सिडनी, पेशावर और फिर पेरिस! सीरिया, इराक़, नाइजीरिया, पाकिस्तान और जाने कहाँ-कहाँ! कहीं तालिबान, कहीं अल क़ायदा, कहीं बोको हराम, कहीं आइएसआइएस और कहीं कुछ और, कोई और! वहशत और दहशत की लगातार ख़ूँख़ार मुनादियाँ! इसलाम के एक ख़ास संस्करण, एक कूढ़मग़ज़ समझ और तथाकथित जिहाद के उन्माद ने क्या दुनिया को एक नये ख़तरे के कगार पर ला खड़ा किया है? आज यह सवाल शिद्दत से पूछा जा रहा है?
‘शार्ली एब्दो’: 2011 और 2015 का फ़र्क़
कार्टून पत्रिका ‘शार्ली एब्दो’ पर यह वहशियाना हमला क्यों हुआ? ‘शार्ली एब्दो’ कोई दक्षिणपंथी पत्रिका नहीं है. यह वाम रुझान की पत्रिका है, जो मानती है कि धर्म मानव की स्वतंत्रता के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है. चाहे वह कोई भी धर्म क्यों न हो. इसलिए उसके कार्टूनों के निशाने पर हमेशा कई धर्म रहे हैं, कैथोलिक ईसाई धर्म भी, यहूदी भी और इसलाम भी. यह अलग बात है कि पत्रिका के काफ़ी कार्टून अकसर चरमपंथी इसलाम और तथाकथित जिहादी तत्वों पर तीखा वार करते रहे हैं, क्योंकि हाल के बरसों में इसलामी चरमपंथ का हिंसक उभार पूरी दुनिया के लिए चिन्ता का विषय रहा है. लेकिन दूसरी तरफ़ यह भी सही है कि ‘शार्ली एब्दो’ के कुछ कार्टून वाक़ई मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाले और उन्हें चिढ़ाने वाले भी माने जा सकते हैं. इसीलिए कई बार उसने मुसलमानों की नाराज़गी मोल ली. तीन साल पहले, नवम्बर 2011 में उसके दफ़्तर पर हमला भी हुआ. लेकिन उस हमले और आज के हमले में बड़ा फ़र्क़ है.
यूरोप में बढ़ता तनाव
क्या फ़र्क़ है? सवाल तब भी वही था. आख़िर ऐसे कार्टूनों से मुसलमान ही क्यों भड़कते हैं? सवाल आज भी यही है. और जवाब तब भी वही था. पैग़म्बर मुहम्मद का चित्र नहीं बनाया जा सकता, उनका कार्टून बना कर खिल्ली उड़ाना तो क़तई बर्दाश्त नहीं किया जा सकता. जवाब आज भी वही है. लेकिन तब दफ़्तर पर सिर्फ़ आगज़नी की गयी थी. आज पेशेवराना और बर्बरतम आतंकी तरीक़े से दस पत्रकारों को मौत के घाट उतार दिया गया. 2011 और 2015 का फ़र्क़ यही है. और यहीं पर सवाल यह भी है कि अगर विरोध है भी तो उसे लोकताँत्रिक तरीक़ों से क्यों नहीं जताया जा सकता? धरना, प्रदर्शन, ज्ञापन देकर भी तो विरोध व्यक्त किया जा सकता है! उसके लिए हिंसा की ज़रूरत क्यों पड़ती है?
लेकिन दो दिन बाद ही यह साफ़ भी हो गया कि यह हमला केवल कार्टूनों के विरोध में नहीं था, बल्कि यह फ़्राँस पर किया गया आतंकवादी हमला था, ताकि उसकी धमक पूरे यूरोप को दहलाये. सही या ग़लत, अब अटकलें लगायी जा रही हैं कि कई देशों से जो लगभग पन्द्रह हज़ार आतंकवादी आइएसआइएस के लिए लड़ने गये थे, उन्हें उनके देशों में वापस भेजने की योजना है. अगर यह सच है तो सचमुच चरमपंथी बड़ी ख़तरनाक साज़िश में लगे हैं!
