प्रस्तुति – सिकंदर हयात
हिंदी पत्रकारिता के दो महान पत्रकार प्रभाष जोशी और विष्णु नागर का लेख खबर की खबर में पाठको के लिए पेश किया जा रहा है जो के जनसत्ता-२००७ में प्रकाशित हुआ था , आज भी बाजार का माहौल देख कर ये लेख की महत्वपर्णता आज भी उतनी ही लगती है , इस लिए दुबारा आप सभी पाठको के लिए पेश किया जा रहा है .
गति की अगति
by- विष्णु नागर
ब्रिटेन के वैज्ञानिक दुनिया की सबसे तेज़ कार बनाने में लगे हे जो एक घंटे में सौलह सो किलोमीटर से भी तेज़ चलेगी ऐसा बताया जा रहा हे की ये चार बन्दुक की गोली से भी तेज़ चलेगी अगर ऐसा हो पाया तो यह निश्चय ही रोमांचक बात होगी बहुत पैसे वाले इस खबर को पढ़ कर शायद बहुत खुश हो रहे होंगे . उनमे से ज़्यादातर को तो अपनी अश्लील समृद्धि दिखाने का कोई भव्य मौका मिलना चाहिए . हमारे इस गरीब देश में भी कोई चार सौ पांच सौ अमीर तो कम से कम ऐसे निकल ही आएंगे . जो इस कार को खरीदने की क्षमता रखते हे और खरीदना भी चाहेंगे . अमीरो के लिए एक सपना सौलह सौ किलोमीटर की गति से दुनिया की बड़ी आबादी को ठेंगा दिखाते हुए चलना . बल्कि ठेंगा दिखाने का सुख ज़्यादा बड़ा हे उस सुख से जो इतनी तेज़ कार में चलने से मिलेगा या शायद नहीं मिलेगा .बहरहाल वे कह रहे हे की ऐसी कार दो साल में बनेगी भी बन गयी तो पांच दस साल में भारत में भी आ भी जायेगी . मनमोहन जैसे कोई प्रधान मंत्री रहे वे नीतिया रही तो इसके लिए सड़क पर अलग से लेन भी बन जायेगी . साइकिल वालो या पैदल वालो के लिए बरसो से सड़क पर जगह उन्हें ना दिख रही हो मगर इनके लिए जरूर मिल जायेगी अमीरी की इस दौड़ में आखिर हम पश्चमी देशो से पीछे तो नहीं रह सकते हे खेर जो भी हे भविष्य जल्दी सामने आ जाएगा हो सकता हे की यह आइडिया पिट जाए और कामयाबी कागज़ी बन कर रह जाए मगर एक बात स्पष्ट हे की इस समय समृद्धों को हर तरह की तेज़ गति की बहुत भूख हे जो जितना ज़्यादा ताकतवर हे वो उतनी ही जल्दी में हे और अधिक गति चाहता हे . आप हम जैसे जो शायद इतने गत्यातमक होने के लिए शायद बने नहीं हे या बनने की कोशिश में अपनी विफलता स्वीकार कर चुके हे , वे कहते हे की जल्दी का काम शैतान का . कितना ही कमा लो जब खानी दो रोटिया ही हे तो फिर इतनी भागदौड़ जल्दी क्यों ? लेकिन यह बात हम अम्बानी भाइयो या रतन टाटा को नहीं समझा सकते , जिनके साम्राज्य को सँभालने के लिए उनकी कोई संतान तक नहीं हे . खेर गति का खौफ उन पर ही नहीं हम पर भी इतना हे की तेज़ चलते चलते कभी ऐसी स्थिति आ जाए की मज़बूरी में धीमा चलना पड़ जाए तो हम लखलड़ा गिर जाते हे कुछ तो मर जाते हे
ऐसे लोगो ने धीमे चलने के आनद और सुख की कभी कल्पना भी नहीं की . जो सोच समझ कर धीमा चलते हे , वे ही शायद समय के सत्य को ज़्यादा अच्छी तरह से जान पाते हे , क्योकि उनके पास इसके लिए जरुरी समय और धैर्य होता हे और वह दर्ष्टि भी होती हे जो तेज़ चलने की विडम्बनाओं को अच्छी तरह समझ पाती हे . तेज़ चलने वालो को तेज़ चलने से फुर्सत कहां ? कई बार तेज़ी तेज़ी में ही वो कब इस दुनिया से चल पड़ते हे इसका उन्हें पता ही नहीं चलता जबकि वे दुनिया से कभी नहीं जाना चाहते थे इनमे से कुछ ऐसे भी होते , जो जब तेज़ क्या धीरे धीरे भी चल नहीं पाते , तब पड़े पड़े अपने विगत गौरव में जीते कम हे मरते ज़्यादा हे इसके विपरीत आप ऐसे लोगो से भी जीवन में कभी कभी मिलते हे जो चाहते तो तेज़ चल सकते थे पर चले नहीं . शायद उन्होंने किसी तरह यह शुरू से ही जान लिया था की इसके बिना ही जीवन सार्थक हे सार्थकता सफलता और नाम हो जाने में ही नहीं हे जिसके पीछे बहुत से लोग भागते रहते हे इसके आलावा भी जिंदगी में बहुत कुछ हे या हो सकता हे कोलकाता के अशोक सेक्सरिया शायद उन्ही में से एक हे वे अपने समय के एक महत्वपूर्ण कथाकार रहे हे समाजवादी आंदोलन से भी गहराई से जुड़े रहे हे उन्होंने पत्रकारिता की हे और एक सम्रद्ध परिवार से आते हे मगर जितना थोड़ा में उनको जानता हु वो अपने जीवन में कभी हड़बड़ी में नहीं रहे यहाँ तक की अपनी कहानियो को इकट्टा करके उन्हें छपवाने का काम भी उनके मित्र प्रयाग शुक्ल ने किया इन दिनों वे कुछ लिखते नहीं या लिखते भी होंगे तो उसे दिखाते नहीं . उसे प्रचारित करने का तो सवाल ही नहीं उठता हे अपने बड़े कमरे में अखबारों किताबो से घिरा वह बेचें इंसान अमूमन कोलकाता में भी कही आता जाता नहीं लेकिन कितनो को ही वाही रहकर उन्होंने आगे बढ़ाया जीवन जीने की ताकत दी और कभी इसका प्रचार नहीं किया . बेबी हालदार को भी आगे बढ़ने का श्रेय बहुत कुछ उन्हें हे और सुशीला राय जैसे गरीब पिछड़े परिवार की , अपनी ससुराल में भी उपेक्षित और निरक्षर स्त्री को लेखिका बनाने का श्रेय उन्हें हे अपने कमरे में पढ़ लिख कर आने जाने वालो से चर्चा करके वे जो सुख आनंद पाते हे बाटते हे उसका कोई हिसाब नहीं . क्या उन जेसो का जीवन कम सार्थक हे उनसे , जो लिखने पढ़ने की दुनिया में भी बलोचित उत्साह से कूदते फांदते , यह जाने बिना की इसकी आख़िरकार कोई सार्थकता नहीं ( कुछ वर्ष पूर्व जनसत्ता में प्रकाशित लेख साभार )
बाजार के दबावों के खिलाफ प्रभाष जी का एक सम्पादकीय”
इमरजेंसी में जब मुझे अंदर से ताकत की तलाश थी तो किताबे टटोलता रहता था एक बार गैलीलियो के जीवन पर एक नाटक पढ़ रहा था उसमे गज़ब की एक लाइन मिली ‘ वह सबसे दूर जाएगा जिसे मालूम नहीं की वह कहा जा रहा हे ‘ सच जिनने लक्ष्य निश्चित कर रखा हे वे तो वाही तक पहुचेंगे लेकिन जो अंनत को खंगाल रहे हे वे ऐसी जगह पहुंच सकते हे जिसका उनने और संसार ने कभी सोचा भी न होगा .अंनत . में इस तरह घूम हो जाना और अनगिनत सम्भावनाओ में जिन मुझे बहुत अपील किया . अपने सवभाव में बिलकुल फिट बैठता हे . लक्ष्य तय करने और दौड़ने वालो के लिए मेने एक वाक्य बना रखा हे .’ वे जो दौड़ रहे हे कभी पहुचेंगे नहीं ‘ . पहुचने के लिए सच मानिये की दौड़ने या तेज़ी से चलने की जरुरत नहीं हे कई लोग कही पहुचने के लिए दौड़ते भी नहीं वे दौड़ते हे ताकि दौड़ने का अहसास रहे और सेहत भी अच्छी रहे . और पहुचने के लिए लगातार चलने या दौड़ने की कोई जरुरत नहीं होती . होड़ में भागने दौड़ने के इस नवउदार ज़माने के बहुत पहले अपने यहाँ पुराणो में एक कथा लिखी गयी ———– . कही पहुचना और और बड़े पारकर्म से बड़ी उपलब्धि करना सिर्फ वस्तुगत मानदंडो से तय नहीं होता . इससे भी तय होता हे की आप खुद को क्या मानते हे और आपका मानना कितना सटीक और शक्तिशाली हे की आप दुसरो को बल्कि दुनिया को भी मनवा दे . आठो पहर अङ्ग रहे आसन कूड़े न उतरे स्याही मन पवना दोनों नहीं पहुंचे ऊनि दसरा माहीं . भाई संतो हमारे एक संत ने कबीर की टेक पर कहा हे . अब यह मत समझिए की में नवउदार ज़माने के होड़ और पराक्रम के दो पवित्र सिद्धांतो को नकुछ करने की कोशिश कर रहा हु . जिसको जो करना हे मज़े में करे अपन तो बचपन से अपनी मढ़ी में आप ही डोलूं में खेलु सहज स्वइच्छा – वाले कबीरी ढंग से चल रहे हे . होड़ में नहीं तो ईर्ष्या भी नहीं दुसरो को देख कर जीने की इच्छा नहीं तो जलने की जरुरत भी नहीं की अपन ने क्या खोया क्या पाया . लोग कहा से कहा पहुंच गए और अपन वही पड़े और सड़ रहे हे . पड़े रहना और सड़ना उतना भौतिक और शारीरिक नहीं हे जितना की मानसिक और अपने मानने का . सबसे बड़ी बात तो यही हे की आप अपने को पाते कहा हे और जहा पाते हे वहा अपने से सुखी और संतुष्ट हे या नहीं . जो दुसरो को देख कर और उन्ही के मानदंडो पर जीते हे उनके न अपने मानदंड होते न मूल्य . उनने अपना जीवन दुनिया की मेहरबानी को दे रखा हे और भगवान करे कोई किसी की मेहरबानी पर न जिए . जमाना दुनिया और भगवान भी किसी पर क्या मेहरबानी कर सकते हे हम वही हुए वही पहुंचे जो हम होना और जहा हम पहुचना चाहते हे इसे हमारे शिव कोई तय नहीं कर सकता .
