संजीव कुमार (Antim)
हमारी मुख्य धारा की मीडिया हो या सामानांतर या किसी और प्रकार की, सभी एक मुस्त गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जी और उनके मुसलमानों के प्रति विचार और नीतियों को समझाने के लिए सिर्फ और सिर्फ सांप्रदायिक दंगो और मुस्लिमों के फेक एनकाउंटर का गुजरात सरकार से सम्बन्ध तक ही अपने आप को सिमित क्यूँ करते रहें है? क्या? हमारी मीडिया के पास और कोई विषय वस्तु नहीं हैं जिसके आधार पर वो गुजरात सरकार की मुस्लिम विरोधी नीतियों को उजागर करने में मदद ले सकती है? हमारी मीडिया क्यूँ मोदी से सिर्फ गोधरा दंगों लिए ही माफ़ी मंगवाने पर तुली हुई है? मोदी जी तो नहीं पर उनके कुछ समर्थक जरूर, मुसलमानों से गोधरा के लिए माफ़ी मांगने और उसे भुलाने का आग्रह करते नजर आते है। अगर हम 2002 के गोधरा के जनसंहार को भूल भी जाये तो भी आतंकवाद के दमन के नाम पर सिलसिलेवार ढंग से हो रही फर्जी मूठभेड़ो में मुसलमानों की हत्या को हम कैसे भुला पाएंगे। कुछ देर के लिए अगर हम इन क़ानूनी हत्यारों को भी भूल जाएँ और प्रदेश में पिछले 10-12 वर्षों के दौरान मुसलमानों की आर्थिक और शैक्षणिक विकास पर नजर दौड़ाए तो पता चलेगा की मोदी सरकार ने गुजरात के मुसलमानों के साथ किस प्रकार की भेदभाव की नीति को सुविचारित ढंग से आपनाया है।
गुजरात में मुसलमानों की जनसंख्या गुजरात की कुल जनसंख्या का 9.7% है पर वर्तमान सरकार द्वारा पिछले एक दशक में चलाये गए SJSRY और NSAP योजना को छोड़कर ज्यादातर योजनाओं में मुसलमानों की भागीदारी उनके जनसंख्या के अनुपात से कम ही है (सच्चर समिति रिपोर्ट, पृ.स. 178)। उदहारण के तौर पर कृषि बीमा योजना में मुसलमानों की भागीदारी मात्र 3.5% है, जबकि पॉवर टिलर आवंटन के मामले में मुसलमानों की भागीदारी मात्र 1.4% और ट्रेक्टर के मामले में 4.1% है। गुजरात में मोदी के शासन कल में सहकारी बैंक या ग्रामीण विकास बैंक से वहां के मुसलमानों को किसी प्रकार का कोई कर्ज नहीं मिला है (सच्चर समिति रिपोर्ट, पृ.स. 373-75)।
बचत और क्रेडिट सोसाइटी बनाने और छोटे उद्द्योग लगाने के मामले में गुजरात के मुस्लिम वहां के हिन्दुओं से दोगुने आगे है लेकिन इस सम्बन्ध में राज्य सरकार द्वारा दी जाने वाली सहायता और प्रशिक्षण का लाभ देने में हिन्दुओं को कहीं अधिक महत्व दिया जाता है। गुजरात में दिए गए कुल प्रशिक्षण का लाभ उठाने में वहां के मुसलमानों की भागीदारी मात्र 5.5% ही है जबकि उद्द्योग लगाने के लिए सरकार द्वारा उपलब्ध कराये जाने वाले भवनों में मुसलमानों की भागीदारी मात्र 4.5% ही है (सच्चर समिति रिपोर्ट, पृ.स. 373-5)। गुजरात के विभिन्न बैंक में खुले कुल खातो में से मुसलमानों की हिस्सेदारी 12% है जबकि प्रदेश में बैंक द्वारा वितरित किये गए कुल कर्जो में मुसलमानों की हिस्सेदारी मात्र 2.6% है (सच्चर समिति रिपोर्ट, पृ.स. 127)। गुजरात का प्रत्येक मुसलमान वहां के बैंक में प्रति हिन्दू द्वारा जमा किये गए धन से 20% अधिक पैसे जमा करता है और इसके बावजूद कर्ज देने के मामले में मुसलमानों को हिन्दुओं की तुलना में कम महत्व दिया जाता है। भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (SIDBI) योजना के तहत 2000-01 और 2005-06 के दौरान गुजरात सरकार द्वारा दिए गए कुल 3133.77 करोड़ के कर्जो में से मुसलमानों को मात्र 0.44 करोड़ दिया गया। इसी प्रकार नाबार्ड द्वारा कर्जों की पुनर्वित्त में मुसलमानों को 1.76% ही हिस्सा दिया गया (सच्चर समिति रिपोर्ट, पृ.स. 351-53)।
