वर्तमान दौर में धार्मिक पहचान का इस्तेमाल,राजनैतिक एजेण्डे को लागू करने के लिए किया जा रहा है। चाहे मुद्दा आतंकवादी हिंसा का हो या संकीर्ण राष्ट्रवाद का, दुनिया के सभी हिस्सों में धर्म के मुखौटे के पीछे से राजनीति का चेहरा झांक रहा है। कुछ दशकों पहले तकए धर्म और राजनीति को अलग करने और रखने की आवश्यकता पर जोर दिया जाता था परंतु हुआ उसका उल्टा। धर्म और राजनीति का घालमेल बढ़ता ही गया। इस संदर्भ में दक्षिण एशिया में हालात बहुत गंभीर हैं। अप्रैल 2015 में अमरीकी राष्ट्रपति ने अजमेर स्थित गरीब नवाज़ ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर चढ़ाने के लिए चादर भेजी। गत 22 अप्रैल को अखबारों में छपी खबर के मुताबिक, सोनिया गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी और नरेन्द्र मोदी ने भी दरगाह पर चादर चढ़ाई।
अगर हम राज्य, राजनीति और धर्म के परस्पर रिश्तों को परे रखकर देखें तो यह दिलचस्प तथ्य सामने आता है कि कुछ धार्मिक परंपराएं, सभी धर्मों के लोगों को प्रभावित करती आई हैं। दक्षिण एशिया व विशेषकर पाकिस्तान और भारत की सूफी व भक्ति परंपराएं क्रमशः इस्लाम और हिंदू धर्म की ऐसी दो मानवतावादी धाराएं हैं जो धार्मिक पहचान से ऊपर उठकर संपूर्ण मानवता की एकता की बात करती हैं। इन परंपराओं के संतों के अनुयायी सभी धर्मों के थे और ये संत सत्ता से दूर रहते थे। इस मामले में वे मध्यकाल के पुरोहित वर्ग से भिन्न थे जो कि राजाओं और नवाबों के दरबारों की शोभा बढ़ाने में गर्व महसूस करता था। हिंदू धर्म में कबीर, तुकाराम, नरसी मेहता, शंकर देव व लाल देध जैसे संतों की समृद्ध परंपरा है तो इस्लामिक सूफी परंपरा के संतों में निज़ामुद्दीन औलिया, मोइनुद्दीन चिश्ती,ताजुद्दीन बाबा औलिया,अज़ान पीर व नूरूद्दीन नूरानी शामिल हैं। इनके अतिरिक्त सत्यपीर व रामदेव बाबा पीर दो ऐसे संत थे जो भक्ति और सूफी दोनों परंपराओं के वाहक थे।
संत गुरूनानक ने हिंदू धर्म और इस्लाम का मिश्रण कर एक नए धर्म की स्थापना की। इस्लाम का ज्ञान हासिल करने के लिए वे मक्का तक गए और हिंदू धर्म के आध्यात्मिक पक्ष को समझने के लिए उन्होंने काशी की यात्रा की। उनके सबसे पहले अनुयायी थे मरदान और सिक्खों के पवित्र स्वर्ण मंदिर की आधारशिला रखने के लिए मियां मीर को आमंत्रित किया गया था। गुरूग्रंथ साहब का धर्मों के प्रति समावेशी दृष्टिकोण है और उसमें कुरान की आयतें और कबीर व अन्य भक्ति संतों के दोहे शामिल हैं। आश्चर्य नहीं कि नानक के बारे में यह कहा जाता था कि ‘बाबा नानक संत फकीर, हिंदू का गुरूए मुसलमान का पी’।
आज यदि पूरे विश्व में धर्म चर्चा और बहस का विषय बना हुआ है तो इसका कारण है राजनीति के क्षेत्र में उसका इस्तेमाल। इस संदर्भ में सूफी परंपरा में लोगों की रूचि का एक बार फिर से बढ़ना सुखद है। दक्षिण एशिया में सूफीवाद का इतिहास लगभग एक हजार साल पुराना है। सूफी शब्द का अर्थ होता है मोटा ऊनी कपड़ा, जिससे बने वस्त्र सूफी संत पहनते हैं। सूफीवाद, शिया मुस्लिम धर्म से उभरा परंतु आगे चलकर कुछ सुन्नियों ने भी इसे अपनाया। सूफीवाद में रहस्यवाद को बहुत महत्ता दी गई है और वह कर्मकाण्डों को सिरे से खारिज करता है। वह अल्लाह को मानवरूपी नहीं मानता बल्कि उन्हें आध्यात्मिक शक्ति के रूप में देखता है। यह भक्ति संतो की आस्थाओं से मिलता जुलता है। कई सूफी संत सर्वेश्वरवादी थे और उनके जीवनमूल्य,मानवीयता से ओतप्रोत थे।
