही पायेंगे। स्वतंत्रता, समानता एवं बन्धुत्व जो मनुष्य के विकास के लिए आवश्यक चीज़ें बताई गई हैं उनमें से आपके लिए हिन्दू धर्म में कोई भी उपलब्ध नहीं है।
आप मंथन कीजिये की क्या हिन्दू धर्म हमारे पूर्वजों का धर्म था?हिन्दू धर्म हमारे पूर्वजों का धर्म नहीं हो सकता है, बल्कि उन पर ज़बरदस्ती लादी गई एक गुलामी, दासता थी। हमारे पूर्वजों को इस धर्म में ही रखना यह एक ** क्रूर ख़ूनी पंजा** था जो हमारे पूर्वजों के ख़ून का प्यासा था। इस गुलामी से अपनी मुक्ति पाने की क्षमता और साधन उपलब्ध नहीं थे, इसलिए उन्हें इस गुलामी में रहना पड़ा। इसके लिए उन्हें हम दोषी नही ठहरायेंगे, कोई भी उन पर रहम ही करेगा। किन्तु आज की पीढ़ी पर उस तरह की ज़बरदस्ती करना किसी के लिए भी सम्भव नही है। हमें हर तरह की स्वतंत्रता है। इस आज़ादी का सही-सही उपयोग कर यदि इस पीढ़ी ने अपनी मुक्ति का तरस्ता नहीं खोजा, यह जो हज़ारों साल से ब्राह्मणी अर्थात हिन्दू धर्म की गुलामी है उसको नही तोड़ा तो मैं यही समझूंगा कि उनके जैसे, नीच, उनके जैसे हरामी और उनके जैसे कायर भी स्वाभिमान बेचकर पशु से भी गई गुज़ारी जि़न्दगी बसर करते हैं अन्य कोई नहीं होंगे। यह बात मुझे बड़े दुख और बड़ी बेरहमी से कहनी पड़ेगी।” बाबा साहब पृष्ठ 38.39” धर्म परिवर्तन करो जी बाबा साहब ने बहुत ही साफ शब्दों मे कहा यह बात की यदि आपको इंसानियत से मुहब्बत हो तो धर्मान्तर करो। हिन्दू धर्म का त्याग करो। तमाम दलित अछूतों की सदियों से गुलाम रखे गए वर्ग की मुक्ति के लिए एकता, संगठन करना हो तो धर्मान्तर करो। समता प्राप्त करनी हो तो धर्मान्तर करें। आज़ादी प्राप्त करना हो तो धर्मान्तर करो। मानवी सुख चाहते हो तो धर्मान्तर करो। हिन्दू धर्म को त्यागने में ही तमाम दलित, पददलित, अछूत, शोषित पीड़ित वर्ग का वास्तविक हित है, यह मेरा स्पष्ट मत बन चुका है। पृष्ठ 59 बाबा साहब डा. अम्बेडकर ने धर्मान्तर का मुख्य उद्देश्य स्पष्ट रूप से बाहरी शक्ति प्राप्त करना निश्चित किया था। इसे हमें कभी भी नही भूलना चाहिए, क्योंकि बाहरी शक्ति प्राप्त करने से ही दलित वर्ग पर होने वाले अत्याचारों को रोका जा सकेगा, बेइज़्ज़ातीपूर्ण जि़न्दगी से मुक्ति मिल सकेगी और हमें मिल जाएगा स्वतंत्र जीवन, सम्मानपूर्ण जीवन, इंसानियत की जि़न्दगी।
पाकिस्तान बनने के बाद सन् 1956 में बाबा साहब ने जब धर्म-परिवर्तन किया था, उस समय भारत में मुसलमानों की शक्ति तो थी ही नहीं, इसके अलावा उन दिनों हिन्दूओं के मन में मुसलमान या इस्लाम के नाम से ही इतनी घृणा थी। यदि हम लोग उस वक्त मुसलमान बनते तो हमें गांव-गांव में गाजर मूली की तरह काट कर फेंक दिया जाता। अतः यदि बाबा साहब 1956 में इस्लाम धर्म स्वीकार करते तो यह उनकी एक बहुत बड़ी आज़्माइश होती। इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए उद्देश्य को पाने के लिए उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाकर अर्थात् भविष्य में बुद्धि से काम लेने का संकेत करके दलित वर्ग की मुक्ति का वास्तविक मार्ग खोल कर एक महान् कार्य किया था। लेकिन दुर्भाग्य की बात कि बाबा साहब अम्बेडकर दलित वर्ग को बौद्ध धर्मरूपी यह परम औषधि देकर केवल एक महीना 22 दिन ही 6 दिसम्बर सन्1956 को परलोक सिधार गए। इस प्रकार बाबा साहब अम्बेडकर यह देख ही नहीं पाए कि मैंने अपने इन लोगों को जो महाव्याधि से पीड़ित हैं, जो परम औषधि दी है वह इन्हें माफ़िक़ भी आयी या रिएक्शन कर रही है अर्थात् माफ़िक़ नहीं आ रही है।
बाबा साहब हमको हिदायत देने के लिए आज हमारे बीच मौजूद नहीं हैं। अब तो इस दलित वर्ग को स्वयं ही अपनी भलाई का विचार करना होगा। हम सबको मिलकर सोचना होगा कि जो बौद्ध धर्मरूपी परम औषधि हमने आज से लगभग बत्तीस वर्ष पूर्व लेनी प्रारम्भ की थी उसने हमारे रोग को कितना ठीक किया? ठीक किया भी है या नहीं? अथवा कहीं यह औषधि रिएक्शन तो नहीं कर रही है अर्थात् उल्टी तो नहीं पड़ रही है? क्या ऐसा मूल्यांकन करने का समय आज 32 वर्ष बाद भी नहीं आया है? निश्चित रूप से हमें मुल्यांकन करना चाहिए।
बोद्ध धर्म अपना कर हम अपने उद्देश्य में कितने सफ़ल हुए हैं? इस सम्बन्ध में बाबा साहब द्वारा निर्धरित किसी भी धर्म को अपनाने का उद्देश्य दलित वर्ग को बाहरी शक्ति प्राप्त करना होना चाहिए। इस प्रकार दलित वर्ग द्वारा बौद्ध धर्म अपनाने का उद्देश्य बाहरी शक्ति प्राप्त करना था। अतः हमें यह देखना है कि बौद्ध धर्म अपनाने से दलित वर्ग में बाहरी शक्ति कितनी आई? कुछ आई भी या बिल्कुल भी नहीं आई? या इस धर्म को अपनाने से हमारी मुल शक्ति में भी कुछ कमी आ गई है?
