दो महान परम्पराओं का प्रतिनिधित्व करने वाले इस्लाम और हिंदू धर्म दोनों एक हज़ार से अधिक बरसों से मौजूद हैं। इन दोनों धर्मों के बीच के सम्बंधों को समझना बहुत अहम है। इन दोनों के सम्बंधों के विषय पर दो अलग अलग राय पाई जाती हैं। एक राय ये है कि ये दोनों परंपराएं एक दूसरे से बहुत समान हैं। एक बार मुझे एक हिंदू विद्वान से मिलने का मौक़ा मिला जिन्होंने बड़े उत्साह के साथ कहा, “मैं इन दोनों धर्मों के बीच कोई अंतर नहीं पाता, क्योंकि जब मैं कुरान पढ़ता हूँ तो ऐसा लगता है कि गीता पढ़ रहा हूँ और जब गीता पढ़ता हूँ तो ऐसा लगता है कि कुरान पढ़ रहा हूँ।” लेकिन ये समस्या का अत्यधिक सरलीकरण है। और मुझे नहीं लगता कि ये धारणा शैक्षिक जांच पर खरी उतरेगी।
और इस मुद्दे पर दूसरी राय ये है कि इस्लाम और हिंदू धर्म दोनों एक दूसरे से बहुत अलग हैं और दोनों एक दूरसे को लेकर ज़बरदस्त बहस करते हैं। ये धारणा खासकर ब्रिटिश कार्यकाल के दौरान भारत में आम थी और उस समय अपने चरम पर पहुंच गई।
बौद्धिक विकास के संदर्भ में दोनों धर्मों की खूबियों की समीक्षा बौद्धिक और अकादमिक रूप से अधिक उपयोगी होगी। इस तरह का विकास सामाजिक सम्पर्क और बौद्धिक आदान प्रदान के परिणाम स्वरूप ही हो सकता है। इस बिंदु को स्पष्ट करने के लिए मैं कुछ ऐतिहासिक उदाहरणों की चर्चा करना चाहूंगा। जवाहर लाल नेहरू ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘The Discovery of India’ में लिखा है कि जब अरब हिंदुस्तान आए तो वो अपने साथ एक शानदार संस्कृति लेकर आए। इतिहास उनके इस बयान की पुष्टि करता है।
अरब 7वीं और 8वीं सदी में हिंदुस्तान आये थे। उस समय भारत में अंधविश्वास का वर्चस्व था। ज़्यादातर हिंदुस्तानी प्रकृति की पूजा करते थे। उनका विश्वास था कि सितारों से लेकर ग्रहों तक, नदी और पेड़ तक प्रकृति में दिव्य हैं। इस्लामी आस्था के अनुसार सृष्टिकर्ता केवल खुदा है और पूरा ब्रह्मांड उसकी रचना है। ये विचारधारा उस समय के हालात के लिए क्रांतिकारी थी। इसने भारतीय समाज को वैज्ञानिक सोच से परिचित कराया और भारतीयों की मानसिकता में बदलाव पैदा किया। इस विचारधारा से परिचय के बाद भारतीयों ने प्रकृति की पूजा करने और इसे दिव्य समझने के बजाए प्रकृति का अध्ययन करने की कोशिश की।
भारत में इस्लाम के आगमन का दूसरा प्रभाव वैश्विक भाईचारे से परिचित होना था। उस समय भारतीय समाज में जाति व्यवस्था का वर्चस्व था। समानता की इस्लामी अवधारणा ने काफी हद तक इस व्यवस्था में परिवर्तन पैदा किया। इस इस्लामी अवधारणा के योगदान की समझ को डॉ. तारा चंद की 1946 में लिखी किताब “The Influence of Islam on Indian Culture” से प्राप्त किया जा सकता है।
