30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोड़से ने महात्मा गांधी की गोली मारकर हत्या कर दी थी लेकिन नाथूराम गोड़से ने आत्मसमर्पण कर दिया | नाथूराम गोड़से समेत 17 अभियुक्तों पर गांधी जी की हत्या का मुकदमा चलाया गया | इस मुकदमे की सुनवाई के दरम्यान न्यायमूर्ति खोसला से नाथूराम ने अपना वक्तव्य स्वयं पढ़ कर जनता को सुनाने की अनुमति माँगी थी जिसे न्यायमूर्ति ने स्वीकार कर लिया था | हालाँकि सरकार ने नाथूराम के इस वक्तव्य पर प्रतिबन्ध लगा दिया था लेकिन नाथूराम के छोटे भाई और गांधी जी की हत्या के सह-अभियोगी गोपाल गोड़से ने 60 साल की लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद सुप्रीम कोर्ट में विजय प्राप्त की और नाथूराम का वक्तव्य प्रकाशित किया गया |
नाथूराम गोड़से ने गांधी हत्या के पक्ष में अपनी 150 दलीलें न्यायलय के समक्ष प्रस्तुति की |
नाथूराम गोड़से के वक्तव्य के मुख्य अंश:-
1. नाथूराम का विचार था कि गांधी जी की अहिंसा हिन्दुओं को कायर बना देगी |कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी को मुसलमानों ने निर्दयता से मार दिया था महात्मा गांधी सभी हिन्दुओं से गणेश शंकर विद्यार्थी की तरह अहिंसा के मार्ग पर चलकर बलिदान करने की बात करते थे | नाथूराम गोड़से को भय था गांधी जी की ये अहिंसा वाली नीति हिन्दुओं को कमजोर बना देगी और वो अपना अधिकार कभी प्राप्त नहीं कर पायेंगे |
2.1919 को अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ गोलीकांड के बाद से पुरे देश में ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ आक्रोश उफ़ान पे था | भारतीय जनता इस नरसंहार के खलनायक जनरल डायर पर अभियोग चलाने की मंशा लेकर गांधी जी के पास गयी लेकिन गांधी जी ने भारतवासियों के इस आग्रह को समर्थन देने से साफ़ मना कर दिया।
3. महात्मा गांधी ने खिलाफ़त आन्दोलन का समर्थन करके भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिकता का जहर घोल दिया | महात्मा गांधी खुद को मुसलमानों का हितैषी की तरह पेश करते थे वो केरल के मोपला मुसलमानों द्वारा वहाँ के 1500 हिन्दूओं को मारने और 2000 से अधिक हिन्दुओं को मुसलमान बनाये जाने की घटना का विरोध तक नहीं कर सके |
4. कांग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को बहुमत से काँग्रेस अध्यक्ष चुन लिया गया किन्तु गांधी जी ने अपने प्रिय सीतारमय्या का समर्थन कर रहे थे | गांधी जी ने सुभाष चन्द्र बोस से जोर जबरदस्ती करके इस्तीफ़ा देने के लिए मजबूर कर दिया |
5. 23 मार्च 1931 को भगत सिंह,सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी गयी | पूरा देश इन वीर बालकों की फांसी को टालने के लिए महात्मा गांधी से प्रार्थना कर रहा था लेकिन गांधी जी ने भगत सिंह की हिंसा को अनुचित ठहराते हुए देशवासियों की इस उचित माँग को अस्वीकार कर दिया।
6. गांधी जी कश्मीर के हिन्दू राजा हरि सिंह से कहा कि कश्मीर मुस्लिम बहुल क्षेत्र है अत: वहां का शासक कोई मुसलमान होना चाहिए | अतएव राजा हरिसिंह को शासन छोड़ कर काशी जाकर प्रायश्चित करने | जबकि हैदराबाद के निज़ाम के शासन का गांधी जी ने समर्थन किया था जबकि हैदराबाद हिन्दू बहुल क्षेत्र था | गांधी जी की नीतियाँ धर्म के साथ, बदलती रहती थी | उनकी मृत्यु के पश्चात सरदार पटेल ने सशक्त बलों के सहयोग से हैदराबाद को भारत में मिलाने का कार्य किया | गांधी जी के रहते ऐसा करना संभव नहीं होता |
7. पाकिस्तान में हो रहे भीषण रक्तपात से किसी तरह से अपनी जान बचाकर भारत आने वाले विस्थापित हिन्दुओं ने दिल्ली की खाली मस्जिदों में जब अस्थाई शरण ली | मुसलमानों ने मस्जिद में रहने वाले हिन्दुओं का विरोध किया जिसके आगे गांधी नतमस्तक हो गये और गांधी ने उन विस्थापित हिन्दुओं को जिनमें वृद्ध, स्त्रियाँ व बालक अधिक थे मस्जिदों से खदेड़ बाहर ठिठुरते शीत में रात बिताने पर मजबूर किया गया।
8. महात्मा गांधी ने दिल्ली स्थित मंदिर में अपनी प्रार्थना सभा के दौरान नमाज पढ़ी जिसका मंदिर के पुजारी से लेकर तमाम हिन्दुओं ने विरोध किया लेकिन गांधी जी ने इस विरोध को दरकिनार कर दिया | लेकिन महात्मा गांधी एक बार भी किसी मस्जिद में जाकर गीता का पाठ नहीं कर सके |
9. लाहौर कांग्रेस में वल्लभभाई पटेल का बहुमत से विजय प्राप्त हुयी किन्तु गान्धी अपनी जिद के कारण यह पद जवाहरलाल नेहरु को दिया गया | गांधी जी अपनी मांग को मनवाने के लिए अनशन-धरना-रूठना किसी से बात न करने जैसी युक्तियों को अपनाकर अपना काम निकलवाने में माहिर थे | इसके लिए वो नीति-अनीति का लेशमात्र विचार भी नहीं करते थे |