इसलिए में कहता हु की भाई सफलता के पीछे मत दौड़ो सफलता दुनिया देती हे . सार्थक होने की कोशिश करो क्योकि सार्थक हो या नहीं इसे तुम खुद ही तय कर सकते हो . तुम्हारे लिए कोई नहीं कर सकता . क्योकि सच पूछिये तो बाहर कोई नहीं जानता की तुम वही हो सके की नहीं जो तुम होना चाहते थे सच्ची प्राप्ति या सच्चा सुख या जीने का प्रयोजन तो वही होना हे जो तुम होना चाहते हो वे कहते हे की ज़्यादातर लोग नहीं जानते की होना क्या होता हे जो जान लेते हे वे अपने होने और दुनिया के उन्हें बनाने के संघर्ष में पड़े रहते हे और ऐसे भी लोग हे जो कहते हे की होने और बनने का चक्कर ही बेकार हे अपने होने से होना और अपने बनने से बनना व्यक्तिवादी दार्शनिको का शगल हे हमें दरअसल दुनिया और जमाना बनता हे उनके भरोसे अपने को छोड़ो और तुम्हे जो भी अवसर मिल रहे हे उनका पूरा उपयोग करो ‘खांदा पिंदा रहंदा बाकी अहमद शाहे दा ‘ आजकल वे कह रहे हे की तुम वही होओगे और बनोगे जैसा बाजार तुम्हे बनाएगा . बाजार ने ऐसी ईश्वर जैसी ताकत कैसे पा ली ? कल तक तो धर्म था राज्य था विज्ञान था विचार था आज बाजार हे क्योकि जिनके पास पूंजी हे उन्हें बाजार चाहिए और जिनका बाजार हे वो इसे ईश्वर बना देना चाहते हे क्योकि इंसान आसानी से ईश्वर के सामने ही अपने हथियार डालता हे . बाजार वाले दरअसल खुद ईश्वर को नहीं मानते फिर भी वे ईश्वर का नाम लेते हे क्योकि उन्हें अपने बाजार के लिए ईश्वर का इस्तेमाल करंना हे उनके माने तो बनती तो पूंजी ही हे वही ब्रह्म हे और मुनाफा ही मोक्ष हे . लेकिन मेने तो पूंजी और बाजार का ज़माने आने से बहुत पहले ही कबीर के साथ गाया था माया महाठगनी हम जानी . बाजार तो पूंजी की धुप हे अपन ने पूंजी के महाठगनी रूप को जान लिया तो उसकी माया में यो ही नहीं तो नहीं पड़ जाएंगे . पड़ेंगे भी तो यह जानकर की यह ठगेगी और ठगे भी जाएंगे तो खुद होकर . कबीरा आप ठगाइये और न ठगिए कोय . आप ठगे सुख उपजे और ठगे दुःख होय तो ठगे जा रहे हे और खुश हे आप खुद होकर अपने को ठगे जाने के लिए छोड़ देते हे तो ऐसा कभी नहीं लगता की दुनिया हमें बना रही हे दरअसल हमें अपने आलावा कोई नहीं बना सकता बाजार क्या बना लेगा जो उससे डरे . अगर में बाजार से गुजरा हु खरीदार नहीं हु तो बाजार मेरा क्या बिगाड़ सकता हे भारत के ज़्यादातर लोग उस बाजार से बाहर हे जो लोगो को बनाने का दावा करता हे इन लोगो को बाजार में होने के लायक बनने में अभी सदियां नहीं तो दशक तो लगेंगे ही . तब तक आप देखेंगे की बाजार का जमाना गुजर गया जैसे लोगो तक पहुंचे बिना समाजवाद का जमाना निकल गया वैसे ही लोगो को अपने लायक बनाय बिना बाजार का जमाना भी गुजर जाएगा तब वे क्या करेंगे जिन्हे बाजार ने बनाया ? नीरज ने कहा – और हम लुटे लुटे , वक्त से पिटे पिटे , दाम गाँठ के गवां बाजार देखते रहे
जेल जीवन को शुक्रिया कहा था एक अरबपति ने जेल जाने से आम आदमी की भी रूह कांप उठती हे मगर रूस के एक अरबपति तेल व्यापारी ने कुछ साल पहले जेल जीवन भोगा और बाहर आकर जेल की सलाखों को नमन किया कारण की जेल ने ही उन्हें ”संपत्ति की कैद ” से मुक्त कराया मिखाइल खोदोकोवोर्स्की रूस की बड़ी तेल कंपनी युकोज़ के संस्थापक और मुख कार्यकारी अधिकारी रहे व्यवसयिक टकराव और राज़नीति के कारण उन्हें जेल जाना पड़ा था लेकिन तब जेल से बाहर आकर मिखाइल ने लिखा था की ” कारागार और कैदियो का भी अज़ब मामला हे उन्ही जाने अनजाने बंदियों की तर्ज़ पर में भी जेल को धन्यवाद देना चाहता हु गहन चिंतन मनन के लिए मुझे यहाँ महीनो का वक्त मिला और इसी समय में मेने जेल जीवन के विविध पहलुओ पर फिर फिर सोचा . में इस बात को पहले ही जान चूका था की संपत्ति खास तौर से अकूत सम्पत्ति अपने आप में व्यक्ति को सव्छ्न्दता की हद तक मुक्त नहीं कर सकती युकोज़ का सहस्वामी होने के नाते इस सम्पत्ति को बचाय रखने के लिए मुझे कई जतन करने पड़े . सम्पत्ति पर किसी तरह की आंच न आये इसके लिए मुझे खुद को कई बार दायरे में ही समेटना पड़ा . मेने बहुत सी बाते कहना बंद कर दिया . क्योकि लगतार और धड़ाधड़ बोलते जाने से मेरी सम्पत्ति को नुक्सान हो सकता था कई चीज़े देखते हुए भी मुझे अपनी आँखे बंद करनी पड़ी यह सब मेने अपनी सम्पत्ति को बचाय रखने और उसमे श्रीवर्द्धि के लिए किया मेने अपनी जायदाद पर नियंत्रण किया और उसने मुझ पर . —
लिहाज़ा में आज की पीढ़ी को चेताना चाहता हु क्योकि कल इसी के हाथ में शक्ति और सत्ता होगी -उनलोगो से नहीं जलना चाहिए जिनके पास अच्छी खासी सम्पत्ति हे .यह मत सोचो की उनका जीवन सहज और आरामदायक हे बेशक सम्पत्ति नै सम्भावनाय पैदा करती हे मगर यह इंसान की रचनातमक शक्ति को भी अपंग बना देती हे यह व्यक्तित्व में भी खामी पैदा कर देती यह एक कुरुर तानाशाही हे सम्पत्ति की तानाशाही .अब में बदल गया हु अब में एक सामान्य इंसान होता जा रहा हु जिसके लिए कुछ पाने या हासिल करने से ज़्यादा जरुरी हे सुकून से जिन अब संघर्ष सम्पत्ति के लिए नहीं हे अपने लिए हे निज के अधिकार के लिए हे इस संघर्ष में लोकप्रियता का ग्राफ अधिकारियो से सम्बन्ध और जनसंपर्क के टोटके महत्वपूर्ण नहीं हे जिसका महत्व हे वह हे स्वंय आप . महत्व हे आपकी भावनाव विचारो प्रतिभा इच्छा बुद्धि और आस्था का . और बेशक सिर्फ यही एक संभाव्य और सही चुनाव हे यानी आज़ादी का चुनाव .( हिंदुस्तान अखबार से साभार )
बीच में जब कांग्रेस सरकार थी तो जीवन के विभिन असली सवाल चर्चा में थे और लगातार इन्ही विषयो पर बहस और लेखन चल रहा था तरह तरह की वाम समाजवादी या आम आदमी टाइप ताकतों के मज़बूत होने के आसार बनते जा रहे थे इन्ही ताकतों के कुछ सपोर्ट से कांग्रेस को 2009 में अध्भुत सफलता भी मिली थी मगर जब से मोदी सरकार आई हे तब से केवल साम्प्रदायिकता दंगे आतंकवाद भारत पाक चीन बर्मा ओवेसी संघी बज़रंगी शाही इमाम साध्वी आज़म आदि आदि नॉनसेंस ही चर्चा में हे और दूसरे मुद्दे गायब होते जा रहे हे इससे पता चलता हे की आखिर क्यों बड़े बड़े पूंजीवादी पिशाच 2007 से ही मोदी जी को आगे बढ़ाने में अरबो रुपया बहा रहे थे मोदी जी के कारण ही असल मुद्दे नेपथ्य में चले गए यह इन पूंजीवड़ी पिशाचों की अपनी हित खातिर ज़बदस्त दूरदर्शिता की मिसाल हे
दोनों पढे,, बहुत देर बाद ही सही पर कुछ सार्थक, सामयिक और गंभीर पढकर तृप्ति मिलीो ।दोनो को पहले भी पढा था, दोनो को आगे भी पढना है।
मेरी भी कोशिश रहेगी की लाइब्रेरी से इनका और लेखन पाठको तक पहुचाओ नागर जी से में कुछ साल पहले कादम्बनी में अपना एक व्यंगय लेकर मिला था वो तो खेर उन्होंने नहीं छापा था मगर मेरा सारा लेखन बड़े ध्यान से देखा था उस समय तो में नया नया रंगरूट था इतनी समझ नहीं थी जैसा की होता ही हे व्यंगय रिजेक्ट होने का बुरा भी लगा जो खेर बाद में वरिष्ठ साहित्यकार—— शर्मा जी ने अपने अखबार में छापा लेकिन बाद में जब अनुभव हुआ तो मुझे समझ आया की में कितना चाइल्डिश था जो भी हो नागर जी जैसे बड़े लेखक ने सारे लेख और व्यंगय ध्यान से देखे यहाँ छपा ”महावीर त्यागी के बेहतरीन संस्मरण ” तुम्हे के बारे में पूछा की ये किताब कहा मिली थी ? आदि अब पता चला की ये भी बहुत बड़ी बात हे वार्ना हिंदी में तो कोई बड़ा तो क्या छोटे भी किसी को किसी के लेखन को घास नहीं डालता हे
कार ही क्यों जरुरी किताब क्यों नहीं फिदेल कास्त्रो उपभोग की वस्तुओ में कार को ही क्यों जरुरी समझा जाए किताब को क्यों नहीं ? आज की दुनिया में किताब पढ़ने वालो की संख्या दिन पर दिन घटती जा रही हे आखिरी लोगो को पढ़ने के सुख से या संस्कर्ति और मनोरंजन के क्षेत्रो से प्राप्त होने वाले संतोष से क्यों वंचित किया जाना चाहिए ? क्या मनुष्य के लिए भौतिक सम्पदा ही जरुरी हे आत्मिक समृद्धि नहीं ? तर्क दिया जाता हे की आज के मनुष्य के पास आत्मिक समृद्धि के लिए समय कहाँ लेकिन में कहता हु की स्त्री पुरुष के लिए आठ घंटे ही काम करना क्यों जरुरी हे अगर हमारे पास ऐसी तकनीक हे जो हमारी उत्पादकता बढ़ा सकती हे तो लोग आठ घंटे की बजाय चार घंटे ही काम क्यों ना करे ? इस तरह से बेरोजगारी भी दूर होगी और लोगो के पास फुर्सत भी ज़्यादा होगी जब मनुष्य ने अपनी बुद्धि से मानवता की खुशहाली के लिए नै तकनीक और तरीके विकसित कर लिए हे तो लोग रात दिन पैसा कमाने के फेर में ही क्यों पड़े रहे ? भूख , बीमार , बीमार , बेरोजगार क्यों रहे ? ज्ञान विज्ञान , संस्कर्ति और दूसरी मानवीय चीज़ो से वंचित क्यों रहे ? वे कुछ विशेषाधिकार प्राप्त और शक्तिशाली अभिजनों के वय्वसायिक लाभ या मुनाफे के लिए उन पागल बना देने वाले आर्थिक नियमो के अनुसार क्यों जियें जो कभी शाश्वत या अपरिवर्तनीय नहीं थे जो बदलते रहे और जिनका बदलना निश्चित हे