हम पाते हैं कि बौद्ध धर्म अपनाने से दलितों के अन्दर किसी प्रकार की कोई भी बाहरी शक्ति आई नहीं बल्कि उसकी मूल शक्ति में भी कमी आ गई है। सर्वप्रथम तो दलित वर्ग को जितनी बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म अपनाना चाहिए था उतनी बड़ी जनसंख्या द्वारा नहीं अपनाया गया और इसलिए नहीं अपनाया गया कि दलित समाज अधिकतर अशिक्षित समाज है। बौद्ध धर्म कहता है कि कोई ईश्वर, अल्लाह आदि नहीं है। यह बात अभी तक अच्छे पढ़े लिखे लोगों की भी समझ में नहीं आती। वह किसी न किसी रूप में ईश्वर या अल्लाह की सत्ता को स्वीकारते हैं, तब यह बात अनपढ़ अशिक्षित लोगों की समझ में कैसे आ सकती है कि ईश्वर या अल्लाह है ही नहीं। यही सबसे बड़ा कारण है जिसकी वजह से दलित वर्ग की बड़ी संख्या ने इस धर्म को नहीं अपनाया। अगर अपनाया है तो दलित वर्ग के छोटे हिस्से ने। सत्य तो यह है कि बौद्ध धर्म केवल चमार या महार जाति की कुल जनसंख्या की मुश्किल से 20 प्रतिशत ने ही अपनाया है। और उनकी भी स्थिति यह है कि जो 20 प्रतिशत बौद्ध बने हैं वे 80 प्रतिशत चमारों को कहते हैं कि ये ढेढ़ के ढेढ़ ही रहे। और 80 प्रतिशत चमार जो बौद्ध नहीं बने हैं वे कहते हैं कि ये बुद्ध-चुद्ध कहां से बने हैं?
इस प्रकार पहले जो चमारों की भी शक्ति थी वह भी 20 और 80 में ऐसा भी नहीं रहा क्योंकि बौद्ध और चमारों के बीच संघर्ष भी हुए हैं। इस प्रकार बौद्ध धर्म अपनाने से दलित वर्ग की शक्ति घटी है, बढ़ी नहीं, जबकि उद्देश्य था, बाहरी अतिरिक्त शक्ति प्राप्त करना।
अब हम उन दलितों की स्थिति पर गौर करें जिन्होंने बौद्ध अपना लिया है। क्या उनमें कुछ बाहरी शक्ति आ गई है? बिल्कुल नहीं। केवल इतना हुआ कि जो पहले चमार थे वे अब अपने को बौद्ध कहने लगे। लेकिन कुछ भी कहने मात्र से तो शक्ति आती नहीं। इस देश में पुराने बौद्ध जो हैं ही नहीं कि उनकी शक्ति इन नव बौद्धों में आ गई हो और दोनों मिलकर एक ताक़तवर समाज बना लिया हो। दूसरे बौद्ध देशों ने भी नव बौद्धों की मदद में अपनी कोई रुचि नहीं दिखाई है। और यदि बौद्ध देश मदद करना भी चाहें तो कैसे करेंगे? ज़्यादा से ज़्यादा भारत सरकार को एक विरोध-पत्र लिख भेजेंगे कि भारत में बौद्धों पर अत्याचार मुनासिब नहीं है। क्या उस विरोध-पत्र से काम चल जाएगा . । सोचिए सोचिए मंथन कीजिये संगठित हो जाइए बगल मे अब दूसरी ताकत तैयार है मिलकर संघर्ष कीजिये …मंज़िल आपकी है !!!!!!!
हन्नान अंसारी बंद करो ये विधवा विलाप और पहले अपने गिरेबान में झांक कर देखो की तुम्हारे इस्लाम ने कैसे पूरी दुनिया की हालत बदतर बना रखी है!
अभी कल पश्चिम बंगाल के मालदा में दर्जनो गाड़ियां फुक कर, आगजनी कर के और तोड़फोड़ कर के तुम्हारे पैगम्बर की टोपी बचायी गयी! ७२ हूर पाने के लिए पंजाब में खून की होली खेली गयी! एक आह निकला तुम्हारे मुह से उनके लिए.? एक शब्द विरोध का फूटा.? नहीं!
आज यहां आ कर हिन्दू धर्म में कीड़े धुंध रहे हो! हिन्दू धर्म को सुधरने के लिए हम हिन्दू काफी हैं! खुद के घर को संवार लो दुनिया चैन की सांस ले सकेगी!
Sahi
बेंगलुरू की सड़क पर जिस तरह से तंज़ानिया की लड़की को नंगा करके दौड़ाया गया, मारा गया वह वहशियत की तस्वीर से ज़रा भी कम नहीं।
गुजरात दंगों में मुसलमान औरतों को सड़कों पर जलाया गया, पेट चीर कर बच्चे निकाले गए।
छत्तीसगढ़ में औरतों को नक्सली कह कर गुप्तांगों में पत्थर भरे गए, स्तन निचोड़े गए।
और इतना कुछ होने के बावजूद हम बर्बरता की गाथाएं पढ़ने के लिए मीडिल ईस्ट चले जाते हैं। फ़र्क़ है वहाँ और यहाँ में। उधर पूरी की पूरी आबादी मुश्किलों को झेलती है। इधर आबादी का कुछ हिस्सा। एक बड़ा हिस्सा इस तरह के अत्याचार से बचा रह जाता है और वही हिस्सा देशप्रेम, सहिष्णुता, विश्वगुरु आदि तमग़ों को लेकर नाचता रहता है।
क्या हुआ जो हम पे नहीं बीत रही, पास में नज़र दौड़ाइए, जिन पर बीत रही उनके साथ तो आइए।
बताइए, किसके साथ आए? स्पष्ट बताइए.