10. 14 जून 1947 को दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में भारत विभाजन का प्रस्ताव अस्वीकृत होने वाला था, लेकिन गांधी जी ने वहाँ पहुँच कर प्रस्ताव का समर्थन करवाया। यह भी तब जबकि गांधी जी ने स्वयं ही यह कहा था कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा। न सिर्फ देश का विभाजन हुआ बल्कि लाखों निर्दोष लोगों का कत्लेआम भी हुआ लेकिन गांधी जी ने कुछ नहीं किया |
11. धर्म-निरपेक्षता के नाम पर मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति के जन्मदाता महात्मा गाँधी ही थे | जब मुसलमानों ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाये जाने का विरोध किया तो महात्मा गांधी ने सहर्ष ही इसे स्वीकार कर लिया और हिंदी की जगह हिन्दुस्तानी (हिंदी + उर्दू की खिचड़ी) को बढ़ावा देने लगे | बादशाह राम और बेगम सीता जैसे शब्दों का चलन शुरू हुआ |
12. कुछ एक मुसलमान द्वारा वंदेमातरम् गाने का विरोध करने पर महात्मा गांधी झुक गये और इस पावन गीत को भारत का राष्ट्र गान नहीं बनने दिया
13. गांधी जी ने अनेक अवसरों पर शिवाजी, महाराणा प्रताप व गुरू गोबिन्द सिंह को पथभ्रष्ट देशभक्त कहा। वही दूसरी ओर गांधी जी मोहम्मद अली जिन्ना को क़ायदे-आजम कहकर पुकारते थे |
14. कांग्रेस ने 1931 में स्वतंत्र भारत के राष्ट्र ध्वज बनाने के लिए एक समिति का गठन किया था इस समिति ने सर्वसम्मति से चरखा अंकित भगवा वस्त्र को भारत का राष्ट्र ध्वज के डिजाइन को मान्यता दी किन्तु गांधी जी की जिद के कारण उसे तिरंगा कर दिया गया।
15. जब सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में सोमनाथ मन्दिर का सरकारी व्यय पर पुनर्निर्माण का प्रस्ताव पारित किया गया तब गांधी जी जो कि मन्त्रीमण्डल के सदस्य भी नहीं थे ने सोमनाथ मन्दिर पर सरकारी व्यय के प्रस्ताव को निरस्त करवाया और 13 जनवरी 1948 को आमरण अनशन के माध्यम से सरकार पर दिल्ली की मस्जिदों का सरकारी खर्चे से पुनर्निर्माण कराने के लिए दबाव डाला।
16. भारत को स्वतंत्रता के बाद पाकिस्तान को एक समझौते के तहत 75 करोड़ रूपये देने थे भारत ने 20 करोड़ रूपये दे भी दिए थे लेकिन इसी बीच 22 अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया | केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने आक्रमण से क्षुब्ध होकर 55 करोड़ की राशि न देने का निर्णय लिया | जिसका महात्मा गांधी ने विरोध किया और आमरण अनशन शुरू कर दिया जिसके परिणामस्वरूप 55 करोड़ की राशि भारत ने पाकिस्तान दे दी । महात्मा गांधी भारत के नहीं अपितु पाकिस्तान के राष्ट्रपिता थे जो हर कदम पर पाकिस्तान के पक्ष में खड़े रहे, फिर चाहे पाकिस्तान की मांग जायज हो या नाजायज | गांधी जी ने कदाचित इसकी परवाह नहीं की |
उपरोक्त घटनाओं को देशविरोधी मानते हुए नाथूराम गोड़से ने महात्मा गांधी की हत्या को न्यायोचित ठहराने का प्रयास किया | नाथूराम ने न्यायालय में स्वीकार किया कि माहात्मा गांधी बहुत बड़े देशभक्त थे उन्होंने निस्वार्थ भाव से देश सेवा की | मैं उनका बहुत आदर करता हूँ लेकिन किसी भी देशभक्त को देश के टुकड़े करने के ,एक समप्रदाय के साथ पक्षपात करने की अनुमति नहीं दे सकता हूँ | गांधी जी की हत्या के सिवा मेरे पास कोई दूसरा उपाय नहीं था
सिर्फ भावनात्मक बात कहने से क़ातिल को माफ़ नहीं किया जा सकता ऐसे भी कोई अपराधी अपराध करता है तो उस का अपना लॉजिक होता है , वो भी अपने आप को सही कहता है . संघ और कुछ हिन्दू संगठन जबरदस्ती गोडसे को हीरो बनाने में तुली हुई है .
सिर्फ इस बात से कि गाँधी ने बहुत सी गलतियाँ कीं, नाथूराम द्वारा उनकी हत्या को जायज नहीं ठहराया जा सकता, पर इस विषय को बार बार उठाने से नाथूराम के पक्ष मे माहौल जरूर बनता है, जो आज दिग्भ्रमित करने का कारण बनता है.
वैसे, जो लोग इतिहास को इतना कुरेदने के आदी हैं, वे इंदिरा जी की मृत्यु और उसके बाद हत्यारों के बयान, राजीव गाँधी की मृत्यु और उसकी तहकीकात तथा ज्ञानी जैल सिंह, माधव राव सिंधिया व राजेश पायलट की संदेहास्पद दुर्घटनाओं पर अपनी कलम क्यों नहीं चलाते?
इतिहास को ठीक नहीं किया जा सकता पर इतिहास को तार्किक दृष्टि से देखा जरूर जाना चाहिये. इन दोनों तरीकों में गहरा अंतर है, पर यह अंतर समझने वाले कितने लोग शेष रहे हैं?
Bilkul sahi kiya nathuram godse ne unhe mera koti koti naman.. bus thodi der kr di ye kaam unhe bht phele karna chaiye tha
यो तो मै हिन्सा (कोई भी प्राणी ) का समर्थन नही करता हु फिर भी
दे दी हमे आजादी बिना खडग बिना ढाल -इस नमूने से ना तो पी ओ के वापस लिया जा सकता है और ना ही गाजा पट्टि आदि
लेकिन आपके फार्मूले से भी ना तो पीओके वापस आया है, और ना ही अपने हिस्से वाले कश्मीर मे शांति. बाकी कश्मीर 80 के दशक से पहले अशांत नही था, इस बारे मे भी विचार करना.