Vishnu Nagar इस समय एक दिलचस्प खोजी स्टोरी यह हो सकती है-जो कोई करेगा नहीं-कि फेंकूजी दिन के सोलह या अट्ठारह या २४ में से पच्चीस घंटे जो तथाकथित काम यानी ‘देश की सेवा ‘बिना छुट्टी लिए अविराम करते रहते हैं,उसमें कितने घंटे कपड़े पसंद करने में ,कितने घंटे दर्ज़ी के साथ विचारविमर्श करने में,कितने घंटे उनकी फ़िटनेस का जायज़ा लेने में, कितने घंटे दिन में कम से कम चार बार कपड़े बदलने में ख़र्च करते हैं? फिर उसका पैसा अपनी जेब से देते हैं या किसी दूसरे की जेब से जाता है या कपड़ा बेचनेवाला , बनानेवाला मुफ्त बेचकर -बनाकर अपने को धन्य महसूस करता है? और अगर ऐसा है तो ये मुफ्त का माल क्यों लेते हैं? यह भ्रष्टाचार है या ईमानदारी है?और अगर यह पैसा उनकी जेब से ही जाता है तो क्या उन्हें मिलनेवाली तनख़्वाह इतनी है कि कपड़ों पर इतना ख़र्च कर सकें?फिर क्या सबकुछ कपड़े पर ही ख़र्च करते हैं या निजी खाने पर भी?और हाँ इनके द्वारा रोज जो कपड़े पुराने घोषित कर दिये जाते हैं, वे कहाँ जाते हैं?और इस मामले में शिवराज पाटिल बेहतर थे या ये बेहतर हैं? और क्यों पाटील साहब के पीछे मीडिया पड़ गया था और इन्हें बख़्शा जा रहा है? इस भाईचारे का राज क्या है, कहाँ है? अंगरेजी के कुछ विचारशील भारतीय लेखकों में अमिताभ घोष का नाम आता है।अफ़ीम व्यापार पर उनके अनुसंधान ।टाइम्स ऑफ़ इंडिया में आज प्रकाशित एक साक्षात्कार में उन्होंने मेरी दृष्टि से कुछ सार्थक बातें कही हैं।वे कहते हैं कि पूँजीवाद का पूरा इतिहास कपोलकल्पनाओं पर आधारित है। बतलाया यह जा रहा है कि फ़लाँ -फलॉं ने बड़ा उद्यम करके इतना बड़ा आर्थिक साम्राज्य खड़ा किया है,यह कोरी बकवास है।बंबई के कई पूँजीपतियों ने उन्नीसवीं सदी में अफ़ीम का व्यापार करके पूँजी पैदा की,जिसमें सर जमशेदजी जीजीभाय भी थे।इसके अलावा भी कई पूँजीपति थे।।सिंगापुर और हांकांग की सारी -।इसी ने एक तरह से आज केउपभोक्तासमाज की नींव रखी है।सब जानते हैं कि धीरूभाई अंबानीनेकैसे जोड़तोड़सेसंपत्ति बनाई थी।घोष के मुताबिक़ वह राजनीतिक ख़बरें पढ़करसमझ गए थेकि धन कमाने का सबसे आसान तरीक़ा यह है कि इस बात को समझा जाए कि सरकार का कामकाज चलता कैसे है।पूँजी मुक्त उद्यमिता से पैदाहोतीहै,यह दिवास्वप्न है,
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5 hrs ·
लेखको अपना भविष्य बांग्लादेश के आईने में भी देखते रहो क्योंकि पाकिस्तान के अलावा वही एक आईना है जिसमें भारतीय लेखक का वर्तमान के साथ उसका भविष्य भी बेहतर ढँग से दीखता है।बांग्लादेश का सबसे बड़ा पुस्तक मेला शुरू हुआ है जिसमें लेखकों -प्रकाशकों को चेतावनी दी गई है कि वे कोई ऐसी पुस्तक प्रदर्शित न करें जिससे लोगों की भावनाएँ आहत होती हों।यह चेतावनी वहाँ की पुलिस ने दी है और पुलिस इस पर ख़ुफ़िया ढँग से निगाह रखेगी और गड़बड़ पाई गई तो लेखक -प्रकाशक दोनों के विरुद्ध कार्रवाई हो सकती है यानी जेल हो सकती है और वहाँ के कट्टरपंथियों के आगे पड़ गये तो जो वहाँ पहले होता रहा है, वह होगा! अपने यहाँ तो धर्म ही नहीं जाति का भी चक्कर है।तो बारी लेखको दूसरों की तो आ चुकी है, यहाँ तुम्हारी भी आ सकती है बल्कि आनेवाली है।वैसे वहाँ धर्मनिरपेक्ष सरोकार है,तब ये हाल है और हमारे यहाँ तो …….Vishnu Nagar
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7 hrs ·
संभ्रांतों को अपनी आक्रामकता नहीं दिखती
समाज के संपन्तर वर्गों का एक बड़ा हिस्सा अपने से कमजोर लोगों के साथ रोज कितनी तरह से,कितने रूपों में हिंसा करता रहता है, उसका व्यवहार क्यों सामान्यतः इनके प्रति लगभग हिंसक ही बना रहता है,जिसे बस एक छोटी सी चिंगारी चाहिए,भले ही वह बुझती हुई हो कि वह भड़क ऱठता है।इस पहलू पर शायद ही यह वर्ग कभी सोचना जरूरी समझता है। इन वर्ग की लगभग दैनिक हिंसा झेलनेवाला गरीब वर्ग इनके इस आक्रामक-हिंसक व्यवहार का इतना अभ्यस्त हो चुका है कि उसे अपनी पर हो रही यह हिंसा भी एक हद तक स्वाभाविक सी लगने लगती है क्योंकि उसे झेलना पेट भरने की अनिवार्यता सी है। वह ऐसी हिंसा की भरसक उपेक्षा करने नकी कोशिश करता है लेकिन किसी भूले-भटके क्षण में स्थितियाँ जब हद से असहनीय लगने लगती हैं,,प्रतिकार करना तत्काल जरूरी लगता है और गरीब- कमजोर वर्ग अपने पर हो रही हिंसा का जवाब देने की कोशिश करता है तो श्रेष्ठी वर्ग उसे कभी माफ नहीं करता। और अगर कमजोर की इस हिंसा का स्वरूप थोड़ा सा सामूहिक हो तो फिर वह मीडिया की मदद से ऐसा तूफान खड़ा कर देता है कि पूछो मत। वैसे इसके अनगिनत उदाहरण हमें अपने आसपास मिलते हैं मगर फिलहाल हम सबसे ताजा एक उदाहरण दिल्ली से जुड़े नोएडा का लेते हैं। वहाँ एक नौकरानी पर एक मालकिन द्वारा की गई हिंसा और एक रात तक उस कामगार का पता न चलने के कारण ऐसे हालात पैदा हो गए कि उसका जवाब गरीब वर्ग ने भी आक्रामकता से ही देने की कोशिश की,वह तोड़फोड़ तक सीमित थी।
जिन्होंने उन दो दिनों का अखबार न पढ़ा हो या जो दिल्ली- नोएडा से बाहर देश के अन्य क्षेत्रों में रहते हैं, उनकी जानकारी के लिए इस घटना के विवरण देना जरूरी है।
मंगलवार यानी 11 जुलाई से घटना शुरू होती है। नोएडा के सेक्टर- 78 में स्थित अत्याधुनिक महागुन मॉडर्ने अपार्टमेंट के बारह नंबर फ्लैट में तीन जनों का एक सेठी परिवार रहता है।पति मितुल(35) मर्चेंट नेवी में कमांडर बताया जाता है, पत्नी हर्षु(32) एक प्ले स्कूल चलाती है और उनका सात साल का बेटा है आर्यन। मर्चेंट नेवी में होने के कारण शायद मितुल तो काफी समय बाहर ही रहते होंगे। सुबह आठ बजे इस दिन दो कामवलियां लगभग एकसाथ उस घर में काम करने आती हैं।
इनमें से एक खाना बनाती है- ममता बीबी और दूसरी जोहरा बीबी है जो झाड़ू- पोंछा लगाती है। घर की मालकिन हर्षु उनके कुछ देर से आने पर चीखती-चिल्लाती है,कुछ उल्टासीधा भी कहती है। इस बीच वह दोनों पिछले दो महीनों से नहीं मिली अपनी तनख्वाह मांगती हैं(12-12 हजार रुपये) तो उनसे कहा जाता है कि मुझे पहले ही तुम्हारी वजह से देरी हो चुकी है, तुम लोग शाम को पाँच बजे आना और पैसे ले जाना। जोहरा के मुताबिक मालकिन उससे उसी समय यह भी कह देती है कि शाम को पैसे ले जाने के बाद दुबारा अपना मुँह मत दिखाना। संयोग से उस दिन शाम को काफी बारिश हो जाती है तो ममता नहीं आ पाती। जोहरा बाकी पाँच घरों का काम निपटाने के बाद तय समय पर फ्लैट नंबर 12 पर पहुँच जाती है। मालकिन उससे थोड़ा- बहुत कुछ काम करने को कहती है, वह कर देती है । इसी बीच सच्चाई जो भी हो, वह जोहरा पर पर्स से रुपए चुराने का आरोप लगा देती है। जोहरा के मुताबिक वह इसके लिए मारपीट करती है। एक अखबार के अनुसार मालकिन हर्षु आरोप लगाती है कि उसके पर्स के दस हजार चुराए जोहरा ने चुराये हैं और दूसरे अखबार के अनुसार मालकिन सत्रह हजार रुपये चुराने का आरोप लगाती है और जोहरा इसमें से दस हजार रुपये चुराने क बात मंजूर कर लेती है। शायद जोहरा पहले चोरी के आरोप से इंकार करती है लेकिन जब बाद में हर्षुल कहती है कि उसकी चोरी सीसीटीवी कैमरे में दर्ज है तो वह स्वीकार कर लेती है कि हाँ उसने ही दस हजार चुराए हैं। इस पर हर्षु कहती है कि वह इसकी शिकायत सोसाइटी के पदाधिकारियों से करेगी। जोहरा मालकिन से कहती है कि आप मेरी शिकायत मत कीजिएगा वरना बाकी घरों का काम भी छूट जाएगा। आप मेरी तनख्वाह में से दस हजार रुपये काट लीजिए। एक अखबार के अनुसार हर्षु उसकी यह बात मान जाती है। दूसरे अख़बार के अनुसार हर्षु कहती है कि मैं शिकायत जरूर करूंगी क्योंकि तुमने मेरा विश्वास तोड़ा है। वह दुप्पटा लेने अंदर जाती है। जोहरा से वह वहीं रुकने को कहती है लेकिन वह पकड़े जाने के डर से घबराहट में मोबाउल वहीं छोड़कर भाग जाती है। उधऱ जोहरा के अनुसार वह छोड़ कर नहीं आती बल्कि उसका मोबाइल छीन लिया जाता है।
जब शाम हो जाने के बाद भी जोहरा वापिस नहीं पहुंचती तो उसका पति अब्दुल सत्तार घबराता है। महागुन अपनी बीवी को ढूँढने रात करीब आठ बजे पहुँचता है। चौकीदार कामकाजी लोगों के लिए अलग बनाये रजिस्टर को देखकर बताता है कि जोहरा के आने का समय तो यहाँ दर्ज है लेकिन जाने का नहीं। दो चौकीदार उसके साथ बारह नंबर फ्लैट पर जाते हैं। वहाँ हर्षु कहती है कि दस हजार रुपये की चोरी करके वह भाग गई। उसके बाद क्या हुआ, उसे नहीं मालूम।
पति घबराकर पुलिस को सौ नंबर पर फोन करता है। दो घंटे बाद पुलिस आती है। फिर अब्दुल सत्तार के साथ उसी 12 नंबर के फ्लैट में जाती है. नतीजा कुछ नहीं निकलता। सत्तार वापिस हताश होकर अपनी झुग्गी- झोपड़ी में लौटता है, वहाँ के मर्दों से विचार-विमर्श करता है। उसे सलाह मिलती है कि सुबह-सुबह हम सब महागुन पर हल्ला मचायें तो शायद कोई नतीजा निकले। एक अखबार के अनुसार कई लोग सुबह चार बजे ही पहुँच जाते हैं और बाकी बाद में आते हैं।एक अखबार के मुताबिक छह बजे तक इनकी संख्या डेढ़ सौ तक पहुँच जाती है,दूसरे के अनुसार तीन सौ तक। करीब छह बजे जोहरा बीबी को चौकीदारो के साथ महिला पुलिस जेसतैसे उठाकर भारी सामान की तरह बाहर लाती है।
जोहरा के पति के अनुसार उसके रपड़े फटे होते हैं, वह ठीक से बोल भी नहीं पाती। फिर भी वह बताती है कि उस पर चोरी का आरोप लगाकर हर्षु ने उसे मारा- पीटा,उसाका मोबाइल छिन लिया। इस पर भीड़ उत्तेजित हो जाती है। महागुन के दरवाजे पर कुछ तोड़फोड होती है और पुलिस तथा चौकीदारों के बावजूद वे हर्षुल के फ्लैट पर पहुँच जाते हैं। आरोप है कि वहाँ वे फ्लैट का शीश वगैरह तोड़कर अंदर घुस जाते हैं।हर्षु और उसका बेटा डरकर बाथरूम में घुस जाते हैं।