इन मिसालों से हम भारतीय समाज पर इस्लाम के सकारात्मक और स्वस्थ्य प्रभाव को समझ सकते हैं। आइए अब हम भारतीय मुसलमानों के लिए हिंदू धर्म के योगदान पर एक मिसाल पर नज़र डालते हैं। खुद को उकसाये जाने के बावजूद खुद को उकसाने की इजाज़त न देना इस्लाम की एक ऐसी शिक्षा है जो भुला दी गयी है। मैंने इस शिक्षा की एक खूबसूरत मिसाल भारत की महान आत्मा स्वामी विवेकानन्द के जीवन में पाई है।
उनके दोस्तों में से एक उन्हें आज़माना चाहते थे। इसलिए उसने स्वामी जी को अपने घर पर आमंत्रित किया। जब स्वामी जी उसके घर पहुंचे तो उन्हें एक कमरे में बैठने के लिए कहा गया, जहाँ एक मेज़ के पास विभिन्न धर्मों की पवित्र किताबें एक पर एक करके रखी गईं थीं। हिंदू धर्म की पवित्र पुस्तक भगवत गीता को सबसे नीचे रखा गया था। और अन्य धार्मिक किताबें इसके ऊपर रखी गई थीं। स्वामी जी के दोस्त ने उनसे पूछा कि वो इस पर क्या कहेंगे।
ये स्पष्ट रूप से स्वामी जी के लिए अपमानित करने वाला होना चाहिए था लेकिन चिढ़ने के बजाय वो सिर्फ मुस्कुराए और कहा “वास्तव में नींव बहुत अच्छी है” ये घटना इस बात की खूबसूरत मिसाल है कि अगर कोई व्यक्ति चिढ़ने से इंकार कर दे तो वो इतना ताक़तवर हो जाता है कि किसी भी नकारात्मक स्थिति को सकारात्मक स्थिति में बदल सकता है। इसके अलावा बुखारी में एक हदीस है, जो हमें नबी सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की सामान्य नीति के बारे में बताती है। पैगम्बर सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम की बीवी आएशा सिद्दीक़ा कहती हैं कि “जब कभी नबी सल्लल्लाहुब अलैहि वसल्लम को ऐसी किसी स्थिति का सामना करना पड़ा और उन्हें दो रास्तों में से किसी एक का चयन करना पड़ा तो उन्होंने हमेशा कठिन रास्ते के बजाय आसान रास्ते को चुना।”
इस सिद्धांत के सफलतापूर्वक पालन की एक मिसाल महात्मा गांधी के जीवन में भी देखी जा सकती है।1947 से पहले के समय में भारत ब्रिटिश सरकार से अपनी आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहा था। उस समय भारतीय लीडरों के पास हिंसक गतिविधियों और शांतिपूर्ण विरोध के दो रास्ते मौजूद थे। गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार के साथ हिंसक संघर्ष से परहेज़ किया और शांतिपूर्वक विरोध का रास्ता चुना। वो बिना खून खराबे के बड़ी सफलता प्राप्त करने में सक्षम थे।
महात्मा गांधी द्वारा पेश की गई ये मिसाल इस्लामी सिद्धांतों का एक बहुत अच्छा उदाहरण है। मेरे मुताबिक़ धर्मों में मतभेद बुराई नहीं बल्कि अच्छाई है। हमें सिर्फ सकारात्मक मन के साथ मतभेद को स्वीकार करने की ज़रूरत है ताकि हम एक दूसरे से सीख सकें और दुश्मन के बजाय दोस्त की तरह जीवन बिता सकें। जीवन सहयोग और सहअस्तित्व का नाम है, और विभिन्न धर्मों के बीच सम्बंध इस सिद्धांत की मान्यता पर आधारित होने चाहिए।
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http://www.newageislam.com/spiritual-meditations/maulana-wahiduddin-khan/islam-and-hinduism/d/13125