१-आपका सवाल अच्छा है जाकिर भाई लेकिन पीओके के लिये हमारे देश ने कितनी लडाईया लडी
१-पहली तो नेहरू जी लडना ही नही चाहते थे अगर चाहते तो ना तो युएन जाते ना ही पीओके होता
२-दुसरि तो पाकिस्तान ने शुरू कि थी जिसमे शास्त्री जी ने जीता हुयी जमीन भी वापस कर दी
३-तीसरी तो बान्गला के लिये थी
४- कारगिल के लिये
पीओके के लिये तो एक भी लडाई नहि हुयि
२-क्षेत्र की शान्ति के लिये सरकार की नीति और जनता दोनो ही जिम्मेदार होती है पन्जाब इसका उदाहरण है जब जनता को समझ आ तो खुद हि आतन्क से दुर हो गयी
दुसरा यही बात कश्मीरियो को अभी तक समझ नहि आयि है वैसे जैसी तत्परता मोदी ने बाढ पीडितो और यमन से लोगो(अधिसन्ख्यक मुस्लिमो) के लिये दिखायी थि निसन्देह तारीफ के काबिल है
नेहरू जी लड़ना नही चाहते थे, ये उनकी खामी हो गयी. आप लोग लड़ना चाहते हो, यही आपका गुण हो गया है.
नेहरू-गाँधी, लड़ाई मे भरोसा नही करते थे, इसलिए नही लड़े. अब तो लड़ाई-झगड़े, फ़साद वालो की सरकार आ गयी, पीओके के लिए कितनी लड़ाइयाँ लड़ ली? या आप उनको भी शांति-प्रिय कह के गलियाओगे?
भाई किसने कहा कि मुझे लडाई ही चाहिये मेरे हिसाब से कुछ सोलुसन इस प्रकार है
१-नियन्त्रण रेखा अन्तरार्टीय रेखा हो जाये
२-कश्मीर एक बफर स्टेट हो
३-पकिस्तान कश्मीर खाली कर दे
४-भारत कश्मीर खाली कर दे
भाई शान्ति के तो यही सोलुसन है दुसरा आपके पास हो तो आप बता दे
अब सवाल ये भी है कि कोन सा देश तयार है इस सोलुसन के लिये शायद भारत या शायद पाकिस्तान
या फिर दोनो हि नही ……………… होते तो अब तक ये मामला लटका ना होता
पीओके हमारे लिए कोई समस्या नही है, इसे हम प्रेशर पॉइंट के लिए ज़रूर इस्तेमाल करते हैं, जिससे समझौते मे कुछ लेना देना पड़े तो काम आए. वरना जो कश्मीर हमारे पास है, वो तो हमसे संभल नही रहा, दूसरे को लड़के हथिया के अपना सरदर्द दोगुना करना चाहते हो.
पीओके लड़के लेलोगे, लेकिन वहाँ की आवाम का क्या करोगे? वहाँ अलगाववादी नही होंगे? उस अलगाववाद से लड़ने के लिए ज़्यादा सैनिक, ज़्यादा क्षति, ज़्यादा धन खर्च होगा. हमारी समस्या घटेगी या बढ़ेगी?
अगर आप मानते हो कि सरकारी नीतियाँ और अवाम दोनो का शांति स्थापित होने मे योगदान है, तो लड़ाई-झगडो से तो आप आवाम को ही दूर करोगे ना. इससे पहले भी आपका धारा 370 को लेके रवैया उग्रता भरा रहा है. इस धारा से जुड़े आपके सुझावो को आपने अशांत क्षेत्र के लोगो के पास ले जाने कि बजाय, शेष भारत मे लेके गये. उसपे राजनीति करके शेष भारत मे तो वोट बढ़ाए, लेकिन कश्मीर मे आधार नही बनाया.
आप कश्मीर समस्या का हल 60 साल से जेब मे लेके घूम रहे हो, लेकिन आपने श्रीनगर मे पार्टी ओफिस तक नही बनाया, कोई विधायक, पार्षद या कद्दावर स्थानीय नेता तक आप इन 60 सालो मे कश्मीर को नही दे पाए. ऐसी स्थिति मे आपकी कश्मीर नीति को कैसे प्रभावी माना जाए? क्या इन 60 सालो मे चुनाव नही हुए? आपने अलगाववादियो की धमकियो के बीच कश्मीर मे लोकतंत्र की ज़मीन बनाने मे कितना योगदान दिया?
उसके विपरीत, अलगाववादियो की धमकियो के बावजूद, कश्मीर की गलियो मे भारत के संविधान के अंतर्गत होने वाले चुनावों के लिए जिन पार्टियो ने वोट माँगे, लोकतंत्र की कुछ ज़मीन बचाए रखी, उन्हे आपने गद्दार तक भी ठहरा दिया. जबकि आपने कश्मीर के लिए कुछ नही किया. 60 साल मे किसी की भी सरकार रही हो. राजनैतिक ज़मीन बनाने के लिए आप स्वतंत्र थे. लेकिन आपको कश्मीर मे राजनैतिक ज़मीन नही बनानी थी, बल्कि उसके नाम पे शेष भारत मे वोट बटोरने थे.
आपके कश्मीरी पंडितों के लिए आँसू भी घड़ियाली थे. वरना जिन लोगो को आप गद्दार और कश्मीरी पंडितों के विस्थापन का ज़िम्मेदार ठहराते हो, उन दलो ने कश्मीरी पंडितों के बीच भी अपनी लोकप्रियता बनाई, लेकिन आप कश्मीर मे नही बना पाए. क्यूंकी आप ऐसा चाहते ही नही. आप ध्रुवीकरण चाहते हो. आप सिर्फ़ लड़ाई, झगडो की बात करते हो, आपके समाधान भी बंदूक के बल पे ही होते हैं.
मुझे समझ नही आया की आप कहा जा रहे है वैसे बता दु मै उन लोगो मे से नही हु जिन्हे हर मुसलमान आतन्की नजर आते है और ना ही आप जैसा जिन्हे हर हिन्दु मे सन्घि नजर आते है
मुझे समझ नही आया की आप कहा जा रहे है वैसे बता दु मै उन लोगो मे से नही हु जिन्हे हर मुसलमान आतन्की(या फिर हर आतन्की मे सिर्फ मुसलमान ) नजर आते है और ना ही आप जैसा जिन्हे हर हिन्दु मे सन्घि नजर आते है
पीओके को वापस लेने की बात तो आपने ही शुरू की थी कि अहिंसा से पीओके वापस नही लिया जा सकता. पता नही आपके इस वापस का क्या मतलब है?