जब किसेी मुस्लिम देश पर हम्ला होता है तब कित्ने मुस्लिम देश् उस मुस्लिम देश का साथ देतेाई आफ्गान और पाक और इराक इस्क्व ताजे सबुत है जो मुस्लिम देश् आपस मे लदते है तब् कितने मुस्लिम देश समज्हौता कर्वाते है इरान इराक् युद्ध् सिरिया यमन लिबिया ईसकेी मिसाल है !
यह्कौन्सेी बात हुयि केी जब तक मुस्लिम नहेी बनोगे हम पिदित् का साथ नहेी देन्गे?
७२ फिर्क बाले मुस्लिम समुदाय् एक् दुस्रे का कित्ना साथ देते है
सुन्नि मुस्लिम शिय और अहम्देी मुस्लिम को जान् से क्यो मार्ते है और् बहवेी मुस्लिम् सुन्ने मुस्लिम् क क्यो जान से मार्ते है गुजरात मे जब मुस्लिम मारे जा रहे थे और मुजफ्फर नगर मे जब् मुस्लिम मारे जा रहे थे तब कित्न मुस्लिम् उन्क बचाने गये थे
फिएर दलितो को ज्हुथि बात क्यो सम्ज्हाते है !
आर्य बाहर के नहेी है बल्केी इस देश्ब के मुल निवासि है द्रविन इस देश् के मुल के होते तो इस देश का नाम् कया था ? इस देश का नाम आर्य् व्रत् और् बाद मे भारत् था इस्के पहले अन्य कोइ नाम नहि था रावन भेी आर्य था शिव का उपासक था !
साधु किसेी भेी जाति का हो स्कता है
सन्त रविदास चर्म्कार थे
वल्मिकि जि सम्मनित् वयक्ति थे ! अम्बेद्कर जि कि शिक्शा मे बदोदा नरेश् का सहयोग था
अम्बेद्कर जि कि पत्नि ज्न्म्जात् ब्रह्मन थेी
जग्जिवन राम् जेी कि पत्नेी जन्म्जात ब्रह्मन थेी !
फिर् भेी दलितो के साथ दुर्व्य्व्हार मे काफेी कमि आयिहै और यह्सामजिक है धारमिक नहेी है !
बहन् मायावतेी जेी आम सवर्न जन्ता के सहयोग से हि ४ बार् मुख्य्मन्त्रि बनेी थेी !
Sahi
जब ख्लेीफा उमर जेी जान से मारे जा रहे थे तब कित्ने मुस्लिम उन्को बचाने गये थे
जब उस्मान जेी को मुस्लिम भेीद मार रहेी थेी तब कित्ने मुस्लिम् उन्को बचाने गये थे
जब अलेी जेी को मार पद रहेी थेी तब कित्ने मुस्लिम् उन्को बचा रहे थे
फातिमा जेी कि जब मुस्लिम् मार रहे थे तब कित्ने मुस्लिम् उन्को बचा रहे थे
जब हुसैन जेी को कर्बाला मे मारा जा राहा था तब कित्ने मुस्लिम् उन्को बचाने गये थे !
स्पेन से मुस्लिम क्यो खदेदे गये क्यो नहि मुस्लिम उन्को बक्ष्हाने गये
जरा से इस्रऐल् से लद्ने मे कित्ने मुस्लिम् देश साथ देते है !
इस्लिये आप गलत मत् लिखिये
खुद की फट्टी चड्डी तो दिखती नही और दूसरे धर्म में ताक जाक करता हैं तूम तो शिया लोगो को देखते ही बम से उड़ा देते हो जन्नत में 72 हुर्रे पाने के लिए
अब महसूस होता है कि जिसने भी मादर वगैरह गलिया इजाद की है, ऐसे ही किसी नमुराद कई वजह से की होगी.
कुछ भी हो मुस्लिमो की एक बात का मई कायल हु कभी भी वो खुद की कमी स्वीकार नही करेंगे चाहे सर के बल खड़े हो जाइए पर दुसरो
में दोष जरूर निकालेंगे
और आप कब की बात कर रहे हैं जितना बात बढ़ा चढ़ा कर किया है उसका १० परसेंट भी सही नही है ये सब बाटे १०० साल पहले की हो सकती हैं अब तो बहुत सुधर हुव है
आप उन्हें अरबी धर्म की तरफ क्यों धकेलना चाहते हैं अरबी धर्म में कितनी एकता है उनके लोग कितने अच्छे है ये आये दिन बम धमाके इसकी गवाही देते ह
पता नही कब किसी शिया मस्ज़िद में बिस्फोट हो जाए
अरबी इस्वर के किसी बन्दे को हूरो की तलब लगी और १००-५० निर्दोषो की शामत आई
हिंदू समाज मे जिस प्रकार राजा राम मोहन राय, ज्योतिबा फूले जैसे लोग आए, और समाज की कुरीतियों को लोगो के सामने लेके आए, उन्हे दूर किया, बाबा साहब अंबेडकर जैसे लोगो ने सामाजिक भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ी, ऐसे ही समाज सुधारक आज मुस्लिम समाज को भी चाहिए.
हम यह कहते हैं कि इस्लाम, अमन का मज़हब है, लेकिन एक गुंडा मवाली कमलेश तिवारी, अपने एक भद्दे से बयान से इसकी हवा निकाल देता है. एक जाहिल की वजह से मालदा मे 2 लाख जाहिल सड़को पे उतर आए, और जहालत का नमूना पेश कर दिया.
और हम है कि समाज मे कोई समस्या देखते ही नही. हिंदू दलितों की स्थिति का हम उनके धर्म-ग्रंथो से हवाला देते हैं, लेकिन हन्नान साहब, काश आप सच्चर कमेटी की रिपोर्ट भी पढ़ लें, मुस्लिमो की स्थिति, दलितों से भी गयी बीती हैं. काश हम लाखो जाहिलो के प्रदर्शन पे ये सवाल उठाते कि क्यूँ नही हम अपने पिछड़ेपन, अशिक्षा, बेरोज़गारी आदि के लिए भी जागरूक होते.
भारत ही नही, पूरी दुनिया मे मुस्लिम क़ौम शिक्षा के स्तर पे पिछड़ी हुई है. और हम सिर्फ़, अमेरिका और मोसाद के सर इसका ठीकरा फोड़ते रहते हैं.