शुरूआत में इस्लाम के कट्टरपंथी पंथों ने सूफी संतो का दमन करने का प्रयास किया परंतु आगे चलकर उन्होंने सूफीवाद से समझौता कर लिया। सूफी संतों में से कुछ दरवेश बन गए। दरवेश का अर्थ होता है ऐसे संत जो एक स्थान पर नहीं रहते और लगातार भ्रमण करते रहते हैं। कई देशों में सभी धर्मों के लोग उनकी दरगाहों पर खिराजे अकीदत पेश करते हैं। इसी तरहए भक्ति संतो के अनुयायी भी सभी धर्मों के लोग हैं।
सूफीवाद के समानांतर भक्ति परंपरा भी भारतीय धार्मिक इतिहस की सबाल्टर्न धारा का प्रतिनिधित्व करती है। भक्ति संत, समाज के विभिन्न तबकों से थे, विशेषकर नीची जातियों से। भक्ति संतों ने धर्म को संस्थागत रूप देने का विरोध किया और उसको विकेन्द्रीकृत करने का प्रयास किया। उनका कहना था कि धर्म, व्यक्ति का निजी मसला है। वे धर्म और राज्य सत्ता को एक.दूसरे से अलग करने के हामी थे और उन्होंने ईश्वर की आराधना की अवधारणा को ज्ञानार्जन की प्रक्रिया से जोड़ा। भक्ति संतों के लेखन में गरीब वर्ग के दुःख.दर्द झलकते हैं। भक्ति परंपरा ने कई नीची जातियों को प्रतिष्ठा दिलवाई। यह परंपरा मुसलमानों के प्रति भी समावेशी दृष्टिकोण रखती थी और इसने ऊँची जातियों के वर्चस्व को चुनौती दी।
भक्ति परंपरा, कर्मकांडों की विरोधी थी। इसके संतों ने ऐसी भाषा का उपयोग किया जिसे जनसामान्य समझ सकते थे। वे एक ईश्वर की अवधारणा में विश्वास रखते थे। इस परंपरा के संतों ने हिंदू.मुस्लिम एकता पर जोर दिया।
हमें यह समझना होगा कि हर धर्म में विभिन्न धाराएं होती हैं। भक्ति और सूफी परंपराएं, धर्मों का मानवतावादी चेहरा हैं जिन्होंने मानवता को एक किया और धर्मों के नैतिक.आध्यात्मिक पक्ष पर जोर दिया। इसके विपरीत,धर्मों की असहिष्णु प्रवृत्तियों का इस्तेमाल राजनैतिक ताकतों ने अपने एजेण्डे की पूर्ति के लिए किया। भारतीय उपमहाद्वीप में स्वाधीनता आंदोलन के दौरान राजाओं, नवाबों और जमींदारों ने हिंदू व मुस्लिम सांप्रदायिकता की नींव रखी। इस धार्मिक राष्ट्रवाद का धर्मों के नैतिक पक्ष से कोई लेनादेना नहीं था। यह केवल धार्मिक पहचान का राजनैतिक लक्ष्य पाने के लिए इस्तेमाल था। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के कई नेता जिनमें गांधीजी व मौलाना अबुल कलाम आज़ाद शामिल हैं,अत्यंत धार्मिक थे परंतु वे न तो धार्मिक राष्ट्रवाद में विश्वास रखते थे और ना ही अन्य धार्मिक परंपराओं के प्रति उनके मन में तनिक भी बैरभाव था।
सूफी और भक्ति परंपराएं हमें इस बात की याद दिलाती हैं कि वर्तमान दौर में धर्मों के आध्यात्मिक और नैतिक पक्ष को कमजोर किया जा रहा है। अगर हमें मानवता के भविष्य को संवारना है तो हमें धर्मों के समावेशी.मानवतावादी पक्ष को मजबूत करना होगा और धर्मों के समाज को बांटने के लिए इस्तेमाल को हतोत्साहित करना होगा। हमें यह समझना होगा कि सभी धर्म मूलतः नैतिकता और मानवता पर जोर देते हैं। हमें धर्मों की मूल आत्मा को अपनाना होगा न कि बाहरी आडंबरों को।
sources— http://loksangharsha.blogspot.com/2015/05/blog-post_12.html
भक्ति और सूफ़ी आन्दोलन दोनो ही बकवास आन्दोलन थे . इन दोनो आन्दोलन ने हिन्दू और मुस्लिम धर्म दोनो को ही बर्बाद किया और दोनो ही धर्म को उस के मु रूप से हटा दिया .