मैं भी शार्ली ! दुनिया भर में ‘शार्ली एब्दो’ पर हमले का विरोध
चरमपंथी इसलाम अब कितना भयावह रूप ले चुका है, 2011 और 2015 के फ़र्क से इसे आसानी से समझा जा सकता है! इसलिए ‘शार्ली एब्दो’ के संकेत ज़रा ख़तरनाक नज़र आ रहे हैं. ख़ास कर इसलिए कि यूरोप में चरमपंथी इसलाम की बढ़ती दस्तक ने हाल में वहाँ के दक्षिणपंथियों को नयी ज़मीन दी है. अमेरिका, ब्रिटेन और फ़्राँस समेत पश्चिम के कई देशों के मुसलिम नौजवानों के आइएसआइएस के पक्ष में लड़ने की ख़बरों ने पश्चिम और इसलाम के बीच लगातार बढ़ रहे अविश्वास, सन्देहों और भय को और बढ़ाया है. ऐसे में सिडनी और पेरिस की घटनाओं के बाद वहाँ लोगों को लगने लगा है कि चरमपंथी इसलाम कहीं अब उनके लिए बड़ा ख़तरा तो नहीं बनने जा रहा है? और क्या यूरोप अब एक नये ध्रुवीकरण के कगार पर है? क्या ‘ईसाई और मुसलिम सभ्यताओं’ के टकराव की थ्योरी कहीं अगले कुछ बरसों में सच तो नहीं होनेवाली है, जिसकी चर्चा हाल के कुछ बरसों में रह-रह कर होती रही है! या फिर पूरी दुनिया मुसलिम और ग़ैर-मुसलिम के दो ध्रुवों में बँटने की ओर है?
नये ख़तरे के बीज
क्या ये आशंकाएँ बकवास हैं? बहुतों का मानना तो यही है कि यूरोप का सेकुलरिज़्म और लोकतंत्र इतना मज़बूत है कि उसे कहीं कोई ख़तरा नहीं. लेकिन थोड़ा ज़मीन पर उतरिए तो कुछ और दिखता है. मसलन, अभी हाल में स्वीडन में तीन मस्जिदों पर हमले की घटनाएँ हुईं! पश्चिम के तथाकथित इसलामीकरण के ख़िलाफ़ जर्मनी के द्रेसदेन शहर में पिछले सोमवार को प्रदर्शन हुआ, जिसमें अठारह हज़ार लोगों ने हिस्सा लिया! इंग्लैंड समेत यूरोप के कई देशों में आप्रवासी विरोधी भावनाएँ ज़ोर पकड़ रही हैं और क़ानूनों को सख़्त बनाने की माँग की जा रही है. ये सब बातें ‘शार्ली एब्दो’ पर हमले के पहले की हैं. तो क्या ये किसी ख़तरे के बीज नहीं हैं?
वैसे, ईसाई वर्चस्व वाले पश्चिम और इसलामी जगत के बीच छत्तीस के आँकड़े का अपना एक इतिहास रहा है. पश्चिम मानस जहाँ इसलाम को ‘मध्ययुगीन शिकंजे में क़ैद’, अनुदार, कट्टर, अलोकताँत्रिक और बदलाव-विरोधी मानता रहा है, वहीं इसलामी जगत का एक बड़ा हिस्सा पश्चिमी रहन-सहन, खुलेपन, जीवन-शैली, लोकतंत्र और आधुनिक क़ानूनों को ‘शैतानी’ मानता रहा है. इसलामी जगत में कट्टरपंथी मुल्ला अकसर इन्हीं तर्कों के सहारे ज़िन्दा रहे हैं. अपनी आँखो देखी बात है कि ईरान में शिया मज़हबी क्रान्ति हो या अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का उदय, मुल्लाओं ने वहाँ क़ब्ज़ा जमा चुकी पश्चिमी संस्कृति को ही अपना निशाना बनाया, उसे अनैतिक और ‘अल्लाह-विरोधी’ घोषित किया और इसलिए अतीत के ‘सुनहरे’ इसलामी नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना की उनकी अपील को काफ़ी समर्थक भी मिल गये.
मौत के फ़तवे, कोड़ों की सज़ा!
कुल मिला कर आज इसलामी चरमपंथ एक विकट संकट के तौर पर उपस्थित है, जो पूरी दुनिया में ‘इसलामी ख़िलाफ़त की स्थापना’ और ‘अल्लाह के शासन’ का सपना देख रहा है. और इस चरमपंथ को कुछ बड़े इसलामी देशों की कट्टरपंथी सरकारों से आक्सीजन मिलती रहती है. बरसों पहले सलमान रुश्दी के ख़िलाफ़ ईरान की तरफ़ से जारी मौत का फ़तवा हो या बिलकुल अभी-अभी सऊदी अरब में उदारवादी वेबसाइट चलानेवाले रईफ़ बदावी को दी गयी एक हज़ार कोड़ों की सज़ा हो, ये घटनाएँ न सिर्फ़ दुनिया में इसलाम के ‘अनुदार’ होने की धारणाओं को और मज़बूत करती हैं, बल्कि चरमपंथ को नैतिक समर्थन और संरक्षण भी देती हैं.
