पहली लड़ाई संघर्षशील कार्यकर्ता और वैचारिक राजनीति के बीच हुई। जिसमें कार्यकर्ताओं की जीत हुई क्योंकि सड़क पर संघर्ष कर आमआदमी पार्टी को खड़ा उन्होंने ही किया था। तो उन्हें आप में ज्यादा तवोज्जो मिली। दूसरी लड़ाई समाजसेवी संगठनों के कार्यकर्ताओ और राजनीतिक तौर पर दिल्ली में संघर्ष करते कार्यकर्त्ताओं के बीच हुई । जिसमें आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय तौर पर चुनाव में हार मिली । क्योंकि सिर्फ दिल्ली के संघर्ष के आसरे समूचे देश को जीतने का ख्वाब लोकसभा में उन सामाजिक संगठन या कहें जन आंदोलनों से जुड़े समाजसेवियों ने पाला, जिनके पास मुद्दे तो थे लेकिन राजनीतिक जीत के लिये आम जन तक पहुंचने के राजनीतिक संघर्ष का माद्दा नहीं था । इस संघर्ष में केजरीवाल को भी दिल्ली छोड़ बनारस जाने पर हार मिली। क्योंकि बनारस में वह दिल्ली के संघर्ष के आसरे सिर्फ विचार ले कर गये थे। और अब तीसरी लडाई जन-आंदोलनों के जरीये राजनीति पर दबाब बनाने वाले कार्यकत्ताओं के राजनीति विस्तार की लड़ाई है। इसमें एक तरफ फिर वहीं दिल्ली के संघर्ष में खोया कार्यकर्ता है तो दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्तर पर फैले तमाम समाजसेवियो को बटोर कर वैकल्पिक राजनीति दिशा बनाने की सोच है । यानी दिल्ली में राजनीतिक जीत ही नहीं बल्कि इतिहास रचने वाले जनादेश की पीठ पर सवार होकर राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक सक्रियता को पैदाकरने कीकुलबुलाहट है तो दूसरी तरफ दिल्ली को राजनीति का माडल राज्य बनाकर राष्ट्रीय विस्तार की सोच है। टकराव जल्दबाजी का है । टकराव तमाम जनआंदोलनों से जुडे समाजसेवियो को दिल्ली के जनादेश पर सवार कर राष्ट्रीय राजनीति में कूदने और दिल्ली में चुनावी जीत के लिये किये गये वायदों को पूरा कर दिल्ली से ही राष्ट्रीय विस्तार देने की सोच का है। इसलिये जो संघर्ष आम आदमी पार्टी के भीतर बाहर चंद नाम और पद के जरीये आ रहा है
दरअसल वह वैकल्पिक राजनीति या नई राजनीति के बीच के टकराव का है। दिल्ली की राजनीति में कूदे अंरविन्द केजरीवाल हो या अन्ना आंदोलन से संघर्ष में उतरे आप के तमाम कार्यकर्ता। ध्यान दें तो पारंपरिक राजनीति से गुस्साये एनजीओ की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को संभालने वाले या मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था से रुठे युवाओ का समूह ही दिल्ली की राजनीति में कूदा। राजनीति की कोई वैचारिक समझ इनमें नहीं थी। कांग्रेस या बीजेपी के बीच भेद कैसे करना है समझ यह भी नहीं थी। लेफ्ट–राइट में किसी चुनना है यह भी तर्क दिल्ली की राजनीति में बेमानी रही। दिल्ली की राजनीति का एक ही मंत्र था संघर्ष की जमीन बनाकर सिर्फ भ्रष्ट्राचार के खिलाफ खड़े होना। इसलिये 2013 में मनमोहन सरकार के भ्रष्ट्र कैबिनेट मंत्री हो या तब के बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी। राजनीति के मैदान में निशाने पर सभी को लिया गया । यहा तक की लालू-मुलायम को भी बख्शा नहीं गया। यह नई राजनीति धीरे धीरे दिल्ली चुनाव में जनता की जरुरत पर कब्जा जमाये भ्रष्ट व्यवस्था पर निशाना साधती है, जो वोटरो को भाता है। उन्हें नई राजनीति अपनी राजनीति लगती है क्योंकि पहली बार राजनीति में मुद्दा हर घर के रसोई, पानी, बिजली, सड़क का था। लेकिन लोकसभा चुनाव में नई राजनीति के सामानांतर वैकल्पिक राजनीति की आस जगायी जाती है। ध्यान दे दिसंबर 2013 यानी दिल्ली के पहले चुनाव के बाद ही देश भर के समाजसेवियों को यह लगने लगता है कि दिल्ली में