दोनो आन्दोलन को चलने वाले जो कोई भी था वो समाज से कटा हुआ था , लोगो को बेवकूफ और कामचोर बनाया और धर्म मे खराबिया पैदा की . इस आन्दोलन ने समाज को जोड़ना दूर सिर्फ तोड़ा. इस से समाज को कोई लाभ णहोई बल्के नुक़सान ही हुआ.
आप जो कह रहे हे समय हो तो उसको डिटेल में लिख कर बताय
वहाब साहब, मैं इस बात को तो स्वीकार करता हूँ की सूफ़ी आंदोलन, एक सुधारवादी आंदोलन था. और चूँकि इस्लाम अपने आप मे बहुत स्पष्ट है, उसमे सुधार की कोई गुंजाइश नही, बल्कि यूँ कहना चाहिए की सुधारवादी को इस्लाम मे बड़ा शत्रु माना गया है, इसलिये सूफ़ीज़्म को इस्लामी मान्यता का हिस्सा कहा जाए या नही, एक सवाल है. लेकिन जहाँ तक बात निकम्मेपन की है तो इस्लाम के मूल स्वरूप का दावा करने वाले तब्लीगी या वहाबी निकम्मापन नही फैला रहे?
जबकि इसके दूसरी तरफ समय के साथ बदलाव की कुछ गुंजाइश लिए चलने वाले और आपकी ऩज़ारो मे इस्लाम के मूल सिद्धांत से भटके शिया, अहमदी, बरेलवी, बोहरी लोगो मे शिक्षा और उद्यमशीलता के स्तर की तुलना भी आप शेष लोगो से करिए.
तब्लीगी, वहाबी, देवबंदी ये कितने समन्वयकारी है, गौर फरमाइए. जो समन्वयकारी नही वो समाज मे निकम्मेपन को बढ़ावा देता है. समन्वयकारी और बहुलातावाद को बढ़ावा देने का कोई भी प्रयास मेरी नज़र मे क़ाबिले तारीफ है. अगर देवबंदी या वहाबी भी ऐसा करते हैं तो मैं उसकी तारीफ करूँगा. इसी वजह से सूफ़ीज़्म आंदोलन को मैं एक सकारात्मक पहल मानता हूँ.
मे भक्ति नही सूफ़ी आन्दोलन की बात कर रहा हु . इस आन्दोलन ने इस्लाम मे बिगाड़ पैदा किया . जैसे सूफ़ी आन्दोलन ने बहुत से फिरका बनाये जैसे चिश्ती, क़ादरी, सलफी , और न जान एक्या क्या . मुजावीर और खलीफ़ा बनने का नया चलन . शर्क और क़बरपरस्ती का बडवा मिला . सूफ़ी आन्दोलन के करण इस्लाम मे बहुत सी बुराई आ गयी जो इस्लाम मे पहले से नही था.