और चिन्ता की बात है कि काफ़ी समय तक उदार इसलामी देशों में गिने जानेवाले कई देशों में कट्टरपंथी इसलाम का दबाव हाल के बरसों में ज़बर्दस्त तरीक़े से बढ़ा है. कट्टर सुन्नी इसलाम के दबाव का नतीजा है कि पाकिस्तान में उर्दू भाषा से फ़ारसी शब्दों की कँटाई-छँटाई और उनकी जगह अरबी शब्दों के लाने की पैरवी हो रही है. क्योंकि फ़ारसी शिया ईरान की भाषा है! देखा आपने, धार्मिक कट्टरपंथ का मूल चरित्र सब जगह एक ही होता है, धर्म चाहे जो भी कोई हो!
कोई सुनेगा अल-सिसी की आवाज़?
चरमपंथी इसलाम की इस मध्ययुगीन आकाँक्षाओं ने दुनिया भर के मुसलमानों के लिए तीन तरह की चिन्ताएँ पैदा की हैं. एक तो यह कि वे इसलाम के भीतर चरमपंथी ताक़तों के ख़िलाफ़ लड़ें और उनको किसी प्रकार भी बढ़ने न दें (हालाँकि दुर्भाग्यपूर्ण सच यह है कि ये ताक़तें लगातार मज़बूत हो रही हैं), और दूसरा यह कि इससे दुनिया में इसलाम के बारे में जो ग़लत धारणाएँ फैल रही हैं और हर मुसलमान को ‘जिहादी’ समझा जाने लगा है, उसका भी लगातार खंडन-मंडन करते रहें और सफ़ाई देते रहें. और तीसरी चिन्ता यह कि तमाम दुनिया के कई देशों में मुस्लिमों और दूसरे समुदायों के बीच तनाव लगातार बढ़ रहा है. भारत और पड़ोसी देश भी इससे अछूते नहीं हैं. बांग्लादेश में उदारवादी और कट्टरपंथी मुसलमानों के बीच हिंसक टकराव रोज़ की कहानी है. पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान पहले से ही धधक रहे हैं. म्याँमार और श्रीलंका में बौद्धों और मुसलमानों के बीच तनाव हाल के वर्षों में काफ़ी बढ़ गया है. भारत में आइएसआइएस और अल क़ायदा जैसे संगठनों की आहटों के बीच संघ परिवार के संगठन भी लगातार माहौल बिगाड़ने में जुटे हैं, और उनकी भरपूर मदद के लिए याक़ूब क़ुरैशी, असदुद्दीन ओवैसी, आज़म ख़ान और अबू आज़मी हैं ही, जो अपनी घिनौनी बयानबाज़ियों से संघ के साम्प्रदायिक एजेंडे को लगातार मज़बूती देते रहे हैं.
इसलामी दुनिया में मौजूदा हालात को लेकर चिन्ता की एक बड़ी पहल अभी सामने आयी है. मिस्र के राष्ट्रपति अब्दुल फ़तह अल-सिसी ने इसलाम में एक ‘सुधारवादी क्रान्ति’ की आवाज़ बुलन्द की है. आज के इसलाम की यह सबसे बड़ी ज़रूरत है. क्या अल-सिसी की आवाज़ सुनी जायेगी? अगर अगले कुछ महीनों में चरमपंथ का यह रथ नहीं रुका तो ख़तरे के काले बादल साफ़ दिख रहे हैं.
(लोकमत समाचार, 10 जनवरी 2015) http://raagdesh.com
नवभारत टाइम्स की खबर के अनुसार शार्लि एब्दो पर हुए हमले के दौरान आतंकियों की गोली का निशाना बनने वाले फ्रांसीसी मुस्लिम पुलिस अधिकारी अहमद मेराबत के भाई के शब्द हे….. ” “मेरे भाई को नकली मुसलमानों ने मारा” ??