मालदा मे जो घटित हुआ, उसी विषय पे मैने पहले भी दूसरे लेख पे कमेंट किया था. और ऐसे जाहिल देश के हर गली मुहल्ले मे भरे पड़े हैं, लेकिन हम ना तो गली मुहल्ले मे नज़र घुमाएँगे, ना अंतरराष्ट्रीय स्तर की जानकारी रखते हैं.
हमारे अमन का मज़हब, चिल्लाने से दुनिया इसे अमन का मज़हब नही मानेगी, हमे व्यवहार मे इसे दिखाना होगा. आप एक पढ़े लिखे व्यक्ति नज़र आते हैं, आप और हमको ही ये बीड़ा उठाना होगा, हन्नान साहब. वरना आने वाली पीढ़ियो के हम गुनाहगार होंगे.
अल्लाह ताला ने नबियो को धरती पे प्रेम का संदेश और मानव जाति की भलाई के लिए भेजा, उनको सूली पे भी चढ़ा दिया तो भी उनके संदेश धरती से नही मिटे. कोई सूरज पे थूक सकता है, क्या? और हम दावा करते हैं, उनकी शान की हिफ़ाज़त का. जनाब 1400 सालो मे अगर क़ुरान की एक आयत नही बदली, 1.5 अरब आबादी मुसलमानो की, तो किस बात का ख़तरा.
और हाँ, आशिके रसूल का दावा करने वाले, जब रसूल की इज़्ज़त के लिए हिंसा कर रहे हैं, तो वो किसकी बेइज़्ज़ती कर रहे हैं, ये बताने की ज़रूरत है क्या? इस्लाम को बदनाम तो ये जाहिल लोग कर रहे हैं, आप लेख लिख कर हिंदू धर्म-ग्रंथो की पोल खोल रहे हैं, और उधर, हमारे समाज के जाहिल लोग, इस्लाम की कैसी छवि दुनिया को दिखा रहे हैं.
अब कह दो, सड़को पे उतरे वो जाहिल भी अमेरिकी एजेंट थे.
गये कमेंट मे “सलीब” की जगह “सूली” लिख दिया.
“सोचिए सोचिए मंथन कीजिये संगठित हो जाइए बगल मे अब दूसरी ताकत तैयार है मिलकर संघर्ष कीजिये …मंज़िल आपकी है !!!!!!!”
देखिए आपका संकेत स्पष्ट है, आप इस्लाम की दावत दे रहे हैं. हर मुसलमान का ये फ़र्ज़ है. रोज नये मुसलमान, दुनिया मे बन भी रहे हैं. लेकिन इस दावत के साथ, हम यह भी सोचे कि दलितों के साथ भेदभाव की बातो का ज्ञान, कोई आज की बात तो है नही, अनेक दलित चिंतक, दशको से इसके बारे मे लिख रहे हैं, इसी जागरूकता की वजह से हमारे संविधान मे “आरक्षण” का प्रावधान रखा गया. बावजूद उसके, हम दलितों को या कहे अन्य सभी तबको को इस्लाम की ओर उस तेज़ी से नही जोड़ पाए, जितना हिंदू धर्म की कमियो के बाद स्वाभाविक था. जिन हिंदू समाज-सुधारको ने भी अपने इन धर्म-सम्मत अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाई, उनमे भी बड़ी संख्या मे इस्लाम से नही ही जुड़े.
और आज के हालत हैं, कि जितने नये मुसलमान रोज बन रहे हैं, उससे अधिक इस्लाम को नापसन्द करने वालो की तादात बढ़ रही है.
अगर हम, एक वाकई मे एक छोटा सा देश या दुनिया का कोई सा भी हिस्सा, इस्लामी क़ानूनो यानी शरीयत के आधार पे ऐसा दे पाए, जो प्रगतिशील भी हो, शांति से रह भी रहा हो तो हमारी दावत का असर कहीं अधिक प्रभावशाली होगा. इसी वजह से हमे अपने समाज की खामियो पे ज़रूर गौर करना चाहिए.
Ansari ji m aap ki bat se sahmat hoo……..aap ka vichar samajhdari bhara h …or upar jo log apna apna kar rahe hai. Wo sirf apna hi kar rahe h
मुल्ले तो होते ही हैं अनपढ़ मानसिकता के परंतु आप भगवा मानसिकता के लोगों मे भी यही कीड़ा पाया जाता है इसमें कोई शक नहीं !! और इसी कारण मालदा में थोड़ा बहुत हिंसक प्रदर्शन हो गया जो “हार्दिक पटेल” और गुर्जरों के हिंसक प्रदर्शन की तुलना में “इत्तू” सा भी नहीं था पर बड़ा कितना दिखाया गया उसका एक साक्षात प्रमाण देखिए कि “मालदा” के जिस उग्र प्रदर्शन को भाँड ब्राह्मणवादी मीडिया 2•5 लाख मुसलमानों का हुड़दंग बता रही है उसकी हकीकत यह है कि पुरे मालदा क्षेत्र में ही ताज़ी जनगणना के अनुसार 57853 मुसलमान हैं जो वास्तविक रूप से अधिकतम 1 लाख भी हों तो आधी तो महिलाएं होंगी जो ऐसे प्रदर्शन में नहीं आतीं विशेषकर मुस्लिम तो बिल्कुल नहीं और यदि उस 50000 पुरुषों में अधिकतम 25% भी लोग आये तो 12500 हुए जो बिकाऊ ब्राह्मणवादियों की रखैल मीडिया को 2•5 लाख दिखे । खुद देख लीजिए ।
फिर ना कहिएगा कि साजिश और दोगलापन नहीं किया जाता इस देश में एक वर्ग के विरुद्ध ।
हन्नान साहब आपको याद होगा की एक अख़लाक़ के मारे जाने पर सब से ज्यादा इसी देश की मीडिया और लोगों ने विरोध किया था (बहुतायत हिन्दुओं ने)! आज मालदा के घटना का वैसा ही विरोध मुस्लिमो की तरफ से देखने को मिला होता तो समझ में आता कुछ कि मुस्लिम भी उतने ही अमन पसंद हैं!
विरोध का स्वर जाकिर भाई जैसे कुछ उँगलियों पर गिने जा सकने वाले मुस्लिमो कि तरफ से ही सुनाई दिए हैं अभी तक!