घटना के बाद दोनों तरफ से प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज होती है। महागुन की तरफ से अलग-अलग तीन और जोहरा की तरफ से कुल एक। उसी दिन महागुन सोसायटी के सदस्यों की एक बैठक में कुछ फौरी निर्णय लिये जाते है कि रविवार को होनेवाली बड़ी बैठक तक सभी भरे हुए 2000 फ्लैट में किसी कामवाले-कामवाली को अंदर नहीं आने दिया जाएगा,जिनकी संख्या करीब पाँच सौ है।अत्यंत जरूरी हो तो पदाधिकारी की अनुमति लेना होगा। अब रविवार की बैठक में सर्वसम्मति से ईगे कदम आगे कदम उठाने पर विचार होगा।
इस बीच एक उपसमिति सुझाव देती है कि काम करने वालों से पहले कुछ जमानत राशि वसूल की जाए। एक सुझाव यह भी आता है कि इन सबका पुलिस वेरिफिकेशन करवाकर ही फिर आने दिया जाए। उधर पुलिस भी महागुन के सदस्यों द्वारा कामकाज करनेवालों को बंगलादेशी बताये जाने पर इनकी नागरिकता की जाँच शुरू करने की बात करती है जबकि पुलिस का एक अधिकारी कम से कम जोहरा को भारतीय नागरिक पहल ही बता चुका है। एक अखबार के अनुसार महागुन से करीब एक किलोमीटर दूर रहनेवाले ये लोग पश्चिम बंगाल के कूचबिहार जिले के रहनेवाले हैं,जिनमे सें कई एक-डेढ़ दशक पहले यहाँ आकर बस गये थे।जितना कूचबिहार उनका है, उतना ही वे नोएडा को भी अपना मानते हैं। वहाँ की महिलाएँ नोएडा सेक्टर के एक थाने पर प्रदर्शन करके अपना भारतीय चुनाव कार्ड और आधार कार्ड सबको दिखाती हैं।
ये तथाकथित बांग्ला देशी जहाँ रहते हैं,उसका वर्णन यही है कि ये छोटी सी झुग्गियों में रहते हैं,जिसके ऊपर टीन की छत है,जिसमें गर्मियों में रहना कैसा होता होगा,इसकी कल्पना भी बाकी लोग अपनी सारी संवेदनशीलता के बावजूद नहीं कर सकते। घरों में शौचालय नहीं हैं। रास्ते, रास्ते जैसे नहीं हैं। चारों तरफ कीचड़कादो है। उसी के बीचअमानवीयता को सहते हुए न जाने किस उम्मीद में 500 रुपये महीने किराया देकर ये रहते हैं।यहाँ रहने का एक ही फायदा उन्हें अभी तक रहा है कि यह जगह काम की जगह से करीब एक ही किलोमीटर दूर है यानी पास है।
महागुन की रविवार की बैठक में उन सब कामवालों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है,जो उस दिन विरोध में शामिल हुए थे लेकिन सेठी परिवार को किसी तरह का दोषी नहीं माना गया। न उस परिवार के दावों की जांच करने का संकेत हैं, न प्रतिदावों का। यह भी फिलहाल जांच का विषय शायद नहीं माना जा रहा कि क्या सेठी- परिवार ने वाकई दोनों कामवीलियों को पिछले दो महीनों से वेतन नहीं दिया था ? जिस घर का पुरुष मर्चेंट नेवी में कैप्टन हो और पत्नी प्ले सूकूल चलाती हो, क्या उसके वासी इतनी बुरी हालत में हो सकते हैं कि अपने काम करने वालो को दो- दो महीने तक तनख्वाह देने के काबिल भी न हों? क्या उनके लिए हर महीन इनके लिए बारह हजार रुपये जुटाना मुश्किल था? तब क्यों समय पर उन्हें उनकी मजदूरी नहीं दी गई? यह जांच करने की उत्सुकता भी शायद नहीं है कि जब जोहरा अपनी मजदूरी लेने पहुँचती है, तब उस पर जो चोरी का आरोप मढ़ा जाता है, वह उसका मेहनताना न देने का एक बहाना था या वास्तव मे चोरी हुई थी? जो भी आरोप जोहरा पर थे, क्या उनके बारे में पदाधिकारियों को सूचित किया गया था और किया गया था तो हर्षु ने जोहरा को मारने-पीटने की जरूरत-अगर समझी-तो क्यों?क्या उसे पदाधिकारियों के हवाले करके इसका इंतजार नहीं किया जा सकता था कि वे क्या-कैसे इस मामले से निबटते हैं? क्या सचमुच ही जोहरा को मारापीटा गया था और क्या सचमुच ही सेठी परिवार के घर के अंदर सीसीटीवी कैमरा लगा है,जिसके आधार पर जोहरा पर आरोप लगाया गया? तो क्या उसमें यह मारपीट भी दर्ज है ? और सारी समस्या की जड़ में हर्षु है या घर की साफ सफाई करने वाली जोहरा? ये साधारण सवाल जरूर उन बुद्धिमान महागुनवासियों में से कम से कम कुछ के दिमागों में जरूर आए होंगे लेकिन फिलहाल शायद यह सोचकर इनकी अनदेखी की जा रही होगी कि उनका कर्तव्य अपनी एक सदस्य के प्रति है, न कि संपूर्ण न्याय करना उनका उद्देश्य है। उनका उद्देश्य कामकाजी लोगो को उनकी ‘असली’ जगह दिखाना है, न कि अपनी सदस्य हर्षु को घेरने की कोशिश करना। ऐसा करने से कामगारों का ‘हौसला’ बढ़ेगा और ‘हौसला‘ हमारा बुलंद रहना चाहिए, उनका नहीं। उन्हें मजदूर वर्ग की सामूहिक हिंसा तो हिंसा नजर आएगी मगर अपनी यह हिंसा नहीं।कह गया है नवैदिक हिंसा, हिसा न भवति।यह हिंसा वैदिक हिंसा है,जिसके कई कोण सीधे और टेढ़े ढँग से हिंदू सांप्रदायिकता से भी जुड़ते हैं।
इधर महागुन की कामवालियों के काम करने पर रोक लग गई है, उधर बुधवार को आधी रात को नोएडा पुलिस झुग्गीझोपड़ी पहुंच जाती है। वह जोहरा के अवयस्क बेटे समेत 58 लोगों को पूछताछ के लिए थाने ले जाती है और उनमे से 13 को गिरफ्तार कर लेती है.जो सभ दिहाड़ी मजदूर हैं।जोहरा का बेटा संयोग से इसमें शामिल नहीं है। अगली सुबह उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाता है, जो इन्हें न्यायिक हिरासत में भेज देते है।
इधर कामवालियों का काम बंद होता है. उधर उनमें से तेरह मजदूर जेल में बंद होने के कारण काम पर नहीं जा सकते। भयानक यातना का समय है। मामला अदालत में गया है तो लंबा खिंचेगा। इधर झुग्गी-झोपड़ी बस्ती की औरतें- जिनकी आमदनी के सभी जरिए खत्म हो चुके हैं- उनके पास इतना पैसा नहीं है कि अपने पक्ष में वे कोई वकील खड़ा कर सकें। इधर उनके खिलाफ यह जाँच भी शुरू है कि इनमें कौन बांग्लादेशी है।
यह फैसला आप स्वयं कर सकते हैं कि इस हालत में क्या हो सकता है।एक तरफ भूख-गरीबी-बीमारी-मौत और पलायन है,दूसरी तरफ ताकतवरों की फौज है उनके महंगे वकीलों समेत। जिस समाज में आर्थिक और सामाजिक असंतुलन बहुत गहरा हो तो पुलिस और कानून भी अंततः ताकतवरों की ओर झुक जाता है। शायद मीडिया की दिलचस्पी भी रविवार की बैठक के बाद खत्म हो जाएगी, जब सोसाइटी के सदस्य कोई एकमत फैसला लेंगे। उस दिन की रिपोर्टिंग शायद एकतरफा हो.जिसकी कुछ-कुछ छाया तो अभी से पड़ने लगी है।
इस शोरशराबे के बीच यह भुला दिया जाएगा कि किस तरह नये बन रहे बड़े-बड़े फ्लैट समूहों में काम करने वाली तमाम औरतों ने अपने साथ अमानवीय व्यवहार की शिकायत की है। किस तरह माला नामक एक कामगार ने कहा है कि वह एक घर में दिनभर बुजुर्गों और बच्चों की देखभाल करती है लेकिन उसके काम की तारीफ करना तो दूर, जरा-जरा सी बात नाराज होकर उससे कुछ भी अंटशंट बक दिया जाता है। जोहरा के पति ने भी कहा था कि किस तरह उसकी बीवी के साथ सेठी- परिवार में पहले से खराब व्यवहार होता रहा है। इसके अलावा यह बात भी आसानी से भुला दी जाएगी कि आजकल ऐसे जितने भी हाउसिंग कांप्लेक्स खड़े हो रहे हैं, वहाँ कामकाज करने आने वाले लोगों के आने- जाने के दरवाजे अलग होते हैं, लिफ्ट भी अलग होती है उनका बाथरूम, उनका गिलास, उनकी प्लेट सब अलग होती है। किस-किस तरह से उन्हें गरीब कामगार होने के कारण असंख्य तरीकों से अपमानित किया जाता है और रोज-रोज अपमान का घूंट पीकर वे काम करने आ जाते हैं क्योंकि जाएँ भी कहाँ?
ये और भी बहुत से अन्य सवाल हैं जो कभी हमारे समाज के तथाकथित भद्रवर्ग को नहीं कचोटते। कोई इस चुभन को महसूस करता भी है तो सामूहिक निर्णय की आक्रामक आवाज उसे दबा देती है। जरूर महागुन में भी ऐसे लोग होंगे लेकिन शायद आक्रामक बहुमत के आगे अपनी आवाज बुलंद करने का हौसला वे भी न कर सकें क्योंकि उन्हें इसी समाज के बीच और शायद ऐसे ही फ्लैटों,इन्हीं फ्लैटों में अपनी पूरी जिंदगी गुजारनी है। जहाँ तक काम करनेवाले लोगों का सवाल है, वे तो आते- जाते रहते हैं।उनकी चिंता क्या और क्यों?Vishnu Nagar
(द वायर में प्रकाशित)
Dilip C Mandal
1 hr ·
देश का मीडिया तो जातिवादी और बिकाऊ है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय मीडिया के विदेशी पत्रकारों में इंसानियत है।
जर्मनी और सारी दुनिया के लोग जानेंगे कि भारत कैसे सफाईकर्मियों की सीवर में हत्या करता है।
प्रोफ़ेसर डॉ. Kaushal Panwar का स्टेटस-
“मुझे वाल्मीकि होने पर गर्व है कि मैं इस समाज में पैदा हुई और अपने समाज के लिए मैं कुछ कर पाऊँगी, ये मेरे चाचा को मेरी भेंट होगी। बाबा साहेब का थोड़ा क़र्ज़ चुका पाऊँगी। आज जर्मन टेलिविज़न DW international Broadcaster की टेलिविज़न पत्रकार katja Keppner interview लेते हुए, इसका विडियो जल्द ही आपके सामने होगा। मैंने अपनी बात दिन रात क़त्ल किए जा रहे सफ़ाई कर्मियों पर विस्तार से रखी है, मेरे अनुसार ये हिंसा है जिसका समर्थन एक चुप्पी के साथ, समझौते के साथ किया जा रहा है, पर हम चुप नहीं रह सकते। रखिए अपनी बात दुनियाँ के—– सामने। आख़िर कब तक आप अपनी गंदगी साफ़ करवाने के नाम पर वाल्मीकि,भंगी जातियों के युवाओं को लीलते रहेंगे।”——————Sheetal P Singh
3 hrs ·
सूचना और प्रसारण मंत्रालय को २४ घंटे भी कार्यवाहक मंत्री के भरोसे नहीं छोड़ा मोदी जी ने
जबकि रक्षा मंत्रालय चार महीने से ख़ाली है !