हम पीओके के लिए लड़े ही कब? इसका क्या मतलब? और भाई, पीओके को लेना इस देश की समस्या कब बन गया?
और भाई, मुझे समाधान नही पता. लेकिन इतना मुझे पता है कि इन्ही राजनैतिक सीमाओ के साथ कश्मीर ने बहुत लंबा अरसा शांति का देखा है, और उस वक्त जो आपने 4 तरीके बताए हैं, उनमे से कोई भी नही था. समस्या का समाधान तो आवाम के करीब जाना ही है.
जो यक़ीनन इन 60 सालो मे कश्मीर समस्या का समाधान जेब मे लेके घूमने वाले राष्ट्रवादियो ने नही किया. मैने आपको संघी इसलिए कहा कि जिस पार्टी ने कश्मीर मे आज तक एक विधानसभा या लोकसभा की सीट नही जीती, उस राजनैतिक दल के लिए आप कह रहे हो कि वो कश्मीर के लोगो का दिल जीत रही है, अब हालात सुधरे हैं?
जनाब कश्मीर मे सेना, इससे पहले भी राहत के कार्य कर चुकी है.
मोदी जी ने ही कश्मीरियो के लिए किया है? कश्मीरी जनता का दिल भारत की किन राजनैतिक पार्टियो ने जीता है, उसका सबूत तो कश्मीर मे अब तक हुए चुनावी परिणाम से पता चल ही जाना चाहिए. कश्मीर मे पूरी तरह से असफल पार्टी को कश्मीर के मामले मे शाबाशी इस देश मे संघी नामक प्रजाति के अलावा कोई देता है क्या?
मेरा स्पष्ट प्रश्न है, कौनसी पार्टियों ने अलगाववादियो से कश्मीर मे राजनैतिक ज़मीन बचा के रख रखी है. कश्मीर मे भारत का प्रभाव, सिर्फ़ इसी लोकतंत्र की ज़मीन से नापा जा सकता है.
नेहरू संघ मे चला गया, उसने कश्मीर समस्या उलझा दी, इस देश मे ऐसे अधकचरा इतिहास की जानकारी संघियो के अलावा किसको है?
वैसे आप अपने को संघी, असंघी, ससंघी जो चाहे माने या ना माने, वो आपकी मर्ज़ी. लेकिन कश्मीर के इतिहास और समस्या पे तार्किक बहस करे.
१-“ना तो पीओके वापस लिया जा सकता है और ना ही गाजा पट्टि आदि” ——-मेरा मतलब सन्सार के विवादित जगहो से था अब आप पीओके देख कर भावनाओ मे बह गये तो मेरा क्या दोश
२-मैने कब कहा की हमे बम फोडकर पीओके वापिस लेना चाहिये बल्कि वो तो मेरा ओपशन ही नही है
३- लडाईया नही लडी से मेरा ये कहना था कि हम कश्मीर का समाधान शान्ति से चाहते है अब आप मुझे सन्घि बनाने पे तुल गये तो मे क्या करु
३-क्योकि मै राजनेतिक व्यकिती नहि हु इसलिये ना तो मैने पीओके वापस लेने मे हट्धर्मिता दिखायी है ना ही देने मे वर्ना जो शान्तिपूवर्क समाधान निकल जाये
३-कश्मीर के अलावा जूनागढ हैदराबाद आदि और भी रियासते थि जो साम दाम दण्ड भेद से मिलायी गयि थि इस लिये सिर्फ कश्मीर पर बात हो तो मेरा मानना है कि ये कही ना कही पर सम्प्रदायिकता हि होगि और सम्प्रदायिकता अन्धसमर्थन अन्धविरोध हो या तुस्टीकरन मे हमेशा दूर रहता हु दुसरा अतित मे क्या हुआ ये सोचकर वर्तमान को क्यो बिगाडे यही मेरा मानना है
४-सरकारी नीतियाँ और अवाम दोनो का शांति स्थापित होने मे योगदान है इसलिये सरकार का कोई भी कदम जो जनता का दिल जित्ने के लिये हो उसका मै तो तारिफ हि करुन्गा चाहे इसमे सन्घि सरकार हो या सेकुलर्
और हा बलाग पर मै बहस करने नही बल्कि अप्ने विचार रखने आता हू और दुसरो के पढने
आम जन्ता के बेीच मे लोक प्रियता और बद्नामेी अस्थायि होति है
गान्धेी जि के बहुत से अपराध रज्नैतिक् और समाजिक थे इस्लिये गान्धेी जि केी नितियो को आम् जन्ता के बेीच मे पर्दाफाश होना चाहिये था उन्को जनता के बेीच मे बद्नाम् करना चाहिये था उन्को जान से मारना रज्नैतिक् हार कहेी जायेगेी !
किया हकीकत है ये तो ईतिहास के पन्ने मे कैद है. गाँधी किया थे ये सारी दुनिया जानती है पर नाथु ने जो किया उस सारी दुनिया के अफसोस हुआ उस पागल हटधरमी भी कहा दोसत कभी तो सच्चाई सुवीकार करो ईन झुटी ईतिहास को तो छोड़ कर ईनसान को कहो पोगल को पागल . आज सबसे बङे देशद्रोही को तो देशद्रोह कहो जो ईतिहास को बदलकर नफ़रत का बीज बो रहा है
नेहरू ने एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र को अपने व्यक्तिगत संबंधो की वजह से पाकिस्तान मे जाने से रोकने मे सफलता पाई. बंदूक के बल पे कश्मीर हथियाने या राजा हरिसिंह के पत्र को दिखा कर, कश्मीर मे शांति कायम हो जाती तो आज कश्मीर का मसला हल हो चुका होता. पीओके वाला हिस्सा भी अगर हमारे पास होता, लेकिन कश्मीरी दिल से भारत के साथ नही होते तो समस्या आज की तुलना मे ज़्यादा बड़ी होती, इसलिए इस प्रोपेगेंडा मे कोई दम नही है कि नेहरू ने पटेल की इच्छा के खिलाफ, पीओके को सेना के बल पे नही जीता.
