एक तरफ विकास और दूसरी तरफ हिन्दुत्व। एक तरफ नरेन्द्र मोदी दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। एक तरफ संवैधानिक संसदीय राजनीति तो दूसरी तरफ हिन्दू राष्ट्र का ऐलान कर खड़ा हुआ संघ परिवार। और इन सबके लिये दाना पानी बनता हाशिये पर पड़ा वह तबका, जिसकी पूरी जिन्दगी दो जून की रोटी के लिये खप जाती है। तो अरसे बाद देश की धारा उस मुहाने पर आकर थमी है जहां विकास का विजन और हिन्दुत्व की दृष्टि में कोई अंतर नजर नहीं आता है। विकास आवारा पूंजी पर टिका है तो हिन्दुत्व भगवाधारण करने पर जा टिका है । इन परिस्थितियों को सिलसिलेवार तरीके से खोलें तो सत्ताधारी होने के मायने भी समझ में आ सकते हैं और जो सवाल संसदीय राजनीति के दायरे में पहली बार जनादेश के साथ उठे हैं, उसकी शून्यता भी नजर आती है। मसलन मोदी, विकास और पूंजी के दायरे में पहले देश के सच को समझे। यह रास्ता मनमोहन सिंह की अर्थनीति से आगे जाता है।
मनमोहन की मुश्किल सब कुछ बेचने से पहले बाजार को ही इतना खुला बनाने की थी, जिसमें पूंजीपतियों की व्यवस्था ही चले। लेकिन कांग्रेसी राजनीति साधने के लिये मनरेगा और खाद्य सुरक्षा सरीखी योजनाओं के जरिए एनजीओ सरीखी सरकार दिखानी थी। नरेन्द्र मोदी के लिये बाजार का खुलापन बनाना जरुरी नहीं है बल्कि पूंजी को ही बाजार में तब्दील कर विकास की ऐसी चकाचौंध तले सरकार को खड़ा करना है, जिसे देखने वाला इस हद तक लालायित हो जहां उसका अपना वजूद, अपना देश ही बेमानी लगने लगे। यानी ऊर्जा से लेकर इन्फ्रास्ट्रक्चर और हेल्थ, इंश्योरेंस,शिक्षा,रक्षा से लेकर स्वच्छ गंगा तक की किसी भी योजना का आधार देश की जनता नहीं है बल्कि सरकार के करीब खड़े उधोगपति या कारपोरेट के अलावा वह विदेशी पूंजी है जो यह एलान करती है कि उसकी ताकत भारत के भविष्य को बदल सकती है। और बदलते भारत का सपना जगाये विकास की यह व्यवस्था सौ करोड़ जनता को ना तो भागीदार बनाती है और ना ही भागेदारी कीकोई व्यवस्था खड़ा करती है। यानी हालात बदलेंगे या बदलने चाहिये, उसमें जनता की भागेदारी वोट देने के साथ ही खत्म हो गयी और अब सरकार की नीतियां भारत को विकसित बनाने की दिशा में देश से बाहर समर्थन चाहती है।
बाहरी समर्थन का मतलब है विदेशी निवेश। और विदेशी निवेश का मतलब है देशवासियों तक यह संदेश पहुंचाना कि आगे बढ़ने के लिये सिर्फ सरकार कुछ नहीं कर सकती बल्कि जमीन से लेकर खनिज संपदा और जीने के तरीकों से लेकर रोजगार पाने के उपायों में भी परिवर्तन करना होगा। क्योंकि सरकार तबतक कुछ नहीं कर सकती जब तक देश नहीं बदले । बदलने की इस प्रक्रिया का मतलब है खनिज संपदा की जो लूट मनमोहन सिंह के दौर में नजर आती थी वह नरेन्द्र मोदी के दौर में नजर नहीं आयेगी क्योंकि लूट शब्द नीति में बदल दिया जाये तो यह सरकारी मुहर तले विकास की लकीर मानी जाती है। मसलन जमीन अधिग्रहण में बदलाव, मजदूरों के कामकाज और उनकी नौकरी के नियमों में सुधार, पावर सेक्टर के लिये लाइसेंस में