प्रायोरिटी समझ आई भगतों ?
टीवी पर क़ब्ज़ा मेन्टेन रखना सीमा की मेन्टेनेन्स से बहुत ज्यादा ज़रूरी है गदहों Sheetal P Singh!——————————-Nitin Thakur
1 hr ·
इरफान पठान ने अपनी बीवी के साथ फोटो डाला और मिर्च कठमुल्लों को लग गई। एक वेबसाइट ने कठमुल्लों के उन कमेंट्स को इकट्ठा किया है जो उन्होंने इरफान को नसीहत देते हुए फेंके हैं। पढ़िए और हंसिए..
मो. जहांगीर : आलम मेरे बड़ा भाई (इरफान पठान), आप बहुत ही समझदार और अक्लमंद भी हैं. आपको अपनी पत्नी का फोटो सोशल मीडिया पर नहीं डालनी चाहिए थी. आप से यह उम्मीद किसी को नहीं थी और नाखून में नेल पॉलिश इसलाम में हराम है.
अब्दुल कुरैशी: माशा अल्लाह, ऐसी बात नहीं है कि इस्लाम आप पर लागू होता है लेकिन आपकी छवि एक सच्चे मुसलमान की है इसलिए प्लीज भाभी को परदे में रखो.
वहीदा पठान : माशा अल्हाह इरफान. हेंडसम लवली…नेल पॉलिश शौहर के लिए तैयार हो सकती है बीवी. बस आप गर्ल्स या बीवी की फोटो अपलोड न करें. आपकी फैमिली की मिसाल तो घर-घर में दी जाती है.
शेख जाहेद जाहेद : मतलब ही क्या हुआ हिजाब का..जब आप एक उंगली हटा के सब देख रहे..क्या मैं सही हूं इरफान भाई.
काशिफ रजा खान : चेहरा छुपाना फर्ज नहीं है लेकिन बांहों को छुपाना फर्ज है.. वह अपना चेहरा छुपा रही हैं यह अच्छा है. लेकिन उन्हें अपनी बांहों को छुपाने को भी कहें.Nitin Thakur
हमारी और आपकी, अधूरे मकसद वाली जिंदगी!
November 2, 2017, 3:04 PM IST प्रणव प्रियदर्शी in अंधेर नगरी | सोसाइटी, व्यंग्य, कल्चर
जब आप किसी मकसद के लिए जिंदगी कुर्बान करते हैं तो क्या होता है? अगर वह मकसद हासिल हो गया तो आपको 100 जिंदगियां सफल होने जितना संतोष मिलता है। लेकिन मकसद नहीं हासिल हुआ तो? क्या तब आप अधूरे मकसद का संताप लिए मरते हैं?
फाइल फोटोभगत सिंह जैसों से मिलने का सौभाग्य तो नहीं मिला, लेकिन एक ऐसे शख्स से मुलाकात जरूर हुई है, जो अपनी जिंदगी का बड़ा हिस्सा वाम आंदोलन को दे चुके थे और मुलाकात के वक्त उम्र के आखिरी हिस्से में थे। तय हो चुका था कि दुनिया उन लक्ष्यों की ओर कम से कम उनके जीवन काल में नहीं मुड़ने वाली, जिनको वह अपनी जिंदगी से ज्यादा कीमती मानते आए थे। करीब डेढ़ दशक पहले हुई उस बातचीत के अंत में मैंने पूछा, ‘आपने तो अपना पूरा जीवन ही दुनिया बदलने के काम में लगा दिया। न करियर, न शादी, न घर-परिवार…। लेकिन सब कुछ के बावजूद दुनिया तो बदली नहीं। तो क्या कभी सोचने पर आपको ऐसा नहीं लगता कि आपकी पूरी जिंदगी एक तरह से बेकार ही हो गई?’ आधे मिनट की चुप्पी के बाद गंभीर स्वर में जवाब मिला, ‘देखिए मेरे प्रयास अपनी जगह हैं, उनका कितना असर हुआ और दुनिया कितनी बदली या नहीं बदली, यह देखना आप लोगों का काम है। लेकिन जहां तक मेरी अपनी जिंदगी का सवाल है, तो बुरा मत मानिए, वह आपसे ज्यादा सफल रही है।’प्रणव प्रियदर्शी नवभारत
‘प्लीज थोड़ा स्पष्ट करें। क्यों आपको लगता है कि आपकी जिंदगी मुझसे ज्यादा सफल है?’
‘विस्तार में नहीं जाऊंगा, पर तीन चीजें होती है- मन, बुद्धि और शरीर। इन तीनों में एकरूपता हो तो लाइफ में क्वॉलिटी आती है। मान लीजिए मैं मन से कवि हूं, पेशे से अकाउंटेंट। तो मेरा मन हो रहा है जंगल में मोर को नाचते देखने का, पर मैं ऑफिस में एक फाइल लिए बैठा हूं। मेरी बुद्धि कह रही है कि इसमें काफी गड़बड़ियां हैं, पर बॉस के दबाव में मुझे उस फाइल को ओके करना पड़ जाता है। इन हालात में जिंदगी का आनंद महसूस करना मुश्किल होता है। मेरी अब तक की जिंदगी ऐसी रही है कि जिस चीज को मेरी बुद्धि ने सही कहा है, मेरा मन वही करने का हुआ है और मेरे शरीर ने वही किया है। तो जिंदगी का जैसा आनंद मैंने लिया है, वैसा आप ही बताइए कि क्या आप ले सकते हैं?’ मैं निरुत्तर था, पर मुझे उत्तर मिल गया था। ऊंचे मकसद शायद जूतों की तरह होते हैं। दुनिया भर की सड़कों को कांटों से मुक्त वे भले न कर पाएं, आपके पैरों की सुरक्षा जरूर सुनिश्चित कर देते हैं।’प्रणव प्रियदर्शी नवभारत ——————————————————–हमारा भी यही हाल बहुत से लोगो को लगता हे की हम झक मार रहे हे मगर हमें ऐसा लगता हे की हो सकता हे की हममे कुछ करने की प्रतिभा या हालात माफिक न हो मगर जरुरी तो नहीं की बदलाव हमसे ही हो हममे तो प्रतिभा या हालात साज़गार नहीं हे मगर कोन जाने की कब कहा कैसे कोई ऐसा शख्स हमें पढ़कर चार्ज हो जाए जिसमे प्रतिभा भी हो और भी हालात हो
Girish Malviya2 hrs · कल का दिन इतिहास में भारत के छोटे और मध्यम वर्ग के व्यापारियों की बर्बादी के नयी इबारत लिखे जाने के रूप में याद किया जाएगा, कहने को तो यह मात्र एक सौदा है लेकिन फ्लिपकार्ट ओर वालमार्ट की यह डील भारत के रीटेल मार्केट की तस्वीर पूरी तरह से बदलकर रख सकती है, लेख लम्बा तो जरूर है पर इस डील के निहितार्थ समझने के लिए पूरा जरूर पढियेगापूरी दुनिया मे वॉलमार्ट लोकल मार्केट को बर्बाद करने के लिए कुख्यात रहा है वॉलमार्ट का इतिहास यह रहा है कि वो बहुत कम कीमत पर सामान बेचकर छोटे-मोटे कारोबारियों को अपने रास्ते से हटा देती है. उसके पास न पैसे की कमी है ओर न राजनीतिक संपर्कों की, दुनियाभर के बाज़ारों में उसकी सीधी पहुँच है. ऐसे में वो दूसरे देशों का सस्ता सामान विशेषकर चीन से भारत में डंप कर चुटकियों में देश के लघु ओर मध्यम श्रेणी के उद्योगों को बर्बाद कर सकता है
स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय संयोजक अरुण ओझा का यह अनुमान बिल्कुल सच है कि इस सौदे से छोटे कारोबारियों का कारोबार चौपट हो जाएगा और इससे देशभर में 20-22 करोड़ परिवार प्रभावित होंगे वालमार्ट और फ्लिपकार्ट के सौदे से वालमार्ट ऑफलाइन और ऑनलाइन दोनों के जरिए भारत के बाजार पर इन विदेशी कंपनीयो का प्रभुत्व कायम हो जाएगा’
अभी वालमार्ट देश के नौ राज्यों के 19 शहरों में 21 होलसेल स्टोर खोल चुकी है ओर 50 नये स्टोर्स खोलने की वह घोषणा कर चुकी है इस डील के बाद आप खुद अनुमान लगा लीजिए कि भारत के रिटेल मार्केट कैप पर इस कम्पनी का कितना बड़ा कब्जा होने जा रहा है
स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय सह-संयोजक अश्विनी महाजन कहते हैं कि विदेशी निवेश इक्विटी के जरिए होना चाहिए लेकिन रिटेल कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए उचित नहीं हैं
उनकी चिंता बिल्कुल जायज है क्योंकि ई कॉमर्स के क्षेत्र में कोई स्पष्ट नियम अभी तक नही बनाए गए हैं जिसकी जैसी मर्जी होती है वह अपने हिसाब से किसी भी ऑनलाइन सेल लगा लेता है फ्लिपकार्ट सिर्फ कहने के लिए एक प्लैटफॉर्म है लेकिन वह जिस तरह से छोटे व्यापारियों का धंधा छीन रहा है वह देश मे बेकारी की समस्या को ओर गहनतर करता जा रहा है
मूल रूप से ई कॉमर्स प्लेटफार्म में B2B बिजनेस के लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति दी गयी थी एफडीआई पॉलिसी 2016 की धारा 2,3 की उपधारा 9 कहती हैं कि ई-कॉमर्स मार्केटप्लेस मॉडल सिर्फ तकनिकी प्लेटफार्म उपलब्ध कराएगा और किसी भी रुप में सीधे अथवा अप्रत्यक्ष रुप से कीमतों को प्रभावित नहीं करेगा और न ही कोई असमान प्रतिस्पर्धा का माहौल बनाएगा लेकिन वास्तविकता में क्या होता है सब अच्छी तरह से जानते हैं
खुदरा कारोबारियों के संगठन कंफेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (कैट) भी अब खुलकर इस सौदे के विरोध में उतर पड़ा है उसका कहना है ‘‘इस सौदे को मंजूरी नहीं मिलनी चाहिए क्योंकि इससे ई-कामर्स क्षेत्र में लागत से भी कम दाम पर कारोबार करने और बाजार बिगाड़ने वाले मनमाने तरीके से कीमत तय करने को बढ़ावा मिलेगा जो पहले ही गलत व्यापारिक तरीकों की जकड़ में है.’’
लेकिन बात सिर्फ छोटे व्यापारियों के नुकसान तक ही सीमित नही है इस सौदे में सरकारी खजाने का भी बड़ा नुकसान होता दिख रहा है , ……………इनकम टैक्स डिपार्टमेंट ने फ्लिपकार्ट कंपनी को ईमेल भेजकर कहा है कि उसकी संपत्ति भारत में है, इसलिए टैक्स की देनदारी बनती है. चूँकि भारत में मौजूद संपत्ति का सौदा हो रहा है इसलिए विदहोल्डिंग टैक्स लगेगा. विदेशी भी भारत में मौजूद संपत्ति का सौदा करे तो ये टैक्स लगता है अनुमान है कि इस सौदे पर 10-20 फीसदी तक विदहोल्डिंग टैक्स लग सकता है.