सोचिए, संघ जो की 1925 मे अस्तित्व मे आ गया था, अगर 1947 मे भारत की राजनैतिक सत्ता हासिल कर लेता तो कश्मीर मे अपने किस प्रभाव का इस्तेमाल करता? श्यामा प्रसाद मुखर्जी, गोलवरकर या उपाध्याय ऐसा कौनसा व्यक्ति था, जिसका कश्मीर मे संपर्क था. नेहरू का था, और आज जो कश्मीर का हिस्सा, हमारे पास है, उसका श्रेय कांग्रेस को नही, बल्कि सिर्फ़ एक व्यक्ति नेहरू को जाता है.
अब बात आती है, कश्मीर के स्वायत्ता की. वैसे तो सत्ता का विकेंद्रीयकरण को हमारे संविधान मे प्रोत्साहित किया गया है, और विविधता से भरे इस देश मे हम आज तक इसी वजह से प्रेम से रह पाए कि इसमे सत्ता का केंद्रीयकरण नही, अपितु विकेंदीयकरण रहा है.
कश्मीर, पाकिस्तान की सीमा से लगा, मुस्लिम बहुल राज्य था, ऐसी स्थिति मे राजा हरी सिंह के पत्र के बावजूद, उसको पाकिस्तान से बचा के रखना बहुल मुश्किल था. इस वजह से नेहरू को उस वक्त शेख अब्दुल्ला को स्वायत्ता का लालच देना पड़ा. इतिहास को सिलसिलेवार तरीके से देखे तो धारा 370 से पूर्व कश्मीर की स्वायत्ता बहुत अधिक थी, और इस अनुच्छेद से उसकी स्वायत्ता मे कमी आई है. आगे के केंद्रीयकरण के लिए मुहिम कश्मीर के भीतर से ही शुरू होने चाहिए, बाहर से थोपे गये निर्णय समस्या को उलझायेँगे. कोई भी देश तभी मजबूत होता है, जब उसके संविधान मे वहाँ की जनता का भरोसा हो.
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नेहरू की दूरदर्शिता देखिए की उसने मुस्लिम बहुल कश्मीर की राजनीति को बहुलतावादी करने के लिए उसे हिंदू बहुल जम्मू और लद्दाख से जोड़ा, अन्यथा हमे अब्दुल्ला और मुफ़्ती मुहमद सईद की बजाय, ओवैसी जैसे लोग कश्मीर के मुख्यमंत्री दिखते.
किसी भी पहलू से विश्लेषण करके देखिए, नेहरू की कश्मीर नीति मे वो दूरदर्शिता और परिपक्वता नज़र आएगी, जो आज 60 साल भी देश के किसी भी बड़े नेता मे नहेी आतेी.
उमाकांत जी, कश्मीर की बात आपने छेड़ी थी, हमने नही.
जाकिर भाई आप कितने भी तर्क दे लीजिये मगर इस बात की काट नहीं धुंध पाएंगे कि तक़रीबन ८०० से जयादा रियासतो और रजवाड़ों का फैसला सरदार पटेल साहब ने पूरी स्पष्टता से कर दिया था फिर वे चाहे भारत के साथ गयी हो या पाकिस्तान के साथ !!
इतिहास के किसी भी दौर में कश्मीर नाम का कोई देश वजूद में नहीं रहा और कश्मीर नाम की इस रियासत को नेहरू जी ने अपने हाथ में लेकर ऐसा उलझाया कि आज भी इसके सुलझने के आसार नज़र नहीं आते ??
कश्मीरी अवाम हो। …. या कश्मीरी अलगाववादी हो….. या कश्मीरी राजनितिक पार्टिया हो। … या कोई भी बुद्धिजीवी हो। …. आज की तारीख में कोई एक भी माई का लाल कश्मीर के बारे में ऐसा हल नहीं निकाल सकता जो भारत और पाकिस्तान दोनों को मनजुर हो !!…हे कोई आपकी नज़र में:)
ऐसा इसलिए हे कि आज कश्मीर के तीन अलग-२ हिस्से होकर तीन अलग-२ देशो के पास हे (भारत, पाकिस्तान और चीन)…. …. चीन को पाकिस्तान ने कश्मीर का एक हिस्सा गिफ्ट किया हुआ हे , क्यों ??
पाकिस्तान की तर्ज पर भारत को भी अपने हिस्से वाले कश्मीर का सबसे अशांत इलाका इज़राइल सरीखे किसी दूसरे देश को लीज पर दे देना चाहिए जो अलगाववादियों और पाक समर्थक आतंकवादियों को अपने हिसाब से निपटा सके 🙂
मैने बाकी रियासतो की नही, कश्मीर की ही बात की है, और सिर्फ़ कश्मीर के लिए ही नेहरू को श्रेय दे रहा हूँ. जहाँ तक बात सरदार पटेल की है, उनका योगदान भुलाया जा नही सकता, लेकिन वो भी पक्के कांग्रेसी ही थे, वो भी नेहरू-गाँधी युग के.
ताज्जुब मुझे इसी बात का होता है कि नेहरू-पटेल की शानदार जोड़ी मे कांग्रेस को गलियाने वाले लोग, आज पटेल को बाप बना रहे हैं. असल मैं, ये पटेल को भी पसंद नही करते, क्यूंकी पटेल तो पक्के कांग्रेसी, गाँधीवादी, और सिकुलर थे, ये असल मे पटेल के बहाने नेहरू को नीचा दिखाना चाहते हैं. समझदार व्यक्ति को पता है कि इन लोगो का कोई भी नेता, नेहरू, पटेल, गाँधी के कद का है ही नही. इसलिए कभी नेहरू-पटेल, गाँधी-बसु, गाँधी-भगत सिंह की बेतुकी बहस छेड़ते हैं. जबकि पटेल, बसु, भगत सिंह किसी की विचारधारा जनसंघियो से नही मिलती थी.
