by — ज़ियाउद्दीन सरदार
समय की एक विशिष्ट धारणा वहाबीवाद का एक अटूट हिस्सा बन गया है। मोहम्मद बिन अब्द अलवहाब के द्वारा स्थापित पुनरुत्थानवादी आंदोलन जो सऊदी अरब का विश्वास बन गया है। सऊदी अरब के उत्तरी इलाके में स्थित नज्द नाम के छोटे से शहर में अब्द अलवहाब का जन्म 1703 में हुआ। इस्लाम की चारों विचारधाराओं में से सबसे सख्त हम्बली विचारधारा के तहत तरबियत हासिल की। अब्द अलवहाब ने कुरान और सुन्नत की ओर लौटने की वकालत की। अब्द अलवहाब शुद्धता, इस्लाम के प्रारम्भ की गहराई की वकालत करते थे। अब्द अलवहाब ने उन प्रथाओं को खारिज किया जो परम्परागत इस्लाम में जायेज़ (मान्य) हो गये थे, जैसे पैगम्बर मोहम्मद स.अ.व. का जन्म दिन मनाना, संतों और बुज़ुर्गों की कब्रों और मज़ारों पर जाना वगैरह।
यूरोप के ईसाई सुधारवादी चिंतकों की तरह अब्द अलवहाब ने खुद को पढ़े लिखे या धर्म का प्रबंधन करने वालों के बजाय उन लोगों के खिलाफ खड़ा किया जो भोले भाले लोगों से धर्म के नाम पर गलत काम करवाते हैं। इनके सुधारवादी जोश ने बहुत से लोगों को विनम्रता, एकता और नैतिकता के इस्लाम की ओर प्रेरित किया जो बराबरी और न्याय पर आधारित था। अगर किसी को एक समानानंतर की ज़रूरत है तो वो शेकर फर्नीचर की खूबसूरत अदायगी और सादगी के बारे में सोच सकता है।
वर्तमान समय के सऊदी अरब का धर्म अब्द अलवहाब का उतना ही ऐहसानमंद है या शायद थोड़ा कम जितना कि 13वीं सदी के इस्लामी राजनीतिक चिंतक इब्ने तैमियह के थे। इब्ने तैमियह का सम्बंध बौद्धीजीविक कट्टरपन की पुरानी परम्परा से था। इब्ने तैमियह उस वक्त मुसलमानों की ताकत और अस्तित्व को लेकर फिक्रमंद थे जब इस्लाम सलीबी जंग के हमलों के बाद संभल रहा था और मंगोलों के हमले की ज़द में था। उन्होंने पाया कि मुसलमानों के बीच मतभेद उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है और कुरान की कई तशरीह (व्याख्या) पर पाबंदी लगाने की कोशिश की। हर एक चीज़ को कुरान और सुन्नत में तलाश करनी थी। कुरान का लफ्ज़ी (शाब्दिक) तशरीह (व्याख्या) करना था। मिसाल के तौर पर जब खुदा कहता है कि खुदा अपने तख्त पर बैठता है तो वो अपने तख्त पर बैठता है। इस तख्त की प्रकृति और इसके मकसद पर कोई बहस नहीं की जा सकती है। लाक्षणिक या सांकेतिक रूप से कोई अर्थ नहीं निकाल सकते हैं।
मैने सऊदी अरब में मदीना युनिवर्सिटी के छात्रों के द्वारा आधुनिक वहाबीवाद के बारे में बहुत कुछ जाना। 70 के दशक के आखीर में जब मैने किंग अब्दुल अज़ीज़ युनिवर्सिटी, जिद्दह के एक रिसर्च सेंटर में काम किया था, तब हम लोग इन छात्रों की सेवाएं अपने अध्ययनों और सर्वे के लिए लिया करते थे। इनमें से कुछ सऊदी अरब के थे लेकिन ज़्यादातर इस्लामी देशों के दूसरे हिस्सों से सम्बंध रखने वाले थे। बिना किसी रिआयत के ये लोग स्कालरशिप पर तालीम हासिल कर रहे थे और इन्हें सऊदी अरब के खज़ाने से तालीम पूरी करने के बाद कम तंख्वाह पर रोज़गार की गारण्टी दी गयी थी। सभी को बतौर दाई (इस्लाम की दावत देने वाला) तरबियत दी जा रही थी जो अपनी तालीम पूरी करने के बाद एशिया और अफ्रीका के साथ ही यूरोप और अमेरिका में दावत के काम के लिए जायेंगे और मस्जिदों, मदरसों और इस्लामी केन्द्रों को चलाएंगे और वहाँ पर तालीम और तब्लीग़ को अंजाम देंगे।
इन लोगों ने क्या सीखा? और ये लोग क्या तब्लीग करने जा रहे है? इन दाई लोगों से मैंने जाना कि आधुनिक वहाबियत में सिर्फ मुसलसल जमानए हाल होता है न तो कोई हकीकी माज़ी होता है और न ही कोई मुताबादिल या मुख्तलिफ मुस्तकबिल का तसव्वुर होता है। और इनका हमेशा जारी रहने वाला ज़मानए हाल माज़ी या कहें कि नबी करीम स.अ.व. के ज़माने या इस्लामी तारीख की इब्तेदाई मुद्दत के एक मख्सूस या बनाये गये माज़ी के साये में रहता है। मुस्लिम सभ्यता के इतिहास/ संस्कृति अपनी महानता, जटिलता और बहुलता के ऐत्बार से ये पूरी तरह गैर मौज़ू है और इसे ज़िल्लत और पतन की ओर ले जाने वाले के तौर पर खारिज किया जाना चाहिए।
इसलिए शायद ये हैरत की बात है कि सऊदी अरब के लोगों की सांस्कृतिक विरासत और मक्का के मुकद्दस मकाम के लिए कोई जज़्बात नहीं हैं।