लेकिन इस सौदे में अभी तक किसी भी प्रकार की टेक्स लायबिलिटी की बात कम्पनी ने नही मानी हैं, अश्विनी महाजन इस सौदे के बारे में कह रहे है कि “डील सिंगापुर में हुई, बेंगलुरु में अनाउंस हो रही है और दिल्ली में अप्रूवल लिया जा रहा है इससे भारत में एक भी पैसा नहीं आएगा”
लिख कर रख लीजिए यह सौदा थोड़े दिनों में छोटे और मझोले व्यापार के ताबूत की आखिरी कील साबित होगा क्योंकि मोदी सरकार ने उन्हें मृत्युशैया तक पुहचाने मे कोई कोर कसर बाकी तो पहले ही नही छोड़ी है
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Vishnu Nagar
6 May at 09:05 ·
दिनोंदिन भारतीय जनता पार्टी का दलितों के यहाँ भोजन करने का ड्रामा हास्यास्पद साबित होता जा रहा है।अभी केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने मध्य प्रदेश के गढ़मऊ गाँव के ‘सामाजिक समरसता भोज’ में शामिल होने से इनकार कर दिया।बहाना जो भी हो,संदेश यही गया है कि उमा भारती को दलितों के लिए आयोजित भोज में उनके साथ,उनका बनाया खाना मंजूर नहीं,जिसका कुछ ज्यादा ही ड्रामा पार्टी अध्यक्ष अमित शाह करके फोटो क्लिक करवाते रहे हैं।इसी के साथ उसी दिन यह खबर भी आई है कि उत्तर प्रदेश के गन्ना विकास राज्य मंत्री सुरेश राणा रात को ग्यारह बजे अलीगढ़ जिले के लोहागढ़ गाँव में एक दलित रजनीश कुमार के यहाँ पहुंचे, जिसके परिवार जन कहीं बाहर गए हुए थे और वह खुद बाजार से छोलेभटूरे से पेट भरकर सो चुका था।मंत्री जी हैं यानी प्रदेश के राजा जी ही हैं समझो।राजाजी को किसी की मर्जी,किसी की सुविधा-असुविधा की दरकार क्या?राजाजी का मन आया,उन्हें मोदीजी और अमित शाह जी के आदेश पर दलित ड्रामा करने की याद आई कि उन्हें भी दलित के यहाँ भोजन करके दिखाना है, उसके यहाँँ सोना भी है तो उस सोते हुए दलित को जगाया, चाहे सुबह- सुबह उस आदमी को फिर से मेहनत मजदूरी करने निकलना हो।
फिर माननीय मंत्री जी ने उस दलित के घर जिला प्रशासन द्वारा मंगवाया गया खाना जमकर खाया, जिसमें ‘नवजीवन’ की एक रिपोर्ट के अनुसार दाल मखनी, छोले, चावल, पालक पनीर, उड़द की दाल , मिक्स वेज, रायता तथा तंदूरी रोटियां थीं यानी शाही भोजन था।और हाँ गुलाब जामुन भी थे।पानी भी दलित के यहाँ का नहीं था,मिनरल वाटर था।जिन प्लेटों, बर्तनों वगैरह में खाना खाया गया, वे भी दलित के नहीं थे।सबकुछ ‘पवित्र’ था,बस वह घर ‘अपवित्र’ था मगर मंत्रीजी की ‘चरणधूलि’ से वह भी ‘पवित्र’ हो चुका था।एक और रिपोर्ट के अनुसार उस दलित को अपने साथ बैठाकर मंत्री जी ने खिलाया भी नहीं कि भाई, फोटोआप के लिए ही सही जिंदगी में पहली और शायद आखिरी बार यह खाना तू भी चखकर देख ले और यह भी नजदीक से देख ले कि तुम्हारा घर ‘पवित्र’ करने आया मंत्री क्या -क्या माल खाता है और कितना खाकर कितनी डकारें लेता है।पढ़ा यह भी मंत्री जी सोये भी वहीं चकाचक नया बिस्तर मंगवाकर।वे मंत्री हैं तो उन्हें दलित से कहीं अधिक ,बहुत अधिक गर्मी भी लगती है।एसी तो फटाफट लग नहीं सकता था तो कूलर लगाया गया।फुल भोजन,फुल शयन,फुल ड्रामा हुआ।
पार्टी अध्यक्ष का आदेश है तो हर जगह यह ड्रामा हो रहा है,वह खुद भी इसमें संलग्न हैं।दलितों के बढ़ते गुस्से को देख अब तो प्रधानमंत्री जी का भी आदेश -निर्देश है तो दलित गृह भोजन भक्षण और शयन प्रतियोगिता नित्यप्रति की जाए। मंत्री राणा जी की तरह कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी येदियुरप्पा साहब भी पाँचसितारा होटल से खाना मंगवाकर दलित के यहाँ खाते पाए गए थे।उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री जी ने भी दलित के घर जाकर गैरदलित महिला नेता का बनाया खाना खाया था।
एक तो भाजपा की यह बहुत बड़ी भूल है कि दलित वोटों तक पहुँचने की यह संघी प्रतीकात्मकता अब किसी काम आएगी।प्रतीकात्मकताओं से खुश करने की रणनीति का युग अब चला गया,खासकर जब दलित समझ चुके हैं कि भाजपावाले उनके न हैं और न हो सकते हैं।वैसे भी किसी दलित के घर जाकर भोजन करके उसका प्रदर्शन करने के पीछे की सवर्ण मानसिकता इन सब उदाहरणों से उजागर है। अच्छा है जल्दी ही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने इससे मुक्ति पा ली।
मान लो दलित के घर,दलित द्वारा बनाया भोजन ही कुछ भाजपाई नेताओं ने किया हो तो भी यह सवर्णवादी मानसिकता है।आप क्या आज भी यही दिखाना चाहते हैं कि देखो,हम हैं तो वैसे जाति में श्रेष्ठ और रहेंगे भी श्रेष्ठ ही लेकिन देखो कितने उदार ह्रदय भी हैं कि तुम्हारे घर आकर भोजन ग्रहण कर रहे हैं।यह दलितों का सम्मान नहीं ,सामाजिक समरसता नहीं, उनका अपमान है।बस सीधे सीधे नहीं मगर संकेत में उन्हें गाली देना है, उन्हें उनकी ‘ सही औकात’ बताना है।
आज दलितों को किसी से ऐसा नाटकीय सम्मान नहीं चाहिए।कोई दलित किसी भी सवर्ण से यह कहने नहीं जा रहा कि महाराज आप मेरे घर मुँह झूठाकर मुझे कृतार्थ कीजिए।यह आपकी सामंती मानसिकता और राजनीतिक जरूरत है कि आप उनके यहाँ भागे भागे जा रहे हैं।यह चातुर्वर्ण्य की परोक्ष स्थापना की चालाक कोशिश है,यह अपनी जातीय श्रेष्ठता का जयघोष है।
आज के दलितों की समस्याएं दूसरी हैं,उनके संघर्ष दूसरे हैं,जिन्हें आपका उपकार नहीं, अपना संवैधानिक अधिकार चाहिए।उन्होंने पिछले दिनों ‘दलित बंद’ के जरिए दिखा दिया कि वे आपके कृपाकांक्षी नहीं हैं,आपसे लड़कर हक लेंगे,जो आप दलितों के यहाँ भोजन का ड्रामा करके देना नहीं चाहते।दलित के यहाँ भोजन करके आदित्यनाथ की दलितों के विरुद्ध जाति विशेष के अपराधियों को संरक्षण देने की अपनी मानसिकता को छुपा नहीं सकते।आप रोहित वेमुला की आत्महत्या का बोझ समरसता भोज की नाटकीयता से अपने सिर से हटा नहीं सकते।आप दलित दूल्हे को घोड़े पर बैठकर सवर्ण इलाकों से बारात निकालने पर अपमान कर भोजन दलित के यहाँ करके कथित सामाजिक समरसता का भ्रम पैदा नहीं कर सकते।आप आरक्षण विरोधी मानसिकता से इस तरह नहीं लड़ सकते।वह युग,वे स्थितियाँ बदल गईं।यहाँ तक कि वह 2014 भी गुजर चुका है, जब आपके झूठ का जादू चल गया था।
बेईमानो मक्कारो और कमीनो से लड़ने में इतना क्यों डरते हे हम , अरे क्या हो जाता मरहूम याग्निक साहब जेल हो जाती नौकरी छूट जाती बस यही तो अधिकतम था रही बात इज़्ज़त की तो ये इज़्ज़त एक सामंती अवधारणा हे http://www.chauthiduniya.com/2018/10/smiling-face-of-lifes-challenges.html
हम इतने डरपोक क्यों हे क्यों हम इतना घबराते हे ————— ? क्या हो जाएगा ज़्यादा से ज़्यादा ———- ?
शहीद ए आज़म ” रशेल कोरी ” आधुनिक युग में शहादत की इससे बड़ी मिसाल नहीं मिलती हे https://www.youtube.com/watch?v=iz0Vef4Fu8U
Vishnu Nagar
12 hrs ·
बहुत दिनों से मैं सोच रहा हूँ कि हम साधारण लोग किस -किस अर्थ में भाग्यशाली होते हैं।एक इस अर्थ में भी हम किस्मतवाले होते हैं कि हमारे माँ -बाप न टाटा-बिड़ला थे,न अंबानी,न बड़े राजनेता थे,न बड़े कलाकार या फिल्मी हीरो -हीरोइन।न महान संत थे,न नाथूराम गोडसे टाइप हत्यारे थे।हम अपने माता -पिता की प्रसिद्धि या धन या महानता या कलंक के बोझ तले दबे हुए नहीं हैं।हम जो भी हैं,जैसे भी हैं,अपने किए या अनकिये से हैं।इसके दुख कम,सुख ज्यादा हैं।हो सकता है इनमें से किसी की संतान होते तो पता नहीं कितनी सीढ़ियाँ अपनेआप चढ़ चुके होते या और अधिक गिरकर भी बड़े बन चुके होते मगर यह हजार गुना बेहतर है कि हम नीचे हैं,जमीन पर हैं।हम न जाने कितनी आवाजें, कितनी गूँजे -अनुगूंजें, कितने दृश्य देख पाते हैं,कितने दुख झेल पाते हैं,कितने अपमान सह पाते हैं और मान -सम्मान से प्रभावित भी नहीं होते क्योंकि हमें मालूम है कि हम इसके बावजूद मामूली थे और हैं। यह मान -सम्मान भी उसी तरह का एक दिवसीय उत्सव है,जिस तरह शादी का उत्सव होता है या दिवाली का या ईद का।
हम गड्ढे में गिरते हैं या छोटी पहाड़ी पर चढ़कर दिखाते हैं,यह बहुत कुछ हमारा निर्णय होता है।इस तरह हम बहुत कुछ अपनी तरह अपना अच्छा- बुरा जीवन जीते हैं,किसी पूर्वज द्वारा तय जीवन नहीं।हममें से किसी का किसी विचारधारा से जुड़ना या खास पेशा अपनाना बहुत कुछ हमारा निर्णय है,हमारे माता -पिता या किसी पूर्वज की विरासत में मिला फैसला नहीं,जिसे ढोने के लिए हम बड़ी हद तक बाध्य होते हैं और हमें हमेशा उनकी रोशनी या अंधेरे में देखा जाता है। इस दुनिया से हम इस तरह चले जाते हैं,जैसे कभी थे ही नहीं।दो- चार दिन,दो- चार घंटे बाद हम उस अनंत के गर्त में समा जाते हैं,जिसमें हमारे पूर्वज समाए हुए हैं।
Chandra Bhushan5 December at 08:43 · अभी नए थे अभी पुरानेमहानगरों में नए-नए बसे इलाके बहुत जल्दी पुराने हो जा रहे हैं। पिछले अट्ठारह वर्षों से हर सुबह हम ऐसे ही एक लंबे-चौड़े इलाके में टहलने जाते हैं। शुरू के कोई दस वर्षों में यहां सिर्फ एक बस्ती थी, चार फ्लोर की बनावट में कोई दो सौ फ्लैट। परिसर के मालिक ने इस बस्ती से थोड़ा दूर अपने लिए एक आरामदेह फार्महाउस बनवा रखा था। उसका आइडिया एकड़ों में जमीन खरीद कर फुटों में बेचने का था, जो कि अभी हर देसी सबर्ब का चलन है।
लेकिन पहली बार 2008-09 की मंदी ने इस योजना की कमर तोड़ी। फिर हालात कुछ संभलने शुरू हुए तो नोटबंदी और जीएसटी की करामात ने डिवेलपर के सुंदर सपनों के पर कतर दिए। इन दोनों झटकों के चलते इस इलाके की तीन चौथाई जमीन आज भी अनबिकी पड़ी है। लेकिन मेरी चिंता यहां के खाली प्लॉटों से नहीं, बिकी हुई एक चौथाई जमीन पर खड़ी बारह मंजिला इमारतों से जुड़ी है।
कुछ ही साल पहले चकाचौंध मारती ये जगहें अभी सड़ी हुई गाड़ियों का गैरेज नजर आती हैं। हर फ्लैट पर औसतन दो-तीन गाड़ियां, जिनमें स्टेटस सिंबल की तरह खरीदी गई लेटेस्ट कार को छोड़कर बाकी सब सड़क किनारे धूल फांकती रहती हैं। खड़े-खड़े ही कभी किसी गाड़ी का बंपर ढह जाता है तो कभी किसी की चिटकी विंडस्क्रीन पास की गरीब बस्तियों के शैतान बच्चों की शैतानी का मुजाहिरा कर रही होती है।
दिल पूछता है, करोड़ रुपये के फ्लैट में रहने वाले, हर दो साल पर गाड़ी बदल लेने वाले ये लोग अपनी पुरानी गाड़ियां बेचते क्यों नहीं? दिमाग जवाब देता है कि ये गरीब देश के अमीर हैं। कोई चीज पड़ी-पड़ी सड़ जाए, पर घाटा सहकर उसे बेच देने की बात कभी इनके जेहन में नहीं आएगी। और यहीं क्यों? सड़क घेरे न जाने कितनी रद्दी गाड़ियां मैं अपनी कॉलोनी में ही देखता हूं- कभी जरूरत पड़ी तो चला ली जाएंगी!