हर समय असली नकली ?? नकली असली ?? मुसलमानो की ये नौटंकी कभी खत्म नही होगी ?? हद है मक्कारी की ??आतंकवादियो और काटीलो को बाकी मुसलमान कभी भटके हुए तो कभी गुमराह कह कर उन्का बचाव करते हे ?? अरे उन मुसलमानो ने कत्ल किये है तो बाकी मुसलमानो को उनकी बुराई करने मे पसीने क्यो आ जाते है ?? जहन्नुम बना कर रख दिया है पूरी दुनिया को ?? भला शान्ति का मजहब हुआ ….हमेशा मार-काट , हर समय खून खराबा ??
कोई जहन्नुम नहीं बना रखा हे जब अमेरिका ने इराक पर झूठे आरोप लगाकर हमला किया था ( जिसका नतीजा पूरा इलाका भुगत रहा हे ) क्या तब भी आपको जहन्नुम की बात याद आई थी ?जहन्नुम ऐसा होता तो ये वेस्ट के अमीर देश कब का मुस्लिम नागरिको को वीसा देना बंद कर देते ? अभी परसो मेरा कज़िन लंदन बड़ी जॉब पर गया हे इनको भी मुस्लिम नागरिक चाहिए क्योकि वो शराब पीकर दंगा नहीं करते पारिवारिक जीवन जीते हे काम करते हे वेस्ट में खुद फेथ खत्म होने से इन्होने परिवार बसाना बच्चे पैदा करना बोझ समझ रखा हे नतीजा काम करने वाले हाथ की भी कमी हो गयी हे और मुस्लिम कटटरपन्तियो का हौसला भी और आशंका भी बढ़े हुए हे जो हुआ मुझे उसका सख्त अफ़सोस हे मगर इससे ज़्यादा तो वेस्ट के नागरिक अचानक किसी मनोरोगी के गोलीबारी से मारे जाते हे मुस्लिम कटरपंथ की जड़ो में अरब देशो के शेखो सुल्तानों की अथाह दौलत हे इनके इन्ही वेस्ट देशो से बहुत घनिष्ठ रिश्ते हे अपनी अथाह दौलत ये इन्ही देशो के बेंको में रखते हे इन्ही देशो में अय्याशिया करते हे अपनी दौलत लुटाते हे इसी पेरिस में कुछ साल पहले एक अरबी शहज़ादे ने अरबो रुपया खर्च करके जन्मदिन का जश्न मनाया था क्या उस शहज़ादे का कार्ट्रन बनाया था नहीं क्यों की उन्ही के विज्ञापनों से आपकी मेगज़ीन आपकी क्रिएटिविटी आपकी शराब का खर्च निकलता होगा ? फ़्रांस सरकार भारत को खरबो के हथियार बेच सकती हे मगर मुस्लिम कटरपंथ के खिलाफ साफ़ साफ़ कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग नहीं कह सकती हे ? क्यों नहीं कहती क्यों की अच्छा हे तनाव बना रहे आपके हथियार बिकते रहे क्या इस कार्टून पत्रिका ने कभी इस मानसिकता पर कार्टून बनाया होगा बही सवाल ही नहीं हे वहा तो अभिवयक्ति की सवतंत्रता अड्जस्ट कर लेते हे क्यों की अपना फायदा हे इन्ही देशो में होलोकास्ट ( हिटलर दुआरा यहूदियों का नरसंहार ) पर सवाल उठाने पर मीनकम्फ ( हिटलर की आत्मकथा ) घर में रखने पर जेल हो सकती हे यानी आप भावनाओ का आदर करते हे ? फिर क्यों आप पैगम्बर हज़रत मोहम्मद साहब का कार्टून बनाते हे किसी भी मुस्लिम देश में हज़रत ईसा मूसा बुद्ध का अपमान नहीं किया जाता हे
क्या ये बेशर्मी नही है कि फिल्म “पी के” मे हिन्दुओ को निशाने पर लेने की “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” की तारीफ पर पर कई ब्लॉग लिखने वाले मुस्लिम ब्लॉगर्स और कॉमेंट्स लिखने वाले मुस्लिम पाठको के शारली एबदो पर मुस्लिम आतंकवादियो द्वारा कई लोगो की जान लेने पर ना तो ब्लॉग ही नज़र आते है और ना ही कॉमेंट्स ?? हिन्दुओ के धार्मिक मामलो मे घुसपैठ करने वाली “पी के” मुसलमानो केी नजर मे सही और मुसलमानो के धार्मिक मामलो वाली “शारली एबदो” गलत ?? ………………
“आखिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर मुसलमान के नज़रिये मे इतना दोहरापन क्यो है” ??
