पीके रिलीज हुई ..देखी आपने? हमारी मान्यताओ को लेकर एक एलियन किस हिसाब से सोंचेगा ? जवाब की तलाश में भटकना नहीं होगा क्योंकि पीके आ गई. पेशावर सरीखी घटनाओं के प्रकाश में पीके का किरदार एक तत्कालिक जरुरत का जवाब बन कर आया है. महाकरोड़ क्लब की हालिया फिल्मो की तुलना में आमिर की फ़िल्म आपको निराशा नहीं करेगी..हालांकि लिखे जाने तक वो भी इसी क्लब की बन जाएगी.. अजीबोगरीब एलियन वाली यह फ़िल्म इंसानों की दुनिया की बात कर रही.पीके केवल एक एलियन का दुस्साहस नहीं…कहीं न कहीं वो लोगों की दबी ज़बान का उभरना भी कही जाएगी. ईश्वर की सत्ता पर जिरह करने वाला पीके उससे पूरी तरह इंकार नहीं करता बल्कि उसे दो किस्म का तस्लीम कर रहा ..बनाने वाला एवं बनाया हुआ. यह एलियन बनाए हुए की खुदाई पर सवाल खड़ा कर रहा. इस किस्म की बातें ना जाने कब से दिल में रही लेकिन ज़बान पर रुकी रहीं. फिल्म बड़ी बात सीधे-सरल तरीके से कह रही कि हर समस्या के मूल में एक आडम्बर होता है. जहां कहीं भी दुनिया में वो होगा समस्या जन्म लेगी. एक जबरदस्त भाव से शुरू होने वाली यह कहानी में पीके के लिए दुनिया एक अनजान जगह भर.. उसकी आंखों में एक अजीबोगरीब लेकिन प्यारा सी मासुम बात नजर आ रही… किसी एलियन को इंसानी शक्ल में देखना रोमांचकारी से काम नहीं था..धरती पर उसकी कहानी इसी अंदाज में शुरू हुई. उसका कोई नाम नहीं.. उसकी अजीबोगरीब हरकतें देख कर
सबको लगता है कि वो शराब पीके आया है, इसलिए उसका नाम पीके पड़ गया.
कहानी का जबरदस्त आकर्षण पीके के सतरंगी लिबास से नजर नहीं हटती लेकिन कहना होगा कि बहुत सी संभावनाएं बाकी रह गयी.. धरती पर आए एलियन पीके का चमत्कारी लाकेट धरती पर उतरते ही चोरी हो गया. वापस जाने के लिये उसे वाही लाकेट को तलाशना है…वही वापसी की कुंजी. इसी तलाश में उसे मालूम लगा कि इस दुनिया में भगवान की सत्ता चल रही. वही सर्व शक्तिमान उसे उसका खोया लाकेट दिला सकता है. अब शुरु होती है उस भगवान की खोज इसके बाद फिल्म और खोज बीच पीके (आमिर खान) की मुलाकात पत्रकार जग्गू (अनुष्का शर्मा) से होती है। जग्गू बेल्जियम से इण्डिया अपने प्रेमी सरफराज ( सुशांत राजपूत ) की खातिर आई थी..संयोग ने पीके एवं जग्गू को मिला दिया था.चमत्कारी लाकेट को स्वामी जी से हासिल करने में मददगार बनी.दोनों किस तरह स्वामी जी (सौरभ शुक्ला) से उस लाकेट को हासिल करेंगे यही कहानी है. रिमोट कंट्रोल के बिना वो अपने ग्रह वापस नहीं जा सकता. वो देखता है कि यहां लोग अपनी खोई चीज़ वापस पाने के लिए भगवान का दरवाज़ा खटखटाते हैं. वो भी अपनी फरियाद लेकर मंदिर, मस्जिद और गिरिजाघर में जाता है. लेकिन यहां उसके मन मे कई सवाल उठते हैं. यहीं से भगवान को समझने और उस तक पहुंचने का रास्ता तलाश करने का सफ़र शुरू होता है.