2004-05 में गुजरात में 41% मुसलमान सेवा क्षेत्र में नौकरी करते थे जो कि 2009-10 में घटकर 31.7% रह गया। उसी प्रकार 2004-05 में 59% मुसलमान स्वरोज़गार करते थे जो कि 2009-10 घटकर 53%रह गया। इसी काल के दौरान मुसलमानों कि वेतनभोगी नौकरियों में भागीदारी 17.5%से घटकर 14% हो गई। यह भी गौर करने वाली बात है कि गुजरात में अनियमित मजदूरी कि कुल भागीदारी में मुसलमानों का हिस्सा इसी कालावधि के दौरान 23% से बढ़कर 32% हो गया है। इसका मतलब तो यही है कि मोदी के शासनकाल के दौरान गुजरात में मुसलमानों को निम्न दर्जे के रोजगारो कि ओर धकेला जा रहा है। 2001 में जब गुजरात कि कुल साक्षरता दर 69.1% थी तब वहाँ के मुसलमानों में साक्षरता दर 73.5% थी जबकि 2007-08 में जब गुजरात कि कुल साक्षरता दर 74.9% हो गई तब भी वहाँ के मुसलमानों में साक्षरता दर 74.3% है। 6-14 वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों द्वारा किसी प्रकार के शैक्षणिक संस्थानों में नामांकित होने के मामले में गुजरात के हिन्दू और मुस्लिम समाज में औसत अंतर राष्ट्रीय औसत से कम है (अतुल सूद, पृ.स. 270, तालिका 9.9)। क्या इन सब के पीछे गुजरात सरकार के द्वारा मुसलमानों के साथ किये जाने वाले भेदभाव कि नीति जिम्मेदार नहीं है? मोदी जी गुजरात में मुसलमानों में शिक्षा के प्रति रुझान में आई कमी के लिए मदरसा को भी दोषी नहीं ठहरा सकते है क्योंकि पूरे भारत में गुजरात ही एक ऐसा प्रदेश है जहाँ मदरसा सबसे कम प्रचलित है (सच्चर समिति रिपोर्ट, पृ.स. 293)।
मोदी जी और उनके समर्थक जगह जगह ये कहते फिरते है की सच्चर समिति की रिपोर्ट में गुजरात के मुसलमानों की स्थति बंगाल और राष्ट्रीय औसत से बेहतर है. राष्ट्र संघ ने भी ये माना है की गुजरात के मुसलमानों में गरीबी भारत के मात्र तीन राज्यों से ही बेहतर है जिसमे असम, उत्तरप्रदेश और पश्चिम बंगाल आते हैं। जब हम गुजरात के मुसलमानों और बंगाल के मुसलमानों के जीवन स्तर की तुलना करते हैं तो हमें उनके ऐतिहासिक परिपेक्ष्य को भी ध्यान में रखना चाहिए। हम ये भूल जाते हैं कि यह वही गुजरात है जहाँ के बोहरा और मेनन आदि जैसे मुसलमान व्यापारी वर्ग मध्यकाल में पूरे संसार में भारत के व्यापारी वर्ग का नेतृत्व करते थे और मध्यकाल से ही देश के अन्य भाग के मुसलमानों से कहीं अधिक धनी थे लेकिन इसके विपरीत बंगाल के ज्यादातर मुसलमान मध्य काल से ही बंधुआ कृषक मजदूर का जीवन व्यतीत करते आ रहे थे और ये बात रिचेर्ड ईटन की किताब में भी सिद्ध हो चुकी है। हिंदुत्व समर्थक भी इस बात को स्वीकार करते है की बंगाल के गरीब दलितों और हिन्दुओं ने अपनी गरीबी के कारण ही इस्लाम धर्म को अपनाया था इसलिए वे अब रिचेर्ड ईटन की खोज को विदेशी कह कर ठुकरा भी नहीं सकते हैं। अगर बंगाल के ज्यादातर मुस्लिम पहले गरीब दलित और आदिवासी थे तो आप ये कैसे उम्मीद कर सकते हैं की बंगाल के मुसलमान देश के अन्य क्षेत्रों के दलित और आदिवासियों से बेहतर जीवन व्यतीत कर सकते हैं। बंगाल के दलित और गरीब ये सोच कर इस्लाम में परवर्तित हो गए थे की धर्म बदलने से उनका जीवन स्तर सुधर जायेगा लेकिन इस्लाम के रहनुमा क्या गरीबों पर कम जुल्मो सितम करते है? वो क्या जात-पात का अंतर और भेद-भाव कम करते हैं? ऐसे में गुजरात और बंगाल के मुसलमानों के जीवन स्तर का तुलनात्मक अध्ययन तर्क संगत ना होगा। और यदि हम तुलना ही करना चाहते हैं तो मोदी जी के शासन संभालने और उनके शासन संभालने के पूर्व के समय में गुजरात के मुसलमानों के जीवन स्तर की तुलना करनी चाहिए जिससे ये पता चल सकेगा कि मोदी जी ने गुजरात के मुसलमानों के साथ क्या किया है। गुजरात के मुसलमानों की पिछले 10 वर्षों में क्या हालत हुई है मोदी जी सिर्फ उसके लिए जिम्मेदार है न की मुख्यमंत्री बनने से पहले मुसलमानों की स्थिति के लिए भी।