केजरीवाल की जीत ने वैकल्पिक राजनीति का बीज डाल दिया है और उसे राष्ट्रीय विस्तार में ले जाया जा सकता है। तो जो सोशल एक्टिविस्ट राजनीति के मैदान में आने से अभी तक कतराते रहे वह झटके में समूह के समूह केजरीवाल के समर्थन में खड़े होते हैं। नेशनल एलायंस आफ पीपुल्स मुवमेंट यानी एनएपीएम से लेकर समाजवादी जन परिषद और तमिलनाडु में परमाणु संयंत्र का विरोध कर रहे समाजसेवियो से लेकर गोवा में आदिवासियों के हक का सवाल उठा रहे संगठन भी आप में शामिल हो जाते है । लोकसभा के चुनाव में तमाम जनांदोलन से जुड़े आप के बैनर तले चुनाव मैदान में कूदते भी है और जमानत जब्त भी कराते है। और झटके में यह सवाल हवा हवाई हो जाता है कि आम आदमी पार्टी कोई वैकल्पिक राजनीति का संदेश देश में दे रही है। तमाम सामाजिक संघठन चुप्पी साधते है।
जन-आंदोलन से निकले समाजसेवी अपने अपने खोल में सिमट जाते हैं। नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी की जीत तमाम वैकल्पिक राजनीति की सोच रखने वालो को वापस उनके दड़बो में समेट देती है । आंदोलनों की आवाज देश भर में सुनायी देनी बंद हो जाती है। लेकिन केजरीवाल फिर से राजनीति से दूर युवाओ को समेटते है । राजनीति के घरातल पर वैचारिक समझ रखने वालो से दूर नौसिखिया युवा फिर से दिल्ली चुनाव के लिये जमा होता है । केजरीवाल सत्ता छोडने की माफी मांग मांग वोट मांगते हैं। ध्यान दें तो दिल्ली चुनाव में केजरीवाल की जीत से पहले कोई कुछ नहीं कहता । जो आवाज निकलती भी है तो वह किरण बेदी के बीजेपी में शामिल होने पर उन्हीं शांति भूषण की आवाज होती है, जो कांग्रेस के खिलाफ जनता पार्टी के प्रयोग को आज भी सबसे बड़ा मानते हैं और राजनीति की बिसात पर आज भी नेहरु के दौर के कांग्रेस को सबसे उम्दा राजनीति मानते समझते हैं। और यह चाहते भी रहे कि देश में फिर उसी दौर की राजनीति सियासी पटल पर आ जाये। लेकिन यहां सवाल शांति भूषण का नहीं है बल्कि उस बिसात को समझने का है कि जो शांति भूषण , अन्ना आंदोलन से लेकर आम आदमी पार्टी के हक में दिखायी देते है वही दिल्ली चुनाव के एन बीच में बीजेपी के सीएम उम्मीदवार किरण बेदी को केजरीवाल से बेहतर क्यों बताते है और केजरीवाल या आम आदमी पार्टी के भीतर से कोई आवाज शांति भूषण के खिलाफ क्यो नहीं निकलती । वैसे जनता पार्टी के दौर के राजनेताओं से आज भी शांति भूषण के बारे में पूछे तो हर कोई यही बतायेगा कि शांति भूषण वैकल्पिक राजनीति की सोच को ही जनता पार्टी में भी चाहते थे। फिर इस लकीर को कुछ बडा करे तो प्रशांत भूषण हो या योगेन्द्र यादव दोनों ही पारंपरिक राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ हमेशा से रहे है। जन-आंदोलनों के साथ खड़े रहे