एक दृश्य में पीके भगवान की मूरत
बनाने वाले से पूछता है- आपने भगवान को बनाया या भगवान ने आपको? अगर
भगवान अपने भक्तों की बात सीधे सुनते हैं तो मूर्ति की क्या ज़रूरत? आमिर ख़ान पीके के किरदार में रमे हुए नजर आ रहे.
डायलाग…. जग्गू पीके से पूछ रही कि तुम्हारे ग्रह पे लोग नंगे कैसे रहते हैं? अजीब नहीं लगता ? पीके बाहर देखता है। बालकनी के बाहर एक कौवा दिखाई देता है। पीके उसे देखकर कहता है कि वो देखो- उस कौए को देखकर अजीब लगता है ? कहानी उमेश मेहरा की हालिया ओ माई गॉड से जरुर मेल खा रही लेकिन ट्रीटमेंट अलग किस्म का दिख रहा…एकदम नया नहीं फिर भी ताजा..खासकर आमिर खान जोकि फ़िल्म की जान हैं. दिल से फ़िल्म बनाने वाले फिल्मकार राजकुमार हिरानी को मनोरंजन में भी संवेदनशील सिनेमा बनाने का फन मालुम है. दिल खोलकर हंसाने व संवेदना देने में पीछे नहीं हटते … इस तर्ज पर पीके नाउम्मीद नहीं होने देती. आपने सोंचा था कि एक एलियन दुनिया को आइना दिखाएगा? जाति धर्म एवं सरहदें इन्सान की बनाई चीजें हैं.
हिरानी ने पीके को उमेश मेहरा की फ़िल्म का वर्जन नहीं होने दिया ..क्योंकि आमिर जो साथ रहे. पीके के एलियन किरदार पर आमिर की मेहनत कमाल से कम नहीं . सरल से प्रतीत होती यह एलियन की यह भूमिका उस किस्म की सरल भी नहीं. जो अनुभव हुआ वो अलग था फिर भी नया जोड़ने से इंकार नहीं किया जा सकता. काश हिरानी की यह फ़िल्म बहुत ज्यादा कहे बिना बहुत कहने वाली बन पाती. आजकल की फिल्मों के चलन में पीके बहुत नयी बात नहीं कहते हुए जरुरी बात कह रही…देखिए पीके अपनी भोजपुरी में क्या कह रहा..भगवान आप का अलग-अलग मैनेजर लोग अलग-अलग बात बोलता है..कौनो बोलता है सोमवार को फास्ट करो तो कौनो मंगल को, कौनो बोलता है कि सूरज डूबने से पहले भोजन कर लो तो कौनो बोलता है सूरज डूबने के बाद भोजन करो..कौना बोलता है नंगे पैर मंदिर में जाओ तो कौनो बोलता है कि बूट पहन कर चर्च में जाओ। कौन सी बात सही है, कौन सी बात लगत। समझ नहीं आ रहा है। फ्रस्टेटिया गया हूं भगवान.. कनफुजिया गया हूं… पीके की मासूम उलझनो में बंटते बिखरते समाज की चिंताएं हैं..
सांप बेरोजगार हो गये, अब आदमी काटने लगे।
कुत्ते क्या करे? तलवे, अब आदमी चाटने लगे।।।
अच्छा हुआ भगत सिंह तेरा चित्र
न आया नोटों पर,
वरना रौंदा जाता फ़िर मुन्नी के
कोठों पर,
तू बस वीरों के दिल मे रहेगा ; गांधी को रहने दे नोटों पर …
फिल्म Pk की समीक्षा में सैयद एस. तौहीद साहब लिखते हैं —-
“एक दृश्य में पीके भगवान की मूरत बनाने वाले से पूछता है- आपने भगवान को बनाया या भगवान ने आपको? अगर भगवान अपने भक्तों की बात सीधे सुनते हैं तो मूर्ति की क्या ज़रूरत? आमिर ख़ान पीके के किरदार में रमे हुए नजर आ रहे.”