आपको याद होगा कि पेंटर मक़बूल फ़िदा हुसेन ने देवी सरस्वती की नग्न पैंटिंग बनाई थी तब भी मुसलमानो ने उनके खिलाफ ना जाकर उस शर्मनाक काम को “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” का नाम देकर उनका बचाव ही किया था ?? कितने विरोध के स्वर उठे थे मुस्लिम समाज से मक़बूल फ़िदा हुसेन के खिलाफ ?? मुसलमानो का यही दोहरापन सवालिया निशान खड़े करता है…
हिन्दुओ के देवी-देवताओ के बारे मे बनाई गई नंगी पैंटिंग “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” और शारली आबदो के कार्टून “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” ना होकर उस्का अंजाम 12 लोगो की मौत !! मगर मुसलमानो की निगाह मे दोनो सही है ?? आखिर कैसे कर लेते हो इतनी नौटंकी ??
अरे भाई जहा तक मकबूल और शर्ली की बात हे तो मुस्लिम तो कोई भी हो कही भी कैसा भी हो अमीर हो गरीब हो मुल्ला हो भांड हो सेकुलर हो कटरपंथी हो शिया सुन्नी देवबंदी बरेलवी अरब शवेत मेलसेशियन इंडोनेशियन बंगाली कज़ाक उजबक मद्य एशियन कोई भी कैसा भी हो शराबी बयज़खोर भी हो तो भी इस बात पर सब एकमत हे की पैगम्बर हज़रत मोहम्मद साहब का कोई चित्र अपमान की तो खेर बात ही क्या सम्मान देने के लिए भी नहीं बनाया जा सकता हे दूसरी तरफ मकबूल फ़िदा के चित्रो के बचाव में अनगिनत हिन्दुओ ने तफ्सील से लेख लिखे और बताया की ये कोई अपमान नहीं हे बाल ठाकरे तक ने शायद कहा था की मकबूल फ़िदा हुसेन को वापस अ जाना चाहिए हलाकि मेरा माना हे की मकबूल ने हिन्दू धर्म का नहीं भारतीय सेक्लुरिसम का घोर अपमान किया जो भारत छोड़ कर क़तर की नागरिकता ली लंदन दफ़न हुए क्यों ? या तो उन्हें चित्र वापस ले लेने चाहिए थे या बहादुरी से यहाँ अपना मुकदमा लड़ते नब्बे की उम्र में भी उन्हें हमले का डर और जीने का मोह था तौबा हे पि के की बात तो———
शरद
हिन्दू कट्टर ग्रुप ने भी मक़भ्ल् फ़िदा हुसैन के साथ वही किया जो मुस्लिम आतंकवादियों ने किया है . दूसरे पे हंसने से पहले अपने गिरेबान में भी झांकन चाहिए . सभी को हर धर्म के आस्था का ख्याल करना चाहिए . में नहीं कहता के मक़बूल फ़िदा ने सही काम किया है .
वहाब चिश्ति
काश की आप जान से मारने और शब्दो से विरोध जताने का फर्क समझ पाते ?? अफसोस कि अधिकतर मुस्लिम आप जैसे ही सोच वाले है ….अगर हिन्दू कट्टरवादी भी मुसलमानो जैसे ही होते तो फ़िदा हुसेन इतने सालो तक इस देश मे नही रह पाये होते ….गिरेबां मे झाँकने वाले मशवरे के लिये शुक्रिया 🙂 वैसे मुसलमानो के पास कोई गिरेबां होता भी है क्या ?? आतन्क्वादियो तक क विरोध तक तो खुल कर कर नहेी पाते और चले हे समज्हाने ?? गालिब खयाल अच्चा हे !!