बदलाव, खादान देने के तरीकों में बदलाव, सरकारी योजनाओं को पाने वाले कारपोरेट और उद्योगपतियों के नियमों में बदलाव। यहां यह कहा जा सकता है कि बीते दस बरस के दौर में विकास के नाम पर जितने घोटाले, जितनी लूट हुई और राजनीतिक सत्ता का चेहरा जिस तरह जनता को खूंखार लगने लगा उसमें परिवर्तन जरुरी था। लेकिन परिवर्तन के बाद पहला सवाल यही है कि जिस जनता में जो आस बदलाव को लेकर जगी क्या उस बदलाव के तौर तरीकों में जनता को साथ जोड़ना चाहिये या नहीं। या फिर जनादेश के दबाव में जनता पहली बार इतनी अलग थलग हो गयी कि सरकार के हर निर्णय के सामने खड़े होने की औकात ही उसकी नहीं रही और सरकार बिना बंदिश तीस बरस बाद देश की नीतियों को इस अंदाज से चलाने, बदलने लगी कि वह जो भी कर रही है वह सही होगा या सही होना चाहिये तो यही से एक दूसरा सवाल उसी सत्ता को लेकर खड़ा होता है जिसमें पूर्ण बहुमत की हर सरकार के सामने यह सवाल हमेशा से रहा है कि देश का वोटिंग पैटर्न उसके पक्ष में रहे जिससे कभी किसी चुनाव में सत्ता उसके हाथ से ना निकले या सत्ता हमेशा हर राज्य में आती रहे। कांग्रेस का नजरिया हमेशा से ही यही रहा है। इसलिये राजीव गांधी तक कांग्रेस की तूती अगर देश में बोलती रही और राज्यों में कांग्रेस की सत्ता बरकार रही तो उस दौर के विकास को आज के दौर में उठते सवालों तले तौल कर देख लें। यह बेहद साफ लगेगा कि कांग्रेस ने हमेशा अपना विकास किया।
यानी विकास का ऐसा पैमाना नीतियों के तहत विकसित किया, जिससे उसका वोट बैंक बना रहे। चाहे वह आदिवासी हो या मुसलमान। किसान हो या शहरी मध्यवर्ग। अब इस आईने में बीजेपी या मोदी सरकार को फिट करके देख लें। जो नारे या जो सपना राजीव गांधी के वक्त देश के युवाओं ने देखा उसे नरेन्द्र मोदी चाहे ना जगा पाये हों लेकिन सरकार चलाते हुये जिस वोट बैंक और हमेशा सत्ता में बने रहने के वोट बैंक को बनाने का सवाल है तो बीजेपी के पास हिन्दुत्व का ऐसा मंत्र है जो ऱाष्ट्रीयता के पैमाने से भी आगे निकल कर जनता की आस्था, उसके भरोसे और जीने के तरीके को प्रभावित करता है। लेकिन यह पैमाना कांग्रेस के एनजीओ चेहरे से कहीं ज्यादा धारदार है। धारदार इसलिये क्योंकि कांग्रेस के सपने पेट-भूख, दो जून की रोजी रोटी के सवाल के सामने नतमस्तक हो जाते हैं लेकिन हिन्दुत्व का नजरिया मरने-मारने वाले हालात में जीने से कतराता
नहीं है।
इसकी बारीकी को समझें तो दो धर्म के लोगों के बीच का प्रेम कैसे लवजेहाद में बदलता है और मोदी सरकार की एक मंत्री रामजादा और हरामजादा कहकर समाज को कुरेदती है। फिर ताजमहल और गीता का सवाल रोमानियत और आस्था के जरीये संवैधानिक तौर तरीको पर अंगुली उठाने से नहीं कतराता। और झटके में सत्ता का असल चेहरा वोट बैंक के दायरे को बढाने के लिये या फिर अपनी आस्थाओं को ही राष्ट्रीयता के भाव में बदलने के लिये या कहें राज्य नीति को ही अपनी वैचारिकता तले ढालने का खुला खेल करने से नहीं कतराता। और यह खेल खेला तभी जाता है जब कानून के रखवाले भी खेलने वाले ही हों। यानी सत्ता बदलगी तो खेल बदलेगा। और इस तरह के सियासी खेल को संविधान या कानून का खौफ भी नहीं हो सकता है क्योंकि सत्ता उसी की है। यानी अपने अपने दायरे में अपराधी कोई तभी होगा जब वह सत्ता में नहीं होगा। याद कीजिये तो कंधमाल में धर्मातरण के सवाल पर ही ग्राहम स्टेन्स की हत्या और बजरंग दल से जुड़े दारा सिंह का दोषी होना। 