हिन्दू धर्म हो या इस्लाम या अन्य कोई और धर्म !धर्म की मुख्य भूमिका सृष्टि के सम्पूर्ण प्राणियों के रक्छण पोषण हित सम्बर्द्धन मैत्री और सह असितत्त्व की होनी चाहिए !किसी ज़माने में भले ही धर्म में हिंसा शामिल रही हो किन्तु आज हिंसा युक्त धर्म की आवश्यकता नहीं है !`अब विश्व के अधिकाँश देशों में मुसलिम देशों को छोड़ कर प्रजातंत्र है !और प्रजातांत्रिक व्यबस्था में नागरिक सुरक्षा का अधिकार धर्म में वर्णित नियमो कानूनों के आधार पर नहीं होता है !इसीलिए सभी प्रकार के धार्मिक सामाजिक मसले लोकतान्त्रिक कानूनो से ही स्वतंत्र निष्पक्छ न्यायपालिका द्वारा निर्णीत होते हैं !किन्तु दुर्भाग्य वस मुसलमान और मुसलिम देश कुरान में बर्णित कानून को ही खुदा का कानून मानकर उस पर अमल करने पर जोर देता हैं !इसीलिए विश्व में जहाँ कहीं भी मुसलमान ज्यादा संख्या में है !वहां वह उस देश के अन्य निवासियों से अलग थलग पड़ जाता है !और अपना मुसलिम कोड लागू करने का प्रयत्न करता है !यही कारण हैं की पश्चिमी देशों या अन्य देशों में रहने वाले मुसलिम युवा युवती इस्लामिक संगठन और बोको हराम जैसे संगठनो में शामिल हो रहे हैं !और मुसलिम देशों में जहाँ इस्लामिक कानून लागू हैं !वहां तो दूसरे धर्मावलम्बियों के लिए अपने धर्म के पालन के लिए कोई गुंजायश ही नहीं है !भले ही आत्तंकबाद का धर्म से कोई सम्बन्ध ना हो !किन्तु इस्लामिक संगठन जैसे आत्तंकवादी संगठन तो इस्लाम के नाम पर ही हत्या कर रहे हैं !इसलिए युग की मांग हिंसा रहित धर्म की है !सभी धर्मो को अपने धर्म ग्रंथो से तलवार और बम तथा सर कलम करने वाले प्रावधानों को समाप्त कर देने चाहिए !और ऐसे धर्म का निर्माण करना चाहिए कि सभी की सुरक्षा की व्यबस्था लोकतान्त्रिक सरकारों की जिम्मेवारी हो धार्मिक संगठनो या नेताओं के पास न हो !जब तक ऐसे सर्व धर्म समावेशिक हिंसा मुक्त धर्म का निर्माण नहीं होता !तब तक ना तो धर्म के नाम पर बने विश्व मानवता को नष्ट करने वाले और क्रूरता पूर्ण कृत्य करने वाले धार्मिक संगठनो का नाश होगा और ना ही विश्व शान्ति स्थापित होगी
यही रवैया होना चाहिए की धार्मिक समानता या असमानता का उदाहरण देते समय अगर श्रेष्ठता का भाव हावी नही रहे तो बहुलतावद को हासिल किया जा सकता है.
हम लेखक महोदय जेी से करेीब् ४ साल पहले निजामुद्देीन् स्थित् उन्के निवास मे जाकर् मिल चुके है गजब कि फुर्तेी उन्के शरिर मे हम्ने देखेी थेी , वह सन्घ परिवार के ज्यादा निकत है सम्भव है कि वह राज्य सभा के सदस्य भि बन जये या कोइ पद्म श्रेी अदि कि उपाधि मिल जये . उन्के निवास मे हम करिब २ घन्ते रहे थे उन्के परिवार कि महिलये बुर्क नहि पहन्तेी है,
जब इस्लाम पन्थियो क इस देश मेप्रवेश हुअ तो एक अन्ध विश्वास भि भर्तेीय समज मे फैल गया कि “ऊपर वाला जाने ” क्या इश्वर सिर्फ “ऊपर” हेी रहता है , क्या वह सर्वव्यापक शक्ति नहि है?