” तक़रीबन ८०० से जयादा रियासतो और रजवाड़ों का फैसला सरदार पटेल साहब ने पूरी स्पष्टता से कर दिया था फिर वे चाहे भारत के साथ गयी हो या पाकिस्तान के साथ ! ” !एकदम झूठ प्रोपेगेंडा आठ सौ रियासतो का कोई खास मसला था ही नहीं जो भारत के पेट में थी वो भारत को ही मिलनी थी जो पाकिस्तान के उदर में थी वो पाक को मिलनी ही थी जैसे हैदराबाद जुनगढ भोपाल शासक क़ ना चाहते हुए भी भारत को मिलनी थी ही शासक जो चाहे उछाल कूद करते थोड़ी बहुत राजपूत रियासतो ने भी की थी बलूचिस्तान और सीमा प्रान्त पाक में मिलने कोई खास उत्सुक नहीं थी क्यों नहीं सरदार पटेल ने अपनी ” लोहपुरुषता ” से इन्हे भारत में मिला लिया या आज़ाद करवा दिया जब बकौल संघियो के सरदार साहब थे ही इतने बड़े इतना महान इतने लोहपुरुष तो इन को पाकिस्तान में मिलने से क्यों नहीं रुकवा दिया सरदार साहब ने ? कश्मीर को लेकर लफड़ा हुआ क्योकि कश्मीर तक भारत पाक दोनों की अपनी अपनी पहुंच थी लफड़ा और उलझा क्योकि शीत युद्ध की राज़नीति में कश्मीर एक अहम अड्डा था जो भी था कश्मीर पर नेहरू ने कोई भूल नहीं की बल्कि नेहरू की गुडविल के कारण ही भारत को सबसे खूबसूरत कश्मीर मिल सका लद्दाख का जो निर्जन बंजर इलाका चीन ने हड़पा उसके बदले भी भारत को सिक्किम जैसा अध्भुत इलाका मिला
कश्मीर का मसला उलझा सबसे अधिक कश्मीरी नेताओ की वो चाहे महाराजा हरी सिंह हो या कश्मीरी मुस्लिम नेता इनकी कश्मीर को स्विट्ज़र्लॅंड जैसा आज़ाद बफर स्टेट बनाने के सपने के कारण सबसे अधिक इस खफ्त में कश्मीर और कश्मीरी बर्बाद हुआ फिर अमेरिका रूस चीन आदि की संकीर्णता के कारण जो भी था इसमें इनका दोष था ना की नेहरू का बल्कि नेहरू ने तो बड़ी दूरदर्शिता और उदारता से बिना खून बहे इस मसले का भी हल सा कर दिया था मगर बहुत कुछ हुआ
कश्मीर की समस्या के हल की तरफ नेहरूवियन अटल जी सबसे अधिक तेज़ी से बढ़ रहे थे सीमा पर तो उन्होंने शान्ति करवा भी थी जो कश्मीर हल की पहली शर्त हे अपनी उदारता से उन्होंने पाकिस्तान से लेकर कश्मीर और हुर्रियत के खफ्तियो तक का दिल जीत लिया था मगर तभी मोदी जी कारण उन्हें चुनाव हारना पड़ गया अब अगर आडवाणी भी पि एम बनते ( अगर साज़िशों के बल पर मोदी जी का नाम ना आगे आता तो ) तो वो भी अटल की नीति पर चलते और उम्र की संध्या बेला में कश्मीर समस्या का हल करके नोबेल जितने की कोशिश करते ना की मोदी जी की तरह तनाव और अशांति फैला कर अगला चुनाव जितने की सनक में पड़ते आप अंदाज़ा लगा सकते हे की मोदी जी कितने बड़े अभिशाप हे शान्ति के लिए ?
वाजपेयी जी के समय में कश्मीर में शान्ति व्यवस्था बहाल हो रही थी ??
पता नहीं हयात भाई आप कहा-२ के तुक्के कही भी फिट करके बात मोदी-विरोध पर लाकर ही ख़त्म करते होः) हमारा दिमाग इस तरह की फिटिंग करने में १ % भी सक्षम नहीं हे इसलिए इस डिस्कसन पर हमारी तरफ से पूर्ण विराम
कश्मीर पाकिस्तान युद्ध और शान्ति पर वैसे भी हम आप कई बार अलग अलग साइटों पर बहस कर चुके हे मुझे भी लिखते हुए बहुत बोरियत हुई मगर नए पाठको के लिए लिखना पड़ा
hamare desh ke Sache desh bhakto ko gandhiji ne path bharst kah kar unke balidan ko najayz thahrana galat he unke liye godse ji ne sahi kiya
कोई कुछ कह दे तो उसकी जान ले लो, यही सही पथ है आपके लिए? वैसे गाँधी ने भगत सिंह की दिल खोल के तारीफ की लेकिन उसके रास्ते को ग़लत बताया. यंग इंडिया मे गाँधी का भगत सिंह पे छपा लेख पढ़ना.
भगत सिंह कट्टर कम्युनिस्ट था, घोर नास्तिक था, उसके रास्ते (पथ) को आप सही मानते हो, तो फिर संघ के लोग पथ-भ्रष्ट है, उनको गोली से उड़ा दें? और गोडसे के भक्त हो, जिसे कम्युनिज़्म मे भरोसा नही था तो भगत सिंह पथ-भ्रष्ट हुआ, तो उसकी फाँसी से तो आपको खुश होना चाहिए.
इस देश मे ऐसे ऐसे चमन भरे पड़े हैं. देश को किसी ओर से नही, इन बड़े वाले देश-भक्तो से ही ख़तरा है. आप बहुत सही राह पे जा रहे हैं. हम पथ-भ्रष्ट लोगो को भी गोली से उड़ा दो.