साहब आपकी समीक्षा अच्छी है बेशक, मगर आपको लिखते वक़्त ध्यान रहा हो की हिन्दू धर्म मूर्तिपूजा को मानता है और उनका अपना तर्क है और यह की उपरवाले को ध्यान सरूप करने से मन केंद्रित रहता है वहीं ओमकार सकार और निराकार दोनों हैं। भागवत में कृष्ण कहते हैं — मैं समूचे जग में व्याप्त हूँ … तो विवेचना रूप से परे है। लेकिन आपने अपनी समीक्षा में भी उनके आस्थाओं पर इस्लाम को थोपने की कोशीश की।
साहब हमारा इस्लाम हमे अपने मज़हब के उसूल दूसरों पर थोपना तो नहीं सिखाता !
आपने वही किया जो Pk ने …
और तो सब ठीक हे मगर महिला पत्रकार का जहा जिक्र हो वहा उन्हें बरखा दत्त के ही गेट अप में दिखाना बहुत ही इरिटेटिंग लगता हे वो भी तब जब राडिया टेप के आलावा बरखा जी का बरसो से कोई नाम -काम भी नहीं दीखता हे फिर भी मुम्बईया लोग पता नहीं क्यों बरखा जी से अलग सोच नहीं पाते हे ऐसा लगता हे मानो बरखा जी कोई बहुत ही बड़ी तोप हो ? इनकी मदर भी बड़ी पत्रकार थी भारत में प्रतिभा मेहनत जमीनी संघर्ष से बहुत ज़्यादा दो ही चीज़ो से लोग कामयाब होते हे एक वंशवाद दूसरा की आप सही समय पर सही जगह पर पहुंच जाए बरखा जी सही समय पर शुरूआती टीवी न्यूज़ के दौर में जब कम्पीटीशन शून्य होगा में और फिर सही समय पर कारगिल पहुंच गयी थी ( वहा भी अफवाह ये भी हे की इनकी किसी गलती से एक दो सेनिको की जान पर बन आई थी कन्फर्म नहीं हु सुना हे ) बस नतीजा आज तक बरखा बहार जारी हे भारत में ये आम बात हे
फिल्म Pk की समीक्षा में सैयद एस. तौहीद साहब लिखते हैं —-
“एक दृश्य में पीके भगवान की मूरत बनाने वाले से पूछता है- आपने भगवान को बनाया या भगवान ने आपको? अगर भगवान अपने भक्तों की बात सीधे सुनते हैं तो मूर्ति की क्या ज़रूरत? आमिर ख़ान पीके के किरदार में रमे हुए नजर आ रहे.”
साहब आपकी समीक्षा अच्छी है बेशक, मगर आपको लिखते वक़्त ध्यान रहा हो की हिन्दू धर्म मूर्तिपूजा को मानता है और उनका अपना तर्क है और यह की उपरवाले को ध्यान सरूप करने से मन केंद्रित रहता है वहीं ओमकार सकार और निराकार दोनों हैं। भागवत में कृष्ण कहते हैं — मैं समूचे जग में व्याप्त हूँ … तो विवेचना रूप से परे है। लेकिन आपने अपनी समीक्षा में भी उनके आस्थाओं पर इस्लाम को थोपने की कोशीश की।
साहब हमारा इस्लाम हमे अपने मज़हब के उसूल दूसरों पर थोपना तो नहीं सिखाता !
आपने वही किया जो Pk ने …
कमाल है PK सिर्फ हिन्दुओँ कि समाज कि बुराइ दिखाता है ठिक है भाइ बुरा आखिर बुरा होता है पर जिस मजहब कि जमात हि बुराई से सुरु होता है उसका क्यू नहीँ दिखाता ?Mehnaz khan kyu jhuth bolte ho ek eslam hi hai jo apna kanun sb pe thopna chahta hai मैँ आज तक किसी भि इस्लामिक को सही उत्तर देते नही देखा इस्लाम के बारे मेँ
ये सिर्फ यहीँ कहते है इस्लाम पाक है बस और ये कुछ नही जानते है हद है इनकी झुठी बकचोदी की agar eslam pak hai to islam manne wale etne napak kyu hai?