जबकि आप जैसे मुस्लिम इसे भी जस्टिफाई करने में लग गए हार्दिक पटेल के प्रदर्शन से तुलना कर के!
ये है आपकी असलियत!!
अभी बिहार के पूर्णिया में भी आपके महान धर्म के महान रक्षकों ने अपने महान पैगम्बर कि किसी कमलेश मिश्रा के द्वारा लूट रही इज्जत बचाने के लिए शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया और वो तो बस ठंढ से बचने के लिए कुछ दुकानो में आग लगा कर तापा और बॉडी को गर्म रखने के लिए तोड़ फोड़ की! और थोड़ी भूख लग आई थी तो कुछ दुकानो में से लूट पाट भी की! बाकि सब ठीक है! हम विरोध नहीं कर रहे और आप तो करेंगे नहीं!
अभी आप इसकी तुलना गुर्जरों के प्रदर्शन से कर सकते हैं!
(Only for Mr. Hannan Ansari)
तेजस जी, हम और आप जैसे हन्नान साहब मे अंतर यही है कि आप एक तरफ़ के कट्टरपंथ की ही निंदा करते हैं. अख़लाक़ को मीडिया ने कवर किया, लेकिन ढाबोलकर, काल्बुर्गी की हत्या के कितने दिनो बाद तक मीडिया मे कोई खबर ही नही थी. मीडिया के पक्षपात की आप बात करते हैं, तो बिकाऊ और पक्षपाती मीडिया के दोनो पक्ष पे बात करो. हिंदुत्ववादी मीडिया पे आप क्यूँ चुप्पी साध रहे हो.
आप ठहरे संघी टाइप के व्यक्ति, जिनके व्यक्तिगत मित्रो की सूची मे मुस्लिम होंगे ही नही, इसलिए गिनती के मुस्लिम, जिन्हे उंगली पे गिना जा सकता है कि बात कर रहे हो. जबकि सोशल मीडिया मे मालदा की निंदा बहुत से मुस्लिमो ने की है.
लेकिन असल मे आप लोग, प्रगतिशील मुस्लिमो के साथ कभी खड़े नही होते, क्यूंकी आप लोग, एक धार्मिक कट्टरवाद के मुक़ाबले मे आप दूसरे दक्षिणपंथी संगठन का समर्थन करते हो, आपको देश दुनिया की कोई खबर ही नही है. आप पूर्वाग्रह मे बहुत आगे बढ़ चुके हो.
जाकिर साहब मेरे कॉमेंट को ठीक से पढ़ें! मैंने कहा भी है कि कुछ गिने चुने मुस्लिमो ने विरोध किया है! लेकिन वो कुछ गिने चुने ही हैं! और मैंने मीडिया कि तरफदारी कतई नहीं कि है, मैंने हन्नान साहब के मीडिया को माध्यम बना कर अपनी बात रखने का जवाब दिया था! आज कि प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया बिकाऊ हो चुकी है और उस से कहीं बेहतर सोशल मीडिया है! मेरे दोस्त बस वैसे ही मुस्लिम हैं जो खुले विचारों वाले हैं (कुछ पाकिस्तानी मुस्लिम भी) और उन्हें भी इस बात का दुःख है कि ऐसी घटनाओं का विरोध मुस्लिम (बहुसंख्यक आबादी) नहीं करते!
और ये बात तो आप भी स्वीकार करोगे कि जैसा तीव्र विरोध अख़लाक़ वाले केस पर हुआ था वैसा मालदा और पूर्णिया में नदारद है!
मैं वैसे तो परवाह नहीं करता कि कौन क्या सोच रहा मेरे बारे में लेकिन आपको इसलिए बता रहा हूँ कि आप एक दिल से अच्छे इंसान हैं!!
अंसारी जी के इस बकवास लेख पर कहे भी तो क्या ? इनके तो मज़े ही मज़े हे जिंदगी झंड तो हमारी हे अंसारी जी की इस तब्लीग को पेट्रो डॉलर का सपोर्ट मिल सकता हे नेताओ का सपोर्ट मिल सकता हे संघी जिनके हाथो में आज सरकार हे आज जिनकी जेब में सबसे अधिक सत्ता और पैसा हे वो भी ऊपर से विरोध करेंगे मगर दिल से वो अंसारी जी का शुक्रिया अदा करेंगे उन्हें पता हे ऐसी बकवास से और भी अधिक हिन्दू सवर्ण हिन्दू इनके झंडे तले गोलबंद होगा गैर संघी जो ताकते हे जैसे नेता बिजनेसमैन जमींदार आदि वो भी अंसारी जी की बकवास को पसंद करेंगे ये तो चाहते ही हे की जनता इन्ही फालतू बातो में उलझी रहे और हम हम क्या बोले ? अंसारी जी का सपोर्ट कर नहीं सकते सवाल ही नहीं उठता विरोध करके भी हम संघियो को नहीं बदल सकते उधर आम मुस्लि जब हमारे विरोध को देखेगा तो वो हमारे खिलाफ हो जाएगा ये सोच कर की हम इस्लाम फैलाने के पवित्र काम अंसारी जी की दावत का विरोध तो नहीं कर रहे हे ? साम्प्रदायिक ताकतों को समर्थन पैसा सत्ता के मौके हज़ार हे मगर एक शुद्ध सेकुलर भारतीय मुस्लिम बिलकुल अकेला और थकेला हे नतीजा हमारी तो जिंदगी झंड हे बिलकुल
मालदा की घटना पे सोशल मीडिया पे प्रतिक्रिया को देखके मुझे मुस्लिम समुदाय के सेकुलर तबके के प्रति आशा जगी है. मुस्लिम कट्टरपंथ के जलवे भले ही दुनिया देख रही हो, लेकिन इसके खिलाफ अपनी राय को स्पष्ट और मजबूत बनाता हुआ वर्ग भी उभरा है. सेकुलर मुस्लिम, भले ही संगठित नही, लेकिन इसकी दस्तक दिख रही है. इनके संगठित होने की कोई ज़रूरत नही. सेकुलर मुस्लिम संगठित होंगे, तो फिर वो मज़हबी मुद्दा ही रह जाएगा. बेहतर यही है कि सेकुलर संगठन, जिसमे गैर मुस्लिम भी जुड़े हुए हैं, उन्ही के साथ मिलकर लड़ाई लड़ी जाए. क्यूंकी ये लड़ाई, सिर्फ़ इस्लामी कट्टरपंथ के खिलाफ नही है, बल्कि हर प्रकार के कट्टरपंथ के विरुद्ध है. ये तर्क बनाम धर्मांधता की जंग है.