कश्मीर समस्या हल के लिए जनता को समझने को सबसे जरुरी बात ” अडिग रहना हे सबकी मज़बूरी कश्मीर पर पहले की तरह फिर से भारत पाकिस्तान की बातचीत तीसरे पक्ष यानी हुर्रियत से पाकिस्तान की बातचीत को लेकर टूट गयी हे उसके बाद फिर से नियत्रण रेखा पर हालात बिगड़ने का खतरा हे वास्तव में इस समस्या का कोई तुरत फुरत हल नहीं हे भारत पाकिस्तान हुर्रियत कश्मीर को सारी जनता को इस समस्या के हल के लिए सबसे जरुरी बात पहले समझनी होगी की न भारत पाक अधिकरत कश्मीर को युद्ध करके ले सकता हे न पाकिस्तान भारतीय कश्मीर को सीधे या छदम युद्ध में हासिल कर सकता हे न हुर्रियत का आज़ाद कश्मीर का ही सपना पूरा हो सकता हे न ही भारत अंतरष्ट्रीय दबाव के कारण हुर्रियत वालो को जेल में डाल या कश्मीर से ही निकाल ही सकता हे अंत में बिना हल के सभी पक्षों का अपने अपने अपने पक्ष पर अडिग रहना उनकी नियति हे मज़बूरी हे जिससे कोई भी पीछे नहीं हट सकता हे
इस सम्बन्ध में 60 के दशक में ही हिंदी के महान संपादक राजेंदर माथुर जी ने लिखा था उनका कहा और सम्भावनाय सच ही सिद्ध हुई और अभी तक पूरी तरह से प्रसांगिक दिखाई देता हे इस कश्मीर समस्या का एकमात्र हल पूरी उपमहादीप में उदारता और महासंघ की भावना को बड़े ही धैर्य के साथ फैलाना ही हे जब जनता काफी हद तक ये बात समझ जायेगी परिपक्व होगी तब ही तीनो पक्ष न केवल हिम्मत दिखाकर इस समस्या का कोई अंतिम हल मान सकेंगे बल्कि पुरे उपमहादीप के महासंघीकरण की भी शरुआत होगी राजेंदर माथुर जी 1967 के अपने लेख” शेख ( अब्दुल्ला ) की नियति ” में लिखते हे ” भारत कश्मीर को अपना अभिन्न अंग मानता हे और पाकिस्तान भी और कश्मीर में कुछ लोग रायशुमारी चाहते हे तीनो दावे बीस साल से अपनी जगह कायम हे भले ही कृष्ण मेनन कह चुके हे की कश्मीर कोई समस्या नहीं हे जैसे की महाराष्ट्र या यु पी को समस्या नहीं हे लेकिन सुरक्षा परिषद में जब यह मसला उठाया जाएगा तो गृहमंत्री चव्हाण क्या अवैध कार्यवाही कानून के तहत राष्ट्रपति जॉनसन ( अमेरिका ) और प्रधानमंत्री कोसिगन ( सोवियत संघ ) पर मुकदमा चलाएंगे की वे या उनके नुमाइंदे ऐसा बयान क्यों दे रहे जिससे भारत की अंखडता पर आंच आती हे ? तो कश्मीर में गुत्थी ये हे की तीनो पक्षों को वीटो भी चाहिए और हल भी चाहिए शेख अब्दुल्ला की दूसरी कसोटी ये थी ( आज हुर्रियत कॉन्फ्रेंस ) की कश्मीर के हल से भारत और पाकिस्तान नज़दीक आये यह भी बहुत अच्छी शर्त हे बशर्ते ऐसा कोई जादुई हल ढूंढा जा सके उनकी तीसरी कसोटी यह थी की हल ऐसा न हो की भारत के करोड़ो मुसलमानो और पाकिस्तान के हिन्दुओ ( तब उसमे बांग्लादेश भी ) को खतरा नज़र आने लगे कश्मीर में अगर जनमत संग्रह हुआ और वह की जनता ने यदि सचमुच पाकिस्तान में मिलना पसंद किया तो क्या इससे भारत के मुसलमानो का भविष्य खतरे में नहीं पड़ेगा ?
शेख की तीनो कसौटियों को लागू करे तो वह इस्तिति हो जाती हे जिसे में हास्यापद परिणीति कहते हे तब न तो कश्मीर भारत के साथ रह सकता न पाकिस्तान में मिल सकता , न वह स्वाधीन होने का निर्णय कर सकता हे ( क्योकि जैसे ही कश्मीर में जनमत संग्रह हुआ वैसे ही आसाम और नागालैंड से लेकर पंजाब तक भारत बिखरने लगेगा अतः इस समीकरण का एकमात्र हल हे , वह महासंघ का हे महासंघ बनना तीनो पक्षों को मंजूर होगा वार्ना वह बनेगा ही क्यों ? उससे भारत पाक करीब आएंगे और अलपमत की आबादी को खतरा नहीं होगा लेकिन महासंघ इस बीसवी शताब्दी में तो बन नहीं सकता वह तब तक नहीं बनसकता जब तक दोनों देश अपने अस्तित्व न हो जाए की उसे भूल जाए वह तब तक नहीं बनसकता जब तक दोनों अपनी सार्थकता न सिद्ध कर दे महासंघ के फल के पहले राष्ट्रीयता के फूल को खिलकर झरना होगा. पाकिस्तान अगर आज महासंघ मंजूर करता हे तो उसका 21 वर्षो का बटवारा एक महान मूर्खता बन जाता हे भारत की दुश्मनी के कारण ही वह जिन्दा हे एक हे इधर हिंदुस्तान में फुट और अलगाव की इतनी ताकते हे की अभी यह सिद्ध नहीं हुआ हे की हम एक देश हे या नहीं सवस्थ शरीर ही विदेशी तत्वों को पचा सकता हे केवल कीटाणु नहीं भोजन भी भारत का शरीर असवसथ हे सो पाकिस्तान का पास आना हमारे लिए उतना ही खतरनाक हो सकता हे जितना की नागालैंड का अलग होना —–