आप पूरी तरह संघ मोदी भाजपा के कार्यकर्त्ता की भूमिका में आ गए हे आपका ये कहना भी गलत हे की आपने केजरीवाल कोपि के से मुझे भी निराशा ही हुई ये सुनकर की प्लोट वाही हे औ एम जी वाला लेकिन औ एम जी का तो कोई विरोध नहीं हुआ था तो इस बार हंगमा क्यों ? अगर इसमें आमिर खान न होते तो कोई ध्यान भी ना देता असल में आमिर शारुख सलमान की अथाह लोकप्रियता ( पचीस साल लगातार नाट आउट ) से हिन्दू कटरपन्तियो की बहुत जान जलती हे ( और पाकिस्तानी कटटरपन्तियो की भी ) आज से नहीं पंद्रह साल पहले ही मेने महसूस किया था तो पि के के बहाने उन्हें अपनी भड़ास निकालने का मौका मिला फिर दूसरी बात की मोदी जी की सफलता के कारण हिन्दू कठमुल्ला बोरा गए हे जब उन्होंने देखा की एक व्यक्ति साम्प्रदायिकता की सीढ़ी से सबसे ऊँची कुर्सी तक पर जा बैठे हे तो उनका भी तम्मनाओ के तूफ़ान उठे हुए हे वो भी चाहते हे की हम भी कुछ बने किसी को नेता बनना हे किसी को मंत्री किसी को चंदा खीचना हे इसलिए ये पगलाय घूम रहे हे यही वज़ह हे ओ म जी की जगह पि के का विरोध करने की बाकी शरद भाई अब इसमें कोई शक नहीं की आपने अपनी निष्पक्षता पूरी तरह दान कर दी हे अब भी सपोर्ट दिया था मेने चेक किया तो पाया की आपने तभी तक केजरी को सपोर्ट दिया जब तक वो कांग्रेस की जड़ो में मट्ठा डाल रहे थे जैसे ही केजरी सफल होकर मोदी की तरफ घूमे वैसे ही आप केजरीवाल के जानी दुश्मन हो गए बहुत अफ़सोस
माफ़ी चाहूंगा ऊपर गलत पेस्ट हो गया सही इस तरह हे ———- पि के से मुझे भी निराशा ही हुई ये सुनकर की प्लोट वाही हे औ एम जी वाला लेकिन औ एम जी का तो कोई विरोध नहीं हुआ था तो इस बार हंगमा क्यों ? अगर इसमें आमिर खान न होते तो कोई ध्यान भी ना देता असल में आमिर शारुख सलमान की अथाह लोकप्रियता ( पचीस साल लगातार नाट आउट ) से हिन्दू कटरपन्तियो की बहुत जान जलती हे ( और पाकिस्तानी कटटरपन्तियो की भी ) आज से नहीं पंद्रह साल पहले ही मेने महसूस किया था तो पि के के बहाने उन्हें अपनी भड़ास निकालने का मौका मिला फिर दूसरी बात की मोदी जी की सफलता के कारण हिन्दू कठमुल्ला बोरा गए हे जब उन्होंने देखा की एक व्यक्ति साम्प्रदायिकता की सीढ़ी से सबसे ऊँची कुर्सी तक पर जा बैठे हे तो उनका भी तम्मनाओ के तूफ़ान उठे हुए हे वो भी चाहते हे की हम भी कुछ बने किसी को नेता बनना हे किसी को मंत्री किसी को चंदा खीचना हे इसलिए ये पगलाय घूम रहे हे यही वज़ह हे ओ म जी की जगह पि के का विरोध करने की बाकी शरद भाई अब इसमें कोई शक नहीं की आपने अपनी निष्पक्षता पूरी तरह दान कर दी हे अब आप पूरी तरह संघ मोदी भाजपा के कार्यकर्त्ता की भूमिका में आ गए हे आपका ये कहना भी गलत हे की आपने केजरीवाल को भी सपोर्ट दिया था मेने चेक किया तो पाया की आपने तभी तक केजरी को सपोर्ट दिया जब तक वो कांग्रेस की जड़ो में मट्ठा डाल रहे थे जैसे ही केजरी सफल होकर मोदी की तरफ घूमे वैसे ही आप केजरीवाल के जानी दुश्मन हो गए बहुत अफ़सोस
हयात भाई आपने केजरीवाल जी के सम्बंध मे हमारे बारे मे क्या चेक किया और क्या निष्कर्ष निकाला उसके लिये आप पूरी तरह आज़ाद है और ये आपका हक है इस पर कोई सवाल नही पर अपनी बात सामने रखने का हक हमे भी है और केजरीवाल जी से रास्ते अलग करने की वजह उनके द्वारा बार-2 जलेबी बन जाना था ….शीला दीक्षित जी के खिलाफ 370 पेजो का सुबूत उन्होने दफन कर दिया / प्रधान मंत्री बनने के लालच के चलते उसी जनता के भरोसे को 49 दिनो मे ठोकर मार कर निकल गये जिससे बार-2 चोटी-2 बातो पर राय मांगते थे (अनगिनत पायंट्स दे सकते है) ….