मदीना युनिवर्सिटी के छात्र अपने सऊदी रहनुमाओं और अपनी विचारधारा के निहायत वफादार थे। जिस वहाबीवाद को इन लोगों ने सीखा था वो कबायली वफादारी की बुनियादों पर तैय्यार किया गया था लेकिन परम्परागत कबायली वफादारी की जगह अब इस्लाम ने ले ली थी। इस इलाके के बाहर रहने वाले सभी लोगों की परिभाषा, काफिर दुश्मनों की थी। इन के दायरे से जो बाहर थे उनमें सिर्फ गैर-मुसलमान ही नहीं थे बल्कि वो सभी मुसलमान भी थे जिन्होंने वहाबियत के साथ अपनी वफादारी का ऐलान नहीं किया था।
काफिरों की सफों (पंक्तियों) में शिया, सूफी औऱ दूसरी विचारधारा के मानने वाले मुसलमान थे। इन दाई लोगों के ज़हनों और सऊदी अरब के समाज में भी आंतरिक या वाह्य, हमारे साथा या हमारे खिलाफ, अंदरूनी या बाहरी, रूढिवादी या विधर्मी का सीमांकन पूरी तरह था।
छात्र मुझे अक्सर बताते थे कि काफिरों के साथ किसी भी तरह का इत्तेहाद, खुद कुफ्र है इसलिए हर किसी को काफिरों के साथ किसी सम्बंध या दोस्ती से दूर रहना चाहिए। इनके यहाँ रोज़गार, इनकी सलाह और इनको मानने से बचना चाहिए और इनके प्रति ज़िंदादिली और मिलनसारी का बर्ताव करने से दूर रहना चाहिए।
सऊदी अरब में भी प्रवासियों के साथ इसी अंदाज़ में बर्ताव किया जाता है। वो अपनी हैसियत के मुताबिक अपने विशेष हिस्सों तक ही सीमित रहते हैं। औरतों के साथ बर्ताव में भी ये सख्ती और बंटवारा स्पष्ट दिखता है। ऐसा नहीं है कि महिलाओं को पूरी तरह हाशिये पर रखा गया है। हर मौके पर महिलाओं की खास और विशेष हैसियत पर ज़ोर दिया जाता है।
सऊदी अरब में सभी मर्द सफेद रंग का कपड़ा बहनते हैं। कड़क इस्तरी की हुई तोब और जलाबियह। बहुत ही सख्त मौसम (आबो हवा) के कारण सफेद प्राकृतिक रंग है। ये सूरज की किरणों को प्रतिकर्षित करता है और बहुत कम गर्मी को अवशोषित करता है। महिलाएं सिर से लेकर पाँव तक कानूनी ऐत्बार से काला कपड़ा पहनती हैं जो सूरज की किरणों के साथ ही गर्मी को भी अवशोषित करता है। महिलाएं फैशन की तरह इस काले कपड़े को ओढ़ती है। मुस्लिम महिलाओं के परम्परागत लिबास या हिजाब को नहीं पहनती हैं बल्कि नकाब पहनती हैं जिसमें से सिर्फ आंखें ही नज़र आती हैं। सऊदी अरब में एक मात्र जगह जहाँ कपड़े की ये नज़ाकत नज़र नहीं आती है वो है मस्जिदे हराम का अहाता जहाँ इस्लाम के परम्परागत हुक्म के मुताबिक महिलाओं को अपने चेहरे को बेनकाब रखना होता है।
शुरुआत में मैं मदीना युनिवर्सिटी के छात्रों के बयानों को इसलिए खारिज कर दिया करता था कि ये हद से ज़्याद जोशीले नौजवानों की डींग होगी। मैं सऊदी अरब के समाज के बारे में अपनी राय के बारे में शक करता था। ब्रिटेन में पले बढ़े और शिक्षा हासिल करने वाले की हैसियत से मैं सोचा करता था कि मैं सऊदी अरब के लोगों को भेदभाव की नज़र से देखता हूँ।
और उन लोगों के बारे में क्या खयाल है जैसे किंग अब्दुल अज़ीज़ युनिवर्सिटी में मेरे दोस्त अब्दुल्लाह नसीफ और समी अंगावी? मेरी अब तक मानवीय, दयालू और अच्छी प्रकृति के लोगों से मुलाकात नहीं हुई थी और अब भी नहीं हुई है। वहाबीवाद इस्लाम की जिस गहराई को फिर से हासिल करना चाहता है वो युनिवर्सिटी के अध्यक्ष नसीफ में काफी थीं और जिसे इंतेहापसंद कहा जा सकता है। अपनी जीवन पद्धति और जिस तरह से लोगों से उसका सम्बंध था, दोनों में नसीफ अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करने वाला शानदार इंसान था। वो एक ऐसे समाज में जो कला और संस्कृति से पूरी तरह खाली था, वो इसमें रह कर भी कला और संस्कृति की कदर करने वाला था। उजडपन और भोंडेपन से घिरे होने के बावजूद उसमें से नज़ाकत और हिकमत बाहर आती थी। उसके इर्द गिर्द जब सख्त रवैय्या, बेमुरौव्वती और दूसरों को हीन भीवना से देखना सऊदी अरब की ज़िंदगी की सामान्य दिनचर्या का हिस्सा बन रहा था उस वक्त भी उसने नरमी और सहिष्णुता के साथ बर्ताव करना नहीं छोड़ा।
सऊदी अरब के वहाबीवाद के वास्तविक आयात के बारे में मुझे नवम्बर 1979 में पता चला। इसी महीने कुछ कट्टर लोगों ने मक्का में मस्जिदे हराम को अपने कब्ज़े में कर लिया।