इस्लाम की जमात मे आधे ज्यादा से
ISIS,अलकायदा,हुजी ,हमास,IM,लश्कर ETC इन हरमजादो को कभी मै मँदिर जाते या भगवान कि पुजा करते नहीँ सुना चर्च जाते नहीँ सुना बल्की ये वहीँ लोग है जो मस्जिद मे अजान करते है कुरान मानते है शरिया मानते है मुहम्मद को मानते है तो जबाब दो तो ये किस मजहब के लोग ऐसा करते हैँ….तो मैँ क्यु ना कहु कि इस्लाम बुराइ करने वालो का धर्म है
कहा जा रहा है कि किसी दूसरे धर्म के बारे में ऐसी फिल्में क्यों नहीं बनायी जातीं। तो भाई यह देश हिंदू बहुल देश है। विसंगतियां सभी धर्मों में हैं, लेकिन बहुलता के कारण सबसे ज्यादा चर्चा भी हिंदुओं की विसंगतियों की ही होगी। यह स्वाभाविक है। पाकिस्तान मुस्लिम बहुल देश है। वहां बनी “बोल” या “खुदा के लिए” देख लें, फिर कहें कि अन्य धर्मों पर फिल्म नहीं बनतीं। “ओ माय गॉड” जिस कथानक पर बनी थी, उसी पर अंग्रेजी में आस्ट्रेलिया में ईसाई धर्म को लेकर “अ मैन हु स्यू द गॉड” बन चुकी थी। मनोज खरे
विपुल विजय रेगे
25 May at 14:57 ·
परमाणु देखने के लिए देशप्रेम और एक रुमाल की दरकार होगी। समीक्षा आज रात। गर्व है।
विपुल विजय रेगे is feeling blessed.
26 May at 19:12 ·
इस समीक्षा को पढ़ने से पहले ये जान लीजिए कि एनडीटीवी जैसे प्रभावी संस्थान ने परमाणु फ़िल्म को महज डेढ़ स्टार दिए हैं। हम समझ सकते हैं कि देश के लिए गौरव कमाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी का गुणगान उनसे सहा नहीं जाएगा। एक खबर ये भी थी कि आईपीएल इस फ़िल्म का बिजनेस प्रभावित कर रहे हैं। जाइये, एक प्रेरणादायक फ़िल्म देखकर इसे सफलता के शीर्ष पर पहुंचाइये।
देशप्रेम में डूबे कैप्टन रैना जैसे भारतीयों की कहानी कहती है ‘परमाणु’!
….
निर्देशक अभिषेक शर्मा की फिल्म ‘परमाणु: द स्टोरी ऑफ़ पोखरण’ का ये दृश्य हमें उस भारत के फ्लैशबैक में ले जाता है, जहाँ परमाणु परीक्षण करने की बात करना चुटकुले के समान थी। जॉन अब्राहम की ये फिल्म पोखरण परीक्षण से पहले की परिस्थितियों से प्रारम्भ होती है और आखिर में भारत की गर्व भरी उपलब्धि पर समाप्त होती है।—————————————–ल्म समीक्षा : परमाणु
फिल्म समीक्षा
फ़िल्मी राष्ट्रवाद का नवाचार
परमाणु
-अजंय ब्रह्मात्मज
हिंदी फिल्मों में राष्ट्रवाद का नवाचार चल रहा है। इन दिनों ऐसी फिल्मों में किसी घटना,ऐतिहासिक व्यक्ति,खिलाड़ी या प्रसंग पर फिल्में बनती है। तिरंगा झंडा,वतन या देश शब्द पिरोए गाने,राष्ट्र गर्व के कुछ संवाद और भाजपाई नेता के पुराने फुटेज दिखा कर नवाचार पूरा किया जाता है। अभिषेक शर्मा की नई फिल्म ‘परमाणु’ यह विधान विपन्नता में पूरी करती है। कल्पना और निर्माण की विपन्नता साफ झलकती है। राष्ट्र गौरव की इस घटना को कॉमिक बुक की तरह प्रस्तुत किया गया है। फिल्म देखते समय लेखक और निर्देशक के बचकानेपन पर हंसी आती है। कहीं फिल्म यूनिट यह नहीं समझ रही हो कि दर्शकों की ‘लाफ्टर’ उनकी सोच को एंडोर्स कर रही है। राष्ट्रवाद की ऐसी फिल्मों की गहरी आलोचना करने पर राष्ट्रद्रोही हो जाने का खतरा है।