इस परकार यह स्पष्ट हे की कश्मीर का कोई तत्काल हल नहीं हे तीनो पक्षों के पास अपने तर्क हे अपनी अनिवार्य नियति हे जिसके लिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता भारत की यह अनिवार्य नियति हे की वो कश्मीर को अपना अंग माने वार्ना वह टुकड़े टुकड़े हो जाय पाकिस्तान की यह अनिवार्य नियति हे की वह कश्मीर पर अपना दावा करे वहा घुसपैठिये भेजे उसके लिए युद्ध करे वार्ना वह बना क्यों था ? कश्मीर की यह अनिवार्य नियति हे की वह दो बड़े पड़ोसियों को संतुलित करके आज़ाद होने की कोशिश करे क्योकि अविभाजित भारत के दोनों हिस्सों से उसके रिश्ते हे अब्दुल्ला ही नहीं ( आज हुर्रियत ) महाराजा हरी सिंह भी इसी अनिवार्य नियति के शिकार थे तभी तो वह तीन महीने तक न भारत में मिले न पाकिस्तान में और मिले भी तब जब मज़बूरी हो गयी . नियति के इस दंद को क्या आदमी ( यानि नेता ) सुलझा सकते हे शायद नहीं यधपि इस तरह भागयवादी होना शोभा नहीं देता . कश्मीर में इस तीनो नियति की टक्कर से कुछ भी हो सकता हे चीन और पाकिस्तान सयुंक्त रूप से हमला कर सकते हे या कश्मीर की जनता वर्षो तक अशांत आंदोलन कर सकती हे या हालत ज्यों की त्यों बनीं रह सकती हे क्योकि इसी में रूस व् अमेरिका का हित हे ( आज रूस की जगह चीन ) ६०० साल के दर्दनाक संघर्ष के बाद आयरलैंड इंग्लैंड से अलग हो गया लेकिन बरसो की लड़ाई के बावजूद भी स्कॉटलैंड आज भी उसका हिस्सा हे राष्ट्रीयता के झगडे अंततः तलवार से ही तय होते हे और लंबे चलते हे अमेरिका जब दो हिस्सों में बट गया तो उसने जनमत संग्रह नहीं करवाया बल्कि गृहयुद्ध लड़ा भारत का कोई हिस्सा अलग होना चाहे तो राष्ट्रिय एकता में विश्वास रखने वालो का यह कर्त्वय हे की वह गृहयुद्ध मोल ले ले ”
भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश का महासंघ ही इन तमाम गतिरोधो का हल है. जो एक दिन मैं कायम नही हो सकता. और यक़ीनन ये ना इस्लाम के छाते के अंतर्गत हो सकता है, ना ही हिंदुत्व के. क्यूंकी राजनैतिक रूप से ये दोनो विचार, समाज मे टकराव लाएँगे. धर्म, व्यक्तिगत आस्था का विषय ज़रूर होना चाहिए, लेकिन राजनीति से उसको दूरी बनानी ही पड़ेगी.
यही हल फ़िलिस्तीन, इजरायल समस्या का भी है. जब तक अरब देश, सेक़ूलेरिज़्म की राह पे नही बढ़ेंगे, टकराव की स्थिति बनी रहेगी, कोई हल नही सुझेगा.
सेक़ूलेरिज़्म के पक्षधर लोग, सिर्फ़ भारत मे हो, ऐसा नही है. पाकिस्तान और बांग्लादेश मे भी एक अच्छा ख़ासा वर्ग, उदारवादी है. हमारा मीडिया और दक्षिणपंथी पार्टियाँ, सिर्फ़ इन देशो के कट्टरपंथी चेहरे को ही दिखाती है, जो निराशा पैदा करती है, परिणामस्वरूप, आम नागरिक उसकी प्रतिक्रिया, खुद के समाज मे भी कट्टरपंथ की ओर मुड़ जाता है.
क़ायदे से होना यह चाहिए कि इस उप-महाद्वीप के तमाम उदारवादी मिलके, कट्टरपंथी ताकतों से लड़े. ऐसा नही है कि ये प्रयास नही हो रहे. इंटरनेट के दौर मे लोग, सोशल मीडिया के माध्यम से ऐसा कर भी रहे हैं. कुछ ही दिनो पहले, सोशल मीडिया पे “i dont hate india” एवं “i dont pakistan” भी खूब वायरल हुआ था.
हमे चाहिए कि पड़ौसी देशो और दूसरे समुदायो से नफ़रत करने की बजाय, अपनी नाराज़गी के कारण को संवाद के ज़रिए बताए. बहस करे, तर्क-वितर्क करे. एक दूसरे के पैराडाइम को समझने की कोशिश करे. भिन्नता के बावजूद, सहमति के बिंदु तलाश, आगे बढ़ने के रास्ते खोजे. एक बिंदु पे अड़ियल रवैया रखेंगे तो कोई हल नही निकलेगा.
कश्मीर मे भारत को अपनी स्थिति पे अड़े रहने का कारण, उसका भविष्य भी है. भारत, व्यावहारिक रूप से नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय रेखा मानने के लिए तैयार हो जाएगा, लेकिन मुस्लिम बहुल कश्मीर को भारत से अलग नही करेगा. इसके अतिरिक्त कश्मीर की स्वायत्ता को अधिक करने की स्थिति तक भारत जा सकता है, संघ या बीजेपी इसको राजनैतिक मुद्दा बनाके इसका राजनैतिक लाभ लेने की कोशिश ज़रूर करेगी.
भारत कश्मीर को इसलिए नही छोड़ सकता क्यूंकी ये उसके शेष भारत मे स्थायित्व और सेक़ूलेरिज़्म के बुनियादी सिद्धांत के लिए आवश्यक है. कश्मीर के अलग होने से ये विचार प्रबल होगा कि मुस्लिम बहुसंख्यक हो जाने पे अल्प संख्यको के राजनैतिक अधिकारो की समानता मे भरोसा नही करते. ऐसा होने पे शेष भारत मे गृह-युद्ध की स्थिति आ जाएगी. ये भी विचार मजबूत होगा कि अन्य क्षेत्र, जहाँ मुस्लिमो का अनुपात अधिक है, वहाँ पे भी भविष्य मे ऐसा अलगाववाद पनप सकता है.
कश्मीर के अलग होने से मुस्लिमोफ़ोबिया के विचार को बल मिलेगा.
इसका अर्थ यह कतई नही कि हम कश्मीर मे हो रहे मानव-अधिकारो के उल्लंघन की बात ना करे, लेकिन ये लड़ाई, मज़हबी संगठनो के अंतर्गत नही लड़ी जानी चाहिए, और विस्थापित कश्मीर पन्डितो को इसमे शामिल किया जाना चाहिए.
मेरी व्यक्तिगत राय मे नेशनल कांफ्रेंस इस समय, एक संतुलित रवैया रख रही है. लेकिन ध्रुवीकरण की राजनीति मे वो अपनी ज़मीन नही बचा पा रही है.