चांद की मद्धिम रौशनी और खानए काबा का तवाफ कर रहे हज़ारों लोगों के बीच, बद्दू लोगों का एक ग्रुप अपने कपड़ों के नीचे छिपाकर सब-मशीन गन, रायफल, और रिवाल्वर ले आया और हवा में गोलियाँ चलायीं। इन लोगों ने ज़्यादातर नमाज़ियों को मस्जिदे हराम से निकल जाने दिया और फिर मस्जिद के सभी 39 दरवाज़ों को अंदर से बंद कर लिया। 27 साल के उनके लीडर मोहम्मद अलक़हतानी ने खुद के मेहदी होने का ऐलान किया और कहा कि वो इस्लाम को पाक करने आये हैं। ज़्यादातर बाग़ी उतैबियह कबीले से ताल्लुक रखने वाले थे और इनमें यूरोप और अमेरिका के नये मुसलमान भी शामिल थे। ये अलमुशतरी फिरके से ताल्लुक रखते थे और जिनका अकीदा था कि जन्नत में अपने लिये जगह बनाने के लिए अपना पूरा माल और ज़िंदगी मज़हब को वक्फ करनी होगी।
इन लोगों का इल्ज़ाम था कि सऊदी अरब की हुकूमत ईसाई लोगों के साथ सहयोग कर रही है, शिया लोगों के शरीअत के खिलाफ अमल की पुष्टि कर रही है, इस्लाम की एक से ज़्यादा तशरीह से मतभेद को बढ़ावा दे रही है, देश में टीवी और फिल्म को शुरु कर रही है और दौलत की पूजा को बढ़ावा दे रही है। मक्का से पूरी दुनिया का सम्बंध खऱत्म हो गया और मस्जिद को फौज और नेशनल गार्ड नें अपने घेरे में ले लिया, जिनका बुनियादी काम शाही खानदान की हिफाज़त करना होता है। इससे पहले की बाग़ियों को मस्जिद से बाहर निकाला जा सकता उन्हें बाकायदा तौर पर उन्हें मौत की सज़ा दी जानी थी। इस काम की ज़िम्मेदारी देश के सर्वोच्च मुफ्ती व काज़ी शेख अब्दुल अज़ीज़ बिन बाज़ के कांधों पर आयी।
बिन बाज़ नाबीना थे और उन्हें मैंने मुकद्दस मस्जिद में देखा था। उनकी आंखों पर लगा चश्मा हमेशा एक ही रहता था। एक नौजवान छात्र उनके बाये कांधे को पकड़ कर काबा में उनकी रहनुमाई करता था जबकि उनके चाहने वालों का हुजूम उनके दायें हाथ को चूमने की कोशिश करता था। बिन बाज़ के सामने बाग़ियों के सऊदी अरब हुकूमत पर लगाये गये इल्ज़ामात को पढ़ा गया। बागियों के दावे से बिन बाज़ ने पूरी तरह सहमति जताई। उन्होंने कही कि हाँ, एक वहाबी रियासत को काफिरों के साथ कोई सम्बंध नहीं रखना चाहिए। हाँ, किसी भी सूरत में इस्लाम की एक से ज़्यादा तशरीह की इजाज़त नहीं दी जानी चाहिए। हाँ, इस्लाम में टीवी और फिल्म समेत सभी तरह की तस्वीर हराम है। और हाँ, दौलत की पूजा नहीं होनी चाहिए।
सिर्फ एक ही चीज़ जिससे शेख अब्दुल अज़ीज़ बिन बाज़ ने असहमति ज़ाहिर की थी कि ये सब कुछ दरअसल सऊदी अरब में हुआ। इस तरह मस्जिद में सैलाब आया और सभी बाग़ी उसमें डूब गये। मुझे लगता है कि ये बाग़ी कम से कम ईमानदार थे और बेईमान वहाबी रियासत के मुकाबले वहाबियत के असल नुमाइंदे थे।
वक्त के साथ और दुनिया के विस्तृत क्षेत्रों पर इस्लामी इतिहास की जटिलताओं और विविधता को नकार कर, और इस्लाम की विविधता और बहुलवादी व्याख्या को खारिज कर वहाबियत ने इस्लाम को चरित्र और नैतिकता से सम्बंधित शिक्षाओं से अलग कर एक, क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए वाली सूचि वाले धर्म में परिवर्तित कर दिया है। इस बात पर ज़ोर कि जो कुछ भी कुरान के शाब्दिक अर्थ और सुन्नत में नहीं मिलेगा वो कुफ्र है और इस्लाम के दायरे से बाहर है। और इस नज़रिये को पूरी तरह लागू करने के लिए वहशियाना ताकत और ज़बरदस्त सामाजिक दबाव बनाना सर्वाधिकारवादी (अधिनायकवादी) सरकार की ओर इशारा करता है।
अधिनायकवादी समाज में चीज़े बहुत सुस्त रफ्तार और रहस्यमय तरीके से आगे बढ़ती हैं। मैं गृह मंत्रालय के दफ्तर में सऊदी अरब से बाहर जाने के लिए वीज़ा लेने का इंतेज़ार कर रहा था। लगभग दो बजे जब सऊदी अरब में सभी दफ्तर बंद हो जाते हैं तो उस वक्त वीज़ा सेक्शन की खिड़की खुली और उससे एक हाथ बाहर निकला जिसमें एक फाइल थी और उसने ये फाइल हवा में उड़ा दी। एक शख्स जो छाया में बड़े सब्र के साथ अपनी बारी का इंतेज़ार कर रहा था, उसने फाइल उठायी और इस फाइल पर सरसरी नजर दौड़ाई और मुत्मइन नज़रों के साथ तेज़ी से अहाते से बाहर निकल गया। कुछ पलों बाद हाथ फिर बाहर आया और एक फाइल हवा में उछाल दी गयी। एक शख्स ने उसे उठाया और वहाँ से चला गया। ये अमल कई मिनटों तक जारी रहा।
आखिर में हाथ एक बार फिर बाहर नज़र आया। शेख अब्दुल्लाह जिनके साथ मैं वहाँ गया था, युनिवर्सिटी के कर्मचारियों के लिए वीज़ा का इंतेज़ाम करने की ज़िम्मेदारी इन्हीं की होती है। हाथ देखकर वो उछल कर खिड़की के पास आये। उन्होंने फाइल को खोला और एक सरसरी नज़र डाली। हैरानी से देखते हुए मैने उनसे पूछा कि, ‘क्या मुझे सऊदी अरब से जाने का वीज़ा मिल गया?’