2008 में उडीसा में ही धर्मांतरण के सवाल पर स्वामी लक्ष्मणनंदा की हत्या। ऐसी ही हालत यूपी, बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, झारखंड, कर्नाटक, केरल ,गुजरात में धर्मांतरण के कितने मामले बीते एक दशक के दौर में सामने आये और कितने कानून के दायरे में लाये गये। जिनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई हुई हो। ध्यान दें तो बेहद बारीकी से धर्म और उसके विस्तार में दंगों की राजनीति ने सियासत पर हमला भी बोला है और सियासत को साधा भी है। चाहे 1984 का सिख दंगा हो या 1989 का भागलपुर दंगा। या फिर 2002 में गुजरात हो या 2013 में मुजफ्फरनगर के दंगे। असर समाज के टूटन पर पड़ा और आम लोगो की रोजी रोटी पर पड़ा। लेकिन साधी सियासत ही गयी। तो फिर 2014 में सियासत की कौन सी परिभाषा बदली है । दरअसल पहली बार गुस्से ने सियासत को पलटा है। और विकास को अगर चंद हथेलियों तले गुलाम बनाने की सोच या मजहबी दायरे में समेटने की सोच जगायी जा रही हो तो यह खतरे की घंटी तो है ही। क्योंकि राष्ट्रवाद की चाशनी में कभी आत्मनिर्भर होने का सपना जगाने की बात हो या कही हिन्दुत्व को जीने का पैमाना बताकर सत्ता की राहत देने की सौदेबाजी का सवाल, हालात और बिगडेंगे, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। और यह हालात आने वाले वक्त में सत्ता की परिभाषा को भी बदल सकते है इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता।
जब से मोदी जी पी एम बने हे तब से पुरे देश ही नहीं बल्कि पुरे भारतीय उपमहादीप में में कटटरपन्तियो के हौसले बुलंद हे इन सबने गंद मचा दी हे ”३०० ” फिल्म का एक डाइलोग हे जब स्पार्टा का राजा मठाधीशो के पास जाता हे ” मनहूस सड़ी सूरत वाले स्पार्टा के पुराने जहालत के दिनों के बचे हुए ये बूढ़े गिद्ध कमीने अकड़ू बदशक्ल और भरष्ट ”
ऐसी बात नहीं हे की मोदी अच्छा काम नहीं कर सकते हे वो इन कटटरपन्तियो पर काबू नहीं पा सकते वो पाकिस्तान से शांति पर्किर्या नहीं आगे बढ़ा सकते वो पूंजीवादी पिशाचों को नहीं कंट्रोल कर सकते कर सकते हे कर सकते हे मगर डरते हे करने पर चुनाव हारना होगा क्योकि जिन पर मोदी हमला करेंगे वही मोदी का सरमाया हे उन्होंने ही उन्हें पि एम बनाया हे बस मोदी जी की यही अगला भी चुनाव जीतने की हवस ही असल समस्या हे
It is too early to comment on Modi government. No body can deny that some groups are trying to create some problem but we should also admit that Center government is not supporting any one of them.
