गुजरात का जो सच लोकसभा चुनाव में उभर नहीं पाया क्या वह पटेल आरक्षण के जरीये सवा बरस बाद सतह पर आ गया है। क्योंकि गुजरात को लेकर यह सवाल हमेशा से हाशिये पर रहा कि विकास दर के मद्देनजर गुजरात के भीतर का सच है क्या। क्योंकि उद्योग, सड़क और इन्फ्रास्ट्रक्चर का जो चेहरा गुजरात में घूमते हुये किसी को भी नजर आयेगा वह गुजरात के विकास की कहानी कहेगा इससे इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन गुजरात के किसान, मजदूर, शिक्षक, छोटे व्यापारी, सरकारी कर्मचारी से लेकर पुलिसकर्मियों तक के हालात को परखें तो एक सवाल समूचे गुजरात में रेगता मिलेगा कि जमीनी धंधे से जुड़े तबके और विकास की चकाचौंध से उपजे धंधो के मुनाफा में भारी अंतर आया। किसानी घाटे का धंधा हो गया और खेती की जमीन पर खडा हुआ रियल इस्टेट मुनाफे वाला धंधा हो गया। स्कूल खोलना मुनाफे वाला धंधा बन गया लेकिन शिक्षक होकर जीना मुस्किल हो गया। अस्पताल खोलना आसान और कमाने वाला धंधा बना, तो डाक्टर होकर जीना मुश्किल हो गया। फैक्ट्री लगाने के लिये राज्य हर इन्फ्रास्ट्रक्चर देने के लिये पूंजीपतियों के सामने उपलब्ध रहता है लेकिन फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी भी मिल रही है कि नहीं इस दिशा में कोई कदम उठाने को ही विकास की थ्योरी से अलग माना जाता है।
साणंद में नैनो की फैक्ट्री लगी तो हर किसी को वह डेढ़ हजार जमींदार नजर आये जिनके पास जमीने थी और मुआवजे के तौर पर 28 लाख रुपये एकड़ तक मिले। लेकिन 15 हजार भूमिहिन किसानों की तरफ किसी ने नहीं देखा जो नैनो की फैक्ट्री लगने के बाद दो जून की रोटी के लिये मोहताज हो गये। क्योंकि काम बचा ही नहीं। दरअसल गुजरात की चकाचौंध के बीच आरक्षण का सवाल क्यों उठा और कैसे पटेल समाज के परिवार के परिवार आंदोलन का हिस्सा बनते चले गये समझना यह भी होगा और कैसे पहली बार सबसे संपन्न पटेल समाज की युवा पीढी में भी शिक्षा और रोजगार को लेकर यह सवाल उठ रहा है कि अगर धंधे से इतर वह कुछ भी करना चाहते है तो उनके लिये बराबरी का रास्ता क्यों नहीं है । और आर्थिक तौर पर कम संपन्न पाटीदार परिवार के बच्चो के सामने संकट है कि आईआईटी और आईआईएम ही नहीं बल्कि गुजरात विघापीठ में नामांकन के लिये भी किसी भी औसत से बेहतर छात्र तक को संघर्ष करना पडता है अगर वह आरक्षण के दायरे में नही आता । और जिस पाटीदार समाज को गुजरात का सबसे संपन्न तबका बताया जा रहा है उसमें भी सारी आर्थिक ताकत 15 से 17 फिसदी पाटीदारों में सिमटी हुई है । लेकिन यह सब हो क्यो रहा है और गुजरात के भीतर विकास को लेकर कसमसाहट क्यो तेजी से पनप रही है । जरा पटेलों के ही इलाको से शुरु करे तो हालात समझे । सौराष्ट्र के क्षेत्र जामनगर, जूनागढ और राजकोट में बीते 10 बरस में किसानों ने सबसे ज्यादा खुदकुशी की। वजह सिचाई की पुख्ता व्यवस्था है नहीं । बीते दस बरस में सिर्फ छह नहरे बनी । जबकि उससे पहले औसतन