हैं। जनवादी मुद्दों को लेकर दोनो का संघर्ष खासा पुराना है । एनएपीएम की संयोजक मेधा पाटकर के संघर्ष के मुद्दो को भी प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव अपने अपने स्तर पर उठाते रहे हैं। और समाजवादी जन परिषद से तो योगेन्द्र यादव का साथ रहा है। और ध्यान दें तो वैकल्पिक राजनीति को लेकर सिर्फ योगेन्द्र यादव या प्रशांत भूषण ही नहीं बल्कि मेधा पाटकर, केरल की सारा जोसेफ , गोवा के आस्कर रिबोलो , उडीसा के
लिंगराज प्रधान, महाराष्ट्र के सुभाष लोमटे,गजानन खटाउ की तरह सैकडों समाजसेवी आप में शामिल भी हुये । फिर खामोश भी हुये और दिल्ली जनादेश के बाद फिर सक्रिय हो रहे है या होना चाह रहे हैं। जो तमाम समाजसेवी उससे पहले राजनीति सत्ता के लिये दबाब का काम करते रहे वह राजनीति में सक्रिय दबाब बनाने के लिये ब प्रयासरत है इससे कार नहीं किया जा सकता । फिर आप से पहले के हालात को परखे तो वाम राजनीति की समझ कमोवेश हर समाजसेवी के साथ जुडी रही है। प्रशांत भूषण वाम सोच के करीब रहे है तो योगेन्द्र यादव समाजवादी सोच से ही निकले हैं।
लेकिन केजरीवाल की राजनीतिक समझ वैचारिक घरातल पर बिलकुल नई है । केजरीवाल लेफ्ट-राइट ही नहीं बल्कि काग्रेस-बीजेपी या संघ परिवार में भी खुद को बांटना नहीं चाहते है । केजरीवाल की चुनावी जीत की बडी वजह भी राजनीति से घृणा करने वालो के भीतर नई राजनीतिक समझ को पैदा करना है। और यहीं पर योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण से केजरीवाल अलग हो जाते हैं। क्योंकि दिल्ली संघर्ष के दौर से केजरीवाल ने पार्टी संगठन के बीच में दिल्ली की सड़कों पर संघर्ष करने वालों को राजनीतिक मामलों की कमेटी से लेकर कार्यकारिणी तक में जगह दी। वहीं लोकसभा चुनाव के वक्त राष्ट्रीय विस्तार में फंसी आप के दूसरे राज्यों के संगठन में वाम या समाजवादी राजनीति की समझ रखने वाले वही चेहरे समाते गये जो जन-आंदोलनो से जुडे रहे। दरअसल केजरीवाल इसी घेरे को तोड़ना चाहते हैं और दूसरी तरफ योगेन्द्र यादव दिल्ली से बाहर अपने उसी घेरे को मजबूत करना चाहते हैं जो देश भर के जनआंदोलनो से जुड़े समाजसेवियो को साथ खड़ा करे। केजरीवाल की राजनीति दिल्ली को माडल राज्य बनाकर राष्ट्रीय विस्तार देने की है। दूसरी तरफ की सोच केजरीवाल के दिल्ली सरकार चलाने के दौर में ही राष्ट्रीय संगठन को बनाने की है । केजरीवाल दिल्ली की तर्ज पर हर राज्य के उन युवाओ को राजनीति से जोड़ना चाहते है जो अपने राज्य की समस्या से वाकिफ हो और उन्हे राजनीति वैचारिक सत्ता प्रेम के दायरे में दिखायी न दे बल्कि राजनीतिक सत्ता न्यूनतम की जरुरतो को पूरा करने का हो । यानी सुशासन को लेकर भी काम कैसे होना चाहिये यह वोटर ही तय करें जिससे आम