हन्नान साहब को लिखने दो, हिंदू ब्राह्माणवाद की आलोचना अनेको लोगो ने की, हिंदू समाज के भीतर भी इसके खिलाफ लिखा और बोला जाता है. ये आलोचना अच्छी ही है.
लेकिन वो अगर ये सोचते हैं कि इस पक्ष को उजागर करके, वो दलितों को इस्लाम से जोड़ पाने मे सफल हो पाएँगे तो कुछ समय बाद शायद ये खुद अपने गिरेबान मे झाँकना शुरू कर दे, कि ऐसा क्यूँ नही हो पा रहा?
इस्लाम की नकारात्मक छवि, मे कौन कौन योगदान कर रहा है, पे सोचते हुए वो शायद वो उन सवालो को भी गंभीरता से लेने लगे, जो हम उठा रहे हैं.
हुसैन जी मैं क्या जोडूनगा वे खुद जुड रहे हैं । घिरणित ब्राह्मणवादी मानसिकता ही इनको संकुचित किए जा रहा है । पों पों चिल्लाने से कुछ नहीं होता और यही हक़ीक़त है जो हो रहा है इसी से घबराहट मे मालदा और पूर्णिया का राग अलापा जा रहा है ।
मिया एक बात बताईये क्या बगदादी के सामने खुद को असली मुसलमान साबित कर पाओगे अब ये मत कह देना की बगदादी को इल्म का ज्ञान नही है वो पी एच डी किये बैठा है
यहाँ बगदादी का संदर्भ किस लिए ? भारत मे हो आप भारत की बात करो ना । विदेश जाना सब लोग तो वहाँ की बात करना आप लोग ।
हीहीही …………………..
आपने कहा लिखा की आप भारत की बात कर रहे जो शब्द आपने प्रयोग किये है उसमे तो वो मुठ्ठी भर हिन्दु भी है जो भारत से बाहर बसे है और असली नकली मुसलमानो १.५ अरब लोगो की ही बात होगी
एक बात और बता दु ये असली नकली के चककर मे ४ लाख सिरियन भुखे सड रहे है
ये असली नकली ये सुन्नी ये शिया ये काफिर शिया सुन्नी यही खेल तो आप लोग फिरको मे खेल रहे है जो ब्राह्माणवाद मे खेला गया
बस फरक इतना है कि हम लोगो ने वर्ग विशेष को अछुत बना दिया और आप लोग सीधा अल्लाह के पास भेज रहे हो अब संदर्भ का तो पता चल ही गया होगा
अब दो जबाब कि असली मुसलमान साबित कर पाओगे की नही
आप बचे रहना साहब !!!!
अफसोस तब होता है जब कोई भी पाठक किसी भी लेख को साहस के साथ नहीं पढ़ता ? लेख क्या है कमेंट किस तरह का है यह कुंठित मानसिकता को दर्शाता है । पूर्वाग्रह से ग्रसित मानसिकता न्याय नहीं कर सकती …… विरोध प्रदर्शन संवैधानिक अधिकार है परन्तुं हिंसा नहीं। लेकिन हिंसा पश्चात उसका विश्लेषण जिस तरह से किया जाता है वह यह बताता है कि सोशल मीडिया से लेकर मुख्यधारा की पत्रकारिता हद दर्जे से भी ज़्यादा मुसलमानों से नफ़रत करती है। वे कथित सोशल मीडिया ट्रेंड सेटर्स पूर्वाग्रही हैं जो किसी एक घटना के बाद लगातार उत्पीड़न का शिकार बन रही क़ौम को नोचने लगती है और उनके बराबर खड़ी कर देती है जो उनसे सौ गुना ताक़तवर हैं। वे कथित बुद्धिजीवी ऐसे ही किसी मालदा के इंतज़ार में होते हैं ताकि नीचा और पीछा दिखाने का मौक़ा मिल सके। मुसलमान भी बिल्कुल उसी सामाजिक संरचना में रचे बसे हैं जिनमें जाट,मीणा,पटेल। मुसलमान भी अपने मुद्दों पर मुखर होते हैं जैसे की कोई दूसरा ॥
.
मालदा में हिंसा प्रशासन के ख़िलाफ़ हुई। वह भीड़ हिंदुओं का घर फूँकने नहीं निकली थी।
विरोध प्रदर्शनों में तो अक्सर यह हो जाता है कि लोग छात्र महिलाएँ सामाजिक संगठन , पुलिस से भिड़ जाते हैं। नुक़सान होता है। उस नुक़सान की आलोचना होनी चाहिए लेकिन मालदा में हुए नुक़सान के बहाने आलोचना हो रही है मुसलमानों की। इस्लाम की। उनके धार्मिक ग्रंथों की। उनके पूज्यनीय की।
हमें ख़ूब समझ आता है दोस्त, इसलिए तो चाहते हैं कि आप लोगों को समझाएँ।
मैं आलोचना की माँग करता हूँ लेकिन बिल्कुल उस तरह से जैसे की जाटों, मीणाओं,पटेलों की हुई। धार्मिक हिंसा जहाँ होगी वहाँ आलोचना करूँगा लेकिन ये पुलिस बनाम भीड़ का मसला था जिसे हिंदू बनाम मुसलमान बनाया सोशल मीडिया के ब्राह्मणवादी सेक्यूलरों ने। वैसे जड़ित बुद्धि से कोई उम्मीद नहीं ?
हिंदू ग्रंथो की आलोचना को साहस से पढ़ने का साहस तो मुझे लगता है, हिंदू समुदाय के एक बड़े वर्ग मे है ही. इसी वजह से बाबा साहब अंबेडकर का सम्मान इस देश मे हो पा रहा है, जिन्होने हिंदू ग्रंथो की आलोचनाओ मे बेबाक लिखा, और वो किताबे बाजार मे उपलब्ध है.