चलिए सूफ़ी आंदोलन से जो फिरके बने, उन्हे छोड़ो. लेकिन तब्लीगी जमात तो सही व्याख्या ही कर रही है ना इस्लाम की. ये लोगो को कामचोर नही बना रही? लोग खाना, पीने, सेक्स करने, दाढ़ी रखने, टखने के उपर पाजामा पहनने के इस्लामी तौर तरीक़ो मे अपना दिमाग़ लगा कर, जनन्त मे एंट्री के लिए 100 मे से 100 नंबर की फिराक मे तो लगे हुए है. ज़मीन पे लेकिन निकम्मापन फैला रखा है. हालत देखी है खुद की शिक्षा और प्रोद्योगिकी के क्षेत्र मे. दूसरे फिरको को तो गोली मारो. खुद के अकिदे पे चलने वालो की दुनिया मे क्या हैसियत है गौर फरमा लो. ये मत समझना की मैं दूसरे फिरको मे से किसी का बंदा हूँ. लेकिन दूसरो पे अंगुली उठाने से पहले खुद के गिरेबान मे तो झाँको.
बरेलवियो शियाओ के भी तौर तरीको से खुश नहीं हु लेकिन खुद देवबंदी होने के कारण अपने यहाँ ही अधिक बताना बेहतर हे . हमारी पुरानी नौकरानी थी वजन होगा मुश्किल से 35 चालीस किलो उसके तीन बच्चे थे पति क्लीन शेव रिक्शा चलाता था एक बच्चा उसकी पहली मरहूम बीवी से था अचनाक से वो भी महापुरषो के साथ गश्त पर निकलने लगा हुलिया बदल गया जाहिर हे उसे बड़ा अच्छा लगता होगा की मेरे डॉक्टर कज़िन जैसे लोग तब उसकी इज़्ज़त करते होंगे उनकी बाते सुनते होंगे में तभी समझ गया की अब इस गरीब का भला जरूर होगा कुछ ही दिन बाद पता चला की अब उसके घर में रोटी के छह नही सात टुकड़े होंगे अब वो और उसके बच्चे सुबह सुबह गाडी साफ़ करते दीखते हे मेरा अंदाज़ा हे की उसने महापुरषो से सलाह ली होगी और उन्होंने अपने बड़े महागुरु 1008 जाकिर साहब की तरह परिवार नियोजन से दूर ही रहने को कहा होगा अब इसमें जाकिर साहब भी खुश उन्हें चंदा देने वाले शेख भी खुश मुसलमानो की संख्या बड़ी मेरे डॉक्टर कज़िन जैसे मक्कार लोग भी खुश मरीज भी बढ़ेंगे लेबर और सस्ती होगी सस्ते कम्पाउडर गाडी धोने वाले मिलेंगे सब खुश जिनका बेडा गर्क हुआ उनके लिए जन्नत में सीट का रिजर्वेशन वहाब साहब घर बैठ कर इस सब का सपोर्ट लाइक कॉमेंट कर देंगे उन्हें भी सवाब सब खुश एक हम ही दुखी हे
हां नेता भी खुश की उनके वोट और कार्यकर्त्ता और बढ़ेंगे हाल ही में तो एक दो बड़े मुस्लिम नेता ने पहले के मुक़ाबिल कुछ कम बच्चे पैदा करने पर नाराज़गी भी दिखाई अमेरिका इंडियनयन कॉर्पोरेट जगत भी खुश की मार्किट और बढ़ गयी सब खुश बस हम ही सर पकडे बैठे हे
सहेी कहा आपने. मेरा तो यहेी मानना है कि इन्सान अपने और आस्-पास के लोगो कि जिन्दगियो मे खुशिया भरे, वो हेी है नेक रास्ते पे.
सिकंदर हयात, अफ़ज़ल ख़ान और जाकिर हूसेन लगता है आप लोग मुसलमान नही है क्यो आप लोग मुसलमान और इस्लाम को बदनाम कर रहे है . मे जल्द ही इस पोर्टल के खिलाफ आवाज उठाऔ गा और बड़े बड़े मुलाना से इस मामले मे बात करू गा.
सुनो वहाब मियाँ, वैसे तो अफ़ज़ल साहब और सिकंदर साहब ने एक भी लफ़्ज इस्लाम के खिलाफ नही बोला है. आप उनसे असहमत हो सकते हैं.