टेक्नॉलजी के साथ-साथ इंसानी जिंदगी की रफ्तार भी बहुत तेज हो गई है। इसकी कल्पना हम पांच या अधिक से अधिक दस साल लंबी एक ट्रेन के रूप में करें तो इसके अगले छोर पर एक चमचमाता हुआ स्लीक किस्म का सन-सन भागता इंजन दिखता है, और पिछले छोर पर अलगाव के विविध स्तरों वाला कबाड़खाना, जिससे निपटना तो दूर, खुली आंखों जिसे देख पाना भी हमारे बूते से बाहर है।सड़क पर पड़ी गाड़ियों को छोड़िए, हमारे घर कूड़े से भरे हैं। नजर से दूर करने की जगह जहां भी मिल जाए, वहीं ठंसे हुए पुराने कीबोर्ड, मॉनिटर, सीपीयू, मोबाइल फोन, हीटर, अवन, साउंड सिस्टम, टूटे-फूटे गिटार- तमाम ऐसी अल्लम-गल्लम चीजें, दो-चार साल पहले हम जिनके सपने देखते थे और जो अपनी ही नजरों में हमें बड़ा बनाती थीं! हम खुद इनमें शामिल होने से रह जाएं, ऐसा कोई नुस्खा है हमारे पास?—————-
Chandra Bhushan
28 November at 07:48 ·
कहानियों में जीना-मरना
कहानी के पीछे पगलाए घूमना हर किसी के मिजाज में नहीं होता। न जाने कितनी बार मैंने अपने भाइयों के पैर दबाए, उनसे किसी फिल्म की कहानी सुनने के लिए। गर्मी की दुपहरियों में घंटों लुरखुर काका की गाय-भैंसों पर नजर रखी ताकि लोरिक-संवरू और दयाराम ग्वाल के पंवारे सुनाते हुए उनकी कल्पना और लयकारी में कोई खलल न पड़े। अकबर-बीरबल, शीत-बसंत और राजा भरथरी के किस्से चिथरू चाचा से सुनने के लिए जाड़ों की शाम सूरज झुकने के भी घंटा भर पहले मैं उनके दरवाजे पर हाजिरी लगा देता था।
उनके कई सारे काम तब अधबीच में होते थे और वहां मेरी असमय उपस्थिति से परेशान उनके घर वाले हिकारत से मुझे देखकर मुंह बिचका देते थे। फिर उपन्यास पढ़ने की उम्र हुई तो इसके लिए बड़ों की निर्लज्ज चापलूसी, यहां तक कि चोरी-चकारी जैसा कर्म भी मुझे कभी अटपटा नहीं लगा। कहानियों के पीछे इस दीवानगी की एक बड़ी वजह अपने परिवेश से अलगाव और मन पर छाए गहरे अकेलेपन से जुड़ी हो सकती है। लेकिन बाद में लगा कि यह कोई वैसी अनोखी बात नहीं है, जैसी शुरू में मुझे लगा करती थी।
किसी मुश्किल से मुश्किल बात को भी अगर कहानी की तरह सुनाया जा सके तो इससे दो नतीजे निकलते हैं। एक यह कि सुनाने वाला बात को अच्छी तरह समझ गया है। दूसरा यह कि जिसे सुनाई जा रही है, बात का काफी हिस्सा उसकी समझ में आ जाएगा। झूठ और गप्प से घिरे हुए इस समय में ज्यादातर लोग बातों को समझ लेने का ढोंग भर करते हैं। तकनीकी जुमलेबाजी से भरी बातें अक्सर बताई भी इसीलिए जाती हैं कि लोग उन्हें न समझें और ऊबकर या नासमझ मान लिए जाने के डर से मुंडी हिलाकर छुट्टी पा लें। और तो और, काफी सारे साहित्यिक कथ्य पर भी यह बात लागू होती है!
कुछ समय पहले एक थ्रिलर से गुजरते वक्त उसमें आए इस वाक्य पर नजर अटक गई- ‘हम कहानियों के लिए जीते हैं, कहानियों के लिए ही मरते हैं।’ क्या सचमुच? तनख्वाह में हर पांचवें साल एक नया जीरो जोड़ते हुए आगे बढ़ने वाले एक कामयाब परिचित से न जाने किस रौ में एक दिन अचानक मैंने पूछ लिया, ‘तुम्हारे बच्चे कभी तुमसे तुम्हारी कहानी सुनना चाहेंगे तो उन्हें क्या सुनाओगे? यही कि क्या-क्या किया तो सैलरी कितनी बढ़ गई?’
यकीनन मेरे इस सवाल में अजनबियत भरी थी। कहानियां उसके पास थीं। बस, जिंदगी की चूहा-दौड़ में शामिल हो जाने के बाद उन्हें पलट कर याद करने का मौका उसको एक जमाने से नहीं मिला था। उस चढ़ती रात में हम देर तक बतियाते रहे। पढ़ाई पूरी करने के बाद तीन साल लंबी उसकी भटकन के किस्सों ने हमारे बीच के अंधेरे कोने को चमकते जुगनुओं से भरी हुई झाड़ी जैसा बना दिया। लगा कि एक लंबी कहानी के नगण्य पात्र ही हैं हम। बस सुनाए जाने की देर है।
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सम्बन्ध तभी फल फूल सकते हे की जब आप गैर महत्वकांशी हो अगर होंगे तो सम्बन्ध फल फूल ही नहीं सकते हे अपने आस पास देखे हर आलीशान घर खाली पड़ा मिलेगा एकता कपूर जो बकवास दिखाती हे वो कही नहीं होती की एक आलीशान घर और उसमे भरी पूरी फेमली ऐसा नहीं होता हे असल में जब ये आलीशान घर आलीशान जिंदगी की पर्किर्या चल रही होती हे तब इंसान खुद ही रिश्तो को लात मारता जाता हे और अकेला होता जाता हे —————————————–
Shailendra Pratap Singh Singh12 hrs · न्यूज़ीलैंड में लोगो द्वारा आत्म हत्या करने की दर बिकसित देशों में सबसे ज्यादा है । एक लाख पर १५ से ज्यादा लोग हर वर्ष आत्म हत्या करते है । अख़बारों में खबर देखी कि करीब बीस हज़ार लोगो ने एक वर्ष में आत्महत्या का प्रयास किया । भयावह । हिंदुस्तान में भी अब ख़तरे की घंटी बज रही है ।
यहाँ न्यूज़ीलैंड में तमाम बच्चे मानसिक रोगी हो रहे है । मुझे ऐसा लगता कि बच्चो का अकेलापन इसकी मुख्य वजह है । लोग शादी करने , बच्चे पैदा करने से घबड़ाते है । गर ले देकर एक बच्चा पैदा भी हुआ तो वह किसके साथ खेले कूदे । माता पिता की अपनी जिंदगी की तमाम मशरूफियातें है । उन्हे यह पाठ स्कूल में पढ़ाया भी जाता है कि तुम्हारा अपना वजूद , अपनी अस्मिता है , अपने मूलाधिकार हैं , माँ बाप गर मारपीट करे तो पुलिस को टेलीफोन करो । अपनी स्वतंत्रता बनाये रखो ।
एक दिन एक बच्चा फट्टे पर दौडते समय मुझे छू गया होगा तो उसके तमाम साथियों ने आश्चर्य ब्यक्त किया और मुझसे कहा कि आप 111 पर पुलिस को सूचित कर सकते है । यह है उनकी सोच । अगर आपको आपका समाज किसी से ज्यादा घुलने मिलने की इजाजत नही देता तो लोग कब तक अकेले अकेले जियेंगे ।
यहाँ मानसी राकेश के घर से मिले घर में एक बुज़ुर्ग महिला अपने कुत्ते के साथ रहती है । खिड़की पर ही ज्यादातर अकेले बैठी रहती है । बच्चे कार से घर में प्रवेश और घर से बाहर दाते समय उधर जरूर ताकते है तो दोनो तरफ से हाथ हिलाकर हलो होता है । अब तो मेरी भी यह आदत हो रही है । मतलब जिंदगी में कितना जरूरी सा है किसी से मिलना जुलना । पर यहाँ न्यूज़ीलैंड में लोग अपनी दुनिया में ही रिज़र्व रिज़र्व से रहते है । 18 साल के बाद बच्चे भी अलग हो जाते है । फिर मियाँ बीबी भी अक्सर तलाक़ ले लेते है । हर आदमी अपना वजूद मज़बूती से पकड़े बैठा है यहाँ । मेरी समझ से यही मुख्य वजह है आत्म हत्या की ।
पर जिंदगी सम्बंध में ही तो जी जाती है या यूँ कहे कि सम्बंधो को जीना ही तो जिंदगी है । हर सम्बंध का लुत्फ लिया जाये । जहाँ कुछ भी नकारात्मकता मिले , उसे छोड़ आगे बढ लिया जाये । जो आनंद सम्बंधो में है , वह आनंद पैसों में नही है वरना न्यूज़ीलैंड जैसे विकसित देशों में आत्म हत्या करने वालों की संख्या इतनी ज्यादा न होती । बहराइच में मेरे साथ नियुक्त रहे IAS अशोक कुमार जी और ग़ाज़ियाबाद में नियुक्त रहे IPS दर्शन सिंह ने आत्म हत्या की थी । इनके अतरिक्त भी मैने तमाम पैसे वालों को , अधिकारियों को आत्म हत्या करते सुना और देखा है । यदि पैसे और पद से ज़िंदगी में लुत्फ आता तो और इन सबको आत्म हत्या नही करनी पड़ती । सो साफ है जिंदगी का आनंद पैसों और पद में नही है । आनंद तो बस सम्बंधो को आनंद से जीने में है ।
यह सही है कि ज्यादातर आत्म हत्यायें इन्ही सम्बंधो में आई खटास को झेल न सकने के कारण होती है । भई , रिश्तो को सिलते चले , रफ़ू करते चले और जब न हो पाये तो फटी क़मीज़ ही पहनकर टहलें पर आत्म हत्या न करे । हिंदुस्तान में सम्बंधो की कहां कमी है । आसपास टहल रहे अन्य तमाम सम्बंधो का लुत्फ जरूर उठाते रहे ।
भवाली में तो हम लोग रोज ही साथ घूमते है , लेक व्यू रेस्ट्रा पर गप्पे लगाते है । वैसे भी खूब मिलते जुलते है । मेरे मिलने वाले ही करीब बीस लोगो ने वहाँ आकर अपने अड्डे बना लिये या बना रहे है । तमाम नये नये रिश्ते ( सम्बंध ) रोज ही बना लेता हूँ । हर सम्बंध का लुत्फ लेता हूँ । अपना चुनाव है ।
Vishnu Nagar
26 December 2018 at 08:55 ·
सैल्यूट टू स्पीड
अभी एक अंग्रेजी अखबार के मुखपृष्ठ पर एक नए मोबाइल का विज्ञापन देखा, जिसमें दावा किया गया है कि वह सबसे तेज है।विज्ञापन में ऊपर की ओर लिखा है- ‘सेल्यूट टू स्पीड’। इससे एक दिन पहले की घटना याद आ गई।