हर बरस 6 नहरे जरुर बनती थी । बारिश पह ही साठ फिसदी फसल निर्भर है। कई 265 कुंए सिचाई के लिये खोदी गई। लेकिन सरकारी बिजली कनेन्कशन सिर्फ दो फिसदी के पास तो बाकियो के लिये फसल उपजाना भी मंहगा हो गया । क्योकि औसतन तीस फिट गहरे कुअें से डिजल पंप से पानी निकालने का सालाना खर्चा ही पांच हजार लग जाते है । दो बरस पहले 65 बरस के उकाभाई रणमल ने बढते कर्ज को ना चुका पाने की वजह से खुदकुशी की । खास बात यह है कि गुजरात में अभी भी किसानो की खुदकुशी के बाद मदद को लेकर कोई नीति नहीं है । क्योकि गुजरात सरकार मानती ही नहीं है कि उनके राज्य में किसान खुदकुशी करता है । गुजरात में छोटे किसान मजदूर का संकट यह भी है कि वहा विकास की चकाचौंध तले सूखाग्रस्त इलाको को सरकार देखती नहीं । तो एलान भी नहीं होता । विधवा पेंशन को लेकर नीति तो है लेकिन किसान खुदकुशी कर ले तो विधवा के सामने मुस्किल आ जाती है कि वह कहे क्या । क्योकि खुदकुशी कहने पर मदद मिलती नहीं । बैको के कर्ज चुकाने को लेकर कोई माफी का तरीका भी नहीं है । वैसे नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकडो के मुताबिक 2003 से 2012 तक 5874 किसानो के खुदकुशी की । लेकिन गुजरात सरकार इसे नहीं मानती । इस त्रासदी की दूसरी तस्वीर साणंद की है ।
जहां नैनो कार की फैक्ट्री आने से पहले 15 हजार आदिवासी-ग्रामिणों के परिवार खेती से जुड़े थे। फैक्ट्री लगी तो सभी दिहाड़ी मजदूर हो गये। कोई सड़क बनाने वाला मजदूर हो गया तो कोई गटर साफ करने वाला । तो कोई सामान डोने वाला बन गया तो कोई मलबा उठाने वाला। वैसे कुछ रईस भी हो गये । जिनके पास जमीने थी। उन्हें मुआवजा मिला तो उनके मकान बडे हो गये। गाडियां घर के बाहर खड़ी हो गई। वैसे मोदी के दौर में गुजरात का सच यह भी है कि उद्योगों के लिये हजारों एकड जमीन का अधिग्रहण किया गया। साणंद में तो अच्छा मुआवजा मिला लेकिन हर जगह ऐसा नहीं हुआ । फिर उघोग लगे तो स्कील लेबर शहरो से आ गये। यानी खेती छूटी तो मजदूरी के तौर तरीके कैसे बदल गये यह किसान-मजदूर परिवारों के इस दर्द से समझा जा सकता है कि किसानी सरोकार को जिन्दा रखे थी लेकिन चकाचौंध तले औघगिक विकास सरोकार को ही खत्म कर देती है। सौराष्ट्र के सवांल भाई के मुताबिक, “खेत पर काम करने के वक्त जमीन मालिक पूरा ध्यान देता है। यानी हम खेत पर आते रहे इसके लिये अनाज, पानी, लकड़ी से लेकर बच्चो की कपड़े भी मिल जाते। लेकिन किसानी छूटी और मजदूर हो गये तो खाने के लिए भी उधार लेकर दुकान से ख़रीदना पड़ता है. यानी काम नहीं मिला तो उधारी ही एकमात्र रास्ता और पूछने वाला कोई नहीं कि हमारा दर्द है क्या। फिर नये लगते उघोगो में अनुपढ के लिये कोई काम नहीं। दिहाड़ी मजदूरी करने वालों के बच्चों के लिये कोई सस्ती शिक्षा। सस्ते इलाज तक की व्यवस्था नहीं। अब पाटीदार आरक्षण के लिये संघर्ष कर रहे है तो सरोकार के नये रास्ते संघर्ष के लिये खुल रहे है । और झटके में लगने लगा है कि एक तरफ आनंदीबेन की सरकार तो दूसरी तरफ पाटीदार बहुसंख्यक तबका और उसके साथ काम-धंधे में जुडे लोग। फिर जिन पुलिस वालो को लेकर हार्दिक पटेल आक्रोश निकाल रहे है। उन पुलिस वालो का भी कोई जुडाव गुजरात माडल से नहीं है । और पहली बार उन्हें भी समझ आ रहा है कि आंदोलन की जमीन गुजरात में बीते 15 बरस में इसलिये नहीं पनपी क्योंकि गुजराती अस्मिता का सवाल मोदी के जरीये लगातार केन्द्र सरकार से टकरा रहा था । लेकिन इस दौर में पुलिस की हालात अच्छे रहे ऐसा भी नहीं है । मौजूदा वक्त में ”पुलिस में नई भर्ती वालों को 2400 रुपए मिलते हैं, उनका गुज़ारा कैसे होगा? यह भी एक सवाल है । और इसी के सामानांतर गुजरात में भ्र्श्ट्रचार किस रुप में पनपा है यह भी गौरतलब है । पांच से छह हजार की सरकारी नौकरी के लिये दस से बीस लाख रुपये की रिश्वत देनी पडती है । फिर ऐसा भी नहीं है कि आरक्षण पाये तबके की जिन्दगी में खासा सुधार हो गया है । अनुसूचित जाति , जनजाति और ओबीसी समाज में भी एक क्रिमी लेयर पैदा हो चुका है जो सारी सुविधा, सारा मुनाफा
समेटने में माहिर हो चुका है । और उसके संबंध सत्ता से खासे करीबी है । यानी आरक्षण पाये तबके के सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियो में कोई अंतर आया हो ऐसा भी नहीं है । बहुसंख्यक तबके के हालात अभी भी दो जून की रोटी के संघर्ष में ही बीत रहा है तो आक्रोष उनके भीतर भी है । ऐसे में गुजरात के
भीतर घुसे तो मानवीय जरुरतो के संकट साफ नजर आते है . फलाइओवर चकाचक है लेकिन गांव के भीतर पीने के पानी का संकट है । स्कूल की इमारत बेहतरीन है लेकिन 7वी-8वी की पढाई कर रहे बच्चे लिखा हुआ पढ नहीं सकते । शिक्षको को वेतन पांच से साढे पांच रुपये से जेयादा मिलता नहीं । तो गुजारा कैसे
परिवार का चलता होगा यह भी सवाल है । फिर गांव से शहर आने के लिये सरकारी बसो के बदले जमीदांरो के वाहन चलते है । यानी इन्फ्र्सट्रक्चर पूरी तरह पैसो वालो के लिये पैसे वालो के जरीये खडा किया गया । इसीलिये गुजरात में सार्वजनिक वितरण प्रणाली या पीडीएस सिस्टम छत्तिसगढ से भी ज्यादा कमजोर
है । यह ऐेसे सवाल हो जो मौजूदा वक्त में आरक्षण आंदोलन के वक्त सतह पर आ भी सकते है क्योकि अर्से बाद समाज के भीतर एक तरह बैचेनी भी देखी जा रही है ।
और बैचेनी की सबसे बडी वजह उस युवा पीढी के भीतर उपजते वह सवाल है जो गुजरात माडल को लेकर ही खड़े हैं क्योंकि पाटीदार समाज के छात्रों के बीच भी यह सवाल लगातार चर्चा में आ रहा है कि पिछले बीस साल में गुजरात में सड़कें, बिजली आपूर्ति बेहतर हुई हैं यह सभी मानते हैं. लेकिन विकास के पैमाने पर गरीबी, शिक्षा, पोषण, स्वास्थ्य के क्षेत्र में गुजरात बहुत आगे नहीं है. तमिलनाडु, केरल, हिमाचल के आंकड़े भी गुजरात से कमज़ोर नहीं हैं। शिक्षा और स्वास्थय के क्षेत्र में निवेश नहीं हुआ । और इसी दौर में शिक्षा पाने के लिये नामाकंन से लेकर नौकरी पाने के लिये उन्हे जिस तरह आरक्षम पाये तबको से टकराना पडता है या कहे उन्ही से प्रतिस्पर्धा करनी पडती है जो कम नंबर से पास हुये तो उसको लेकर अलग से गुस्सा है । वैसे पटेल समाज के युवा पहली बार दो सवाल बहुत ही बारिकी से उठा रहे है । पहला विकास का चेहरा दूसरा जातिय राजनीति का