जहाँ तक बात शिकायत की है तो इस देश मे इस्लाम की आलोचना पे किसी प्रकार की पाबंदी नही है. हम यहाँ खुले दिल से बात कर रहे हैं, अगर आप मे वो धैर्य और इच्छा है तो बात रखिए, वरना इसे नज़रअंदाज करके आगे बढ़िए.
जहाँ तक बात इस्लाम की बात है तो ऐसे मौलाना जो इस्लाम मे सहिष्णुता की गुंजाइश नही मानते, वो ही इसे सबसे ज़्यादा बदनाम किए हुए है, और आप उन्ही से शिकायत करने जाना चाहते हो?
सिकंदर हयात साहब कह रहे है की इस्लाम का मतलब है. बराबरी अच्छाई ईमानदारी सादगी सच्चाई नेकी. वहाब चिश्ती साहब की नज़र मे ये इस्लाम को बदनाम कर रहे है, क्यूंकी इनकी नज़र मे इस्लाम महापुरुष जाकिर नायक जी के प्रवचन है.
वहाब साहब अगर आप में ज़रा भी दम हे तो वो लाइन कॉपी पेस्ट करके दिखाए जो हमने इस्लाम या किसी भी अक़ीदे के खिलाफ लिखी हो तो दिखाय और मेरी लाखो लाइन नेट पर मौजूद हे सिर्फ एक लाइन दिखाय हम अक़ीदे के खिलाफ नहीं अक़ीदों की आड़ में अपने हित साध रहे लोगो के खिलाफ लिखते हे और वो ही लोग हमसे बहुत चिढ़ते हे उन्हें लगता हे की देरसवेर ये लोग तो हमारी मार्किट हमारी दुकाने बंद करवा देंगे
अच्छा हमारी जगह कोई भी कोई भी और होता तो वो ख़ुशी से झूम उठता आज इंडिया में हर कोई चाहता हे की उसके लिखे पर उसके किये पर जूता चल जाए खूब विवाद हो थूका फजीती तू तू में में खूब पब्लिसिटी हो घर घर में उसका नाम पहुंचे भले ही लोग गालिया दे कोई फर्क नहीं पड़ता आज हर कोई यही विवाद के प्रचार की मलाई चाहता हे मोदी के आने के बाद तो इस परवर्त्ती की बिलकुल ही बाढ़ सी आ गयी हे एक जनसंघी ब्लॉगर ने ताज़महल को मनहूस मक़बरा तक लिख दिया मकसद साफ़ हे की बस पब्लिसिटी मिले जब एक आदमी निगेटिव पब्लिसिटी के सहारे पि एम तक बनगया तो और भी बहुत लोगो के मुह में पानी आना सव्भाविक हे खेर लेकिन हम बिलकुल नहीं चाहते की हमारे लिखे पर कोई विवाद हो और हम ऐसा लिखते भी नहीं हे इसलिए वहाब साहब चाहेंगे भी तो उन्हें हमारे लेखन में कोई विवादित बात मिलेगी नहीं .
वहाब भाई में सोच रहा था की देश में बरेल्वियो सूफियों कबरपरस्तों मज़ार मुरीदो की भी तो बहुत ही बड़ी संख्या हे इनकी भी तो संस्था और धर्माधिकारी होंगे आखिर जब जाकिर साहब ने देश की सभी मज़ारे गिराने को कहा था तो तब इन्होने काफी हंगामा किया था तो ऐसा भी तो हो सकता हे की हम भी इनके पास जाकर आपकी शिकायत करे की आप ने लिखा हे की ———————— लेकिन मसला ये हे की आपको पूरा यकीन हे और सही यकीन हे की हम ऐसी फालतू हरकत करने में विशवास नहीं रखते हे ना इतने खाली हे उमीद हे की आप भी ऐसे ही होंगे शुक्रिया
वेहॅब साहब और उन के जैसे मुस्लिम फोबिया के शिकार् लोगो को उन के हालात पे ही छिड़ देना चाहिये , क्यो के ए नही बदलने वाले इस लिये इन से बहस करना समय की बर्बादी है.
Sikandra sir is ritttt