शेख अब्दुल्लाह ने जवाब दिया कि नहीं अभी नहीं, आपको अभी वीज़ा नहीं मिला है लेकिन डाक्टर नसीफ के खत का आदर किया गया है।
मैंने पूछा कि, ‘इसका क्या मतलब है?’
मुझे नहीं मालूम मुझे इस तरह का पहले कोई तजुर्बा नहीं है, लेकिन मुझे लगता है कि कल आप सऊदी अरब छोड़ सकते हैं।
मैं सऊदी अरब को छोड़ पाऊ इससे ज़्याद मैं कुछ और नहीं चाहता। मैंने शेख अब्दुल्लाह से फाइल ली, इसमें मेरे पासपोर्ट के साथ एक खत नत्थी था।
इस वक्त मेरे मन में एक अजीब खयाल था। सभी फाइल एक जैसी नज़र आती है और किड़की के पीछे का शख्स किसी को कुछ भी इशारा नहीं करता हैं ऐसे में तुम्हें कैसे मालूम चलता है कि कौन सी फाइल को लपकना है।
शेख अब्दुल्ला इस सावल पर थोड़ा चिढ़ गया। मैं तुम्हें सब कुछ बता सकता हूँ। अगर तुम ये खत लेकर एयरपोर्ट पर जाओगे तो वो लोग तुमको जाने की इजाज़त दे देंगे। खल्लास, उसने कहा और अपने हाथों को झाड़ते हुए दुबारा उसने खल्लास कहा- सब खत्म। मेरे जवाब का इंतेज़ार किये बिना ही शेख अब्दुल्ला अपनी गाड़ी में बैठा और वहाँ से चला गया।
अगला दिन रमज़ान का पहला दिन था। शहर बल्कि पूरा सऊदी अरब रात बर जागता रहा। इस पवित्र महीने में पूरी तरह अलग और नई जीवन पद्धति उभर कर सामने आती है। दिन रात बन जाते हैं। जैसे ही सेहरी के समय खत्म होने के संकेत के रूप में तोप दागी जाती है पूरा शहर सो जाता है, सड़के सुनसान हो जाती हैं। दफ्तर, दुकानें और कारोबारी संस्थान बंद हो जाते हैं और सिर्फ दस बजे से एक बजे के बीच कुछ घण्टों के लिए खुलते हैं। शहर सूरज ढलने के बाद की ज़िंदगी के संकेतो को दिखाना शुरु कर देता है।
जैसे ही अफ्तार के वक्त का संकेत बताने वाली तोप दागी जाती है पूरा शहर जोश से भर जाता है और सक्रिय हो जाता है। आसमान छूती इमारतें जगमगा उठती हैं और सड़कों पर जाम लग जाता है और गली कूचे लोगों की भीड़ से भर जाते हैं और ये लोग अगले दिन के लिए दुकानों से खरीदारी करते हैं। दफ्तर और दुकाने फिर रात दस बजे खुल जाते हैं और सुबह के दो बजे के बाद ही ये बंद होते हैं। कुछ रेस्टोरेंट और दुकाने सूरज उगने के पहले तक खुली रहती हैं और अपना सामान बेचती है।
ये वाकई हैरान कर देने वाला है कि कैसे सऊदी अरब के लोग आसानी और तेज़ी के साथ रात में जागने और दिन में सोने की तब्दीली से आरास्ता हो जाते हैं। मक्का के बागियों के द्वारा घेरे जाने के बाद पिछले रमज़ान में मैने इस्लाम में स्थायित्व और परिवर्तन पर गौर करना शुरु किया। मैने इस्लामी सभ्यता के भविष्य पर लिखना शुरु किया, कि एक इस्लामी समाज कैसा होना चाहिए और कैसा हो सकता है, के बारे में अपना दृष्टिकोण ज़ाहिर करने की कोशिश थी।
मेरी दलील है कि कोई भी चीज़ हमेशा समकालीन नहीं रहती है। इस्लाम को फिर से जोड़ने, नये सिरे से समझने, एक जमाने से दूसरे ज़माने, जरूरत के मुताबिक, किसी स्थान की विशेष भौगोलिक ज़रूरत और समय की स्थिति के मद्देनज़र समझा जाना चाहिए। जो तब्दील होती है वो है साबित कदम होने की हमारी समझ है। और जैसे ही इस्लाम के बारे में हमारी समझ बढ़ती है तो हम पाते हैं कि विश्वास के मामलों को छोड़कर एक अहद का इस्लाम दूसरे अहद के इस्लाम से बहुत मुताबिकत नहीं रखता है। मेरे अनुसार वहाबीवाद ने इस्लाम में दो अध्यात्मिक आफतों को परिचित कराया है।