जो लोग गुजरात में मुसलमानों की बेहतर स्थिति का दावा कर रहे है वो मुख्यतः राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) की 2011-12 में आई नवीनतम रिपोर्ट को भी अपना आधार बना रहे है जिसमें ये कहा गया है कि गुजरात के मुसलमानों में गत दो वर्षों में 26% गरीबी कम हुई है (गरीबी पर योजना आयोग की रिपोर्ट 2009-10, मार्च 2012, पृ.स. 3) (इंडियन एक्सप्रेस 06 नवम्बर 2013)। अगर हम NSSO के 1999-2000 और 2009-2010 के आंकड़ो का तुलनात्मक अध्यन करें तो पता चलता है की इस कालांतर में गुजरात के मुसलमानों की गरीबी स्तर में कोई खास अंतर नहीं आया है (टाइम्स ऑफ़ इंडिया 16 मई 2012)।
प्रति व्यक्ति मासिक खर्च के मामले में गुजरात के मुसलमानों की स्थिति वहां के दलित और आदिवासियों से बेहतर नहीं है और न ही बिहार, बंगाल, राजस्थान, और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों से बेहतर है। कुछ ऐसी ही हालत है गुजरात के शहरी मुसलमानों की भी। हालाँकि ऐसा नहीं है की गुजरात में सभी अल्पसंख्यक वर्ग की यही हालत है। उदाहरण के तौर पर सच्चर समिति के अनुसार गुजरात में ईसाई और पारसी वर्ग में गरीबी नगण्य है (सच्चर समिति रिपोर्ट, पृ.स. 155 और 158-9)।
प्रश्न यह उठता है की यदि हम अपनी बिकी हुई भ्रष्ट मीडिया से इन आंकड़ो पर सवाल न उठाने पर आश्चर्य न भी करें तो क्या हमें देश की समानान्तर मीडिया की इस तरह के आंकड़ो पे चुप्पी पे आश्चर्य नहीं करना चाहिए? मीडिया को अगर हम छोड़ भी दे तो मोदी विरोधी राजनितिक पार्टियों और सेकुलरिज्म के नाम पर झंडा उठाने वाले उन बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की चुप्पी को हम कैसे समझे? क्या ऐसा संभव है की इस तरह के आंकड़ो को ढूढने में पत्रकारिता और राजनीती से जुड़े लोग असक्षम हैं?
(This is part of a report on Gujarat’s model of development, written by me for Jagriti Natya Manch. I am the script writer, director and founding member of the Manch. This theater group consists of students from JNU, DU and IIMC)
MUJHE EK BAAT SAMAJH NAHEE AAYEE………………… JAB MUSALMAANO KO ALAG DESH, UNKEE MANG PAR DE DIYA GAYA THAA, TO YE HINDUSTAAN ME KYA KAR RAHE HAIN???????????????????????????????????????
indarjeet ji
sab se pahle aap ka khabar ki khabar me aap ka swagat hai.
Janab aap history fir se dekhe, pakistan mangne wale sirf 30 % se bhi kam the baki sabhi india me hi rahna chahte the.
is topic par bahoot he zaldi aap ko samadhan uplabdh karaoo ga indarjeet tomar ji is ke leya aap ko azadi ke samaz 1947 ki yatra karni pade gi jo itihaas ke panno say he sambhav hai kahani thodi purani lakin bilkul sahi paye jaye gi kuch logo ki wajah say hum ya aap ya koi bhe kisi ak puri kaub ko galat nai kah shakta asha karo ga aap hameri bat samaz paa rahey ho gey aur aap ko viswaas deelata ho ki bahoot he zaldi aap ki samasya ka samadhaan uplabh ho ga
sadar
pradeep dubey
ये कर रहे हे की गांधी नेहरू आज़ाद प्रेमचंद लोहिया के भारत ने तब मज़बूरी में पाकिस्तान को जरूर स्वीकार कर लिया था मगर भारत ने 2 नेशन थ्योरी को कभी भी स्वीकार नहीं किया था भारत को हिन्दू नहीं सेकुलर राष्ट्र घोषित किया गया इसी आधार पर भारत को कश्मीर नागालैंड गोवा मिजोरम अरुणाचल सिक्किम लक्षद्वीप मिले इसलिए बेकार की बाते बंद कीजिये