एक बहुत तेज गति से चलनेवाली मोटरसाइकिल का बहुत तेज शोर घर के पास की सड़क से सुनाई दे रहा था।उसके शोर में बाकी सब शोर बिला गये थे या कहें बौने हो गए थे। मोटरसाइकिल की स्पीड जितनी बढ़ती जाती थी, उसका शोर भी उतना बढ़ता जाता था।वह शोर चालक को ‘किक’ देता था और शोर करने और तेज चलाने और मर्दानगी दिखाने के लिए प्रोत्साहित करता था। उसे कहीं पहुँचने की जल्दी नहीं थी। वह आसपास यहाँँ से वहाँँ, वहाँँ से यहाँँ कोई आधा घंटे तक अपनी मोटरसाइकिल को इसी तरह बहुत तेज गति में घुमाता रहा,कोई आधा किलोमीटर के दायरे में।वह तेज गति से चलने का आनंद ले रहा था।लगभग उड़ने की गति से सड़क पर चलने का सुख भोग रहा था।उसका आनंद हमारे कानों ही नहीं, मेरे दिल को भी कँपा रहा था कि कहीं कोई दुर्घटना न हो जाए,जिसका शिकार वह या कोई और न हो जाए।हमारी हाउसिंग सोसायटी के ठीक बाहर कुछ समय पहले एक ऐसी दुर्घटना हो भी चुकी है।महानगरों में दूरियों के कारण,किसी आकस्मिकता के कारण, कहींं समय पर पहुँचने के दबाव के कारण जल्दी तो कई बार स्वाभाविक ही होती है।जवानी में हर चीज में वैसे भी गति और उतावली पहले भी होती थी,अब भी होती है।बैलगाड़ी को हवा की गति से चलाने का और कार को 150 -180 की गति से चलाने का उन्माद होता है।लेकिन गति का कमोबेश उन्माद हम सबमें पैदा हो गया है,हम गति के जैसे दुष्चक्र में फँस गए हैं,जिसका हमें तीव्रता से अहसास नहीं है।एक तरह से गति ही जीवन का उद्देश्य बन चुकी है।कहीं पहुँचने की भी जल्दी है और लौटने की भी।ठहरने,रुकने,देर तक गौर से देखने, सीखने,सुनने की इच्छा कम से कम होती जा रही है।हम बहुत जल्दी में बहुत सा कूड़ा उत्पादित करते हैं, खरीदते हैं,ग्रहण करते हैं,उसे प्रसारित करते हैं।इस दौड़ में विष्णु नागर भी शामिल है,जो गति के विरुद्ध इतना उपदेश पिला रहा है।हम भी अपनी -अपनी मोटर साइकिलों पर सवार हैं, जिनमें जितना शोर बढ़ता है,उतना ही वह ‘किक’ देता है।हम भी स्पीड को ‘सैल्यूट’ कर रहे हैं।——————————————————————————————————————————————————————————————————————————————————————————————— vi——–कादर खान पैसे वाले भी थे अच्छे भी और अच्छे लेखक भी , जीवन के आखिर दिनों में लोगो की कमी महसूस करते रहे ये ”लोग ” कहा गायब हो जाते हे फिल्म इंडस्ट्री की तो खेर रीत ही हे की वो सिर्फ चढ़ते सूरज को ही प्रणाम करते हे वो तो खेर कन्फर्म हे ही मगर बाकी लोग कहा गायब हो गए————- ? ये सवाल हर अमीर और कामयाब आदमी को देर सवेर परेशान करेगा कर रहा हे जीवन में लोग नहीं हे लोग कहा गायब हे —- ? इसमें दोष 50 – 50 हे लोग भी दोषी हे और ये पैसे वाले कामयाब लोग भी दोनों बराबरी के दोषी हे ये कामयाब लोग भी जब कामयाब हो रहे होते हे अमीर हो रहे होते हे तो ये अपने गैर वयवसायिक रिश्तो दोस्तों परिचितों रिश्तेदारों को घास नहीं डालते हे ना ही अपनी कामयाबी अपने पेसो से दुसरो को अपनों को दोस्तों परिचितों रिश्तेदारों को कोई सुरक्षा आराम पहुंचाते हे नहीं नहीं करते हे ये पैसे नहीं देते हे नहीं देते हे बस नहीं देते हे ये दोषी हे वही तस्वीर का दूसरा पहलु भी स्याह हे की अगर ये लोगो की अपनों की मदद करे तो लोग भी कुछ कम नहीं हे फिर वो इनसे बेसिक जरूरतों की मदद नहीं लेते हे बल्कि फिर वो इन्हे पूरा लूट खाते हे आप देख लीजिये हर जगह यही मंजर होगा . कादर खान आखिरी दस सालो में तन्हाई से बेहद तड़पेअपने बिज़नेस में अरबो की तरक्की कर रही एक लड़की से जब उसके दोस्तों के बारे में पूछा गया तो उसने दुखी होकर जवाब दिया की अब उसका कोई दोस्त नहीं हे सब दोस्त छूट गए हे क्यों की उसके पास उनके लिए टाइम नहीं हे इस विषय में ये भी हे की पैसे देने से भी अधिक मुश्किल होता हे टाइम देना टाइम देना सिर्फ साथ नहीं होता हे बल्कि मन में जगह देना स्पेस देना किसी के लिए भी आप रातोरात कुछ नहीं कर सकते हे इसके लिए पहले मन में जगह देनी होगी उनके सुख दुःख के बारे में सोचना होगा इसमें एनर्जी लगती हे अब कामयाबी की दौड़ दौड़ रहे ये लोग किसी को अपनी एनर्जी नहीं देना चाहते हे इनकी पूरी एनर्जी और एकाग्रता कामयाबी पर होती हे पैसे भी इनके लिए इतनी बड़ी बात नहीं होती हे लेकिन मन में ही जगह नयहाँ ये भी बात हे की जो हाल तनहा कादर खान का हुआ उससे भी बहुत बहुत बुरा हाल अमिताभ का होना था इसी बुरे हाल के डर से अमिताभ ज़बर्दस्ती के फालतू के कर्मयोगी बने रहते हे अस्सी के लपटे में और सिर्फ एक चौथाई लिवर के साथ भागे फिरते हे और एक से बढ़कर एक घटिया काम करते हे इतना घटिया की आमिर जैसे रचनातमक आदमी की उनकी छाया पड़ते ही भरी दुर्गत हो गयी अमिताभ फालतू बेहूदा काम करते ही रहते हे तन्हाई के डर से , ताकि रिश्ते न सही वयवसायिक रिश्ते ही सही वो तो रहे कम से कम , दूसरी तरफ अजय बरहमताज़ जी ने बताया की अपने दम पर गाँव खड़े से निचे से ऊपर आने वाले कलाकारों की बड़ी भारी समस्या अपने रिश्तेदारों को सम्भलना भी बन चुकी हे करे तो क्या करे अगर वो करे तो ये रिश्तेदार उन्हें लूट लेते हे कितनी ही हीरोइनों की तो जिंदगी इन्ही रिश्तेदारों ने बर्बाद की हे करे तो ये दुर्गत और ना करे तो फिर वही तन्हाई इधर कुआ उधर खाईहीं दे पाते हे इसी कारण हर दूसरा कामयाब अमीर आदमी तन्हा रह जाता हेअधिकतर पैसे वाले और कामयाब लोग अकेले होते जा रहे हे लोग नहीं होते हे उनकी लाइफ में , रिश्ते सिर्फ वयवसयिक रह जाते हे दूसरी तरफ कामयाब होना अमीर होना कोई आसान काम भी नहीं हे जिस काम से अमीरी कामयाबी मिले सिर्फ उसी पर ज़्यादा बहुत ज़्यादा बहुत फोकस करना पड़ता हे बहुत ज़्यादा बहुत ही ज़्यादा इसी कारण ये लोग कुछ हिल सा भी जाते हे कुछ दीवाने से भी हो जाते हे अब एक तो ये फोकस फिर अकेलापन नतीजा ये होता हे की एक वक्त आता हे की इन्हे दो ही चीज़ो की समझ रह जाती हे ये दो आसानी से समझ आने वाली चीज़े और सुकून देने वाली ये दो होती हे धर्म और सेक्स इसी कारण भारत में धर्म और सेक्स का व्यापार बूम पर हे मेरा एक कज़िन हे अच्छा पैसे वाला और कामयाब और लाइफ उसकी बेहद कम्फर्ट ऐसे में मेने छह साल पहले ही भविष्वाणी कर दी थी की खानदानी शरीफ होने के कारण सेक्स की तरफ तो वो जाएगा नहीं सो वो भी सिंगर जावेद अली की तरह इन तारिक जमीलो के वीडियो देख रहा हे कोट कर रहा हे https://www.youtube.com/watch?v=RO0bGlGvx40
vishnu ji ne एक बार कारो के माध्यम से जातिवाद सिखलाया था -अंग्रेजी , ऊँची जाती , और गोरा रंग इन तीन चीज़ो के लिए भारत में समाज में लोगो में महिलाओ में रिलेशन में इतना इन तीनो बातो के लिए इतनी दीवानगी हे की ये दीवानगी अब पागलपन में बदल रही हे. जिनके पास इन ” तीनो ” में से कुछ हे वो भी पागल हो रहे हे नहीं हे तो भी हो रहे हे . इतना गहरा और अनगिनत घुमाव और परतो वाला जाल हे इन तीनो चीज़ो का हम सोच नहीं सकते हे . जैसे धुआधार अंग्रेजी वाला अर्णव इतना बावला क्यों हे ———– ? जानते हे , क्योकि उसका और चेतन भगत का कहना हे की वो दोनों छोटी ज़ात के अंग्रेजी वाले हे उनकी अंग्रेजी छोटी ज़ात की हे उनका कहना हे की ऊँची अंग्रेजी ज़ात वाले उनके साथ अछूत जैसा वयवहार करते रहे हे उनके ”बर्तन ” अलग करते थे ऊँची ज़ात के अंग्रेजी ठाकुर , जिससे दोनों बागी हो गए उन्हें पता चला की उनका अपमान करने वाले ऊँची अंग्रेजी वाले लिबरलज़ात के थे बदले लेने को दोनों ने डाकू अनुदार कम्युनल का खेमा ज्वाइन कर लिया और उनसे आदमी पैसा लेकर अपना गेंग बनाकर दोनों ठाकुर अंग्रेजी वाले से बदला चाहते हे . कपिल शर्मा के पास तथाकथित ऊँची ज़ात हे रंग भी हे करोड़ो रुपया हे काम में कपिल एक लीजेंड हे मगर कमजोर अंग्रेजी के कारण खुद ही खुद को को छोटी ज़ात का मानते हे अक्सर ऊँची ( अंग्रेजी ) ज़ात वालो को सफाइयां देते हे वैसे ही जैसे कोई तथाकथित छोटी ज़ात का बड़ा कर्मचारी किसी मामूली ऊँची ज़ात वाले को देख कर कुर्सी छोड़ देता था —————— जारी