पहली, तशरीह के बारे में हमारे नज़रिये के कामिल हवालेः कुरान और पैगम्बर मोहम्मद स.अ.व. के जीवन औऱ उनके हवालों की व्याख्या को बंद करके इसने मोमिनो से वसीला को छीन लिया। किसी का भी एक जीवंत और हमेशा रहने वाले पाठ से सिर्फ एक अर्थ सम्बंध हो सकता है। पाठ को समझने और नये अर्थ तलाश करने के ताल्लुक के बिना मुस्लिम समाज को बर्बाद ही हो जाना है।
अगर सब कुछ मुकर्र है तो कुछ भी नया शामिल नहीं किया जा सकता है। एक मुर्दा दाढ़ी वाले इंसान के मुताबिक अगर सब चीज़ों को मानने लायक के फार्मूले में तब्दील किया जा सके तो अक्ल, इंसानी समझ बेवजह रुकावट बन जायेंगे।
दूसरे अगर नबी करीम स.अ.व के सहाबा के साथ ही नैतिकता और चरित्र अपने चरम बिंदू या खत्म के समीप पर पहुँच गये हैं तो वहाबीवाद जो बाद में इस्लामपसंदी के नाम से जाना गया, वो इंसानी चिंतन और नैतिकता के विकास की धारणा से इंकार करता है, तो ये यकीनी तौर पर मुस्लिम सभ्यता को लगातार पतन के तय रास्ते पर ले जाता है।
ज़ियाउद्दीन सरदार, लेखक और ब्रॉडकास्टर हैं और खुद को ‘क्रिटिकल पालीमैथ’ कहते हैं। वो डिस्परेटली सीकिंग पैराडाइज़ समेत 40 से ज़्यादा किताबों के लेखक हैं। वो दि सिटी युनिवर्सिटी, लंदन के स्कूल आफ आर्ट्स में विज़िटिंग प्रोफेसर हैं। और योजना, नीति, और भविष्य के अध्ययन के मासिक जर्नल ‘फ्युचर’ के सम्पादक हैं।
स्रोतः न्यु स्टेट्समैन
उद्धरणः डिस्परेटली सीकिंग पैराडाइज़ः जर्नी आफ ए स्केप्टिकल मुस्लिम (ज़ियाउद्दीन सरदार)। जो इसी माह ग्राण्टा बुक्स ने प्रकाशित किया है।
URL for English article: http://newageislam.com/NewAgeIslamBooksAndDocuments_1.aspx?ArticleID=6299
बहुत बढिया शोध है, वहाबिज्म पे.
क्या बकवास लेख है, लेखक क्या कहना चाहता है मालूम नही . एक आम बात लिखी है के साउदी अरब मे क्या होता है इस का इस्लाम के पतन से क्या मतलब.
हा इसका पतन तै है ये अपने अंत की तरफ़ जा रहा है इसकी सुरुआत हो चुकी है like emoticon
Islam को तो अभी सिर्फ 1400 साल हुए है फिर भी आधी दुनिया मुसलमान है
हिन्दू धर्म के बारे में बता 5000 साल हो गए फिर भी आज तक सिर्फ भारत नेपाल में ही क्यों अटक गया
तेरा धर्म पुराना है पहले उसकी कमियों को दूर करने के बारे में जवाब दे
ये ले सवाल
ओर कितना गर्व से कहोगे कि हम हिन्दू हे,अब तो ये सब देख सुनकर हम भी गर्व से कहते हे तुम हिन्दू ही हो..क्यूकि-
1- सती प्रथा सिर्फ़ हमारे यहाँ होती थी, बच्चे चाहे भीख माँगे ये कोठे पर पलें, पर पत्नी को पति के साथही जलना सिर्फ हिन्दू धर्म मे ही होता था,
2- जन्म से छोटा बड़ा जाति भेदभाव पढ़ेंगे या नाली साफ करेंगे, ये भी जन्म से अधिकार सिर्फ हिन्दू धर्म मे ही तय होता हे
3- हमारे ही हिन्दू धर्म के 33 करोड़ देवी देवताओ की अबादी ने पुष्पक विमान का अविष्कार तो किया पर कंड़ोम का अविष्कार करना भूल गयेथे,
4- पत्थरो को भगवान समझ के पूजने के बाद उन्ही भगवान को नदी मे फेंक आना ऐसी आस्था भी सिर्फ हमारे हिन्दू धर्म मे ही हे,
5- अगर आप पुजारी हैं तो मज़े ही मज़े, दलितों की कन्याओं को पसंद करके उन्हे मंदिर मे देवदासी प्रथा के नाम पर रखकर उनका यौन शोषण सिर्फ हिंदू धर्म मे ही कर सकते है,
6- दहेज प्रथा के नाम पर लड़कीयो को घर से दरबदर करना जैसा महान कार्य सिर्फ हमारे हिन्दू धर्म मे बड़ी सादगी से होता है,
हसन खान जेी , मुस्लिम मे किस्को शमिल करेन्गे जरा वहावेी मुस्लिम से पुच लिजिये कि वह् कित्ने सच्हे मुस्लिम कि सन्ख्या मानते है , क्या अप्कि नजर मे शिया मुस्लिम और अहम्देी मुस्लिम आदि शामिल् है कि नहेी !