“ऊपर ” का कथन इस माय्ने मे हो सक्ता है उस्के गुन असन्ख्य है हमारेी सब्केी बुद्धि इत्नेी नहेी है कि उस्के अस्न्ख्य गुनो से परिचित् हो सके , हम सब्के दिमाग से उस्के गुन ऊपर है ! लेखक जि ने यह् अच्हि बात् कहि है कि मत्भेद होना लाजमेी है , इस्लिये मत्भेद रखने वलो को जान से मत मरिये, मत्भेद का भेी सम्मान् करना हमरे मुस्लिम बन्धु सिखे,
लेखक जि क यह बात भि सहि है किजब इस्लम पन्थि इस देश मे अये तब इस देश मे अन्ध विश्वस्स काफेी था और वह आज भि है अगर भारतेीय समाज मे अन्ध विश्वास न् होता तो शयद इस्लाम् का जन्म भेी नहि होता , अगर जन्म होता भि तो इस देश मे उन्के भक्त अधिक्तनम कुच् हजार हेी होते ! क्योकि एक इश्वर का सिद्धन्त सब्से पाह्ले वेद मे है, उस्कि “जुथन्” कुरान मे अपरिपक्व रुप से हो सक्ति है लेखक जि ने भार्तिय समज से सहन्शेीलता सिख्ने को भेी कहा है हमरे मुस्लिम बन्धु यह् सिख् ले तो उन्का और सन्सार का भि काफेी भला होगा ,
मौलाना वहीड़ुद्दीन की छवि मुस्लिम समुदाय मे अच्छी नही है उन के जायदतर लेख इस्लाम और मुसलमान के विरुद्ध ही लिखते है. मुझे लगता है के भारत के बड़े बड़े मौलान इन के खिलाफ है और उन्हे कोई इन्हे किसी प्रोग्राम मे बुलाता ही नही है.
वहाब चिश्ती
मेहरबानी कर आप एक बार वहिदुद्दिन साहब की किताबे जरूर पड़े. सिर्फ सुनी सुनाई बात पे न जाये. मेरा मानना है के जिन्हे आप बड़े मौलान कह रहे है वी सिर्फ भड़काने और अपनी रोटी सेकते है धर्म के नाम पर. आज इस्लाम को मौलाना वहिदुद्दिन साहब जैसे आलिम की आवशकता है. आपसी भई चारा और सौहार्द की जरूरत है जो के वहिदुद्दिन साहब जैसे आलिम से ही मुमकिन है.
अफ़ज़ल साहब और हयात भाई सरीखे संपादको का बहुत-2 धन्यवाद जिन्होने मौलाना वहीड़ुद्दीन खान साहब के लेख के साथ-2 न्यू एज इस्लाम की वेबसाइट का लिंक भी दिया है जिस पर मौलाना साहब के तकरीबन 250 से भी जयादा आर्टिकल्स उपलब्ध है और इतने बढिया लिखे है कि बस पढ़ते जाइये और पढ़ते जाइये !!
वैसे तो उस साइट पर अधिकतर मुस्लिम्स के लेख बेहद संतुलित और टॉप क्वालिटी वाले ही दिखते है बस दो-चार हल्ला-छाप को छोड़ कर …काश उस साइट और इस साइट के कुछ मुस्लिमो जैसे बाकी मुस्लिम भी होते तो सारे पंगे ही खत्म हो गये होते !!
शुक्रिया शरद भाई वैसे अभी ये तो सिर्फ शुरुआत हे आगे और बहुत बढ़िया सामग्री पेश करने की पूरी कोशिश रहेगी
अलीगड मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक सर सैयद अहमद नाफ कहा था के ” हिन्दुस्तान एक दुलहन की तरह है और हिन्दू मुस्लिम उस की दो आंखे है अगर एक आंख भी खराब हो जाये तो दुल्हन बदसूरत हो जाये गी.