Rss ka bjp s rista jag jahir hai.. Nd ye jo b kar rhe usme bjp govt ki silent permission hai ye to man na padega apko bhai, aakhir kyu nhi pm sahab in sab nafrat failane wale incidents par koi byan dete hai… Sochne wali bat hai…
रसोई गैस सिलिंडरों पर सब्सिडी पाने के लिए आधार नंबर का होना जरूरी नहीं है. अब आप केवल अपने बैंक अकाउंट के जरिए भी सब्सिडी के पा सकते हैं. यानी अब आप एलपीजी सिलिंडरों पर दो तरीके से सब्सिडी के पैसे ले सकते हैं. अगर आपके पास आधार नंबर है तो उसे डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर योजना से जोड़ दिया जाएगा. अगर आधार नहीं है तो आपके बैंक अकाउंट में स्कीम के जरिए पैसे पहुंचेंगे. पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने सोमवार को लोकसभा में यह जानकारी दी.
पेट्रोलियम मंत्री ने खुद एक परेशान ग्राहक को कॉल किया
पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने बताया कि इस विकल्प को इसलिए दिया जा रहा है ताकि आधार संख्या नहीं होने पर कोई एलपीजी उपभोक्ता सब्सिडी से वंचित नहीं रहे. न्होंने ग्राहकों को होने वाली समस्या का जायजा लेने के लिये स्वयं एक परेशान ग्राहक को कॉल किया और उसकी समस्या को जाना. प्रधान ने अपने मोबाइल फोन से लुधियाना के एक ढिल्लों नाम के व्यक्ति को कॉल किया. उन्होंने मंत्रालय की वेबसाइट पर नकद सब्सिडी नहीं मिलने की शिकायत की थी. उसके बाद उन्होंने बुकिंग और डिलीवरी स्थिति के साथ योजना की औचक जांच पड़ताल की.
योजना का नया नाम ‘पहल’
इस योजना को भले ही पिछली यूपीए सरकार ने शुरू किया हो. लेकिन अब ‘डीबीटीएल’ का नाम बदलकर ‘पहल’ रखा गया है. इस योजना से आधार की अनिवार्यता को हटाने के लिए इसे संशोधित किया गया. 15 नवंबर को देश के 54 जिलों में इसे लागू किया गया. जनवरी 2015 से यह नियम देशभर में शुरू किया जाएगा. इसके अलावा अब http://www.mylpg.in पर हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं में भी जानकारी दी जाएगी.
जनवरी से एलपीजी सब्सिडी सीधे ग्राहकों के बैंक खातों में
नए साल की शुरूआत से देशभर में एलपीजी ग्राहकों को नकद सब्सिडी उनके बैंक खातों में मिलेगी ताकि वो रसोई गैंस सिलेंडर बाजार भाव पर खरीद सकें. सरकार को उम्मीद है कि इससे सरकार करीब 10 हजार करोड़ रुपए की लीकेज रोक सकेगी. साथ ही 15 फीसदी तक रसोई गैस की फिजूलखर्जी पर भी लगाम लग सकती है.
14 फरवरी तक ‘ग्रेस पीरियड’, मिलेंगे सब्सिडी वाले सिलिंडर
जो उपभोक्ता इस योजना से अभी तक नहीं जुड़े हैं उन्हें तीन महीने का ग्रेस पीरियड मिलेगा. इस दौरान उन्हें सब्सिडी वाले सिलेंडर मिलेंगे. इसके बाद उन्हें तीन महीने का और पार्किंग पीरियड मिलेगा. इस दौरान उन्हें सिलेंडर मार्केट रेट पर खरीदना होगा. फिर इन तीन महीनों में उन्होंने जितने रसोई गैस सिलेंडर का इस्तेमाल किया था उतने की कुल सब्सिडी के पैसे उनके खाते में डाल दिए जाएंगे.