सारे मुस्लिमो को मिला लिजिये फिर भेी दुनिय किअबादेी के २२-२३ % मुस्लिम हो सक्ते है यानेी ७७- ७८ % गैर मुस्लिम आज भि है
दुनिया केी आबादेी के ५०% से ज्यादा मुर्तेीपुजक् आज भेी है , इस्मे हिन्दु बौद्ध इसाई , मुस्लिम भेी शमिल है बहु सन्ख्यक आज भि मुर्तिपुजक है आज दुनिया केी आबादेी ७.३ अरब केी है !
सतेी प्रथा मुग्लो के समय कुच थेी , जो अब नहि है और महा भारत् युद्ध मे कोइ भेी पत्नि सति नहि हुयि थि मुगलो के पुर्व भि बहुत से युद्ध हुये थे {अशोक चानक्य् आदेी} उस्मे भेी कोइ पत्नि सति नहेी हुई थेी !
जति अदि महा भरत युद्ध के बाद हुयि इस्के पुर्व नहेी सन्त रविदास जि और वल्मिकि जि को भि समज विद्वन आज भेी मान्ता है !
दर्गाहो मे शेीश ज्हुकाने वाले, काबा पात्थर को चुम्ने वाले, सिर्फ उसि दिशा मे नमाज पधने वाले भेी एक् तरह से पत्थर् मे हेी ज्हुक्ते है ,
सिर्फ ३३ देव्ता कहे जाते है, वह भेी अपुज्य है !
देव दासेी प्रथा बहुत् कम है जो भेी है वह भि बुरेी कहेी जायेगेी ! इसलाम भि युद्ध बन्देी महिलओ से उन्मुक्त सेक्स को स्विकार कर्त है है उस्को आप क्या कहेन गे ! मुहमम्द जिन ने भेी “बिबियो के भन्दार” होने के बाद भेी मारिया कब्तेी से बागैर निकाह के सेक्स किय था और बच्ह भि पैदा किया था ,अफ्सोस अन्तिम रसुल का दावा कर्ने के बाद भि अप्नि सन्तान् कि मौत अपनेी आन्खो के साम्ने देख्ने को मज्बुर रहे !
उन्के शगिर्द कहे जाने वाले कई करोद मुस्लिमो को ऐसा दुख भेी नसेीब नहि हुआ है फिर उन्को किस वजह से यह दुख मिला क्या आप बत्लायेन्गे ?
ये बहुत ही बोरिंग फेसबुकिया टीवितरिया बाते जुमले हे जिन्हे पढ़ कर मेरे तो सर में दर्द होता हे सौ बात की एक बात हसन साहब की आपको मुझे और उपमहादीप के साठ करोड़ मुस्लिमो को रहना होगा 80 – 90 बहुदेववादी अवतारवादी मूर्तिपूजक हिन्दुओ के साथ ही जब साथ रहना ही हे तो इन तानो तिश्नो में समय मत बर्बाद कीजिये ये तो निठल्ले ठुल्लो के काम हे आप तो समझदार आदमी हे ऐसी बातो में क्यों पड़ते हे भला ?
भाग-1…..
हसन साहब कुछ देर के लिये मान लिया कि सनातन धर्म सबसे फालतू है और अब आपकी बारी अपने मजहब की बेहतरी पर अपनी राय रखने की , ले…दे… जैसे शब्दो के इस्तेमाल से फैमिली बॅकग्राउंड के दर्शन हो जाते है इसलिये लीजिये आपके मजहब पर कुछ पुराने सवाल जिन पर आपकी बेशकीमती और ईमानदार (इस शब्द के लिये माफी) राय का !!
आपने हिन्दू धर्म पर इतने सवाल उठाये आपकी मेहनत को सलाम !! पर आप ऐसा करने वाले पहले मुस्लिम नही है…..हमारा अब तक का अनुभव यही रहा है कि मुसलमान सिर्फ दूसरे के मजहब की कमिया गिनाने और उन पर खुल कर डिस्कसन करने तक ही टिका रहता है और जब भी उससे इस्लाम के बारे मे सामने वाला सवाल करता है तो वह मैदान छोड़ कर भाग जाता है 🙂 आशा है आप ऐसा नही करेंगे और अपने जिस मजहब पर आपको इतना भरोसा है उसके बारे मे हमारे कुछ बुनियादी सवालो पर अपना जवाब अवश्य देंगे …..लीजिये सवालो का इस्लामिक पेक…..
1-अल्लाह एक है वही सब करता है तो फिर अल्लाह को 1,20,000 फ़रिशतो की जरूरत क्यो पड़ती ह्रे ??
2-उन 1,20,000 फ़रिशतो के बारे मे कही कोई जानकारी क्यो नही मिलती ??
3-अल्लाह निराकार है (बिना शरीर वाला) तो उसके इबादत के लिये मस्जिद की जरूरत क्यो पड़ती है ??
4- मुसलमानो मे चार-2 शादिया करने का नियम आज भी क्यो जारी है?? …..जारेी हे….
भाग-2…..
5-अल्लाह ने सारी कायनात (स्रष्टि) बनाई है सारी दिशाये भी…तो फिर नमाज़ एक विशेष दिशा की तरफ मूह करके ही क्यो पढी जाती है ??