इसी ट्ररह अनो ने हिन्द मुस्लिम सौहार्द पे एक बात कही थी के अगर हम बकरीद मे गाय की क़ुर्बानी न कर किसी और जानवर की क़ुर्बानी करे ताके हमारे हिन्दू भाइयो को कोई धार्मिक ठेस नही पहुंचे.
आज भारत के लिये सैयद अहद खन और मौलाना वहिदुद्दिन जैसे लोगो की सोच को आयेज लाना हो गेया.
भविष्य पुराण की इन भविष्यवाणियों की हर चीज़ इतनी स्पष्ट है कि ये स्वतः ही हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) पर खरी उतरती हैं। अतः आप (सल्ल.) की अंतिम ऋषि (पैग़म्बर) के रूप में पहचान भी स्पष्ट हो जाती है। ऐसी भी शंका नहीं है कि इन पुराणों की रचना इस्लाम के आगमन के बाद हुई है। वेद और इस तरह के कुछ पुराण इस्लाम के काफ़ी पहले के हैं।
संग्राम पुराण की पूर्व-सूचना
संग्राम पुराण की गणना पुराणों में की जाती है। इस पुराण में भी ईश्वर के अंतिम ईशदूत और पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के आगमन की पूर्व-सूचना मिलती है। पंडित धर्मवीर उपाध्याय ने अपनी मशहूर किताब ‘‘अंतिम ईशवरदूत’’ (यह किताब 1927 ई. में नेशनल प्रिंटिंग प्रेस, दरियागंज, दिल्ली से सर्वप्रथम प्रकाशित हुई थी।) में लिखा हैः ‘‘कागभुसुन्डी और गरुड़ दोनों राम की सेवा में दीर्घ अवधि तक रहे। वे उनके उपदेशों को न केवल सुनते ही रहे, बल्कि लोगों को सुनाते भी रहे। इन उपदेशों की चर्चा तुलसीदास जी ने ‘संग्राम पुराण’ के अपने अनुवाद में की है, जिसमें शंकर जी ने अपने पुत्र षण्मुख को आनेवाले धर्म और अवतार (ईशदूत) के विषय में पूर्व-सूचना दी है।
इनसान, भिखारी, कीड़े-मकोड़े और जानवर इस व्रतधारी का नाम लेते ही ईश्वर के भक्त हो जाएंगे। फिर कोई उसकी तरह का पैदा न होगा (अर्थात्) कोई रसूल नहीं आएगा), तुलसीदास जी ऐसा कहते हैं कि उनका वचन सिद्ध होगा।’’ (कोष्ठक में दिए गए शब्द व्याख्या के लिए लिखे हैं।। यहां एक और मंतव्य स्पष्ट करना प्रासंगिक होगा कि संग्राम पुराण की गणना भले ही अर्वाचीन पुराणों में की जाती हो, लेकिन इसका आधार प्राचीन हिन्दू धर्मग्रंथ ही हैं, जैसा कि अन्य पुराणों व ग्रंथों एवं विचारों के आधार पर अर्थात भूतकालिक प्रमाणों की रौशनी में हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के आगमन की सूचना दी गई है। अतः पुराण के अर्वाचीन अथवा प्राचीन होने से संबंधित तथ्य के निरूपण नहीं पैदा होता।)
हसन खान साहब, इसे कहते है अपना पेर हमेशा उपर रखना ः) वैसे तो कहते रहते है कि हिन्दू धर्म कोई धर्म ही नही है और इसकी धार्मिक किताबो पर भी सवाल उठाते रहते है मगर जब मामला अपने हज़रत मोहम्मद के पक्ष मे करना हो तो वही हिन्दू धर्म और उसके धार्मिक ग्रंथ सबसे विश्वसनीय सुबूत बन जाते है 🙂
इतने दोहरेपन से घिन नही आती ??
भविश्य् पुरान मे “मुहमम्द्” शब्द हेी नहि है,
रिशेी और पैगम्बर एक नहि होते रिशेी के लिये विदवान् होना अनिवार्य् होता है ,यह कोई थोपित ” तमन्गा ” नहि है .