जनता की नुमाइन्दगी करते हुये आम जन ही दिखायी दे । जिससे चुनावी लडाई खुद ब खुद जनता के मोर्चे पर लडा जाये । जाहिर है ऐसे में वह वैकल्पिक राजनीति पीछे छुटती है जो आदिवासियो के लेकर कही कारपोरेट से लडती है तो कही जल-जंगल जमीन के सवाल पर वाम या समाजवाद को सामने रखती है । नई राजनीति के दायरे में जन-आंदोलन से जुडे वह समाजसेवियो का कद भी महत्वपूर्ण नहीं रहता । असल टकराव यही है । जिसमें संयोग से संयोजक पद भी अहम बना दिया गया । क्योकि आखरी निर्णय लेने की ताकत संयोजक पद से जुडी है । लेकिन सिर्फ दो बरस में दिल्ली को दोबारा जीतने या नरेन्द्र मोदी के रथ को रोकने की ताकत दिल्ली में आप ने पैदा कैसे की और देश में बिना दिल्ली को तैयार किये आगे बढना घाटे की सियासत कैसे हो सकती है अगर इसे वैकल्पिक राजनीति करने वाले अब भी नहीं समझ रहे है । तो दूसरी तरफ नई राजनीति करने वालो को भी इस हकीकत को समझना होगा कि उनकी अपनी टूट भी उसी पारंपरिक सत्ता को आक्सीजन देगी जो दिल्ली जनादेश से भयभीत है। और आम आदमी से डरी हुई है ।
न्यूज एजेंसी पीटीआई के मुताबिक आम आदमी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में योगेंद्र यादव को पॉलिटिकल अफेयर्स कमिटी से हटाने का फैसला लिया गया है। इस का मतलब है के आप पर्त्य के बुरे दिन आ गये है . योगेबदार यादव जैसा ईमानदार और टॅलेंटेड आदमी का इस तरह का अपमान नही होना चाहिये था . देखिये आयेज बहुत लोग पर्त्य छोड़ सकते है .
faimous journalist oam thaanvi ka comment
केजरीवाल की चुप्पी इसका संकेत देती थी, पर अब यही जाहिर है कि योगेंद्र यादव को पीएसी से बाहर करवाकर अरविंद उन युवतर ‘नेताओं’ के अभियान का हिस्सा बन गए जो खुद अहंकार और बड़बोलेपन से ग्रस्त हैं। इससे आप पार्टी का नुकसान होगा, शायद केजरीवाल की अपनी छवि को ठेस पहुंचे जिनका कद – पारंपरिक राजनीति से जुदा होने के कारण – लोग बहुत ऊँचा मानते आए हैं।
अगर (पार्टी के मोरचे पर) यह अगाज है तो अंजाम की खुदा से दुआ ही कर सकते हैं।
आप के पास तीन राज्य सभा सीट आ गयी हे भविष्य में . शायद इन्ही के लिए कलह शुरू हो गयी हे छह साल के लिए संसद सदस्य बना देने वाली राजयसभा सीट के लिए ही शायद खिंच तान शुरू हो गयी हे दावेदार बहुत हे अफज़ल भाई बहुत ही गंभीर मसला अब हो गया हे की कोई भी व्यक्ति सत्ता पद पैसा या फिर अहमियत के बिना कर्म करने को तैयार ही नहीं हे जिसके कारण किसी भी अच्छे काम तक में भी टकराव सुनिश्चित हे बहुत दुखद
तेीन सेीत हर दो साल मे एक हेी रहेगेी,
#आप वैसी ही नहीं रहेगी, योगेंद्र यादव के बिना!
इत्ती-सी बात न समझ पाना अरविंद की राजनीतिक समझ पर भी टिप्पणी तो है ही।
सत्यानाशी बहुमत ने रंग दिखाना शुरू कर दिया?!?
FROM- MOHAN SHAROTIYA WALL
अब “आप” वे वही लोग रह सकते है जो या तो केजरी-चालीसा पढ़े या हनुमान-चालीसा 🙂
इस हद तक सत्ता का लालची और बाते नैतिकता की ?? अच्छा हुआ हम साल भर पहले ही भांप गये थे और इनके समर्थन मे लिखने की भूल सुधार लि थी !!
योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण सरीखे बुढिमान थिंकर्स पर आशीष खेतान और आशुतोष जैसो को वरीयता देना आने वाले समय मे “आप” को बहुत भारी पड़ेगा लिख कर रख लीजिये !!…
.योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण “आप” की पीएसी से बाहर होकर भी देश के लोगो के दिल मे जगह बनाने मे कामयब्ब रहे जो उनकी बड़ी जीत है !!
और दूसरी तरफ केजरीवाल जी और उनके चमचे अपनी तिकडमो से इन दोनो को बाहर करके भी हर जगह गालिया खा रहे है जो उनकी हार है ??