अकेले हम ही क्या उनसे तो उनके संस्थापक मेम्बर भी दूर हो गये ….सारे लोग गलत और केजरीवाल जी सही ?? ऐसा तो नही हो सकता ?? …रही बात मोदी और भाजपा की तो ये हम ही थे जो एम्स के ईमानदार चीफ विजिलेंस ऑफीसर के खिलाफ दिख रही मोदी सरकार से असहमत थे पर इंसान तो अपने काम आने वाली बातो को ही देखता है :)…….
हयात भाई माफ कीजिये मगर इस बार आपके अंदर का मुसलमान भी थोड़ी बहुत अंगड़ाइया ले रहा है 🙂
शुक्र हे उमीद हे शरद भाई की ये बात वहाबशिराज़ साहब और क्या नाम था नेहाल सगीर साहब भी सुनेगे और बिलकुल शरद भाई में मुस्लिम भी हु हिंदुस्तानी भी हु सय्यद भी सुन्नी भी हु अपनी सभी पहचान और ”अंगड़ाई ” पर में अटल हु मुझे गर्व हे बस ये हे की किसी और की पहचान से मेरी अंगड़ाई की कोई लड़ाई नहीं हे यहाँ तक की आपने देखा होगा की हाल ही में जब मोहर्रम और ईदमिलाद के जुलूसों को लेकर कुछ विवाद हुए तो मेने लिखा की हम देवबंदी मुस्लिम ना कोई जुलुस निकालते हे ना किसी जुलुस का हिस्सा बनते हे ये देवबंदी पहचान भी मुझे अज़ीज़ हे देखे afzal khan
January 5, 2015
नरोत्तमस्वामी
आप का खबर की खबर में स्वागत है .
सिर्फ मुसलमानो के जुलुस में हंगामा नहीं होता है . और भी धर्मो के जुलुस में इस से भी ज्यादा हंगामा होता है . आप को भी मालूम है के मुसलमानो के साल में १-२ जुलिस निकलता है और हिन्दुओ के साल में २०-२५ धार्मिक जुलुस निकलते है . सच बात है के धर्म के नाम पे कोई भी लड़ाई , झगड़ा या दंगा करता है वे सभी दोषी है . इस को धर्म से न जोड़े .सिकंदर हयात
January 6, 2015
भारतीय उपमहादीप में ये जुलुस का चक्कर बहुत ही ख़राब हे यहाँ आबादी बहुत ज़्यादा हे हर जगह विभिन्न समाज के लोग रहते हे अब होता यही हे की जुलुस का हिस्सा बनकर कुछ असामाजिक तत्व अपनी कुंठाय निकालते हे ये कुछ कायर असामाजिक तत्व समूह का हिस्सा बनकर ही अपनी सड़ियल बहादुरी दिखाते हे . बारिश के महीने में तो ये ”जुलुस ” बनकर पुलिस तक पर धोस दिखाते हे सभी गाड़ियों को नई नवेली बहु की तरह सिमट कर चलना पड़ता हे अच्छा अफज़ल भाई जितना की में जानता हु की हम सुन्नी देवबंदी लोग तो न कोई जुलूस निकलते हे ना ही किसी जुलुस का हिस्सा बनते हे
हयात भाई अब एक बात पूरी गंभीरता से आपसे और इस साइट के मुस्लिम पाठको से…….
” अपने धार्मिक मामलो मे रत्ती भर सुधार पर भड़कने वाले मुसलमान हर साइट पर हर ब्लॉग मे गैर मुस्लिमो के धार्मिक और सामाजिक मामलो पर क्यो अपनी राय देते है ” ??