इस्लाम कब्से भविश्य् वानेी मान्ने लगा उस्का तो सबुत दे दिजिये
इस्लाम् कब्से भविश्य पुरान् को मान्य् ग्रन्थ मानने लगा इस्का भेी सबुत दे दिजिये
अथ्वा अफ्वाह फैलाने से कोई लाभ नहि होगा
हसन साहब, यही बात हमने “अभिजीत जी” के ब्लॉग “क्या पवित्र क़ुरान मे गौतम बुद्ध का ज़िक्र है” मे लिखी की मुस्लिम विद्वान हर धर्म के चरित्रो से अपना कनेक्शन ढूँढ निकाल लेते हैं, लेकिन उनसे उलझने सुलझा नही पा रहे हैं.
क्यूंकी इन कनेक्शन की मंशा आपसी सौहार्द की बजाय श्रेष्ठता साबित करने की रहती है. हिंदू ग्रंथो से कनेक्शन ढूँढने का दावा, श्रेष्ठता के दावे के साथ ही नज़र आता है, जैसा आपके कमेंट से जाहिर है. जाकिर नायक साहब भी अपनी सभाओ मे यही करते हैं.
भविष्य पुराण तो छोड़िए, मूसा, इब्राहिम, जीसस के स्पष्ट उल्लेख के बावजूद, हम ईसाइयो और यहूदियो से उलझे पड़े हैं. कारण वही सुपीरियोरिटी का झगड़ा. हम ईसाई, यहूदी, हिंदुओं, बौद्धो को उनके उसी स्वरूप और मान्यताओ के साथ समाज मे समान संम्मान देने के लिए तैयार नही है. यही से विवादो की शुरुआत हो जाती है.
बहुत सी बाते हे लेकिन एक बात का जिक्र की भारतीय गीत संगीत कितना महान हे कितना महान हे भारतीय शायरी कितनी बेजोड़ हे इनके जैसे कोई और चीज़ दुनिया हे ही नहीं ताजुब हे की जीवन का कोई एक सेकण्ड भी ऐसा नहीं हे जीवन का कोई एक सूक्ष्म से सूक्ष्म भाव भी ऐसा नहीं हे जो इनमे बेहद खूबसूरती से अभिवय्क्त नहीं हुआ हे और इसकी वजह हे की भारत में हिंदुत्व और इस्लाम से जुडी सभ्यताओ यानी फ़ारसी अरब तुर्क आदि आदि का गठबंधन हुआ पाकिस्तानी कटटरपन्ति आज तक सर धुनते रहते हे की कैसे वो इनमे से हिन्दूपन को निकाल कर अरब सागर में डूबा दे मगर 70 साल में ये ना हो पाया ना हो पाएगा
संस्कृत और अरबी : दुनिया की दो ही रुहानी भाषाएं हैं और इनका गहन अध्ययन करने पर पता चलेगा कि ऐसे ढेर सारे शब्द हैं जो संस्कृत में भी मिलते हैं और अरबी में भी। संस्कृत में ईश्वर को कहा जाता है हरम्। हरम मुसलमानों का मरकज है जिसे ‘मस्जिद अल हरम’ या ‘अल्लाह की मस्जिद’ कहा जाता है।
अस्वाद शब्द संस्कृत के अश्वेत शब्द से निकला है,जिसका अर्थ है काला। इस्लाम का मरकज है ‘मस्जिद अल अस्वाद’ (अश्वेत मस्जिद)। यह संयोग नहीं है की ‘मस्जिद अल अस्वाद’ का रंग अश्वेत है। ज्योतिपीठों में शिवलिंग का रंग अश्वेत होता है, अल-अस्वाद का रंग भी अश्वेत है।
* मूर्ति भंजक धर्म : माना जाता है कि इस्लाम मूर्ति भंजकों का धर्म है अर्थात बुत परस्ती को इस्लाम विरुद्ध माना गया है। उसी तरह यजुर्वेद के बत्तीसवें अध्याय में लिखा है ‘न तस्य प्रतिमा: अस्ति’ अर्थात उस परमेश्वर की प्रतिमा नहीं बनाई जा सकती, क्योंकि वह निराकार है। किसी मूर्ति में ईश्वर के बसने या ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन करने का कथन वेदसम्मत नहीं है। प्रतिमा पूजना वेद विरुद्ध है।