लेकिन हम अपने गिरेबान मे देखे कि क्या एक आम मुसलमान, अपने ग्रंथो के आलोचक विश्लेषण के प्रति भी इतना साहसिक है? मालदा जैसी घटना ने हमारे समाज की उस अतर्किकता के दावे पे प्रश्न चिह्न लगाया. ये अतर्किकता, पूरे विश्व के मुस्लिम जगत के लिए सही बैठती है.
इस वजह से हम आप लोगो पे दोहरे मापदंड का आरोप लगाते हैं, क्यूंकी आप जिस सहिष्णुता और साहस की अपेक्षा दूसरे लोगो से करते हो, खुद उसके लिए अपने समुदाय के भीतर नही लड़ते.
इस विषय पे सिकंदर भाई का स्टेंड मुझे सही लगा, वो इस्लाम मे पूरा यकीन रखते हैं, लेकिन धार्मिक असहिष्णुता को सही नही मानते.
वाल्टेयर का कथन है “भले ही मैं आपसे सहमत नही, लेकिन आपके विचारो को प्रकट करने की आज़ादी का सम्मान करता हूँ”.
वैसे तो मीणा-गुर्जरो के हिंसक प्रदर्शन भी किसी प्रकार उचित नही. तो उनका हवाला देकर इन घटनाओ का क्या बचाव करना. मालदा जैसी घटनाओ को पूरे मुस्लिम समुदाय से नही जोड़ा जा रहा. दूर जाने की ज़रूरत नही, इसी साइट पे नक़वी साहब का लेख आपने देखा ही है, इसलिए ये मत कहिए कि ऐसी घटनाओ पे सवाल करना, मुस्लिमो को बदनाम करने की साजिश है.
मुस्लिमो ने गुर्जरो की तरह, आरक्षण या इस दुनिया मे अपने पिछड़ेपन के लिए भी प्रदर्शन किए होते, तो भी खुशी की बात होती. उन्होने प्रदर्शन किया, ईश-निंदा के लिए. अरे जनाब, जिसने ये दुनिया बनाई, उसकी कोई क्या बेइज़्ज़ती कर सकता है.
आपको ये तो पता ही होगा कि प्रदर्शानो से पहले जो पर्चे बाँटे, और प्रदर्शन-कारियो की क्या माँग थी? किसी मवाली की टिप्पणी पे फाँसी की माँग? भाईसाहब, इस देश मे संविधान नाम की भी कोई चीज़ है या नही?
बेहतर होता, आप हमारे जैसे मालदा मे इकठ्ठा हुए मालदा के जाहिल मुसलमानो की मुखर निंदा करके, इन हिंदू कट्टरपंथियो के प्रोपेगेंडा को ही ध्वसत करते. लेकिन आपने वोही किंतु-परंतु.
हां, बदनामी की बाते करते हों तो महबूब को तो सबसे ज़्यादा ये आशिक ही बदनाम कर रहे हैं, सोचके देखना. अगर आपको वाकई मे रसूल-अल्लाह से मुहब्बत होती तो इन आशिको के खिलाफ ही सबसे पहले लिखते.
जिस ब्राह्माणवाद कि मिया साहेब आप आलोचना कर रहे है दरअसल वो फिरकावाद के रुप मे इस्लाम मे भी है और हमाम मे हम सभी नगे खडे है
आप लुंग्गी लपेट लीजिये हम तो हमाम से दूर हैं ?
दोनो स्थितियो मे बड़ा अंतर है. जातिवाद एक प्रकार का नस्लवाद है, जिसमे ऊँच-नीच के अंतर को मिटाना संभव ही नही. जितना अधिक, हिंदू अपने धर्म-ग्रंथो पे ज़ोर देगा, इसका उतना ही प्रभाव समाज पे पड़ेगा.
फिरकावाद, मुस्लिम समुदाय का जातिवाद नही है. इस्लाम के मुताबिक, इसकी कोई शाखा नही, और फिरकावाद पैदा करने वाला, इस्लाम के खिलाफ ही काम कर रहा है.
लेकिन यहाँ एक पेच है, फिरके का तो इस्लाम मे निषेध हो गया, लेकिन इस्लाम ने मुनाफिक और फित्ना की अवधारणा दे दी. इसके मुताबिक, ऐसा हो सकता है कि मुस्लिम समुदाय के भीतर, कुछ लोग दीन को बिगाड़ने का प्रयास करे. ऐसे लोगो को मुनाफिक (ढोंगी) कहा गया. ये लोग समाज मे फित्ना (कंफ्यूज़न) फैलाते हैं. ऐसे लोगो से इस्लाम को बचाना है. पैगंबर मुहम्मद साहब के जीवन काल मे ही मदीना से 40 किमी दूर, एक गाँव के लोगो ने इस्लाम ग्रहण किया, और एक मस्जिद बनाई, और एक युद्ध से लौटने के बाद, मुहम्मद साहब को उसमे प्रार्थना के लिए बुलाया, शुरुआत मे तो उन्होने इसके लिए हामी भर दी, लेकिन बाद मे उन्हे, इसका भान हुआ कि ये लोग, इस्लाम पे ईमान नही लाए हैं, और झूठ बोल रहे हैं, तो उन्होने उस मस्जिद को उसके भीतर प्रार्थना करने वाले, लोगो के साथ आग लगा दी.
इसी प्रकार, आज इस्लाम की बहुत सी व्याख्याए मौजूद है, और किसी खास व्याख्या वाले समुदाय को दूसरी व्याख्या, उसी मुनाफकत का प्रयास लग सकती है, जैसा पैगंबर साहब के समय थी, तो वो उस समुदाय से नफ़रत करना शुरू कर देते हैं. ये नफ़रत जब एक हद से बढ़ जाती है, तो हिंसा का भी स्वरूप ले लेती है.
लेकिन देख जाए तो फिरकेवाद का स्रोत, मज़हब पे ज़रूरत से अधिक ज़ोर देना ही हुआ. वरना, एक आम मुस्लिम को किसी व्याख्या के सही-ग़लत या इस्लाम के दुश्मन होने का पता नही चलता, वो सिर्फ़ उसी व्यक्ति से नफ़रत करेगा, जो उसका नुकसान करेगा.