6-क़ुरान को आसमानी किताब क्यो कहते है ?? इसे किसने लिखा था?? इसे सिर्फ अरबी भाषा मे ही क्यो लिखा गया था ?? क्या अल्लाह अरबी मुसलमानो के अलावा बाकी मुसलमानो को मुसलमान नही मानता ??……
7-इस्लाम के नाम पर खून खराबा करके निर्दोधो की जान लेने वाले आतंकवादियो और आम मुसलमानो की क़ुरान क्या एक ही है ?? अगर एक ही है तो आतंकवादी कैसे उसी क़ुरान को पढ कर हत्याए करते है और बाकी मुस्लिम उसी क़ुरान के हवाले से शान्ति की बाते करते है ?? क्या एक ही क़ुरान दो अलग-2 लोगो के हिसाब से अलग अलग दिखती है ??.
8-क़ुरान को सातवे आसमान से कौन और किस यातायात के जरिये लाया गया था ??
9-इस्लाम मे बुतपरस्ती हराम है तो फिर हज़रत निज़ामुद्दीन, अजमेर शरिफ की दर्गाहो.के पत्थरो पर मुसलमान क्या करने जाता है ?? दफनाने के बाद पत्थर की क़ब्र क्यो बनाते हो ?? काबा का काला पत्थर भी तो बूत ही है, ताजमहल भी बूत ही है :)……
10-इस्लाम किसी अवतार को नही मानता (अच्छी बात है) , मगर फिर मोहम्मद साहब कौन है ?? और एक बार नही बल्कि अनगिनत बार मुस्लिम ब्लॉगर्स मोहम्मद साहब को हिन्दुओ के अवतारो जैसा साबित करनेके तुक्के भिडाते नज़र क्यो आते है 🙂
11-अल्लाह निराकार (बिना शरीर वाला) और उसका नबी मोहम्मद साहब साकार (शरीर वाले) ?? ऐसा कैसे संभव है ??…..जारेी हे….
भाग-3….
12-अल्लाह एक, नबी भी एक, क़ुरान भी एक और इस्लाम की शिक्षा भी एक !! तो फिर मुसलमान आपस मे ही इतनी मार-काट क्यो करते है ?? दुनिया मे मुसलमान सबसे जयदा मुसलमान के हाथो ही क्यो मरते है ??
13-अल्लाह अगर सर्वशक्तिमान है तो उपर से ही सभी को मुसलमान पैदा करके क्यो धरती पर नही भेजता ?? मुसलमानो को गैर मुस्लिमो को मुसलमान बनाने की मुहिम क्यो चलानी पड रही है ?? अल्लाह इस काम को खुद करे ताकि बेमतलब का खूनखराबा और निर्दोषो की जान बचाई जेया सके ??
14-अजान पूरी ताकत स चिल्ला कर लाउद-स्पीकर से ही पढी जाये ऐसा आपके किस धर्मग्रंथ मे लिखा है ? (हम हिन्दुओ द्वारा रात को लाउद-स्पीकर इस्तेमाल् का भी खुला विरोध करते है…..जारेी हे….
15-खतना करने की हिदायत आपके कौन से धर्मग्रंथ से मिलती है , उस आयत का नंबर बताइये ??…………..
16-यहा की लाइफ को जहन्नुम बना कर “पता नही कौन सी दूसरी दुनिया” की गलतफहमी मे लगे रहते है ?? किसी ने देखा है 72 हूरो को ?? खयाली पुलाव के चक्कर मे क्यो दुनिया को जहन्नुम बना रहे हो ????………….
ये उस दौर के कुछ बेहद बुनियादी कुछ सवाल है अगर ईमानदारी से डिस्कसन करेंगे तो अभी इनमे उसी दौर के कई सवालो की लिस्ट जुड़नी बाकी है….आज के दौर वाले आधुनिक इस्लाम और वर्तमान मे मुसलमानो की हकीकत पर भी लिखा जायेगा अगर आपने मौका दिया तो….गुडलाक
अफ़ज़ल साहब, हयात भाई और इस साइट पर मौजूद बाकी मुस्लिम पाठको से हम क्षमा चाहते है मगर जिस तरह ये सनातन धर्म पर सवाल पूछने का हक रखते है वैसी ही उत्सुकता दूसरो को इनके मजहब के बारे मे भी हो सकती है…..
असल सवाल अभी बहुत सारे बाकी है है ये कुच् सवाल सिर्फ ट्राइयल पेक है , आशा है आप इन सवालो पर अपनी राय जरूर रखेंगे ….शुक्रिया
Apke sabhi savalo क javab dene ko me ready but mere samne aaiye likh smjhana bHut time ग़ jyga OK mera contact number ye hai ८००६४४१८०८इस number PR call kro fir me apke savalo क javab foga
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हसन ख़ान साहब, दरअसल किसी भी मज़हब के समयावधि और अनुयायी ही श्रेष्ठता का पैमाना नही होती. यक़ीनन इस्लाम एक महान अवधारणा है, लेकिन संख्या मे जाएँगे तो फिर कौन मुसलमान है, इस्पे ही बहस हो जाएगी. और ये बहस बहुत बड़ी है, इसी वजह से इस्लाम और फिर मैं ज़ोर देके कह रहा हूँ की इस्लाम के ही नाम पे, अनेको संगठन, उन लोगो की हत्या कर रहे हैं, जो अपने को मुसलमान कह रहे हैं. इस्लाम तो जो 1300 साल पहले था, वोही आज है, लेकिन अहमदी जो, 1980 तक मुसलमान थे, अचानक गैर मुस्लिम हो गये. यही चीज़ अब शिया के लिए भी धीरे धीरे आ रही है. पाकिस्तान जिन्ना शिया ने बनाया, लेकिन अब कई सुन्नी, उसे काफिरे आज़म, तो कुछ उसे क़ायदे आज़म कहते हैं. धीरे धीरे देवबंदी और बरेलवियो को लेके भी सुगबुआहट चालू हो गयी. इसलिए कौन मुसलमान है, इसका फ़ैसला नही हो पाया है. एकेश्वरवाद ही इस्लाम है तो यहूदी एक और निराकार ईश्वर को ही मानते है, लेकिन मुसलमानो की उनसे शत्रुता है, इससे बढ़कर इस्लाम अगर मुहम्मद्पन्थ है तो उनके जीवन के किस हिस्से को प्रासंगिक मानना है, किस को नही, ये भी विवाद का विषय है.