क्रन्तिकारी लेखक महोदय, शब्दों का जाल बुनने से अच्छा है की सीधी बात की जाये!
पाठक अब इतना भी कमअक्ल नहीं रह गया है जो कोरी लफ्फाजी से कुछ भी साबित करने की कोशिश को न पहचान सके!
मैं आम सभा चुनावों में मोदी जी का समर्थक था कांग्रेस से देश को निजात दिलाने और विकास की धरा बहाने के लिए!
फिर आया दिल्ली का चुनाव और मैं केजरीवाल जी के समर्थन में आ गया! क्यूंकि मुझे केजरीवाल जी सब से अलग लगे थे (मैं आम आदमी पार्टी का समर्थक नहीं हूँ न ही बीजेपी का)!
जब बिन्नी, इल्मी, अश्विन आदि ये आरोप लगाते थे की पार्टी में केजरीवाल की तानाशाही चलती है तो मैं उसे उनकी पार्टी से बहार किये जाने के खिलाफ प्रतिक्रिया मानता था, परन्तु अब सोचने पे मजबूर हो गया हूँ की कहीं वो सब भी ऐसे ही किसी घिनौनी शाजिश के शिकार तो नहीं हुए थे!
अगले कमेंट में दी गयी मयंक गांधी की चिट्ठी से तो ऐसा ही लगता है.
IBN Khabar se sabhar
आम आदमी पार्टी की पीएसी से दो वरिष्ठ सदस्यों योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को बाहर करने के बाद भी पार्टी का विवाद थमता नजर नहीं आ रहा है। पीएसी के सदस्य और पार्टी के बड़े चेहरे मयंक गांधी ने अब यादव और भूषण को हटाने के तरीके पर ऐतराज जताते हुए राष्ट्रीय कार्यकारिणी की मीटिंग में हुई बातें सार्वजनिक कर दी हैं। मयंक ने पार्टी के निर्देशों को धता बताते हुए कार्यकर्ताओं के नाम लिखे खुले पत्र में ये बातें कही हैं।
मयंक के मुताबिक योगेंद्र और भूषण खुद ही पीएसी से किनारे होने को राजी थे लेकिन केजरीवाल इन्हें बाहर करने पर अड़े हुए थे और इसी के चलते इनकी पीएसी का पुनर्गठन करने या पीएसी से गैरहाजिर रहने की मांग नहीं मानी गई और सीधे-सीधे बर्खास्तगी का प्रस्ताव पेश कर दिया गया। मयंक की लिखी चिट्ठी का मजमून नीचे दिया जा रहा है। to be continued. . .
आशीष खेतान का मयंक गांधी पर ताना–>’कुछ लोग ब्लॉग लिखेंगे, कुछ इतिहास लिखेंगे।’
एक विचार–>खेतान साहब जैसो ने मिल कर योगेन्द्र यादव और प्रशान्त भूषण के खिलाफ बेशर्मी का जो इतिहास बनाया है तो कोई ना कोई तो उसे लिखेगा ही 🙂 मयंक गाँधी ही सही….वैसे जिस तरह से सबसे जयदा हाय-तौबा आशीष खेतान की तरफ से ही सुनाई पड रही है उससे पूरे गेम का मास्टर-माइंड होने का शक इन्ही पर जाता है….बुरा ना मानो होली है !!
नहीं शरद भाई, ये तो बस मोहरा हैI
ऐसी पार्टियों में बस एक ही मास्टरमाइंड हुआ करते हैं।
सही कहा तेजस भाई, आपसे पूरी सहमति है!! हालांकि खुद राज्यसभा जाने की जुगत मे लगे “आप” के नेतागण एक दूसरे को रास्ते से हटाने के मिशन पर काम करना शुरु कर चुके है ऐसा लगता है क्योकि सीटे सिर्फ तीन है और लिस्ट बेहद लम्बी ….आशीष .खेतान, कुमार विश्वास , गोपाल राय, आशुतोष, संजय सिंह आदि-2 और अब तो कोई अंजलि दामनिया भी अपना “दम” बटोर कर खुद पड़ी है…..