हो सकता है कि यह फिल्म वर्तमान सरकार और भगवा भक्तों को बेहद पसंद आए। इसे करमुक्त करने और हर स्कूल में दिखाए जाने के निर्देश जारी किए जाएं। इे राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मनित किया जाए और फिर जॉन अब्राहम को श्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार सूचना एवं प्रसारण मंत्री के हाथें दे दिया जाए। इन सारी संभावनाओं के बावजूद ‘परमाणु’ महत्वपूर्ण विषय पर बनी कमजोर फिल्म है। इस विषय का वितान कुछ किरदारों और घरेलू शक-ओ-शुबहा में समेट कर लेखक-निर्देशक गंभीर विषय के प्रति अपनी अपरिपक्वता जाहिर की है। आवश्यक तैयारी और निर्माण के संसाधनों की कमी प्रोडक्शन में नजर आती है। न्यूक्लियर टेस्ट के लिए बना लैब किसी टेलीफोन एक्सचेंज की तरह लगता है। ‘चेज’ का सीक्वेंस किसी पाकेटमार को पकड़ने के लिए गली के मुहाने पर रगेदते पड़ोसी की याद दिलाता है। सीआईए और आईएसआई के एजेंट कार्टून चरित्रों सरीखे ही हरकतें करते हैं। उनके लिए भारतीय सीमा में मुखबिरी करना कितना आसान है? दर्शक जान चुके हैं,फिर भी वह फिल्म के हीरो को बताता है कि मैं ‘वेटर’ नहीं हूं। मियां-बीवी के झगड़े का लॉजिक नहीं है। और 1998 में ‘महाभारत’ का प्रसारण…शायद रिपीट टेलीकास्ट रहा होगा।
लेखक-निर्देषक ने सच्ची घटनाओं के साथ काल्पनिक किरदारों को जोड़ा है। बाजपेयी,नवाज शरीफ और क्लिंटन वास्तविक हैं। उनके पुराने फटेज से फिल्म को विश्वसनीयता दी गई है। यह अलग बात है कि स्क्रिप्ट में उनके फुटेज गूंथने में सफाई नहीं रही है। यों जॉन अब्राहम ने पहले ही बता दिया है कि ‘इस फिल्म में दिखाई गई वास्तविक फुटेज का लक्ष्य सिर्फ कहानी को अभिलाषित प्रभाव देना है’।
प्रधान मंत्री बाजपेयी के सचिव(ब्रजेश मिश्रा) की भूमिका में बोमन ईरानी प्रभावित नहीं करते। फिल्म के नायक जॉन अब्राहम के सहयोगी कलाकारों के चुनाव में उनकी अभिनय क्षमता का खयाल नहीं रखा गया है। सिर्फ बुजुर्ग किरदार को निभा रहे अभिनेता ही याद रह जाते हैं। डायना पेटी जैसी बेढब सैन्य अधिकारी टीम की कमजोर कड़ी हैं। उनकी बीवी की भूमिका निभा रही अभिनेत्री को कुछ नाटकीय दृश्य मिले हैं,जिनमें वह निराश नहीं करतीं। रहे जॉन अब्राहम तो उन्होंने अपनी सीमाओं में बेहतरीन प्रदर्शन किया है। भावभिव्यक्ति के संकट से वे निकल नहीं सके हैं।
इन कमियों के बावजूद जॉन अब्राहम और अभिषक शर्मा की तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने घिसी-पिटी कहानी के दायरे से निकल कर कुछ अलग करने की कोशिश की है। उनके पास पर्याप्त साधन-संसाधन होते और स्क्रिप्ट पर थोड़ी और मेहनत की गई होती तो यह उल्ल्ेखनीय फिल्म बन जाती। उनका ध्येय प्रश्ंसनीय है।
अवधि – 129 मिनट
** दो स्टार