दूसरी बात 5000 साल अगर मुर्तिपुजक और बहुशवरवादी धर्मावलंबी पूरी दुनिया मे छाए रहे तो इतनी अवधि और इतना अनुपात तो अभी किसी भी प्रकार से मुस्लिम संख्या से नही है.
बाकी, जिन बुराइयों का आप ज़िक्र कर रहे हो, वो सही है. लेकिन, उस व्यक्ति से क्या बहस करना, जो इन बुराइयो को उसके धर्म का हिस्सा ही नही मानता. अब ये हिंदू धर्म की परिभाषा भी तो स्पष्ट नही. सब झोलझाल है. जो लोग इन कुरीतीयो को उनकी आस्था का हिस्सा नही मानते, उनसे बहस करने का कोई फ़ायदा नही. लेकिन हिंदुत्ववादियो से ये प्रश्न तो पूछा ही जाना चाहिए कि, हो हल्ला तो कर रहे हो, हिंदू राष्ट्र का, लेकिन इसकी परिभाषा क्या है?
कभी तो अखंड भारत की बात करते हैं, कभी उस अखंड भारत के सभी लोगो को हिंदू मानते है, लेकिन कभी उनमे से कुछ लोग सिर्फ़ मुस्लिम हो जाते हैं. अपने को अंध-विश्वाशी और पाखंडी नही मानते. लेकिन 1987 मे जो आख़िरी सती हुई, उसके समर्थन मे उतरे हज़ारो लोगो मे हर व्यक्ति हिंदुत्ववादी ही था. ये वीडियो क्लिप देखो.
https://www.youtube.com/watch?v=MpiAUHLzYD0
हसन साहब अब अपने मजहब के बारे मे कुछ फरमाना नही चाहेंगे हुज़ूर 🙂
भारत एक देश है और अगर एक देश मे कई अलग-2 धर्मो के लोग रहते है और अगर वे अपने अलावा दूसरे धर्म वालो की सामाजिक और धार्मिक बातो मे अपनी नाक नही घुसाते तो समस्या क्या है ?? मगर समस्या तब होती है जब कुछ लोग जिनको ना आर्थिक हैसियत को उठाने से मतलब है और ना ही सामाजिक ताना-बाना बेहतर बनाने मे …..पर अफसोस की बात है कि ऐसे कुछ लोगो की बातो मे दूसरे आ क्यो जाते है ?? …..
किसी कट्टरपंथि मुसलमान ने एक फालतू सी लाइन बोली “इंशा अल्लाह हिन्दुस्तान मे इस्लामी हुकूमत होगी” और मुसलमानो की तरफ से कही कोई विरोध नही ?? आखिर एक आम मुस्लिम की जिंदगी मे इस्लामी हुकूमत होने से क्या फर्क आयेगा ?? जहा इस्लामी हुकूमत है वहा ना सामाजिक आज़ादी है और ना ही धार्मिक, फिर क्यो मुसलमान ऐसे लोगो की मुखालफत नही कर पाते ??…..
कट्टरपंथि हिन्दू ने एक फालतू सी लाइन बोली “देश को हिन्दू रास्ट्र बनायेंगे” पर उससे आर्थेक, सामाजिक, सामरिक और व्यवसायिक बदलाव कैसे आयेंगे के बारे मे सोचे बगैर लोग खुश होने लगते है ?? देशके बाहर कोई भी भारतीय मुस्लिम और भारतीय हिन्दू नही बल्कि एक ही नज़र से देखता है “इंडियन” और वह इमेज ऐसी नही है जिस पर गर्व किया जा सके फिर न्यूज़
आज कितने मुसलमान हैं जो सही मायनो वहाबी बनने के लिए तैय्यार हैं ? कितने मुसलमान हैं जिन्हें गैरमुस्लिमों से कोई वास्ता नहीं रखना स्वीकार है ? कितने मुसलमान हैं जो गैरमुस्लिमों की कंपनीयों मे काम नहीं करने और उनसे कोई व्यापारिक रिस्ता नहीं रखने के लिए तैय्यार हैं ? कितने मुसलमान गैरमुस्लिमों से दोस्ती नहीं रखने और गैरमुस्लिमों की कोई मदद नहीं लेने को तैय्यार हैं ? कौन कौन है जो गाने सुनना, टीवी और फिल्म देखना बंद कर देंगे ? कितने लोग हैं जो मजारो और दरगाहों में जाना बंद कर देंगे ? कितने मुसलमान हैं जो पश्चिमी पौषाक पहनना बंद कर सकते हैं ? कितने लोग हैं जो रोज पाँच वक्त नमाज पढ़ते हैं? ये जरूरत के हिसाब से कभी कट्टर और कभी सेक्युलर बनना केवल ढोंग है ।