कुर्सी के ऐसे लालची लोगो का खेल देख कर शर्म आती है और बाते आदर्शवाद की ?? उपर से मानते भी नही कि सत्ता के लालच मे हम भी दूसरो जैसे ही है 🙂
सही कहा मेने भी शुरू से ही ये महसूस किया हे की आप पार्टी में कुमार विश्वास जैसे चाटुकार और आशुतोष जैसे लोगो का प्रवेश सही नहीं होगा कुमार विश्वास के बारे में तो सब जानते ही हे आशुतोष साहब के लेख हमने पढ़े हे हमें ये आदमी कोई आदर्शवादी कभी लगे नहीं ऐसे लोग कॉर्पोरेट में ही सही रहते हे आप पार्टी में इनका कोई काम नहीं था हो सकता हे इन दोनों ने औरो को भी अपने रंग में रंग दिया हो केजरीवाल चाहे जितने अच्छे हो मगर एक आदमी सब कुछ नहीं हो सकता नहीं कर सकता फिर चाटुकार बड़े खतरनाक होते हे ये किसी को भी विश्वास दिला देते हे की किसी को भी पागल तानाशाह बना सकते हे
प्रिय कार्यकर्ताओ,
मैं माफी चाहता हूं कि राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में कल जो कुछ हुआ उसे बाहर किसी को न बताने के निर्देशों को तोड़ रहा हूं। वैसे मैं पार्टी का एक अनुशासित सिपाही हूं।
2011 में जब अरविंद केजरीवाल लोकपाल के लिए बनी ज्वाइंट ड्राफ्ट कमेटी की बैठक से बाहर आते थे तो कहते थे कि कपिल सिब्बल ने उनसे कहा है कि बैठक में जो कुछ हुआ उसे वो बाहर न बताएं। लेकिन अरविंद कहते थे कि ये उनका कर्तव्य है कि वे देश को बैठक की कार्यवाही के बारे में बताएं क्योंकि वो कोई नेता नहीं थे बल्कि लोगों के प्रतिनिधि थे। अरविंद ने जो कुछ किया वो वास्तव में सत्य और पारदर्शिता थी।
राष्ट्रीय कार्यकारिणी में मेरी मौजूदगी कार्यकर्ताओं के प्रतिनिधि के तौर पर ही है और मैं ईमानदार नहीं होऊंगा अगर मैं ये निर्देश मानता हूं। कार्यकर्ताओं को किसी समीकरण से नहीं हटाया जा सकता। वे पार्टी के स्रोत हैं। उन्हें सेलेक्टिव लीक और छिटपुट बयानों से जानकारी मिले, इसकी बजाय मैंने फैसला किया है कि मैं मीटिंग का तथ्यात्मक ब्योरा सार्वजनिक करूंगा।
पिछली रात मुझसे कहा गया कि अगर मैंने कुछ भी खुलासा किया तो मेरे खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी। अब जो हो, मेरी पहली निष्ठा सत्य के प्रति है। यहां योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की बर्खास्तगी के संबंध में मीटिंग के तथ्य दिए जा रहे हैं। मैं राष्ट्रीय कार्यकारिणी से निवेदन करूंगा कि मीटिंग के मिनिट्स रिलीज किए जाएं। to be continued. . .
संक्षिप्त पृष्ठभूमिः दिल्ली के चुनाव प्रचार के दौरान प्रशांत भूषण ने कई बार धमकी दी कि वे ार्टी के खिलाफ प्रेस कॉन्फ्रेंस करेंगे क्योंकि उन्हें उम्मीदवारों के चयन पर कुछ आपत्ति थी। हममें से कुछ किसी तरह इस मुद्दे को चुनाव तक शांत रखने में सफल रहे। आरोप था कि योगेंद्र यादव अरविंद केजरीवाल के खिलाफ साजिश कर रहे हैं और इसके कुछ सबूत भी रखे गए। अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण व योगेंद्र यादव के बीच मतभेद सुलझने की हद से बाहर चले गए और उनके बीच विश्वास का संकट था। 26 फरवरी की रात जब राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य उनसे मिलना चाहते थे, अरविंद ने ये संदेश दिया कि अगर ये दो सदस्य पीएसी में रहेंगे तो वो संयोजक के तौर पर कार्य नहीं कर पाएंगे। 4 मार्च को हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक की यही पृष्ठभूमि थी। to be continued. . .
राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठकः योगेंद्र यादव ने कहा कि वो समझ सकते हैं कि अरविंद उन्हें पीएसी में नहीं देखना चाहते, चूंकि अरविंद के लिए उनके साथ काम करना मुश्किल है इसलिए वो और प्रशांत पीएसी से बाहर रहेंगे लेकिन उन्हें बाहर नहीं किया जाना चाहिए। ऐसे में दो फॉर्मूले उनके द्वारा पेश किए गए।
-पीएसी का पुनर्गठन हो और नए सदस्य चुने जाएं। इसके लिए होने वाले चुनाव में प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव अपनी उम्मीदवारी पेश नहीं करेंगे।
-पीएसी अपने वर्तमान रूप में ही काम करती रहे और योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण मीटिंग में हिस्सा नहीं लेंगे।
मीटिंग कुछ समय के लिए रुक गई और मनीष व अन्य सदस्यों ने दिल्ली टीम के आशीष खेतान, आशुतोष, दिलीप पांडेय और अन्य से मशविरा किया। इसके बाद मनीष ने योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की बर्खास्तगी का प्रस्ताव रखा। संजय सिंह ने इसका समर्थन किया। मैं इन दो कारणों की वजह से वोटिंग से बाहर रहा।
-अरविंद पीएसी में अच्छे से काम कर सकें इसके लिए मैं इस बात से सहमत हूं कि प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव पीएसी से बाहर रह सकते हैं और कुछ दूसरी महत्वपूर्ण भूमिका ले सकते हैं।
-मैं उन्हें सार्वजनिक रूप से बाहर रखने के प्रस्ताव के विरोध में था खासकर तब जब कि वे खुद अलग होना चाहते थे। इसके अलावा उन्हें हटाने का ये फैसला दुनिया भर के कार्यकर्ताओं की भावनाओं के खिलाफ है।
यानी, मैं उनके पीएसी से बाहर जाने से सहमत था लेकिन जिस तरह से और जिस भावना से ये प्रस्ताव लाया गया वो अस्वीकार्य था। इसलिए मैंने गैरहाजिर रहने का निर्णय लिया। दूसरी जानकारियां मीटिंग के मिनट्स जारी होने पर बाहर आ सकती हैं।
ये कोई विद्रोह नहीं है और न ही पब्लिसिटी का कदम है। मैं प्रेस में नहीं जाऊंगा। मेरे इस कदम के चलते मेरे खिलाफ प्रत्यक्ष या परोक्ष कार्रवाई हो सकती है, तो ऐसा हो जाए।
जय हिंद
मयंक गांधी
हयात भाई, देखते जाइये अभी इनमे जूते भी चलेंगे क्योकि राज्यसभा मे जाने का मतलब “सांसद” बनना जो की खुद केजरीवाल साहब भी नही बन पाये है :)……..
आप् पार्तेी इतने बदे विवाद मे केजरेी जेी केीचुप्पेी रहस्यमय लगतेी है
पार्तेी कोई भेी हो किसेी को हताने और रख्ने केी स्वतन्त्रता रहतेी है !
लेकिन योगेश जेी और प्रशान्त् जेी को जिस तरह से “बदनाम ” कर्के हताया वह गलत तरेीका था !
भाजपा मे भेी मुरलेी जेी और आदवानेी जेी को भेी सन्स्देीय बोर्द से हताया गया था
क्माल कि बात तो यह है कि आप पारतेी के विवाद चुनाव मे भारेी जेीत के बाद आ रहे है जो हारने के बाद आने चाहिये थे !
अगर योगेश जेी और प्रशान्त जि ने पर्तेी विरोधेी कार्य् किये थे तो उन्को उसि समय पर्तेी से निकाल क्यो नहेी दिया गया था !
शशेी भुशन जेी ने तो खुले आम किरन जेी को चुनाव के दौरान ज्यादा योग्य बतलाया था तब उन्को पार्तेी से क्यो नहेी निकाला गया था ? या निलम्बित क्यो नहेी किया गया था जो अन्य् पार्तिया करतेी है !