मोह । गुजरात के विकास को लेकर एक तबके का मानना है कि समाज की तरक्की हुई नहीं लेकिन विकास का ढोल जिस तरह पिटा गया उससे लगता है कि गाडी को ही घोडे से आगे बाँध दिया गया । और मोदी जी के सीएम रहते हुये गुजरात में कभी उनकी जाति को लेकर ना कोई बहस हुई ना किसी ने जिक्र किया लेकिन प्रधानमंत्री बनते ही घासी जाति और ओबीसी समाज को भी प्रधानमंत्री मोदी ने जोड दिया गया । वैसे जाट आरक्षण के समर्थन में मोदी सरकार के सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा दोबारा खटखटाने को भी पटेल समाज याद रखे हुये है । और उसके भीतर यह सवाल भी है कि 1985 में जब बीजेपी ने क्षेत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम आरक्षण के विरोध में पटेल समाज का साथ दिया था तो फिर जातिय राजनीति अब क्यों बीजेपी को भाने लगा है । इन हालातो ने मोदी के दौर के उन नियमों को भी याद दिला दिया है जो पाटीदार समाज के खिलाफ गये। मसलन गुजरात में एक नियम के मुताबिक सात किलोमीटर के दायरे में रहने वाले किसानों को जमीन ख़रीदने का हक था, जिससे पाटीदार अधिक से अधिक भूमि के स्वामी बनते चले गए. लेकिन नियम बदले तो अधिकांश भूस्वामी बिल्डर बन गए। बिल्डरो में बडी तादाद ओबीसी समाज की है। इसलिये हार्दिक पटेल ने जब अबहमदाबाद रैली में यह कहा कि “जिस गुजरात मॉडल से भारत और दुनिया परिचित है, वह सच नहीं है. जैसे ही आप गुजरात के गांवों में पहुंचेंगे, आपको असलियत का पता चल जाएगा. किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं, लोगों के पास बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के पैसे नहीं हैं.” तो गुजरात ही नहीं बल्कि दिल्ली तक हर किसी को लगा यही कि जिस गुजरात माडल के कंधे पर सवार होकर नरेन्द्र मोदी दिल्ली पहुंचे उसी माडल को पहली बार उसी गुजरात से चुनौती मिल रही है जिसकी अस्मिता का सवाल उठा कर मोदी ने गुजरात में भी 15 बरस राज किया ।
Agar obc baba bhi diye to kitne ko fayeda hoga,ek obc doctor se elsj karwana ,ya 400/11 marks wale OBC teacher se apne bachho ko padwana
गुजरात में जो हुआ वो आठ दस साल पहले ही हो जाता मगर इन नौजवानो को संघ परिवार ने साम्प्रदायिकता में और हिन्दू राष्ट्र के निर्माण में लगा रखा था बहुत साल तक ये बेगारी भी करते रहे होंगे मगर अब जब संघी बहुमत की भी सरकार बन गयी और कसम खाने को भी कुछ नहीं बदला बदला तो निगेटिव ही बदला तो इन लोगो को होश आया होगा और ये भी हुआ ही होगा की मोदी राज़ में असामनता भी खूब बढी होगी इससे ही अचानक इतना बड़ा विस्फोट हुआ होगा