तो हिंदू समाज का जातिवाद भी धर्म ग्रंथो पे ज़ोर देने से बढ़ता है, मुस्लिम समुदाय के भीतर भी फिरकेवाद, धर्म-ग्रंथो से ही फैलता है. इस वजह से मुस्लिम समुदाय मे ऐसे वर्ग के उभरने की बहुत ज़रूरत है, जो सिर्फ़ एक निराकार ईश्वर मे अटूट आस्था रखे, लेकिन गैर मज़हबी हो, वरना हम उलझते जाएँगे, और बस ठीकरा दूसरो के सर फोड़ते जाएँगे.
मुनाफिक, कभी इस्लाम की स्पष्ट आलोचना नही करेगा, बल्कि उसकी तारीफ़ करते हुए, उन दायरॉ को तोड़ने की कोशिश करेगा, जो इस्लाम के है.
इस्लाम का सबसे बड़ा दायरा शिर्क यानी बहुईशवरवाद है. मूर्तीपूजा तो स्पष्ट रूप से शीर्क हो गयी, लेकिन दूसरे स्वरूप जैसे दरगाह, सूफ़ीज़्म ऐसे रूप है, जिसपे कभी एकमत नही हुआ जा सकता, ऐसी सूरत मे किसे मुनाफिक कहे?
दूसरा बड़ा दायरा आख़िरी नबुअत यानी आख़िरी नबी का है, जिसकी वजह से अहमदियों को मुस्लिम देशो मे गैर-मुस्लिम घोषित किया गया.
लेकिन हम यह सोचे कि इस्लाम सिर्फ़ एकेश्वर या आख़िरी रसूल तक ही सीमित नही है, इसके और भी दायरे हैं, क़ुरान और हदीसे जीवन के बहुत से पहलुओं को छूती है. और इन सब दायरो को हम अगर देखे तो उसके भीतर रहना, बहुत ही मुश्किल है, ऐसी सूरत मे इन दायरो को तोड़ने की कोशिश करने वाले, मुनाफिक है या मुसलमान कैसे पता करें?
उदाहरण के तौर पे मौसीक़ी, चित्रकारी, ब्याज, महिलाओं के सार्वजनिक क्षेत्रो मे हिस्सेदारी जैसे कई दायरे हैं, समय और परिस्थिति का हवाला देके, इनके प्रति लचीला रुख़ अपनाने वाले के लिए कैसे पता करे कि ये मुनाफिक है या नही.
इसी प्रकार, क़ुरान मे ही कुछ जगह गैर मुस्लिमो से मित्रता को अल्लाह को नापसंद बताया गया है. सशस्त्र जिहाद मे हिस्सा लेने से मना करने वालो को जहन्नुम की आग का भागीदार भी बताया गया है. ऐसी सूरत मे इन आयतो को रिसालत का क़ानून का हवाला देके आज के दौर मे अप्रासंगिक बताने वाले, आपको अनेको आलिम मिल जाएँगे, लेकिन इसके पीछे उनकी मुनाफकत की मंशा है या नही, कैसे पता करेंगे?
इस्लाम के कुछ दायरे इतने अव्यावहारिक है कि कोई भी किसी को मुनाफिक ठहरा सकता है. क़ुरान और हदीसो के दायरे मे इस समस्या को हल किया ही नही जा सकता, बल्कि ये बढ़ेगी ही. इसी वजह से हम कहते हैं, मज़हब को सिर्फ़ व्यक्तिगत आस्था तक ही सीमित रखो, और सेक़ूलेरिज़्म को मुस्लिम मुमालिको तक पहुँचाने के प्रयास करो. आज के इंटरनेट के दौर मे विचारो के आदान-प्रदान मे राजनैतिक और भौगोलिक सीमाए को पार किया जा सकता है.
धार्मिक कट्टरपंथ ने अपनी सरहदें तोड़ी है तो उसके खिलाफ, क्यूँ सरहदें पार नही की जा सकती? ये मुद्दे सिर्फ़ स्थानीय नही है, और संक्रामक भी है.
जाकिर जी ब्राह्माणवाद एक सामन्ती सोच है जिसे ब्राह्माण के दिमाग ने उत्पन्न किया जिसको फैलाने के लिये वैस्यो ने पैसा दिया और जिसका फैलाव क्षत्रिय ने किया | इस सोच मे सिर्फ एक मेन बिन्दु है “मे” अर्थात मेरा धर्म सच्चा मेरे रिति रिवाज सच्चे मेरा इस्वर सच्चा ब्ला-२ आदि और बाकि सब झुट्टे |
ठीक वैसे ही जैसे कानुन बना देना कि यदि कोइ अहमदि खुद को मुस्लमान कहे तो उसे ३-४ सालो के लिये जेल मे डाल देना
बस तरिके अलग -२ है रास्ते अलग -२ है पर पहुचने की जगह एक ही है यहि फिरकावाद है और यहि ब्राह्माणवाद है
”इस्लाम के कुछ दायरे इतने अव्यावहारिक है.”………जनाब ज़ाकिर साहब क्या आप इसे स्पष्ट करेंगे की कौन से दायरे ??अव्यावहारिक हैं ?
आप मेरेी इसेी पन्क्ति के उपर केी लाईने देखिये. ऐसे बहुत से पहलू है. मैने कुछ की ही बात लिखी. इसी वजह से मैं, मज़हब के व्यक्तिगत होने का समर्थन करता हूँ.
रोहित वेमुला की आत्म-हत्या, हमारे देश के सामन्तवादी और विषमता पूर्ण समाज की हक़ीकत बयान करती है. ये भी गौर करिए कि हमारे मीडिया को राष्ट्रवादी या सेक्युलर जैसे खेमो मे बाँटने वाले लोग, इसी मीडिया को दलित विरोधी घटनाओ को कवर नही करने का इल्ज़ाम नही लगाते.
दलित और आदिवासी तबके के मुद्दे, हमारी मुख्य मीडिया से गायब हो गये हैं, क्यूंकी आम जनता को ये उबाऊ लगते हैं.
ऐसा नहीं है जनाब ज़ाकिर हुसैन साहब ! आम जनता उसी खास जनता की तरह नीचे के लोगों के साश ब्योहार करते हैं । क्रोनि कैपिटलिज़्म की मानसिकता से ग्रसित मीडिया का हित उन दलित और आदिवासी लोगों से नहीं सधता ? तथाकथित सेकुलर लोग अंदुरूनी कितने खतरनाक है आप कल्पना भी नहीं कर सकते ।