बुद्ध की प्रतिमा के कारण बुत परस्ती शब्द की उत्पत्ति हुई और काफिर वह जो ईश्वर को नहीं मानता। उस दौर में यह माना जाता था कि बौद्ध लोग अनिश्वरवादी है, लेकिन यह अपनी-अपनी समझ का फेर है।
यह समानता है :
ND
* पांच वक्त की संध्या वंदन होती है तो पांच वक्त की नमाज। नमाज, नमः और नमस्कार एक ही मूल से निकले हैं।
* दुआ में हाथ उठते हैं उसी तरह जिस तरह की हिंदू सुप्रभात में बिस्तर छोड़ने के पूर्व अपने हाथों की हथेलियों को खोलकर प्रार्थना करता है।
* हिन्दू आराधना के अंत में लेटकर प्रणाम करते हैं (साष्टांग नमस्कार), या अधलेटे (अर्ध साष्टांग नमस्कार)। मुस्लिम अर्ध साष्टांग मुद्रा में सजदा करते हैं।
* माला जपने, परिक्रमा लगाने, ताबिज पहनने, तीर्थ जाने, व्रत करने और प्रार्थना करने का प्रचलन तो सभी धर्मों में समान रूप से पाया जाता है।
* प्रार्थना, पूजा या यज्ञ के पूर्व आचमन उसी तरह, जिस तरह की नमाज के पूर्व वुजू किया जाता है।
* वेद पाठ उसी तरीके से किया जाता है जिस तरीके से कुरआन पाठ। संस्कृत में उच्चारण की शुद्धता पर उतना ही ध्यान रखा जाता है जितना की अरबी की शुद्धता पर।
* शुरुआत में ओम नहीं तो बात समझो शुरू हुई ही नहीं, आखिरी में आमिन नहीं तो बात समझो खत्म हुई ही नहीं।
* सिर पर कपड़ा रखकर या टोपी पहनकर ही यज्ञ, पूजा या प्रार्थना की जाती है उसी तरह जिस तरह की नमाज के वक्त।
* तीन सूत का धागा कंधे में डालकर और तन पर एक ही सफेद कपड़ा जब कोई हिंदू पहनकर काशी में परिक्रमा करता है तो उसे द्विज कहा जाता है और जब मक्का शरीफ में हज के दौरान कोई मुसलमान ये पहनता है तो उसे हाजी कहा जाता है।
* चंद्र कलाओं पर आधारित होते हैं ज्यादातर व्रत उसी तरह जिस तरह की इस्लाम में होते हैं। दूज का चांद हो या ईद का चांद दोनों का ही महत्व होता है।
* शिव की जटाओं पर चांद का निशान है। कुरआन में कहीं भी उल्लेख न होने के बावजूद यह निशान दुनिया भर में इस्लाम के प्रतीक के रूप में प्रचलित है।
* वेद और कुरआन दोनों ही मूर्ति पूजा, नक्षत्र पूजा, ज्योतिष धारणा के खिलाफ है, क्योंकि इससे व्यक्ति ईश्वर की राह से भटककर अंधविश्वासी और बहुदेववादी बनकर गफलत में जीवन जीता है।
उपरोक्त जैसी हजारों बाते हैं जो हमें इस्लाम और हिन्दुत्व में समानता का आभास दिलाती हैं और भाई चारे का संदेश देती हैं, लेकिन किसी को भी न वेद पढ़ने की फुरसत हैं और न ही कुरआन। आमिन।