ऐसे लोग जब आप अपने बारे मे कुछ सुन नही सकते तो दूसरो के बारे मे बोलने का कोई हक नही है
शरद भाई केजरी ने जो किया सो सही किया कोंग्रेसी नेता बार बार समर्थन खीचने की वैसे ही बात कर रहे थे केजरीवाल ने सत्ता छोड़ कर दोबारा चुनावी भट्टी में ले जाकर उन्हें ऐसा सबक सिखाया की फिर जुर्रत नहीं करेंगे शीला जी तो अभी से समर्थन दे रही हे जो किया सही किया भूल केजरीवाल से अनुभवहीनता के कारण यही हो गयी की उन्होंने बेकार में ही मोदी जी से पंगा और निशाना बना लिया ये हिमालयी भूल थी क्योकि पुरे देश में कांग्रेस मनमोहन विरोधी लहर चल रही थी आप को भी उसकी की फसल काट कर लोकसभा में बीस चालीस सीटें लेनी थी यही गलती हो गयी खेर इंसान गलतियों से ही सीखता हे आगे केजरीवाल का भविष्य उज्वल हे मुझे उमीद हे की अगली सरकार नितीश केजरी वाम की होगी जिसे राहुल बाहर से समर्थन देंगे यही बेहतर होगा
गलतियो से सबक इंसान सीखते है केजरीवाल साहब सरीखे तानाशाह नही 🙂 एक अकेले आदमी के जिद्दीपन की वजह से देश की राजनीति का विकल्प बन पाने की ताकत रखने वाली “आम आदमी पार्टी” को रिवर्स गियर लग गया है ?? सारे बड़े नाम केजरीवाल जी की तुनकमिजाजी की वजह से पार्टी छोड़ चुके है और अब “तुम दिन को कहो रात हम रात कहेंगे” वाले ही बचे है …..मगर केजरीवाल जी फिर भी कोई सबक सीखने के लिये तैयार नही है ??
बीजेपी की तरफ से दिल्ली के मुख्यमंत्री के नाम की कोई घोषणा नही हुई मगर केजरी साहब ने पहले दिल्ली के मुख्यमंत्री उम्मीदवार के लिये “बीजेपी की तरफ से” कभी जगदीश मुखी और कभी स्म्रति ईरानी के पोस्टर दिल्ली मे खुद अपनी तरफ से चिपका मारे ?? क्या इसी को अनुभव कहते है ??
” अपने धार्मिक मामलो मे रत्ती भर सुधार पर भड़कने वाले मुसलमान हर साइट पर हर ब्लॉग मे गैर मुस्लिमो के धार्मिक और सामाजिक मामलो पर क्यो अपनी राय देते है ” ?? ”” आपकी ये शिकायत जायज़ हे बाकी हम तो कभी हिन्दुओ के मामलात में दखल नहीं देते हे i
अरे भाईजान आपके बारे मे हमने या किसी ने कब सवाल उठाया है, वैसे भी किसी मुद्दे पर इक्का दुक्का लोगो की सहमति या असहमति से कोई खास फर्क पड़ता भी नही है उसमे चाहे आप हो या हम.
अभेी कुच् दिन पहले पकिसतान ” किब्ब्त” मे बत्लया गया था अल्लह और कुरआन का अप्मान सह सक्ते है लेकिन मुहम्मद् जेी का नहेी !
अमेरिका के सुप्रेीम कोर्त के लान मे मुहमम्द जेी का भेी चित्र ३० साल से बना हुआ है ! अप्ने को मुस्लिम कहलआने वाले और मुस्लिम देश इसका विरोध क्यो नहेी कर्ते बेचारे कार्तोूनिश्त् और उन्के १० सथियो केी हत्या कर देी जातेी है !
अतुल साहब लिखते हे Atul Garg to सिकंदर हयात • an hour ago
इसका एक मुख्या कारण ये भी है कि व्यंग्य, कार्टून, मुक्तक आदि साहित्य के एक विशेष वर्ग के लोगों लिए बनाए जाते हैं जो लोग इस भाषा का मर्म समझते हैं, और उत्तर-प्रत्युत्तर भी इसी भाषा में करते हैं, परन्तु शोसल मीडिया के अतिवाद के कारण ये मर्म-पूरक साहित्य ऐसे लोगो तक भी पहुँच रहा है जो इसके लायक कतई समझ नहीं रखते, इनमे हर धर्म के लोग शामिल हैं. और इन्ही के कारण साहित्य का नुक्सान हो रहा है, जब तक साहित्य पुस्तकालय और पुस्तिकाओं तक सीमित था तो ये उन्ही लोगों तक पहुँचता था जो इसमें झुकाव रखते थे इसीलिए पैसे और समय-खर्च करके इसे प्राप्त करते थे परन्तु आज इन्टरनेट और गैर-जिम्मेदार टीवी की वजह से ऐसे लोगो के पास पहले पहुँचता है जो इसके लायक कतई समझ नहीं रखते. इसलिए आवश्यकता कार्टून और व्यंग्य पर लगाम कसने की नहीं है वरन इसकी अनावश्यक सुगमता पर पुनर्विचार करने की है.